Tuesday, December 22, 2009

26/11 को मुम्बई पुलिस का किरदार एक और सवाल?

‘‘टु दि लास्ट बुलेट’’ (To the Last Bullet) यह पुस्तक मेरी नहीं है। विनीता काम्टे द्वारा लिखी गई है। विनीता काम्टे जांबाज़, बहादुर पुलिस अधिकारी अशोक काम्टे की विधवा हैं। पुस्तक का विषय 26/11/2008 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले और उस हमले में अशोक काम्टे की मृत्यु किस प्रकार, किन परिस्थितियों में हुई और पुलिस की भूमिका क्या रही, उसके विवरण पर आधारित है। यह पुस्तक विनीता काम्टे की निजी छानबीन के आधार पर लिखी गई है।

स्पष्ट हो कि इस छानबीन में पुलिस ने विनीता काम्टे की कोई सहायता नहीं की बल्कि बाधाएं खड़ी की जाती रहीं। इस पुस्तक को मैंने अभी पढ़ा नहीं है, लेकिन वीर संघवी ने पढ़ा है और उस पर समीक्षा भी की है, इसलिए निम्नलिखित लेख भी मेरा नहीं है, यह भी वीर संघवी का है, जो विनीता काम्टे की पुस्तक को पढ़ने के बाद उस पर अपनी समीक्षा के रूप में अंग्रेज़ी दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित किया गया है।


मैं इस लेख को पाठकों की सेवा में इसलिए पेश करना चाहता हूं कि लगभग यही सब कुछ जो अब सामने आ रहा है, वह एक वर्ष पूर्व अपने क़िस्तवार कॉलम ‘‘मुसलमानाने हिन्द.... माज़ी, हाल और मुस्तक़बिल???’’ की कई क़िस्तों में और विशेष रूप से 100 वीं क़िस्त में, जिसका शीर्षक था ‘‘शहीदे वतन हेमंत करकरे की शहादत को सलाम’’ में लिख चुका हूं, जो कि 5 जनवरी 2009 को प्रकाशित किया गया और जिसके परिणाम स्वरूप संघ परिवार के एक सदस्य अथवा शुभचिंतक द्वारा मुम्बई की एक अदालत में मेरे विरुद्ध देशद्रोह का मुक़दमा भी क़ायम किया गया है।

यह भी और इसके अलावा और भी जो कुछ हुआ वह सभी विवरण आने वाली क़िस्तों में प्रकाशित किया जाएगा, लेकिन इस समय अधिक महत्वपूर्ण यह है कि मेरे जिस प्रश्न पर वह सब क्रोधित व उत्तेजित हो उठे थे, जो 26/11 को हुए आतंकवादी हमले पर 10 आतंकवादियों से हट कर कोई बात सुनना ही नहीं चाहते थे, अब उन्हें हर तरफ़ से नए आतंकवादियों के बारे में सुनना व पढ़ना पड़ रहा है और केवल इतना ही नहीं इस हमले में सबसे पहले शहादत का जाम पीने वाले अशोक काम्टे की विधवा भी अब खुले शब्दों में यह लिख रही हैं कि पुलिस ने अपने दायित्व को ठीक ढंग से नहीं निभाया।

करकरे के मंगाने पर भी पुलिस फोर्स नहीं भेजी गई। उनके संदेश को न आगे बढ़ाया गया और न उस पर कार्रवाई की गई। घायल अवस्था में पड़े उन जांबाज़ पुलिस वालों को चिकित्सा सहायता के लिए 2 मिनट की दूरी पर स्थित अस्पताल में नहीं ले जाया गया, उन्हें मरने के लिए सड़क पर छोड़ दिया गया। क्राइम ब्रांच का एक अधिकारी जो कन्ट्रोलरूम की निगरानी कर रहा था, वह करकरे की सहायता नहीं करना चाहता था। सभी विवरण दर्ज हैं विनीता कामटे की पुस्तक ‘‘टू दि लास्ट बुलेट’’ में और इन तमाम तथ्यों को छूते हुए अपनी समीक्षा में प्रस्तुत किया है वीर संघवी ने।

क्या अब भी यह कहा जा सकेगा कि मुम्बई पर हमला करने वाले केवल 10 आतंकवादी थे? मुझे अभी इस संबंध में बहुत कुछ लिखना है, लेकिन पहले अध्ययन करें विनीता काम्टे की छानबीन पर आधारित पुस्तक पर लिखी गई यह समीक्षा

Who killed Kamte?
26/11 की घटनाओं के बारे में हम जितना अधिक पढ़ते हैं उतना ही कम जानते हैं। अब हम सभी लोग जानते हैं कि किसने षड़यंत्र रचा और किसने हमला किया- इसके लिए क़साब का शुक्रिाया--- लेकिन 26/11 के अन्य पहलुओं के बारे में हमें जितना जानना चाहिए, उससे कम जानते हैं।जो भी नई जानकारियां सामने आ रही हैं वह मुम्बई पुलिस को कटघरे में खड़ा करती हैं। सबसे पहले पुलिस कमिश्नर के रूप में हसन ग़फूर ने दावा किया कि उस रात उनके 4 पुलिस अधिकारियों ने अपनी जान जोखिम में डालने से इन्कार कर दिया था।

और अब विनीता काम्टे की पुस्तक ‘टु द लास्ट बुलेट’ (अमया प्रकाशन)।हम सभी जानते हैं कि 26/11 की रात को अशोक काम्टे, हेमंत करकरे और विजय साल्सकर मारे गए और उसके लिए बताया गया कि यह 2 उच्च अधिकारी (साल्सकर आईपीएस नहीं थे) ने मूर्खतापूर्वक मुम्बई की सड़कों पर बेतहाशा गाड़ी चलाई और वह आतंकवादियों के आसान शिकार बन गए। विनीता की पुस्तक इसके विपरीत सिद्ध करती है। उनके साथियों ने उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया। ऽ सबसे पहले अशोक काम्टे ऐसे ही गाड़ी नहीं चला रहे थे। वह ईस्ट ज़ोन के इंचार्ज थे और हमला उनके क्षेत्र से बाहर हुआ था। उनको विशेष रूप से स्पेशल ब्रांच ऑफिस बुलाया गया, उस स्थान के निकट जहां आतंकवादी थे।

ऽ दूसरे काम्टे और करकरे साथ-साथ नहीं थे। करकरे ने वीटी स्टेशन पर फाएरिंग के बारे में सुना और स्वयं वहां पहुंच गए। प्रत्येक्ष दर्शियों ने उन्हें बताया कि आतंकवादी चले गए हैं और कामा अस्पताल पहुंच गए हैं। करकरे ने रात ११:२४ पर सेन्ट्रल रूम को संदेश भेजा, ‘हमें कामा अस्पताल का घेराव करना होगा। हम एसबी-2 (ैठ।2) कार्यालय की ओर हैं। एक टीम कामा अस्पताल के सामने की ओर भेजो। सेना से उनके कमान्डोज़ के लिए वह आग्रह करें।’ इस प्रकार रात ११ : २४ बजे राज्य के एटीएस प्रमुख को (1) यह आभास हो गया था कि यह एक आतंकवादी हमला है। जबकि पुलिस फोर्स कुछ भी समझ पाने की स्थित में नहीं थी। (2) सेना के कमान्डोज़ के लिए निवेदन किया (3) कामा अस्पताल को घेर कर आतंकवादियों को बाहर निकालने की योजना भी बनाई थी। लेकिन इन तमाम निवेदनों की अनदेखी कर दी गई। कामा अस्पताल कमक नहीं पहुंची और जो कुछ भी करकरे ने कहा उसके आगे नहीं बढ़ाया गया जबकि कामा अस्पताल से पुलिस मुखियालय केवल 2 मिनट की दूरी पर है।

ऐसा नहीं हो सका क्योंकि कामा अस्पताल के मुख्य द्वार पर कोई पुलिस कर्मी नहीं था, क़साब और उसका साथी इस्माईल बड़े आराम से अस्पताल से बाहर निकल गए। वह निकट ही रंग भवन लेन में चले गए। रास्ते में उन्होंने एक गुज़रती हुई होंडा सिटी गाड़ी पर गोली चलाई। गोली ड्राइवर की उंगली में लगी। आज़ाद मैदान पुलिस स्टेशन के 2 कांस्टेबलों ने पूरी घटना को देखा और ११:४५ बजे कंट्रोल रूम को सूचना दी। रंग भवन लेन में रहने वाले, जिन्होंने गोलीबारी देखी थी, उन्होंने भी कंट्रोलरूम को सूचना दी। कंट्रोलरूम में उपस्थित किसी भी व्यक्ति ने न तो पुलिस भेजी और न ही करकरे को इस बारे में कुछ बताया। उनको विश्वास था कि आतंकवादी अब भी अस्पताल के भीतर हैं। और अतिरिक्त पुलिस कामा अस्पताल पहुंच चुकी है। क्योंकि आधा घंटा पहले ही उन्होंने सहायता के लिए कंट्रोलरूम को रेडियो पर संदेश भेज दिया था।

करकरे ने फैसला किया कि वह कामा अस्पताल के सामने के भाग की ओर जाएंगे और काम्टे, (जिसके पास ए॰के॰47 थी) और साल्सकर (एन्काउन्टर स्पेशलिस्ट) को साथ ले गए।लगभग १२:०१ बजे के आस-पास करकरे, काम्टे और साल्सकर को ले जा रही गाड़ी रंग भवन लेन में प्रवेश हुई। अधिकारियों को लगा कि झाड़ियों में कुछ हिल-डोल रहा है। इसलिए काम्टे गाड़ी से बाहर उतरे और अपनी एके-47 से गोली चलाई। गोली क़साब के बाज़ू में लगी। लेकिन इस्माईल ने अपनी एसाल्ट राइफल से जवाबी गोली चलाई और इस लड़ाई में तीनों आदमी (काम्टे, करकरे और साल्सकर) घायल हो गए। (और क़साब भी)।

आतंकवादियों ने उनको गाड़ी से बाहर निकाला और सड़क पर फैंक दिया और कार को अपने क़ब्ज़े में कर लिया। यह लोग यहां पर १२:०४ बजे से १२:४९ बजे तक पड़े रहे। क्या वह मर गए थे? शायद नहीं। साल्सकर जीवित थे, जब उन्हें अस्पताल ले जाया गया। उनकी मृत्यु वहीं हुई। काम्टे की मृत्यु सर में चोट के कारण हुई और अगर सड़क पर 40 मिनट तक उन्हें घायल अवस्था में छोड़ा नहीं गया होता तो शायद वह जीवित होते।क्यों मुम्बई पुलिस ने अपने बेहतरीन लोगों को घायल आवस्था में पड़े रहने दिया जबकि मुख्यालय वहां से 2 मिनट की दूरी पर था? वह जानते थे कि वह वहां हैं। रंग भवन लेन के निवासियों ने कन्ट्रोलरूम को लगातार फोन किया। कई ने बार-बार फोन किया।

आतंकवादियों और गोलीबारी के बारे में पुलिस को बताया लेकिन किसी ने जवाब नहीं दिया। रात १२:०४ बजे गोलीबारी के ठीक बाद एक पुलिस कर्मी ने सेंट्रल कन्ट्रोलरूम को गोलीबारी की सूचना दी। अरुण जाधव ने, जो हमले में बच गया था, १२:२५ मिनट पर कन्ट्रोलरूम को घटना के बारे में बताया- कुछ नहीं हुआ।प्रत्येक्ष दर्शियों ने कहा कि पुलिस अधिकारीयों पर गोलीबारी के ठीक बाद एक पुलिस की गाड़ी तेज़ी से गुज़री, लेकिन न तो वह रुकी और न ही उसने कन्ट्रोलरूम को सूचना दी। रात १२:३३ बजे एक और पुलिस की गाड़ी गुज़री, उसने कन्ट्रोलरूम को बताया कि तीन लोग सेन्ट ज़ेवियर लेन में पड़े हैं। हमें स्ट्रेचर की आवश्यकता है लेकिन यह रुकी नहीं और न ही अगले 16 मिनट तक कोई सहायता आई।

कन्ट्रोलरूम ने आतंकवादियों को भागने दिया और 3 बहादुर पुलिस अधिकारियों को कुत्ते की मौत मरने के लिए घायल अवस्था में सड़क पर पड़े रहने दिया। और इसके अलावा पुलिस के झूठ और अंदरूनी राजनीति भी है। 26/11 की घटना के बारे में एक थ्योरी के अनुसार अंदरूनी राजनीति के कारण क्राइम ब्रांच का अधिकारी जो कन्ट्रोलरूम की निगरानी कर रहा था, वह करकरे की सहायता नहीं करना चाहता था। जिस प्रकार से पुलिस ने इन तथ्यों को छुपाने की कोशिश की कि क़साब को काम्टे ने ही घायल किया था (जिससे उसे गिरफ़तार करना आसान हो गया), वास्तव में यह निंदनीय है।जब विनीता काम्टे ने यह जानने का प्रयास किया कि किस प्रकार उनके पति की मृत्यु हुई तो मुम्बई पुलिस ने तथ्यों तक पहुंचने से रोकने के लिए बहुत कुछ किया।

आख़िरकार राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त ने पुलिस पर बल दिया कि वह सूचना के अधिकार के तहत ऑडियो रेकॉर्ड्स और अन्य जानकारी दे। इस प्रकार हम जान पाए कि उस रात क्या हुआ था।और इसका श्रेय उस बहादुर महिला तथा आरटीआई को जाता है जिसने जनता और सरकार के संबंधों के इक्वेशन को बदल दिया। लेकिन यह मुम्बई पुलिस के बारे में बहुत कम बताती है। वह अधिकारी जिन्होंने उनके पति को मौत के मुंह में भेजा वह आज भी अधिकारियों की स्थिति में हैं। आइंदा जब आतंकवादी हमला करेंगे, हमारी पुलिस फोर्स फिर नाकाम होगी। बहादुर लोग अपनी जान गंवाएंगे और पुलिस फोर्स की अंदरूनी राजनीति का ख़मियाज़ा मुम्बई को भुगतना होगा।...........................................................