Tuesday, April 7, 2009

मुलायम सिंह ने ऑप्शन खुला रखा है और आपने.....?


२० मार्च २००९ इस दृष्टी से भी एक महत्त्वपूर्ण दिन था के मुझे यह निर्णय लेना था के क्या मुझे राजनीती में शामिल हो जाना चाहिए, चुनाव लड़ना चाहिए या देश में धर्मनिरपेक्ष सरकार के गठन को मस्तिष्क में रखते हुए किसी पार्टी में शामिल हो जाना चाहिए या फिर पत्रकारिता द्वारा देश व समाज की जो सेवा की जा रही है, उसी को जारी रखना चाहिए। बहुत सोच विचार के बाद मैं इस निर्णय पर पहुँचा के स्वतंत्रता के बाद से आज तक संसद में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व तो सदैव रहा है। यह अलग बात है के कभी कम कभी अधिक, परन्तु शायद भारत में स्वतंत्रता के बाद यह पहला अवसर था जब किसी उर्दू रोजनामा को सम्पूर्ण भारत में स्वतंत्रता के बाद अपने पाठकों द्वारा वो लोकप्रियता प्राप्त हुई हो के राष्ट्रिय सहारा उनके दिलों की धड़कन बन गया हो। अतएव पूर्णत: अनुचित लगा किसी एक क्षेत्र तक सीमित रह कर इन सेवाओं को जारी रखने का निर्णय लेना।

हालांकि समाचार पत्र में लेखों द्वारा और मुसलमानाने हिंद के बीच उपस्थित होकर भाषण द्वारा जो संदेश देने का प्रयास लगातार किया जा रहा है, इस संदेश को संसद में बैठने वालों तक पहुँचाना भी अतिआव्यशक है, परन्तु इस कीमत पर नहीं के आन्दोलन प्रभावित हो। निशचित रूपसे अच्छा नहीं लगा होगा यह निर्णय उन मोहब्बत करने वालों को, जो २० मार्च की इस पार्टी में लगभग आधी रात तक अपने घर से बहुत दूर अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने को आमंत्रित करने के लिए वहां उपस्थित थे और शायद इस राजनितिक पार्टी के नेताओं को यह निर्णय कुछ अनापेक्षित लगा हो। हलाँकि मैं उन का धन्यवाद् करता हूँ के उन्होंने मुझे इस योग्य समझा और मेरे घर पधार कर कहा के मैं अपनी कॉम व देश का प्रतिनिधित्व संसद में बैठ कर करून और यह नेवता उन्होंने मुझे मेरे घर आकर दिया।

चुनाव क्षेत्र व इस राजनितिक पार्टी का नाम और इस महत्त्वपूर्ण पार्टी में उपस्थित होने वाले महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के नाम भी इस लेख में शामिल किए जा सकते थे, परन्तु अभी नहीं, इस सबका विवरण एक पुस्तक के रूप में जल्द सामने लाने का इरादा रखता हूँ, परन्तु इस का यह अर्थ नहीं के तब तक खामोशी रहेगी, न राजनीती पर बोला जायेगा और न लिखा जायेगा। बोला भी जायेगा और लिखा भी जायेगा। हलाँकि पहले इरादा यह था के चुनाव के दौरान अन्तिक वोट पोल हो जाने तक भाषणों का सिलसिला त्याग देना होगा, परन्तु जिस प्रकार पिछले हफ्ते २८ मार्च को बिहार के शहर दरभंगा, २८ और २९ की मध्यरात्री मुजफ्फरपुर, २९ की सुबह पटना, शाम को कोल्कता, ३० और ३१ को मुंबई और १ अप्रैल को लखनऊ में जनसभा से लेकर मुख्य गोष्ठियों तक जो वर्तमान स्थिति पर बात चीत सामने आई, इस का परिणाम यह रहा के निसंदेह आन्दोलन राजनितिक पार्टियों से दूर रह कर जारी रहे, परन्तु जारी रहे।
अब यह आवाज़ उठे मस्जिदों से, मदरसों, से दरगाहों से और धार्मिक व समाजी संघटनों के साथ खड़े होकर उनके मंच से जिन के सीने में कौम का दर्द भी है और जो देश के विकास के लिए चिंतित भी रहते हैं। जिन्हें अल्लाह से भी मोहब्बत है और अल्लाह के घर से भी, जो अभी तक बाबरी मस्जिद की शहादत को भूले नहीं हैं और न उन चेहरों को जिन्होंने अल्लाह के घर को तोडा है। यही कारण है के मुसलमानों के लिए यह इलेक्शन केवल इलेक्शन नहीं, बलके उनके लिए अवसर है सेलेक्शन का। उन्हें तय करना है के उन्हें यह परदे के पीछे की गुलामी मंज़ूर है या फिर वे अपनी वास्तविक स्वतंत्रता की जंग लड़ने का पर्ण ले चुके हैं। ५ साल में यदि एक अवसर हम सब के पास आता है अपनी राय को प्रकट करने का, तो यह किसी की राजनितिक चालों की भेंट न चढ़ जाए।

यह चालाक मस्तिष्क राजनीतिग्य हमारे वोट को अपने हक़ में करने या बेअसर करने के लिए जो तरीके अपनाते हैं, वह किसी से भी ढाका छुपा नहीं है। आव्यशकता है इन की सभी चालों को समझने की अतएव अब चुनाव तक प्रयास यही रहेगा के किस प्रकार इन के चेहरों को बेनकाब किया जाए और यह आव्यशकता केवल मुसलमानों की नहीं, बलके सभी भारतियों की है। यही विषय रहा मेरे पिछले हफ्ते के भाषणों का और इंशाल्लाह यही विषय रहेगा मेरे लेखों का इसलिए आज के इस लेख में लखनऊ ई टी वी से हुई बातचीत जिसे कल शाम ६.३० बजे "इंतेखाब और मुस्लमान" नामक प्रोग्राम में प्रस्तुत किया गया।
ई टी वी उर्दू के प्रतिनिधित्व तारिक कमर का पहला प्रशन यही था के क्या मैं चुनाव लड़ने जा रहा हूँ या यह केवल एक अफवाह है जिसके उत्तर में मैंने कहा के मेरे लोकसभा का चुनाव लड़ने की बात पूरी तरह अफवाह नहीं है, यह मेरे जीवन का एक टर्निंग पोंग है जिस पर मैं पुस्तक लिख रहा हूँ जो जल्द ही प्रकाशित हो कर चुनाव के दौरान ही सामने आजायेगी लेकिन यह भी सच है के मैं न तो कोई चुनाव लड़ रहा हूँ और न ही मैंने राजनीती में आने का कोई निर्णय लिया है। यह इसलिए के मैं महसूस करता हूँ के कौम को इस मीडिया की बहुत आव्यशकता है जिससे मैं जुड़ा हुआ हूँ। लोकसभा में प्रतिनिधित्व करने वाले स्वाधीनता के बाद से हमेशा रहे हैं और इंशाअल्लाह रहेंगे लेकिन मुझे लगता है के इस मीडिया के द्वारा कौम की ज़्यादा अच्छी सेवा कर सकता हूँ, आगे जो अल्लाह का हुक्म होगा, देखा जायेगा।
मेरे राजनीती में आने, राजनितिक पार्टियों द्वारा मेरे संपर्क करने और मेरे इंकार की पृष्ठ भूमि के सम्बन्ध में जो प्रशन उठाये जा रहे हैं उन सब का स्पष्टीकरण मैं अपनी उपरोक्त पुस्तक में दूँगा, परन्तु जहाँ तक कल्याण सिंह का सम्बन्ध है तो मैं कहना चाहूँगा के मुस्लमान कल्याण सिंह को संभवत: कभी क्षमा नहीं करेंगे और इस का कारण यह है के कल्याण सिंह केवल मुसलमानों के दुश्मन नहीं हैं, अगर कोई आपका दुश्मन है तो आपको यह अधिकार है के चाहें तो सज़ा देन और चाहें तो क्षमा कर देन, लेकिन कल्याण सिंह अल्लाह का दुश्मन है, उसने अल्लाह के घर को तोडा है, उसे अल्लाह माफ़ करे तो करे। अगर मेरा घर तोडा होता तो मुझे अधिकार था के मैं उसे माफ़ कर दूँ बाकी एनी लोगों के बारे में मैं नहीं कह सकता, हर तरह के लोग होते हैं और हर राजनितिक दल में होते हैं, उनकी कुछ अपनी मजबूरियां होती हैं, वह सभी तरह के विचार प्रकट कर सकते हैं लेकिन यह सीधी सी बात है के अगर कोई आपका दोषी है तो आपको यह अधिकार है के चाहें तो आप उसको सज़ा दें या क्षमा कर दें लेकिन यदि वह आपका दोषी नहीं है, किसी और का दोषी है तो तो जिसके सम्बन्ध में दोषी है क्षमा का अधिकार उसी को है।
यह कहा जा रहा है के मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह के सन्दर्भ में जो रणनीति बनाई है उसका कारण वोट बैंक है जबके मुलायम सिंह को मुसलमानों का मसीका कहा जाता रहा है कल्याण सिंह के पास कौन सा वोट बैंक है यह स्वयं कल्याण सिंह या मुलायम सिंह ही बेहतर बता सकते हैं। जहाँ तक एक पत्रकार के रूप में मेरे अध्ययन का सवाल है तो मैं कह सकता हूँ के २००३ के उ प्र विधान सभा चुनाव के अवसर पर जब कल्याण सिंह ने राष्ट्रिय क्रांति पार्टी बना कर चुनाव लड़ा था और लगभग ३०० सीटों पर अपने उमीदवार उतारे थे तो उनमें से ४ सीटें जीते थे। २ एनी विधायक और २ से स्वयं कल्याण सिंह, कुसुम राय और राजवीर सिंह दोनों मंत्री बने थे जिस का बार बार हवाला दिया जाता है। कल्याण सिंह उस सरकार में शामिल नहीं थे लेकिन उस समय सांप्रदायिक शक्तियों को सरकार बनाने से रोकने के लिए यह मजबूरी में लिया गया एक फ़ैसला था, दोनों मिल कर चुनाव नहीं लड़े थे बल्कि कल्याण सिंह ने अपनी पार्टी के उमीदवार मुलायम सिंह और उन की पार्टी के विरुद्ध खड़े किए थे। अब अगर यह सोचा जाता है के उनका वोट बैंक है तो जिस का वोट केवल ४ असेम्बली क्षेत्रों तक सीमित हो और जो भारतीय जनता पार्टी को एक बार छोड़ कर अपनी हैसियत को देख कर फिर वहां वापस जाने के लिए विवश हुआ हो जिसे उस पार्टी में एक लोकसभा की सीट के लायक भी नहीं समझा गया।

उस बारे में यह समझा जाए के वह भाजपा को नसतो नाबूद करदेगा तो मैं कहना चाहूँगा के भाजपा के पास ८० में से केवल १० लोकसभा सीटें थीं, एक सीट वाजपयी की जिस को व्यक्तित्व की सीट कहा जा सकता है, दूसरी सीट मेनका गाँधी की थी उसे भी व्यक्तित्व की सीट कहा जा सकता है, तीसरी सीट कल्याण की बुलंद शहर से थी, जो बुलंद शहर के मतदाता हैं वह अच्छी तरह जानते हैं के कल्याण सिंह किस तरह चुनाव जीते थे, वहां बदर साहब न केवल चुनाव दौड़ में थे बल्कि वह जीत रहे थे, अब कल्याण सिंह भाजपा में नहीं हैं तो बाकी ७ सीटें बचती हैं, उनमें से भी एक अशोक प्रधान हैं जो कल्याण सिंह से बेहद नाराज़ हैं और उन्हीं के कारण कल्याण सिंह को भाजपा छोड़नी पड़ी है, उन्हें भी कम कर दें तो ६ सीटें रह जाती हैं, योगी आदित्यनाथ की सीट भी शामिल है।

अगर यह उत्तरप्रदेश में भाजपा का सफाया कर दें और वह ६ सीटें कम कर दें तो क्या अन्तर पड़ेगा, इस बात को समझना होगा। मित्रता अपनी जगह है, राजनितिक उद्देश्य अपनी जगह है, अगर उनका कोई वोट बैंक है तो अपनी जगह है। हो सकता है के आने वाले कल में यह मित्रता किसी और रूप में भी दिखायी दे। उमा भरती को आप देखें तो उस ने भी भाजपा को छोड़ा और भाजपा को नेस्तो नाबूद करने की बात कही थी और आज भी वह फी फिर इसी दावे के साथ आए हैं तो हो सकता है के मुलायम सिंह यादव के पास कोई ऐसी रणनीति हो के उस व्यक्ति के द्वारा वह भाजपा का नाश कर दें, लेकिन हमें नहीं लगता के ऐसा हो पायेगा।
जहाँ तक इस मामले में आज़म खान के रोल का सम्बन्ध है तो वह सम्मानित और लोकप्रिय नेता हैं, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। उन्होंने बहुत ही ईमानदारी के साथ अपने राजनितिक जीवन को अब तक जिया है। उनके मुद्दे जो उन्होंने अब तक ज़ाहिर किए हैं और जो समाचार पत्रों की शोभा बने हैं, एक तो कल्याण सिंह का मामला है, लेकिन इस के अलावा एक बात जो सामने आती रही है के अमर सिंह से उनके सम्बन्ध अच्छे नहीं हैं, अमर सिंह ने मुझे फोन पर बताया था और कहा था के अपने अख़बार में मेरे हवाले से छाप दीजिये के "जब तक मुझे समाजवादी पार्टी में रहना है, आज़म खान को सहना है। यह आज़म खान की हैसियत हो सकती है के पार्टी नेता के विरुद्ध खड़ा हूँ"। लेकिन आज़म खान का मामला हमें बजाहिर कल्याण सिंह में नज़र आता है। अगर उन का मामला इस के अलावा है तो आज़म खान जानें उन्हें यह स्पष्ट करना चाहिए। चूंकि ऊहापोह की स्थिति मुस्लिम कौम के लिए तो कम से कम उचित नहीं है। जहाँ तक समाजवादी पार्टी का सम्बन्ध है तो उसके लिए यह दोनों ही स्थितियों में बहुत ही ग़लत है। आज़म खान उनके पास बड़े कद के वह अकेले मुस्लिम नेता हैं। मुलायम सिंह का सब से बड़ा वोट बैंक मुस्लमान ही रहे हैं, अगर वह अपने एक बड़े मुस्लिम नेता को खुश नहीं रख सकते तो पूरी मुस्लिम कौम को खुश कैसे रख सकेंगे, इसका जवाब उन्हें देना होगा।
वर्तमान राजनितिक परिदृश्य के सम्बन्ध में और मुलायम सिंह के प्रधानमंत्री बन्ने की संभावनाओं के बारे में मैं कहना चाहूँगा के राजनीती में ऐसा बहुत कुछ होजाता है जिसका हम पूर्वानुमान नहीं कर सकते। मुलायम सिंह ने हाल ही में अपने एक अखबारी बयां में कहा है के केन्द्र में जो भी सरकार बनेगी, हमारे बिना नहीं बनेगी। अब उन्होंने शब्द "जो भी " या " कोई भी" कहा है इस में बड़ी गुंजाइश है। अगर वह यह कहते के कोंग्रेस सरकार या कोई भी सरकार हमारे बिना नहीं बनेगी तो इसका अर्थ कुछ और होता। एक दूसरे इन्तार्वियु में मुलायम सिंह ने जो दैनिक हिंदुस्तान को दिया है, जिस में उन्होंने कहा है के, "लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान और मुलायम सिंह के साथ एक और बड़े वोट बैंक के लीडर कल्याण सिंह भी हमारे साथ हैं," तो वह उन को साथ जोड़ कर चलते हैं।

अगर मैं पीछे की तरफ़ देख कर चलूँ तो ऐसे हैरान करदेने वाले फैसले पहले भी हो चुके हैं जब इन्द्र कुमार गुजराल प्रधान मंत्री बने थे तो केन्द्र में उन की कोई ऐसी पार्टी नहीं थी जिस के बहुत से एम् पी जीत कर आए हों। अगर झारखंड की घटना आप को याद हो तो झारखण्ड के एक स्वतंत्र विधायक मधुकोडा ने सरकार को चलाया है। क्षेत्रीय पार्टियों के लगभग सभी नेता प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं, एक बार मुलायम सिंह भी प्रधानमंत्री बनना चाहते थे लेकिन लालू ने उन्हें रोक दिया था इस बात को लेकर वह नाराज़ भी थे, लालू भी कह चुके हैं के वह प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। शरद पवार भी लाइन में हैं यह कोई ढकी छुपी बात नहीं है, पासवान भी अपनी इच्छा व्यक्त कर चुके हैं। अब यदि कल्याण सिंह का नाम मुलायम सिंह की तरफ़ से आए तो मुलायम कह सकते हैं के यह तो अविवादित है, यह तो भाजपा कको समाप्त करने के लिए खड़े हुए हैं, यह हमारे मित्र हैं, इनकी कोई पार्टी नहीं है, इनको प्रधान मंत्री बना दिया जाए, होसकता है ऐसी स्थिति में भाजपा को भी कोई आपत्ति न हो, वह उमा भरती को भी अपने साथ खड़ा कर ही चुके हैं। संघ परिवार को तो वो अडवानी से भी ज़्यादा पसंद होंगे क्यूंकि वह बड़े राम भक्त हैं। शेष धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को मानाने का काम मुलायम सिंह यादव और उनके सिपेसलार अच्छी तरह जानते हैं।

Wednesday, April 1, 2009

हिंद - पाक में आतंकवादी हमले--किसका षड़यंत्र

भारत और पाकिस्तान आतंकवाद के लिए उपजाऊ ज़मीन साबित हो रहे हैं। इससे पूर्व अफगानिस्तान और इराक आतंकवाद का केन्द्र बन गए थे और पूरी दुन्या में अमेरिका ने आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध करने का प्रण करते हुए यदि उन्हें तबाह न किया होता तो आज भी अफगानिस्तान और इराक आतंकवाद की आग में जल रहे होते। न वहां शान्ति प्रिय सरकारें चल रही होती, न हामिद करजई और नूरुल अलमालिकी जैसे शान्ति प्रिया, देश भक्त, मानवता प्रेमी शासक और नेता इन देशों को मिलते। भला हो अमेरिका का के उसे ११ सितम्बर २००१ को न्यू यार्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकवादी हमले के बाद पूरी दुन्या से आतंकवाद को मिटाने की ज़िम्मेदारी ली वरना खुदा जाने क्या होता?
अब आप आशा कर सकते हैं के जिस तरह अमेरिका ने अफगानिस्तान और इराक से आतंकवाद को समाप्त किया उसी तरह भारत और पाकिस्तान से भी आतंकवाद को समाप्त किया जा सकता है। वास्तव में हम भाग्यशाली या दुर्भाग्यशाली कौमें हैं ( दोनों में से जो शब्द आप को उचित लगे) जिन्हें अपने वर्तमान और भविष्य के बारे में स्वयं सोचने की आव्यशकता नहीं है, यह उत्तरदायित्व भी अमेरिका ने स्वीकार कर लिया। यदि हम सोच सकते तो शायद यह अवश्य सोच लेते की क्या कारण है के आतंकवाद या आप्राकृतिक मौत के चलते सबसे अधिक भारत और पाकिस्तान ने अपने नेताओं को खोया है। ३० जनवरी १९४८ को स्वतंत्रता के मसीहा राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या से लेकर पूर्व प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की हत्या तक हमने अपने अनेक राष्ट्रिय नेताओं को खोया है।
अगर आतंकवादी हमलों में मरने वाले आम लोगों की बात करें तो यह सूची बहुत लम्बी हो जायेगी। इसी तरह पाकिस्तान ने फांसी के तख्ते पर चढाये जाने वाले जुल्फिकार अली भुट्टो, हवाई दुर्घटना में जनरल जियाउल हक़ और पिछले वर्ष एक आतंकवादी हमले में बेनजीर भुट्टो को खोया है। इस प्रकार पाकिस्तानी जनता की बात करें तो मेरियट होटल पर हुए आत्मघाती हमले से लेकर पुलिस ट्रेनिंग सेंटर पर हुए आतंकवादी हमले तक उन्होंने भी सेंकडों शान्ति प्रिया नागरिकों को खोया है। अगर आतंकवादी हमलों में मारे गए सभी सभी लोगों की बात करें तो बात चाहे भारत की हो या पाकिस्तान की, यह संख्या लाखों से कम नहीं है। हम दोनों ही देश शायद इस बात से संतुष्ट हो जाते हैं के बम धमाका भारत में हो तो निशाना पाकिस्तान को बना दिया जाए और जब बम धमाका पाकिस्तान में हो तो वो इशारा भारत की और कर दे और मीडिया को हर बम धमाके के बाद पहले से ही सुनिश्चित किए गए आतंकवादी संघटनों के नामों को सामने रखने का अवसर मिल जाए।

बम धमाके अगर भारत में होते हैं तो यह ज़िम्मेदारी इंडियन मुजाहिदीन और लश्करे तैय्यबा पर डाली जा सकती है और अगर यह बम धमाके पाकिस्तान में हो तो दोषी ठहराने के लिए अल्काइद और तालिबान का नाम ही काफ़ी है। हम यह कहना नहीं चाहते के यह आतंकवादी संघटन इन हमलों में शामिल नहीं होंगे या इन आतंकवादी संघटनों को संदेह के दायरे से बहार रखा जाए, मगर इस से हटकर भी कुछ सोचने की आव्यशकता है। आख़िर बिन लादेन और अलकायदा के भूत का नाम लेकर कितने देशों को नष्ट करने की ज़मीन तैयार की जायेगी?
हम यह क्यूँ नहीं सोचते के भारत और पाकिस्तान की तबाही के पीछे किसी और शक्ति का उद्देश्य भी छुपा हो सकता है? क्या हम अफगानिस्तान और इराक़ की परिस्थितियों को अनदेखा कर दें , इस पर गौर न करें के इन दोनों देशों को किस प्रकार तबाह किया गया, क्या यह सच हमारे सामने नहीं है के ९/११ के बाद आतंकवाद पर नियंत्रण पाने के बहने अफगानिस्तान और इराक़ को तबाह कर दिया गया? अमेरिका द्वारा खुले आम भयानक आतंकवादी हमले किए गए, हजारों लाखों की संख्या में मासूम इंसानों की जानें गयीं जिन में अस्पतालों में इलाज करा रहे रोगी भी थे, मासूम बच्चे और औरतें भी थीं। फिर भी हम अमेरिका को शान्ति का मसीहा मानते हैं। उस ने अफगानिस्तान और इराक़ में अपनी कठपुतली सरकारें बनाकर इराक़ की तेल की दौलत पर कब्ज़ा कर लिया और अफगानिस्तान को परदे के पीछे अपनी गुलामी में ले लिया। हमें लगता है के अब पाकिस्तान की बारी है।

जिस प्रकार तालिबान का बहाना लेकर अफगानिस्तान को तबाह किया गया था उसी तरह अब तालिबान का बहाना बना कर पाकिस्तान को तबाह किया जायेगा, क्यूंकि पाकिस्तान परमाणु शक्ति है, अफगानिस्तान और इराक़ से बड़ा और ताकतवर देश है, अतः उसे तबाह करने की योजना भी उससे बड़ी और चतुराईपूर्ण होगी। पाकिस्तान को तबाह करने के लिए उस पर चारों तरफ़ से हमलों की ज़रूरत होगी। पाकिस्तान के अन्दर इतने आतंकवादी हमले होंगे के हर तरफ़ तबाही का दृश्य होगा, सरकार असफल हो जायेगी, आतंकवाद पर नियंत्रण न पाने की स्थिति में एक तरफ़ भारत पर आरोप लगाया जायेगा, दूसरी तरफ़ अमेरिका से सहायता की प्रार्थना की जायेगी।

फिर अमेरिका पाकिस्तान में दाखिल होने के बाद वहां के शासकों को यह समझाने में सफल हो जायेगा के तुम्हारे परमाणु शक्ति संस्थान अगर तालिबान के हाथ में आगये तो ज़बरदस्त तबाही होगी। अत: इस की सुरक्षा का उत्तरदायित्व हमारे पास रहने दो। लाचार और मजबूर पाकिस्तानी शासक सद्दाम हुसैन का हाल देख चुके हैं, इस लिए न करने की हिम्मत नहीं कर सकेंगे। परिणाम स्वरुप पाकिस्तान की परमाणु शक्ति अमेरिका की मुट्ठी में होगी। उसके बाद अमेरिका तालिबान को समाप्त करने के नाम पर पाकिस्तान का भी वही हाल करेगा जो अफगानिस्तान और इराक़ का हुआ।

भारत और पाकिस्तान के बीच समबन्ध इस सीमा तक ख़राब होंगे के भारत को पाकिस्तान की तबाही पर कोई दुःख नहीं होगा और वो उसे तबाह करने के लिए हर तरह की सहायता देने के लिए भी तैयार हो जायेगा। इसलिए भारतीय नेतृत्व को यह समझा दिया जायेगा के देखो तालिबान का पाकिस्तान पर प्रभुत्व हो चुका है और अब वो भारत से केवल १० किलो मीटर दूर हैं। अगर तालिबान का सर नहीं कुचला गया तो वह पाकिस्तान के बाद भारत को भी आतंकवाद द्वारा तबाह कर देगा। आपको मुंबई में हुए (२६/११) आतंकवादी हमले से सीख लेना चाहिए और आतंकवाद के ख़िलाफ़ इस जंग में हमारे साथ खड़ा होना चाहिए। इसके बाद वही होगा जो इराक़ की तबाही के दौरान हुआ था, जिस तरह अमेरिका ने इराक़ को तबाह करने के लिए पाकिस्तान की धरती का उपयोग किया था, उसी प्रकार पाकिस्तान को तबाह करने के लिए भारत की ज़मीन प्रयोग की जायेगी। इस काम को पूरा करने में अमेरिका का परस्त मीडिया ज़बरदस्त रोल निभाएगा। आम जनता को मानसिक रूप से तैयार करेगा के तालिबानी आतंकवाद से छुटकारा पाने के लिए अमेरिका का साथ देना आवयशक है।

पिछले एक महीने में दिखायी जाने वाली खबरें अगर आपके मस्तिष्क से ओझल न हुई हों तो आप को याद होगा के इसी महीने अर्थात मार्च में पाकिस्तान की एक मस्जिद में ठीक जुमे की नमाज़ के बीच आतंकवादी हमला हुआ और उसके बाद अब पाकिस्तान के पुलिस ट्रेनिंग सेंटर पर। इन दोनों आतंकवादी हमलों से पहले ही मीडिया तालिबान के भय से पूरी दुन्या को सूचित करता रहा और उसके बाद वास्तव में यह भय सच के रूप में दिखाई देने लगा।

यह बात संदेह से परे क्यूँ है के यह पाकिस्तान और भारत के ख़िलाफ़ सुनियोजित षड़यंत्र है? ११ सितम्बर २००१ के बाद पूरी दुन्या को जिस तरह आतंकवाद का भय दिखाया गया और अफगानिस्तान व इराक़ को तबाह कर दिया गया उसका लाभ आख़िर किसे पहुँचा? किस ने अपनी श्रेष्ठता साबित की? किसे ने अपने आप को शक्तिशाली साबित किया? किसने पेट्रोल की दौलत पर कब्ज़ा किया? किसने अपने हत्यारों को बेचने के लिए ज़मीन तैयार की? फिर कब तक हम इन तथ्यों पर विचार नहीं करेंगे? हमने अपने इसी रोजनामा राष्ट्रीय सहारा में पिछले वर्ष लगभग एक महीने तक पूरे एक पृष्ठ द्वारा "९/११ का सच" सामने रखने के प्रयास किया था। आज भी एक हज़ार से अधिक पृष्ठों पर आधारित यह रिपोर्ट हमारे पास मौजूद हैं।

इन्टरनेट द्वारा तथ्यों की तलाश करने वाले आज भी ऐसी असंख्य रिपोर्टों का अध्ययन कर सकते हैं के जिन से साबित होता है के अमेरिका ९/११ बिन लादेन या अलकायदा का कारनामा नहीं बलके सी आई ऐ और मूसाद शक के दायरे में हैं। क्या भारत में इंडियन मुजाहिदीन, लश्करे तैय्यबा और पाकिस्तान में तालिबान और अलकायदा, सी आई ऐ और मूसाद की ही साजिशी टोली है? यह बात कड़वी है मगर सच भी हो सकती है। भारत और पाकिस्तान अगर मिल बैठ कर सोचें तो क्या वह ही एक दूसरे की तबाही पर आमादा है या कोई और इन दोनों को तबाह करने की साजिशें रच रहा है?