Friday, March 27, 2009

आज़म खान समाजवादी पार्टी से राज़ी या नाराज़?



आज़म खान के सम्बन्ध से ताज़ा समाचार समाचारपत्रों की शोभा बना वह यह के कोई एक व्यक्ति है समाजवादी पार्टी में जो उनके लिए पार्टी की "ज़मीन तंग" कर रहा है, उन्हें बदनाम कर रहा हैऔर पार्टी को हानि पहुँचा रहा है, लेकिन इस के बावजूद वह पार्टी नहीं छोडेंगे। उनके मुलायम सिंह यादव से ४० साल पुराने सम्बन्ध हैं।



बहुत खूब आज़म खान साहब..........



नाम लिए बिना जिस व्यक्ति की और आप इशारा कर रहे हैं, हम अगली कुछ पंक्तियों में नाम के साथ यह स्पष्ट कर देंगे के आपके इस बयान का कारण क्या है, परन्तु खूब भ्रम फैलाया आपने या फिर जनता ही बिना कारण इस ग़लत फ़हमी का शिकार रही और आपकी नाराज़गी का कारण कुछ और मानती रही, क्यूंकि नाम लेकर तो अभी तक आप कल्याण सिंह के सम्बन्ध से ही बात करते रहे थे। दो दिन पूर्व कल्याणसिंह की प्रशंसा करने वालों, उसका बचाव करने की चेष्टा करने वालों और उस से दोस्ती रखने वालों को आपने अच्छे शब्दों से नहीं पुकारा था। यह शब्द "गद्दार" किस के लिए था? स्पष्ट है आपके ४० साल पुराने मित्र के लिए तो नहीं होगा, जबकि कल्याण सिंह की मित्रता का ढिंढोरा पीटने वाले और घुमा फिरा कर बाबरी मस्जिद की शहादत के स्पष्ट आरोप से मुक्त ठहराने का प्रयास करने वाले लखनऊ से देवबंद तक की यात्रा कर के, उसे स्वीकार कर लिए जाने के लिए संघर्ष करने वाले तो आपके ४० साल पुराने मित्र ही थे। भले ही उन्होंने कभी क्लीन चिट न दी हो, परन्तु भागदौड़ का उद्देश्य क्या था.........?



अब रहा प्रशन अमर सिंह का, जिस का आप नाम नहीं ले रहे हैं और आपके अनुसार जो पार्टी को बर्बाद कर रहे हैं, तो शायद यह आपका निजी विचार है, क्यूंकि आपकी पार्टी के प्रमुख और आपके ४० साल पुराने मित्र मुलायम सिंह यादव तो आपकी बात से सहमती नहीं रखते। उनकी दृष्टी में तो अमर सिंह समाजवादी पार्टी को आबाद करने वाले हैं, न की बरबाद करने वाले। शायद यह आपकी नाराजगी का नया पहलु है क्यूंकि अभी तक लोग यह समझ रहे थे के आपकी समाजवादी पार्टी से नाराज़गी का कारण कल्याण सिंह से मित्रता है, तो क्या यह ग़लत सोच रहे थे? अब तो आपने स्वयं ही स्पष्ट कर दिया के कारण वह व्यक्ति है, जो आपको बदनाम कर रहा है। अर्थात नाराज़गी की बुन्याद कल्याण सिंह नहीं हैं, तब हमें कहना होगा के जो भी हो अमर सिंह एक स्पष्टवादी व्यक्ति तो हैं। उन्होंने तो आप से यह पहले ही स्पष्ट कर दिया था के आपके और उनके बीच मतभेद हैं और जाया परदा की उमीद्वारी भी इस का एक कारण है। आपसे इस मतभेद की बात तो अमर सिंह ने अनेक मुस्लिम प्रतिनिधियों के बीच भी साफ़ शब्दों में कही थी और इस में यह भी शामिल था के आप दोनों एक जगह नहीं रह सकते, अर्थात आज़म खान पार्टी में सक्रीय होंगे तो अमर सिंह अपने घर बैठ जायेंगे।



यदि आप का ताज़ा बयान मुलायम सिंह से pichhle दिनों आपकी पाँच घंटे की भेंट में तय हुई नई ranneeti का hissa नहीं है तो फिर आपका यह बयान अत्याधिक आश्चर्यजनक है क्यूंकि अमर सिंह से नाराजगी की बात नई नहीं है। यदि कारण यही था तो फिर इस तरह का भाव व्यक्ति करके के कल्याण सिंह का पार्टी से जुड़ना आपको पसंद नहीं है, कम से कम पार्टी को हानि पहुँचने का कारण तो आपको नहीं बनना चाहिए था। यदि आप ऐसा न करते तो शायद अमर सिंह और मुलायम सिंह को देवबंद जाकर तसवीरें खिंचवाने की आव्यशकता न पड़ती और न कल्याण सिंह के निवास पर नमाज़ अदा किए जाने की आव्यशकता होती।



अब हम एक और महत्त्वपूर्ण समाचार की तरफ़ आपका ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। २५ मार्च को ३४-बी ब्लाक, दारुल शिफा लखनऊ में मुस्लिम बुद्धिजीवियों की एक प्रतिनिधि बैठक आयोजित की गई, जिस में वर्तमान राजनितिक हालात का विशलेषण करने के बाद कल्याण सिंह मामले में समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव पर वडा खिलाफी का आरोप लगते हुए एक कड़ी नाराजगी दिखाई गई और बैठक में सहमती से एक सलाहकार समिति का गठन किया गया, जिस के द्वारा मुस्लिम जागृकता अभियान व राजनितिक हालात से लोगों को परिचित करने के उद्देश्य से प्रत्येक जिले में सेमिनार आयोजित करने का निर्णय लिया गया। मदरसा बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष मौलाना खलील अतहर अशरफी की अध्यक्षता में होने वाली इस बैठक में पूर्व एडवोकेट जनरल एस एम् ऐ काज़मी, अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व चेयरमैन शेख सुलेमान, गोरखपुर से आए ज़फर अमीन डाकू, टांडा (आंबेडकर नगर) के नफीसुल हसन एडवोकेट, उन्नाव के ज़मीर अहमद खान, उच्ची न्यायलय के वरिष्ट वकील मुश्ताक अहमद सिद्दीकी और घोसी के शमशाद अहमद खान इत्यादि ने बैठक में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा के मुलायम सिंह यादव की पहल पर मोहम्मद आज़म खान ने १९ मार्च को दिल्ली में उनके निवास पर जाकर भेंट की और कल्याण सिंह के सिलसिले में मुसलमानों की भावनाओं से उन्हें आगाह कराया और मुसलमानों की इस मांग को उनके समक्ष रखा के वह इस समबन्ध में अपने विचार स्पष्ट करें।



मुलायम सिंह ने आज़म खान से वादा किया किया था के वह कल्याण सिंह मामले में दो तीन दिन के भीतर आज़म खान के साथ प्रेस कोंफ्रेंस करके ग़लत फेह्मियां दूर करेंगे, परन्तु आज तक ऐसा कुछ नहीं हुआ है। इस वडा खिलाफी से नाराज़ बुद्धिजीवियों द्वारा मुशावारती कोंसिल (सलाहाकार समिति) की स्थापना करके पाँच व्यक्तियों को जिम्मेदारियां सोंपी गयीं हैं ताके वे इस का तन्जीमी ढांचा तैयार करें।

आगे की सभी कार्यवाही इसी कोंसिल की देख रेख में होगी। इस सिलसिले में मिल्ली बेदारी पैदा करने के लिए सभी जिलों में सेमिनार करने का फ़ैसला किया गया। बैठक में कोंसिल के संयोजक एम् ऐ सिद्दीकी, मियुन्सिपल बोर्ड बुलंद शहर के पूर्व चेयरमैन बदरुद्दीन, बरेली क सरफ़राज़ अली खान, रामपुर के नसीर अहमद खान, बनाराज़ के शकीलुर रहमान बबलू, फिरोजाबाद के हनीफ खाकसार और रैबरेली के राफे रना ने विशेष रूप से भाग लिया।

क्या दारुल शिफा में आयोजित इस मीटिंग में आपका मशवरा शामिल नहीं था, क्या वास्तव में आपकी कल्याण सिंह को लेकर कोई नाराजगी नहीं है? क्या सारे का सारा सच यही है के आपके और अमर सिंह के बीच मतभेद है और आप जो इतने दिनों से अपने पार्टी लीडर से बात नहीं कर रहे थे, मीटिंगों में भाग नहीं ले रहे थे, उस का कारण अमर सिंह से आपकी नाराजगी ही थी। अगर सच यही है तो यह आपका , अमर सिंह या आपकी पार्टी का आंतरिक मामला है, जिस तरह राजनाथ सिंह और अरुण जेटली की नाराजगी भाजपा का आंतरिक मामला था। जनता का इस से क्या लेना देना। मुलायम सिंह के लिए आप ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हैं या अमर सिंह, यह मुलायम सिंह यादव को तय करना है। आप दोनों एक साथ पार्टी में रहेंगे या आप दोनों में से कौन पार्टी में रहेगा कौन नहीं, यह भी आप दोनों का आपसी मामला है।

हम अगर इस समय इस सवाल पर बात कर रहे हैं तो इस लिए के मुसलमानों में बड़ा "कन्फ़ियुज़न" है। यह समझना कठिन हो रहा है के दारुल उलूम देवबंद में मौलाना मर्गूबुर रहमान साहब और मौलाना अरशद मदनी साहब ने कल्याण सिंह के इशु पर अमर सिंह व मुलायम सिंह यादव से भेंट के बाद क्या निर्णय लिया? क्या मुलायम सिंह यादव ने कल्याण सिंह के बारे में जो स्पष्टीकरण उनके सामने रखा वह उससे सहमत हैं, या कल्याण सिंह के इशु पर उनका मत मुलायम सिंह से अलग है। इसी तरह आपका मामला है। क्या कल्याण सिंह के इशु पर आप अपने पार्टी लीडरों के विचारों से सहमत हैं? या कल्याण सिंह से दोस्ती के मामले में आज भी आप अपने उसी दृष्टिकोण पर हैं जो लगभग पिछले दो माह से आपके द्वारा सामने रखा जाता रहा? इन तमाम बातों पर बहस इस लिए के अब निर्णय लेने का समय करीब आ पहुँचा है। मुस्लमान राजनितिक दलों की तरह न तो दबाव की राजनीती जानता है और न उस की कोई चुनावी रणनीति होती है। माहोल कुछ ऐसा बनाया जा रहा हैके उस का वोट भाजपा के विरोध में पड़े। इससे भाजपा भी खुश और धर्मनिरपेक्ष पार्टियां भी खुश। भाजपा इस लिए खुश के उसे मुस्लिम विरोधी मानसिकता रखने वाले वोटरों को एक साथ लाने का अवसर मिल जाता है और धर्मनिरपेक्ष पार्टियां इस लिए खुश के उन्हें थोक में मुसलमानों का वोट मिल जाता है।

आप क्यूंकि मुसलमानों की पसंदीदा धर्मनिरपेक्ष पार्टी में मुसलमानों का चेहरा समझे जाते रहे हैं, इसलिए आपकी राय का महत्त्व है और चूंकि आप बाबरी मस्जिद विवाद को लेकर शुरू से ही जुड़े रहे हैं तो कल्याण सिंह के मामले में भी आपकी राय को अनदेखा नहीं किया जा सकता। वह मुसलमानों की सवच के अनुरूप हो या न हो, लेकिन उस पर बात तो की ही जा सकती है। जहाँ तक सवाल इस बात का है के इस चुनाव में मुसलमानों की रणनीति क्या हो इस पर भी अब बात करने का समय आगया है। लेकिन आज के इस lekh में नहीं। आज का यह लेख सिर्फ़ और सिर्फ़ इसी बिन्दु पर, इस लिए के इस इशु पर आपका दृष्टीकोण स्पष्ट रूप से सामने आए तो फिर कोई और बात की जाए और यदि इस प्रश् पर आपकी चुप्पी इसी तरह बनी रही जिस तरह पिछले दो महीने से आपके और आपके पार्टी लीडर ४० वर्ष पुराने मित्र के बीच रही तो फिर मुसलमानों को मिल बैठकर सोचना होगा और सोचना यह भी होगा की आपकी लंबे समय के बाद हुई एक विशेष मीटिंग का नतीजा क्या यही था के आप अपनी नाराज़गी सिर्फ़ और सिर्फ़ अमर सिंह पर केंद्रित कर देन ताकि इसे पार्टी के दो नेताओं के आपसी मतभेद का मामला समझकर अनदेखा कर दिया जाए और कल्याण सिंह के इशु पर कोई बात ही न हो।

Tuesday, March 24, 2009

राज़ क्या है इन विषैले भाषणों का?

हिंदुस्तान दुन्या का एक मात्र ऐसा देश है, जहाँ स्पष्ट रूप से हिंदू बहुसंख्यक हैं। देश में लगभग ८० प्रतिशत हिंदू होने के बावजूद देश का प्रधानमंत्री एक सिख (अल्पसंख्यक वर्ग से) देश की सब से शक्तिशाली महिला सत्ताधारी गठबंधन यु पी ऐ की चेयरपरसन श्रीमती सोनिया गाँधी और उन के बाद सब से शक्तिशाली राजनितिक व्यक्तित्व अहमद पटेल। तीनों का ही सम्बन्ध देश के विभिन्न अल्पसंख्यक वर्गों से। कुछ दिन पहले तक देश के राष्ट्रपति ऐ पी जे अबदुलकलाम भी अल्पसंख्यक वर्ग से सम्बन्ध रखते थे और आज देश के उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी साहब का सम्बन्ध भी अल्पसंख्यक वर्ग से है। ऐसा अनोखा उदहारण विश्व के किसी अन्य देश से नहीं मिल सकता। यह इस देश की लोकतंत्र में आस्था और सांप्रदायिक सोहार्द का सब से बड़ा उदहारण है। यदि किसी राजनितिक दल को यह ग़लतफहमी है की वो हिंदुस्तान के सभी हिन्दुओं या हिन्दुओं की बहुसंख्या की प्रतिनिधित्व करता है तो यह भ्रम है। यदि इस देश का हिंदू नहीं चाहता तो राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति जैसे पदों पर किसी मुस्लमान की नियुक्ति उन्हें सहन नहीं होती। न वो एक सिख का प्रधानमंत्री बनना स्वीकार करते और न ही एक ईसाई महिला का देश का सब से बड़ा शक्तिशाली व्यक्तित्व बन पाना सम्भव हो पता।

क्या भारतीय जनता पार्टी और उस के संकेत पर चुनावी सभाओं में विषैले भाषण देने वाले बताएँगे की पिछले लगभग पाँच वर्षों में कितने हिंदू संघटनों ने इस बात पर आपत्ति की है के यह प्रमुख पद अल्पसंख्यकों के पास न हों। देश चलाने का उत्तरदायित्व ऐसे लोगों को न सोंपा जाए जिसका सम्बन्ध बहुसंख्यक वर्ग से न हो। क्या कोई धरना प्रदर्शन, विरोध, जलसा,जुलूस,रैली इस मुद्दे को लेकर आयोजित किया गया? यदि नहीं तो अब चुनाव का समय आते ही भारतीय जनता पार्टी को राम मन्दिर और हिन्दुओं की याद क्यूँ आगई? अपनी राजनीति और महत्त्वकांक्षा के लिए १८ वर्ष तक श्री राम के नाम का प्रयोग करने के बाद भी क्या अपना चेहरा उन्हें आईने में दिखाई नहीं देता। मासूम हिन्दुओं को कारसेवा के नाम पर साम्प्रदायिक दंगों की भेंट चढा देना, हिंदू और मुसलमानों को लड़ा देश को घृणा की आग में झोंक देना क्या हिंदूवादी होने का तर्क करार दिया जा सकता है? क्या इसे हिन्दुओं से प्रेम और उन के अधिकारों की सुरक्षा की प्रक्रिया करार दी जा सकती है?

नहीं, बिल्कुल नहीं, कौन देशवासी हिंदू इस बात को स्वीकार करेगा के स्वतंत्रता के मसीहा मोहनदास करमचंद गाँधी की हत्या करने वाला नाथू राम गोडसे हिन्दुओं का प्रतिनिधि था, हिन्दुओं के अधिकारों की सुरक्षा की भावना रखता था, हिंदूवादी था, हिन्दुओं का मित्र था, नहीं! वह मानवता का शत्रु था, भारतीयता का शत्रु था, देश की स्वतंत्रता का शत्रु था, मुसलमानों का ही नहीं हिन्दुओं का भी शत्रु था और ऐसे शत्रु हैं वह सब जो नाथू राम गोडसे जैसी मानसिकता रखते हैं। यदि कुछ लोगों को वरुण गाँधी, साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, योगी आदित्यनाथ और साध्वी प्राची जैसे लोगों में नाथूराम गोडसे की छवि दिखाई देती है तो उन्हें इस देश और इस देश के निवसियों का मित्र या हमदर्द स्वीकार नहीं किया जा सकता।

हमने नहीं लिखा वरुण गांधी के चुनावी सभाओं में दिए गए विषैले भाषण पर, हमने नहीं लिखा साध्वी प्राची के अनुत्तार्दायित्व्पूर्ण (गैरजिम्मेदाराना) भाषण पर, हम नहीं लिखते आज भी इस विषय पर, इसलिए की इन भडकाव बातों का उल्लेख घृणा में बढोतरी करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं करेगा।

परन्तु लिखना पड़ा क्यूंकि भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने चुनाव आयोग के एक उचित सुझाव को मानने से इंकार कर दिया। इसे विचार करने योग्य भी नहीं समझा। वरुण गाँधी की उमीदवारी या चुनावी मुहीम से हटाना तो दूर, उनका उत्साहवर्धन किया जाने लगा। हर क्षेत्र में वरुण गाँधी की मांग है, यह ढिंढोरा पीटा जाने लगा।

क्या वरुण गाँधी का यह कहना ठीक था की सभी हिन्दुओं को एक पंक्ति में खड़े हो जाना चाहिए और बाकी लोगों को पाकिस्तान भेज देना चाहिए। हमने बार बार अपने लेखों में अपने भाषणों में इस एतिहासिक सच को सामने रखा है की देश के विभाजन के लिए मुस्लमान नहीं इस देश की राजनीती जिम्मेदार है।

१४ अगस्त १९४७ को देश नहीं बंटा बलके मुसलमानों को बांटने का षड़यंत्र रचा गया था और उसके बाद देश के विभाजन के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार करार देने का प्रचार इसलिए किया गया की वह हीन भावना का शिकार रहें, स्वयं को अपराधी समझें और उन्हें दूसरी श्रेणी का नागरिक बना कर पेश किया जाए और यही बात आज वरुण गाँधी कह रहे हैं जो उस समय की सम्प्रदयिम मानसिकता की सोच थी तथा देश के विभाजन की नींव बनी।

क्या भारतीय जनता पार्टी एक सोची समझी योजना के तहत वरुण गाँधी का चेहरा सामने रख कर देश के एक और विभाजन की नींव डाल रही है? क्या वह अपने देश विरोधी षड्यंत्रों को इतिहास के पन्नों में इस प्रकार दर्ज करना चाहते हैं की १९४७ में जब देश बंटा, तब भी नेहरू परिवार जिम्मेदार था और १९४७ के पशचात जब देश बंटा; तब भी नेहरू परिवार का ही एक सदस्य जिम्मेदार था। अन्तर यह है के पहला विभाजन पंडित जवाहर लाल नेहरू के दौर में हुआ या पहले विभाजन का कारण पंडित जवाहरलाल नेहरू बने और उसके पशचात विभाजन का कारण वरुण गाँधी बने।

वरुण गाँधी का सम्बन्ध जिस परिवार से है, उस परिवार ने इस देश की जनता और इस देश की सुरक्षा के लिए अपना खून बहाया है। अपने प्राणों की आहुति दी है। इस परिवार से यदि आज कोई रक्तपात की बात कर रहा है तो उसे न तो अनदेखा किया जा सकता है, न उसे हलके तौर पर लिया जा सकता है। देश की सम्पूर्ण जनता के बिना धर्म व जाती के भेदभाव के बिना मिल बैठ कर यह सोचना होगा के कौन है वह जो वरुण गांधी की यह मानसिकता बना रहे हैं?

जिस नवयुवक का सम्बन्ध एक शांतिप्रिय परिवार से हो, उसे क्यूँ आतंकवादी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है? किसी के हाथ काट डालने की बात कराकर उस की कौनसी छवि पेश की जा रही है? क्या करीमुल्लाह, मज्हरुल्लाह जैसे नामों को वरुण गाँधी की ज़बान से कहलवाकर उस की छवि एक मुस्लिम विरोधी के तरह पेश करना एक षड़यंत्र नहीं है? क्या वरुण गाँधी द्वारा सिखों का मजाक उड़ना, उनको पागल कहलवाना, देश के प्रधानमंत्री और एक विशेष वर्ग का अपमान नहीं है?

वरुण गाँधी एक नवयुवक हैं। राजनीती के मैदान में उन का यह पहला कदम है, नया खून, नया जोश, नई उमंगें, शायद उन्हें इतना समय ही न मिला हो के इन बातों पर गहराई से विचार कर सकें, इन चालों को समझ सकें, जान सकें के यह शातिर मानसिकता के राजनीतिग्य उन्हें एक खतरनाक हथ्यार के रूप में प्रयोग कर परदे के पीछे लाभ उठाना चाहते हैं, क्या वरुण गाँधी नहीं जानते के उनकी माँ का सम्बन्ध किस समुदाय से है ? क्या वरुण गाँधी नहीं जानते के उन के दादा का नाम फिरोज़ गांधी था? यदि हम यह कहें के वरुण गाँधी तुम वह हो, जिसकी शिराओं में एक पारसी का खून भी है। तुम तो सांप्रदायिक सोहार्द का जीता जागता उदहारण हो, तुम्हें देख कर तो हिंदुस्तान के बहुसंख्यक यह कह सकते हैं के हाँ तुम्हारे प्रतिनिधित्व पर गर्व हो सकता है, काश के तुम्हें इसी रूप में पेश किया जाता, परन्तु यह हो न सका।

हम जानते हैं जलन एक विद्रोही मानसिकता बनाने में मुख्य भूमिका अदा करती है और उच्च परिवारों के शत्रु ऐसे नवयुवकों का प्रयोग बहुत आसानी से कर लेते हैं, जो ईर्षा या हीन भावना की आग में जल रहे हों। हो सकता है के यह कहकर भ्रमित किया गया हो की यदि तुम्हारे ही भाई राहुल गांधी को आने वाले कल का प्रधान मंत्री करार दिया जा सकता है तो तुम्हें क्यूँ नहीं और यह काम हम करेंगे, और बस झांसे में एक मासूम मानसिकता इस षड़यंत्र का शिकार हो गई। जिसके चेहरे पर मासूमियत टपकनी चाहिए थी, वह क्यूँ मित्रों को भी शत्रु बनने पर उतारू होगया। वह क्यूँ भाई को भाई से लड़ाने का दाग अपने दामन पर लेने को मजबूर हो गया? सोचना होगा........वरुण गाँधी को भी, उस की माँ को भी और हम सब को भी। यदि हम खामोश रहे तो अपनी राजनीती के लिए सांप्रदायिक मानसिकता रखने वाले यह लोग एक एक करके प्रत्येक परिवार को प्रत्येक नवयुवक को नफरतों की आग में झोंक देंगे। यह देश जहाँ दूध की नदिया बहती थीं, वहां खून की नदिया बहती नज़र आएँगी, जो एकता व शान्ति का प्रतीक था, वहां नफरतों का ज्वालामुखी नज़र आएगा। क्या हम चुनाव जीतने के लिए कुछ लोगों की सत्ता की चाहत पूरी करने के लिए अपने देश को तबाही के गढे में जाते हुए देखते रहेंगे। नहीं, बिल्कुल नहीं, यह ज़िम्मेदारी हम पर भी आती है। हमें केवल वोट नहीं देना है बलके ऐसी विषैली सोच के नेताओं को सबक सिखाना है........... ।

Monday, March 23, 2009

आज़म खान आख़िर चाहते क्या हैं?

आज़म खान नाराज़ हैं और समाजवादी पार्टी की बैठकों में हिस्सा नहीं ले रहे हैं। इस से पहले वो विधानसभा की कार्यवाही में भी हिस्सा नहीं ले रहे थे, यहाँ तक के अपनी पार्टी के मुख्य मुलायम सिंह यादव का फोन भी रिसीव नहीं कर रहे थे। मुलायम सिंह जब हर प्रकार के प्रयास करके थक गए तब उन्होंने यह शिकायत मीडिया के सामने की के आज़म खान मेरा फोन नहीं उठाते। मुलायम सिंह ने यह भी कहा के वो जहाँ कहें मैं उन से जाकर मिल सकता हूँ, कम से कम वो अपनी बात तो सामने रखें, उनकी हर शिकायत दूर की जायेगी। इस का प्रभाव पड़ा, मुलायम सिंह के इस दर्द भरे अंदाज़ का आज़म खान पर और वो अगले ही दिन दिल्ली में उन के घर पहुँच गए। लेखक की इस दौरान लगातार आज़म खान साहब से बात चीत होती रही थी और १८ मार्च को भी जब वो मुलायम सिंह से मिलने के लिए जा रहे थे तब भी लगभग आधा घंटा फोन पर बात हुई थी, अगर उस दिन सब कुछ सामान्य रहता तो मुलायम सिंह जी से मुलाक़ात करने के बाद ३-४ बजे के बीच हम दोनों की मुलाक़ात तय थी लेकिन आज़म खान और मुलायम सिंह जी की यह मुलाकात लम्बी हो गई........इस के बाद आज़म खान जनेशवर मिश्रा साहब से मिलने उनके घर चले गए जहाँ समाजवादी पार्टी के दोनों लीडरों की बात चीत पर आधारित एक बयान मीडिया के लिए जारी किया जाना था। बयान जारी भी हुआ, परन्तु यह पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव का बयान था। जिस में आज़म खान से बात चीत का हवाला दिया गया था। इस का ऐसा संदेश था की दोनों नेता किसी एक नतीजे पर पहुँच गए हैं या पहुँच जायेंगे और डेढ़ दो महीने से पैदा हुई यह दूरी समाप्त हो जायेगी, परन्तु ऐसा नहीं हुआ, आज़म खान की नाराज़गी अब भी जारी है। २१ तारिख को लखनऊ में होने वाली पार्टी मीटिंग में हिस्सा न लेकर उन्होंने यह एहसास दिला दिया के मुलायम सिंह की मुलाकात अपनी जगह और तमाम मतभेद अपनी जगह।

अब सवाल यह पैदा होता है के आख़िर आज़म खान चाहते क्या हैं? क्या वे कल्याण सिंह के साथ बने रिश्तों को लेकर नाराज़ हैं? क्यूंकि कल्याण सिंह बाबरी मस्जिद की शहादत के लिए जिम्मेदार हैं। मुस्लमान उन्हें पसंद नहीं करते और आज़म खान स्वयं भी उन्हें बाबरी मस्जिद के लिए जिम्मेदार मानते हैं। लिहाज़ा पार्टी के साथ बने कल्याण के रिश्ते को वो स्वीकार नहीं कर सकते।

क्या नाराजी का कारन कल्याण सिंह नहीं........, ठाकुर अमर सिंह हैं, जिनके आज़म खान से रिश्ते पिछले काफ़ी समय से ठीक नहीं चल रहे हैं और अमर सिंह के कारन ही आज़म खान इस पार्टी में हाशिये पर चले गए हैं, जिस के निर्माताओं में वे स्वयं भी शामिल हैं और इसी एहसास ने उन्हें बगावत करने पर आमादा कर दिया है।

क्या कारण न कल्याण सिंह न अमर सिंह........बलके झगडा रामपुर की एक लोकसभा सीट है जहाँ से जया प्रदा इस समय लोक सभा की सदस्य हैं और आने वाले चुनाव के लिए समाजवादी पार्टी की उमीदवार भी हैं। आज़म खान जया प्रधा को पसंद नहीं करते हैं। रामपुर से उन्हें पार्टी का उमीदवार नहीं देखना चाहते, बलके स्वयं चुनाव लड़ना चाहते हैं। इसलिए उन्होंने जया परदा के काफले पर हमला कराया जैसे की खबरें आई थीं और बाद में आज़म खान के समर्थकों के विरुद्ध रिपोर्ट भी दर्ज करायी गई।

यह तीन कारण हो सकते हैं आज़म खान की नाराज़गी के अब। अब इन में से वो कौनसा कारण है यह तो आज़म खान ही बेहतर जानते होंगे। जो बात इस बीच वह बार बार यह कहते रहे हैं, वह तो यही है की कल्याण सिंह के पार्टी से रिश्ते उन्हें स्वीकार नहीं हैं। उन्होंने अमर सिंह या जया परदा से अपनी कड़वाहट को गुस्सा और नाराज़गी का कारन एक बार भी नहीं बताया। हम से जो उन्होंने कहा, वह तो यही था की मुस्लमान या कल्याण, पार्टी को दोनों में से किसी एक का चुनाव करना होगा। हमारे ख्याल में आज़म खान अगर स्पष्ट रूप से यह बात किसी जनसभा में या समस्त मीडिया के सामने कहें की आज़म खान या कल्याण समाजवादी पार्टी को दोनों में से किसी एक का चुनाव करना होगा तो बात आईने की तरह साफ़ होगी। अब समय इतना नहीं है की बात को घुमा फिरा कर कहा जाए। यदि आज़म खान कल्याण सिंह को इशु मान कर नाराज़ हैं तो साफ़ साफ़ कहें की जहाँ कल्याण है, वह वहां नहीं रह सकते लिहाज़ा अब यह पार्टी तय करे के किसे रखना है, किसे नहीं।

यदि कारन अमर सिंह हैं तो भी स्पष्ट करें की इशु कल्याण सिंह नहीं, अमर सिंह से उनके निजी रिश्तों में आई कड़वाहट है। २० मार्च की रात एक पार्टी में अमर सिंह ने अनेक मुस्लिम लीडरों की उपस्थिति में कहा की आज़म खान और उनके रिश्तों में अब इतनी कड़वाहट है की दोनों का साथ चलना मुश्किल है। आज़म खान पार्टी में सक्रीय होंगे तो वह घर बैठ जायेंगे। इस के बाद अगले ही दिन लखनऊ में समाजवादी पार्टी की मीटिंग में जहाँ अमर सिंह और मुलायम सिंह दोनों ही उपस्थित थे, आज़म खान नहीं पहुंचे, फिर भी लेकिन आज़म खान नहीं थे। आज़म खान की नाराज़गी को दूर करने के लिए तय किया गया की अगर आज़म खान रामपुर से चुनाव लड़ना चाहते हैं तो जाया परदा को वहां से हटा लिया जायेगा।

मतलब बहुत साफ़ है की पार्टी के वरिष्ट नेता मुलायम सिंह और अमर सिंह, आज़म खान की नाराज़गी का कारन रामपुर से जाया परदा की जगह उनके चुनाव लड़ने की इच्छा को मानते हैं बाकी आज़म खान या अमर सिंह के निजी रिश्तों को। यदि आज़म खान की नाराज़गी का कारन यही है तो यह उनका निजी मामला है। इस से मुसलमानों को क्या लेना देना और यदि कारन यह नहीं कल्याण सिंह से बना सम्बन्ध है तो फिर लुका छुपी का खेल खेलने की बजाय छाती ठोंक कर कहना होगा की उनके लिए इशु रामपुर की सीट और अमर सिंह से रिश्ते नहीं, बलके कल्याण की मुस्लिम विरोधी सोच और पार्टी से बने उनके रिश्ते हैं।

उन्हें यह भी स्पष्ट करना होगा की उनकी पार्टी के नेता लगातार कहते रहे हैं की कल्याण सिंह और आज़म खान तो उस समय एक प्लेट फॉर्म पर खड़े नज़र आते थे, जब मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह की मदद लेकर उत्तर परदेश में सरकार बनाई थी, जिस में आज़म खान भी मंत्री थे। कल्याण के बेटे, राजवीर और उनकी नजदीकी कुसुम राय भी मंत्री थीं। यदि उस समय भारतीय जनता पार्टी छोड़ कर आए कल्याण सिंह पर आज़म खान को कोई एतराज़ नहीं था तो आज हाय तौबा क्यूँ? आज़म खान ने पूरे घटना क्रम की जानकारी परिस्थितियों का उत्तर सामने रखते हुए लेखक को बताया की दोनों बातों में फर्क क्या है, मगर यह दोनों की निजी बात चीत थी, बेहतर होगा की आज़म खान का आज भी दृष्टीकोण वही है तो वह सबके सामने रखें ताके जनता के सामने पूरी बात आईने की तरह साफ़ हो। अगर वास्तव में इशु कल्याण है और वह यह मानते हैं की कल्याण सिंह मुसलमानों के अपराधी हैं, उनका अपराध क्षमा योग्य नहीं है और इसी बुन्याद पर वो पार्टी से नाराज़ हैं और उन का यह फ़ैसला राष्ट्र और मुसलमानों के हित में है। अपने इस फैसले को लेकर जनता के सामने आना चाहिए। यह ऐसी बात नहीं है, जिसे दिल में रख कर वो अपने घर बैठ जाएँ और यदि कारन अमर सिंह या जाया परदा हैं तो फिर चाहे वह घर बैठें, राजनीती छोडें या राज बब्बर और बैनी प्रसाद वर्मा की तरह ताल ठोंक कर मैदान में आयें........फ़ैसला उनका।

Friday, March 20, 2009

कांग्रेस एहसास कमतरी के दौर से बाहर तो निकले

कुछ तो निरंतर सफर ने लिखने का मौक़ा ही नहीं दिया और कुछ राजनैतिक दृश्यावली भी साफ़ नहीं थी. आज भी कुछ कहना मुश्किल है. कल फिर तस्वीर बदल सकती है. जहाँ तक अत्याचार और नाइंसाफी पर कलम उठाने की बात है तो इस सम्बन्ध में लिखने के लिए इतना बाकी है के ज़िन्दगी कम है. सुलतान पूर में एक छोटी सी बात पर हुए हिंसा की दास्ताँ लिखी हम ने और अखबार में उन ऍफ़ आई आर को छापा जिन्हें आरोपी स्थानीय थाने में दर्ज कराना चाहते थे, परन्तु नहीं करा सके थे, ठीक ठाक प्रभाव भी हुआ. पुलिस कप्तान को हटाया गया. उत्तर परदेश माइनोरिटी कमीशन के चेयरमैन ने २ सप्ताह के भीतर इन्कुँएरी की रिपोर्ट उन के सामने पेश करने के आदेश जारी किए. अनुमान हुआ के निराशा का दौर समाप्त हो सकता है. बस आवाज़ उठाने का हौसला चाहिए. जिस समय मैं झारखण्ड और पश्चिमी बंगाल के सरहदी इलाके अब्दुल्लाह नगर में मदरसा नदवातुल इस्लाह के पचास वर्षीय जशन में शामिल होने के लिए जारहा था, उसी समय नांदेड से मुझे मेरे मोबाइल फोन पर एक मेसेज मिला के जो कुछ मैंने सुल्तानपुर में देखा और लिखा है, उस सब से कहीं अधिक अफसोसनाक हालात हैं नांदेड (महाराष्ट्र) में. आप आइये यहाँ के हालात देखिये और लिखिए. मैं जाना चाहता था, परन्तु इस लंबे चौडे देश के एक किनारे से दूसरे किनारे तक दौड़ते दौड़ते घर और दफ्तर दोनों से ही संपर्क टूट सा गया था, इस लिए आवयशक था के कुछ समय दिल्ली में बैठ कर राजनैतिक हालात को देखा जाए और आने वाले संसदीय चुनाव पर लिखा जाए. इस लिए नांदेड के लिए एक दूसरी टीम भेजी और मैं उस राजनैतिक केन्द्र तक पहुँच गया, जहाँ आने वाले पाँच वर्षों के लिए देश की राजनीती की बिसात बिछाई जा रही थी. हालांके इस समय भी पिछले महीने आजाद मैदान मुंबई में महाराष्ट्र मुख्य मंत्री अशोक चौहान का भाषण मेरे कानों में गूँज रहा था और मैं यह भी जानता था के उन का सम्बन्ध नांदेड से है. अपने एलान के अनुसार श्री कृष्ण कमीशन में बताये गए अपराधियों को दंड दिलाने की बात तो दूर, न तो वो उस विवादित सी डी पर कोई प्रतिबन्ध लगा सके, जिस के कारण नांदेड में यह जातिवादी हिंसा पैदा हुई और न ही मुसलमानों पर होने वाले एकतरफा ज़ुल्म को रोकने की कोई कोशिश. क्या यह ठीक नहीं होता के हमारे जिन धार्मिक और राजनैतिक प्रतिनिधियों ने अपने स्टेज पर बुलाकर उन की तारीफ़ कितनी, अब उन्हें यह एहसास भी दिलाते के आखिर उन के रहते यह ज़ुल्म क्यूँ हो रहा है? विशेषकर हमारे वो प्रतिनिधि जिन्होंने ने मीडिया की मौजूदगी में पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ को खामोश करते हुए कहा था के हम अपने अंदरूनी मामलात को हल करने की योग्यता रखते हैं, आप को इन मामलात में बोलने की आव्यशकता नहीं है. हाँ यह ठीक है परन्तु जो अधिकार परवेज़ मुशर्रफ़ को नहीं है, वो भूत काल में कोन्दोलीज़ा राईस और जोर्ज वाकर बुश को क्यूँ था? और आज बराक हुसैन ओबामा को क्यूँ है? खैर यह एक बड़ा शीर्षक है, जिस पर बात फिर कभी. फिलहाल बस इतना ही के कम से कम उन्हें तो नांदेड के ताजा हालत पर महाराष्ट्र के मुख्या मंत्री को उन का कर्तव्य याद दिलाना चाहिए था. अगर उत्तर परदेश में सुलतानपुर के एक मामूली सी घटना पर उत्तर परदेश माइनोरिटी कमीशन के चेयरमैन की दिलचस्पी लेने का असर हो सकता है तो फिर महाराष्ट्र के मुख्या मंत्री के दिलचस्पी लेने से क्या नहीं हो सकता……? नांदेड से रोजनामा राष्ट्रीय सहारा की टीम ने पूरी जानकारियां प्राप्त की हैं, जिन्हें जल्दी ही हम सब के सामने लायेंगे और महाराष्ट्र सरकार को सभी हालत की और आकर्षित भी करेंगे, परन्तु अब बात मौजूदा राजनैतिक दृश्यावली की. यु पी ऐ, एन डी ऐ और तीसरा मोर्चा कम से कम यह ३ लाइंस हैं जो १५वेन लोक सभा के चुनाव के बाद राज की दावेदारी के लिए अपनी अपनी कोशिशों में व्यस्त हैं. यु पी ऐ की अन्तिम सूरत क्या होगी, पूर्ण विशवास के साथ अभी यु पी ऐ में शामिल लीडर कुछ नहीं कह सकते। नयूक्लेअर डील पर अन्तिम मोहर लगने से पहले तक कम्युनिस्ट पार्टियां कांग्रेस के साथ थीं, परन्तु अब नहीं हैं। समाजवादी पार्टी उस समय तक यु पी ऐ का हिस्सा नहीं थी, परन्तु अब है। इस बीच संबंधों में कड़वाहट भी रही और आज वातावरण सुखद भी है, परन्तु कब तक? यह कहा नहीं जा सकता।

यु पी ऐ में सोनिया गाँधी के सब से बड़े फेन लालू प्रसाद यादव हुआ करते थे, अब ऐसा नहीं कहा जा सकता। यह स्थान अब मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह ने ले लिया है। उन के पास भी यह स्थान कब तक रहेगा, कोई ज्योतिषी भी इस प्रशन का ठीक उत्तर नहीं दे सकता। शरद पवार साथ रहेंगे या अलग हो जायेंगे, कहा नहीं जा सकता।

परन्तु इन सब बातों के बावजूद एक इशारा अवश्य मिलता है और वो यह के बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद यह पहला मौका है जब मुसलमानों के सम्बन्ध में हवा की दिशा कुछ हद तक कांग्रेस के हक़ में नज़र आती है। ऐसा कोई ठीक कारण नहीं है के कांग्रेस के हक़ में लहर पैदा हो जाए। नियुक्लियर डील को लेकर मुस्लमान खुश नहीं था, परन्तु यह अकेले उस का मामला नहीं था। पूरे देश के भविष्य का मामला था और जब बहुमत बलके कम या अधिक पूरा हिंदुस्तान डील के हक़ में खड़ा हो तो मुसलमानों की आवाज़ नक्कारखाने में तोती की आवाज़ से अधिक क्या समझी जा सकती थी। इसलिए वो अपनी बात कह कर खामोश हो गया। बटला हाउस के मामले में कांग्रेस विशेष कर केन्द्रीय मंत्री शिवराज पाटिल को लेकर मुसलमानों में बहुत नाराज़गी थी, परन्तु मालेगाँव बम धमाकों की छानबीन जैसे जैसे आगे बढ़ी और आतंकवाद का एक नया चेहरा सामने आने लगा, उस नाराजगी ने कांग्रेस की जगह भारतीय जनता पार्टी को उस स्थान पर ला खड़ा किया। अगर २६/११ को मुंबई में आतंकवादी हमला न हुआ होता और उसी समय संसदीय चुनाव हो गए होते तो मुसलमानों की एक बहुत बड़ी मात्रा पूरे जोश के साथ कांग्रेस के हक़ में खड़ी हो जाती। क्यूंकि इस आतंकवादी हमले का सम्बन्ध पाकिस्तान से जुडा, इसलिए हिन्दुस्तानी मुस्लमान के लिए यह बात तो चिंताजनक रही के आतंकवाद पर किस तरह काबू पाया जाए और इस दिशा में देश और कौम के लिए उस का रोल क्या हो, परन्तु इस बार वो आरोप के घेरे में न आने पर राहत भी महसूस कर रहा था। अगर मालेगाँव बम धमाकों की जांच का काम और आगे बढ़ा होता, शहीद हेमंत करकरे ने आतंकवादियों के जो चेहरे दिखाए थे, उन्हें अंजाम तक पहुँचाया जा सकता या उन की जगह लेने वाले महाराष्ट्र ऐ टी एस के प्रस्तुत चीफ मिस्टर रघुवंशी ने उसी अंदाज़ में काम को आगे बढाया होता तो शायद हालात कांग्रेस के हक़ में और भी अच्छे होते, देश के लिए क्यूंकि सेकुलर ताकतों का मज़बूत होना अतिआवश्यक है। सर्व धर्म समभाव और देश की भलाई के लिए केन्द्र में सेकुलर सरकार का बनना आवश्यक है और यह कांग्रेस के बिना सम्भव नहीं लगता। इसलिए सभी कमियों के बावजूद कांग्रेस पहले से कुछ ठीक हालत में नज़र आती है। अब देखना यह है के कांग्रेस अपने हक़ में हालात के इस बदलाव को किस हद तक वोट में बदल पाती है।

उत्तर परदेश में कांग्रेस का कोई विशेष स्थान नहीं था। पिछले संसदीय चुनाव में ८० में से केवल ९ सीटें उस के हिस्से में आई थीं और इस बार सीटें भी बरक़रार रहेंगी, ऐसा लगता नहीं था, परन्तु कुछ तो कल्याण सिंह फैक्टर ने समाजवादी पार्टी को परेशानी में डाला और कुछ राज्य के ताज़ा हालात ने बहुजन समाज पार्टी के बढ़ते क़दमों को रोकने के हालात पैदा किए, इस से कांग्रेस डूबते डूबते फिर उभरने की हालत में आगई। समाजवादी पार्टी जो उसे १०-१२ सीटों से अधिक देने को तैयार नहीं थी, वो कांग्रेस पार्टी के ज़रिये २४ उमीदवारों के एलान के बाद भी उस की शान में कसीदे पढ़ती नज़र आने लगी है और अब नाराज़गी जताने के बजाये दोस्ताना लड़ाई की बात करती है, कांग्रेस को सेकुलरिज्म का केन्द्र मानती है, जबके उसे अनुमान है के कांग्रेस अभी उत्तर परदेश में और भी सीटों पर अपने उमीदवार उतार सकती है।

कांग्रेस ने निर्णय लेने में देर न लगायी होती और ज़रा सा भी अकलमंदी से काम लिया होता तो उस की हालत और अच्छी हो सकती थी। उस के पास न तो देश के सब से बड़े राज्य उत्तर परदेश में पार्टी कार्यकर्ताओं का मज़बूत नेटवर्क था और न ही सभी ८० सीटों पर लड़ने के योग्य उमीदवार। मुसलमानों के दृष्टिकोण से इस के हक़ में बदलाव तो था, परन्तु ऐसा भी नहीं था के कोई लहर चल पड़ी हो। उस ने अन्य सेकुलर पार्टियों की तरह मुसलमानों के नज़दीक जाने में रूचि दिखाई होती और उमीदवारों का एलान करने में देर न की होती तो बात ही कुछ और होती- साथ ही अगर कांग्रेस ने पीस पार्टी के चेयरमैन डॉक्टर अय्यूब, उल्माए कोन्सेल के सरबराह मौलाना आमिर रुश्हैद, यु डी ऍफ़ के सदर मौलाना बदरुद्दीन अजमल, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और अजीत सिंह के लोक दल से नाराज़ चल रहे या बागी लीडरों का दामन थाम लिया होता तो एक लंबे समय के बाद यह पहला अवसर होता जब कांग्रेस इसी तरह चोंका देने वाले परिणाम सामने ला सकती थी, जिस तरह पिछले राज्य चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने दिखाए थे।

उल्माए कोन्सेल की प्रतिष्ठा की उपेक्षा नहीं की जा सकती। इलेक्शन जीतना हारना अलग बात है, परन्तु उस ने जिस इशु पर जनता का विश्वास प्राप्त किया है, उस की अनदेखी नहीं की जा सकती, अगर आज़म गढ़ और आस पास की एक दो सीटों पर उस का अच्छा असर है, वहां से उस के उमीदवार जीत सकते हैं और वो ऐ टी एस की जियादती के इशु को पार्लिमेंट के बाहर जिस तरह उठा रहे हैं, इसी तरह पार्लिमेंट के अन्दर भी उठाने का इरादा रखते हैं, तो इस में बुरा क्या है? यह आवाज़ किसी एक पार्टी के विरुद्ध नहीं है, किसी विशेष लीडर के विरुद्ध नहीं है। दिल्ली, उत्तर परदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में जो जियादातियाँ हुईं हैं, वो सब तो इतिहास के पन्नों में लिखित हैं। हम ख़ुद उन समस्याओं को अपने अखबार के माध्यम से उठाते रहे हैं और चाहते हैं के पार्लिमेंट में भी यह आवाज़ उठे। बार बार हमारे अखबार की कापियां लहराई भी गई हैं और अगर मेंबर पार्लिमेंट इल्यास आज़मी का आरोप सही है तो उन्हें और अकबर अहमद डम्पी को मायावती के ज़रिये इसी अपराध का दंड मिला और उन्हें टिकट से वंचित कर दिया गया।

जहाँ तक उल्माए कोन्सेल का सम्बन्ध है, उसे भी तो इस सच्चाई को समझना होगा के २-३ सीटों के बाहर जाकर उल्माए कोन्सेल भी सिवाय मुसलमानों के वोट बांटने के कुछ विशेष कर पाएगी, ऐसा नहीं लगता।

इसी तरह डॉक्टर अय्यूब की पीस पार्टी पूर्ण राज्य में न सही, परन्तु पूर्वी उत्तर परदेश के कुछ शहरों में अपना असर रखती है। कांग्रेस इन सीटों पर डॉक्टर अय्यूब, मौलाना आमिर रुशेद से बात कर के कुछ सीटें उन के लिए छोड़ सकती है। मौलाना बदरुद्दीन अजमल तो शायद एक सीट पर ही मान जाते और कांग्रेस को इस का फायदा आसाम में मिल सकता था। मुसलमानों के लिए अपनी आवाज़ उठाने वालों को, जो अब राजनैतिक मैदान में कूद पड़े हैं, कांग्रेस अपने अलाइंस का हिस्सा बना लेती तो उसे बड़ा फायदा हो सकता था।

कांग्रेस को सब से बड़ा झटका लगा बिहार में, जहाँ लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान ने उसे बहैसियत मान कर सिर्फ़ ३ सीटों के योग्य समझा, हालांके लालू और पासवान की इस डील के तुंरत बाद कांग्रेस से अधिक बेचैनी राष्ट्रीय जनता दल और लोक जन शक्ति पार्टी के खेमे में दिखाई दी। लालू प्रसाद यादव के बिरादर निसबती साधू यादव और एल जे पी के मेंबर पार्लिमेंट मोहम्मद साबिर बगावत पर उतर आए और यह केवल दो ही नहीं हैं, विभिन्न ऐसे लीडर जो अपनी अपनी पार्टियों से टिकट के दावेदार थे, कांग्रेस के दरवाज़े पर दस्तक देते दिखाई देने लगे और फिर जो उत्तर परदेश में हुआ, उसी के आसार बिहार में भी पैदा हो गए। उत्तर परदेश में दिग्विजय सिंह के ज़रिये २४ उमीदवारों के एलान ने मुर्दा हालत में पड़ी कांग्रेस को नई ज़िन्दगी दी तो बिहार में सुशिल कुमार शिंदे ने २५ सीटों पर लड़ने की बात कह कर बिहार कांग्रेस को ताकत दी। कांग्रेस अगर स्वयं को कमी के एहसास से बाहर निकाल कर देखना शुरू कर दे, उडीसा में नविन पटनायक के एन डी ऐ से बाहर जाने का अर्थ समझ ले, बिहार में नीतिश कुमार को लालू और पासवान का विकल्प मान कर चले और जय ललिता को तीसरे मोर्चे से अलग कर के देखे तो आने वाले संसदीय चुनाव के बाद उस की हालत आज से कहीं अच्छी नज़र आ सकती है।

जहाँ तक तीसरे मोर्चे का सम्बन्ध है तो उस से कांग्रेस को बिल्कुल घबराने की आव्यशकता नहीं है। हाँ, चिंता की बात अवश्य है और यह चिंता केवल कांग्रेस के लिए ही नहीं, बलके सेकुलर वोटर्स के लिए भी है। कुछ राज्यों में ही सही तीसरा मोर्चा सेकुलर वोट की बाँट का कारण बनेगा, परन्तु अपने अपने वजूद के साथ अपनी पार्टियों को जीवित रखने वाले इस के अलावा कुछ सोच ही नहीं सकते के वो चुनावी मैदान में उतरें, कुछ सीटें जीतें और उस के बाद सरकार में हिस्सेदारी का दावा करें। क्यूंकि उन्होंने पिछले दो दशक में जो देखा है वो यह के नंबर गेम में सरकार बनवाने के लिए किसी भी पार्टी के दो चार कार्यकर्ताओं की भी यह हैसियत होती है के वो अपनी शर्तों पर सपोर्ट देते हैं और मंत्रिपद प्राप्त करना उन के लिए बहुत आसन रहता है। साथ ही कुछ सिनीयर लीडर यह आशा भी क्यूँ छोड़ना चाहेंगे के अगर चौधरी चरण सिंह, चन्द्र शेखर, विश्वनाथ प्रताप सिंह, एच डी देवे गोडा और इन्द्र कुमार गुजराल की सूरत में ऐसे लीडर को भी प्रधान मंत्री बन्ने का अवसर मिला, जिन की पार्टी के पास मेम्बरों की मात्रा बहुत अधिक नहीं थी तो फिर एक बार ऐसा क्यूँ नहीं हो सकता।

अब अगर एक बार फिर देवे गोडा, शरद पवार, राम विलास पासवान और मायावती ऐसा सोच रहे हैं तो यह कोई बहुत आशचर्यजनक बात नहीं है, परन्तु इतना तो यह सभी जानते हैं के केन्द्र में कोई भी सेकुलर सरकार कांग्रेस के बिना किस प्रकार वजूद में आ सकती है? यह १० पार्टियाँ जिन के मौजूदा मेम्बरों की मात्रा कुल ८४ है और सरकार बनाने के लिए आव्यशकता होगी २७३ मेम्बेर्स की। इस लिए अगर उन की मात्रा बढ़ कर ८० से १०० या १२० भी हो जाए तो भी कांग्रेस के बगैर सरकार नहीं बनेगी। कांग्रेस अगर अपने प्रस्तुत इत्तेहदियों के साथ बहुमत प्राप्त नहीं कर पाती तो भी उस के खेमे में कोई नई पार्टी शामिल नहीं होगी, इस बात की क्या ग्यारंटी है। अगर प्रस्तुत इत्तेहादी लालू और पासवान इस समय आँखें दिखा सकते हैं तो कल अलग भी हो सकते हैं। नविन पटनायक अगर आज एन डी ऐ का साथ छोड़ सकते हैं तो कल नीतिश कुमार भी अलग हो सकते हैं। कम से कम मायावती तीसरे मोर्चे में सब के लिए स्वीकारणीय होंगी। इस के अनुमान नज़र नहीं आते और मायावती के लिए कोई और स्वीकारणीय होगा, इस की भी आशा नहीं है। वैसे भी सब जानते हैं, यह तीसरा मोर्चा मौसमी मोर्चा होता है। जब जब संसदीय चुनाव नज़दीक आते हैं, यह वजूद में आजाता है और चुनाव के बाद जिसका जिस से मोल भाव तै हो जाता है वो उसी के साथ शामिल हो जाता है। इस बात के इमकान हैं के इस बार भी ऐसा ही होगा। अपनी अपनी ताकत दिखाने की कोशिश में उन स्थानीय पार्टियों के लीडर मिलेंगे, बैठेंगे, एक साथ खड़े हो कर हाथ मिलायेंगे, फोटो खिंचवायेंगे और फिर हाथ धो कर एक दूसरे के पीछे पड़ जायेंगे।

कांग्रेस को चाहिए के जिस प्रकार उत्तर परदेश में मिलकर इलेक्शन न लड़ पाने की सूरत में भी कोई मातमी माहोल नहीं है तो इसी प्रकार बिहार के चुनावी मैदान में जाने में झिझक कैसी और तीसरे मोर्चे के वजूद को लेकर ही उदासी क्यूँ? उस से टक्कर लेने के लिए तो अकेली मायावती ही काफ़ी हैं। न वो सब के साथ जा पाएँगी, न सब उन के साथ आ पाएंगे। यह समय है अपनी ताकत को समेट कर ऊंचे इरादों के साथ मैदान में उतरने का। अगर पूर्ण विशवास के साथ पार्टी चुनाव लड़ती है और परिणाम थोड़े भी अच्छे होते हैं तो बाकी काम एकविचार ज़रूरतमंद पार्टियाँ आसन कर देंगी। आख़िर राजपाट की चाह किसे नहीं होती और राज से दूर रह कर कौन नई नई मुसीबतों को दावत देना चाहेगा? हो सकता है आज जो आँखें दिखा रहे हैं, वो भी कल दोस्ती का हाथ बढ़ाते नज़र आयें........