हर बार जब कोई नया मुद्दा सामने आता है तो उससे पहले के मुद्दे पर ध्यान कुछ कम हो जाता है। वह मन में तो रहता है मगर उस पर निरंतर बातचीत नहीं हो पाती। ‘‘वंदे मात्रम’’ एक बड़ा मुद्दा था। और एक लम्बी अवधि से। कई बार इस विवादित मुद्दे पर चर्चा आरंभ हुई और पूरी हुए बिना समाप्त हो गई। इस बार इरादा यह था कि इस चर्चा को उस स्तर तक पहुंचाया जाए, जहां केवल मुसलमान ही नहीं हर भारतीय अच्छी तरह समझ ले कि क्या यह चर्चा का विषय होना चाहिए और हमें किस निषकर्श पर पहुंचना चाहिए। यही कारण था कि यात्रा चाहे अमेरिका, स्विटज़रलैंड या लंदन की, हर बार वह किताबें, वह बयानात और ख़बरों की कटिंग मेरे साथ मेरी यात्रा के दौरान रही। मैं अध्यन करता रहा, मन बनाता रहा कि वापस लौटने पर इस मुद्दे पर फिर से लिखना होगा और जब तक किसी निष्कर्श पर न पहुंच जाएं, उस समय तक लिखना होगा। बाद में उसे पुस्तक की शक्ल भी दी जाएगी ताकि आने वाली पीढ़ी के पास भी सुरक्षित रहे। और फिर अगर कभी यह विवाद उठे तो उनके पास प्रमाणिक उत्तर हों, एक ऐसा दस्तावेज़ हो जिसे वह किसी के भी सामने रख कर अपनी बात कह सकें।
देश वापसी हुई तो 26/11/2008 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले को एक वर्ष पूरा हो चुका था और मीडिया में फिर इससे संबंधित ख़बरें आने लगी थीं। इस बीच एस।एम।मुशरिफ़ की पुस्तक ``Who killed karkare'' विनीता काम्टे की पुस्तक ``To the last bullet'' भी सामने आ चुकी थीं। जिनसे कुछ नए प्रश्न सामने आए। शहीद हेमंत करकरे की विधवा श्रीमति कविता करकरे ने भी यह कह कर चैंका दिया कि उन्हें न्याय मिलने की उम्मीद नहीं है। डेविड कोलमैन हेडली उर्फ दाऊद गीलानी व तहव्वुर हुसैन राना के रूप में दो नए नाम सामने आए जो अप्रवासी पाकिस्तानी हैं फिर जब गहराई से उन दोनों आतंवादियों के बारे में जानकारियां प्रापत करनी शुरू की थीं तो इतने आश्चर्यजनक रहस्योदघाटन होने शुरू हुए, जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इस समय भी मेरे लिखने का विषय भी यही है, मगर कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें न तो नज़रअंदाज़ किया जा सकता है और न देर तक उनकी अनदेखी की जा सकती है। मैंने कुछ दिन पूर्व ‘कोटा’ के एक युवक शादाब असदक़ के हवाले से लिखना शुरू किया था, जो चलती रेल गाड़ी से ग़ायब पाया गया और आज तक नहीं मिला। उसके परिवार के लोग लगातार इधर-उधर धक्के खाते रहे, ताने सुनते रहे, परेशान होते रहे, आंसू बहाते रहे मगर किसी ने उनकी गुहार नहीं सुनी। इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया। मुझे याद है और निश्चित ही हमारे पाठकों को भी याद होगा कि जब देश के गृहमंत्री की बेटी का आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया था तो पूरा भारत इस मुद्दे को लेकर विचलित था। अफ़सोस कि शादाद असदक़ देश के किसी ज़िम्मेदार व्यक्ति का पुत्र नहीं है, इसलिए सब चुप हैं। एक ताज़ा घटना जो कुछ महीने पहले मुम्बई में घटित हुई जब बिहार के एक युवक राहुल राज को मुम्बई में गोली मार दी गयी थी तो बिहार के तीनों बड़े नेता मुख्यमंत्री नितीश कुमार, उस समय के रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव और स्टील मंत्री राम विलास पासवान ने एक मंच पर आकर उस हत्या की निंदा की थी, उसे मुद्दा बनाया था, हालांकि यह तीनों राजनीतिज्ञ अपने राजनैतिक मदभेदों के कारण एक साथ इकट्ठा नहीं होते थे परन्तु अपने राज्य के एक युवक की मौत ने उन्हें संगठित कर दिया। हमारी क़ौम के राजनीतिज्ञ, धर्म निर्पेक्षता के अगुवा और केंद्रीय सरकार में सम्मिलित मंत्री क्या उन माता-पिता के दर्द को नहीं समझ सकते, जिनके बेटे को लापता हुए लगभग तीन माह हो गए हैं। वह केंद्रीय गृहमंत्री से गुहार लगा चुके हैं। अपने राज्य के मुख्य मंत्री तक अपने दिल की पीड़ा पहुंचा चुके हैं। कई बार हैदराबाद के चक्कर लगा चुके हैं, जहां से उनके घर का चिराग़ रेल में सवार हुआ था। जिस कंपनी में शादाब असदक़ नौकरी करता था, उसके अधिकारियों से बार-बार मिल कर अपना दुखड़ा सुना चुके हैं, मगर किसी ने भी यह ध्यान नहीं दिया कि आख़िर उसके साथ हुआ क्या है। शायद आज इस विषय पर मुझे फिर से क़लम उठाने की आवश्यकता न पड़ी होती, अगर उस कंपनी के ज़िम्मेदारों ने शादाब असदक़ के आदर्णीय पिता से यह न कहा होता कि वह मुसलमान था, युवा था, चला गया होगा आतंकवादी बनने। क्या इस अपराधिक मानसिकता के लोग सज़ा के पात्र नहीं हैं? मैंने पहले भी भारत सरकार तक इस गुमशदा युवक का विवरण पहुंचाने की कोशिश की है, आज फिर उसके पिता मुमशाद असदक़ का वह पत्र जो मुझ तक पहुंचा प्रकाशित कर रहा हूं, ताकि उस पर ध्यान दिया जाए और जल्द से जल्द उस युवक को तलाश करने की कोशिश की जाए।
मोहतरम जनाब,
मैं एक बदक़िसमत, असहाय पिता हूं, जिसका जवान बेटा अत्यंत संदिग्ध अवस्था में नागपुर रेलवे स्टेशन से ग़ायब हो गया है। वह आदर्णीय संदेश शर्मा (जनरल मैनेजर आईएल कंपनी), आदर्णीय रवि प्रभाकर (एडिशनल जनरल मैनेजर आईएल कंपनी) के साथ आईएल कंपनी (इंस्ट्रूमेटेशन इंडिया लि॰) के लिए सरकारी टेंडर जमा करके सिकंदराबाद से जयपुर-सिकंदराबाद हाली डे स्पेशल टेªल 0995 द्वारा वास लौट रहे थे।
अत्यंत दुखद सूचना मिलने के बाद मैं कोटा रेलवे स्टेशन के सरकारी अधिकारियों तक पहुंचा। कोटा जीआरपी ने केस दर्ज करने की रसम अदा की, जिसका नं॰ 4979।09।09.2009 है। और उन्होंने निर्देश दिया कि नागपुर रेलवे स्टेशन पर नियमित एफआईआर दर्ज कराओ। अगले दिन यानी 10.09.2009 को मैं नागपुर पहुंचा और नागपुर के पुलिस आयुक्त श्रीमान दीक्षित और क्राइम ब्रांच के एसीपी श्रीमान कुलथे से मुलाक़ात की। 10 दिनों तक नागपुर में ठहरने के बाद मैं निराश कोटा लौट आया।
लगभग 20 दिन पूर्व मेरे लेण्डलाइन फोन पर कुछ मिसकाॅल दिखाई दी। मैंने उन मिस्कालों के बारे में फौरन नागपुर पुलिस को सूचित किया। मिसकौल के नं॰4044378130, 4044378030, 4044378060, 4066986160, 4066986130, और एक मोबाइल नं॰9177890808 भी है।
मैंने उपरोक्त नम्बरों के बारे में जो हैदराबाद (आंध्रप्रदेश) के हैं, अपने तौर पर उन मिसकाॅलों के बारे में जानकारी प्राप्त करने की कोशिशें कीं फिर मैं उपरोक्त मिस्कालों के विवरण जमा करके हैदराबाद भागा जहां 20 दिन तक ठहरा रहा। इस दौरान मैंने आंध्राप्रदेश के पुलिस डायरेक्टर जनरल और दूसरे वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से भी मुलाक़ात की। इन विवरणों के बारे में आंध्रप्रदेश पुलिस ने भी कोई मदद नहीं की। अन्ततः मैं कोटा (राजस्थान) लौट आया।
मैं इंतिहाई शुक्रगुज़ार होंगा कि अगर आप अपनी कृपा और निजि हस्तक्षेप से इस उपरोक्त मामले में संबंधित अधिकारीगण को प्रभावित करके मेरे जवान बेटे के बारे में जानकारी प्राप्त कराएं कि वह कहां है।आपकी सहानुभूतिपूर्ण कृपा का मुन्तजिर रहूंगा।
मुमशाद असदक़
73-डी, आईएल टाउनशिप, कोटा (राजस्थान)मोबाइल-9982330307, फोन - 0744-२४२८३०६
शादाब असदक़ की गुमशुदगी अत्यंत विचलित करने वाली न होती, न उसके परिवार वालों के लिए न हमारे लिए अगर इस क़ौम के साथ गुज़रने वाली पीड़ादायक घटनाएं सामने न आई होतीं। कभी किसी मुस्लिम युवक का रेल से उठा लिया जाना, कभी किसी को सड़क से उठाकर बिना नं॰ प्लेट की गाड़ी में ले जाना और फिर उसें आतंकवादी बताकर या तो एन्काउन्टर कर दिया जाना या कुछ दिनों बाद किसी भी बम धमाके में, आतंकवादी घटना में लिप्त बताकर उनकी गिरफ़्तारी दिखाए जाने का सिलसिला आम न होता। ऐसे कई एन्काउन्टर फर्ज़ी सिद्ध हो चुके हैं। हमारे जर्नलिस्टिक प्रयास द्वारा ऐसे युवक जो तिहाड़ जेल में बंद थे, रिहा किए जा चुके हैं। जो कार में उठा कर ले जा रहे थे हमारे हस्तक्षेप के बाद सही सलामत अपने घर पहुंच चुके हैं (देहली के ओखला का मामला)। हमें नहीं मालूम इस युवक के साथ क्या हुआ है या क्या होगा? लेकिन इन्सानियत के नाते यह प्रयास करना तो हमें अपनी ज़िम्मेदारी नज़र आती है कि कारण जो भी हो उसके साथ जो भी हुआ हो, आख़िर उसके घर वालों को इसकी जानकारी तो मिले। ऐसा भी क्या कि बार-बार गुहार लगाने के बावजूद भी सरकारें ख़ामोश रहें। इस ओर ध्यान ही न दें और सबको न्याय देने का दावा भी करें।
अभी पिछले दिनों दिल्ली में फ़िलिस्तीन से संबंधित एक कांफ्रेंस का विज्ञापन नज़र से गुज़रा, जिसमें मुलायम सिंह यादव, राम विलास पासवान, एबी बर्धन, सीता रात यचूरी, नटवर सिंह, महमूद मदनी, सुल्तान हैदर और शाहिद सिद्दीक़ी इत्यादि नेताओं के शामिल होने का ज़िक्र था। निसंदेह यह सब लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले इतने संवेदनशील लोग समझे गए कि उन्हें फ़िलिस्तीन के दर्द में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया। उनमें से कई आए भी, विचार भी व्यक्त किया, मैं उस सम्मेलन की तफ़सील में नहीं जाना चाहता। इस समय इस सम्मेलन की तफ़सील बयान करना मेरा उद्देश्य नहीं है मैं केवल ध्यान इस बात की ओर दिलाना चाहता हूं कि यदि यह केवल राजनीति नहीं है, वास्तव में पीड़ितों के साथ सहानुभूति की भावना है और वह इतनी है कि हम भारत की धर्ती पर रहते हुए फिलिस्तीन की पीड़ा को समझते हैं जोकि एक अच्छी बात है तो फिर हमारी सहानुभूतियों से हमारे युवक ही क्यों वंचित रहें? क्या यह और इन जैसे राजनेता ध्यान देंगे शादाब असदक़ की गुमशुदगी पर? हम उन्हें विश्वास दिलाते हैं कि अगर वह मानवीय भावना के मद्देदनज़र अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए या अपनी पहुंच का प्रयोग करते हुए उस घर को उसका चिराग़ लौटाने में उनकी सहायता करेंगे तो ऐसे सम्मेलनों के समाचारों से कहीं अधिक बड़े क्षेत्र में जाकर उनकी इस जन-सेवा को पहुंचाने की हम कोशिश करेंगे। दरअसल बात केवल एक युवक के लापता होने की नहीं है। उस भय-भीत क़ौम को सदमे और भय से बाहर निकालना भी है। बच्चों को शिक्षा से निराश होने से रोकना भी है। जो क़ौम एक लम्बी अवधि से जिहालत का ताना सुनती चली आ रही है, जिसे अनपढ़ और जाहिल ठहराया जाता रहा हो, जब उसके शिक्षित युवक इस तरह प्रकोप का शिकार हों या फिर इस तरह ग़ायब होते रहें कि उनकी ख़बर भी न मिले तो फिर यह एक अत्यंत दुखद व ध्यान देने योग्य मुद्दा बन जाता है। इसलिए कि एक तो वह घर अपने गुमशुदा युवक की ख़ैरियत के लिए चिंतित होता है और दूसरे हर पल भय के साथ जीने को विवश होता है कि पता नहीं कब उसे किस आतंकवादी घटना से जोड़ दिया जाए और उनका समाज में रहना भी कठिन हो जाए। ...................
Sunday, December 27, 2009
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1 comment:
बर्नी साहब आपसे पूरी तरह सहमत हूँ इस काम में हमारे देश की पुलिस बहुत माहिर है...जब ये लोग एक नौ साल के लड़के को कुख्यात और शातिर अपराधी तथा कई लोगो का कातिल बता कर जेल में डाल सकते हैं तो ये लोग कुछ भी कर सकते है......
आपकी चिंता जाइज़ है की "जब कौम के पढ़े लिखे बच्चे ऐसे गायब हो जायेंगे तो क्या होगा?????
आपसे गुजारिश है की WORD VERIFICATION हटा दें....
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