Wednesday, December 30, 2009

............अलविदा-2009............


साल 2009 समाप्ति पर है, अगर हम एक उचटती हुई नज़र अपने देश और क़ौम के हालात पर डालें तो अंदाज़ा होगा कि जहां देश आतंकवाद की समस्या को लेकर परेशान रहा और हमारी केंद्रीय सरकार हर क्षण आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष करती नज़र आई, वहीं हमारी क़ौम के लिए भी कोई राहत का मुक़ाम नहीं था। अल्लाह का बड़ा करम और एहसान है कि पिछले वर्षों की तरह इस वर्ष हमारे युवकों को आतंकवादी कार्रवाइयों में इस तरह तो लिप्त नहीं दिखाया गया, जैसा कि एक धारणा बन गई थी। निःसंदेह यह सिलसिला अभी भी बंद तो नहीं हुआ है, मगर जिस तरह पिछले 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले ने हमारे दिलों को दहला कर रख दिया था और हम भयभीत थे। हर क्षण यह लगता था कि जिस तरह 11 जुलाई 2006 को मुम्बई लोकल ट्रेन में होने वाले बम धमाकों, 8 सितम्बर 2006 को मालेगांव बम धमाकों, 18 मई 2007 को हैदराबाद में मक्का मस्जिद बम ब्लास्ट और दिल्ली में 13 सितम्बर 2008 को हुए बम धमाकों के बाद बड़े पैमाने पर मुस्लिम युवकों की गिरफ़तारियां हुईं, उन्हें संदिग्ध एन्काउन्टर में मार दिया गया। 26 नवम्बर 2008 के इस आतंकवादी हमले के बाद तो ख़ुदा जाने और कितनी भयावह तस्वीर हमारे सामने होगी। लेकिन अल्लाह ने हमें इस शाप से बचा लिया, हम एक बार फिर उसका शुक्र अदा करते हैं। मुम्बई के इन आतंकवादी हमलों की जांच का काम तो जारी रहा, अलग-अलग दिशा में यह जांच जारी रही, मगर ऐसा कभी नहीं लगा कि भारतीय मुसलमानों को उसी तरह निशाना बनाया जा रहा है, जैसा कि इससे पहले नज़र आता था। निश्चय ही इसके लिए शहीद हेमंत करकरे बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने मालेगांव जांच द्वारा आतंकवाद का एक दूसरा चेहरा भी देश के सामने रखा। ‘‘रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा’’ ने भी हर क़दम पर यह कोशिश की कि सच्चाई को सामने रखने का अभियान जारी रहे।

साम्प्रदायिक शक्तियों द्वारा ‘वंदे मात्रम’ का प्रश्न एक बार फिर से उठाकर हमारे देश प्रेम पर प्रश्न चिन्ह लगाए गए। दारुलउलूम देवबंद को निशाना बनाया गया। यहां तक कि उस पवित्र शिक्षण संस्थान के पुतले भी जलाए गए। यह अत्यंत अफ़सोस का मुक़ाम है कि एक धर्मनिरपेक्ष देश में एक धर्मनिरपेक्ष सरकार से हम यह उम्मीद नहीं करते। इस मुद्दे पर भरपूर चर्चा जारी थी, इससे यह स्पष्ट होने लगा था कि ‘वंदे मात्रम’ के रचयिता की मन्शा क्या थी और उनका नॉविल ‘आनन्द मठ’ जिसका प्रमुख अंश यह गीत था, आख़िर उसे लिखे जाने का बुनियादी कारण क्या था। नॉविल के मुख्य अंशों का अध्ययन करने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि यह नाॅवेल अंग्रेज़ों के समर्थन में लिखा गया था और जहां स्पष्ट रूप से इस रचना को मुस्लिम विरोधी मानसिकता के मुखपत्र के रूप में देखा जा सकता है, वहीं यह नॉविल हिंदू समुदाय के पक्ष में भी नहीं था। इसलिए कि नाॅवेल का लेखक अंगे्रज़ों के सत्ता में आने से ख़ुश और संतुष्ट नज़र आता है। ‘‘रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा’’ द्वारा सामने लाए गए ख़ुलासे अगर अंतिम चरण तक पहुंच जाते तो अति संभव है कि सारे भारत की जनता जान जाती कि आख़िर विवाद की बुनियाद क्या है और क्यों साम्प्रदायिक मानसिकता के लोग बार-बार इस प्रश्न को उठाते हैं?

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के माइनोरिटी कैरेक्टर का मुद्दा वर्तमान वर्ष में भी अधर में पड़ा रहा। भारत सरकार कोई ठोस क़दम इस दिशा में नहीं उठा सकी। हालांकि यह उम्मीद थी कि इस बार चूंकि इस सरकार के वजूद में आने के पीछे अल्पसंख्यकों विशेष रूप से मुसलमानों की प्रमुख भूमिका रही है, इसलिए यह सरकार नरमी के साथ उन मामलों पर विचार करेगी, जिन्हें अभी तक ठंडे बस्ते में रखा गया है। हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि आने वाले साल 2010 में इस समस्या को हल किया जाएगा और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के माइनोरिटी कैरेक्टर को स्वीकार किया जाएगा लेकिन हम केवल उम्मीदों के सहारे बैठे नहीं रह सकते, इसके लिए हमें आवाज़ उठानी होगी मस्जिदों के मीनारों से भी, शिक्षण संस्थानों से भी, मीडिया के माध्यम से भी और हमारे धर्मनिरपेक्ष प्रतिनिधि जो संसद तथा विधानसभाओं में बैठे हैं, उनके द्वारा भी।

वर्तमान वर्ष चूंकि संसदीय चुनावों का वर्ष था और देखना यह था कि केंद्र में कोई धर्मनिरपेक्ष सरकार अस्तित्व में आती है, साम्प्रदायिक शक्तियों को सत्ता में आने का अवसर मिलता है या फिर टुकड़ों में बंटे तीसरे मोर्चे के लोगों को यह अवसर मिलता है। कांगे्रेस के नेतृत्व में देश को एक बार फिर धर्मनिरपेक्ष सरकार मिली और 6 दिसम्बर 1992 के बाद यह पहला अवसर है, जब मुसलमानों ने कांगे्रेस का खुले मन से समर्थन किया और साथ ही एक उल्लेखनीय बात यह भी रही कि अब तक मुसलमानों की हमदर्द और प्रतिनिधि समझी जाने वाली समाजवादी पार्टी ने कल्याण सिंह के मामले को लेकर मुसलमानों के मन में संदेह पैदा किए। मुसलमान उनसे नाराज़ हुए और यह नाराज़गी इतनी बढ़ी कि उन्हें मुसलमानों के समर्थन से हाथ धोना पड़ा। परिणामस्वरूप मुलायम सिंह यादव अपने उस फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए विवश हुए। हम इसे मुस्लिम एकता की एक शानदार कामयाबी समझते हैं। यह पहला अवसर था जब राजनीतिक दलों को मुसलमानों ने यह सोचने पर विवश किया कि हमें केवल वोटर न समझा जाए, हमारी भावनाओं का भी सम्मान किया जाए। अगर राजनीतिज्ञों के मन में यह बात घर कर गई है कि हम उनका हर फैसला सर झुका कर स्वीकार कर लेंगे तो यह बात मन से निकाल दें। अब कोई भी धोखा, कोइ भी लालच हमें अपने सिद्धांतों से समझौता करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता। लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट का एक लम्बे समय से इंतिज़ार था। कारण यह नहीं था कि उसके द्वारा कुछ ऐसे राज़ सामने आएंगे, जिनसे पर्दा उठने का बेचैनी से इंतिज़ार है, कुछ ऐसे रहस्योदघाटन होंगे जो कल्पना से बहुत दूर है, फिर भी इंतिज़ार इसलिए था कि सरकारें अभी तक बाबरी मस्जिद के अपराधियों को इस कारण से सज़ा नहीं दे पा रही थीं कि उनके पास दस्तावेज़ी सबूतों की कमी थी, लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट उस कमी को पूरा कर देगी और अब अविलंब अल्लाह के घर को ध्वस्त करने वालों को उनके अंजाम तक पहुंचाया जाएगा। लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट आने के बाद भी, संसद में इस पर चर्चा किए जाने के बावजूद भी हमें यह उम्मीद नज़र नहीं आती कि ऐसा संभव हो पाएगा। शायद इस देश की राजनीतिक व्यवस्था की सबसे बड़ी कमी है कि जहां अपराधी को सज़ा देने की कार्रवाई भी उनके लिए एक पुरस्कार सिद्ध हो सकती है, उन्हें और अधिक लोकप्रियता प्राप्त हो सकती है, एक विशेष दल उनके समर्थन में ज़मीन व आसमान एक कर सकता है, उनकी राजनीतिक स्थिति और सुदृढ़ हो सकती है, इसलिए दोष सिद्ध हो जाने पर भी इस मामले को ठंडे बस्ते में ही पड़ा रहने दिया जाए, इस पर अधिक बातचीत ही न की जाए। गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार और नरेंद्र मोदी का सत्ता में बने रहना शायद इन व्यवस्थागत राजनीतिक त्रुटियों का सबसे बड़ा उदाहरण है। हम न्यायालय का ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे कि अगर यह सिलसिला इसी तरह क़ायम रहा तो फिर किस तरह घर्मस्थल सुरक्षित रहेंगे और कैसे मानवता का नरसंहार रुकेगा? अगर हमारी सरकारें अपनी राजनीतिक मजबूरियों को भली-भांति जानती हैं तो फिर ऐसे आयोगों के गठन का क्या अर्थ? क्यों अपार धन राशि ख़र्च की जाती है? क्यों बरसों तक कार्रवाई जारी रखी जाती है? क्यों मासूम जनता की भावनाओं से खेला जाता है? अब भारत सरकार को यह तय करना होगा कि वह अब इस तरह के आयोग गठन करने का सिलसिला बंद करे या फिर उसके अंदर इतना साहस हो कि अपराधी चाहे जितना बड़ा और सशक्त हो उसे सज़ा भी दी जाए। हमारे लिए यह मुद्दा ध्यान देने योग्य कुछ इसलिए भी है कि अब तक जितने भी आयोग गठित हुए हैं, उनमें से अधिकांश बल्कि लगभग सभी आयोग अल्पसंख्यकों की बर्बादी, हत्या व लूटपाट और उनके धर्मस्थलों को ध्वस्त किए जाने से संबंधित हैं, तो क्या मान लिया जाए ज़ालिम अगर ज़ुल्म करता है तो इंसाफ़ दिलाने का वादा करने वाला भी उनका समर्थक ही साबित होता है।

मुस्लिम समुदाए की समस्याएं इतनी कम नहीं है कि उन्हें एक अभिभाषण में बयान किया जा सके या एक लेख में पूरा किया जा सके, इसके लिए समय का भी ध्यान रखना होता है और हमसे यह भी नहीं हो सकता कि हमारी बातचीत केवल हम तक सीमित रहे, इसलिए जितना हमारे लिए हमारी क़ौम महत्वपूर्ण है उससे अधिक हमारे लिए हमारा देश महत्वपूर्ण है। बातचीत को ख़तम करने से पहले आज हम भारत को दरपेश समस्याओं पर भी ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे। हमने बात आतंकवाद और आतंकवादी हमलों से शुरू की थी और इसकी समाप्ति भी हम इसी विषय के साथ करेंगे, मगर हम मुस्लिम समुदाय से अधिक अपने प्रिय देश भारत की सुरक्षा के लिए चिंतिंत हैं। इसलिए बात इसी रौशनी में करेंगे। अभी तक आतंकवाद की जो तस्वीर सारे भारत के सामने पेश की जा रही थी, वह यह थी कि कुछ भ्रमित युवक हैं, कुछ मुसलमानों या इस्लाम के नाम पर बनाए गए आतंकवादी संगठन हैं, जो पूरे भारत में आतंकवाद फैला रहे हैं और पाकिस्तान जो आतंकवादियों की सबसे बड़ी शरणस्थली है, वह अब ख़ुद अपनी ही आग में जल रहा है, लेकिन ताज़ा ख़ुलासे अब जो वास्तविकता बयान कर रहे हैं, वह बहुत भिन्न है कि इस विचार से भी भिन्न जिसका अभी हमने उल्लेख किया, यानी के यह भ्रमित मुस्लिम युवकों की प्रतिक्रिया है, मुस्लिम आतंकवादी संगठनों का शर्मनाक कारनामा है और अब यह कह सकते हैं कि हेमंत करकरे ने जो रहस्योदघाटन किए, आज की सच्चाई उससे भी आगे की कहानी बयान करती है। इसलिए अब हम सबको धर्म और समुदाय के भेदभाव के बिना, हम मुसलमान हों, हिंदू, सिख या ईसाई सबको एकजुट होकर अपने देश की सुरक्षा के लिए तैयार होना होगा। इसलिए कि आतंकवाद की इन कार्रवाइयों के पीछे जो असल शक्तियां नज़र आती हैं, वह कहीं अधिक ख़तरनाक हैं और उनके मंसूबे कहीं अधिक भयानक हो सकते हैं। हमें उन तक पहुंचने के लिए चाहिए मज़बूत इच्छा शक्ति और ऐसी ईमानदाराना कोशिश, जो दूध का दूध और पानी का पानी अलग करने का साहस रखती हो। इसलिए कि हमारा प्यारा देश पहले भी फिरंगियों का गुलाम हो चुका है और अब हमारी कोई भी चूक फिर हमारे देश के लिए एक बड़ा ख़तरा साबित हो सकती है, हम अल्लाह से दुआ करते हैं कि हमारे देश को किसी भी आंतरिक या बाहरी ख़तरे से सुरक्षित रखे। हम अल्लाह से दुआ करते हैं कि तमाम मानवता को हर बला व मुसीबत से सुरक्षित रखे और आने वाला साल हमारे लिए सुखद संदेश लेकर आए। हमारा देश अधिक शक्तिशाली हो, हम संगठित हों, हमारे बीच के मतभेद समाप्त हों और नए साल का सूरज हमारे जीवन में हम सब के लिए ऐसी रौशनी लेकर आए कि हमारी आने वाली पीढ़ियां भी आज के अंधेरे का एहसास न कर सकें।

जैसा कि मैंने अपने पाठकों की सेवा में निवेदन किया था, मेरा आज का लेख विशेष रूप से हमारे आदर्णीय इमामों के लिए होगा, ताकि नए साल में जुमा की नमाज़ के दौरान जब वह नमाज़ियों से ख़िताब कर रहे हों तो हम उन्हें कुछ ऐसा मवाद उपलब्ध कर सकें जिसका संबंध हमारी क़ौम से भी है और हमारे देश से भी। हमारी यह छोटी सी कोशिश आज इसीलिए है। हम जानते हैं कि हमारे आदर्णीय इमाम ज्ञान का ख़ज़ाना हैं, उनके पास जितनी दीनी और दुनियावी जानकारियां हैं, हम उनमें थोड़ी भी वृद्धि के लायक़ नहीं हैं, फिर भी हमें यह लगा कि अगर हम अपने दिल की आवाज़ उन तक पहुंचा सकेंगे तो यह हमारे दिल के सुकून के लिए होगा और हमें महसूस होगा कि मानो इस अवसर पर हमने भी अपना फ़र्ज़ अदा करने की एक कोशिश की।

नोटः- वादे के मुताबिक़ हमारा कल का लेख एक ऐसा ख़ुलासा करेगा जो न केवल आतंकवाद के चेहरे पर पड़ी नक़ाब उलट देगा बल्कि यह भी कि यह ख़ूनी खेल कब से और किस तरह चल रहा है, लेकिन हम में से किसी का ध्यान इस ओर अभी तक गया ही नहीं। ............

और अब सिलसिला साज़िश से परदा उठाने का

वर्ष 2009 के आख़री दिन अर्थात बृहस्पतिवार 31 दिसम्बर को प्रकाशित होने वाला मेरा लेख इनशाअल्लाह हमारे आदर्णीय इमामों के लिए तक़रीर का मवाद उपलब्ध कराएगा, यानी नव वर्ष के पहले दिन जुमा की नमाज़ से पूर्व जब वह देश को सम्बोधित कर रहे होंगे, तब भारत पर हो रहे आतंकवादी हमलों से संबंधित बातचीत करने के लिए.... मुस्लिम क़ौम के दामन पर लगे दाग़ को छुड़ाने के लिए ..... भारत के विरुद्ध षड़यंत्र रचने वालों तथा आतंकवादी हमलों में लिप्त असल अपराधियों को बेनक़ाब करने के लिए उनके पास इतने स्पष्ट प्रमाण होंगे, जिनकी अनदेखी किया जाना किसी के लिए भी संभव नहीं होगा। और इस प्रकार नव वर्ष का आरंभ हम राष्ट्रीय एकता का संदेश देने के लिए करेंगे जो इस समय की सबसे बडी़ आवश्यकता को पूरा करेगा और उसका आरंभ होगा मस्जिदों के मीनारों से। नमाज़ी जब अल्लाह की इबादत के बाद मस्जिदों से बाहर आएंगे और अपने देशवासियों के रू-बरू होकर उन्हें तथ्यों से भी अवगत कराएंगे और उनसे यह निवेदन भी कर सकेंगे कि आज हमारे देश का सम्मान और आज़ादी फिर एक बार ख़तरे में है, इसलिए यह सही समय है कि जब हम फिर एक बार स्वतंत्रता सेनानियों की तरह कंधे से कंधा मिलाकर अपने देश की सुरक्षा का संकल्प करें और इस साल के दौरान राष्ट्रीय एकता और देशप्रेम के गीतों के साथ अपनी यात्रा भी आरंभ करें और समाप्त भी।

26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले इस समय हमारे लिए जांच का विषय हैं और जितनी गहराई से हम इस पर रिसर्च करते जाते हैं, आश्चर्यजनक रहस्योद्घाटन सामने आते जाते हैं। 1 जनवरी 2010 शुक्रवार को प्रकाशित होने वाला मेरा लेख उन आतंकवादी गतिविधियों की एक ऐसी सच्चाई आपके सामने रखेगा जो सारे देश को चैंका देगी, यह तथ्य भारत सरकार को नए सिरे से इस दिशा में सोचने के लिए विवश कर देगा, जिस पर अभी तक ध्यान ही नहीं दिया गया है और हिंदू भाइयों के मन मस्तिष्क में अभी तक इन आतंकवादी घटनाओं से संबंधित जो चित्र बसाई गई है, वह उस पर एक बार फिर विचार करने के लिए मजबूर होंगे और अतिसंभव है कि फिर इस षड़यंत्र से पर्दा कुछ इस तरह उठे कि हमारे इस लेख में उन्हें असल अपराधियों का चेहरा साफ़-साफ़ नज़र आने लगे।
डेविड कोलमैन हेडली उर्फ़ दाऊद गीलानी मुसलमान है, यहूदी है या ईसाई है, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। वह पाकिस्तानी है या अमरिकी, इससे भी कोई अंतर नहीं पड़ता उसका संबंध लशकर-ए-तय्यबा से है, अलक़ाएदा से या सी।आई.ए से, इससे भी कोई अंतर नहीं पड़ता। चैंकिए मत, मानता हूं कि सी.आई.ए के साथ संबंध सिद्ध हो जाने से काफी अंतर पड़ता है, मगर अभी ज़रा रुकिए। हमारे सामने पहली बात यह होनी चाहिए कि वह, 26 नवम्बर 2008 को भारत पर हुए आतंकवादी हमले में लिप्त था, इसलिए साफ़ सामने दिखाई देने वाला वह आतंकवादी चेहरा है, जो मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमलों के लिए ज़िम्मेदार है। अब उसके बाद प्रश्न यह पैदा होगा कि क्या वह केवल अपनी इच्छा से, अपने निर्णय पर अपनी आतंकवादी मानसिकता के कारण इस हमले में लिप्त था या वह केवल एक मोहरा था, एक हथियार था? तो जब तक हम इन पर्दे के पीछे रहने वाले अपराधियों तक नहीं पहुंचेंगे, जो आतंकवादी हमलों के प्रेरक हैं, उस समय तक आतंकवाद पर नियंत्रण नहीं पा सकेंगे। मुहरे पिटते रहेंगे, मुहरे मिटते रहेंगे। प्रेरक नए मुहरे ईजाद करते रहेंगे, उनके नाम, उनका धर्म, उनकी राष्ट्रीयता हमारे लिए हर बार एक नया धोखा होगी, ताकि हम उनके बुने इस जाल में उलझ कर रह जाएं और जो असल अपराधी हैं उनके चेहरे पर नक़ाब यूं ही पड़ी रहे। इसलिए नक़ाब-कुशाई की खोज में जब हम हेडली (तहव्वुर हुसैन राना की चर्चा बाद में करेंगे) की कुण्डी तलाश करने बैठे और यह समझने की कोशिश की कि आख़िर वह इतनी सहजता से बार-बार हमारे देश में प्रवेश करने और आतंकवादी हमलों को अंजाम देने में कैसे सफल हो गया तो सच्चाई सामने आई। आइये नज़र डालते हैं हम अपनी कमियों और दूसरों की चालाकियों पर, जिनका ख़ुलासा अत्यंत सुन्दरता के साथ किया है श्री बी॰ रमन ने, जो केन्द्रीय सरकार के केबिनेट सचिवालय में अतिरिक्त सचिव रह चुके हैं और वर्तमान में इंस्टीट्यूट फार ट्रोपिकल स्टडीज़ चिन्नई में निदेशक के पद पर नियुक्त हैं। क्योंकि वह स्वयं एक ब्यूरोक्रेट/डिप्लोमेट हैं, इसलिए उन कमियों को भलीभांति उजागर कर सकते हैं जो पासपोर्ट और वीज़ा से संबंधित आम आदमी की पकड़ में नहीं आती। हम यह उल्लेख इत्यादि इसलिए भी इकट्ठा कर रहे हैं और प्रकाशित कर रहे हैं कि जिनके मन हमारी ओर से साफ़ नहीं हैं, वह स्पष्ट रूप में समझ लें कि देश से प्रेम रखने वालों की सोच एक जैसी ही होती है, चाहे उनका धर्म कोई भी हो। मुलाहिज़ा करें वह तकनीकी त्रूटियां जिन्हें हम अपने कोन्सिलेट की चूक भी कह सकते हैं और हेडली के अभिभावकों की जालसाज़ी भी।


जब एक व्यक्ति अपना नाम बदलता है और पासपोर्ट के लिए आवेदन करता है तो उसके साथ यह पुष्टि पत्र आवश्यक होता है कि उस व्यक्ति ने इससे पूर्व अमुक नाम से और अमुक पासपोर्ट नं॰ से यात्रा की है। अगर शिकागो में भारतीय उच्च आयुक्त ने ध्यान के साथ उसके पासपोर्ट और वीज़ा आवेदन को देखा होता, जैसा कि नियमानुसार होता है, तो उन लोगों ने निम्नलिखित बातों का अवश्य नोटिस लिया होताः न।1- उसने भारतीय वीज़ा लेने से ठीक पहले अपने आवास को फ़्लेडेल्फ़िया से शिकागो स्थानान्तरित किया। दूसरे- उसने भारतीय वीज़ा लेने से ठीक पहले अपना नाम बदल कर नया पासपोर्ट प्राप्त कर लिया। तीसरे- उसके पिता मुसलमान थे और उनका नाम भी मुसलमानों की तरह ही था जबकि वीज़ा का आवेदन करने वाले का नाम ईसाईयों जैसा था।

उसके तुरंत बाद ही आवेदनकर्ता के साथ पर्सनल इंटरव्यू होता है, जिसमें उससे उन बिंदुओं पर प्रश्न किए जाते है। हम जानते हैं कि दूसरे देशों के वीज़ा के लिए भारत में उनके दूतावास में आवेदन देने पर कितने लोगों को पर्सनल इंटरव्यू के लिए बुलाया जाता है और अगर पासपोर्ट की जांच पड़ताल में कहीं कोई संदेह की बात नज़र आ जाए तो गहन जांच की जाती है।

पूरी दुनिया के उच्च आयुक्त और इमेग्रेशन अधिकारी उस व्यक्ति को संदेह की दृष्टि से देखते हैं, जो नया पासपोर्ट प्राप्त करने के लिए अपना नाम तब्दील करता है। कट्टर देश जो आतंकवाद के संदिग्ध व्यक्तियों के साथ कठोरता से पेश आते हैं, उनके यहां वीज़ा के लिए आवेदन करते समय दो विशेष कॉलम ज़रूर भरने होते हैं। प्रश्न नं॰ 1- क्या आपने कभी दूसरे पासपोर्ट से यात्रा की है? अगर हां तो, विवरण दें। प्रश्न नं॰2- क्या आपने कभी अन्य नाम से यात्रा की है? यदि हां तो, विवरण दें। जैसे इन प्रश्नों के उत्तर में कोई संदेह पैदा होता है तो उसको साक्षातकार का सामना करना ही होता है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि हेडली पाकिस्तानी नागरिक है या अमेरिकी नागरिक जो पाकिस्तान में पैदा हुआ या एक अमेरिकी नागरिक जो अमेरिका में पैदा हुआ। इस षड़यंत्र के आरंभिक चरणों से ही यह अपराधिक सबूत है कि उसने अपनी मुस्लिम पहचान को छुपाने के लिए नाम तब्दील किया और इस बात को उसकी यात्रा के आरंभ में शिकागो में ही पता चलाया जा सकता था न कि भारत में उसके आगमन के बाद।

इसके बावजूद भी अगर वह अमेरिकी नागरिक है, जो अमेरिका में पैदा हुआ तो भी उससे पूछताछ करने से हमें रोका नहीं जाना चाहिए। हम जानते हैं कि किस तरह अमेरिकी इमेग्रेशन अधिकारियों ने फ़िल्म अभिनेता शाहरुख़ ख़ान से लगभग 1 घंटे तक पूछताछ की। जबकि वास्तिविकता यह थी कि वह भारत के सम्मानित नागरिक हैं और अमेरिका के भारत के साथ अच्छे संबंध हैं इसके बावजूद उनसे प्रश्न करने से उनको रोका नहीं गया।


टूरिस्ट या बिज़नेस वीज़ा के लिए आवेदन करने वालों को पासपोर्ट के साथ कुछ अन्य दस्तावेज़ देने होते हैं। उसमें आनेजाने का हवाई जहाज़ का टिकट, उन शहरों के नाम जहां वह जाना चाहते है और वह स्थन जहां वह ठहरेगे, और भारत में उनको जानने वाले व्यक्ति की ओर से एक स्पांसरशिप का पत्र (चाहे वह मित्र, रिशतेदार या कॉर्पोरेट हाउस कोई भी हो) भी देना होता है। बिना इन काग़ज़ात के वीज़ा नहीं दिया जा सकता है जब तक कि आवेदन कर्ता उच्च आयुक्त को निजीतौर पर जानता न हो और वह उच्च आयुक्त का विश्वास प्राप्त करने की स्थिति में हो।

जब आवेदन कर्ता व्यवसायिक वीज़ा के लिए आवेदन करता है तो अतिरिक्त दस्तावेज़ों की जांच और गहनता के साथ की जाती है। शिकागो का षड़यंत्रह्न जिसके परिणाम में 166 लोगों को आतंकवादियों ने मारा, उसी दिन आरंभ हो गया था जिस दिन वह भारतीय उच्च आयुक्त के कार्यालय में अपनी मुस्लिम पहचान को छुपाने के लिए एक बदले हुए नाम और नए पासपोर्ट जिससे उसने कहीं भी इससे पूर्व यात्रा नहीं की थी और व्यवसायिक वीज़ा के लिए आवेदन किया। उसके वीज़ा से जुड़े तमाम काग़ज़ात उस षड़यंत्र का भेद जानने के लिए महत्वपूर्ण प्रमाण बन गए हैं। जिस समय एफबीआई ने भारत सरकार को हेडली की गिरफ़तारी और उसकी यात्रा के बारे में अक्तूबर में बताया था उसी समय विदेश मंत्रालय को उच्च आयुक्त से उसके दस्तावेज़ एक मुहरबंद लिफ़ाफ़े में भारत भेजने के लिए कहना चाहिए था ताकि जांच एजंसियां जांच कर सकें। यह आश्चर्यजनक है कि लगभग 2 माह तक ऐसा नहीं किया गया।

अब हमें भारत से बाहर अपने उच्च आयोग के सुरक्षा केन्द्र से वीज़ा आवेदन से जुड़े काग़ज़ात को प्राप्त करने के बारे में असंतोषजनक कहानी बताई जा रही है। मैंने विदेशों में 8 वर्षों तक वीज़ा अधिकारी के रूप में कार्य किया है। इसमें कुछ मिनटों से अधिक समय नहीं लगना चाहिए कि काग़ज़ात को निकाला जाए और उसे दिल्ली रवाना किया जाए। आप वीज़ा रजिस्टर लें उस नम्बर को प्राप्त करें, जिसके तहत उसे वीज़ा जारी किया गया और उसी नम्बर की सहायता से आवेदन तथा अन्य काग़ज़ात प्राप्त किए जा सकते हैं।


तो यह है षड़यंत्र से परदा उठाने की पहली कड़ी। अब मेरा हर लेख आपके हाथों में एक और कड़ी की तरह आता रहेगा, आप तो बस कड़ियां जोड़ते जाइयें, फिर देखिये यह ज़ंज़ीर किस की गर्दन तक पहुंचती है।...............

Sunday, December 27, 2009

क्या चुप रहते, अगर यह बेटा आपका होता!

हर बार जब कोई नया मुद्दा सामने आता है तो उससे पहले के मुद्दे पर ध्यान कुछ कम हो जाता है। वह मन में तो रहता है मगर उस पर निरंतर बातचीत नहीं हो पाती। ‘‘वंदे मात्रम’’ एक बड़ा मुद्दा था। और एक लम्बी अवधि से। कई बार इस विवादित मुद्दे पर चर्चा आरंभ हुई और पूरी हुए बिना समाप्त हो गई। इस बार इरादा यह था कि इस चर्चा को उस स्तर तक पहुंचाया जाए, जहां केवल मुसलमान ही नहीं हर भारतीय अच्छी तरह समझ ले कि क्या यह चर्चा का विषय होना चाहिए और हमें किस निषकर्श पर पहुंचना चाहिए। यही कारण था कि यात्रा चाहे अमेरिका, स्विटज़रलैंड या लंदन की, हर बार वह किताबें, वह बयानात और ख़बरों की कटिंग मेरे साथ मेरी यात्रा के दौरान रही। मैं अध्यन करता रहा, मन बनाता रहा कि वापस लौटने पर इस मुद्दे पर फिर से लिखना होगा और जब तक किसी निष्कर्श पर न पहुंच जाएं, उस समय तक लिखना होगा। बाद में उसे पुस्तक की शक्ल भी दी जाएगी ताकि आने वाली पीढ़ी के पास भी सुरक्षित रहे। और फिर अगर कभी यह विवाद उठे तो उनके पास प्रमाणिक उत्तर हों, एक ऐसा दस्तावेज़ हो जिसे वह किसी के भी सामने रख कर अपनी बात कह सकें।

देश वापसी हुई तो 26/11/2008 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले को एक वर्ष पूरा हो चुका था और मीडिया में फिर इससे संबंधित ख़बरें आने लगी थीं। इस बीच एस।एम।मुशरिफ़ की पुस्तक ``Who killed karkare'' विनीता काम्टे की पुस्तक ``To the last bullet'' भी सामने आ चुकी थीं। जिनसे कुछ नए प्रश्न सामने आए। शहीद हेमंत करकरे की विधवा श्रीमति कविता करकरे ने भी यह कह कर चैंका दिया कि उन्हें न्याय मिलने की उम्मीद नहीं है। डेविड कोलमैन हेडली उर्फ दाऊद गीलानी व तहव्वुर हुसैन राना के रूप में दो नए नाम सामने आए जो अप्रवासी पाकिस्तानी हैं फिर जब गहराई से उन दोनों आतंवादियों के बारे में जानकारियां प्रापत करनी शुरू की थीं तो इतने आश्चर्यजनक रहस्योदघाटन होने शुरू हुए, जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इस समय भी मेरे लिखने का विषय भी यही है, मगर कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें न तो नज़रअंदाज़ किया जा सकता है और न देर तक उनकी अनदेखी की जा सकती है। मैंने कुछ दिन पूर्व ‘कोटा’ के एक युवक शादाब असदक़ के हवाले से लिखना शुरू किया था, जो चलती रेल गाड़ी से ग़ायब पाया गया और आज तक नहीं मिला। उसके परिवार के लोग लगातार इधर-उधर धक्के खाते रहे, ताने सुनते रहे, परेशान होते रहे, आंसू बहाते रहे मगर किसी ने उनकी गुहार नहीं सुनी। इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया। मुझे याद है और निश्चित ही हमारे पाठकों को भी याद होगा कि जब देश के गृहमंत्री की बेटी का आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया था तो पूरा भारत इस मुद्दे को लेकर विचलित था। अफ़सोस कि शादाद असदक़ देश के किसी ज़िम्मेदार व्यक्ति का पुत्र नहीं है, इसलिए सब चुप हैं। एक ताज़ा घटना जो कुछ महीने पहले मुम्बई में घटित हुई जब बिहार के एक युवक राहुल राज को मुम्बई में गोली मार दी गयी थी तो बिहार के तीनों बड़े नेता मुख्यमंत्री नितीश कुमार, उस समय के रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव और स्टील मंत्री राम विलास पासवान ने एक मंच पर आकर उस हत्या की निंदा की थी, उसे मुद्दा बनाया था, हालांकि यह तीनों राजनीतिज्ञ अपने राजनैतिक मदभेदों के कारण एक साथ इकट्ठा नहीं होते थे परन्तु अपने राज्य के एक युवक की मौत ने उन्हें संगठित कर दिया। हमारी क़ौम के राजनीतिज्ञ, धर्म निर्पेक्षता के अगुवा और केंद्रीय सरकार में सम्मिलित मंत्री क्या उन माता-पिता के दर्द को नहीं समझ सकते, जिनके बेटे को लापता हुए लगभग तीन माह हो गए हैं। वह केंद्रीय गृहमंत्री से गुहार लगा चुके हैं। अपने राज्य के मुख्य मंत्री तक अपने दिल की पीड़ा पहुंचा चुके हैं। कई बार हैदराबाद के चक्कर लगा चुके हैं, जहां से उनके घर का चिराग़ रेल में सवार हुआ था। जिस कंपनी में शादाब असदक़ नौकरी करता था, उसके अधिकारियों से बार-बार मिल कर अपना दुखड़ा सुना चुके हैं, मगर किसी ने भी यह ध्यान नहीं दिया कि आख़िर उसके साथ हुआ क्या है। शायद आज इस विषय पर मुझे फिर से क़लम उठाने की आवश्यकता न पड़ी होती, अगर उस कंपनी के ज़िम्मेदारों ने शादाब असदक़ के आदर्णीय पिता से यह न कहा होता कि वह मुसलमान था, युवा था, चला गया होगा आतंकवादी बनने। क्या इस अपराधिक मानसिकता के लोग सज़ा के पात्र नहीं हैं? मैंने पहले भी भारत सरकार तक इस गुमशदा युवक का विवरण पहुंचाने की कोशिश की है, आज फिर उसके पिता मुमशाद असदक़ का वह पत्र जो मुझ तक पहुंचा प्रकाशित कर रहा हूं, ताकि उस पर ध्यान दिया जाए और जल्द से जल्द उस युवक को तलाश करने की कोशिश की जाए।

मोहतरम जनाब,
मैं एक बदक़िसमत, असहाय पिता हूं, जिसका जवान बेटा अत्यंत संदिग्ध अवस्था में नागपुर रेलवे स्टेशन से ग़ायब हो गया है। वह आदर्णीय संदेश शर्मा (जनरल मैनेजर आईएल कंपनी), आदर्णीय रवि प्रभाकर (एडिशनल जनरल मैनेजर आईएल कंपनी) के साथ आईएल कंपनी (इंस्ट्रूमेटेशन इंडिया लि॰) के लिए सरकारी टेंडर जमा करके सिकंदराबाद से जयपुर-सिकंदराबाद हाली डे स्पेशल टेªल 0995 द्वारा वास लौट रहे थे।
अत्यंत दुखद सूचना मिलने के बाद मैं कोटा रेलवे स्टेशन के सरकारी अधिकारियों तक पहुंचा। कोटा जीआरपी ने केस दर्ज करने की रसम अदा की, जिसका नं॰ 4979।09।09.2009 है। और उन्होंने निर्देश दिया कि नागपुर रेलवे स्टेशन पर नियमित एफआईआर दर्ज कराओ। अगले दिन यानी 10.09.2009 को मैं नागपुर पहुंचा और नागपुर के पुलिस आयुक्त श्रीमान दीक्षित और क्राइम ब्रांच के एसीपी श्रीमान कुलथे से मुलाक़ात की। 10 दिनों तक नागपुर में ठहरने के बाद मैं निराश कोटा लौट आया।
लगभग 20 दिन पूर्व मेरे लेण्डलाइन फोन पर कुछ मिसकाॅल दिखाई दी। मैंने उन मिस्कालों के बारे में फौरन नागपुर पुलिस को सूचित किया। मिसकौल के नं॰4044378130, 4044378030, 4044378060, 4066986160, 4066986130, और एक मोबाइल नं॰9177890808 भी है।
मैंने उपरोक्त नम्बरों के बारे में जो हैदराबाद (आंध्रप्रदेश) के हैं, अपने तौर पर उन मिसकाॅलों के बारे में जानकारी प्राप्त करने की कोशिशें कीं फिर मैं उपरोक्त मिस्कालों के विवरण जमा करके हैदराबाद भागा जहां 20 दिन तक ठहरा रहा। इस दौरान मैंने आंध्राप्रदेश के पुलिस डायरेक्टर जनरल और दूसरे वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से भी मुलाक़ात की। इन विवरणों के बारे में आंध्रप्रदेश पुलिस ने भी कोई मदद नहीं की। अन्ततः मैं कोटा (राजस्थान) लौट आया।
मैं इंतिहाई शुक्रगुज़ार होंगा कि अगर आप अपनी कृपा और निजि हस्तक्षेप से इस उपरोक्त मामले में संबंधित अधिकारीगण को प्रभावित करके मेरे जवान बेटे के बारे में जानकारी प्राप्त कराएं कि वह कहां है।आपकी सहानुभूतिपूर्ण कृपा का मुन्तजिर रहूंगा।
मुमशाद असदक़
73-डी, आईएल टाउनशिप, कोटा (राजस्थान)मोबाइल-9982330307, फोन - 0744-२४२८३०६

शादाब असदक़ की गुमशुदगी अत्यंत विचलित करने वाली न होती, न उसके परिवार वालों के लिए न हमारे लिए अगर इस क़ौम के साथ गुज़रने वाली पीड़ादायक घटनाएं सामने न आई होतीं। कभी किसी मुस्लिम युवक का रेल से उठा लिया जाना, कभी किसी को सड़क से उठाकर बिना नं॰ प्लेट की गाड़ी में ले जाना और फिर उसें आतंकवादी बताकर या तो एन्काउन्टर कर दिया जाना या कुछ दिनों बाद किसी भी बम धमाके में, आतंकवादी घटना में लिप्त बताकर उनकी गिरफ़्तारी दिखाए जाने का सिलसिला आम न होता। ऐसे कई एन्काउन्टर फर्ज़ी सिद्ध हो चुके हैं। हमारे जर्नलिस्टिक प्रयास द्वारा ऐसे युवक जो तिहाड़ जेल में बंद थे, रिहा किए जा चुके हैं। जो कार में उठा कर ले जा रहे थे हमारे हस्तक्षेप के बाद सही सलामत अपने घर पहुंच चुके हैं (देहली के ओखला का मामला)। हमें नहीं मालूम इस युवक के साथ क्या हुआ है या क्या होगा? लेकिन इन्सानियत के नाते यह प्रयास करना तो हमें अपनी ज़िम्मेदारी नज़र आती है कि कारण जो भी हो उसके साथ जो भी हुआ हो, आख़िर उसके घर वालों को इसकी जानकारी तो मिले। ऐसा भी क्या कि बार-बार गुहार लगाने के बावजूद भी सरकारें ख़ामोश रहें। इस ओर ध्यान ही न दें और सबको न्याय देने का दावा भी करें।
अभी पिछले दिनों दिल्ली में फ़िलिस्तीन से संबंधित एक कांफ्रेंस का विज्ञापन नज़र से गुज़रा, जिसमें मुलायम सिंह यादव, राम विलास पासवान, एबी बर्धन, सीता रात यचूरी, नटवर सिंह, महमूद मदनी, सुल्तान हैदर और शाहिद सिद्दीक़ी इत्यादि नेताओं के शामिल होने का ज़िक्र था। निसंदेह यह सब लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले इतने संवेदनशील लोग समझे गए कि उन्हें फ़िलिस्तीन के दर्द में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया। उनमें से कई आए भी, विचार भी व्यक्त किया, मैं उस सम्मेलन की तफ़सील में नहीं जाना चाहता। इस समय इस सम्मेलन की तफ़सील बयान करना मेरा उद्देश्य नहीं है मैं केवल ध्यान इस बात की ओर दिलाना चाहता हूं कि यदि यह केवल राजनीति नहीं है, वास्तव में पीड़ितों के साथ सहानुभूति की भावना है और वह इतनी है कि हम भारत की धर्ती पर रहते हुए फिलिस्तीन की पीड़ा को समझते हैं जोकि एक अच्छी बात है तो फिर हमारी सहानुभूतियों से हमारे युवक ही क्यों वंचित रहें? क्या यह और इन जैसे राजनेता ध्यान देंगे शादाब असदक़ की गुमशुदगी पर? हम उन्हें विश्वास दिलाते हैं कि अगर वह मानवीय भावना के मद्देदनज़र अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए या अपनी पहुंच का प्रयोग करते हुए उस घर को उसका चिराग़ लौटाने में उनकी सहायता करेंगे तो ऐसे सम्मेलनों के समाचारों से कहीं अधिक बड़े क्षेत्र में जाकर उनकी इस जन-सेवा को पहुंचाने की हम कोशिश करेंगे। दरअसल बात केवल एक युवक के लापता होने की नहीं है। उस भय-भीत क़ौम को सदमे और भय से बाहर निकालना भी है। बच्चों को शिक्षा से निराश होने से रोकना भी है। जो क़ौम एक लम्बी अवधि से जिहालत का ताना सुनती चली आ रही है, जिसे अनपढ़ और जाहिल ठहराया जाता रहा हो, जब उसके शिक्षित युवक इस तरह प्रकोप का शिकार हों या फिर इस तरह ग़ायब होते रहें कि उनकी ख़बर भी न मिले तो फिर यह एक अत्यंत दुखद व ध्यान देने योग्य मुद्दा बन जाता है। इसलिए कि एक तो वह घर अपने गुमशुदा युवक की ख़ैरियत के लिए चिंतित होता है और दूसरे हर पल भय के साथ जीने को विवश होता है कि पता नहीं कब उसे किस आतंकवादी घटना से जोड़ दिया जाए और उनका समाज में रहना भी कठिन हो जाए। ...................

जो हमने लिखा वही पूर्व डी.जी.पी पश्चिमी बंगाल ने भी!


कुछ लोग यानी एक विशेष मानसिकता के अनुयायी (अब यह सपष्ट करने की आवश्यकता नहीं है कि मैं किस मानसिकता की बात कर रहा हूं) लगातार यह भाव देने का प्रयास कर रहे हैं कि 26/11 के संबंध में, मैं जो कुछ लिख रहा हूं यह मुझे नहीं लिखना चाहिए, यह सब लिखकर मैं असल अपराधियों से ध्यान हटाने व जांच को एक दिशा देने का प्रयास कर रहा हूं, और मेरी सोच जो कि उनके नज़दीक ग़लत है, देश से ग़द्दारी है और भारत सरकार के विरुद्ध है। जहांतक मैं समझता हूं मेरे यह लेख मेरे द्वारा अपने देश भारत की मुहब्बत में लिखे गए हैं और यह भारत सरकार के लिए आतंकवाद से छुटकारा पाने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं। हां, मगर जो लोग स्वाधीनता संग्राम में स्वतंत्रता सेनानियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के बजाए एक किनारे पर खड़े होकर अंग्रेज़ों के अनुयायी बन गए थे, उनके गीत गा रहे थे, उस मानसिकता के पोशित आज भी आतंकवाद के माध्यम से हमारे देश को विनाश के कगार पर पहुंचाने वालों तक नहीं पहुंचने देना चाहते, वरना क्या कारण है कि जो प्रमाण और तथ्य स्पष्ट संकेत दे रहे हैं, न केवल उनकी अनदेखी करने के लिए विवश किया जा रहा है, बल्कि ऐसी कोशिश करने वाले देश प्रेमी लोगों को निशाना भी बनाया जा रहा है। जहां तक डेविड कोलमैन हेडली उर्फ दाऊद गीलानी और तहव्वुर हुसैन राना का मामला है तो यह दोनों आतंकवादी हैं, पाकिस्तानी हैं और दोनों ही 26/11 को भारत में हुए आतंकवादी हमले में लिप्त हैं। अभी तक जो एफबीआई की रिपोर्टें भारत तक पहुंच रही हैं, वह यही हैं। अब उन तमाम जानकारिायेां को हू-बहू मान लेने के बाद जो प्रश्न पैदा होते हैं, उन पर वह भड़कते हों तो भड़कें, शक की सूई जिनकी ओर जा रही है, मगर हमारे अपने अगर इस पर नाराज़ दिखाई दें तो उचित नहीं लगता। यही कारण है कि हम अपनी रिसर्च के दौरान सामने आई समस्त जानकारियों को प्रकाशित करने के साथ-साथ इस पर नज़र रखते हैं कि देश भर में या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस दिशा में और कौन-कौन ज़िम्मेदार व्यक्ति या संस्थान लिख रहे हैं या सोच रहे हैं, उनका दृष्टिकोण भी अपने पाठकों ही नहीं, बल्कि भारत सरकार और सम्पूर्ण भारतीय समाज के सामने रखा जाए। इसी सोच के मद्देनज़र हमने वीर संघवी के दृष्टिकोण पर आधारित लेख और विनीता काम्टे की पुस्तक ‘‘टू दि लास्ट बुलेट’’ पर की गई समीक्षा प्रकाशित की और ‘‘लाॅस एंजिलिस टाइम्स’’ में प्रकाशित रिपोर्ट को सामने रखना आवश्यक समझा। इसी तरह आज प्रातः ०८.३० बजे हाजी नगर, 24 पर्गना, पश्चिम बंगाल के मुहम्मद ज़ुबैर ने पहले एसएमएस और फिर फोन करके जब यह बताया कि कोलकाता से प्रकाशित होने वाले हिंदी दैनिक ‘‘सन्मार्ग’’ में पूर्व डीजीपी पश्चिम बंगाल दिनेश चंद्र वाजपई ने ‘‘26/11: हेडली और अमेरिका’’ के शीर्षक से जो कुछ लिखा है वह हमारे ख़ुलासों के ऐन मुताबिक़ है तो आवश्यक लगा कि एक उच्च पद पर रहने वाले पुलिस अधिकारी का दृष्टिकोण भी आज अपने पाठकों की सेवा में पेश किया जाए। हालांकि विचार यह था कि आज हमने अपनी कल की क़िस्त-62 जो बहुत छोटी थी, उसमें हेडली और तहव्वुर राना के पासपोर्ट अमेरिका और कनाडा में एक ही सप्ताह के भीतर 3 और 10 मार्च 2006 को जारी होने पर अपनी बात आगे बढ़ाएंगे और साथ ही अपने पाठकों की जो प्रतिक्रियाएं कल दिन भर हम तक पहुंचती रहीं, आज उसी विषय पर कुछ पाठकों के विचार भी प्रकाशित करेंगे, लेकिन यह सब बाद के प्रकाशनों में, आज दिनेश चंद्र वाजपेई के विचारणीय दृष्टिकोण पर आधारित लेख:

डेविड कोलमैन हेडली उर्फ दाऊद गीलानी को अमेरीका में गिरफ्तार हुए प्रायः तीन महीने हुए, लेकिन अभी तक भारतीय जांच अधिकारी न तो उससे पूछताछ कर पाये हैं और न ही उसके बारे में हमें पूरी सूचना दी गयी है, हालांकि उसके ऊपर स्वयं अमेरीका का मुख्य आरोप है मुम्बई पर हुए 26/11 के आक्रमण का षड़यंत्र रचने का। जबकि अमेरीकी एफ।बी।आई के अफसर कसाब से जिरह कर चुके हैं, हालांकि उसका अमेरीका पर हुए आक्रमण से कोई संबंध नहीं था। इसी बीच उसके बारे में जो आधी-अधूरी सूचनाएं आ रही हैं, उससे उसका जेम्स बोंडये चरित्र और रहस्यमय होता जा रहा है। दाऊद सईद गिलानी का जन्म वाशिंगटन में हुआ, जहां उसके माता-पिता अमरीकी दूतावास में कार्यरत थे। पिता, सईद सलीम गीलानी एक कूटनीतिज्ञ थे, जो एक कवि और संगीतशास्त्री भी थे और अमरीकी माता सेरिल हेडली एक लिपिक थीं। 1960 में परिवार लाहौर आ गया किंतु पिता की कट्टर इस्लामी संस्कृति और माता की पाश्चात्य विचारधारा व रहन-सहन में समन्वय न हो सकने के कारण दोनों में मनमुटाव, फिर संबंध विच्छेद हुआ और 1970 में सेरिल परिवार को छोड़कर अमेरीका के फिलाडेल्फीया में रहने लगी। कुछ समय बाद उसने ‘खैबर पास’ नाम का एक मदिरालय खरीद लिया और उसे चलाने लगी। बचपन में दाऊद की परवरिश पाकिस्तान में एक कट्टरपंथी वातावरण में हुई। 1977 में पाकिस्तान की राजनीतिक अस्थिरता से घबराकर सेरिल पाकिस्तान जाकर दाऊद को जो उस समय 17 वर्ष का था और विशिष्ट आवासीय सैनिक स्कूल अब्दुल कैडेट कालेज में पढ़ रहा था, अमेरीका ले आयी। इन दो पृष्ठभूमियों के कारण दाऊद हमेशा दो संस्कृतियों, कट्टरपंथी इस्लामी संस्कृति और उदारवादी पाश्चात्य संस्कृति के बीच खिंचता रहा। कभी वह शराबी हो जाता, कभी परम्पराशील मुसलमान। उसकी एक पाकिस्तानी पत्नी है किंतु एक अमरीकी महिला (मेकअप कर्मी) से उसके संबंध हैं। उसके अन्कल (मामा) विलियम हेडली का कहना है, अधिकतर लोगों के जीवन में कुछ विरोधाभास होते हैं, किंतु वह उनमें सामंजस्य करना सीख जाते हैं, किंतु दाऊद ऐसा नहीं कर पाया और यही उसकी समस्या है और आज दाऊद एक कट्टरपंथी जिहादी है। अमरीकी अन्वेषक पत्रकारों ने पता लगाया कि दाऊद पहली बार 1988 में मादक द्रव्यों के व्यवसाय के आरोप में 2 के.जी.हेरोइन के साथ पकाड़ा गया। उसकी स्वीकारोक्ति के कारण उसे कम सज़ा हुई और फिर वह ड्रग अधिकारियों को गुप्त सूचनाएं देने लगा। विशेषकर पाकिस्तान से हो रही मादक द्रव्यों की तस्करी की सूचनाएं। उसी समय वह पाकिस्तानी आतंकवादियों के संपर्क में आया और उसका पाकिस्तान आना जाना शुरू हुआ। उसकी पत्नी ने अमरीकी समाचारपत्र फिलाडेल्फिया इन्क्वायरर को बताया कि वह भारतियों से घृणा करता था और भारत से बदला लेने की बात करता था। दाऊद 1998 में अंतिम बार अमेरीका में मादक द्रव्यों के व्यवसाय के आरोप में पकड़ा गया और फिर स्वीकारोक्ति के कारण उसे कम सज़ा हुई । ड्रग अधिकारियों की मदद कर वह फिर उनके करीब आया और अमेरीका पर हुए 9/11 के आक्रमण के बाद जब अमरीकी अधिकारियों को पाकिस्तान के आतंकवादियों के बीच काम करने के लिए गुप्तचरों की ज़रूरत पड़ी तो दाऊद को छोड़ दिया गया। उसे दाऊद से हेडली बना दिया गया और एक नया पासपोर्ट देकर उसे पाकिस्तान भेज दिया गया। अमेरीका की मादक द्रव्य विरोधी संस्था ड्रग एनफोर्समेंट एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा मादक द्रव्य व्यवसाय में घुसपैठ कर गुप्तचर बनकर काम करने को। इसके बाद वह अमेरीका से पाकिस्तान और भारत लगातार यात्राएं करता रहा। बिना किसी रोक-टोक के जो एक सजायाफ्ता अपराधी के लिए 9/11 के बाद के कड़े सुरक्षा वातारवण में अचंभे की बात है और संदेह की भी। यदि वह अमेरीका की सुरक्षा के लिए खतरा होता तो क्या उसके लिए वह संभव हो पाता। क्योंकि वह केवल भारत की सुरक्षा के लिए खतरा था इसलिए क्या उसे यह करने दिया गया? क्या उसको नया पासपोर्ट व नया नाम केवल इसलिए दिया गया जिससे उसे भारत में लम्बी अवधि का वीज़ा मिल सके, उसकी अपराधी पृष्ठभूमि को छिपाकर? शिकागो स्थित भारतीय कौंसिल जनरल अशोक कुमार अत्री को यह देखकर भी संदेह नहीं हुआ कि वीज़ा आवेदनकर्ता अमरीकी है जिसका नाम डेविड कोलमैन हेडली है, जबकि उसके पाकिस्तानी पिता का नाम सईद सलीम गीलानी है? क्या उसे एक बार पूछताछ के लिए भी बुलाना नहीं चाहिए था? क्या उनके ऊपर वीज़ा देने के लिए कोई दबाव था? यदि वह जांच करते उसकी पृष्ठभूमि की तो उन्हें पता लगता कि हेडली ने फिलाडेल्फिया की अदालत में एफिडेविट देकर कुछ ही दिन पहले अपना नाम बदला है और पहले नाम से उसकी आपराधिक पृष्ठभूमि का भी पता लगता। उसके बाद वह नौ बार भारत आया और प्रत्येक बार भारत से लौटकर वह पाकिस्तान गया किंतु भारत में इमिग्रेशन अफसरों को भी उसमें कुछ संदेहजनक नहीं लगा? क्या अमेरीका ने उसको अलग पासपोर्ट दिया था पाकिस्तान जाने के लिए? अक्टूबर 2009 में एफ.बी.आई द्वारा पकड़े जाने के बाद हेडली के ऊपर 26/11 के आक्रमण में शामिल होने के आरोप लगाये गये। हेडली ने लश्कर-ए-तय्यबा से अपने संबंध के बारे में बताया, भारत में आकर सैन्य व परमाणु ठिकानों के वीडियो बनाने, 26/11 के निशाने पर जो स्थान थे उनके बारे में जानकारी लेने व आक्रमण की साज़िश रचने और कराची से आतंकवादियों को निर्देश देने के बारे में बताया है। एफ.बी.आई के आरोपपत्र और अमरीकी समाचारपत्रों के खुलासों ने अमेरीका की नीयत पर प्रश्न चिन्ह लगा दिये हैं। अमेरीका ने 26/11 की आगामी ख़बर दी तो किंतु इतनी छिटफुट कि उसे रोका न जा सका। यदि अमेरीका को हेडली के आतंकवादी होने की ख़बर 2008 में लग गयी थी तो उसने भारत को सतर्क क्यों नहीं किया? यदि किया होता तो वह 26/11 के पहले ही भारत में पकड़ लिया गया होता और 26/11 की तबाही रोकी जा सकती थी। क्या हेडली को पकड़ा गया डेनमार्क पर हमला रोकने के लिए ही? 26/11 के आक्रमण के बाद जब अमेरीका को हेडली की भूमिका का पता लग गया तब भी भारत को खबर नहीं दी गयी और मार्च 2009 में भारत आया, अगले आक्रमण की तैयारी करने और दिल्ली, पुष्कर, गोवा और मुम्बई गया। अमेरीका क्यों नहीं चाहता था कि हेडली भारत में गिरफ्तार हो और क्या अमेरीका अपनी बदनीयती को छुपाने को हेडली से पूछताछ नहीं करने दे रहा है? अब हमारी नज़रें रहेंगी शिकागो में हेडली के ऊपर चल रहे मुक़दमे पर। यदि वह फिर अल्प सज़ा पाकर छूट जाता है तो यह अमेरीका पर हमारे संदेह को पक्का ही करेगा। अमरीकी रवैये को देखकर क्या यह आशा की जा सकती है कि हम हेडली को भारत लाने और उसपर मुक़दमा चलाने में सफल हो पायेंगे? शायद नहीं।..............................

Friday, December 25, 2009


ग़ल्ती हुई मुझसे, शायद मुझे अपने पाठकों से यह निवेदन नहीं करना चाहिए था कि वह मेरे आज के लेख ‘‘अगर है कोई जवाब इसका तो बताओ’’ पर अपने विचार मुझ तक पहुंचाने का निवेदन नहीं करना चाहिए था, या फिर बात यह हुई कि मुझे यह अनुमान ही नहीं था कि रेस्पांस इतना अधिक होगा। पाठकों की प्रतिक्रिया इतनी बड़ी संख्या में मुझ तक पहुंचेगी कि आज का पूरा दिन एस।एम.एस. पढ़ने, टेलीफ़ोन पर बात करने और अन्य सूत्रों से जो उनके दृष्टिकोण मुझ तक पहुंचे उनका अध्य्यन करने में ही सारा दिन बीत जायेगा फिर इतना समय ही नहीं बचेगा कि मैं आज एक नया लेख लिख कर अपने पाठकों की सेवा में प्रस्तुत कर सकूँ। फिर भी इस कवायद का एक सुखद पहलू यह है कि इस समय जो कुछ लिखा जा रहा है वह बेवजह नहीं है। न केवल यह कि बहुत पढ़ा जा रहा है बल्कि उसे विशेष महत्व भी मिल रहा है, इसलिए आशा की जा सकती है कि स्थितियों में निरन्तर परिवर्तन आयेगा और इतना नहीं कि अब तक आतंकवाद के नाम पर आंख बंद करके जिन्हें गिरफ्तार किया जा रहा था अब उनको निशाना बनाने के बजाय जो वास्तव में आतंकवादी हैं, आतंकवादियों को शरण दे रहे हैं, आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं और अपने घिनौने उद्देश्यों के लिए जान बूझ कर आतंकवाद फैला रहे हैं, उनका असल चेहरा सामने आएगा, निसंदेह यह देश और राष्ट्र के हित में है, बल्कि कहा जा सकता है कि पूरी मानवता के हित में है।विचार था कि आज डेविड कोलमैन हेडली के साथ-साथ तहव्वुर हुसैन राणा पर भी लिखँूगा इसलिए कि एक सबसे चैंका देने वाली जानकारी जो मेरे सामने है, वह यह कि हेडली को पासपोर्ट जारी हुआ 10 मार्च 2006 को अमेरिका में और तहव्वुर हसैन राणा को पासपोर्ट जारी हुआ 3 मार्च 2006 को कनाडा में। अर्थात केवल एक सप्ताह के भीतर दोनों को पासपोर्ट दो अलग-अलग देशों से जारी होते हैं। हेडली के बारे में तो यह सच्चाई सामने आ ही गई है कि बदले हुए नाम के साथ उसके लिए यह एक नया पासपोर्ट अमेरिका में जारी किया गया, अब देखना यह है कि 48 वर्षीय तहव्वुर हुसैन राणा का भी यह कोई नए और बदले हुए नाम से बनाया गया पासपोर्ट है या फिर उसका असल नाम यही है और उसे 45 वर्ष की आयु तक पासपोर्ट की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। जो व्यक्ति पाकिस्तान में पैदा हुआ, अमेरिका में रहा वहां उसका मकान भी है और फिर कनाडा में जाकर बस गया, उसका यह पहला पासपोर्ट तो नहीं होना चाहिए, इसलिए कि पाकिस्तान में जन्म लेने के बाद जब वह अमेरिका और फिर कनाडा पहुंचा होगा तो उसके पास कोई पासपोर्ट तो अवश्य रहा होगा और उसने उन देशों के लिए वीज़ा भी प्राप्त किया होगा। ऐसी स्थिति में उसका पहला पासपोर्ट पाकिस्तानी होना चाहिए जहां वह पैदा हुआ और शिक्षा पाई।रिसर्च का सिलसिला जारी है, काफ़ी कुछ रिसर्च पेपर्स मेरे सामने हैं, जिनका अध्य्यन अभी तक नहीं कर पाया हूँ और अख़बार के प्रेस भेजने का समय निकट आता चला जा रहा है। अगर सरसरी तौर पर लिखकर इस बात को आगे बढ़ा दिया गया तो न विषय से न्याय होगा और न मेरे लिए अपने लेख के साथ ही, लिहाज़ा आज बस इतना ही। मुलाहिज़ा करें मेरे इस किस्तवार लेख की अगली कड़ी कल।

अगर है कोई जवाब इसका तो बताओ!



लॉस एंजलिस टाइम्स, 13 दिसम्बर



टाइम लाइन ऑफ़ डेविड कोलमेन हेडलीअमेरिकी सरकार तथा अदालत के दस्तावेज़ के अनुसार


2005: हेडली लश्कर-ए-तय्यबा के लिए काम करने और भारत की यात्रा की निगरानी के लिए तैयार हो गया।


2006 फरवरीः अपना नाम दाऊद गीलानी से बदल कर डेविड हेडली कर लिया ताकि भारत में स्वयं को अमेरिकी के रूप में पेश कर सके जो ना तो मुसलमान है और ना ही पाकिस्तानी।


2006 जून: शिकागो में अपने मित्र तहव्वुर राना से भारत में राना के इमेग्रेशन के धंधे की खाता खोलने की अनुमति।


2006 सितम्बर: भारत में कई सप्ताह तक रहा और फिर पाकिस्तान रवाना हुआ।


2007 फरवरी: कई सप्ताह तक भारत की यात्रा की और फिर पाकिस्तान रवाना।


2007 सितम्बर: कई सप्ताह तक भारत की यात्रा की और फिर पाकिस्तान रवाना।


2008 अप्रैल: लश्कर-ए-तय्यबा के कहने पर कई सप्ताह तक भारत की यात्रा पर रहा। मुम्बई के तटयीय क्षेत्रों की निगरानी के लिए नाव से निगरानी की। अधिकारियों का कहना है कि हेडली द्वारा तैयार वीडियो का प्रयोग 10 आतंकवादियों ने किया।


2008 जुलाई: कई सप्ता तक भारत में रहा और फिर पाकिस्तान रवाना।


2008 अक्तूबर: डनमार्क के अख़बार में प्रकाशित ख़ाके के बाद Yahoo पर एक बिक्षन ग्रूप पर अपने जवाब के बाद एफबीआई ने नज़र रखनी शुरू की।
फरवरी: पाकिस्तान के आदीवासी क्षेत्र में गया जहां पाकिस्तानी सेना के मेजर अब्दुर्रेहमान हाशिम सय्यद ने लश्कर-ए-तय्यबा के लोगों से मिलवाया। जून में वापस शिकागो आने से पूर्व हेडली ने अपनी रज़ामंदी से राना को सुचित किया।


15 अगस्त: कूपन हेगन की यात्रा के बाद एटलांटा पहुंचा।


3 अक्तूबर: शिकागो से पाकिस्तान रवाना होने से पूर्व गिरफ़्तार। पुश्कर, गोआ, पुणे, मुम्बई तथा दिल्ली (जिन शहरों में हेडली रुका था), हर जगह चबाड हाउस के आस पास।


उपरोक्त समाचार एक अमेरिकी अख़बार ‘‘लॉस एंजलिस टाइम्स’’ में 13 दिसम्बर को प्रकाशित हुआ और कल इस कॉलम के तहत प्रकाशित किया गया लेख वीर संघवी का था, जो 20 दिसम्बर 2009 को अंग्रेज़ी दैनिक ‘‘हिंदुस्तान टाइम्स’’ में प्रकाशित हुआ -और- अब मुलाहिज़ा फ़रमाऐं मेरा आज का लेख और अपने विचारों से भी अवगत कराऐं। लेख की समाप्ति पर मेरा फोन, फैक्स, ई-मेल ब्लाग मौजूद है, और हां इस पेज की पेशानी के साथ प्रकाशित किया जाने वाला ‘हेडली’ के पासपोर्ट का चित्र अवश्य देखें जिस पर अमेरिका से जारी होने की तिथि स्पष्ट रूप में नज़र आ रही है।


पासपोर्ट एक ऐसी पहचान है, जो अपने देश के बाहर सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है। इससे न केवल आपकी पहचान जुड़ी होती है, बल्कि आपके देश की पहचान भी। आप किस देश के नागरिक हैं, इसको अलग-अलग दृष्टि से देखा जाता है, जैसे अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड तथा यूरोप में इतने मधुर संबंध हैं कि बिना रोक-टोक एक देश का नागरिक दूसरे देश में आ जा सकता है। उनमें से अधिकांश देशों के बीच तो वीज़ा की आवश्यकता भी नहीं होती, लेकिन कुछ देश ऐसे हैं जहां के निवासियों को कहीं भी आने-जाने के लिए न केवल वीज़ा दरकार होता है, बल्कि वीज़ा देने से पूर्व अच्छी ख़ासी छान-बीन भी की जाती है। कई चरणों से गुज़रना पड़ता है। दुर्भाग्य से भारत भी एक ऐसा ही देश है और पाकिस्तान के रहने वालों की कठिनाइयां तो इससे भी कहीं अधिक हैं। जब से यह आतंकवाद की बीमारी चली है, पाकिस्तान बार-बार आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त नज़र आया है और इस आतंकवाद ने पिछले कुछ वर्षों में ख़ुद पाकिस्तान को भी विनाश के कगार पर पहुंचा दिया है। इस विनाश में बेनज़ीर भुट्टो की आतंकवादी हमले में हत्या भी शामिल है, इसलिए पाकिस्तानियों को कोई भी देश वीज़ा देने से पूर्व अच्छी तरह उसके बारे में जांच पड़ताल कर लेना आवश्यक समझता है। भारत तो पाकिस्तानी नागरिकों के अपने देश में क़दम रखने पर अत्यधिक सचेत रहता है और उसे रहना भी चाहिए, क्योंकि बार-बार के कटु अनुभव ने हमें ऐसा करने पर विवश कर दिया है। यही कारण है कि जब ‘‘अंसार बर्नी’’ जैसे विश्व प्रसिद्ध पाकिस्तानी भारत में जामा मस्जिद यूनाइटिड फोरम की ओर से आयोजित एक अन्तराष्ट्र्रीय सेमिनार में भाग लेने के लिए आते हैं तो उन्हें बावजूद पासपोर्ट और वीज़ा होने के एयरपोर्ट से ही वापस लौट जाना पड़ता है। अंसार बर्नी यानी वह पाकिस्तानी नागरिक जो पाकिस्तान में क़ैद भारतीय क़ैदियों की रिहाई के लिए दिन-रात सक्रिय रहे हैं और उनकी सक्रियता के कारण पाकिस्तानी सरकार तथा जनता का एक वर्ग उन्हें नापसंदीदगी की नज़र से देखता है। उन्होंने सरबजीत सिंह और कशमीर सिंह की रिहाई के लिए दिन-रात एक कर दिया, वह अंसार बर्नी जो इस सेमिनार के निमंत्रण से कुछ महीने पहले जब पंजाब पहुंचे तो भारतीय जनता ने पग-पग उनका उल्हासपूर्ण स्वागत किया परन्तु अगली बार भारत आगमन के अवसर पर घंटों एयरपोर्ट पर रुक कर विभिन्न प्रश्नों का सामना करना पड़ा। और फिर भी शहर में प्रवेश की अनुमति नहीं मिली, एयरपोर्ट से ही वापस लौट जाना पड़ा। यहां यह ख़ुलासा भी आवश्यक है कि इस अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के मेज़बान यहया बुख़ारी यानी पूर्व शाही इमाम सय्यद अब्दुल्ला बु़ख़ारी के पुत्र और वर्तमान शाही इमाम अहमद बुख़ारी के भाई थे और उस अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में केंद्रीय सरकार के मंत्रियों को भी शामिल होना था। फिर भी अधिकारियों ने अपने देश की सुरक्षा के महत्व को समझते हुए किसी प्रकार की नर्मी बरतना उचित नहीं समझा। हो सकता है कि इसका कारण कोई भ्रम रहा हो या एयरपोर्ट पर तैनात अधिकारियों की सख़ती? कारण जो भी हो, मन में देश की सुरक्षा ही रही होगी, इसके सिवा कुछ और नहीं। यह उदाहरण मैंने क्यों दिया और इसके इतने ख़ुलासे क्यों पेश किए, यह समझने के लिए मेरे इस लेख के अगले वाक्य को अत्यंत गंभीरतापूर्वक तथा ध्यान से पढ़ना होगा, इसलिए कि यही वह एक वाक्य है, जिसको अपने पाठकों, भारत सरकार और 26/11 की जांच करने वाले अधिकारियों तक मैं पहुंचाना चाहता हूं।

दाऊद गीलानी लगभग 11 वर्ष की आयु से 16 वर्ष की आयु तक पाकिस्तान में रहा, फिर उसकी यहूदी मां शेरेल हेडली उसे अपने साथ अमेरिका ले गई। उस समय दाऊद गीलानी के पास पाकिस्तानी पासपोर्ट था या अमरीकन पासपोर्ट, यह जानकारी बेहद ज़रूरी है क्योंकि उसने जिस पासपोर्ट से भारत और पाकिस्तान में यात्राऐं कीं वह तो अमरीकन पासपोर्ट है और 10 मार्च 2006 को जारी किया गया है। गिलानी उर्फ हैडली 1998 में एफ।बी।आई के द्वारा मादक पदार्थों की तस्करी के आरोप में पकड़ा गया, सज़ा हुई, फिर अमेरिका की गुप्तचर एजेंसी एफबीआई ने तय किया कि उसे अपना अंडर कवर एजेंट बनाकर पाकिस्तान भेजना है, इसीलिए असाधारण रूप में उसकी सज़ा दो वर्ष से भी कम कर दी गई, जबकि अमेरिका में मादक पदार्थों की तस्करी एक बहुत बड़ा अपराध है और ऐसे अपराधी की इतनी जल्दी रिहाई संभव नहीं है। एफबीआई क्यों दाऊद गीलानी से इतना प्रभावित थी और उस पर इतनी कृपा का क्या कारण था? इस रिहाई के लिए उससे क्या सौदा हुआ था? यह सब तो एफबीआई या डेविड कोलमेन हेडली ही बेहतर जानते होंगे, मगर जो सूचनाएं आम हैं, वह यह कि इस रिहाई के बाद एफबीआई ने दाऊद गीलानी को डेविड कोलमेन हेडली के नाम से एक नए अमेरिकी पासपोर्ट द्वारा पाकिस्तान भेजा और लश्कर-ए-तय्यबा जैसी कुख्यात आतंकवादी संस्था में प्रवेश करा दिया।....... हमारे विचार में पाकिस्तान पहुंचकर लश्कर-ए-तय्यबा में शामिल होने के लिए दाऊद गीलानी नाम और पाकिस्तानी नागरिक होना ज़्यादा ठीक होता, इसलिए कि अगर लश्कर-ए-तय्यबा एक मुस्लिम आतंकवादी संस्था है तो उसके लिए एक अमेरिकी यहूदी के मुक़ाबले एक पाकिस्तानी मुसलमान अधिक विश्वसनीय होता। अब उसका क्या कारण समझा जाए? क्या एफबीआई को यह विश्वास था कि वह एक अमेरिकी यहूदी को भी सहजता पूर्वक लश्कर तय्यबा में प्रवेश दिला सकती है। क्या लश्कर-ए-तय्यबा उनके हुक्म की पाबन्द है? क्या लश्कर-ए-तय्यबा में उनकी इतनी पहुंच है कि उनका कोई भी एजेंट इतनी सहजता से उसमें शामिल हो सकता है। सोचते रहिए इस प्रश्न पर फिर आपकी सदबुद्धि जो भी उत्तर दे।


मुझे अगली बात जो कहनी है और जिसके लिए मैंने अन्सार बर्नी का उदाहरण दिया था, वह यह कि आज सारी दुनिया जानती है कि भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध कैसे हैं? भारत से पाकिस्तान जाने वालों या पाकिस्तान से भारत आने वालों को सीमाओं पर कितनी जांच-पड़ताल की आवश्यता पड़ती है। हो सकता है मेरा यह विचार पूर्णतः ग़लत हो, मगर क्या यह बात ध्यान देने योगय नहीं है कि क्या एफबीआई ने यही सोच कर दाऊद गीलानी को जो अपनी मां का धर्म गृहण करके एक यहूदी डेविड कोलमेन हेडली बन गया था। उसे एक नया अमेरिकी पासपोर्ट उपलब्ध कराया हो, क्योंकि एफबीआई अच्छी तरह जानती है कि भारत में किसी भी पाकिस्तानी के लिए प्रवेश करना कितना कठिन है और अगर वह आतंकवादी है और पकड़ में आ जाता है तो कितने भेद उगल सकता है?, जबकि अमेरिकी पासपोर्ट पर आने वाले किसी भी ईसाई अथवा यहूदी के लिए हमारे देश में वैसी जांच पड़ताल नहीं होती, उसे सहजता पूर्वक प्रवेश मिल जाता है। शायद यही कारण था कि एक मादक पदार्थों का तस्कर, एक एफबीआई का एजेंट, एक लश्कर-ए-तय्यबा का आतंकवादी 9 बार भारत में प्रवेश करने में सफल हो गया। क्या हमें इस दिशा में विचार नहीं करना चाहिए कि एक सज़ायाफ्ता मुजरिम जिसे ख़ुद एफ।बी।आई ने मादक पदार्थो की तस्करी में पकड़ा, क्यों उसे अमेरिकी पासपोर्ट उपलब्ध कराया गया। वह क्यों 9 बार भारत आया। अमेरिका के बीच मधुर संबंध होने के बावजूद भी एफबीआई द्वारा भारतीय सरकार या हमारी गुप्तचर एजेंसियों को उसकी वास्तविकता क्यों नहीं बताई गई कि उसका संबंध लश्करे तय्यबा से है? इतना ही नहीं जब स्वयं एफबीआई ने अपनी जांच के आधार पर यह जान लिया कि हेडली का संबंध 26/11/2008 को भारत में मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमलों से है तो, क्यों नहीं उसी समय यह जानकारी भारत सरकार को दे दी गई? उसे क्यों भारत से भाग कर अमेरीका पहुंचने का अवसर प्रदान किया गया? क्या उसे भारत में गिरफ़्तारी से बचाने के लिए? क्या 26/11 से उसके संबंध को भारतीय गुप्तचर एजेंसियों के सामने न आने देने के लिए, क्या एफबीआई के एजेंट के रूप में उसने जोõजो किया उसे पर्दे में ही रहने देने के लिए? और अब वह आतंकवादी जो 26/11 के लिए ज़िम्मेदार है, अमेरिका की पकड़ में है या क़ैद में है, उनका क़ैदी है या अमेरिकी जेल उसके लिए शाही महमानख़ाना? यह तो उसके और अमेरिकी सरकार के बीच ही रहेगा, मगर इस सच से कौन इन्कार करेगा कि भारत में गिरफ़्तार होने की बजाय डेविड कोलमेन हेडली और अमेरिका दोनों ने ही अमेरिकी जेल को अधिक बहतर समझा।.................

Wednesday, December 23, 2009

यह लेख मेरा नहीं है मगर......

बटला हाउस पर जब मैं लिख रहा था तब भी कुछ लोगों को आपत्ति थी। जब गुजरात पर लिखा, मालेगांव इन्वेस्टिगेशन पर लिखा, नांदेड़, कानपुर बम धमाकों पर लिखा, साधवी, पुरोहित और दयानंद पाण्डे पर लिखा तब भी न केवल आपत्ति भरी आवाज़ें उठीं, बल्कि जगह-जगह उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में हमारे संवाददाताओं को एक विशेष मानसिकता का निशाना बनना पड़ा। 26/11 2008 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले के बाद जब लिखा और जांच को एक नया आयाम देने की कोशिश की, तब फिर कठोर प्रतिक्रिया सामने आई। आज एक वर्ष बाद फिर से जब 26/11 पर बात हो रही है तो, वही आयाम बार-बार सामने आ रहा है। विशेष रूप से डेविड कोलमेन हेडली की गिरफ़्तारी के बाद और अब केवल मेरे द्वारा ही नहीं बल्कि अन्य मीडिया द्वारा भी। मेरा कल का लेख इसी विषय पर था और मैंने भविष्य की आशंकाओं को सामने रखने के लिए संक्षेप में अतीत की दास्तान भी बयान की थी।

कुछ लोगों का विचार है कि शायद मैं अकेले 26/11 को हुए मुम्बई पर आतंकवादी हमले को एक अलग दृष्टि से देख रहा हूं, ऐसा नहीं है और भी हैं, जो इस दिशा में सोच रहे हैं और निसंदेह वह मुल्क के ज़िम्मेदार नागरिक हैं। वरिष्ठ पत्रकार हैं। एक ऐसे ही अंग्रेज़ी के वरिष्ठ पत्रकार का लेख मैंने अपने इस सिलसिलेवार लेख में प्रकाशित किया था, नाम और उल्लेख के साथ। आज भी एक ऐसा ही लेख जो मेरा नहीं है, देश के एक बड़े दैनिक के सम्पादक का है, प्रकाशित कर रहा हूं और मैं अपने कल के लेख के साथ अमेरीका के एक प्रमुख अख़बार के हवाले से अपनी बात को जारी रखने की कोशिश करूंगा। उद्देश्य केवल यही है कि देश को आतंकवाद से छुटकारा दिलाने के लिए हमें आतंकवाद की जड़ तक पहुंचना होगा और केवल सरकारों के भरोसे बैठकर प्रतीक्षा करना ही काफी नहीं होगा, बल्कि देश की सुरक्षा की इस जंग में स्वतंत्रता संग्राम की तरह ही सभी नागरिकों को शामिल होना होगा। निम्नलिखित लेख किस लेखक का है, यह कब और किस समाचारपत्र में प्रकाशित हुआ, यह सारे विवरण मैं अपनी अगली क़िस्त में सामने रखूंगा। आज नाम के उल्लेख के बिना यह लेख इसलिए प्रकाशित कर रहा हूं कि देखें कि आपत्ति करने वालों की इस लेख पर क्या प्रतिक्रिया होती है।

क्या अमेरिका 26/11 के सिलसिले में खामोश रहा?

क्या अमरीकियों को 26/11 के षड़यंत्र के बारे में पहले से सूचना थी, जिसे उन लोगों ने भारत को नहीं बताया केवल सचेत किया? और क्या लशकरे तय्यबा के अंदर कोई जासूस था जो वाशिंगटन (या लॉस एंजेलिस) को भारत के विरुद्ध आतंकवादी योजनाओं की सूचनाएं देता रहा-- फिर भी यह सूचना हमको नहीं दी गई।

निश्चित ही यह इस तरह देखने की शुरूआत है।
जब पहली बार हेडली गिरफ़्तार हुआ तो अमरीकियों ने घोषणा की कि उन्होंने डनमार्क के कार्टूनिस्ट की हत्या के षड़यंत्र का रहस्योद्घाटन किया है। उसके बाद अन्य विवरण आने लगे और संदिग्ध आतंकवादी के बारे में बताया गया कि वह पाकिस्तानी मूल का अमरीकी नागरिक है। उसका संबंध लशकरे तय्यबा से है। उसने भारत की कई बार यात्रा की है। वह 26/11 से जुड़ी एडवांस टीम का अंग हो सकता है।

भारतीय गुप्तचर विभाग को इस रिपोर्ट से जिज्ञासा पैदा हुई और वह वाशिंगटन हेडली से मिलने भी रवाना हो गई, लेकिन उन लोगों को हेडली तक पहुंचने की अनुमति नहीं दी गई। उन लोगों ने सव्यं जानने की कोशिश की कि कहीं हेडली वही व्यक्ति तो नहीं जिसकी तलाश वह लोग कर रहे हैं। उन लोगों ने सीआईए से पूछा था कि क्या किसी ऐसे अमेरिकी के बारे में सूचनाएं हैं जो लशकर का अंग था मगर इस सिलसिले में कोई सहयोग प्राप्त नहीं हुआ।

उस समय जब भारतीय मीडिया हेडली की महेश भट्ट के बेटे से दोस्ती को लेकर दीवानी हो रही थी, उसी दौरान अमरीका के खाजी पत्रकारों ने 1998 में मादक पदार्थों के इल्ज़ामे के आरोप में हेडली से जुड़े न्यायिक दस्तावाज़ों को ढूंढ निकाला। उन दस्तावेज़ों के माध्यम से पता चला कि हेडली को सज़ा हो चुकी है और वह जेल भी जा चुका है, लेकिन 9/11 के बाद उसे जेल से रिहा कर दिया गया और पाकिस्तान में ड्रग इन्फोर्समेंट एडमिनिस्ट्रेशन (डीईए) के लिए अंडर कवर एजेंट के रूप में काम करने के लिए भेजा गया।

अमरीकी पत्रकारों के अनुसार हेडली को नया अमरीकी पासपोर्ट उसके असली नाम दाऊद गीलानी के बजाए (उसकी मां का ख़ानदानी नाम हेडली था।) डेविड हेडली के नाम से दिया गया। उसने पूरी दुनिया की यात्रा की। वह अमरीका में अपनी स्वेच्छा से दाख़िल हुआ और बाहर भी गया। आमतौर पर मादक पदार्थों से जुड़े मामलों में सज़ा पाए किसी भी व्यक्ति पर अमरीकी एयरपोर्ट पर विशेश ध्यान दिया जाता है, लेकन उसके मामले में अनदेखी की गई।

इसके अलावा अमरीकी पत्रकारों का विचार है कि डीईए (D.E.A) के लिए काम करने का दायित्व केवल अपनी पहचान छुपाने के लिए हो सकता है। 9/11 के बाद अमरीका के ऊपर दबाव था कि वह पाकिस्तान के आतंकवादी ग्रूप के भीतर घुसपैठ करे और इस उद्देश्य के लिए कई अंडर कवर एजेंट पाकिस्तान रवाना किए गए।

इस समय तक हमारे पास जो सूचनाएं हैं। पहली अमरीकी सरकार की जिसका कहना कि उसने एक आतंकवादी को गिरफ़्तार किया है। दूसरी अमरीकी मीडिया की जिसके अनुसार उस आतंकवादी को अंडर कवर एजेंट के रूप में अमेरिका ने पाकिस्तान रवाना किया।

आमतौर पर अमेरिकी पत्रकारों ने इस बात पर विश्वास करने से इन्कार कर दिया है कि वह केवल डीईए के लिए काम करता था। उन लोगों का मानना है कि वह सीआईए की नौकरी में था, लेकिन कई पत्रकारों का मानना है कि हेडली विद्रोही ;त्वहनमद्ध हो गया और डबल एजेंट बन गया। और लशकरे तय्यबा का सच्चा अनुपालक हो गया।

भारतीय जांच करने वालों के कई प्रश्न हैं। अब हम जानते हैं कि अमेरिका ने हमें सेचना भेजी थी कि ताज महल होटल पर हमला हो सकता है और आतंकवादी समंदर के रास्ते से आएंगे (वास्तव में हमारे लोगों ने इस चेतावनी की अनदेखी की) उस समय यह विश्वास किया गया कि यह गुप्त सूचनाएं आतंकवादियों के नेटवर्क में मौजूद सीआईए के जासूसों द्वारा आई हैं। क्या हेडली ही वह जासूस था?

इसके अलावा अगर अमेरिकी गुप्तचर विभाग हेडली की ही तलाश में थे-- जैसा कि अमेरिका दावा करता है। और वह जानते थे कि लशकरे तय्यबा की ओर से बराबर हिंदुस्तान की यात्रा कर रहा है, तो फिर यह सूचनाएं क्यों नई दिल्ली को नहीं बताई गईं? अगर आप सरकारी पक्ष को स्वीकार करें तो क्या हेडली एक आतंकवादी था, जिसकी उनको तलाश थी, ऐसे में हमारा अधिकार बनता है कि हमें बताया जाए कि वह भारत की यात्रा पर है? अगर वह एक एजेंट था जो विद्रोही (Rogue) हो गया (ग़ैर सरकारी बयान) तब भी हमें बताया जाना चाहिए था, लिहाज़ा हमें क्यों अंधेरे में रखा गया।

जैसा कि मैं जानता हूं इन प्रश्नों के अमेरिकी सरकार ने कोई उत्तर नहीं दिए हैं।
अब हमारे पास भारतीय छान-बीन करने वालों की थ्योरी है, जो इस तरह बयान करती हैः

9/11 की घटना के बाद अमरीका को जासूसों की तलाश थी, जिन्हें पाकिस्तान भेजा जा सके। हेडली को जेल से बाहर निकाला गया और आतंकवादी ग्रूपों के बीच घुसपैठ करने के लिए कहा गया। अमेरिकी सरकार की मदद (नए पासपोर्ट इत्यादि) से वह लशकरे तय्यबा के लिए काम करने लगा और अपने अमेरिकी पासपोर्ट से उन स्थानों तक भी पहुंच प्राप्त की जहां वह अगर अपने पाकिस्तानी संबंध के बारे में बताता उस पर संदेह किया जाता।

वह मुम्बई केवल ताज देखने नहीं आया था बल्कि उसने नरीमन हाउस का जायज़ा भी लिया। उसने स्वयं को अमरीकी यहूदी के रूप में पेश किया और विस्तृत रिपोर्ट भी रवाना की। इस दौरान उसने अपने अमरीकी आक़ाओं को 26/11 के षड़यंत्र के ख़ुलासे दिये। अमेरिका के लिए यहां मुश्किल थी। अगर वह हमें सब कुछ बताता है तो लशकरे तय्यबा को पता चल जाएगा कि हेडली ही सूचनाएं भेज रहा है और उसकी पहचान खुल जाएगी, तब भी अमेरिका ख़ामोश नहीं रहा इसलिए उसने कुछ गुप्त सूचनाएं हमको दीं लेकिन वह जो हेडली तक नहीं पहुंचती थीं और हेडली लशकरे तय्यबा के अंदर अमरीकी पूंजी के तौर पर लगातार काम करता रहा। कुछ माह पूर्व भारतीय गुप्तचर विभाग विभाग ने अमरीकी संबंध वाले बंगला देशी की तलाश शुरू की। इस तलाश में वह एक अमेरिकी तक पहुंच रहे थे जो लशकरे तय्यबा से जुड़ा था। गुप्तचर विभाग ने अमेरिका से मदद मांगी। उसके तुरन्त बाद हेडली गिरफ़्तार हो गया।

गिरफ्तारी पर भारत को आश्चर्य हुआ, जिस तरह से यह सब कुछ हो रहा है अगर अमरीका आतंकवादी के बारे में जानता है और उसे पाकिस्तान या भारत के लिए उड़ान भरने के लिए अनुमति देता है (दोनों जगह हेडली ने बार-बार यात्रा की) और फिर हमारे स्थानीय गुप्तचर विभाग को सूचना दी। फिर आतंकवादी गिरफ़्तार होता है और हिंसा की सहायता से उससे जानकारियां निकाली जाती हैं। (अमेरिका में टार्चर पर प्रतिबंध है।) जब आतंकवादी ने सभी सूचनाएं दीं तो फिर उसे स्वीकृति पत्र के साथ अमेरिकी सरकार के हवाले कर दिया गया।

हालांकि इस मामले में अमेरिकियों ने हेडली को उड़ान भरने से पूर्व ही गिरफ़्तार कर लिया था। इस पर बाक़ाएदा आरोप लगाया गया। वकील करने की अनुमति दी गई और अब वह अमेरिकी संविधान के तमाम रिज़र्वेशनों का हक़दार हो गया है। अब यह उसका अधिकार है कि वह भारतीय गुप्तचर विभाग को कुछ बताए या न बताए।

26/11 हमले के एक संदिग्ध व्यक्ति को क्यों अमेरिका ने इस तरह की सुविधा दी?
उनकी उचित सफाई यह है किः वह एक अमेरिकी एजेंट था। अमेरिका ने उसे उस समय गिरफ्तार किया जब उसे लगा कि भारतीय गुप्तचर विभाग उसके पीछे हैं। उसको जेल जाना होगा। और वह अमरीकी जेल व्यवस्था में कुछ समय के लिए गुम हो जाएगा और फिर बाहर निकाला जाएगा जैसा कि पिछली बार हुआ था।

तो क्या 26/11 के हमले को रोका जा सकता था? अगर थ्योरी सही है तो तब तो बिल्कुल। अमेरिका ने हमको और अधिक सूचनाएं दी होतीं तो हम षड़यंत्र को असफल कर सकते थे।

दूसरी ओर, चेतावनी के बावजूद हम लोगों ने उसकी अनदेखी की। कौन कह सकता है कि अगर हमें सम्पूर्ण सूचनाएं होतीं तो हमारी अयोग्य राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था असफल नहीं होती?

अन्ततः गुप्तचर विभाग सूचनाएं तभी काम की होती हैं जब वह किसी बुद्धिमान व्यक्ति के द्वारा प्राप्त की जाएं।

Tuesday, December 22, 2009

एक सवाल Positive/Negative Thinking का भी है

हम मुसलमान हैं, हम हिंदू हैं, हम सिख हैं, यह सब अपनी-अपनी जगह सच है, मगर हम सब भारतीय हैं क्या यह सच नहीं है? इस देश के स्वाधीनता संघर्ष में क्या हम सब शामिल नहीं थे? जब यह देश गुलाम था तो क्या हिंदू, मुसलमान और सिख समान रूप से फिरंगियों के अत्याचार के शिकार नहीं थे? अगर देश फिर गुलाम हो गया तो क्या फिर हमें ऐसी कठिनाइयों का, कष्टों का सामना नहीं करना पड़ेगा? हां यह कहा जा सकता है कि भारत एक मज़बूत और बहुत बड़ा देश है, अब इसे गुलाम बनाने का प्रयास कौन कर सकता है? अब यह प्रश्न भी मन में क्यों आया कि देश गुलाम हो सकता है? हम चाहें तो सिरे से इस विचार को अनदेखा कर सकते हैं और इस दिशा में सोचना अनावश्यक समझ सकते हैं, मगर कोई इतिहासकार क्या यह बताएगा कि फिरंगी जब लौंग-इलायची का व्यापार करने भारत आए, जब उन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी स्थापित की तो उस समय भारत के शासकों को या भारत की जनता को यह एहसास हो गया था कि वह गुलाम हो गए हैं, या होने जा रहे हैं। हमारे विचार में बिल्कुल नहीं। उन्होंने तब ऐसा सोचा भी नहीं होगा, अन्यथा मुट्ठी भर गोरे जो व्यापार के बहाने यहां आए थे उल्टे पांव लौट जाते। न ईस्ट इण्डिया कम्पनी स्थापित होती न देश गुलाम होता।



फिर इसके बाद गुलामी के दौर की समीक्षा करें तो क्या यह ठीक नहीं है कि अंग्रेज़ों ने हिंदू और मुसलमानों के बीच टकराव की स्थितियां क़दम क़दम पर पैदा कीं और उन्हें यह अच्छी तरह मालूम था कि जब जब इस देश के हिंदू और मुसलमान एक होंगे, यह देश मज़बूत होगा और उनकी आशाएं पूरी नहीं होंगी। उन्हें देश को गुलाम बनाए रखने का अवसर नहीं मिलेगा और अगर यह दोनों क़ौमें आपस में लड़ती रहीं तो देश कमज़ोर हो जाएगा, उनकी रक्षात्मक शक्ति समाप्त हो जाएगी और फिर हमारे लिए यह आसान अवसर होगा कि भारत को अपना गुलाम बनाए रखे। क्या यही रणनीति अब भी नहीं हो सकती।



मैं गढ़े मुर्दे उखाड़ने का प्रयास नहीं कर रहा हूं। एक संक्षिप्त लेख में अंग्रेज़ों की 190 वर्ष की गुलामी की दास्तान बयान नहीं की जा सकती, मैं केवल और केवल फिरंगियों की रणनीति की तरफ इशारा करके अपनी बात को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहा हूं। हम आज़ाद हैं। हमारा देश आज़ाद है। निसंदेह अभी तक तो सच्चाई यही है, मगर क्या हम मानसिक और शारीरिक रूप से पूर्णतः आज़ादी प्राप्त कर चुके हैं? हमें अपने तमाम निर्णय लेने का अधिकार है? अपनी बातों को तर्कों के द्वारा साबित करने का प्रयास अगर हम न करें तो क्या पूरी ईमानदारी से कह सकते हैं कि हम अपने तमाम मामलों में निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं? क्या हमें विश्वास है कि हम किसी साज़िश का शिकार नहीं हो रहे हैं? क्या हम भरोसे के साथ यह कह सकते हैं कि एक बार फिर भारत को कमज़ोर करने, हिंदू और मुसलमानों के बीच नफरत पैदा करने का सुनियोजित षड़यंत्र नहीं किया जा रहा है। क्या हमें इस बात का पूरा विश्वास है कि भारत के विभाजन में उस समय के भारतीय राजनीतिज्ञों के अलावा किसी विदेशी शक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका नहीं थी? मुहम्मद अली जिन्ना को देश विभाजन का ज़िम्मेदार मान भी लें तो क्या लार्ड माउंट बेटन को इस स्थिति के लिए ज़िम्मेदार बिल्कुल नहीं ठहराया जा सकता? समय की धूल के तले दबी इस सच्चाई को हमें इतिहास के दामन में झांक कर देखना होगा। इसलिए कि अब हमारी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य का प्रश्न है। यह बम धमाके केवल भारत-पाकिस्तान में ही क्यों हो रहे हैं? फिलहाल मैं फ़िलस्तीन अफग़ानिस्तान और ईराक़ की बात नहीं कर रहा हूं।



आप अच्छी तरह जानते हैं कि किसी भी धर्म, क़ौम या देश की इमेज बहुत महत्व रखती है। जो हमारे लिए विश्वसनीय होते हैं हम उनकी बात पर आंख बंद करके भरोसा कर लेते हैं, और जो हमारे लिए विश्वसनीय नहीं होते हम उनके सच को भी संदेह की निगाहों से देखते हैं। अर्थात जिसके बारे में हमारी राय सकारात्मक होती है हमें उसके संबंध में हर बात सकारात्मक ही नज़र आती है और जिनका नकारात्मक चरित्र हमारे मन में घर कर गया हो या करा दिया गया हो उसे हम नकारात्मक ही समझते हैं। Positive thinking (सकारात्मक सोच) और Negative thinking (नकारात्मक सोच) का हमारे जीवन में बड़ा गहरा प्रभाव होता है। एक ज़माना था जब हम सीआईए के बारे में अच्छी राय नहीं रखते थे। दुनिया में कहीं भी या विशेष रूप से भारत में अगर कोई भी अप्रिय घटना घटती थी तो सबसे पहले हमारे मन में सीआईए का ही नाम आता था। आज पूरी दुनिया में कहीं भी किसी तरह की कोई आतंकवादी घटना सामने आए हम उसमें सीआईए का हाथ नहीं देखते और न ही मीडिया सीआईए की भूमिका के बारे में कोई बात करता है, न उच्च स्तर के राजनीतिज्ञों के बीच इस दिशा में विचार-विमर्श पाया जाता है और न हमारे ख़ुफिया संगठन अपनी जांच में इस कोण को शामिल रखते हैं। 9/11 की घटना के बाद अवश्य सीआईए पर उंगली उठी मगर इस तरह की सामग्री अधिकतर इंटरनेट पर ही उपलब्ध रही। इलेक्ट्रानिक या प्रिंट मीडिया ने सीआईए या मोसाद पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया, कम से कम भारत में तो यही देखने को मिला। सब कुछ अलक़ायदा और बिन लादेन तक ही सिमटा रहा। आज अगर हम 26/11 की बात करें तो हमारा दिमाग़ पाकिस्तानी आतंकवादियों तक ही सीमित है। पाकिस्तान को या पाकिस्तानी आतंकवादियों को क्लीन चिट नहीं दी जा सकती, बल्कि संदेह के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता, और स्पष्ट रूप से कहें तो अभी तक मिले सबूतों की रोशनी में पाकिस्तान और पाकिस्तानी आंतंकवादियों को ही ज़िम्मेदार क़रार दिया जा सकता है, मगर क्या इनके अलावा कोई और भी इस जुर्म में शामिल है या हो सकता है? क्या इस दिशा में ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए? मेरे इस वाक्य का अर्थ पाकिस्तान का बचाव क्यों समझा जाए? पाकिस्तान अगर 26/11 के लिए उत्तरदायी है तो है, इससे हमदर्दी या बचाव के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता, मगर जो इससे आगे सोचने नहीं देना चाहते, बात करने नहीं देना चाहते, क्या वह हमारे देश के हमदर्द हैं? और अगर ऐसी सोच रखने वाले कुछ भारतीय भी हैं तो क्या वह सही सोच रखते हैं? उन्हें अपनी सोच पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता नहीं होना चाहिए? मैं फिर वही बात कहूंगा कि आज हमारी Thinking (सोच) Positive thinking (सकारात्मक सोच) और Negative Thinking (नकारात्मक सोच) के दायरे में सिमट कर रह गई है? हम जिनके बारे में सकारात्मक सोच रखते हैं, उनका अगर कोई दोष है तो भी हमें दोष नहीं दिखाई देता और जिनके बारे में हम नकारात्मक सोच रखते हैं, हमें वह हर मामले में दोषी ही दिखाई देते हैं। (यहां मैं केवल पाकिस्तान की बात नहीं कर रहा हूं)

अमरीका के संबंध में हमारी सोच सकारात्मक है इसलिए हम उसके बारे में कोई ग़लत बात सोच ही नहीं सकते। डेविड कोलमैन हेडली अगर एफबीआई का एजंेट है और 26/11 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमलों में संलिप्त हैं तब भी हम अमरीका के संबंध में कोई नकारात्मक बात नहीं सोचेंगे। तहव्वुर हुसैन राना मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमलों में शामिल है, वह उससे कुछ दिन पहले मुम्बई में मौजूद होता है और 26 नवम्बर को चीन से दक्षिण कोरिया होते हुए शिकागो (अमरीका) पहुंच जाता है और हमें यह ध्यान नहीं आता कि अगर वह मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले में शामिल है तो उसे अमरीका का ही सबसे सुरक्षित ठिकाना क्यों नज़र आता है? वह अमरीका ही क्यों पहुंचता है? क्या वह आतंकवादियों के लिए पनाहगाह है? क्यों पाकिस्तान नहीं जाता? चीन से पाकिस्तान तो इतना निकट है कि सीमाएं मिली हुई हैं, वह अमरीका का ही चुनाव क्यों करता है? 26/11 को मुम्बई में बुद्धवारा पीठ पर उतरने वाले पाकिस्तानी आतंकवादियों को अपनी आंखों से देखने वाली अनीता उदय्या को ख़ुफिया तौर पर बिना पासपोर्ट और वीज़ा के अमरीका क्यों ले जाया जाता है? उससे क्या बातचीत हुई, उसे क्यों जनता के सामने नहीं रखा गया? क्यूंकि हम अमरीका के बारे में नकारात्मक राय नहीं रखते, अतः इस पर न ध्यान देते हैं, न बात करते हैं और न इसे समाचारों में विशेष महत्व दिया जाता है। एफबीआई भारत आकर 26/11 की जांच में भाग ले। हम उस पर आंख बंद करके भरोसा रखें, हमें यह विचार ही न आए कि एफबीआई इसलिए भी जांच में दिलचस्पी ले सकतीहै ताकि जान सके कि कहीं संदेह की सूई अमरीका की तरफ़ तो नहीं जा रही है? यह हमारी सकारात्मक सोच है। हेडली एफबीआई का एजेंट भी हो और लशकरे तय्यबा का भी हमारी सकारात्मक सोच हमें इस दिशा में सोचने ही नहीं देती कि क्या लशकरे तय्यबा भी एफबीआई के कंट्रोल में है? क्या उसकी एक वतहंद भी हो सकती है? किस तरह इतनी आसानी से वह अपने ऐजेंटों को लशकरे तय्यबा में दाखिल करा देते हैं और अगर यह उनके नेटवर्क का कमाल है और वह हमारे हमदर्द भी हैं तो फिर हमें यह जानकारी समय रहते देकर तबाही से बचाते क्यों नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि अफग़ानिस्तान और इराक़ को तो अमरीका ने स्वयं तबाह कर दिया, फ़िलस्तीन को ईस्राईल के ज़रिए तबाह कर दिया और अब वह चाहता है कि पाकिस्तान को भारत तबाह करे, इस तरह उसका काम हो जाए और कोई बदनामी का दाग भी उसके दामन पर न आए।

पाकिस्तान एक आतंकवादी देश है। यह आतंकवाद इस्लाम के नाम पर है, जिसे जिहाद का नाम दिया गया है। बम धमाके भारत में भी हो रहे हैं और पाकिस्तान में भी। पाकिस्तान में यह धमाके मस्जिदों के अन्दर हो रहे हैं, जहां नमाज़ी मारे जाते हैं। यह कौन से जिहादी हैं? यह कौन से इस्लाम की जंग लड़ रहे हैं, जो मस्जिद के अंदर नमाज़ पढ़ने वालों को मारते हैं? अगर यह हमले पाकिस्तान के ऐसे स्थानों पर हुए होते जिन्हें शराब ख़ाना कहा जा सकता हो, जिन्हें अय्याशी का अड्डा कहा जा सकता हो, तब तो सोचा जा सकता था कि यह धार्मिक जुनून है।

हम कभी इस दिशा में विचार क्यों नहीं करते कि इस्लाम और मुसलमानों की यह तस्वीर क्यों बना दी गई है कि वह आतंकवादी हैं। ऐसा किसने किया है और उससे लाभ किसको है? मुसलमान कोई ऐसी क़ौम नहीं है, जिसका अस्तित्व केवल कुछ वर्षों से ही हो। क्या मुस्लिम क़ौम 9/11 के आसपास ही अस्तित्व में आई है, इससे पहले उसका अस्तित्व था ही नहीं। इस्लामी जंगों का हवाला मत दीजिएगा। जंगें रसूलल्लाह के नेतृत्व में भी लड़ी गईं। और इमाम हुसैन के नेतृत्व में करबला के मैदान पर भी, जंगें भारत में भी हुईं। कौरवों और पांडव के बीच का महाभारत या श्री राम और रावण के बीच का युद्ध। मुग़ल युग का उदाहरण भी मत दीजिए। सरकारें बनाने, सत्ता प्राप्त करने के लिए यह किसने नहीं किया? क्या नीरो की सनक और जलियां वाला बाग़ हम भूल गए? क्या गुजरात हमें याद नहीं? यह सब सत्ता का नशा था और ऐसा ही नशा मुग़ल युग में भी रहा, मुग़ल शासक ज़ालिम थे तो इसका अर्थ यह नहीं कि हम इस्लाम या मुसलमानों को ज़ालिम ठहराएं। जलियां वाला बाग़ एक अंग्रेज़ शासक के अत्याचार का परिणाम था, इसका यह मतलब नहीं कि हम पूरी ईसाई क़ौम को दोषी ठहरा दें। कोई एक हिंदू अगर ग़लती करता है, भले ही वह शासक हो या जनता के बीच से, तो पूरी क़ौम को इस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। आज हमें गंभीरता से इस स्थिति पर ध्यान देना होगा कि हम केवल अपराधियों को अपराधी समझें और आतंकवादियों को आतंकवादी। उनके धर्मों को हम ऐसे शीर्षक न दें। आज हमें अपना देश खतरे में नज़र आता है। हम यह ख़तरा किसी अपने से कमज़ोर देश से नहीं महसूस कर सकते, उसे तो हम जब चाहें चींटी की तरह मसल सकते हैं। अगर हमें असली ख़तरा किसी से हो सकता है तो उससे जो शक्ति में हमारे बराबर हो या हम से अधिक। हमें खतरा उससे हो सकता है जो हमें गुलाम बनाने की इच्छा रख सकता हो। जो स्वयं गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ हो भला हमें उससे क्या ख़तरा हो सकता है।

जी हां, मैं बात 26/11 पर ही कर रहा हूं। मैं इस आतंकवादी हमले को भारत की महानता पर, भारत की अखंडता पर एक बड़ा हमला मानता हूं और एक देश प्रेमी नागरिक होने के नाते मेरा कर्तव्य बनता है कि मैं अपने देश पर मंडरा रहे हर ख़तरे पर बात करूं, ध्यान दिलाऊं आज का यह लेख 26/11 पर लिखे जाने वाले लेखों की ही एक कड़ी है। आगे भी हमारा प्रयास यही रहेगा कि इस आतंकवादी हमले को और इस हमले से होने वाले प्रभावों को हर पहलू से हर कोण से देखा जाए और फिर उन तमाम आतंकवादियों को जो इसमें शामिल थे या जिनकी मानसिक उपज का यह परिणाम था, उन्हें एक उचित सबक़ सिखाया जा सके।.......................

वो चाहते हैं मेरे लिए सजाए मौत

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 107, 108, 117, 121, 124-ए, 153-ए, 153-बी, 505 (2) और 506 के अन्तर्गत मुक़दमा दायर किया गया है मेरे विरुद्ध मुम्बई की एक अदालत में। स्पष्ट रहे कि यह ऐसी धाराएं हैं कि सज़ाए मौत और उम्रक़ैद तक की सज़ाएं दी जा सकती हैं। मुक़दमा दायर करने वालों के अनुसार मैंने भारत सरकार के विरुद्ध विद्रोह का रवैया अपनाया हुआ है। मैंने दो सम्प्रदायों के बीच घृणा के हालात पैदा करने का प्रयास किया है। यह सब 26/11 के बाद उस आतंकवादी हमले पर लिखे गए मेरे लेखों पर संघ परिवार के एक समर्थक कार्यकर्ता की प्रतिक्रिया है।

अब चूंकि मुक़दमा दायर करने वालों में केवल एक ही नाम लिखित रूप में सामने आया है अतः न तो यह कहा जा सकता है कि कितने व्यक्ति इसमें शामिल हैं और न यह कि वह कौन सी संस्था है जिसकी ओर से यह मुहिम छेड़ी गई है। बहरहाल कोई अकेला व्यक्ति एक लम्बे समय तक लगातार इस सिलसिले को जारी रखे, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, पे्रस कौन्सिल हर जगह सम्पर्क करे, अख़बारों और इंटरनेट की विभिन्न वेबसाइटों को यह सामग्री उपलब्ध कराए या फिर उन्हें इसके प्रकाशन पर आमादा करे और चाहे कि इसका बड़े पैमाने पर प्रोपेगंडा हो गृहमंत्री, प्रधानमंत्री अर्थात भारत सरकार पर यह दबाव बनाए कि वह कोई क़दम उठाएं यही दुर्भावना नज़र आती है इस मुहिम की।

यहां मुझे धन्यवाद करना होगा कि भारत सरकार ने अभी तक संभवतः ऐसी किसी भी मुहिम को गंभीरता से नहीं लिया है। फिर भी इस मानसिकता के इरादे तो साफ़तौर से नज़र आते हैं जो तथ्यों को जनता के सामने लाने के हमारे प्रयासों के विरुद्ध लगातार रुकावट डालते रहे हैं। जिस व्यक्ति ने मुम्बई की अदालत में यह मुक़दमा दर्ज किया उसने उपरोक्त समस्त कार्यालयों में मेरे समाचारपत्र में प्रकाशित मेरे लेखों की कॉपी ग़लत रूप में पेश करके यह साबित करने का प्रयास किया कि जिन धाराओं के अन्र्तगत मुक़दमा दायर किया गया है वह उचित हैं। क्योंकि बात अभी अदालत की ओर से मुझ तक पहुंची ही नहीं इसलिए मैं इस सिलसिले में अभी कुछ नहीं कहना चाहता।

मगर 4 महीने से अधिक प्रतीक्षा के बाद अपने पाठकों और भारत सरकार के सामने यह बात रखना अब ज़रूरी हो गया है कि ऐसे लोग हमारे देश में मौजूद हैं, जो 26/11/2008 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमलों के तथ्यों को सामने नहीं आने देना चाहते। आज भी शायद मैं इन तमाम तथ्यों को सामने रखने की शुरूआत न करता। अगर स्वयं सच जनता के सामने न आने लगा होता। अब तो मैं डंके की चोट पर कह सकता हूं कि उस आतंकवादी हमले से लगभग 1 वर्ष पूर्व मैंने जो कुछ लिखा था और प्रकाशित किया था वह बेबुनियाद नहीं था।

अभी तो केवल अजमल आमिर क़साब का बदला हुआ बयान ही सामने आया है, जिसका अंदेशा हमें पहले दिन से ही था और डेविड कोलमैन हेडली और तहव्वुर हुसैन राना के नाम ही सामने आए हैं। हमारे विचार में यह तो बहुत छोटी मछलियां हैं, ‘मगरमच्छ’ सामने होने पर भी अभी हम उसके बारे में बात नहीं कर रहे हैं। हद तो यह है कि अभी मेरा क़लम भी ख़ामोश है, मैं भी मगरमच्छ का नाम नहीं लिख रहा हूं, इसलिए कि पूर्णविश्वास है कि जिस तरह मछलियां जाल में फंसने लगी हैं, एक दिन मगरमच्छ का अपराध भी चीख़-चीख़ कर बोलेगा हां इस अपराध में मैं भी शामिल था।

26/11 पर ताज़ा रहस्योद्घाटन के बाद जब मैंने एक बार फिर लिखना शुरू किया तो पहला नाम डेविड कोलमैन हेडली का था जिसके संबंध में काफी कुछ जानकारियां मैंने एकत्र कर ली थीं, लेकिन तभी अजमल आमिर क़साब का बदला हुआ बयान मेरे सामने आया और मुझे इस तरफ भी ध्यान देना पड़ा। फिर स्थिति कुछ ऐसी बनी कि जो मुक़दमा मुम्बई की अदालत में लगभग 4 माह पूर्व दायर किया गया था और जिस पर मैं लगातार ख़ामोश रहा उसे सामने रखना पड़ा, इसलिए कि अब इस मानसिकता को सामने रखना आवश्यक हो गया जो पर्दे के पीछे विरोधी गतिविधियों में संलिप्त हैं और उनकी यह मुहिम रुक ही नहीं रही है।

अतः मैंने मुम्बई और दिल्ली में अपने क़ानून विशेषज्ञ दोस्तों से सम्पर्क किया और जानकारियां प्राप्त कीं कि आखिर इस मुक़दमे को दायर करने की स्थिति क्या है? इन्हें कितनी गंभीरता से लेने की आवश्यकता है और इसके अंतर्गत क्या कार्रवाई संभव है? मुक़दमें में दायर धाराओं की क़ानूनी हैसियत क्या है, अपने इस लेख के साथ मैं अपने पाठकों के सामने यह तफ़्सील भी पेश कर रहा हूं। ताकि वह अनुमान कर सकें कि सच को सामने लाने के प्रयास के परिणाम क्या-क्या हो सकते हैं।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 107-108 में उकसाने व अपराध में सहयोग करने की परिभाषा दी गई है। यह धाराएं स्पष्टीकरण हैं और इनके अन्तर्गत मुक़दमा नहीं दर्ज किया जाता। सज़ा का प्रावधान करने वाली धारा 109 है।

धारा 117: जनता या 10 से अधिक व्यक्तियों के किसी गिरोह को किसी अपराध पर उकसाना। ‘‘जो कोई जनता या 10 से अधिक व्यक्तियों के ग्रुप को किसी अपराध के लिए उकसाता है उसे साधारण कारावास या सश्रम कारावास (जिसकी अवधि 3 वर्ष तक हो सकती है) की सज़ा दी जाएगी। या जुर्माना लगाया जाएगा और दोनों सज़ाए अर्थात् क़ैद और जुर्माना भी दी जा सकती हैं।’’
(नोटः इस धारा के अन्तर्गत अधिक से अधिक 3 वर्ष सश्रम कारावास व जुर्माना)।

धारा 121: भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध (बग़ावत) करना, युद्ध करने का प्रयास करना या ऐसे युद्ध के लिए उकसाना और प्रोत्साहन देना।‘‘जो कोई भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करे, युद्ध करने का प्रयास करे या ऐसे युद्ध के लिए उकसाए या प्रोत्साहित करे वह मृत्यु दण्ड या आजीवन कारावास का अधिकारी होगा और उस पर जुर्माना भी किया जाएगा।’’
(नोटः इस धारा के अन्तर्गत उपरोक्त अपराध पुलिस हस्तक्षेप योग्य, ग़ैर ज़मानती, आपसी समझौते में असमर्थ है और इसी के अन्तर्गत मुक़दमा सेशन न्यायालय में चलाया जाएगा)।

धारा 124-एः राष्ट्रद्रोह (ग़द्दारी) Sedition ‘‘जो कोई लेख या भाषण या अन्य दिखाई देने वाले माध्यमों से भारत में जारी क़ानून के अन्तर्गत स्थापित सरकार के लिए असंतोषजनक, हीनता और घृणा की भावनाओं को बढ़ाता है उसे आजीवन कारावास जिसमें जुर्माना भी शामिल हो, दी जा सकती है या 3 वर्ष का साधारण कारावास जुर्माना सहित या केवल जुर्माना लगाया जा सकता है।

धारा 153-एः अनेक ग्रुपों और वर्गों के बीच धर्म, नस्ल, जन्म स्थान, निवास और भाषा के आधार पर शत्रुता को बढ़ाना या ऐसा काम करना जो सहिष्णुता के लिए हानिकारक हों। इस अपराध के लिए 3 वर्ष का साधारण कारावास या केवल जुर्माना या दोनों दिए जा सकते हैं। 1। अगर उपरोक्त अपराध किसी पूजा स्थल में या किसी धार्मिक सभा में हो तो पांच वर्ष का साधारण कारावास जुर्माना सहित होगा।

धारा 153-बीः राष्ट्रीय एकता को सीधे या किसी अन्य तरीक़े से हानि पहुंचाना।
‘‘जो कोई सीधे या सांकेतिथ तरीक़े से कहे कि उक्त ग्रुप या वर्ग केवल अपनी भाषा, धर्म, नस्ल, राज्य और जाति के आधार पर भारत के संविधान से वफ़ादारी नहीं रखता।
या
कोई ग्रुप या वर्ग केवल अपने धर्म, नस्ल, राज्य, भाषा और जाति के आधार पर अपने नागरिक अधिकारों से वंचित कर दिया जाना चाहिए।
या
जो व्यक्ति इस तरह का प्रोपेगंडा करे जिससे केवल भाषा, नस्ल, धर्म, राज्य, क्षेत्रीय गिरोहबंदी आदि के आधारों पर समाज में घृणा फैले और राष्ट्रीय एकता खंडित हो ऐसे व्यक्ति को 3 वर्ष की क़ैद और जुर्माना या केवल जुर्माने की सज़ा दी जाएगी।
2। अगर उपरोक्त अपराध किसी पूजा स्थल में पूजा व इबादत के बीच (धार्मिक भाषण हो किया जाए तो सज़ा की अवधि 5 वर्ष तक हो सकती है और जुर्माना भी लगाया जाएगा।)

धारा 505-(2)ः ऐसे वक्तव्य देना जिनसे विभिन्न वर्गों के बीच घृणा और शत्रुता को बढ़ावा मिले।
‘‘जो कोई इस तरह के वक्तव्य (लेख या भाषण के द्वारा) देता है जिनसे विभिन्न वर्गों के बीच धर्म, नस्ल, भाषा, निवास स्थान, जन्म स्थान, क़ौम और क्षेत्रीय ग्रुपबंदी के आधारों पर घृणा और रंजिश पैदा होती हो या उसको बढ़ावा मिलता है तो ऐसे व्यक्ति को साधारण कारावास जिसकी अवधि 3 वर्ष तक हो सकती है दिया जा सकता है व जुर्माना लगाया जा सकता है या दोनों सज़ाएं भी दी जा सकती हैं।

धारा ५०६: अपराधिक धमकी।
‘‘जो व्यक्ति किसी को इस तरह धमकी देता है जिससे सुनने वाले के दिल पर भय व्याप्त हो जाए तो उसकी सज़ा 2 वर्ष का साधारण कारावास या जुर्माना या दोनों हैं।
और अगर धमकी जान से मार देने की है तो सज़ा की अवधि 7 साल हो सकती है, व जुर्माना भी लगाया जा सकता है।

विभिन्न परिभाषाएं:
पुलिस द्वारा हस्तक्षेप योग्य अपराध Cognizable offence
समस्त अपराध जो पुलिस के हस्तक्षेप योग्य हों उनके अन्तर्गत पुलिस को बिना वारंट गिरफ़्तारी का अधिकार है।

ग़ैर ज़मानती Non Bailable
समस्त ग़ैर ज़मानती अपराधों में गिरफ्तारी के बाद ज़मानत पर रिहाई न्यायालय के विवेक (Discretion) पर आधारित है, जबकि समस्त ज़मानती (Bailable) अपराधों में ज़मानत का अधिकार है अर्थात् जैसे ही ज़मानत पेश की जाए पुलिस या अदालत आरोपी को मुक्त करने पर मजबूर है।

WARRANT CASE

वे समस्त मुक़दमे जो किसी शिकायत पर एफआईआर दर्ज किए जाने पर पुलिस के द्वारा बनाए गए हों उनको साधारणतः पुलिस केस भी कहा जाता है।
साधारणतः यह मुक़दमे ग़ैर ज़मानती और पुलिस हस्तक्षेप योग्य होते हैं।

SUMMONS CASE

ज़मानती Bailable और गैर ज़मानती (Non bailable) मुक़दमे चाहे वह पुलिस हस्तक्षेप योग्य हों या पुलिस हस्तक्षेप योग्य न हों सीधे किसी मजिस्ट्रेट की अदालत में शिकायतकर्ता के द्वारा शिकायत दर्ज कराने पर क़ायम हो जाते हैं लेकिन ऐसे क़ायम किए गए मुक़दमों के बाद आरोपी या आरोपियों को उस समय तक तलब नहीं किया जाता जब तक एक तरफा साक्ष्य देखने और सुनने के बाद न्यायालय संतुष्ट न हो जाए कि प्रथम दृष्टयः (Prime facia) किसी अपराध का होना पाया जाता है, लेकिन अगर मौलिक साक्ष्य उपलब्ध करा दिए जाएं और शिकायतकर्ता का शपथ पत्र अदालत के सामने हो तो साधारणतः आरोपी या आरोपियों को तलब कर लिया जाता है।
नोटः इस केस में दर्ज समस्त मुक़दमे पुलिस हस्तक्षेप योग्य और ग़ैर ज़मानती हैं। प्रबल संभावना है कि इस समय साक्ष्य (Evidence) का चरण चल रहा है। मौलिक साक्ष्य से संतुष्ट होने के बाद अदालत समन जारी करेगी और इस स्थिति में आपको न्यायालय में पेश हो कर ज़मानत का प्रार्थना पत्र देना होगा। जिसकी स्वीकार्यता या अस्वीकार्यता न्यायालय के विवेक पर निर्भर है।...............................................

26/11 को मुम्बई पुलिस का किरदार एक और सवाल?

‘‘टु दि लास्ट बुलेट’’ (To the Last Bullet) यह पुस्तक मेरी नहीं है। विनीता काम्टे द्वारा लिखी गई है। विनीता काम्टे जांबाज़, बहादुर पुलिस अधिकारी अशोक काम्टे की विधवा हैं। पुस्तक का विषय 26/11/2008 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले और उस हमले में अशोक काम्टे की मृत्यु किस प्रकार, किन परिस्थितियों में हुई और पुलिस की भूमिका क्या रही, उसके विवरण पर आधारित है। यह पुस्तक विनीता काम्टे की निजी छानबीन के आधार पर लिखी गई है।

स्पष्ट हो कि इस छानबीन में पुलिस ने विनीता काम्टे की कोई सहायता नहीं की बल्कि बाधाएं खड़ी की जाती रहीं। इस पुस्तक को मैंने अभी पढ़ा नहीं है, लेकिन वीर संघवी ने पढ़ा है और उस पर समीक्षा भी की है, इसलिए निम्नलिखित लेख भी मेरा नहीं है, यह भी वीर संघवी का है, जो विनीता काम्टे की पुस्तक को पढ़ने के बाद उस पर अपनी समीक्षा के रूप में अंग्रेज़ी दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित किया गया है।


मैं इस लेख को पाठकों की सेवा में इसलिए पेश करना चाहता हूं कि लगभग यही सब कुछ जो अब सामने आ रहा है, वह एक वर्ष पूर्व अपने क़िस्तवार कॉलम ‘‘मुसलमानाने हिन्द.... माज़ी, हाल और मुस्तक़बिल???’’ की कई क़िस्तों में और विशेष रूप से 100 वीं क़िस्त में, जिसका शीर्षक था ‘‘शहीदे वतन हेमंत करकरे की शहादत को सलाम’’ में लिख चुका हूं, जो कि 5 जनवरी 2009 को प्रकाशित किया गया और जिसके परिणाम स्वरूप संघ परिवार के एक सदस्य अथवा शुभचिंतक द्वारा मुम्बई की एक अदालत में मेरे विरुद्ध देशद्रोह का मुक़दमा भी क़ायम किया गया है।

यह भी और इसके अलावा और भी जो कुछ हुआ वह सभी विवरण आने वाली क़िस्तों में प्रकाशित किया जाएगा, लेकिन इस समय अधिक महत्वपूर्ण यह है कि मेरे जिस प्रश्न पर वह सब क्रोधित व उत्तेजित हो उठे थे, जो 26/11 को हुए आतंकवादी हमले पर 10 आतंकवादियों से हट कर कोई बात सुनना ही नहीं चाहते थे, अब उन्हें हर तरफ़ से नए आतंकवादियों के बारे में सुनना व पढ़ना पड़ रहा है और केवल इतना ही नहीं इस हमले में सबसे पहले शहादत का जाम पीने वाले अशोक काम्टे की विधवा भी अब खुले शब्दों में यह लिख रही हैं कि पुलिस ने अपने दायित्व को ठीक ढंग से नहीं निभाया।

करकरे के मंगाने पर भी पुलिस फोर्स नहीं भेजी गई। उनके संदेश को न आगे बढ़ाया गया और न उस पर कार्रवाई की गई। घायल अवस्था में पड़े उन जांबाज़ पुलिस वालों को चिकित्सा सहायता के लिए 2 मिनट की दूरी पर स्थित अस्पताल में नहीं ले जाया गया, उन्हें मरने के लिए सड़क पर छोड़ दिया गया। क्राइम ब्रांच का एक अधिकारी जो कन्ट्रोलरूम की निगरानी कर रहा था, वह करकरे की सहायता नहीं करना चाहता था। सभी विवरण दर्ज हैं विनीता कामटे की पुस्तक ‘‘टू दि लास्ट बुलेट’’ में और इन तमाम तथ्यों को छूते हुए अपनी समीक्षा में प्रस्तुत किया है वीर संघवी ने।

क्या अब भी यह कहा जा सकेगा कि मुम्बई पर हमला करने वाले केवल 10 आतंकवादी थे? मुझे अभी इस संबंध में बहुत कुछ लिखना है, लेकिन पहले अध्ययन करें विनीता काम्टे की छानबीन पर आधारित पुस्तक पर लिखी गई यह समीक्षा

Who killed Kamte?
26/11 की घटनाओं के बारे में हम जितना अधिक पढ़ते हैं उतना ही कम जानते हैं। अब हम सभी लोग जानते हैं कि किसने षड़यंत्र रचा और किसने हमला किया- इसके लिए क़साब का शुक्रिाया--- लेकिन 26/11 के अन्य पहलुओं के बारे में हमें जितना जानना चाहिए, उससे कम जानते हैं।जो भी नई जानकारियां सामने आ रही हैं वह मुम्बई पुलिस को कटघरे में खड़ा करती हैं। सबसे पहले पुलिस कमिश्नर के रूप में हसन ग़फूर ने दावा किया कि उस रात उनके 4 पुलिस अधिकारियों ने अपनी जान जोखिम में डालने से इन्कार कर दिया था।

और अब विनीता काम्टे की पुस्तक ‘टु द लास्ट बुलेट’ (अमया प्रकाशन)।हम सभी जानते हैं कि 26/11 की रात को अशोक काम्टे, हेमंत करकरे और विजय साल्सकर मारे गए और उसके लिए बताया गया कि यह 2 उच्च अधिकारी (साल्सकर आईपीएस नहीं थे) ने मूर्खतापूर्वक मुम्बई की सड़कों पर बेतहाशा गाड़ी चलाई और वह आतंकवादियों के आसान शिकार बन गए। विनीता की पुस्तक इसके विपरीत सिद्ध करती है। उनके साथियों ने उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया। ऽ सबसे पहले अशोक काम्टे ऐसे ही गाड़ी नहीं चला रहे थे। वह ईस्ट ज़ोन के इंचार्ज थे और हमला उनके क्षेत्र से बाहर हुआ था। उनको विशेष रूप से स्पेशल ब्रांच ऑफिस बुलाया गया, उस स्थान के निकट जहां आतंकवादी थे।

ऽ दूसरे काम्टे और करकरे साथ-साथ नहीं थे। करकरे ने वीटी स्टेशन पर फाएरिंग के बारे में सुना और स्वयं वहां पहुंच गए। प्रत्येक्ष दर्शियों ने उन्हें बताया कि आतंकवादी चले गए हैं और कामा अस्पताल पहुंच गए हैं। करकरे ने रात ११:२४ पर सेन्ट्रल रूम को संदेश भेजा, ‘हमें कामा अस्पताल का घेराव करना होगा। हम एसबी-2 (ैठ।2) कार्यालय की ओर हैं। एक टीम कामा अस्पताल के सामने की ओर भेजो। सेना से उनके कमान्डोज़ के लिए वह आग्रह करें।’ इस प्रकार रात ११ : २४ बजे राज्य के एटीएस प्रमुख को (1) यह आभास हो गया था कि यह एक आतंकवादी हमला है। जबकि पुलिस फोर्स कुछ भी समझ पाने की स्थित में नहीं थी। (2) सेना के कमान्डोज़ के लिए निवेदन किया (3) कामा अस्पताल को घेर कर आतंकवादियों को बाहर निकालने की योजना भी बनाई थी। लेकिन इन तमाम निवेदनों की अनदेखी कर दी गई। कामा अस्पताल कमक नहीं पहुंची और जो कुछ भी करकरे ने कहा उसके आगे नहीं बढ़ाया गया जबकि कामा अस्पताल से पुलिस मुखियालय केवल 2 मिनट की दूरी पर है।

ऐसा नहीं हो सका क्योंकि कामा अस्पताल के मुख्य द्वार पर कोई पुलिस कर्मी नहीं था, क़साब और उसका साथी इस्माईल बड़े आराम से अस्पताल से बाहर निकल गए। वह निकट ही रंग भवन लेन में चले गए। रास्ते में उन्होंने एक गुज़रती हुई होंडा सिटी गाड़ी पर गोली चलाई। गोली ड्राइवर की उंगली में लगी। आज़ाद मैदान पुलिस स्टेशन के 2 कांस्टेबलों ने पूरी घटना को देखा और ११:४५ बजे कंट्रोल रूम को सूचना दी। रंग भवन लेन में रहने वाले, जिन्होंने गोलीबारी देखी थी, उन्होंने भी कंट्रोलरूम को सूचना दी। कंट्रोलरूम में उपस्थित किसी भी व्यक्ति ने न तो पुलिस भेजी और न ही करकरे को इस बारे में कुछ बताया। उनको विश्वास था कि आतंकवादी अब भी अस्पताल के भीतर हैं। और अतिरिक्त पुलिस कामा अस्पताल पहुंच चुकी है। क्योंकि आधा घंटा पहले ही उन्होंने सहायता के लिए कंट्रोलरूम को रेडियो पर संदेश भेज दिया था।

करकरे ने फैसला किया कि वह कामा अस्पताल के सामने के भाग की ओर जाएंगे और काम्टे, (जिसके पास ए॰के॰47 थी) और साल्सकर (एन्काउन्टर स्पेशलिस्ट) को साथ ले गए।लगभग १२:०१ बजे के आस-पास करकरे, काम्टे और साल्सकर को ले जा रही गाड़ी रंग भवन लेन में प्रवेश हुई। अधिकारियों को लगा कि झाड़ियों में कुछ हिल-डोल रहा है। इसलिए काम्टे गाड़ी से बाहर उतरे और अपनी एके-47 से गोली चलाई। गोली क़साब के बाज़ू में लगी। लेकिन इस्माईल ने अपनी एसाल्ट राइफल से जवाबी गोली चलाई और इस लड़ाई में तीनों आदमी (काम्टे, करकरे और साल्सकर) घायल हो गए। (और क़साब भी)।

आतंकवादियों ने उनको गाड़ी से बाहर निकाला और सड़क पर फैंक दिया और कार को अपने क़ब्ज़े में कर लिया। यह लोग यहां पर १२:०४ बजे से १२:४९ बजे तक पड़े रहे। क्या वह मर गए थे? शायद नहीं। साल्सकर जीवित थे, जब उन्हें अस्पताल ले जाया गया। उनकी मृत्यु वहीं हुई। काम्टे की मृत्यु सर में चोट के कारण हुई और अगर सड़क पर 40 मिनट तक उन्हें घायल अवस्था में छोड़ा नहीं गया होता तो शायद वह जीवित होते।क्यों मुम्बई पुलिस ने अपने बेहतरीन लोगों को घायल आवस्था में पड़े रहने दिया जबकि मुख्यालय वहां से 2 मिनट की दूरी पर था? वह जानते थे कि वह वहां हैं। रंग भवन लेन के निवासियों ने कन्ट्रोलरूम को लगातार फोन किया। कई ने बार-बार फोन किया।

आतंकवादियों और गोलीबारी के बारे में पुलिस को बताया लेकिन किसी ने जवाब नहीं दिया। रात १२:०४ बजे गोलीबारी के ठीक बाद एक पुलिस कर्मी ने सेंट्रल कन्ट्रोलरूम को गोलीबारी की सूचना दी। अरुण जाधव ने, जो हमले में बच गया था, १२:२५ मिनट पर कन्ट्रोलरूम को घटना के बारे में बताया- कुछ नहीं हुआ।प्रत्येक्ष दर्शियों ने कहा कि पुलिस अधिकारीयों पर गोलीबारी के ठीक बाद एक पुलिस की गाड़ी तेज़ी से गुज़री, लेकिन न तो वह रुकी और न ही उसने कन्ट्रोलरूम को सूचना दी। रात १२:३३ बजे एक और पुलिस की गाड़ी गुज़री, उसने कन्ट्रोलरूम को बताया कि तीन लोग सेन्ट ज़ेवियर लेन में पड़े हैं। हमें स्ट्रेचर की आवश्यकता है लेकिन यह रुकी नहीं और न ही अगले 16 मिनट तक कोई सहायता आई।

कन्ट्रोलरूम ने आतंकवादियों को भागने दिया और 3 बहादुर पुलिस अधिकारियों को कुत्ते की मौत मरने के लिए घायल अवस्था में सड़क पर पड़े रहने दिया। और इसके अलावा पुलिस के झूठ और अंदरूनी राजनीति भी है। 26/11 की घटना के बारे में एक थ्योरी के अनुसार अंदरूनी राजनीति के कारण क्राइम ब्रांच का अधिकारी जो कन्ट्रोलरूम की निगरानी कर रहा था, वह करकरे की सहायता नहीं करना चाहता था। जिस प्रकार से पुलिस ने इन तथ्यों को छुपाने की कोशिश की कि क़साब को काम्टे ने ही घायल किया था (जिससे उसे गिरफ़तार करना आसान हो गया), वास्तव में यह निंदनीय है।जब विनीता काम्टे ने यह जानने का प्रयास किया कि किस प्रकार उनके पति की मृत्यु हुई तो मुम्बई पुलिस ने तथ्यों तक पहुंचने से रोकने के लिए बहुत कुछ किया।

आख़िरकार राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त ने पुलिस पर बल दिया कि वह सूचना के अधिकार के तहत ऑडियो रेकॉर्ड्स और अन्य जानकारी दे। इस प्रकार हम जान पाए कि उस रात क्या हुआ था।और इसका श्रेय उस बहादुर महिला तथा आरटीआई को जाता है जिसने जनता और सरकार के संबंधों के इक्वेशन को बदल दिया। लेकिन यह मुम्बई पुलिस के बारे में बहुत कम बताती है। वह अधिकारी जिन्होंने उनके पति को मौत के मुंह में भेजा वह आज भी अधिकारियों की स्थिति में हैं। आइंदा जब आतंकवादी हमला करेंगे, हमारी पुलिस फोर्स फिर नाकाम होगी। बहादुर लोग अपनी जान गंवाएंगे और पुलिस फोर्स की अंदरूनी राजनीति का ख़मियाज़ा मुम्बई को भुगतना होगा।...........................................................

क़साब की ज़बान पर हेडली का नाम, सवाल बहुत बड़ा है!

26/11 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले में लिप्त एक मात्र जीवित पकड़ा गया आतंकवादी अजमल आमिर क़साब झूठा है, मक्कार है, नौटंकी बाज़ है, इत्यादि इत्यादि। यह तमाम बातें सामने आ रही हैं 18 दिसम्बर 2009 शुक्रवार को अदालत में क़साब द्वारा दिए गए हालिया बयान के बाद, जिसमें वह अपने अब तक के सभी बयानों से मुकर गया और पुलिस पर आरोप लगाया कि इससे पहले मैंने जो कुछ कहा था, वह पुलिस की अनुचित ज़्यादतियों के कारण कहा था।

आम धारणा यह है कि क़साब एक चालाक अपराधी है और अब झूठ बोल रहा है। हो सकता है यह आम धारणा ही दुरुस्त हो, मगर इस धारणा से भी एक बात तो स्पष्ट होती ही है कि क़साब झूठा है। क़साब अगर झूठा है तो उसके पहले के बयान को इतना सही मान लेना भी क्या बुद्धिमानीता होगी? एक झूठा व्यक्ति पहली बार झूठ बोले या बाद में झूठ बोले उससे उसका चरित्र तो स्पष्ट होता ही है कि वह विश्वसनीय नहीं है और केवल उसकी बातों पर विश्वास करके ही कोई परिणाम निकाला नहीं जा सकता।

अजमल आमिर क़साब के बयान को सच्चाई की कसोटी पर परखा जाए तो वह उसी समय झूठा साबित हो जाता है, जब उसने पहली बार पुलिस को यह बयान दिया और उसके इसी बयान के आधार पर पुलिस की कार्रवाई आगे बढ़ी। संसद में गृहमंत्री का बयान आतंकवादी अजमल आमिर क़साब के इक़बालिया बयान से बहुत अलग नहीं था।

लेखक ने 26 नवम्बर को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमलों के बाद स्वयं हर उस स्थान पर पहुंच कर सच्चाई को जानने की कोशिश की, जिनका संबंध उन आतंकवादी हमलों से था। ‘बुधवारापीठ’ जहां नाव द्वारा आतंकवादी पहुंचे। ‘लियोपोल्ड केफे’ जहां सबसे पहले फायरिंग की गई। ‘होटल ताज’ जो आतंकवादी हमलों का निशाना बना। ‘सीएसटी स्टेशन’ जहां अजमल आमिर क़साब ने अपने साथी आतंकवादी इस्माईल के साथ मिल कर अंधाधुंध गोलीबारी की। इस रेलवे स्टेशन का वह शौचालय जिसमें जाकर आतंकवादियों ने अपने थैलों से शस्त्र बाहर निकाले। वह रेस्तोरां, जो शौचालय से बाहर आने के बाद सबसे पहले गोलियों का निशाना बना, रेलवे स्टेशन का वह द्वार जहां से आतंकवादी स्टेशन के अंदर दाख़िल हुए होंगे। रेलवे स्टेशन का वह द्वार जो टाइम्स ऑफ़ इण्डिया और कामा अस्पताल वाली गली के सामने खुलता है। कामा अस्पताल के पीछे वाली गली की वह जगह जहां शहीद हेमंत करकरे, अशोक काम्टे और विजय साल्सकर की लाशें पाई गईं। वह झाड़ियां जिनके पीछे आतंकवादियों के छुपे होने की बात कही गई। स्वयं अजमल आमिर क़साब ने स्वीकार किया कि इस्माईल और वह स्वयं उन झाड़ियों के पीछे छुपे थे, जब तीनों अधिकारियों की गाड़ी से उस पर गोलियां चलाई गईं। ‘गिरगाम चोपाटी’ जहां से अजमल आमिर क़साब को जीवित गिरफ़्तार किया गया। ‘होटल ओबराय’ आतंकवादियों का शिकार दूसरा पांच सितारा होटल। ‘नरीमन प्वाइंट’ पर समुद्र का वह तट जहां पर अन्य आतंकवादी नाॅव से उतरने के बाद होटल ओबराय पहुंचे तथा नरीमन हाउस वह जगह जो आरंभ से लेकर अंत तक आतंकवादी गतिविधियों का केन्द्र रहा यानी वह तमाम स्थान, जिन पर लेखक ने स्वयं अपनी टीम के साथ पहुंच कर हर बात को गहराई से समझने की कोशिश की और उसके बाद अपने सिलसिलेवार लेख ‘‘मुसलमानाने हिन्दह्न माज़ी, हाल और मुस्तक़बिल???’’ की कई किस्तों में प्रकाशित किया।

आज ;१९/१२/२००९ के अधिकतर समाचार पत्रों का अध्यन करते समय अजमल आमिर क़साब का वह चित्र एक बार फिर नज़रों से गुज़रा जिसका उल्लेख कर एक राष्ट्रीय दैनिक ने किया कि क़साब के वर्तमान बयान को झूठा सिद्ध करने के लिए यह चित्र ही काफी है। हम पूर्ण रूप से सहमत हैं उस अख़बार के इस विचार से कि अजमल आमिर क़साब के बयान को झूठा सिद्ध करने के लिए यह चित्र ही काफ़ी है मगर एक बार फिर क्षमायाचना के साथ कि क़साब के वर्तमान बयान को ही नहीं पहले बयान को भी झूठा सिद्ध करने के लिए यही एक चित्र काफी है। पाठकों को याद दिलाने के लिए एक बार फिर हम इस चित्र को आजके लेख के साथ प्रकाशित कर रहे हैं और जो बात हमने उसी समय अपनी छान-बीन की बुनियाद पर, कही थी उसे फिर दोहरा रहे हैं कि यह संभव ही नहीं है कि अजमल आमिर क़साब का पहला बयान भी सच्चा हो। क़साब झूठ बोल सकता है, यह चित्र झूठ नहीं बोल सकता। हमने स्वयं बुधवारापीठ जाकर उस स्थान को देखा है, जहां नाव द्वारा क़साब पहुंचा था। पानी के रास्ते नाव से पहुंचने के बाद सड़क पर आकर टैक्सी पकड़ने तक लगभग एक हज़ार गज़ का कीचड़ भरा रास्ता क़साब और इस्माईल को पैदल ही पार करना पड़ा होगा। यह किस तरह संभव है कि उसकी कारगो पैंट और जूतों पर न तो पानी के निशान हों, न कीचड़ के दाग़ जबकि उसके बयान के अनुसार वह बुधवारापीठ पर नाव से उतरने के बाद सीधे इस्माईल के साथ टैक्सी पकड़ कर सीएसटी स्टेशन पहुंचा। हमने कामा अस्पताल के पीछे वाली गली की वह झाड़ियां भी स्वयं जाकर देखी हैं दरअसल वह झाड़ियां नहीं बल्कि कोठियों के सामने आमतौर पर लगाए जाने वाले पेड़-पौधे हैं और जिनको लावारिस जानवरों से बचाने के लिए लोहे के तार से घेर दिया गया है। अगर क़साब और इस्माईल उन्हीं झाड़ियों अर्थात पौधों के पीछे छुपे थे तो यहां से सड़क पर आने के लिए उन्हें तार को छलांग कर ही आना पड़ा होगा। घायल क़साब जो अपनी रायफल उठाने की पोज़िशन में भी नहीं था किस तरह कूद कर बाहर निकला होगा और फिर जांबाज़ पुलिस अधिकारियों और उनके साथ अन्य कांस्टेबल सबके सब निःप्रभाव और अकेला आतंकवादी इस्माईल सभी को गोलियां चलाकर मार डालने में सफल और एक-एक करके गाड़ी से लाशें फैंकने का काम भी उसने किया। अंदर मौजूद कांस्टेबल जाधव को न तो इतना अवसर मिला कि लाशें फैंकने में लगे इस्माईल पर गोलियां चला सके या उसे क़ाबू कर सके और न ही इस्माईल ने इस बात की आवश्यक्ता समझी कि विश्वास कर ले कि उस पुलिस की गाड़ी में कोई जीवित तो नहीं बचा है। इस सिलसिले में और भी विस्तार से बयान करने के लिए हमारे पास बहुत कुछ है, लेकिन एक बहुत बड़ा प्रश्न जो पिछले शुक्रवार को अजमल आमिर क़साब के ताज़ा बयान के बाद खड़ा हुआ, वह है उसकी ज़बान पर डेविड कोलमैन हेडली का नाम है। सारे मीडिया क़साब की पहुंच से बहुत दूर हैं। टेलीवीज़न वह देख नहीं सकता, अख़बार उसको उपलब्ध नहीं हैं, टेलीफोन पर बातचीत की कोई संभावना नहीं, फिर हेडली का नाम उसकी ज़बान पर कैसे आया? पुलिस हिरासत में पुलिस के सिवा किसी को उससे मिलने का अवसर ही कहां रहा होगा, फिर उसे उसके वकील ने, पुलिस ने बताया या वास्तव में वह जो कुछ बोल रहा है उसका सच्चाई से भी कोई संबंध है? अजमल आमिर क़साब ने कहा कि जिन अमरीकियों ने मुझसे पूछताछ की उसमें हेडली भी शामिल था और अगर एक अन्य वेबसाइट ``That's Hindi'' की मानें तो उसके अनुसार क़साब ने यह भी कहा है कि उसे आतंकवाद का प्रशिक्षण देने वाले 4 अमरीकी थे, जिनमें से एक डेविड हेडली भी था। अगर यह दोनों बातें या दोनों में से कोई एक बात भी सच्चाई के आसपास है तो 26/11 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमलों के तार किस किस से जुड़े हैं, उसकी जांच अब नए सिरे से करनी होगी। हम ऐसा क्यों कह रहे हैं? उसका आधार क्या है? इसके कारण क्या हैं, इस पर बात होगी कल। लेकिन आज प्रसिद्ध लेखक व पत्रकार अमरीश मिश्रा का वह एसएमएस जो मुझे गत रात अजमल आमिर क़साब के हालिया बयान के बाद किया गया और साथ ही उनके उस लेख का अंश भी जिसका उल्लेख उन्होंने अपने उस मेसेज में किया है। प्रस्तुत हैः

(एस.एम.एस)

क़साब का ताज़ा बयान इस बात की पुष्टि है, जो मैं और अन्य वरिष्ठ पत्रकार जैसे अज़ीज़ बर्नी २६/११ हमले के बाद कहते थे कि मुम्बई पुलिस जिस व्यक्ति को क़साब के रूप में प्रस्तुत कर रही है वह २६/११ के लिए ज़िम्मेदार आतंकवादी न हो। क़साब ने बयान दिया है कि वह भारत में पर्यटक के रूप में आया था और मुम्बई पुलिस ने उसे २६/११ से २० दिन पूर्व गिरफ़्तार कर लिया था। क़साब ने यह भी कहा था कि मुम्बई पुलिस ने कई स्थानों पर उसके चित्र लिए थे। स्मरण कीजिए कि १ वर्ष पूर्व अज़ीज़ बर्नी ने मुम्बई पुलिस द्वारा जारी किए गए चित्र जिसमें क़साब तथा एक अन्य आतंकवादी को सीएसटी स्टेशन पर दिखाया था वह फ़र्ज़ी (Doctered) लगती है, लिखा था। इसके अलावा आज क़साब ने हेडली का नाम कैसे ले लिया? क्या ऐसा नहीं है कि उस तक अख़बार इत्यादि की पहुंच नहीं है? हेडली सीआईए का एजेंट है। यह दोबारा मेरे इस दावे को सिद्ध करता है कि २६/११ सीआईए, मूसाद तथा आरएसएस का षड़यंत्र है। आने वाले दिनों में और भी रहस्योद्घाटन होंगे।

(अंश)

मुम्बई आतंकी हमलों में मोसाद का हाथ?

अमरेश मिश्रा

मुम्बई फायरिंग का सिलसिला सर्वप्रथम नरीमन हाउस से आरंभ हुआ, यह मुम्बई की एकमात्र बिल्डिंग है जिसमं यहूदी रहते हैं। नरीमन हाउस के आसपास रहने वाले गुजराती हिन्दुओं ने कुछ टी।वी चैनलों के लाइव प्रोग्राम में यह बात खुलेआम कही कि आतंकवादियों द्वारा सर्वप्रथम फायरिंग नरीमन हाउस से आरंभ हुई तथा पिछले दो वर्षो से इस भवन में संदिग्ध गतिविधियां जारी थीं, जिनका किसी ने भी नोटिस नहीं लिया।.........................................

Saturday, December 19, 2009

लो क़साब तो मुकर गया, अब क्या कहेंगे आप!

जी हां, मेरे पास डेविड कोलमैन हेडली उर्फ़ दाऊद सय्यद गिलानी उसके पाकिस्तानी पिता सय्यद सलीम गिलानी और उसकी अमेरिकन यहूदी माँ सेरिल हेडली erill Hedly के विषय में कई विस्फ़ोटक जानकारियाँ हैं और आज का लेख ‘‘26/11, हेडली और एफ.बी.आई आखि़र इनमें सम्बंध क्या है?’’ को सामने रख कर ही लिखा जाना था, बल्कि बड़ी हद तक लिखा भी जा चुका था, मगर इस बीच अजमल आमिर क़साब ने अपना बयान बदल कर मेरा इरादा बदल दिया, अतः मुझे आवश्यक लगा कि एक वर्ष से अधिक अवधि तक सारा भारत, बल्कि सारी दुनिया जिस एक आतंकवादी के बयान को सामने रख कर ही मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमलों के बारे में सोचती रही, आखि़र अब उसके बयान बदल जाने के बाद हमारी पुलिस, गुप्तचर विभाग, भारत सरकार और विपक्ष के नेतागण क्या कहेंगे जो अजमल आमिर क़साब के बयान को इतना सच्चा मान रहे थे कि उससे अलग हट कर बात करने वाला कोई भी व्यक्ति उन्हें बर्दाशत नहीं था बल्कि कुछ लोगों को तो वे लोग देश के शत्रु दिखाई देते थे।


इस लेखक ने उस समय भी अजमल आमिर क़साब के बयान पर प्रश्न उठाये थे और अनेक लेखों में इस बात का स्पष्ट संकेत दिया था कि केवल क़साब के बयान को सच्चा मान कर चलना ही काफ़ी नहीं होगा, बल्कि वास्तविकता को जानने के लिए विभिन्न दृष्टिकोणों से जांच आवश्यक है, अतः आज आवश्यक लगता है कि केवल अपने पाठक ही नहीं बल्कि भारतीय जनता (भारत सरकार सहित) एक बार फिर उन लेखों के अंश प्रकाशित किये जायें और फिर डेविड हेडली के साथ-साथ अजमल आमिर क़साब के ताज़ा बयान पर भी बात हो।


अतः प्रस्तुत है पहले एक पैराग्राफ़ जो 4 दिसम्बर 2008 को राष्ट्रीय सहारा में मेरे क़िस्तवार कोलम ‘‘मुसलमानाने हिन्द, माज़ी, हाल और मुस्तक़बिल ???’’ की क़िस्त 90 में ‘‘मुम्बई पर आतंकवादी हमला या क्रिया की प्रतिक्रिया - ‘क्रिया’ करकरे की जांच और ‘प्रतिक्रिया’ करकरे की मौत’’ के शीर्षक से प्रकाशित किया गया और दूसरा लेख मेरे एक और क़िस्तवार लेख ‘‘दास्ताने हिन्द, माज़ी, हाल और मुस्तक़बिल ???’’ की क़िस्त 89 में ‘‘मैं हूँ अजमल आमिर क़साब’’ के शीर्षक से प्रकाशित किया गया। हालांकि उपरोक्त दूसरा लेख एक ‘व्यंग्य’ था मगर इसके माध्यम से जिस गम्भीर बात की ओर संकेत किया गया उसे आज भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। क्या आप भी ऐसा ही सोचते हैं या नहीं ?


(04।12.2008)


जिस प्रकार आपरेशन बटला हाउस के बाद लगभग पूर्ण मीडिया केवल तथा केवल एक ही पक्ष को सामने रख रहा था, वह जो पुलिस द्वारा बयान किया जा रहा था, ठीक वही वस्तुस्थिति आज फिर हमारे सामने है, जो कुछ पुलिस कह रही है, वही पूर्ण मीडिया द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है और यह प्रचार-प्रसार केवल भारत तक ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुंच रहा है। क्या हम यह मान लें कि पूर्ण मीडिया के पास समाचारों का जो माध्यम है, वह केवल पुलिस है और पुलिस के पास इस आतंकवादी हमले के संबंध से प्रत्येक जानकारी प्राप्त होने का केवल एक ही सूत्र है और वह है उन आतंकवादी हमलों में जीवित पकड़ा गया आतंकवादी, अजमल आमिर कसाब।


क्या यह सत्यवादी हरीश चंद्र के जैसा केवल सच बोलने वाला व्यक्ति है जिसकी प्रत्येक बात पर आंख बंद करके विश्वास कर लिया जाए। आख़िर ऐसा ही क्यों होता है कि अधिकतर बम धमाकों या आतंकवादी हमलों के बाद सभी आतंकवादी मारे जाते हैं, केवल एक जीवित पकड़ में आता है व कुछ भाग जाते हैं आरै फिर इस एक जीवित पकड़े गए आतंकवादी को सामने रख कर पुलिस एक कहानी प्रस्तुत कर देती है और समूचा देश इस कहानी पर विश्वास कर लेता है, न अधिक जांच पड़ताल की आवश्यकता होती है और न किसी दूसरे दृष्टिकोण से सोचने की।


(26।07.2009)


मैं अपराध स्वीकार करता हूं कि 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले का जिम्मेदार मैं हूं। मुझे न अदालत से दया की भीख चाहिए और न मैं किसी रियायत के लिए,बगैर किसी दबाव के अपराध स्वीकार कर रहा हूं। आप चाहें तो इसे मेरे ज़मीर की आवाज़ भी समझ सकते हैं। जैसा कि मैंने कहा था कि मैं परवर दिगार-ए- आलम की अदालत की बजाए इसी अदालत में अपने गुनाहों की सज़ा चाहता हूं.........अब रही साज़िश से पर्दा उठाने की बात, तो कुछ नाम तो मैंने बता ही दिये थे, जो नहीं बताये मुझे उम्मीद थी कि उनका अन्दाज़ा स्वयं कर लिया जायेगा................... मगर अभी तक ऐसा नहीं हुआ, कोई बात नहीं आज अपने इस बयान के अन्त में मैं उन नामों को भी प्रकट कर ही दूंगा।
मैं चैथी कक्षा पास 22 वर्षीय नौजवान हूं। पाकिस्तान के शहर फरीदपुर का रहने वाला हूं और..........मैं मज़दूरी करता रहा हूं, यानी मकान बनाने वाले राज मिस्त्रियों के साथ म़जदूरी करता रहा हूं। फिर मैंने आतंकवाद के लिए बाकायदा ट्रेनिंग ली और अब मैं एक प्रशिक्षित आतंकवादी हूं। कुछ तो मेरी क्षमताओं का अन्दाज़ा 26 नवम्बर को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले से हो ही गया होगा बाकी पुलिस हिरासत में बीते लगभग 6 माह के दौरान तमाम पुलिस अमला मेरी क्षमताओं को देख और समझ चुका है। आदरणीय जज भी अब तक यह अनुमान लगा चुके होंगे कि सिर्फ चैथी कक्षा तक शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद मैं जाहिलों की तरह बात नहीं करता। अब यह बातें आप के सामने आ ही चुकी हैं कि मुझे अंग्रेज़ी की अच्छी ख़ासी समझ है। इन्टरनेट पर सर्फिंग करना मुझे पसन्द है। मैं दो मिनट के अन्दर गूगल पर जाकर अपना घर तलाश कर सकता हूं। मैं बेहतरीन मराठी बोल सकता हूं, जैसा कि कामा हॉस्पिटल में सुना गया। यह है मेरी शिक्षा का स्तर, इसके अलावा मैंने बोट चलाने का भी प्रशिक्षण लिया है। कराची से मुम्बई तक मैं ही बोट चलाकर लाया था। मैं समुन्द्री रास्तों से इस हद तक परिचित हूं जितना कोई नाविक भी नहीं हो सकता। सी।एस.टी रेलवे स्टेशन जहां यात्रियों को बन्धक बनाने का निर्देश मुझे मेरे आकाओं से मिला था, उस स्टेशन की तो कोई एक जगह भी ऐसी नहीं थी जिससे मैं परिचित न हूं। इमारत बनाने वाले इंजीनियर को भी जो याद न रहा होगा वह सब मुझे याद है। अतः टायलेट में जाकर कपड़े बदलने के बाद अमानती सामानघर के सामने बने रेस्टोरेंट पर गोलियां चलाने से लेकर मुसाफिरों और पुलिसकर्मियों को निशाना बनाने तक और स्टेशन तक कौन सा दरवाज़ा टाइम्स ऑफ़ इण्डिया की बिल्डिंग के सामने और कामा हास्पिटल वाली गली की तरफ खुलता था इस सब का मुझे अच्छी तरह पता था, और हां यह फैसला भी मेरा था कि सिर्फ सी.एस.टी. रेलवे स्टेशन का खुफिया कैमरा काम करता रहे और उसमें सिर्फ और सिर्फ मेरा ही फोटू सुरक्षित रहे, विशेषतः इस अवसर का, मेरे हाथ में राइफल हो और कैमरे के लिए यह सावधानी बरतना भी मैंने ही तय किया था कि फ्रेम में मेरे अलावा कोई घायल या मरने वाला मुसाफिर न आये। मेरे जूतों के साथ फर्श भी आइने की तरह चमकता हो खून का एक धब्बा तो दूर किसी की चप्पल या हाथ का कोई सामान भी मेरे चित्र के साथ दिखाई न दे। क्योंकि मुझे अंतराष्ट्रीय आतंकवादी के रूप में अपनी पहचान बनानी थी। चैथी कक्षा पास मज़दूर अवश्य हूं मगर सफाई सुथराई का बहुत ध्यान रखता हूं। इसका अन्दाज़ा आपको मेरे कपड़ों और जूतों से हो ही गया होगा। अब आप हैरान होंगे यह सोच-सोचकर कि अगर सी.एस.टी. रेलवे स्टेशन के खुफिया कैमरे का फुटेज उपलब्ध है जिसमें मेरी तस्वीर मौजूद है तो फिर होटल ताज,ओबराय ल्योपोल्ड कैफे और नरीमन हाउस के खुफिया कैमरों का फुटेज क्यों नही है? तो आदरणीय यह भी मेरी ही एक सोची समझी योजना का हिस्सा था। मैं नहीं चाहता था कि कोई भी दूसरा कैमरा काम करे, किसी और का चेहरा भी इन कैमरों में दिखाई दे। वास्तव में मैं इस अंतराष्ट्रीय शोहरत को किसी से बांटना नहीं चाहता था। नरीमन हाउस में 100 किलो गोश्त मेरे ही लिये मंगाया गया था और जिस शाम मैं बुधवारा पैंठ पहुंचकर नाव से उतरा और धीमे-धीमे चलते हुआ नरीमन हाउस पहुंचा तो मेरे मेज़बान मेहमान नवाज़ी के लिए मेरी प्रतीक्षा में थे। मैंने कीचड़ में सने जूते उतार फेंके। कई दिन के पानी के सफर में खराब हुई जींस और टी-शर्ट को बदला। पलक झपकते मैंने और मेरे साथियों ने वह 100 किलो गोश्त हज़्म कर डाला। शराब के बारे में विस्तार से मुझसे मत पूछिये, क्योंकि मैं कुरआन भी पढ़ता हूं और नमाज़ भी...........बहरहाल मेरे अन्य साथी ताज और ओबराय के सफर पर रवाना हुये और मैंने इस्माइल के साथ टैक्सी पकड़ली। सी.एस.टी. स्टेशन पहुंचा। वहां की घटना तो मैं पहले ही बता चुका हूं। अब मुझे अपने एक विशेष मिशन पर रवाना होना था और वह था मुम्बई एटीएस के चीफ हेमन्त करकरे को मौत के घाट उतारना। वास्तव में मालेगांव जांच को लेकर मैं उनसे निजी रूप से बहुत नाखुश था। मैं नहीं चाहता था कि वह वास्तविक अपराधियों का चेहरा सामने लायें। साध्वी प्रज्ञा सिंह, दयानन्द पाण्डे, कर्नल पुरोहित और मेजर उपाध्याय जैसे लोगों को आतंकवादी साबित करें, और मैं यह भी नहीं चाहता था कि उनके तार किन-किन बड़े लोगों से जुड़े हैं यह बात सामने आये। मैं तो यह भी नही चाहता था कि संघ परिवार से सम्बन्ध रखने वाले इन्द्रेष को हमारे खुफिया संगठन आईएसआई ने जो तीन करोड़ रूपये दिये थे यह बात सामने आये, मगर क्या करूं और सब पर तो मेरा ज़ोर चल गया, मीडिया वालों पर नहीं चला। इसीलिए यह बात बाहर आ ही गई।

आपको हक है मुझे चाहे जितना बड़ा मुजरिम मानें, चाहे जो सज़ा दें मगर आपको मेरे और मेरे साथियों की ताकत और बुद्धिमानी का लोहा तो मानना ही होगा। हम वह हैं जिनकी संख्या अगर केवल 10 भी हो तो दुनिया के किसी भी बड़े से बड़े शहर को तबाह करने का हुनर जानते हैं। न हमें पुलिस का खौफ, न फौज का डर। 61 घण्टे तक शौच आदि गये बगैर हम लगातार गोलिया चला सकते हैं। मिशन के दौरान हमें न खाने-पीने की आवश्यकता पड़ती है न सोने की। वास्तव में ऐसी कोई भी प्राकृतिक आवश्यकता जो आम लोगों को होती है वह हमें नहीं होती।

साथ ही इस बीच लगातार हम टी.वी. देखते रह सकते हैं, टेलीफोन पर बात करते रहते हैं, लैप टॉप पर आगे की कार्यवाही का जायज़ा लेते रहते हैं, और हमारी याददाश्त उसका तो जवाब ही नहीं। मुझे सब याद है मेरे साथियों में किसका नाम क्या था, कहां का रहने वाला था, परिवारिक पृष्ठभूमि क्या थी, प्रशिक्षण किसने दिया, इस मिशन पर जिम्मेदारी क्या और किसके द्वारा दी गई? यह सबकुछ मुझे इतना मालूम है जितना कि सम्बन्धित लोगों को भी नहीं होगा। अब रहा प्रश्न हमारे नेटवर्क का, तो बस यूं समझ लीजिए कि हम जिनों को भी मात देने वालों में से हैं। हम ताज होटल और ओबराय होटल में हथियारों के साथ प्रवेश कर सकते हैं और कोई हमें देख भी नहीं सकता। हम बेसमेंट में आर.डी.एक्स. रख सकते हैं, गे्रेनेड और राइफलों के साथ होटल में ठहरे मुसाफिरों और अमले को कुछ भी न कर पाने के लिए मजबूर कर सकते हैं, मगर ऐसा भी नहीं है कि हम बहुत ज़ालिम हैं, खूंखार हैं, हमारे सीने में एक नरम दिल भी है, अतः जब हम पुलिस की गाड़ी में सवार हेमन्त करकरे, अशोक काम्टे और विजय सालस्कर को गोलियों से भून डालते हैं और बेदर्दी के साथ लाशों को भी सड़क पर फ़ेंक देते हैं, तब भी हम उन बेचारे सिपाहियों पर कोई जुल्म नहीं करते। भले ही उनमें से कोई जिन्दा बच जाये, और इतना ही नहीं हम जिसकी स्कोडा कार छीनते हैं उसमें सफर करने वालों पर भी गोली नहीं चलाते, सिर्फ नीचे उतार देते हैं। आप चाहें तो मेरी बातों के अन्तर विरोध पर विचार के लिए कोई कमेटी बना सकते हैं। पोलियोग्राफी और ब्रेनमैंपिंग जैसे दर्जनों टेस्ट करा सकते हैं अगर यह रिपोर्ट मेरे बयानों से मेल न खाये तो यह सरदर्द आपका है, मेरा नहीं, आप विश्वास कीजिए कि यह सारा नेटवर्क और कारनामा सिर्फ और सिर्फ हमारा था। हम 10 पाकिस्तानी आतंकवादियों के अलावा कोई और इसमें शामिल था ही नहीं। दरअसल हम हिप्नोटिज़्म जानते हैं। कुछ जिन्नात वाली विशेषताएं भी हमारे अन्दर हैं। इसलिए हम जिसे चाहें बस उसी को दिखाई देते हैं और अगर न चाहें तो कोई हमें देख भी नहीं सकता। क्या कराची से मुम्बई तक के सफर के बीच भारत के सुरक्षा दस्तों ने हमें देखा? हम पूरा गुजरात पार करके चले आये मजाल है कि किसी की हम पर निगाह पड़ी हो, नरेन्द्र मोदी जी को हमारे गुजरात आगमन की खबर मिली हो, हम रडारों की पकड़ में आये हों? आप जाकर तो देखिये एक होटल में रामपुरी चाकू के साथ, यह तो हमारा ही दम है कि हम आरडीएक्स, एके-47 और हैंड गे्रनेड लेकर सारे शहर में घूम सकते हैं। अब एक आखिरी बात जो अभी तक मैंने अदालत के सामने भी नहीं कही है, इस समय इसका कह देना इसलिए आवश्यक लगता है कि कहीं आप मुझे फांसी दिये जाने के बाद मेरे इस्राइली भाईयों पर शक न करने लगें। संघ परिवार से उनके रिश्तों की जांच पड़ताल में न लग जायें। मैं मानता हूं कि इस्राइली कमांडोज़ तकनीक के मामले में बहुत आगे हैं, मगर एक अंतराष्ट्रीय आतंकवादी का क्रेडिट जब मैं अपने आखिरी साथी इस्माइल से शेयर नहीं करना चाहता था तो मैं इस्राइलियों से क्यों करना चाहूंगा। हां अगर आपका दिल चाहे तो मेरी जिन्दगी में या मुझे फांसी दिये जाने के बाद स्थानीय नेटवर्क के मामले में दाउद इब्राहीम और प्रशिक्षिण देने के मामले में बिन लादेन का नाम जोड़ सकते हैं। चचा बुश होते तो अपने मनपसन्द मीडिया के माध्यम से इस बात को साबित भी कर देते...............मगर ओबामा के बारे में मैं क्या कहूं? उनका मिज़ाज तो कुछ बदला-बदला सा दिखाई दे रहा है।



माफ कीजिए!उपरोक्त बयान 26/11 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले के सम्बन्ध में जिन्दा पकड़े गये अजमल आमिर कसाब का नहीं है, मगर जितनी बातें इसमें कही गई हैं वह सब ध्यान देने योग्य तो हैं। बेशक यह सबकी सब पूरी बकवास हो सकती हैं, इसलिए हमारे लिये तो सच वह ही है जो अजमल आमिर कसाब ने कहा.....लेकिन अगर वह अपने बयान में यह सब भी कह देता जो ऊपर लिखा गया है तो कुछ ख्याली या अफसान्वी बातों को अनदेखा कर भी दें तब भी व्यंगात्मक लेख में बातें तो वही सब हैं जो अखबारों की सुर्खियां बनती रही हैं। हां! यह अलग बात है कि अब कोई इस सब पर बात नहीं करता। पहुंचने दीजिए अदालत को किसी नतीजे पर, बहुत कुछ है हमारे पास भारत पर हुए इस आतंकवादी हमले के सम्बन्ध में जिसका जनता के सामने आना आवश्यक है इसलिए कि एक अजमल आमिर कसाब को फांसी दे दिये जाना भारत पर हुए आतंकवादी हमलों का हल नहीं है। जब तक हम आतंकवाद के पूरे नेटवर्क को नहीं समझेंगे और पूरी ईमानदारी के साथ तमाम आतंकवादियों को बेनकाब करके सज़ाएं नहीं देंगें, अजमल आमिर कसाब जैसे आतंकवादी अपराध स्वीकार करते रहेंगे, फाँसी पर चढ़ते रहेंगे, मगर आतंकवाद भी जारी रहेगा।