Saturday, November 29, 2008

मालेगाँव धमाकों की जांच और मुंबई आतंकवादी हमलों का क्या कोई सम्बन्ध है?
इस सच्चाई का पता लगाना होगा

ऐ. टी. एस. प्रमुख हेमंत करकरे करकरे करकरे की मौत का सत्य क्या है........? यह यह जानना कौम कौम के लिए अत्यन्त आवयशक है।
क्या यह आतंकवादी हमला था या फिर "टारगेट किलिंग" हत्या के उद्देश्य से चलाई गई गोली से मौत.......?
इस समय कुछ भी नही कहेंगे, केवल सत्य को प्रस्तुत करने के, जैसा की गत दिनों में हमने अपने लेख द्वारा किया था। हमें विशवास है की इंशाअल्लाह सत्य स्वयं बोलेगा।
इस समय हम प्रस्तुत करने जा रहे हैं हेमंत करकरे की शहादत से पहले के कुछ दिनों का हाल, की उन के साथ क्या हुआ?
महाराष्ट्र एंटी टेररिस्ट स्कुआद (ऐ. टी. एस.) के चीफ हेमंत करकरे के 26 वर्षीय आई. पी. एस. कैरियर के अन्तिम दिन शायद सबसे व्यस्त और कष्टपूर्ण थे। ऐ. टी. एस. यह समझ रही थी की उसने 29 सितम्बर के मालेगाँव बम धमाके के मामले को हल कर लिया है और एक महीने पूर्व उसने हिंदू आतंकवादियों को गिरफ्तार कर के पूरे देश को चोंका दिया था और आतंकवाद और धर्म से सम्बंधित एक नई कहानी प्रस्तुत की थी।

किंतु इस छानबीन के दौरान जैसे जैसे षड़यंत्र का परदा फाश होता गया और कुछ हिंदू नेताओं के नाम सामने आते गए, यह मामला राजनितिक बाजीगरी में बदलता चला गया और ऐ. टी. एस. पर कई प्रकार के आरोप लगाये जाने लगे की उसे संघ परिवार को निशाना बनाने हेतु एक साधन के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है और बम धमाकों के 11 आरोपियों को असंवैधानिक रूप से हिरासत में लेकर उनको प्रताडित किया जा रहा है और उन पर आरोप लगाये जा रहे हैं।

भाजपा, आर. एस. एस, और वि. एह. पी. नेताओं सहित हिंदू नेशनल ब्रिगेड ऐ. टी. एस. पर छींटा कशी करने लगते हैं, यहाँ तक की कुछ लोग यह मांग भी करने लगते हैं की ऐ. टी. एस. अधिकारीयों का नार्को टेस्ट कराया जाए ताकि इन के इरादों का पता चल सके।

कोई और नहीं बल्कि स्वयं प्रधान मंत्री पद के दावेदार एल. के. अडवाणी भी ऐ. टी. एस. टीम में बदलाव की बात करने लगते हैं और यह मांग करते हैं की मालेगाँव मामले की प्रमुख आरोपी साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को प्रताडित किए जाने की न्यायिक जांच कराइ जाए।

शिव सेना भी संदिग्ध आरोपियों के समर्थन में आ जाती है और अपने पत्र " सामना " में कुछ ऐ. टी. एस. अधिकारीयों के नाम तक प्रकाशित करती है, उन पर छींटा कशी करती है और उन पर आरोप लगाती है की उन्होंने मालेगाँव के आरोपीयों को प्रताडित किया है।

करकरे पर इस का क्या प्रभाव पड़ा, इसे जानने और छान बीन में बढ़त के बारे में मालूम करने के लिए इंडियन एक्सप्रेस ने उनकी शहादत से 36 घंटे पूर्व उनसे मुलाक़ात की और ऑफ़ द रिकॉर्ड कही गई बातों को प्रकट करने का फ़ैसला किया और छान बीन करने वाले के क्रोध को जानने का प्रयास किया जो की अब राजनितिक आतंकवाद के भंवर में फँस चुका था।

करकरे का प्रथम उत्तर यही था की "मुझे नहीं पता की इस मामले ने राजनितिक रंग कैसे पालिया। हम पर बहुत अधिक दबाव है और मैं इस के लिए बहुत चिंतित हूँ की कैसे इस मामले को राजनीती से बाहर निकाला जाए।"

क्या इस दबाव का सम्बन्ध इस सिलसिले में है जो भावी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार ऐ. टी.एस. के विश्वास पर लगा रहे हैं?

" जी हाँ, " इन का उत्तर था! " हम लोग पूर्ण सावधानी के साथ क़दम उठा रहे हैं!"

पुलिस ने इस तथ्य की पुष्टि कर दी है की ऐ. टी. एस. प्रमुख के घर को उडाने की धमकी मिली है

पुणे: एक नामालूम कालर (फ़ोन करने वाले), जिस ने पुणे पुलिस से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए पी। सी. ओ. का प्रयोग किया, ने मुंबई ऐ. टी. एस. के घर को "आगामी कुछ दिनों में" उडाने की धमकी दी थी! इस बात की पुष्टि एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने की है!

फ़ोन करने वाला मराठी भाषा में बात कर रहा था और उस ने 24 नवम्बर की शाम को यह धमकी देने के पश्चात फ़ोन काट दिया था! उपायुक्त पुलिस राजेंद्र सोनावने ने इस बात की पुष्टि की! बाद में पुलिस आयुक्त ने यह भी बताया की पुलिस ने फ़ोन बूथ का पता लगाया तो यह इसी शहर का निकला! उन से जब यह पूछा गया की क्या यह एक "फर्जी कॉल" था? सोनावने ने बताया की मौजूदा परिस्थितियों में पुलिस इस प्रकार की सभी काल्स को गंभीरता पूर्वक ले रही है और ऐ. टी. एस. को इस सम्बन्ध में सूचना दे दी गई थी!

ऐ. टी. एस. प्रमुख को धमकी भरा फ़ोन: आरोपी का पता लगाने हेतु जांच प्रारम्भ की गई थी

28 नवम्बर को पुणे पुलिस ने इस नामालूम व्यक्ति की छानबीन शरू कर दी है जिस ने ऐ. टी. एस. प्रमुख हेमंत करकरे के घर को उडाने की धमकी टेलीफोन कॉल के द्वारा 24 नवम्बर को पुलिस कंट्रोल रूम को दी थी! करकरे की एक आतंकवादी घटना में मुंबई में हत्या कर दी गई! उपायुक्त पुलिस राजेंद्र सोनावने (नियम व कानून) ने बताया की एक नामालूम व्यक्ति ने सायं 5.20 बजे कंट्रोल रूम को फ़ोन कर के करकरे को दो तीन दिन के भीतर जान से मारने की धमकी दी थी! सोनावने ने बताया की फ़ोन करने वाला मराठी भाषा में बात कर रहा था और उस ने तत्काल ही फ़ोन काट दिया!

छानबीन से पता चला है की यह कॉल फ़ोन नम्बर 24231375 से की गई थी जो की सहाकार नगर के एक पी. सी. ओ. बूथ का है! यह बूथ कानाराम चौधरी का है, जो सहाकार नगर की सारंग सोसाइटी में कोहेनूर नामक एक जनरल स्टोर की दूकान चलाता है! दत्तावाड़ी पुलिस स्टेशन के वरिष्ठ पुलिस इंसपेक्टर उत्तम मोरे ने बताया की चौधरी के विरुद्ध भारतीय संविधान की धारा 188 के अंतर्गत (पुलिस की बात न मानने पर) एक मामला दर्ज कर दिया गया है! सिटी कंट्रोल रूम का निर्देश मिलने पर इस सम्बन्ध में मामला दर्ज किया गया था!

मोरे ने बताया की यह क़दम इस लिए उठाया गया है चूंकि चौधरी ने पुलिस के इस आदेश का पालन नहीं किया की जिसके अंतर्गत सभी पी. सी. ओ. स्वामियों से कहा था की वह अपने यहाँ से फ़ोन करने वाले सभी लोगों के सम्बन्ध में एक रजिस्टर तैयार करके रखें! यह आदेश "कोड ऑफ़ क्रिमिनल प्रोसेजर" की धारा 144 (खतरे की हालत में तत्काल आदेश देने का अधिकार) के अंतर्गत जारी किया गया था!

जब टाईम्स ऑफ़ इंडिया ने चौधरी से संपर्क किया तो उस ने बताया की उस ने कालर को नहीं देखा था क्योंकि उस दिन उस की दूकान पर काफ़ी भीड़ थी! चौधरी ने यह बात स्वीकार की की पुलिस ने उस के विरुद्ध megistrate के न्यायलय में एक मामला दर्ज कर लिया है! उस ने यह भी बताया की इस मामले में निर्दोष पाये जाने के बाद उसे ज़मानत भी मिल चुकी है! इस मामले की अगली सुनवाई १ दिसम्बर को होगी!

चौधरी ने आगे बताया की पुलिस उसे इस लिए आरोपी नहीं ठहरा सकती क्योंकि उस ने फ़ोन करने वाले व्यक्ति को देखा ही नहीं! जब उस से यह पूछा गया की क्या वह आज के बाद पी। सी. ओ. का प्रयोग करने वालों का रजिस्टर बनाएगा, तो चौधरी ने इनकार कर दिया! उसने कहा की भले ही यह जनता के फायदे के लिए हो, किंतु उस के लिए ऐसा करना सम्भव नहीं है!

चौधरी ने यह भी बताया की यदि पी.सी. ओ. मालिकों को परेशान करने का सिलसिला चलता रहा तो उन के पास फ़ोन कनेक्शन कटवाने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं होगा!

इस के बाद जब टाईम्स ऑफ़ इंडिया ने इस की दूकान का दौरा किया तो वहाँ पर कोई फ़ोन मौजूद नहीं था!

मंगल अर्थात 25 नवम्बर 2008 को मुंबई आतंकवादी हमलों से एक दिन पूर्व एक अनजान व्यक्ति ने पुलिस को फ़ोन कर के आश्चर्यचकित कर दिया! इस व्यक्ति ने कहा की ऐ. टी. एस. प्रमुख हेमंत करकरे को 2-3 दिन के भीतर एक बम धमाके में मार दिया जाएगा! पुलिस ने इस क्षेत्र का पता लगा लिया जहाँ के एक पी. सी. ओ. से ये फ़ोन किया गया था और यह क्षेत्र था सहाकार नगर!

पुलिस उपायुक्त राजेंद्र सोनावने ने कहा "पुलिस कंट्रोल रूम को आज सायं यह कॉल एक नामालूम नम्बर से की गई थी! फ़ोन करने वाले व्यक्ति ने मराठी में यह धमकी दी की दो तीन दिन के भीतर करकरे के घर पर एक बम धमाका किया जायेगा!"

सूचना मिलते है कंट्रोल रूम में तैनात पुलिस अधिकारीयों ने सम्बंधित अधिकारीयों को इस की सूचना दी! इस के बाद शहर की क्रीम ब्रांच ने उस स्थान की छानबीन शुरू की जहाँ से यह फ़ोन आया था और यह पी. सी. ओ. सारंग सोसाइटी बस स्टाप के करीब स्थित है और इस का फ़ोन नम्बर 24231375 है।

पुलिस ने इस पी. सी. ओ. के स्वामी से जम कर पूछताछ की, किंतु इस व्यक्ति ने कहा की वह फ़ोन करने वाले व्यक्ति का नाम नहीं बता पायेगा क्योंकि जब ये फ़ोन किया गया था, उस समय उस की दूकान में काफ़ी भीड़ थी!

उसने कहा हम इस फ़ोन को काफ़ी गंभीरता से ले रहे हैं, हम इस मामले के सभी पहलुओं की सघन छानबीन करेंगे और इस के बाद आगे की कार्रवाई पर कोई निर्णय लेंगे! पुलिस ने कहा हालांकि करकरे सहाकार नगर में नहीं रहते, किंतु वह इस कस्बे में कभी कभी अपने सम्बन्धियों से मिलने आते हैं!

भाजपा के समस्त बड़े नेताओं ने मालेगओं धमाके की छानबीन के सम्बन्ध में यु पी ऐ सरकार पर हमले शुरू कर दिए थे! एक और एल. के. अडवाणी ने महाराष्ट्र ऐ टी एस पर आरोप लगाया की वह अव्यवसायिक तरीके से और राजनितिक दबाव में कार्य कर रही है और धमाकों में सम्मिलित आरोपी साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के साथ क्रूर व्यहार कर रही है तो दूसरी ओर राज नाथ सिंह ने कांग्रेस को आदे हाथों लेते हुए कहा की कांग्रेस मुस्लिम आतंकवाद और हिंदू आतंकवाद जैसी शब्दावली घड रही है। उन्होंने ख़बरदार किया की आतंकवाद पर अगर समय रहते काबू न पाया गया तो इस का नतीजा गृहयुद्ध के रूप में सामने आ सकता है।

लखनऊ में एक रैली को सम्भोदित करते हुए राज नाथ सिंह ने कहा की आतंकवाद की वारदातों में उस समय वृद्धि हुई है जब भाजपा सत्तासीन नहीं है और अगर ऐसी कार्यवाहियों को जल्द रोका नहीं गया तो यह देश को गृहयुद्ध की ओर ले जायेगा। बाद में एक प्रेस कांफ्रेंस में श्री सिंह ने कहा की यह बहुत अफसोसनाक है की कांग्रेस अथवा दूसरे प्रमुख धर्मनिरपेक्ष दलों में से किसी ने भी उन ताक़तों की आलोचना नहीं की, जिन्होंने हिंदू आतंकवाद जैसी शब्दावली घड़ी है और मैं यह पूछना चाहता हूँ की क्या यह सरकार अपने राजनितिक फायदे के लिए हिंदू आतंकवाद को मुस्लिम आतंकवाद के मुकाबले खड़ा करना चाहती है। उन्होंने कहा की भाजपा ने कभी भी आतंकवाद को किसी विशेष संप्रदाय से नहीं जोड़ा क्योंकि उस का विश्वास है की उस को किसी भी जाती या धर्म से नहीं जोड़ा जाना चाहिए।

इस के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ के अपने दौरे के दौरान एल के अडवानी ने मांग की की मालेगाँव धमाकों की जांच कर रही ऐ टी एस टीम को बदला जाए। अब तक मैं साध्वी प्रज्ञा और उस के दुसरे साथियों के विरुद्ध ऐ टी एस के आरोपों पर कुच्छ भी कहने से बच रहा था किंतु जब मैंने उस शपथपत्र को देखा जिस में साध्वी ने अपने ऊपर किए गए अत्याचार और गाली गलोच का विवरण पेश किया है तो मुझे अपना विरोध प्रदर्शन करना आवयशक महसूस हुआ। उन्होंने कहा की मैं मौजूदा ऐ. टी. एस. टीम में बदलाव चाहता हूँ और साध्वी प्रज्ञा और सेना के कुछ अधिकारीयों पर लगाये गए आरोपों की न्यायिक जांच की मांग करता हूँ।

Friday, November 28, 2008


हेमंत करकरे के बाद ऐ. टी. एस.?

हमारी आदर्श साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को सम्मान के साथ रिहा किया जाए।

हमारे हीरो लेफ्टनेंट कर्नल प्रोहित पर लगे सारे आरोप वापस लिए जायें और उन्हें फौज में अपने उत्तरदायित्व को निभाने के लिए भेजा जाए।

हमारे रोल मॉडल महंत दयानंद पाण्डेय का लैपटॉप वापस किया जाए, उस से प्राप्त सारे सबूतों को निष्ट किया जाए और उन के पैर छू कर माफ़ी मांगी जाए।

अभिनव भारत से जुड़े जिन व्यक्तियों को हिरासत में लिया गया है, उन सभी को छोड़ दिया जाए। राम जी की खोज बंद की जाए

।मालेगाँव बम धमाकों के सिलसिले में ऐ टी एस की सम्पूर्ण जांच को रद्द किया जाए और जांच में सम्मिलित सभी अधिकारीयों और कर्मचारियों को काले पानी की सज़ा सुना दी जाए।

भारत सरकार वचन दे की आगे से कभी भी किसी भी मामले में कितने भी स्पष्ट सबूत प्राप्त हो जाने पर भी किसी हिंदू सघटन या हिंदू धर्म से सम्बन्ध रखने वाले व्यक्ति को आरोपी नहीं ठहराया जाएगा।

किसी भी बम धमाके के बाद चाहे वह भारत में कहीं भी हो, संदेह की सूई केवल और केवल मुसलमानों और मुस्लिम संघटनों तक ही सीमित रहेगी।

मालेगाँव ही नहीं यह वचन दिया जाए की अन्य बम धमाकों को भी इंडियन मुजाहिदीन, लश्करे तय्यबा, होजी इत्यादि अर्थात इन जैसे मुस्लिम संघटनों से ही जोड़ा जाए।

मुंबई बम धमाकों के लिए जिस नए आतंकवादी संघटन दक्किन मुजाहिदीन का नाम सामने रखा गया है, इसी को सही मान लिया जाए, अब कोई और जांच न की जाए। इस संघटन को भारत का सब से खतरनाक आतंकवादी संघटन करार दिया जाए और इसे भारत में अलकाएदा की शाख तथा उस का नेता बिन लादेन को माना जाए........

नहीं, मुंबई के पंच तारा होटल ताज व ओबेरॉय में बम धमाके करने वाले आतंकवादियों ने इस प्रकार की कोई भी मांग सामने नहीं रखी है क्योंकि यह अभिनव भारत या किसी हिंदू आतंकवादी संघटन के नहीं थे, अगर होते तो शायद इस प्रकार की मांग होती। उन्होंने जो मांग सामने रखी है, उस के अनुसार दक्किन मुजाहिदीन के जो आतंकवादी भारत की विभिन्न जेलों में बंद हैं, उन्हें रिहा किया जाए, हैदराबाद को इस्लामी स्टेट स्वीकार किया जाए और कश्मीर से फौजों को वापस बुलाया जाए। अब सवाल यह पैदा होता है की यह दक्किन मुजाहिदीन हैं कौन? यह आतंकवादी संघटन अस्तित्व में कब आया और वह कौनसे आतंकवादी हैं जिन का सम्बन्ध दक्किन मुजाहिदीन से है? जिन्हें रिहा कराने के लिए उन आतंकवादियों ने 100 से अधिक निर्दोषों की जान ली और कई सौ व्यक्तियों को घायल कर दिया। अब तक के अनुभव के अनुसार तो जब किसी बहुत ही खतरनाक अपराधी की रिहाई उद्देश्य होती है तो उस का नाम क्या है और वह किस जेल में है और किस मामले में उसे बंद किया गया है, यह सभी बातें सामने आती हैं। पाठक और भारत सरकार को भली भाँती याद होगा की जब भारतीय जनता पार्टी की समर्थन वाली सरकार केन्द्र में थी और हिंदुस्तान का एक विमान अग्वा करके अफगानिस्तान ले जाया गया था और आतंकवादियों की मांग पूरी करने के लिए भारतीय जनता पार्टी के एक मंत्री काबुल गए थे, उस समय भी कदाचित एक व्यक्ति की मृत्यु सामने आई थी। विमान में फंसे शेष 100 से अधिक यात्रियों को कोई हानि नहीं पहुँची थी और कुशलता पूर्वक अपने अपने घरों को पहुँच गए थे, फिर क्या कारण है की दक्किन मुजाहिदीन के कुछ अज्ञात आतंकवादियों की रिहाई के लिए 100 से अधिक निर्दोषों की जान ली गई और कई सौ लोगों को घायल किया गया और पूरे मुंबई शहर और सम्पूर्ण भारत को आतंकित किया गया। अगर इतनी बड़ी घटना मूसाद, सी आई ऐ, अथवा आई एस आई जैसी खतरनाक संस्थाओं द्वारा की गई होती तो सोचा जा सकता था की हाँ उन का नेटवर्क इतना बड़ा हो सकता है। भयानक हथ्यार, हैण्ड ग्रेनेड और अन्य अग्नीय शास्त्र उन्हें प्राप्त हो सकते हैं। किंतु एक ऐसी संस्था जिसका पहले किसी ने नाम भी नहीं सुना, जिस का कोई वजूद था ही नहीं, जिस का ज़िक्र हमारी गुप्त एजेंसियों ने कभी किया ही नहीं, अचानक वह इतना बड़ा आतंकवादी हमला करने में कैसे सफल हुई? यह काम कुछ लोगों का तो हो नहीं सकता और न कुछ दिन की तैयारी से ही यह सम्भव है। निश्चय ही इस की रूप रेखा अत्यन्त चतुर मानसिकता के लोगों ने तैयार की होगी, जिस में सैंकडों प्रशिक्षित आतंकवादी सम्मिलित रहे होंगे और उन्हें प्रशिक्षण देने वाले अवश्य ही कुछ ऐसे निपुण लोग रहे होंगे जो आतंकवादी तैयार करने में निपुण समझे जाते हों। इन्हें इतनी बड़ी संख्या में इतने हथ्यार उपलब्ध कराने के लिए कोई बड़ा और संघटित नेटवर्क रहा होगा। धन की आव्यशकता को पूर्ण करने हेतु हवाला कारोबारियों से उनका सम्बन्ध और धन की उपलब्धता की व्यवस्था उन के पास रही होगी। इस भयानक योजना के लिए उन्हें ऐसे स्थान प्राप्त होंगे जहाँ बैठ कर वह ऐसी सभाएं कर सकें और भयानक योजनायें बना सकें और पूर्ण करने हेतु अलग अलग टीमों का गठन कर सकें की कौन रेलवे स्टेशन पर धमाका करेगा, कौनसी टीम होटल ताज को अपने कब्जे में लेगी और होटल ओबेरॉय में धमाका करने की ज़िम्मेदारी किस टीम की होगी? ऐ टी एस के प्रमुख हेमंत करकरे को कौन निशाना बनाएगा और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट माने जाने वाले विजय सालसकर और ऐ सी पी अशोक काम्टे किसका निशाना बनेंगे। यह कारनामा दक्किन मुजाहिदीन ने अंजाम दिया है, यह संदेश किस के द्वारा और किस प्रकार पहुँचाया जायेगा। अगर कुछ लोग इस आतंकवादी वारदात के बाद गिरफ्तार कर लिए गए तो वह क्या बयान देंगे और उन के बयान का स्क्रिप्ट कौन बनाएगा। और वारदात वाले स्थल पर पकड़े जाने वाले आतंकवादी कौन कौन होंगे, उन्हें कहाँ कहाँ से लाया जायेगा और क्या क्या बयान रटाया जायेगा? वह किस किस मुजरिम की निशानदही करेंगे और इस नेटवर्क में किस किस का सम्मिलित होना बताएँगे और किस को मास्टर माइंड बताया जाएगा? यह सब कोई मामूली कार्य नहीं है। कुछ लोगों द्वारा इसे किसी नामालूम संस्था द्वारा पूर्ण किया जाना विश्वसनीय नज़र नहीं आता।पाठकों को याद होगा हमने अपनी पिछली कड़ियों में इसी लेख के अंतर्गत कुछ ऐसे आरोपियों का इकबालिया बयान छापा था, जिन का कहना था की वे निर्दोष हैं, किंतु उन्हें लिखा हुआ बयान रटाया गया और उन्हें इस प्रकार से प्रताडित किया गया, जिनके सामने गुंतानामोबे और अबुघरीब जेल में किए जाने वाले अत्याचार भी कम नज़र आए। यहाँ तक की इस प्रताड़ना के लिए मूसाद के लोगों की सेवाएँ प्राप्त की गयीं। फिर इसे किस प्रकार असंभव करार दें की इस बड़ी घटना के लिए ऐसा ही बड़ा षड़यंत्र पहले से तैयार नहीं किया होगा।अब रहा सवाल दक्किन मुजाहिदीन का तो जिस प्रकार इंडियन मुजाहिदीन समय की आव्यशकता थी, आतंकवादी घटनाओं को किसी के सर थोपने की, मगर ऑपेरशन बटला हाउस का सत्य सामने आने के बाद और रोजनामा राष्ट्रिय सहारा के लगातार आन्दोलन द्वारा जब देश का राजनितिक परिदृश्य बदल गया और लगभग यह स्पष्ट हो गया की L-18, बटला हाउस का एनकाउंटर फर्जी था तो स्वयं ही इंडियन मुजाहिदीन का वजूद समाप्त हो गया। चूंकि इस का मास्टर माइंड आतिफ और साजिद को ही बताया गया था। अत: अब किसी भी आतंकवादी घटना के लिए एक नए नाम की आव्यशकता थी, इस लिए दक्किन मुजाहिदीन नामक एक नई आतंकवादी संस्था का वजूद सामने लाना पड़ा। भारत के इतिहास में यह प्रथम अवसर था जब भारत में हिंदू आतंकवादी संस्थाओं का इतना बड़ा नेटवर्क सामने आया। भारत के इतिहास में यह प्रथम अवसर था जब ऐ टी एस ने बम धमाकों से जुड़े आरोपियों के विरुद्ध इतने सारे साक्ष्य इकठ्ठा किए।भारत के इतिहास में यह प्रथम अवसर था जब आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार किए गए भयानक आरोपियों पर न्यायालय जाते समय फूल बरसाए गए और इब्न-7 टी वि पर भारतीय जनता पार्टी के एक सदस्य (पूर्व पुलिस अधिकारी) फूल फेंकने वालों का समर्थन करते दिखे और स्वीकार किया की अभी दोष साबित नहीं हुआ है और बहुत से लोग इन्हें अपने हीरो के रूप में देखते हैं।भारत के इतिहास में यह भी प्रथम अवसर है की राष्ट्रिय स्तर के एक राजनितिक दल के अध्यक्ष और स्वयं को भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखने वाले व्यक्ति ने आतंकवाद के आरोपियों का इस हद तक समर्थन किया हो और ऐ टी एस की कार्यप्रणाली पर प्रशन खड़े किए हों, न सिर्फ़ इसके आत्मविश्वास को तोडा हो अपितु अधिकारीयों को बदलने की बात भी कही हो। मुंबई ऐ टी एस प्रमुख हेमंत करकरे का इस आतंकवादी घटना में मारा जाना स्वयं अपने आप में बहुत बड़ा प्रशन है, जिस व्यक्ति के नेतृत्व में ऐ टी एस ने इतना बड़ा कारनामा अंजाम दिया हो, जिस के द्वारा वर्षों से मुसलमानों के दामन पर लगा दाग धुल सके, आख़िर कोई भी मुस्लमान इस व्यक्ति की जान क्यों लेना चाहेगा? और कोई भी मुसलामानों की संस्था भले ही वह आतंकवादी क्यों न हों, क्यों उसे मारना चाहेगी जो इस समय इतना बड़ा कारनामा अंजाम दे रहा हो? जिस का कोई दूसरा उदहारण भारत के इतिहास में नहीं मिलता। यह भी सोचना होगा की आख़िर इतने बड़े आतंकवादी घटना से किस को लाभ होगा और अब अगर ऐ टी एस की जांच में कोई रुकावट सामने आती है, जिस की संभावनाएं पैदा हो गयीं हैं तो किस को क्षति होगी? इस सम्बन्ध में हमारी जांच जारी रहेगी। मैं इस समय पाकिस्तान के शहर कराची में हूँ जहाँ आज अर्थात 27 नवम्बर को "मीडिया रेसौर्सस सेंटर" की ओर से आयोजित किए जाने वाले सम्मलेन के लिए आया था और इस लेख को लिखने और पाठकगन तक पहुँचने के लिए मीडिया बैंक पाकिस्तान की सहायता की अव्यशाकता पड़ी। अत: बहुत सम्भव है की अधिक विवरण पर आधारित इस लेख की आगामी कड़ी 29 नवम्बर को भारत वापसी पर ही सम्भव हो और यह भी हो सकता है की कल फिर इसी प्रकार बहुत व्यस्तता के बावजूद और पूर्वनियोजित कार्यकर्मों के मध्य इतना समय निकाल लिया जाए की कल पुन: आपकी सेवा में हाज़िर हो सकूँ!

Tuesday, November 25, 2008

धमाके से तीन दिन पहले ही आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया
इकबालिया बयान भी मौजूद था, बस रिक्त स्थानों में नाम भरने थे

साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने अपने बयान में कहा है की ऐ टी एस ने मानव अधिकारों की उपेक्षा करते हुए हिरासत के बीच उस पर जो अत्याचार किए, उस में यह शामिल था की उसे एक अश्लील बात चीत की सी डी सुनवाई गई। इस के अतिरिक्त उसे नग्न करने की धमकी दी गई और गालियाँ भी दी गई। हम पिछले दो दिनों से हिरासत में लिए गए आरोपियों को दी जाने वाली पीडाओं की दास्ताँ बयान करते रहे हैं। पाठकगन, हमारे देशवासी भाई, बहन और श्री लाल कृष्ण अडवानी जी समझ सकते हैं की पुलिस हिरासत में लिए जाने के बाद मुसलमान आरोपियों के साथ कितना असभ्य व्योहार किया गया। हम ने बहुत ध्यान के साथ कुछ बातें प्रस्तुत करने का प्रयास किया, वह भी इस प्रकार की जितनी गन्दगी उस कार्य में थी उस का इशारा तो मिल जाए परन्तु उसे खुल कर बयान नहीं किया जाए। हम इस मामले में लाल कृष्ण अडवानी जी के विरोधी नहीं हैं, पुलिस हिरासत में आरोपियों के साथ अमानवीय बर्ताव नहीं किया जाना चाहिए परन्तु साथ ही हम यह भी कहना चाहेंगे की राष्ट्रिय स्तर के नेताओं को इस मामले में सभी के पक्ष में आवाज़ उठानी चाहिए। ऐसा नहीं के साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के मामले में तो आसमान सर पर उठा लिए जाए और उस से १०० गुना अधिक अत्याचार जब दूसरे आरोपियों पर हो तो आँखें बंद कर ली जायें परन्तु इन नेताओं की आँखें खोलने को लिए हम एक वाक्य अवश्य कहना चाहेंगे की अगर अब तक आप पुलिस कार्यवाही में हस्तक्षेप न करने के कारन से मौन रहे तो अब अडवाणी जी ने जो राह दिखाई है कुछ क़दम आप भी उस पर चलें और विभिन्न बम धमाकों में बंदी बनाये गए आरोपी जो अपने न किए पापों का दंड भुगत रहे हैं, और उन के साथ किए जाने वाला व्योहार बिल्कुल अवर्णीय और निंदनीय है, आप उन के पक्ष में आवाज़ उठायें। अब जब की असली अपराधियों के चेहरे से नकाब उठने लगी है तो चाहे ऑपेरशन बटला हाउस का मामला हो, चाहे मक्का मस्जिद हैदराबाद का, उन सैंकडों आरोपियों की खैर ख़बर लें की वे किस हाल में हैं और उन के साथ कितना अत्याचार हो रहा है। यदि उन का दोष साबित नहीं हो पाया है और उन के विरुद्ध इतने सबूत नहीं मिले हैं की उन्हें अधिक हिरासत में रखा जाए तो उन का रिहाई का प्रबंध करें। यदि साध्वी प्रज्ञा, प्रोहित और उपाध्याय के लिए भारत के सब से बड़े वकील उपलब्ध हो सकते हैं तो कोई तो हो जो उन का भी हाल पूछे। यदि वे निर्दोष हैं तो उन्हें भी न्याय मिले। कम से कम अब तो किसी को यह भय नहीं होगा की जामिया मिलिया इस्लामिया के वाइस चांसलर प्रोफ़ेसर मुशीरुल्हासन के कानूनी सहायता उपलब्ध कराने पर कुछ हिंदू संघटन क्रुद्ध हो गए थे, अब किस मुहँ से वह आप के द्बारा कानूनी सहायता उपलब्ध कराने पर प्रशन उठाएंगे। अब तो वह स्वयं भी वही कहने लगे हैं जो प्रोफेस्सर मुशीरुल हसन और लोकतान्त्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले न्याय प्रिय कहते रहे हैं। पुलिस हिरासत में हिंसा की घटनाएं और भी हैं जो आगे आने वाली कड़ियों में पाठकों और राष्ट्रिय नेताओं की सेवा में प्रस्तुत की जायेंगी। इन में वह पात्र भी शामिल हैं जो बंदी बनाये जाने के दौरान पीडाएं सहन करने वाले आरोपियों ने रोजनामा राष्ट्रिय सहारा को जेल की सलाखों के पीछे से लिख कर भेजे हैं और अपनी कहानी में बयान किया है की किस प्रकार षड़यंत्र कर के उन्हें फंसाया गया। हम यह नहीं कहते की कौन दोषी है और कौन निर्दोष, परन्तु हमारे कानून का कहना है की भले ही १० दोषी छूट जाएँ परन्तु एक निर्दोष को दंड न मिले। क्या हमारा अमल इस के अनुसार है? आज की इस कड़ी में प्रस्तुत कर रहे हैं हम १२ मार्च १९९३ को मुंबई में हुए बम धमाकों के आरोपियों से जुड़ी कुछ घटनाएं जिस में उन का कहना है की केवल पुलिस ने ही नहीं, टाडा जज तक उन के साथ न्याय नहीं किया और उन्हें षड़यंत्र द्वारा फंसाया गया।
१२ मार्च १९९३ को हुए मुंबई बम धमाकों के आरोपियों का कहना है की इन के विरुद्ध षड़यंत्र का उत्कर्ष है। इस केस में आरोपियों को बुनयादी सुरक्षा प्रदान करने की साधारण परम्परा पर अमल नहीं किया गया और टाडा न्यायाधीश ने पुलिस द्वारा प्रताड़ित करने से सम्बंधित शपथपत्र को रद्द कर दिया। इस से स्पष्ट होता है की पुलिस कर्मियों, राजनीतिज्ञों और टाडा न्यायाधीश ने आरोपियों के विरुद्ध आरम्भ से ही भेद भाव किया। मुंबई बम धमाकों कर षड़यंत्र रचा गया ताकि दूसरों द्वारा किए गए अपराध के लिए निर्दोषों को दोषी ठहराया जाए। इस को अतिरिक्त भारत में कानून व संविधान की सत्ता को पामाल किया जाए।
कानून के उल्लंघन के कई उदहारण प्रस्तुत किए जा सकते हैं। वादी ने वादामाफ गवाह के PW2 के दावों पर बहस की है. वरली चार्जशीट में पृष्ठ 515 पर जो साक्ष्य प्रस्तुत किया गया है वह ग़लत है। इस में पुलिस अधिकारी ने लिखा है की वादा माफ़ गवाह को 10 मई 1993 को गिरफ्तार किया गया लेकिन दस्तावेज़ में 16 अप्रेल 1993 दर्ज है। बम धमाकों के अन्य मामलों कर उल्लेख करते हुए चार्जशीट में कहा गया है की मुंबई के सहार अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर बमबारी का प्रयास किया गया था। चार्जशीट में विशेष रूप से उल्लेख किया गया है की मुंबई पुलिस बम निरोधी दस्ते के प्रमुख जाधव ने 12 मार्च 1993 को सहार अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे का दौरा किया परन्तु धमाकों के कुछ दिन पश्चात् जाधव ने जो रिपोर्ट दर्ज की उस में सहार हवाई अड्डे के दौरे से सम्बंधित कोई बात नहीं बताई गई। तत्पश्चात आरोपियों ने जो इकबालिया बयान दिए हैं, विशेष रूप से डी सी पी संजय पाण्डेय ने जो बयान दर्ज किए हैं, उन में अलग अलग तहरीरें शामिल हैं। सरसरी जायज़ा लेने से ही यह मालूम होता है की यह इकबालिया बयान पहले ही लिख लिए गए थे और बीच में स्थान रिक्त छोड़ दिया गया था ताकि आरोपियों के नाम लिख दिए जाएँ और तत्पश्चात उन से पूछ ताछ की जाए।
एक इकबालिया बयान में जिस पर डी सी पी संजय पाण्डेय ने हस्ताक्षर किए हैं उस में आरोपियों ने इकबालिया बयान से इनकार किया है इस को बावजूद भी इकबालिया बयान आगे बढ़ता जाता है और उस के किरदार के सम्बन्ध में खुलासा पेश किया जाता है। टाडा की धरा 15 (A) में बताया गया है की इकबालिया बयान स्वैच्छा से लिया जाए, तो जब एक आरोपी यह बयान देता है की मैं किसी बयान को स्वीकार नहीं करता तो पुलिस अधिकारी ने क्यों इस कार्य को आगे बढाया? इस से यह साबित होता है की यह इकबालिया बयान मन घडत है। शायद पुलिस को बम धमाकों के सम्बन्ध में पहले से सूचना थी। पुलिस स्टेशनों में कई ऐसे रिकॉर्ड मौजूद होने की बात कही गई है जिन में कहा गया है की आरोपियों ने पुलिस को सचेत किया था की मुंबई में बम धमाके करने का प्लान तैयार कर लिया गया है और फ़रवरी 1993 में रायगढ़ जिले में कोंकण साहिल के रास्ते आर डी एक्स का भण्डार लाया जायेगा। पुलिस ने गिरफ्तार आरोपियों में से तीन आरोपियों को बम धमाकों के दिन अर्थार्त 12 मार्च 1993 से पूर्व गिरफ्तार किया था और उन्होंने भी इस बात की पुष्टि की थी। तत्पश्चात जब धमाके हुए तो पुलिस ने विभिन्न पुलिस स्टेशनों में दर्ज 27 सी आर को एक विषय के अंतर्गत जोड़ दिया, यह संविधान का खुला उल्लंघन है। चार्जशीट में दावा किया गया है की कई षड़यंत्र एक साथ चल रहे थे। चार्जशीट में कहा गया है की 4-5 षड़यंत्र पर कार्य चल रहा था। अब सवाल उठता है की इन षड्यंत्रों को अलग अलग मामलों के रूप में क्यों नहीं प्रस्तुत किया गया। पुरी दुनिया जानती है की महात्मा गांधी की हत्या के लिए एक से ज़्यादा षड़यंत्र रचे गए थे।
"हे राम " (Hey Raam) नामक एक फ़िल्म भी है, जिसे इंडियन सेंसर बोर्ड ने स्वीकृति प्रदान की है। इस फ़िल्म में अन्य षड्यंत्रों की ओर भी इशारा किया गया है। तो क्या अब न्यायालय के लिए यह उचित था की वह नाथू राम गोडसे के अलावा और लोगों को भी फाँसी पर चढ़ा दे जिन्होंने हत्या का केवल इरादा किया था?
नहीं ऐसा नहीं किया जा सकता तो फिर चार्जशीट में तो फिर चार्जशीट में विभिन्न षड्यंत्रों को क्यूँ जोड़ दिया गया? इस के अलावा जैसा की पहले भी बताया जा चुका है, सी बी आई ने देश के विरुद्ध युद्ध करने का आरोप रद्द कर दिया। आरोपियों पर यह आरोप लगाया गया की उन्होंने बाबरी मस्जिद की शहादत और मुंबई दंगों का बदला लेने के लिए बम धमाके किए। अब हर कोई जानता है की बाबरी मस्जिद की शहादत देश के विरुद्ध अत्याधिक गंभीर अपराध है क्योंकि इस के बाद मुसलामानों का बड़ी संख्या में क़त्ल किया गया। श्री कृष्ण कमीशन रिपोर्ट के अनुसार 1992-93 मुंबई में हुए सांप्रदायिक दंगों में पुलिस सांप्रदायिक हो गई और शिव सेना कार्य कर्ताओं की तरह कार्य करने लगी। कमीशन ने यह साहसी रहस्योद्घाटन भी किया है की पुलिस वाले पहले शिव सेना कार्य करता बने हुए थे और एक लोकतान्त्रिक देश की पुलिस का झूठा नकाब ओढे हुए थे। यहाँ सारी मुंबई पुलिस ने संविधान का अपमान किया। मुंबई दंगों में 4000 से अधिक लोग मारे गए जिन में अधिकतर मुसलमान थे। इस के बावजूद बाबरी मस्जिद की शहादत और मुंबई दंगों को आरोपियों पर टाडा के तहत आरोप नहीं लगाये गए। यह अत्याधिक विचारणीय है की मुंबई बम धमाकों की चार्जशीट में कहा गया है की यह धमाके तीन मामलों में तीसरे स्थान पर थे। पहला मामला बाबरी मस्जिद की शहादत और दूसरा मामला मुंबई दंगे थे। इस लिए तीसरे मामले के आरोपियों पर टाडा क्यों लगाया गया जबकि तीसरे मामले के लिए उकसाने वाले पहले और दुसरे मामले के आरोपियों के विरुद्ध मामूली कानूनी धाराओं के अंतर्गत मुक़दमा चलाया जा रहा है?
अगर जैद ने बकर के पिता की हत्या कर दी और बकर ने जैद के रिश्तेदार की हत्या कर के और चार्जशीट में उस को वास्तविक प्रेरक करार दिया गया तो क्या यह सम्भव है की जैद और बकर के विरुद्ध केवल इस लिए अलग अलग कानूनों के अंतर्गत मुक़दमा चलाया जाए क्योंकि जैद एक हिंदू है और बकर एक मुसलमान? क्या यह सम्भव है की भारतीय संविधान की धरा 307 (हत्या का प्रयास) के अंतर्गत आरोपी माने गए व्यक्ति को धारा 302 (हत्या) के अंतर्गत भी आरोपी माना जाए। मुंबई बम धमाकों की चार्जशीट यह नहीं बताती की 12 मार्च 1993 को हुए धमाकों के पीछे षड्यंत्रों का बड़ा सिलसिला था। चार्जशीट में कहा गया है की इन धमाकों से पहले केवल एक षड़यंत्र नहीं था अपितु एक साथ कई षड़यंत्र रचे गए थे। चार्जशीट में यह नहीं बताया गया है की एक समय में कई षड़यंत्र एक अकेले षड़यंत्र का भाग थे तो सभी आरोपियों को 12 मार्च 1993 को हुए अपराध से क्यूँ जोड़ दिया गया? अगर पुलिस ने यह कहा होता की एक षड़यंत्र के तहत 12 मार्च को अपराध किया गया और दूसरे षड़यंत्र के अंतर्गत अन्य दिनांकों पर धमाकों की योजना बनाई गई थी तो इस के बाद पुलिस को हर षड़यंत्र की पहचान कर के उस से निबटना चाहिए था। अन्य षड्यंत्रों के आरोपियों के विरुद्ध अन्य धाराओं के अंतर्गत केस चलाया जाए क्योंकि उन्होंने जो धमाके करने का इरादा किया था, वे धमाके कभी नहीं हुए।
पुलिस ने बेबस मुसलमानों से हजारों करोड़ रूपये ज़बरदस्ती प्राप्त किए। आरोपियों की हत्या के लिए अपराधियों से सांठ गाँठ की गई। मुंबई बम धमाकों की घटना ज़बरदस्ती वसूली का एक असाधारण मामला है जिस में भारतीय संविधान के रक्षकों ने स्वयं संविधान का उल्लंघन किया और खुले षड़यंत्र के अंतर्गत संविधान से विद्रोह कर के मुसलामानों के साथ बहुसंख्यक वर्ग के मुकाबले पक्षपातपूर्ण कारवाई की यह भारतीय संविधान का खुला उल्लंघन है. हलाँकि संविधान में कहा गया है की जाती पाती, रंग व नस्ल और धर्म के भेद के बिना सभी भारतवासियों को समान अधिकार प्राप्त हैं........जारी

Monday, November 24, 2008

सोचें अगर इन्द्रेश और मोहन भागवत की हत्या की साजिश सफल हो जाती तो

मुसलामानों का किस क़दर कत्ले आम होता।

श्रीमान अडवाणी जी! यह दर्दनाक कहानी अभी समाप्त नहीं हुई है। बहुत कुछ लिखना बाक़ी है किंतु हम चाहते हैं की पिछले दिनों की दर्दनाक यादों की बातें भी चलती रहे और कुछ मौजूदा रहस्योद्घाटन की बात भी करते चलें। आपके प्रिय साधवी, प्रोहित, महंत पाण्डेय आदि मिशन हिंदू राष्ट्र के हेतु आपके साथियों श्री इन्द्रेश और श्री मोहन राव भागवत की बलि लेना चाहते थे। हम जानते हैं की महान कार्यों हेतु बड़े बलिदान की अव्याशकता तो होती ही है। किंतु क्या इन के बलिदान का कारण यही है के वह इस दिशा में अपने कार्यों को सही ढंग से पूर्ण नहीं कर पारहे थे अथवा इस के पीछे कोई बड़ा एजेंडा भी था.....

क्या मुस्लिम दुश्मनी का एजेंडा????

छोटे मोटे राजनितिक उद्देश्यों की प्राप्ति तो छोटे मोटे लोगों के बलिदान से ही प्राप्त हो जाती है। जैसे दिल्ली, जयपुर, अहमदाबाद धमाकों के बाद आतिफ व साजिद की बलि और मुफ्ती अबुल बशर एवं शाहबाज़ इत्यादि की गिरफ्तारी.....

शब्द राजनितिक उद्देश्यों और बलि पर नाराज़ न हों, ऐ टी एस की गतिविधियों को राजनीती से जोड़ने का कारनामा तो आप स्वयं ही अंजाम दे चुके हैं। अब वह राजनितिक उद्देश्य कांग्रेस के हों या आपकी पार्टी के। हाँ "शब्द" बलि हम ने आतिफ और साजिद के साथ इस लिए जोड़ा की अब तो खुले आम केन्द्र में सत्ता सीन पार्टी की सहयोगी समाजवादी पार्टी के नेता एनकाउंटर बटला हाउस को फर्जी बता रहे हैं( इस विषय पर बात चीत आगामी किस्तों में) और हमारे विश्लेषण के अनुसार शायद वह सही ही कह रहे हैं।

चलिए वापस लौटते हैं श्री इन्द्रेश और श्री मोहन राव भागवत की हत्या के षड़यंत्र पर। अभी हमें इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहना लेकिन जो कुछ इस षड़यंत्र के सारोजनिक होने पर हम कहना चाहते हैं तो इस के उद्देश्य को आप भली भाँती समझ सकते हैं और निश्चय ही हमारे पाठक और भारत के अन्य नागरिक भी। 1984 में हजारों सिखों का नरसंहार तो आपको याद ही होगा और इस के कारण को भी आप भूले नहीं होंगे अर्थार्त इंदिरा गाँधी की हत्या और इस के उपरांत यह व्यक्तव्य की "जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है" और ऐसा ही एक अन्य वाक्य कह कर आप के चहीते मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी ने हजारों निर्दोष मुसलामानों के नरसंहार का रास्ता साफ़ किया था एवं इस का तर्क प्रस्तुत किया था। इन दोनों एतिहासिक मामलों के प्रकाश में अगर हम इन्द्रेश और मोहन भागवत की हत्या के षड़यंत्र पर सोचते हैं तो यह सोच कर दिल काँप उठता है की अगर इन्द्रेश और मोहन भागवत की हत्या हो गई होती तो संघ परिवार इन हत्याओं का आरोप मुसलामानों पर थोपने में ज़रा भी देर नहीं करता और बहुत सम्भव हैं की पुलिस और सुरक्षा एजेंसियां भी अपनी आदत के अनुसार मुसलामानों को ही शक के दाएरे में लेतीं और प्रणाम स्वरुप देश गृहयुद्ध का शिकार हो जाता। आपकी भगवा ब्रिगेड मुसलामानों के नरसंहार में लग जाती, पुलिस मूक दर्शक बनी रहती, सरकार अवाक रह जाती, वह कुछ सोचने समझने एवं कर पाने की स्थिति में नहीं होती और अगर यह चूनाव से कुछ समय पूर्व होता तो अर्थार्त अगर यह षड़यंत्र चूनाव के माहौल में रचा जाता तो समर्थन वोट आपकी पार्टी के नाम हो जाता और इस प्रकार "प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग " की प्रतीक्षा समाप्त हो जाती। बहर हाल अब तो यह सम्भव नहीं है रहस्य खुल ही गया हैं। साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के समर्थन में उतर आना आपकी मजबूरी हो या व्यक्तिगत लगाव किंतु हम भारत के एक राजनितिक नेता को इतने बड़े दिल का तो मानते ही हैं की वह जनता के हर व्यक्ति के दर्द को एक ही प्रकार से महसूस करेगा। इस लिए हमने कल की दर्दनाक कहानी को जहाँ छोड़ा था, आज फिर उसी से आरम्भ करते हैं।

* पुरूष व महिलाओं की जननांगों पर दर्दनाक तरीके से चोट लगायी जाती।

* आरोपियों के खाने में पेशाब और गन्दगी शामिल की जाती और उन के मुहँ में थूका जाता और थूकने के लिए विशेष बर्तन भी प्रयोग किए जाते। पुलिस इन सारे उत्पीड़नों से आनंद उठाती रहती।

* उत्पीडन देने वाले पुलिस वाले महिलाओं को वैश्यावृत्ति अपनाने के दबाव डालते, बारहा बार बिजली के झटके दिए जाते और पुलिस विशेष कर जननांगों पर बिजली के झटके देती।

* एक ही परिवार से सम्बन्ध रखने वाले आरोपियों को छरियाँ और बेल्ट दे कर मारने का आदेश दिया जाता।

* जब कभी महिलाएं नंगे पुरुषों को देखने से बचने के लिए अपनी आंखों पर हाथ रख लेतीं तो उन के हाथों पर ज़ोर ज़ोर से मारा जाता। उन के बाल निर्दयता से घसीटे जाते और उन्हें पुरुषों की जननांगों को घंटों देखने पर विवश किया जाता।

* छोटे बच्चों और दूध पीते बच्चों को क़ैद में डाल दिया जाता। उन पर अत्याचार और यौन हिंसा की जाती।

अत्याचार हिंदू कैदियों पर पहले भी हुआ पर खामोश रहे।

केवल मुसलमानों पर ही नहीं गैर मुस्लिमों पर भी इस से पहले अत्याचार हुए परन्तु श्री अडवानी खामोश रहे, प्रज्ञा की तरह इशु नहीं बनाया, इस का एक उदहारण निम्नलिखित है:

बांद्रा में अशोक रेस्तौरांत के मालिक राज कुमार खुर्राना समेत कई व्यक्तियों ने आत्म हत्या कर ली। पुलिस खुर्राना से कुछ सूचनाएँ प्राप्त करना चाहती थी और उन्हें बताया गया की हिरासत में लिए गए महिलाओं व पुरुषों के साथ कैसा बर्ताव किया जा रहा है । खुर्राना बहुत भयभीत हो गया। वह अपने घर गया, अपनी पत्नी और बच्चों को गोली से उड़ा कर स्वयं भी हत्या कर ली।

" वाइसिस" में इन घटनाओं का उल्लेख किया गया हैं:

आरोपियों ने न्यायालय में कई शपथ पत्र प्रस्तुत किए जिन में उन्होंने कहा की वह देश के सम्मानित नागरिक हैं एवं उन्हें ग़लत ढंग से फंसाया गया हैं। टाडा न्यायाधीश ने इन शपथ पत्रों को रद्द कर दिया एवं उन्होंने भारत के इतिहास में सब से भयानक ढंग से प्रताडित करने वाले एक पुलिस अधिकारी के विरुद्ध कार्यवाही करने से भी इनकार कर दिया।

सलीम दुर्रानी का मामला

सलीम खान दुर्रानी के सम्बन्ध में कुछ अन्य तथ्य प्रकाश में आए हैं।

सलीम खान दुर्रनि इंदौर डिग्री कॉलेज का प्रथम दर्जे का छात्र, श्रेष्ठ खिलाडी, देश भक्त ( इन के दो बड़े भाई भारतीय सेना में अपनी सेवायें प्रदान कर चुके हैं) था। सालिम खान दुर्रानी को कई बार आई पी एस अधिकारी एम् एन सिंह ने पीटा, उन्हें एक हास्यास्पद मामले में फंसाया गया। कोई भी सेशन कोर्ट इस केस को खारिज कर देती, किंतु उन्हें कारागार में खुले आम प्रताडित किया गया। उसे न्यायिक हिरासत की अवधि में रात्री में गेट वे ऑफ़ इंडिया के सामने रेलिंग से बाँध दिया जाता ताकि मोटर कारें उसे कुचल दें।

मुंबई की Crime ब्रांच टीम उसे जयपुर और टोंक ले गयीं। पुलिस वाले उन के परिवार वालों से पैसा लेते और फिर इन की माता जी के पास जा कर कहते की अगर उन्होंने और अधिक धन नहीं दिया तो उन की पुत्री का बलात्कार किया जाएगा।

मुसलमानों को प्रताडित करने के लिए मूसाद के एजेंट दुर्रानी से जुर्म कुबूल करवाने के लिए बहुत भयानक ढंग (फोर्थ डिग्री) का प्रयोग किया गया. दुर्रानी पर जो अत्याचार किया गया उस का तरीका सिर्फ़ इस्राइल की एजेन्सी मूसाद को ही मालूम है। उन्हें पैर की उँगलियों में डोर बाँध कर घसीटा जाता, जिस कारण एक नस खिंच जाती और कुछ सेकंड के लिए दिल की धड़कन बंद हो जाती। इस प्रकार से प्रताडित करने का तरीका सिर्फ़ सी आई ऐ और मूसाद को ही पता है। यह तरीका अमेरिका ने क्यूबा में स्थित खाड़ी गुंतानामो में एवं इराक के अबुगारिब कारागार में प्रयोग किया था।

सब से अधिक आश्चर्य की बात यह है की सलीम दुर्रानी को एक इस्राइली नागरिक ने कष्ट दिया। मुंबई की एक Crimes ब्रांच की प्रताड़ना सील में एक इस्राइली नागरिक क्या कर रहा था? क्या भारत सरकार मुसलमानों को प्रताडित करने हेतु असंवेधानिक रूप से मूसाद के एजेंटों का प्रयोग कर रही thi?

सलीम दुर्रानी इस मामले की गवाही देने के लिए तैयार थे किंतु कोई भी इन की सुनने वाला नहीं था।

टाडा न्यायाधीश का खुला पक्षपात इस घटना से पता चलता हैं की टाडा न्यायधीश केस के सभी मामलों में पक्षपात पूर्ण कार्यवाही कर रहा था। शपथ पत्रों पर विचार न कर के भारतीय संविधान का उलंघन कर रहा था। चूंकि यह शपथ पत्र आरोपियों की सुरक्षा से सम्बंधित थे।

टाडा १९९७ में रद्द कर दिया गया किंतु उस से पूर्व जो केस दर्ज किए गए थे उन को रद्द नहीं किया गया। सब से अधिक पक्षपातपूर्ण कार्यवाही का मामला २००५ में सामने आया " Black Friday The True Story Mumbai " प्रदर्शन के लिए प्रस्तुत की जानी थी। यह फ़िल्म झामू सुगंध ने दैनिक सन्डे मिड डे के सहयोग से बनाई थी। एस हुसैन जैदी ने इस नाम की एक पुस्तक लिखी थी जिसे २००२ में पेंगुइन कंपनी ने प्रकाशित किया था। आरोपियों को अहसास था की निर्णय से पूर्व इस फ़िल्म के प्रदर्शन से न्याय प्राप्त करने में अड़चन होगी। चूंकि इस फ़िल्म में आरोपियों को दोषी ठहराया गया था और नाम और स्थान का नाम बदले बिना ही इस फ़िल्म के प्रदर्शन का अर्थ न्यायलय के निर्णय से पूर्व निर्णय देने जैसा था एवं जनता को आरोपियों के विरुद्ध बहकाना एवं न्यायलय पर असंवैधानिक दबाव डालने जैसा था। टाडा न्यायलय के न्यायाधीश प्रमोद कोडे ने इस फ़िल्म के प्रदर्शन पर प्रतिबन्ध लगाने की आरोपियों की मांग को रद्द कर दिया। आरोपियों के अधिवक्ता मजीद मेमन और टाडा न्यायाधीश इस सहमति पर पहुंचे की फ़िल्म को प्रदर्शन की अनुमति उसी समय दी जायेगी जब True Story के शब्द फ़िल्म के नाम से हटा दिए जाएँ।

आरोपियों ने इस निर्णय पर असंतोष प्रकट किया और समझा की अधिवक्ता भी इस षड़यंत्र में सम्मिलित हो गए हैं। इस कारण उन्होंने मुंबई हाई कोर्ट से संपर्क किया। हाई कोर्ट ने फ़िल्म के प्रदर्शन पर प्रतिबन्ध लगा दिया। कई बार सुनवाई के बाद मुंबई हाई कोर्ट ने ३१ मार्च २००५ को निर्णय सुनाया की इस फ़िल्म के प्रदर्शन से आरोपी न्याय प्राप्त करने से वंचित हो सकते हैं। इस लिए न्यायलय का फ़ैसला आने तक इस फ़िल्म का प्रदर्शन न किया जाए। अब सबसे आश्चर्य जनक बात सामने आती है, जिस पुस्तक पर इस फ़िल्म की कहानी आधारित थी उस के पृष्ठ नम्बर ११ पर लेखक जैदी लिखते हैं की "मैं टाडा न्यायलय के न्यायाधीश प्रमोद कोड को विशेष रूप से धन्यवाद प्रस्तुत करता हूँ, जिन्होंने मेरा उत्साह्वृद्धन किया। उन के समर्थन से मुझे पुस्तक को पूर्ण करने में सहायता मिली"

धन्यवाद प्रस्तुत करते हुए लेखक ने कई बार इस तथ्य का उल्लेख किया की यह पुस्तक टाडा न्यायलय में सरकारी अधिवक्ता के द्वारा उल्लेख किए गए तथ्यों पर आधारित है। पृष्ठ १४ पर लेखक ने लिखा है की "पुस्तक की कहानी का बड़ा भाग वादी पक्ष के द्वारा उपलब्ध किए गए खुलासों पर आधारित है एवं सूचनाओं का प्रमुख स्त्रोत पुलिस के द्वारा दायर की गई चार्जशीट और आरोपियों के बयानों पर आधारित है" अब अगर पृष्ठ ११ एवं १४ को एक साथ पढ़ा जाए तो इस से क्या रहस्योद्घाटन होता है? यह की न्यायाधीश ने निर्णय देने से पूर्व सरकारी अधिवक्ता के दावों का समर्थन किया, जिस ने आरोपियों को कड़े दंड देने की मांग की थी।

फ़िल्म Black Friday

आरम्भ से ही आरोपियों ने कहा था की मुंबई बम धमाकों के सम्बन्ध में निर्दोष लोगों को फंसाने के लिए षड़यंत्र रचा गया था। आरोपियों के विरुद्ध प्रस्तुत किए गए साक्ष्य झूठे हैं और सुप्रीम कोर्ट में खारिज कर दिए जायेंगे। उन का कहना था की Black Friday के नाम से लिखी गई पुस्तक और फ़िल्म भी इस षड़यंत्र का भाग हैं जिस के द्वारा जनता के दिलों में आरोपियों के विरुद्ध घृणा पैदा करने का प्रयास किया गया था। इस से आरोपियों के विरुद्ध बदले की भावना पैदा हो सकती थी जिस से टाडा न्यायाधीश को दंड देने में सहायता मिल सकती थी। चूंकि जाली साक्षों और चार्जशीट में कई विसंगतियों के कारण उन्हें आरोपियों को दंड देने में कठिनाई हो रही थी।

आरोपियों को टाडा जज पर विश्वास नहीं

अब आरोपियों को विश्वास हो गया है की टाडा न्यायाधीश इस बड़े षड़यंत्र का भाग हैं जिस में राजनितिग्य, पुलिस वाले, फ़िल्म मेकर और पत्रकार सम्मिलित हैं। आरोपियों को टाडा न्यायाधीश पर विश्वास नहीं है। इस पुस्तक के लेख से यह स्पष्ट होता है की इस न्यायाधीश ने सरकारी अधिवक्ता के दावों एवं सूचनाओं को सत्य के रूप में दर्ज करने हेतु लेखक का उत्साहवृद्धं किया था . मानव अधिकार समितियों, वामपंथी दलों, सी पि आई एम् एल (लिबरेशन) और तहरीके हिंद, सनातन धर्म परिषद् जैसी सेकुलर संस्थाओं ने टाडा न्यायाधीश को हटाये जाने की मांग की थी। सी पी आई एम् एल polt bureo के सदस्य अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने संविधान का उलंघन करने पर टाडा न्यायाधीश को गिरफ्तार करने की मांग की थी। उन्होंने ने मांग की की इस पुस्तक, फ़िल्म और विभिन्न अधिकारियों की भूमिका और षड़यंत्र की निष्पक्ष जांच सुप्रीम कोर्ट के द्वारा करायी जाए .......जारी

Sunday, November 23, 2008

राज नाथ और अडवानी संदिग्ध आतंकवादियों के बचाओ में क्यों

क्या इस आग के अपने दामन तक पहुँचने से डर गए हैं

नहीं! हमें कोई आश्चर्य नहीं है, भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष ठाकुर राज नाथ सिंह और प्राइम मिनिस्टर वेटिंग लाल कृष्ण अडवानी के साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर व दुसरे संदिग्ध आतंकवादियों के समर्थन में उतर आने से, इस लिए की वो जानते हैं की 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद की शहादत के साथ देश की शान्ति में जो चिंगारी उन्होंने लगायी थी, उसे एक न एक दिन शोलों में बदलना ही था और अब जब पूरा देश आग की लपटों में घिरा हो तो वह स्वयं इस की आंच से कब तक और कैसे बचेंगे, जिस प्रकार आज आर एस एस के इन्द्रेश और मोहन राव भागवत का षडयंत्र बेनकाब हो रहा है और आरोपी के रूप में संघ परिवार के उन्हीं चहीतों का नाम सामने आरहा है, जिनके बचाओ में पहले राज नाथ सिंह और अब एल के अडवानी ज़मीन आसमान एक किए हुए हैं।

आख़िर क्यों!!!

कहीं उन्हें यह भय तो नहीं है की जांच और आगे बढ़ी, साजिश से परदा उठा, आरोपियों की ज़बान इसी प्रकार खुलती रही तो यह आग आने वाले कल में उन के दामन तक भी पहुँच जायेगी? इस लिए पहले शोर मचाना प्रारम्भ किया और आरोपियों के बचाओ में उतर आए ताकि वह अब और ज़बान न खोलें, साथ ही उन्हें यह भरोसा भी हो जाए की हम ने इस आग को और न फैलाया तो हमारे स्वामी हमारे बचाओ का कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेंगे। या फिर उस तेज़ ज़हन वाले आरोपियों ने इसी प्रकार अपने स्वामियों तक यह संदेश पहुँचा दिया होगा की इस हमाम में सभी नंगे हैं, हम तो डूबे हैं सनम>तुम को भी ले डूबेंगे, यानी अगर नकाब पूर्ण रूप से उन के चेहरे से उतरा तो परदे में कोई नहीं रह पायेगा। जेल की सलाखों के पीछे अगर यह होंगे तो हाथों में हथकडी उन के भी होगी जो पूरी साजिश का सोत्र हैं और जो उन प्यादों द्वारा अपनी राजनितिक चालें चलते रहे हैं। इस लिए सम्भव है की ऐ टी एस द्वारा कड़ियाँ जोड़े जाने का यह सिलसिला इस अन्तिम कड़ी तक पहुँच जाए जिस से संघ परिवार की लग भाग 100 वर्षीय रणनीति और साजिश बे नकाब हो जाए, उन के सत्ता में आने से ले कर हिंदुस्तान को हिंदू राष्ट्र में बदल देने की योजना पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाए, इस लिए पूरी स्तिथि को महसूस करते हुए ऐसे व्यक्तियों ने पहले से ही यह शोर मचाना शरू कर दिया की ऐ टी एस की टीम को बदला जाए। यह साध्वी, फौजी अधिकारी और महंत गुनेहगार हो नहीं सकते और यह कांग्रेस की राजनितिक साजिश है।

मिस्टर अडवानी!

आतिफ और साजिद की दर्दनाक हत्या (हाँ अब हम इसे हत्या ही कहेंगे और क्यों यह इस लेख की आगे आने वाली पंक्तियों में स्पष्ट भी कर देंगे) मुफ्ती अबुल बशर की गिरफ्तारी और उन्हें उत्पीडन देने के बाद तो आपका यह दर्द से भरा दिल पिघला नहीं और पुलिस अत्याचार के विरुद्ध आपकी ज़बान से कुछ निकला नहीं, हालाँकि रमजान के महीने में जुमा के दिन दिल्ली पुलिस ने जिस प्रकार २ युवकों की इन्कोउन्टर के नाम पर हत्या की, वे सारी परिस्थितियाँ इस बात का स्पष्ट इशारा कर रही थीं की कम से कम इस को एनकाउंटर नहीं कहा जा सकता और पुलिस कार्यवाही सवालों के घेरे से बाहर नहीं है। इस के बावजूद आपकी ज़बान यह कहते हुए थकती नहीं थी की पुलिस की कार्यवाही पर प्रशन उठाने से उस का मनोबल कम होगा और आतंकवाद को बढावा मिलेगा। फिर आज आप क्यों पुलिस का मनोबल कम कर रहे हैं? क्यों संदिग्ध आतंकवादियों का बचाओ करके आतंकवादियों का मनोबल बढ़ा रहे हैं? जहाँ तक प्रशन साध्वी प्रज्ञा के हलफ नामा पढ़ कर उस के साथ ऐ टी एस द्वारा की गई जियादती का है तो अडवानी जी यह तो कुछ भी नहीं है, अगर आप टाडा और मकोका जैसे कानून के अंतर्गत गिरफ्तार किए गए मुस्लिम व्यक्तियों की दर्द से भरी दास्ताँ और उन के हलफनामे पढेंगे तो आपको महसूस होगा की साध्वी प्रज्ञा के साथ तो कुछ भी जियादती नहीं हुई है। मैं इस लेख की आने वाली कड़ियों में ऐसी अनेक घटनाएँ आपकी और हिन्दुस्तानी सरकार की सेवा में प्रस्तुत करूँगा जिस का प्रारम्भ आज नामी इतिहासकार अमरेश मिश्रा के 2005 में लिखे गए एक लेख के हवाले से कर रहा हूँ। इस खोजी लेख में उन के साथ पत्रकार एतमाद खान और मानव संसधान के लिए काम कर रही एक संस्था ऐ आई पी ऍफ़ (आल इंडिया पेट्रिओटिक फॉरम) की जांच भी सम्मिलित है। पढिये और अपने ह्रदय से पूँछें की उनके साथ जो ज़ुल्म हुआ है वह साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर से किस कद्र जियादा है?

12 मार्च 1993 को मुंबई 13 सीरियल बम धमाकों से दहल उठी। इस के तुंरत बाद कई लोगों को गिरफ्तार किया गया। 1993 के आख़िर तक 198 आरोपियों के विरुद्ध चार्जशीट दाखिल की गई। उस समय तक सी बी आई ने यह मामला अपने हाथ में ले लिया था और सभी आरोपियों के विरुद्ध जो आरोप लगाया गया था, वह देश द्रोही गतिविधियों में लिप्त होना था। इस लिए सभी आरोपियों पर टाडा के अंतर्गत मुक़दमे दर्ज किए गए थे। टाडा एक अमानवीय काला कानून था, जो 1987 में बनाया गया था। अदालत में पुलिस के सामने आरोपियों की स्वीकारोक्ति (इकबालिया बयान) को विश्वसनीय नहीं माना जाता परन्तु टाडा में पुलिस को अधिकार दे दिया गया की वह स्वीकारोक्ति दर्ज करे। इक्का दुक्का मामलों को छोड़ कर टाडा के अंतर्गत आरोपी ठहराए जाने वाले सभी लोग मुसलमान थे। मुंबई बम धमाकों को ऐसा रंग दिया गया की मानो मुसलामानों ने हिन्दुस्तान पर हमला करने की साजिश की हो। मुंबई पुलिस की मानसिकता पर मुस्लिम विरोध की साधारण लहर बलवती हो गई थी। मुंबई बम धमाकों को अमेरिका में 11 सेप्टेम्बर को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की इमारतों पर हुए हमलों से उपमा देकर उसे हिंदुस्तान 9/11 कहा जाने लगा। परन्तु सी बी आई ने टाडा अदालत में जो चार्जशीट प्रस्तुत की उस में आरोपियों की संख्या घट कर 135 रह गई। जिन पर देश द्रोह का आरोप लगाया गया और चार्जशीट में कहा गया है की यह धमाके बाबरी मस्जिद की शहादत और मुंबई दंगे सांप्रदायिक घटनाएँ थीं जिन में भारत सरकार ने मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए फासीवादी हिंदू तत्वों की हर प्रकार से सहायता की थी। मुंबई बम धमाकों का मुकदमा 1993 में प्रारम्भ हुआ और अप्रैल 2005 तक जारी रहा। प्रारम्भ में जे एन पटेल टाडा जज थे। 1990 के दशक के आख़िर में प्रमोद मोद्कोडे ने उन का स्थान ले लिया। उन 12 वर्षों की अवधि में इस मुक़दमे ने कई उतार चढाओ देखे हैं। 135 आरोपियों में से दावूद इब्राहीम, टाइगर मेमन सहित 35 आरोपी फरार हैं। लगभग 35 आरोपियों को 1990 के दशक में ज़मानत मिली और शेष जेल में बंद रहे। छोटा राजन गैंग ने ज़मानत पाने वाले 7 व्यक्तियों की तथाकथित रूप से हत्या कर दी। कई दूसरे आरोपियों पर हमले किए गए। 1990 के पूरे दशक में आरोपी अपनी सुरक्षा को प्रस्तुत खतरों के सम्बन्ध में टाडा जज को प्रार्थना पत्र प्रस्तुत करते रहे। यह आरोप आम था की बम धमाकों के आरोपियों की हत्या करने के लिए ग्रह मंत्रालय ने छोटा राजन से साँठ गाँठ की थी।

टाडा जज ने इन प्रार्थना पत्रों की उपेक्षा करदी। किसी भी आरोपी को सुरक्षा प्रदान नहीं की गई। इस के अतिरिक्त आरोपियों ने पुलिस पर आरोप लगाया की उनके उत्पीडन के लिए कठोरतम तरीके अपनाए गए। आरोपियों ने कहा की पुलिस बल पूर्वक इकबालिया बयान ले रही थी, हलाँकि पुलिस को यह अधिकार टाडा कानून में नहीं दिया गया था। टाडा कानून की धरा 16 (A) में दर्ज है की इकबालिया बयान (स्वीकारोक्ति) वाले पृष्ट पर डी सी पी के सामने लिया जाए और इकबालिया बयान वाले पृष्ट पर आरोपी का हस्ताक्षर भी मौजूद हो। आरोपी का कहना है की पुलिस ने बल पूर्वक इकबालिया बयान दर्ज करने के लिए पाशविक तरीके अपनाए, जिस के कुछ उदहारण प्रस्तुत किए जा रहे हैं।

* मुस्लिम नौजवान मंज़ूर अहमद से कहा गया की वह अपनी माँ की आयु की एक महिला जैबुन्निसा काजी के साथ अप्राकृतिक कार्य करे जैसा की सेक्स पर आधारित अंग्रेज़ी फिल्मों में दिखाया जाता है।

* नजमा (एक आरोपी शाहनवाज़ कुरैशी की बहन) को मजबूर किया गया की वह अपने पिता के सामने अशलील कार्य करे (हु बहु लिखना उचित नहीं क्योंकि यह बहुत ही घटिया हरकत थी)

* नजमा के पिता वली को ग़लत बताया गया की उन के बच्चों का असल बाप कोई और है।

* उस समय के पुलिस कमिशनर एम् एन सिंह ने टोंक, राजस्थान के शाही घराने से सम्बन्ध रखने वाले सलीम दुर्रानी से कहा की उन्हें बम धमाकों के केस में टाडा के तहत इस लिए आरोपी ठहराया जा रहा है क्योंकि वह एक पूर्व मुस्लिम नवाब है।

* सलीम दुर्रानी का मुहँ शोचालय में घसीटा गया और मैला खाने के लिए कहा गया और जब उन का सर नीचे तक नहीं जा सका तो कहा गया के वह अपने हाथ से मैला उठा कर खाएं।

* नफीसा (आरोपी मजीद खान की पत्नी) को सिर्फ़ एक ही नाईट गाउन में दो महीने तक जेल में रखा गया। जिस में गंध आरही थी, और वह गंदे खून से लत पत हो गया था। जिस प्रकार महिला कैदियों के साथ बरताव किया जाता है। पुलिस ने नफीसा को खून सोखने वाला पेड तक नहीं दिया था।

* आरोपी शाहिद की माँ ने हाई कोर्ट में बयान दिया की शाहिद को जेल में हिरासत के दौरान 4 बार मिर्गी का दौरा पड़ा। रुखसाना (गुलाम हाफिज़ की भाभी) को सिर्फ़ उस समय रिहा किया गया जब प्रसूति का समय बहुत करीब था।

* परवीन (शाहनवाज़ की बहन) को 15 दिन हिरासत में रखा गया। रिहा होने पर उस ने एक बहोत कमज़ोर बच्चे को जनम दिया, जो तीन महीने बाद मर गया।

* फरजाना (गुलाम हाफिज़ की पत्नी) नूर जहाँ (शाहनवाज़ अब्दुल कादिर कुरैशी की पत्नी), सफिया (अब्दुल्लाह खान की पत्नी) को दूसरी महिलाओं के साथ कई दिनों तक हिरासत में रखा गया, जिस के कारण उन के बच्चे भूके रहे और उन्हें सिर्फ़ चाय और पानी पर गुज़ारा करना पड़ा।

* पुलिस वाले 50 रु से १०० रु तक फीस लेकर बाहर से दूध और खाना लाते थे। उन सभी महिलाओं के लिए लग भाग १२.३० बजे जो खाना लाया जाता था, वह रोटी के दो छोटे टुकड़े और बहोत ही कम मात्रा में चाय और रात ८.३० बजे उन्हें रोटी के चार टुकड़े और पानी जैसी पतली दाल दी जाती थी।

* पीने के लिए पानी तक भी नहीं दिया जाता था।

* उन में से कई महिलाओं को अपना पेशाब पीने के लिए विवश किया गया।

* उपचार भी उपलब्ध नहीं था। केवल उन बदकिस्मत लोगों को ही अस्पताल ले जाया जाता जो पुलिस के उत्पीडन के कारण आखरी साँस ले रहे होते।

*सईदा (आरोपी जाकिर हुसैन की बहन) को अपने 41 दिन के छोटे बच्चे के सामने बुरी तरह पीटा गया और उस बच्चे को भी थप्पड़ मारे गए। सईदा को कई घंटों तक अपने बच्चे को दूध भी पिलाने नहीं दिया गया।

* शबाना (आरोपी अब्दुल रहमान की बेटी) को जो गर्भवती थी नंगा करके पीटा गया।

* नूर जहाँ (आरोपि शाहनवाज़ की पत्नी) को जब गिरफ्तार कर के पुलिस जीप में बिठाया गया तो उन्हें अपने दूध पीते बच्चे को कपड़े भी पहनाने नहीं दिया गया।

* आरोपी इकबाल हासपाटल को बार बार ताना दिया गया की उन के बच्चों का असली बाप कोई और है।

* जाहिदा को अपने बच्चे से अलग कर दिया गया और श्री वर्धन पुलिस स्टेशन में 15 दिनों तक हिरासत में रखा गया और अपने बच्चे को दूध तक पिलाने नहीं दिया गया।

* एक नई नवेली दुल्हन और अंग्रेज़ी स्कूल में शिक्षित महिला अनवर तय्यबा को नंगा कर के बर्फ की सिल पर लिटाया गया और पुलिस वाले शराब पी कर आते और उस महिला के शरीर से खेलते और जलते सिगरेट के दाग लगाते।

*मृतक रहीम कर्बिलकर कई महीनों से बीमार थे और जेल अधिकारी और अदालत से उपचार के लिए प्रार्थना करते रहते थे, लेकिन उनको केवल अन्तिम समय में जे जे अस्पताल में दाखिल कराया गया और कुछ घंटों के अन्दर ही उन्होंने दम तोड़ दिया।

* जो आरोपी खड़े होने की स्तिथि में होते उन्हें पैदल ही अस्पताल ले जाया जाता। हथकडी पहना कर उन्हें धुप में चलाया जाता और पुलिस वाले ज़ोर ज़ोर से उन्हें डांटते रहते और जान बूझ कर सायेदार रास्तों से दूर रखते। इस प्रकार के हथकंडे उन आरोपियों के विरुद्ध जान बूझ करने अपनाए जाते जो उपचार की अपील करते।

* आरोपियों के मुहँ में गंदे चप्पल ठूंसना एक आम बात हो गई थी।

* गर्भवती शबाना को नंगा करके विवश किया गया की वह अपने पिता को चप्पल से मारें।

* आरोपियों के जननांगों में मिर्च पाउडर डाल कर उत्पीडन करना एक आम बात हो गई थी। जिस के कारण कई आरोपियों को बवासीर की बीमारी हो गई है...........जारी

Friday, November 21, 2008


नहीं इस ख़बर में ऐसा कुछ भी नहीं था की बोलती बंद हो जाए!!


२४ अक्टूबर शाम ८ बजे से ही इंतज़ार होने लगा था की बटला हाउस एनकाउंटर के ताल्लुक से आज कोई बड़ा धमाका होने वाला है! इस लिए की ख़बर से पहले ख़बर के प्रचार के लिए बार बार जो बात कही जा रही है वह ध्यान देने योग्य थी की गोली न आतिफ ने चलायी न मोहन चाँद शर्मा ने तो फिर गोली किस ने चलायी? सारा हिंदुस्तान देखेगा आज यह सच! देश के सब से बड़े एनकाउंटर का सच और यह सच बताएगा वह ख़ुद जो एनकाउंटर के समय वहां उपस्थित था! आज के बाद कोई नहीं कहेगा की यह एनकाउंटर फर्जी था! पहले एलान था की यह ख़बर ९ बजे देखने को मिलेगी, लेकिन ९ बजे स्क्रीन पर प्रज्ञा देवी प्रकट हो गई! वह साध्वी जो मालेगाँव बोम्ब धमाकों में सम्मिलित है! परन्तु बटला हाउस एनकाउंटर से जुड़ी ख़बर की प्रतीक्षा बनी रही और फिर रात १० बजे वह ख़बर सामने आ ही गई! यूँ तो आधे घंटे की ख़बर को यदि लिखने बैठें तो कई पृष्ठों की आव्यशकता होगी और कई घंटों का समय भी चाहिए! परन्तु इस आधे घंटे की ख़बर की तफसील बयान करने के लिए ५ मिनट और १० लाइन भी अधिक हैं! चलिए पहले ख़बर का ज़िक्र करते हैं! फिर ख़बर पर बात होगी!


पुलिस सब इंसपेक्टर धर्मेन्द्र सब से पहले ल-18 के उस फ्लैट में एक मोबाइल कंपनी का सेल्समन बन कर गया! आतिफ से उस ने पहचान पत्र की दरख्वास्त की! वोटर आई कार्ड की शक्ल में शानाख्ती कार्ड मिल जाने पर उस की फोटो कॉपी उपलब्ध करने की प्रार्थना की जिस पर आतिफ ने झिड़क दिया! फिर धर्मेन्द्र के निवेदन करने पर फ्लैट के दूसरे कमरे से फोटो कॉपी लेने चला गया! इस बीच धर्मेन्द्र ने अपने टीम लीडर मोहन चंद शर्मा को अपने मोबाइल फ़ोन से कोड वर्ड के द्वारा यह संदेश दे दिया की उन्हें जिस की तलाश थी वह सामने है! उस समय साजिद पलंग पर लेता हुआ टी वी देख रहा था! फ़ोन की घंटी बजने पर वह चोंका और कड़कदार आवाज़ में पता किया की किस का फ़ोन था! धर्मेन्द्र ने बताया की बॉस का फ़ोन था! वह उसे जामिया नगर से साउथ एक्स भी भेजना चाहते थे! लेकिन उस ने कह दिया की मैं जामिया नगर में हूँ! पहले यहीं का काम निपटाना चाहता हूँ! साजिद जवाब से संतुष्ट हो कर फिर टी वी देखने लगा! इस के बाद धर्मेन्द्र ने कुछ वक्त और गुजरने और मोहन चाँद शर्मा को ऊपर आने का इशारा देने की वजह से आतिफ से एक ग्लास पानी माँगा और जब वह पानी लेने अन्दर चला गया! तो उस ने मोहन चंद शर्मा को ऊपर आने का मेस्सेज देदिया! मोहन चंद शर्मा जैसे ही दरवाज़े पर पहुंचे साजिद ने गोलियाँ चलाना आरम्भ कर दीं! धर्मेन्द्र ने झुक कर अपने आप को बचा लिया! एक गोली मोहन चंद शर्मा के कंधे में, एक पेट में और एक गोली मोहन चाँद शर्मा के पीछे खड़े बलवंत राणा को लगी! आतिफ यह सब खड़ा देख रहा था और बेहद घबरा गया था! उसी बीच पुलिस कर्मी त्यागी ने जो गोलियाँ चलायी वह साजिद को लगीं! वह वहीँ ढेर हो गया और आतिफ भी उसी की गोलियों से मारा गया! गोली बारी के दौरान दो लड़के भागने में कामयाब हो गए और एक ने ख़ुद को बाथरूम में बंद कर लिया! जो बाद में पकड़ा गया


यह था हिंदुस्तान के सब से बड़े एनकाउंटर का सच! एक ऐसा सच जो पहली बार सामने आया और अब सब की बोलती बंद कर देगा और अब कोई सवाल नहीं करेगा!


लीजिये अब सवाल नोट करिए और भूल जाइये की अब कोई सवाल नहीं करेगा इस लिए की अब सवालों की संख्या और बढ़ जायेगी हाँ मगर हम आज भी बहुत सारे सवाल जान बुझ कर नहीं उठा रहे हैं! वह इस लिए की हमें प्रतीक्षा है अदालत में चलने वाली कार्यवाही की! इस लिए कुछ सवाल तो उसी समय सामने आयेंगे परन्तु इस कहानी से कुछ सवाल तो अभी इसी समय सामने रखे जा सकते हैं! अभी तक तो सवाल येही था की इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा ने बुल्लेट प्रूफ़ जैकेट क्यूँ नहीं पहनी? अब इस कहानी के बाद सवाल यह भी है की मोहन चंद शर्मा जो इस इरादे से वहाँ पहुंचे की उन का सामना एक ऐसे दहशत गर्द से होना है जो बहुत लोगों की जान ले चुका है और उसे उन की जान लेने में भी कोई झिझक नहीं होगी फिर भी उन्होंने ने अपना पिस्टल अपने हाथ में नहीं लिया, गोली नहीं चलायी, न गोली चलने के इरादे से फ्लैट में दाखिल हुए! ध्यान रहे की पूरी तरह पुष्टि और निशान्दाही उनका साथी धर्मेन्द्र पहले ही कर चुका था और अब उनके हिसाब से शक की कोई गुंजाईश नहीं थी! या तो आरोपियों को गिरफ्तार करना था! या उन के हमले करने की सूरत में उन पर गोली चलानी थी! दोनों ही सूरतों में सब से आगे चलने वाले इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा जो टीम लीडर थे उन के हाथ रिवोल्वर होना ही चाहिए था! भले ही वह डरा कर गिरफ्तार करने के लिए ही क्यूँ न हो! इस कहानी के अनुसार मोहन चंद शर्मा ने कोई गोली नहीं चलाई! यह अनुमान से दूर की बात है की मोहन चंद शर्मा के पास रिवोल्वर हो और उन के हाथ में न हो और रिवोल्वर उन के हाथ में हो तो उन्हें गोली चलने का अवसर न मिले! इस लिए की वह एक मशहूर एनकाउंटर स्पेसिअलिस्ट कहे जाते थे! यह तो शायद कुछ पल के लिए मान भी लिया जाता की उन्होंने जो गोलियां चलायी वह किसी को नहीं लगी पर इस ख़बर के अनुसार तो उन्होंने गोली चलायी ही नहीं आख़िर क्यों???उन के पीछे खड़े बलवंत राणा को भी गोली लगी पर उस की गोली से भी कोई ज़ख्मी नहीं हुआ! उस ने गोली चलायी या नहीं इस का भी कोई ज़िक्र नहीं!


पलंग पर लेते साजिद ने जो गोलियां चलायी उन से कमरे के अन्दर पहले से मौजूद और घटना क्रम के हिसाब से उन का सब से बड़ा दुश्मन (धर्मेन्द्र) जिस ने उन पर हमला करने के लिए रास्ता साफ़ किया, उस को कोई गोली नहीं लगती है! साजिद उस के निकट होने पर भी उस पर कोई गोली नहीं चलाता! उस के द्वारा चलायी गई दो गोलियाँ लगती हैं इंसपेक्टर मोहनद चाँद शर्मा को और एक कांस्टेबल बलवंत राणा को क्या यह काबिले यकीन नज़र आता है???पुलिस के अनुसार साजिद मास्टर माइंड, इंडियन मुजाहिदीन का सरगना, बेहद खतरनाक मुजरिम, दर्जनों लोगों की हत्या और बम धमाकों का जिम्मेदार! मगर वह गोली की आवाज़ से डर जाता है और अन्दर जा कर दूसरा कमरा बंद भी नहीं करता! बाथरूम में जा कर छुपता भी नहीं! फ्लैट में मौजूद ak-47 की तरफ़ आँख उठा कर भी नहीं देखता! एक पिस्टल तो साजिद के हाथ में था! पुलिस के मुताबिक दो पिस्टल और एक AK -47 में से बाकी बचा दूसरा पिस्टल भी उस के हाथ में नहीं होता! क्या यह काबिले यकीन नज़र आता है???


कहानी कार ने शायद घटना स्थल पर जा कर कहानी नहीं लिखी! लेखक घटना स्थल के दरवाज़े और छत तक गया है और उस ने अपनी आंखों से देखा है की फ्लैट के दरवाजों के बाहर सेफ्टी के लिए ग्रिल गेट भी लगे हैं! सभी फ्लाट्स के दरवाज़े अन्दर की तरफ़ खुलते हैं और मेंन गेट के बहार लगा ग्रिल गेट बाहर की तरफ़ खुलता है! अर्थार्त यदि बाहरी आदमी इस ग्रिल गेट को खोलेगा! तो उसे पीछे की और हटना होगा! अब यदि अन्दर का दरवाज़ा खुला है तो कमरे के अन्दर मौजूद व्यक्ति देख लेगा की बहार कौन है और उस के हाथ में क्या है! यदि बाहरी व्यक्ति पहले बाहर का और फिर अन्दर का दरवाजा खोलेगा तभी वह अन्दर जा सकता है! इस कहानी में ग्रिल गेट का कोई ज़िक्र नहीं है! L-१८ यानी इस इमारत की हर मंजिल पर दो फ्लैट हैं दोनों फ्लाट्स के दरवाज़े आमने सामने हैं और दोनों फ्लाट्स के सामने का एरिया ज़्यादा से ज़्यादा 5x5 फीट का है! अब इतनी तंग जगह में जहाँ पुलिस वाले मौजूद हों गोली बारी के बीच दो आरोपी कैसे निकल कर फरार हो सकते हैं? अगर सीढियों पर एक भी पुलिस वाला मौजूद है! तब किसी दूसरे व्यक्ति के उतर कर भागने की गुंजाईश सम्भव नहीं है! इस का गहराई से विश्लेषण हम ने सीढियों पर ख़ुद खड़े हो कर किया है और छत से कूद कर फरार भी नहीं हुआ जा सकता! यह हमने छत पर भी जा कर देखा है!


इस कहानी के अनुसार इंसपेक्टर मोहन चाँद शर्मा गोलियां लगने के बाद बैठ गए! मगर जो तस्वीर हम ने छापी थी अवश्य हमारे पाठकों के साथ साथ पुलिस वालों ने भी देखि होगी और शायद समाचारों की दुन्या में रहने वालों ने भी! इस चित्र में मोहन चाँद शर्मा चार मंजिला सीढियों से उतरने के बाद अपने दो साथियों की मदद से पैदल चलते दिखाए गए हैं और उन के पेट पर गोली का कोई ज़ख्म, कपडों पर पेट के ऊपर या पेट के नीचे टांगों की और खून बहता दिखाई नहीं दे रहा है और उनका या उन के साथियों में से किसी का हाथ भी उन के पेट पर नहीं है! जिस से की बहते हुए खून को रोका जा सके! हम ने इस तस्वीर को देश के प्रसिद्द सर्जन के पास भेज कर उन के द्वारा मिलने वाली रिपोर्ट भी छापी थी जिस से पता चलता है की जिस प्रकार मोहन चाँद शर्मा घायल अवस्था में चल कर जा रहे थे! उन की मौत नहीं होनी चाहिए थी!


इस कहानी के अनुसार पलंग पर लेते हुए साजिद ने जो गोलियाँ चलायी वो इंसपेक्टर मोहन चाँद शर्मा को लगी! अब इस ओर ध्यान दें, इंसपेक्टर मोहन चाँद शर्मा को लगी गोलियों की दिशा जो हम ने तय नहीं की! यह चित्र मशहूर अंग्रीजी समाचार पत्र हिंदुस्तान टाईम्स ने छापा और यकीनन उसे भी जो पोस्ट मोरटेम रिपोर्ट मिली होगी और वह भी पुलिस या मोहन चाँद शर्मा के घर वालों के द्वारा ही दी गई होगी! जिस की बुन्याद पर इस अखबार ने वह तस्वीर छापी थी हम ने इस तस्वीर पर भी इस देश के मशहूर सर्जन की रिपोर्ट छापी थी! आज फिर इस रिपोर्ट को छापने की आवयश्यकता नहीं है! हाँ मगर वह तस्वीर ज़रूर छाप रहे हैं जिस में गोलियां लगने और निकलने की दिशा दिखाई गई है! ताकि कहानी कार समझ सके की क्या अब सवाल नहीं उठने चाहिए??? क्या सचमुच इस कहानी के बाद बोलती बंद हो जानी चाहिए??? एक बार फिर ध्यान दें, गोलियों की दिशा वाली तस्वीर में कंधे पर जो गोली लगी उस में तीर का निशाँ दिखाई दे रहा है की गोली सर के ऊपर लगी और बाजू से बाहर निकली! दूसरी गोली जो कमर में लगी और जांघ से बाहर निकली! क्या कोई भी व्यक्ति जो लेता हुआ है वह यदि गोली चलाये तो उस की पिस्टल से निकली गोलियां क्या इस अंदाज़ से लग सकती हैं??? हमारे विचार में बिल्कुल नहीं!!


कहानी कार ने आतिफ और साजिद को गोलियां लगने के बाद की तसवीरें शायद नहीं देखि हैं! उन्हें जितनी और जिस दिशा से गोलियां लगी हैं वह मुतभेड के दौरान लगना मुश्किल है! हाँ! इरादा कर के मारा जाए तो बात अलग है! वह सभी तसवीरें ज़रूरत पड़ने पर एक बार फिर छापी जा सकती हैं और अगर अदालत को ज़रूरत पेश आए तो मुकदमा लड़ने वाले वकीलों को भी दी जा सकती हैं!


सवाल अनेक हैं और निरंतर किए जा सकते हैं! परन्तु हम आज के इस लेख को बस इन अन्तिम प्रश्नों पर समाप्त करना चाहते हैं की यदि वास्तव में ल-१८ में घटी घटना का सच सामने लाना है तो पुलिस के जिम्मेदार जो मौकाए वारदात पर मौजूद थे सामने आकर प्रेस से कुछ क्यूँ नहीं कहते? इंसपेक्टर मोहन चाँद शर्मा का होली फॅमिली हॉस्पिटल के बंद कमरे में सब की नज़रों से बचा कर ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर कौन थे? नर्स कौन थी? वार्ड बॉय कौन था? कमरे के अन्दर कोई दाखिल न हो इस के लिए दरवाज़े पर नियुक्त गार्ड कौन था? और किस के आदेश से और क्यूँ यह राजदारी बरती गई? पोस्ट मार्टम करने वाले आल इंडिया मेडिकल इंस्टिट्यूटडॉक्टर को देश के इस सब बड़े पोस्ट मोर्तेम का सच सामने रखने की दरखास्त क्यूँ नहीं की गई? आज के लिए इतने सवाल बहुत हैं! वैसे हमारे पास सवाल और भी हैं........



Wednesday, November 19, 2008

साध्वी प्रज्ञा सिंघ ठाकुर का मुकदमा लडेंगे बाल ठाकरे

और आतिफ साजिद और मुफ्ती अबुल बशर का मुकदमा?

भारतीय जनता पार्टी अधिकतर हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी है! अभी तक हम इसी भ्रम का शिकार रहे! लेकिन अब हम यह कह सकते हैं की न तो आर एस एस, संघ परिवार और न ही उस से जुड़े संघटन हिन्दुओं के हितों का ध्यान रखने वाले संघटन हैं और न ही भारतीय जनता पार्टी को राजनितिक दृष्टी से हिन्दुओं या देश का हितैषी समझा जा सकता है! बात केवल इतनी ही नहीं है के मालेगाँव बम धमाके में हुए ताज़ा खुलासे में उन लोगों का सम्मिलित होना सामने आ रहा है, जिन का सम्बन्ध संघ परिवार से जुड़े संघटनों के साथ है! बल्कि अफ़सोस की बात यह भी है की भारतीयजनता पार्टी खुल कर आरोपियों का बचाओ करने के लिए खड़ी हो गई है! १० तारिख की रात को जी बिज़नस न्यूज़ चैनल पर भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष राज नाथ सिंघ आरोपियों का पक्ष लेते नज़र आए! इस से पहले भी इन के जो वक्तव्य समाचार पत्रों की Headings बनते रहे थे वो भी इसी तरह के थे! पहले तो वो साध्वी प्रज्ञा सिंघ ठाकुर से दूरी प्रकट करने की कोशिश करते रहे और जब उन्हें लगा की अधिकान्क्ष समाचार पत्रों ने एक छोटे से कमरे में शिवराज सिंघ चोव्हान जो उन के दल के मुख्य मंत्री हैं और उन के साथ साध्वी के चित्र प्रकाशित किए हैं तब उन्हें लगा की भागने का रास्ता अपनाना सम्भव नहीं है! तब वह यह कहते दिखायी दिए की जब तक किसी का अपराध सिद्ध नहीं हो जाता तब तक उसे अपराधी घोषित नहीं किया जा सकता! यह पहला अवसर है जब भारतीय जनता पार्टी, शिव सेना और संघ परिवार से जुड़े संघटन यह कहने लगे हैं की आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता और जब तक किसी का अपराध सिद्ध न हो जाए उसे अपराधी नहीं कह सकते!

ताज़ा रहस्योदघाटन पर बी जे पी के प्रशन

मालेगाँव धमाके के सम्बन्ध में भा ज पा की और से ताज़ा रहस्योदघाटन के पश्चात् जो प्रशन उठाये गए हैं वो इस प्रकार हैं की भाजपा अपने इस स्टैंड पर हमेशा कायम रही है की आतंकवाद के साथ सख्ती से निपटा जाना चाहिए और यह की आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता! हम अत्यन्त सम्मान के साथ भारतीय जनता पार्टी और उस की सोच का प्रतिनिधित्व करने वालों की सेवा में निवेदन करना चाहते हैं की यही बात तो हम हमेशा से कहते रहे हैं! मगर अक्सर आपका उत्तर होता था की माना की सारे मुस्लमान आतंकवादी नहीं हैं! मगर आतंकवाद के मामले में जितने लोग पकड़े गए हैं वह सब मुसलमान हैं! दुसरे शब्दों में आप लोग येही कहते रहे की मुसलमान आतंकवादी हैं! इस्लाम आतंकवादी है! अब जबकि ऐ टी एस द्वारा मालेगाँव बम धमाकों के खुलासों में कुछ हिंदू संघटनों और हिन्दुओं का नाम सामने आया तथा मीडिया ने उसे हिंदू आतंकवाद या हिंदू संघटनों के आतंकवाद की संघ्या दी तो आपको अपनी गलती का एहसास हुआ की अब तक आप ग़लत कह रहे थे और कुछ लोगों के आतंकवाद में लिप्त होने पर किसी भी धर्म या उसके मानने वालों को आतंकवादी ठहराया नहीं जा सकता! आप ने इस के आलावा जो प्रशन उठाये हैं वह कुछ इस प्रकार हैं की अगर कोई सबूत मौजूद है तो उस के विरुद्ध कदम ज़रूर उठाया जाना चाहिए और कानून को अपना काम करना चाहिए! अब इस बात को कई दिन हो चुके हैं! प्रज्ञा सिंह ठाकुर मुंबई ऐ टी एस की कस्टडी में है मगर अब तक ऐसा कोई भी पक्का सबूत सामने नहीं आया है की जो यह प्रकट करता हो की २००८ के मालेगाँव बम धमाकों में प्रज्ञा सिंघ ठाकुर शामिल थी! मीडिया ने भी यह रिपोर्ट पूरे विस्तार के साथ पेश की है की पोली ग्राफी टेस्ट, ब्रेन मपिंग टेस्ट और लाइ डिटेक्टर टेस्ट के बाद कोई भी स्पष्ट सबूत उस के विरुद्ध नहीं मिला है! इस लिए २००८ के मालेगाँव बम धमाकों के सम्बन्ध में ऐ टी एस की जांच से कुछ अहम् सवाल खड़े होते हैं!

बी जे पि के प्रशनों के उत्तर

हम संघ परिवार वालों के प्रशनों पर अपनी बहस जारी रखेंगे मगर अभी तक आपने जिन बिन्दुओं की ओर इशारा किया है पहले उनका उत्तर देना ज़रूरी है! मुफ्ती अबुल बशर के विरुद्ध तो इतने प्रमाण भी नहीं मिले जितने की ऐ टी एस अभी तक प्रज्ञा सिंघ ठाकुर के मामले में एकत्र कर चुकी है! प्रज्ञा सिंघ ठाकुर की मोटर साइकिल का बम धमाकों में उपयोग होना क्या उस के विरुद्ध प्रमाण नहीं है? क्या राम जी के साथ टेलीफोन पर हुई उस की बात चीत, जिस में उस ने स्वीकार किया की मोटर साइकिल उस की है और जब उसे कहा गया की कह दो मैंने मोटर साइकिल बेच दी थी या चोरी हो गई है! तब भी उस का येही कहना था क्या कहूं, कैसे कहूं? आगे उस का यह कहना के मोटर साइकिल ऐसे स्थान पर क्यों खड़ी की जहाँ इतनी कम मौतें हुईं! क्या इस बात का प्रमाण नहीं है के वह इन बम धमाकों में लिप्त थी? और इस से भी अधिक खतरनाक धमाकों और मौतों की इच्छुक थी? पूर्व सैनिक अधिकारी मेजर उपाध्याय के साथ उस का सम्बन्ध, लेफ्टनेंट कर्नल प्रोहित जिस ने ऐ टी एस के अनुसार स्वयं अपना अपराध स्वीकार किया है, उस के साथ भोंसला मिलेट्री ट्रेनिंग कॉलेज में बैठकों में उपस्थित और भेद खुल जाने के बाद लेफ्टनेंट कर्नल पुरोहित का एस एम् एस द्वारा यह संदेश देना के वोह लोग ऐ टी एस की रडार पर हैं! प्रज्ञा सिंह ठाकुर पकड़ी गई है और भेद उगल सकती है! क्या राज नाथ सिंह और भारतीय जनता पार्टी को नहीं लगता के काफ़ी प्रमाण हैं? आर्मी के लेफ्टनेंट कर्नल पुरोहित का यह भी स्वीकार करना की आर डी एक्स उस ने उपलब्ध कराया था! क्या यह सब स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं! अगर संघ परिवार यह सोचता है के न्यायालय में यह प्रमाण कोई मायिनी नहीं रखते, ऐ टी एस की जांच कोई मायिने नहीं रखती तो फिर हम प्रशन खड़ा करना चाहेंगे की बटला हाउस एनकाउंटर में आतिफ और साजिद की जान क्यों ली गई? इन दोनों के विरुद्ध तो इन प्रमाणों की तुलना में कोई ऐसा स्पष्ट प्रमाण नहीं था! न तो बम धमाकों में लिप्त होने के प्रमाण के रूप में घटना स्थल पर उन से सम्बंधित कोई भी प्रमाण मिला! न ही उन्होंने भोंसला मिलट्री ट्रेनिंग कॉलेज जैसी किसी संस्था में कभी कदम रखा! न कोई ऐसा प्रमाण मिला के उन्हें आतंकवाद की सामग्री कब, कहाँ और किस ने उपलब्ध करायी! न उन से जुड़े किसी भी व्यक्ति के पास से कोई भी आपत्ति जनक वस्तु बरामद हुई! न साध्वी प्रज्ञा सिंह की तरह उन के विशैल भाषणों के कैसेट या सी डी मिले, न मेजर जनरल उपाध्याय, लेफ्टनेंट कर्नल प्रोहित, राम जी जैसे लोगों से उन के सम्बन्ध सामने आए! न ही उनका सम्बन्ध किसी ऐसी संस्था से सिद्ध हुआ जो सांप्रदायिक घृणा या आतंकवाद के लिए जानी जाती हो! जहाँ तक सवाल एक काल्पनिकसंघटन इंडियन मुजाहिदीन का है तो अब जिस प्रकार के प्रमाण सामने आ रहे हैं उस से यह लगता है की अगर जांच की जाए तो इंडियन मुजाहिदीन भी किसी ऐसे ही मस्तिष्क की उपज सिद्ध होगी, जैसा की लेफ्टनेंट कर्नल प्रोहित रखता है, जो की अरबी सीख रहा था! स्पष्ट है अरबी सीखने का इस के सिवा और क्या उद्देश्य हो सकता है की वो अपराध स्वयम करे और आरोप किसी मुसलमान या इस्लामिक संघटन पर सिद्ध करने का रास्ता हमवार करे!
भारतीय जनता पार्टी ने 2006 मालेगाँव बम धमाकों के सिलसिले में ऐ टी एस की जांच पर भी प्रशन खड़े किए हैं! 8 सेप्टेम्बर 2006 को मालेगाँव में हमीदिया मस्जिद और बड़े कब्रस्तान के पास बम धमाके हुए थे, जिस में 31 व्यक्ति हताहात तथा 300 से अधिक लोग घायल हुए थे! इन बम धमाकों के बारे में मुंबई ऐ टी एस की जांच रिपोर्ट का विशलेषण विचारनीय है! भारतीय जनता पार्टी का कहना है की यह जानकर निश्चय ही आश्चर्य होता है की ऐ टी एस ने २००६ के मालेगाँव धमाकों के सिलसिले में अपने आरोप पत्र में जिस षडयंत्र, जोश, जज्बा और डिजाईन की बात की थी और जिस में पाकिस्तानी उग्रवादियों के लिप्त होने की बात कही थी, २००८ के मालेगाँव धमाकों के सम्बन्ध में उन्ही बातों को बिल्कुल पलट दिया है! २००६ के धमाकों के सम्बन्ध में तीन मामले दर्ज किए गए थे! आजाद नगर पुलिस स्टेशन में जो मामला दर्ज किया गया था उस का नम्बर था 95&96@2006 जबके मालेगाँव के सिटी पुलिस स्टेशन में जो मामला दर्ज किया गया उस का नम्बर है 23@10@2006&३०८८ के इस आदेशानुसार इन तीनों मामलों की जांच मुंबई ऐ टी एस के हवाले कर दी गई थी और उस की चार्जशीट सी आर पी के सेक्शन 173¼2½ के अंतर्गत 21@12@2006 को जमा की गई थी जिस पर मुंबई ऐ टी एस के असिस्टंट पुलिस कमिश्नर के एन शैनेगल का हस्ताक्षर था! इस Final Report का हवाला देना भा ज् प् को इसलिए आवयशक लगा की वर्तमान जांच के बारे में किए जाने वाले संदेह को उजागर किया जा सके! " उपरोक्त शहर मालेगाँव की सांप्रदायिक संवेदनशीलता का लाभ उठाते हुए प्रतिबंधित "सीमी" के कट्टरपंथी नेताओं तथा सदस्यों ने अपनी कट्टर Ideology के साथ स्थानीय लोगों की सांप्रदायिक भावनाओं से हमेशा खिलवाड़ करने की कोशिश की है और उन पर कथित रूप से होने वाले बर्बरता का बदला लेने के लिए उन्हें उकसाया! (" रिपोर्ट का भाग नम्बर 1")
2. इस का उद्देश्य सांप्रदायिक मन मुटाव का माहोल पैदा कर के सांप्रदायिक दंगे करना था क्यों की इस क्षेत्र की अधिकांक्ष आबादी मुस्लिम है (रिपोर्ट का भाग नम्बर २)
3. अपनी वकालत, दलीलों, सलाह व मशवरा और भारतीय हुकूमत की नीतियों के विरुद्ध मुस्लिम या नव युवकों को उकसा कर " सिमी " धार्मिक आधार पर विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी पैदा करना चाहती है और अपराधिक षडयंत्र का उद्देश्य पूरे राज्य में सांप्रदायिक दंगों द्वारा सरकार को भैभित करना था! (रिपोर्ट का भाग नम्बर ४)
4. जांच से यह बात घ्यात हुई है की आरोपी मोहम्मद अली आलम शेख (ऐ-६) आतंकवादियों के कैंप से ट्रेनिंग हासिल करने के लिए पाकिस्तान गया था! उस ने इसी प्रकार की ट्रेनिंग प्राप्त करने के लिए शब्बीर अहमद मसिहुल्लाह (ऐ-२) को भी प्रेरित किया था और उसे पाकिस्तान भेजा था! मोहम्मद अली आलम शेख ने "हवाला" द्वारा रियाज़ भटकल से 1.८५ लाख रूपये प्राप्त किए थे, रियाज़ भटकल "सिमी" का एक सदस्य है, इन पैसों में से उसने ३० हज़ार रूपये शब्बीर मसिहुल्लाह (ऐ-२) को पाकिस्तान में ट्रेनिंग हासिल करने में होने वाले खर्च के लिए दिए थे और इस प्रकार इन की अपराधिक षडयंत्र अपना रूप धारण करने लगी थी!
अगर हम ने प्रशन उठाये तो
यह वह सारी दलीलें और प्रशन हैं जिन को लेकर भारतीय जनता पार्टी और बाल ठाकरे आशवस्त हैं की मालेगाँव बम धमाकों के आरोपियों को बचाने के लिए बड़े से बड़ा वकील खड़ा कर के इस आधार पर बचा लेंगे! हाँ यह कोई असंभव बात नहीं है! यह हो सकता है! अक्सर पैसे, ताकत और सत्ता के बल पर बड़े बड़े अपराधी जेल की सलाखों से दूर रहते हैं! जेल की सलाखों के पीछे तो उन्हें रहना पड़ता है जे उन अपराधों की सज़ा पाते हैं जो उन्होंने ने किए ही नहीं और स्वयं को बेगुनाह साबित नहीं कर पाते और दुर्भाग्य से उनका अपराध सिद्ध हुए बिना ज़माना उन्हें अपराधी मान लेता है! पुलिस और मीडिया उन्हें अपराधी साबित करने में लगा रहता है! हम ने जा कर देखा है, सराए मीर (आज़म गढ़) में मुफ्ती अबुल बशर की पारिवारिक पुष्ट भूमि! यह हो सकता है की पुलिस को प्राप्त सूचना के अनुसार उस का सम्बन्ध "सिमी" से रहा हो, मगर जो खुलासे प्रज्ञा सिंह ठाकुर, उपाध्याय और कर्नल प्रोहित तथा उन के साथियों के सम्बन्ध से प्राप्त हुए हैं, उन को सामने रखें तो मुफ्ती अबुल बशर के सिलसिले में ऐसा कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ! फिर भी उस का परिवार एक आतंकवादी परिवार के रूप में देखा जाता है! पढ़ा लिखा तो उस का भाई अबू ज़फर भी है मगर वो प्रज्ञा सिंह ठाकुर की छोटी बहन की तरह उच्चय सोसाइटी से सम्बन्ध रखने वाला नहीं है! नरेन्द्र मोदी, शिव राज सिंह चोव्हान और राज नाथ सिंह जैसे शक्तिशाली राज नेताओं से उस का सम्बन्ध नहीं है! बाल ठाकरे जैसे लोग जो उस के बचाव में बड़े से बड़ा वकील कर सकें, उस के साथी नहीं हैं! इस लिए न तो अंग्रेज़ी के बड़े दैनिकों में प्रज्ञा सिंह ठाकुर की बहन की तरह मुफ्ती अबुल बशर के भाई का चित्र प्रकाशित हुआ और न स्पष्टीकरण! इसी प्रकार आतिफ और साजिद के परिवारों का हाल पूछने वाला कौन है? एक रात लग भाग १ बजे साजिद के भाई का एस एम् एस मिला! उस ने लिखा की हमारे अखबार में एक बार फिर साजिद का चित्र देख कर उसे रोना आगया और नींद नहीं आ रही है! मैंने एक सहानुभूति पूर्वक उत्तर उस के एस एम् एस के जवाब में दिया! मगर क्या साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर की तरह आतिफ और साजिद के बचाव में भी कुछ राजनीतिज्ञ आ सकते हैं? अपराध तो उन का भी सिद्ध नहीं हुआ था और उन के बारे में तो ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं मिला था जैसा की मालेगाँव बम धमाके के मामले में आरोपियों के बारे में मिल चुका है! यह सच है की आतिफ और साजिद वापस नहीं आ सकते, मगर उन के दामन पर लगे दाग को तो मिटाया जा सकता है! अगर वो बेगुनाह हैं और उन की बेगुनाही सिद्ध की जासकती है तो मुफ्ती अबुल बशर अभी जेल में है,क्या पुलिस, सी बी आई और ऐ टी एस को उस के बारे में ऐसे प्रमाण मिल सकते हैं, जिस के द्वारा उस को आतंकवादी साबित किया जा सके? अगर हाँ तो वो प्रमाण कहाँ हैं? उन्हें भी इसी प्रकार सामने लाया जाए, जिस तरह से मालेगाँव बम धमाके के आरोपी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, उपाध्याय और प्रोहित के बारे में मिले हैं! हमारे पास इस सिलसिले में कहने के लिए अभी और भी बहुत कुछ है! भारतीय जनता पार्टी तो ऐ टी एस की ८ सेप्टेम्बर २००६ को मालेगाँव में हमीदिया मस्जिद और बड़े कब्रस्तान बम धमाकों में दाखिल की गई चार्जशीट का हवाला देकर ही बात कर रही है! मगर जब हम अपनी बात सामने रखेंगे तो अप्रैल २००६ में नांदेड में बम बनाने की कोशिश करते हुए दो भारतीय जनता पार्टी तथा शिव सेना के कार्यकर्ताओं से ले कर कानपूर की ऐसी ही घटना और केरल में १० नवम्बर २००८ यानी कल हुए बम धमाके में मारे गए दो हिंदू सांप्रदायिक संघटन के सदस्यों का भी उल्लेख करेंगे जो बम बनाने की कोशिश कर रहे थे! हम रीवा में गुलाब सिंह के घर से ज़ब्त किए गए ३२५ किलो Amonium Nitrate का भी प्रशन उठाएंगे और राजस्थान के एक छोटे से गाँव में पटाखों के बारूद से लगने वाली आग से मारे गए २८ व्यक्तियों का प्रशन भी! इस लिए यह लेख जारी रहेगा, और हर प्रशन का उत्तर सामने रखा जाएगा!

Saturday, November 1, 2008


Was it a recce or a planned raid?
It is a truth universally acknowledged that anything viewed from various angles presents various shapes. It is also a fact that your angle of view determines to a large extent the picture registered by your brain. An askew angle of view is bound to distort the picture. Reality defies comprehension without proper perspective. To date, we have not been able to understand what kind of picture the Delhi police is trying to draw in order to explain the incidents of September 19 as they happened.
There can be only three possibilities about the 'encounter':

(1) it was planned and could not be properly executed;

(2) it was a 'recce' that turned into a premature clash due to someone's misplaced enthusiasm

(3) it was a hurriedly planned exercise under orders to "do something, anything, about the Delhi blasts to appease the angry opposition parties and save the honor and position of the minister held responsible. Since the police, or any other authority for that matter, shall never acknowledge the third possibility which can only emerge from a fair and thorough enquiry, we take up the first two possibilities to one of which the police will have to stick once and for all.
The very first version (and how self-congratulatory it was) given out by the police was that they had successfully "worked out" the case after 'painstaking' investigations. This would mean that the raid at L-18 was planned in advance after the police had finally determined the identities of "terrorists" and their respective roles in Delhi blasts. However, after serious questions were raised about the manner in which the two boys were brutally killed and one of their important and highly decorated officers lost his life ( there is now a mystery shrouding the death of Inspector Sharma as well ) the police did a turnaround and said that it was basically a recce ( reconnaissance ) undertaken to take stock of the situation and determine and confirm the identities of the suspects. The subject, in its present shape, requires a very detailed probe and analysis. But the pivotal point for our discussion today is the presence on the spot at the material time of a senior police officer, namely. Alok Kumar, Deputy Commissioner of Police posted in the Special Operations cell of Delhi Police. Now, a DCP is a Class-I officer of Govt. of India. In the official hierarchy, the position of a class-I officer is that of an official representative and spokesperson of the government. In certain postings all class-I officers, be they from administrative or police services, enjoy even judicial powers. A DCP, posted anywhere as a police officer, is considered to be the head of his branch or section. He is responsible in every way for all officers and men under his command and even routine matters and day to day working of his unit requires his sanction and approval. Seen in this light, the presence of DCP Alok Kumar outside L-18 on September 19, 2008 bespeaks a well organized, well orchestrated and well supervised operation to achieve one of the three above- mentioned possibilities.
As a general rule, senior officers are not supposed to accompany the raiding parties unless the nature of operation is so sensitive as to necessitate their presence for various reasons ranging from answerability to public and/or government to ensuring the success of the operation for a political exigency due to immense public pressure which was the case at the time. In this scenario, DCP ALOK KUMAR IS PERSONALLY, OFFICIALLY AND TOTALLY RESPONSIBLE FOR THE INCIDENTS OF SEPTEMBER 19, 2008 IN GENERAL AND FOR THE AVOIDABLE, UNFORTUNATE AND UNTIMELY DEATH OF INSPECTOR SHARMA IN PARTICULAR.
And DCP Alok Kumar has not been questioned by anyone, far less by the electronic media, a section of which has made such a song and dance about the 'eyewitness' account of head constable Balwant Rana who was admitted to a 'trauma' center of a reputed govt. hospital for a laceration on his right arm while the fatally wounded Inspector Sharma was taken to an ill equipped charitable hospital despite the fact that two state of the art specialty hospitals viz. Escorts and Apollo were respectively two and seven minutes away. We have collected some vitally important material regarding the background and the manner in which Inspector Sharma was injured and taken to hospital and it will be brought forth after a few more facts are verified.

For now, we pose the following questions which have to be answered considering the presence of Alok Kumar on the scene:
1. Alok Kumar was not only the senior most officer on the spot but the official head of the unit as well; and yet SI Dharmendra communicated with Inspector Sharma. Why?
2. Since he was personally supervising the raid, why did he allow Inspector Sharma to confront the perceived terrorists without having a bullet proof vest on? 3. If it was a mere recce why was he standing in full public view with a drawn gun in hand?
4. Where was he when there was exchange of fire allegedly on the fourth floor?
5. Did he follow Inspector Sharma and head Constable Balwant Rana into the building?
6. Why didn't he help his injured inspector or accompany him to the hospital?
7. Why has he not come forward to give a firsthand account of the entire incident? 8. The police initially rejoiced and proclaimed that the raid had been successful and the case had been worked out, and yet the name of Alok Kumar was nowhere mentioned. Why? Was he on a different kind of mission?

Answers to these questions will go a long way in clearing the air of doubts and give credit where credit is due. It is not an insoluble mystery and viewed from a correct perspective things will fall into proper places and all the pieces of jigsaw will fit together to form a logical picture. But let the police decide this way or that. Was it a recce or a planned raid?

(Batla house encounter case)


WHAT A PROOF!!!

Delhi police, "annoyed by the campaign accusing them of staging a fake encounter", have made yet another attempt to 'prove' that the encounter at L-18 Batla House was genuine. A report titled “COPS PITCH IN WITH FRESH PROOF TO COUNTER SHOOTOUT CLAIMS" published in the Times of India (Page No. 7), New Delhi dated October 9, 2008 cites 'sources' in the department who have explained certain points in reply to various questions raised by us. And although it's not an official press release and no officer has been named which makes it very convenient for the authorities to completely disown it at a later stage, yet we consider it expedient to weigh and appreciate the points that have been put forth.
At the very outset reference has been made to the report of autopsy conducted on the bodies of Atif and Sajid and on that basis it is claimed that their bodies had no injuries on them apart from those caused by bullets. The argument seems to be that if the boys had been physically seized and then shot the bodies would have borne marks of scuffle." how can you capture two young men without causing injuries," a senior police official is quoted as saying. The argument holds no water at all. Seizure and capture does not always require physical contact and scuffle. Even a child can hold a much stronger adult at gunpoint and even kill them without any physical contact. In any case, since the autopsy report has not yet been made public, we refrain from further comment as there are several factors which have to be taken into account before arriving at a conclusion on that score. But what is totally inexplicable is the strange fact that while the walls outside the fourth floor flat and the landing itself bear no bullet marks, both the side walls of the ground floor parking of L-18 are riddled with them.

However, we shall examine in detail at the appropriate time what tale the scene of the crime has to tell.
The police have “shared with the Times of India the sequence of investigation that led them to L-18 on September 19, resulting in the death of their most decorated officer M.C. Sharma". This is simply ridiculous. Why was not this sequence of investigation shared with the entire media in the press conferences addressed by various officers including the Commissioner of Police? It is further asserted that joint investigations by Delhi and Gujarat police were conducted into the July 26 Ahmedabad blasts and five mobile numbers of prepaid connections were unearthed. " The numbers attracted the attention of the investigators because they went off-line immediately after the blasts". It is quite obvious that these numbers were not tapped, or the Delhi blasts would have been averted.
The report then mentions the arrest of Afzal Usmani and his 'revelations' on several points. But since Afzal Usmani's arrest came much later than the Batla House encounter, his revelations have no bearing on the nature of the incident in question.
As per the contents of the report, the police say that terrorists usually prefer pre-paid connections and so the investigators do not pay much attention to the post paid connections as the same are given out after obtaining the identity proof etc. of the applicant. But it is also claimed in the report by the same police 'source' that " Atif had switched from pre-paid to post-paid in July". It is also on record that Atif had used his correct identity to obtain the mobile connection. The facts simply don't add up!
Now comes the crucial part; the police account (albeit not official) of the proceedings on the fateful day. “On the day of the shootout, SI Dharmendra knocked at all the flats of the apartments but stopped at L-18 because the voices pointed to the presence of a group of people."
Let's take this statement apart: SI Dharmendra knocked at all the flats. With what result? And then he came to L-18. Now L-18 is the number given to the entire building on the fourth floor of which is located the flat where the encounter is alleged to have taken place. Anyway, Dharmendra heard voices indicating a group of people and concluded that the terrorists were holed up in that flat. This proves at least two things; one, the police had no specific information regarding the place and, two, they had no idea about the identities of the alleged terrorists. So SI Dharmendra did not knock at the door of that particular flat but called Inspector Sharma, presumably with the information that he had found the terrorists' hideout. Rest of the account is so ludicrous that it is to be carefully read to be believed, so we reproduce it verbatim. “As they entered the flat, Atif and Sajid, who were armed, fired at Sharma, hitting him in two places. Sharma fired back, hitting Atif in the abdomen. Taking advantage of the melee, two militants fled from the second door while one of them-Mohd. Saif-was apprehended".
Now consider the following points:
1. This account makes no mention of how Sajid was shot
2. The landing in front of the flat admeasures six by four feet and both the doors are at right angles to each other so that even a single person standing in front of the flat naturally covers both the doors . The alleged escape of the two boys through the second door was possible only if no one was left outside the flat after Inspector Sharma entered it which only means that the rest of the police party was waiting downstairs. And head constable Balwant Rana, a hefty six-footer, who is said to have been shot in his right arm does not find mention in this account at all. There is a lot more about the encounter, the killing of the two boys and the death of Inspector Sharma which we shall take up later when we graphically reconstruct the scene.
3. All commandos and police personnel associated with anti terrorist operations are trained to tackle such situations in a very specifically professional manner which also we shall describe in detail. Suffice it to say that a seasoned and highly trained officer like Inspector Sharma with more than 40 killings in encounters under his belt could never have walked into a flat full of alleged terrorists and got shot in the manner in which the police want us to believe he was shot.
4. Head constable Balwant Rana is said to have been shot along with Inspector Sharma but, for reasons best known to them, the police have not produced him before the media to give a firsthand account of the encounter.
5. Police have also claimed previously that Inspector Sharma and SI Dharmendra had gone for a recce and not to apprehend the terrorists. Not only does this previous statement come into conflict with the present report under discussion but it also establishes the fact that the police had specific information about the flat and its inmates. And yet they did not install a surveillance which could have resulted in the capture of all the militants and perhaps their accomplices as well. We shall also deal in great detail with the subjects of recce and surveillance in course of time.
It's all very well for the police to scoff at the doubts being expressed about the genuineness of the encounter, but the way bullet injuries on Sajid's head have been sought to be explained in the ToI report will invite nothing but boos and jeers even from a layman. As per the police source's explanation the picture that comes to mind is this: Sajid is lying on the floor with the back of his head toward the entrance and starts firing even as the police enter the flat. But he does not turn around and just extends his arm with the weapon backwards and fires blindly. At the same time he also raises his head a bit off the ground so one of a volley of bullets fired by the entering cop hits him at the nape of the neck. Talk of imagination!
There is no mention at all as to how Atif was shot in the head from point blank range and by whom.
Let the police now come up with an "official" version of the encounter if they have prepared it by now.
The investigative team of Rashtriya Sahara along with an expert in criminal and forensic matters visited L-18 on October 9, 2008. They were not allowed inside the flat on the fourth floor which was locked. However, they had the run of the entire apartment block and collected very precious evidence. We are making our best efforts to acquire all those things and shall publish a detailed report of the investigation as soon as it is compiled.


RECAP AND ONWARDS
Our investigations have reached a stage where we shall have to delve deeper and raise very sensitive and sensational questions pertaining to the raid at Batla House by the Special Operations Cell of the Delhi Police which culminated in the killing of two Muslim youth alleged to have been terrorists and the unfortunate death of the high profile Inspector M.C. Sharma. Since the air is already thick with suspicions, doubts, allegations, counter allegations and it is being openly and unequivocally said that the issue has assumed proportions of national importance and, what with the local as well as national polls just round the corner, all political parties are likely to use it as a plank, our sincere endeavor is to get to the truth.
The main questions sought to be addressed and answered by us can be summed up as follows:
(a) Were the two boys killed in the encounter terrorists; in other words, did police have prior information of their true and assumed identities and their antecedents?
(b) Did they deserve to be killed in the manner they were killed? (We have already pointed out in a scientific manner the way they were shot dead)
(c) Had L-18 been under police surveillance for any length of time?
(d) Was the raid meticulously planned beforehand, or was it an impromptu operation staged under certain pressures.
(e) How and when was Inspector M.C. Sharma shot? Did he die of bullet wounds? More than one policeman, including HC Balwant Rana must have witnessed his being shot, but no one has come forward to tell what happened, and who was responsible for shooting and injuring the inspector?
(f) How many senior officers supervised the raid? Were they in radio contact with police headquarters?
(g) Were there five persons present in the flat at the material time? If yes, and two of them escaped, why didn't the police follow their escape route?
(h) If an AK47 rifle and two.30 bore pistols were recovered "after a thorough search by ACP Sanjeev Yadav", what weapons did the alleged terrorists use to fire at the police?
(i) Why was additional police force called in after the encounter was over?
(j) Who masterminded the Delhi blasts, Atif or Abul Bashar? (Contradictory claims have been made by Delhi and Ahmedabad police. This allegation needs to be specifically clarified from a legal point of view)
(k) To what extent have our intelligence agencies been successful in predicting and/or preventing terrorist strikes in the country during the past ten years? (We are going to publish a national survey on the subject.)
(l) Has Azamgarh really become a hub of terrorist activities? If not how come so many youth from that district have recently been arrested in various states on the charge of being terrorists?
After we started to analyze scientifically the 'encounter' at L-18 Batla House and exposed glaring holes and contradictions in the police story, even the electronic media changed its stance, and some channels even went to the extent of questioning the genuineness of the entire incident. Senior journalists of international fame like M.J. Akbar and Vir Sanghvi agreed with us not only about the manner in which Atif and Sajid were killed but also about the very institution and character of encounters and encounter specialists. Even Delhi police have remained silent on all questions except protesting the news that Inspector Sharma was under transfer at the time of the alleged encounter. What is quite obvious to everyone is the fact that the police are trying their best to hide something about the death of Inspector M.C. Sharma.
NOW ONWARDS
We now invite our readers to mull the following pointers and clues arising out of the police version and general facts as they are. We request you to think and analyze the facts fairly, objectively and impartially in order to arrive at an honest to God conclusion in response to the million dollar question: was the encounter at L-18 fake?
POINTERS AND CLUES
1. L-18 Batla house is a four storied building with two flats on each floor, a single stairwell and only one entrance. All open spaces are secured by iron grille and there is no way out except through the only gateway. The adjacent buildings to the right and left are only two storeys high. There is a narrow lane in front and an even a narrower lane at the back.
2. There is irrebuttable documentary evidence on record that Atif had submitted his correct details (including his mobile phone no.) to the police in the tenant verification form receipt of which was duly acknowledged by the local police on August 21, 2008
3. The shooting is said to have begun at around 11 AM. Eyewitness accounts say that the regular police arrived about fifteen minutes later, and the media arrived five to ten minutes after the police, by which time the area had already been cordoned off.
4. The faces of the victims of the 'encounter' killings were not shown to anyone. No immediate combing in the area was undertaken to search for the 'escaped terrorists. The media was not allowed access to the scene of the encounter; rather, the flat was immediately sealed. By the time the media arrived, Mohan Chand Sharma already been carried down four floors of stairs with wounds which eventually proved fatal.
5. Zeeshan who also shared the flat was writing the IIPM entrance test at the time of the alleged encounter and was arrested later in the night of 19 September from the Headlines Today studios at Jhandewalan, soon after he had been interviewed there which was only partially aired. He too has been alleged to be a terrorist.
6. So far, no personal motive for the crimes has been alleged by the police except for saying that all persons arrested so far owe allegiance to one terrorist group or the other.
7. A succession of organizations such as the HUJI, SIMI and the IM have already been named by different State police as the organizations responsible for the blasts that have taken place in Jaipur, Ahmedabad and Delhi and for the bomb scare in Surat. Atif has been alleged by the Delhi police to be the mastermind of all blasts after several others such as Abul Bashar, Tauqeer, etc. were claimed to be the masterminds. His name was never mentioned earlier, not even when the sketches of the Delhi Bombers were released. And now Mumbai police say that Tauqeer is a creation of the media.
8. The Special Cell now claims that the police verification form is forged, despite the fact that it is countersigned by the duty officer and bears the seal of Jamia Nagar Police Station. And these documents were handed over to the media by the caretaker of the apartment within two hours of the alleged encounter and he could barely have had enough sufficient time to have carried out the forgery. And the particulars given in the form are genuine, anyway.
9. The police so far not carried out a Test Identification Parade by witnesses who claim to have seen those responsible for the Delhi bomb blasts? No TIP was conducted before the burial of the bodies of Atif and Sajid who were shot dead? And the sketches initially circulated by the police do not match Atif's and Sajid's photographs.
10. Saquib Nisar, who the police claim was mastermind of the mastermind Atif and provided logistical support for the serial blasts in Ahmedabad and the bomb scare in Surat, was taking an MBA examination from July 23 to July 28, 2008. Copies of his admit card and exam sheets signed by the examiners are on record.
WE STRONGLY FEEL THAT
The rat race among various police agencies to claim credit for arresting dreaded terrorists and masterminds is resulting in the targeting of Muslim youth. This must stop immediately. It appears that after several scapegoats, the police have now shifted focus to Azamgarh which is being branded as the nursery of terrorism. This unmindful and malicious targeting of young Muslim boys from Azamgarh or those who may have been members of SIMI in the past has led to an enormous sense of insecurity, fear and resentment in the Muslim community of the country in general and young Muslim boys from Azamgarh or those who may have been members of SIMI, in particular.
It is very unfortunate and disquieting that a large section of the mainstream media, especially the electronic media, has been unjustifiably glorifying police action and supporting their successive absurd stories and concoctions based not upon scientific investigation but only on confessional statements made by the accused while in police custody. Not only has it defamed a large number of innocent people but is also responsible for growing communal tensions and polarization of the communities.
(Readers can send their reasoned responses and replies either through email on the following address)

burneyazizburney@hotmail.com