Tuesday, December 22, 2009

एक सवाल Positive/Negative Thinking का भी है

हम मुसलमान हैं, हम हिंदू हैं, हम सिख हैं, यह सब अपनी-अपनी जगह सच है, मगर हम सब भारतीय हैं क्या यह सच नहीं है? इस देश के स्वाधीनता संघर्ष में क्या हम सब शामिल नहीं थे? जब यह देश गुलाम था तो क्या हिंदू, मुसलमान और सिख समान रूप से फिरंगियों के अत्याचार के शिकार नहीं थे? अगर देश फिर गुलाम हो गया तो क्या फिर हमें ऐसी कठिनाइयों का, कष्टों का सामना नहीं करना पड़ेगा? हां यह कहा जा सकता है कि भारत एक मज़बूत और बहुत बड़ा देश है, अब इसे गुलाम बनाने का प्रयास कौन कर सकता है? अब यह प्रश्न भी मन में क्यों आया कि देश गुलाम हो सकता है? हम चाहें तो सिरे से इस विचार को अनदेखा कर सकते हैं और इस दिशा में सोचना अनावश्यक समझ सकते हैं, मगर कोई इतिहासकार क्या यह बताएगा कि फिरंगी जब लौंग-इलायची का व्यापार करने भारत आए, जब उन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी स्थापित की तो उस समय भारत के शासकों को या भारत की जनता को यह एहसास हो गया था कि वह गुलाम हो गए हैं, या होने जा रहे हैं। हमारे विचार में बिल्कुल नहीं। उन्होंने तब ऐसा सोचा भी नहीं होगा, अन्यथा मुट्ठी भर गोरे जो व्यापार के बहाने यहां आए थे उल्टे पांव लौट जाते। न ईस्ट इण्डिया कम्पनी स्थापित होती न देश गुलाम होता।



फिर इसके बाद गुलामी के दौर की समीक्षा करें तो क्या यह ठीक नहीं है कि अंग्रेज़ों ने हिंदू और मुसलमानों के बीच टकराव की स्थितियां क़दम क़दम पर पैदा कीं और उन्हें यह अच्छी तरह मालूम था कि जब जब इस देश के हिंदू और मुसलमान एक होंगे, यह देश मज़बूत होगा और उनकी आशाएं पूरी नहीं होंगी। उन्हें देश को गुलाम बनाए रखने का अवसर नहीं मिलेगा और अगर यह दोनों क़ौमें आपस में लड़ती रहीं तो देश कमज़ोर हो जाएगा, उनकी रक्षात्मक शक्ति समाप्त हो जाएगी और फिर हमारे लिए यह आसान अवसर होगा कि भारत को अपना गुलाम बनाए रखे। क्या यही रणनीति अब भी नहीं हो सकती।



मैं गढ़े मुर्दे उखाड़ने का प्रयास नहीं कर रहा हूं। एक संक्षिप्त लेख में अंग्रेज़ों की 190 वर्ष की गुलामी की दास्तान बयान नहीं की जा सकती, मैं केवल और केवल फिरंगियों की रणनीति की तरफ इशारा करके अपनी बात को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहा हूं। हम आज़ाद हैं। हमारा देश आज़ाद है। निसंदेह अभी तक तो सच्चाई यही है, मगर क्या हम मानसिक और शारीरिक रूप से पूर्णतः आज़ादी प्राप्त कर चुके हैं? हमें अपने तमाम निर्णय लेने का अधिकार है? अपनी बातों को तर्कों के द्वारा साबित करने का प्रयास अगर हम न करें तो क्या पूरी ईमानदारी से कह सकते हैं कि हम अपने तमाम मामलों में निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं? क्या हमें विश्वास है कि हम किसी साज़िश का शिकार नहीं हो रहे हैं? क्या हम भरोसे के साथ यह कह सकते हैं कि एक बार फिर भारत को कमज़ोर करने, हिंदू और मुसलमानों के बीच नफरत पैदा करने का सुनियोजित षड़यंत्र नहीं किया जा रहा है। क्या हमें इस बात का पूरा विश्वास है कि भारत के विभाजन में उस समय के भारतीय राजनीतिज्ञों के अलावा किसी विदेशी शक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका नहीं थी? मुहम्मद अली जिन्ना को देश विभाजन का ज़िम्मेदार मान भी लें तो क्या लार्ड माउंट बेटन को इस स्थिति के लिए ज़िम्मेदार बिल्कुल नहीं ठहराया जा सकता? समय की धूल के तले दबी इस सच्चाई को हमें इतिहास के दामन में झांक कर देखना होगा। इसलिए कि अब हमारी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य का प्रश्न है। यह बम धमाके केवल भारत-पाकिस्तान में ही क्यों हो रहे हैं? फिलहाल मैं फ़िलस्तीन अफग़ानिस्तान और ईराक़ की बात नहीं कर रहा हूं।



आप अच्छी तरह जानते हैं कि किसी भी धर्म, क़ौम या देश की इमेज बहुत महत्व रखती है। जो हमारे लिए विश्वसनीय होते हैं हम उनकी बात पर आंख बंद करके भरोसा कर लेते हैं, और जो हमारे लिए विश्वसनीय नहीं होते हम उनके सच को भी संदेह की निगाहों से देखते हैं। अर्थात जिसके बारे में हमारी राय सकारात्मक होती है हमें उसके संबंध में हर बात सकारात्मक ही नज़र आती है और जिनका नकारात्मक चरित्र हमारे मन में घर कर गया हो या करा दिया गया हो उसे हम नकारात्मक ही समझते हैं। Positive thinking (सकारात्मक सोच) और Negative thinking (नकारात्मक सोच) का हमारे जीवन में बड़ा गहरा प्रभाव होता है। एक ज़माना था जब हम सीआईए के बारे में अच्छी राय नहीं रखते थे। दुनिया में कहीं भी या विशेष रूप से भारत में अगर कोई भी अप्रिय घटना घटती थी तो सबसे पहले हमारे मन में सीआईए का ही नाम आता था। आज पूरी दुनिया में कहीं भी किसी तरह की कोई आतंकवादी घटना सामने आए हम उसमें सीआईए का हाथ नहीं देखते और न ही मीडिया सीआईए की भूमिका के बारे में कोई बात करता है, न उच्च स्तर के राजनीतिज्ञों के बीच इस दिशा में विचार-विमर्श पाया जाता है और न हमारे ख़ुफिया संगठन अपनी जांच में इस कोण को शामिल रखते हैं। 9/11 की घटना के बाद अवश्य सीआईए पर उंगली उठी मगर इस तरह की सामग्री अधिकतर इंटरनेट पर ही उपलब्ध रही। इलेक्ट्रानिक या प्रिंट मीडिया ने सीआईए या मोसाद पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया, कम से कम भारत में तो यही देखने को मिला। सब कुछ अलक़ायदा और बिन लादेन तक ही सिमटा रहा। आज अगर हम 26/11 की बात करें तो हमारा दिमाग़ पाकिस्तानी आतंकवादियों तक ही सीमित है। पाकिस्तान को या पाकिस्तानी आतंकवादियों को क्लीन चिट नहीं दी जा सकती, बल्कि संदेह के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता, और स्पष्ट रूप से कहें तो अभी तक मिले सबूतों की रोशनी में पाकिस्तान और पाकिस्तानी आंतंकवादियों को ही ज़िम्मेदार क़रार दिया जा सकता है, मगर क्या इनके अलावा कोई और भी इस जुर्म में शामिल है या हो सकता है? क्या इस दिशा में ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए? मेरे इस वाक्य का अर्थ पाकिस्तान का बचाव क्यों समझा जाए? पाकिस्तान अगर 26/11 के लिए उत्तरदायी है तो है, इससे हमदर्दी या बचाव के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता, मगर जो इससे आगे सोचने नहीं देना चाहते, बात करने नहीं देना चाहते, क्या वह हमारे देश के हमदर्द हैं? और अगर ऐसी सोच रखने वाले कुछ भारतीय भी हैं तो क्या वह सही सोच रखते हैं? उन्हें अपनी सोच पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता नहीं होना चाहिए? मैं फिर वही बात कहूंगा कि आज हमारी Thinking (सोच) Positive thinking (सकारात्मक सोच) और Negative Thinking (नकारात्मक सोच) के दायरे में सिमट कर रह गई है? हम जिनके बारे में सकारात्मक सोच रखते हैं, उनका अगर कोई दोष है तो भी हमें दोष नहीं दिखाई देता और जिनके बारे में हम नकारात्मक सोच रखते हैं, हमें वह हर मामले में दोषी ही दिखाई देते हैं। (यहां मैं केवल पाकिस्तान की बात नहीं कर रहा हूं)

अमरीका के संबंध में हमारी सोच सकारात्मक है इसलिए हम उसके बारे में कोई ग़लत बात सोच ही नहीं सकते। डेविड कोलमैन हेडली अगर एफबीआई का एजंेट है और 26/11 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमलों में संलिप्त हैं तब भी हम अमरीका के संबंध में कोई नकारात्मक बात नहीं सोचेंगे। तहव्वुर हुसैन राना मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमलों में शामिल है, वह उससे कुछ दिन पहले मुम्बई में मौजूद होता है और 26 नवम्बर को चीन से दक्षिण कोरिया होते हुए शिकागो (अमरीका) पहुंच जाता है और हमें यह ध्यान नहीं आता कि अगर वह मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले में शामिल है तो उसे अमरीका का ही सबसे सुरक्षित ठिकाना क्यों नज़र आता है? वह अमरीका ही क्यों पहुंचता है? क्या वह आतंकवादियों के लिए पनाहगाह है? क्यों पाकिस्तान नहीं जाता? चीन से पाकिस्तान तो इतना निकट है कि सीमाएं मिली हुई हैं, वह अमरीका का ही चुनाव क्यों करता है? 26/11 को मुम्बई में बुद्धवारा पीठ पर उतरने वाले पाकिस्तानी आतंकवादियों को अपनी आंखों से देखने वाली अनीता उदय्या को ख़ुफिया तौर पर बिना पासपोर्ट और वीज़ा के अमरीका क्यों ले जाया जाता है? उससे क्या बातचीत हुई, उसे क्यों जनता के सामने नहीं रखा गया? क्यूंकि हम अमरीका के बारे में नकारात्मक राय नहीं रखते, अतः इस पर न ध्यान देते हैं, न बात करते हैं और न इसे समाचारों में विशेष महत्व दिया जाता है। एफबीआई भारत आकर 26/11 की जांच में भाग ले। हम उस पर आंख बंद करके भरोसा रखें, हमें यह विचार ही न आए कि एफबीआई इसलिए भी जांच में दिलचस्पी ले सकतीहै ताकि जान सके कि कहीं संदेह की सूई अमरीका की तरफ़ तो नहीं जा रही है? यह हमारी सकारात्मक सोच है। हेडली एफबीआई का एजेंट भी हो और लशकरे तय्यबा का भी हमारी सकारात्मक सोच हमें इस दिशा में सोचने ही नहीं देती कि क्या लशकरे तय्यबा भी एफबीआई के कंट्रोल में है? क्या उसकी एक वतहंद भी हो सकती है? किस तरह इतनी आसानी से वह अपने ऐजेंटों को लशकरे तय्यबा में दाखिल करा देते हैं और अगर यह उनके नेटवर्क का कमाल है और वह हमारे हमदर्द भी हैं तो फिर हमें यह जानकारी समय रहते देकर तबाही से बचाते क्यों नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि अफग़ानिस्तान और इराक़ को तो अमरीका ने स्वयं तबाह कर दिया, फ़िलस्तीन को ईस्राईल के ज़रिए तबाह कर दिया और अब वह चाहता है कि पाकिस्तान को भारत तबाह करे, इस तरह उसका काम हो जाए और कोई बदनामी का दाग भी उसके दामन पर न आए।

पाकिस्तान एक आतंकवादी देश है। यह आतंकवाद इस्लाम के नाम पर है, जिसे जिहाद का नाम दिया गया है। बम धमाके भारत में भी हो रहे हैं और पाकिस्तान में भी। पाकिस्तान में यह धमाके मस्जिदों के अन्दर हो रहे हैं, जहां नमाज़ी मारे जाते हैं। यह कौन से जिहादी हैं? यह कौन से इस्लाम की जंग लड़ रहे हैं, जो मस्जिद के अंदर नमाज़ पढ़ने वालों को मारते हैं? अगर यह हमले पाकिस्तान के ऐसे स्थानों पर हुए होते जिन्हें शराब ख़ाना कहा जा सकता हो, जिन्हें अय्याशी का अड्डा कहा जा सकता हो, तब तो सोचा जा सकता था कि यह धार्मिक जुनून है।

हम कभी इस दिशा में विचार क्यों नहीं करते कि इस्लाम और मुसलमानों की यह तस्वीर क्यों बना दी गई है कि वह आतंकवादी हैं। ऐसा किसने किया है और उससे लाभ किसको है? मुसलमान कोई ऐसी क़ौम नहीं है, जिसका अस्तित्व केवल कुछ वर्षों से ही हो। क्या मुस्लिम क़ौम 9/11 के आसपास ही अस्तित्व में आई है, इससे पहले उसका अस्तित्व था ही नहीं। इस्लामी जंगों का हवाला मत दीजिएगा। जंगें रसूलल्लाह के नेतृत्व में भी लड़ी गईं। और इमाम हुसैन के नेतृत्व में करबला के मैदान पर भी, जंगें भारत में भी हुईं। कौरवों और पांडव के बीच का महाभारत या श्री राम और रावण के बीच का युद्ध। मुग़ल युग का उदाहरण भी मत दीजिए। सरकारें बनाने, सत्ता प्राप्त करने के लिए यह किसने नहीं किया? क्या नीरो की सनक और जलियां वाला बाग़ हम भूल गए? क्या गुजरात हमें याद नहीं? यह सब सत्ता का नशा था और ऐसा ही नशा मुग़ल युग में भी रहा, मुग़ल शासक ज़ालिम थे तो इसका अर्थ यह नहीं कि हम इस्लाम या मुसलमानों को ज़ालिम ठहराएं। जलियां वाला बाग़ एक अंग्रेज़ शासक के अत्याचार का परिणाम था, इसका यह मतलब नहीं कि हम पूरी ईसाई क़ौम को दोषी ठहरा दें। कोई एक हिंदू अगर ग़लती करता है, भले ही वह शासक हो या जनता के बीच से, तो पूरी क़ौम को इस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। आज हमें गंभीरता से इस स्थिति पर ध्यान देना होगा कि हम केवल अपराधियों को अपराधी समझें और आतंकवादियों को आतंकवादी। उनके धर्मों को हम ऐसे शीर्षक न दें। आज हमें अपना देश खतरे में नज़र आता है। हम यह ख़तरा किसी अपने से कमज़ोर देश से नहीं महसूस कर सकते, उसे तो हम जब चाहें चींटी की तरह मसल सकते हैं। अगर हमें असली ख़तरा किसी से हो सकता है तो उससे जो शक्ति में हमारे बराबर हो या हम से अधिक। हमें खतरा उससे हो सकता है जो हमें गुलाम बनाने की इच्छा रख सकता हो। जो स्वयं गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ हो भला हमें उससे क्या ख़तरा हो सकता है।

जी हां, मैं बात 26/11 पर ही कर रहा हूं। मैं इस आतंकवादी हमले को भारत की महानता पर, भारत की अखंडता पर एक बड़ा हमला मानता हूं और एक देश प्रेमी नागरिक होने के नाते मेरा कर्तव्य बनता है कि मैं अपने देश पर मंडरा रहे हर ख़तरे पर बात करूं, ध्यान दिलाऊं आज का यह लेख 26/11 पर लिखे जाने वाले लेखों की ही एक कड़ी है। आगे भी हमारा प्रयास यही रहेगा कि इस आतंकवादी हमले को और इस हमले से होने वाले प्रभावों को हर पहलू से हर कोण से देखा जाए और फिर उन तमाम आतंकवादियों को जो इसमें शामिल थे या जिनकी मानसिक उपज का यह परिणाम था, उन्हें एक उचित सबक़ सिखाया जा सके।.......................

3 comments:

संगीता पुरी said...

विदेशियों को मौका न मिला होता .. तो हमारे समाज का टुकडा टुकडा न हुआ होता .. मुट्ठी भर विदेशियों ने ही विद्वेष के दंश से हमारे सामाजिक स्‍वरूप को नष्‍ट भ्रष्‍ट करने में अहम् भूमिका निभायी .. और कालांतर में देश के दो ही टुकडे हो गए .. यही दंश अभी तक हमारे दिमाग में ऐसे हावी हैं .. तभी तो छोटी सी बात हम समझने से लाचार हैं कि हम सभी किसी समय के भाई भाई ही हैं !!

परमजीत सिहँ बाली said...

विचारणीय पोस्ट लि्खी है।आप सही कह रहे है ंकि किसी भी अपराध करने वाले को किसी कौम से जोड़ कर नही देखना चाहिए......लेकिन पता नही क्यों हमारे भारतीय की सोच सही दिशा नही पा रही....

Jyoti Verma said...

hum humesha apni kamiyo ko dusaro par madhte rahte hai kabhi apni bhool nahi sudharte. humne apni soch ka dayara badhana humara kartabya hona chahiye!!!!