Thursday, November 26, 2009

कितना सेकुलर है वंदे मातरम्?

26 नवम्बर अर्थात् भारत के इतिहास का वह अशुभ दिन जब हमें एक आतंकवादी हमले का सामना करना पड़ा। 26 नवम्बर अर्थात् भारत के इतिहास का वह अशुभ दिन जब हमें अपने ऐसे जांबाज़ पुलिस अधिकारी को खोना पड़ा जो अपनी जान की परवाह किए बिना आतंकवादी गतिविधियों के सच को सामने रखने का प्रयास कर रहा था। 26 नवम्बर भारत के इतिहास का वह अर्थपूर्ण दिन जहां तमाम सुविधाओं के बावजूद हम अभी तक ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने में असफल हैं जो प्रश्न शहीद हेमंत करकरे की विधवा कविता करकरे अर्थात् भाभी मां ने उठाए हैं। निःसंदेह अभी तक के प्रमाणों के आधार पर पाकिस्तान इन हमलों के लिए ज़िम्मेदार है, मगर श्रीमति कविता करकरे के बुलट प्रूफ़ जेकेट के मामले में उठाए गए प्रश्नों का उत्तर पाकिस्तान सरकार से तो नहीं मांगा जा सकता।

विचित्र संयोग है कि पिछले वर्ष 25-26 नवम्बर को मैं भारत में नहीं था और इस बार भी 25-26 नवम्बर को मैं भारत में नहीं हूं। उस समय हुए इस आतंकवादी हमले पर मैंने पहला लेख विदेश से ही लिखा था और इस बार भी स्थिति यही है। व्हाइट हाउस में भारत के प्रधानमंत्री डा॰ मनमोहन सिंह को दिए गए शानदार स्वागत भोज के आयोजन के बीच अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भाषण में भी 26/11 अर्थात् मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमलों का उल्लेख था। क्या हम उनका धन्यवाद करें कि वह हमारे दुख में बराबर के शरीक हैं? क्या हम उनके भाषण में इस उल्लेख को उनकी राजनीतिक रणनीति समझें?

क्या हम इस आतंकवादी हमले का उल्लेख करते हुए 9/11 की पृष्ठ भूमि और उसके बाद की स्थितियों की ओर भारत को संकेत देने का प्रयास समझें? अभी विस्तार से इस विषय पर लिखा जाना कठिन होगा, हां मगर इन्शाअल्लाह भारत वापसी के बाद, इस विदेशी धरती पर बीते एक-एक क्षण को लिखने का प्रयास किया जाएगा। एक बार फिर उन तमाम भाषणों के सार का अध्ययन किया जाएगा जो हमारे प्रधानमंत्री या विदेशी राष्ट्राध्यक्षों द्वारा दिये गये, इसलिए कि उनका संबंध हमारी क़ौम के भविष्य से है, हमारे देश के भविष्य से है। बात वंदे मातरम् की जारी थी, जारी है और अभी इसे जारी रखने की आवश्यकता भी है।

सिलसिला रोक दिया तो कुछ दिनों में हम सब कुछ भूल जाएंगे, जो तूफान उठा इस प्रश्न पर वह भी, जो पुतले जलाए गए पवित्र, धार्मिक शिक्षा संस्थान दारुल उलूम के वह भी, और जब कुछ वर्ष बीत जाएंगे तो मुसलमानों को अपमानित करने के लिए इस्लाम दुशमन शक्तियों के हाथ में फिर यह हथियार होगा, अतः बावजूद इसके कि मैं स्विटज़रलैंड, अमरीका, पोर्ट ऑफ़ स्पेन, ट्रीनीडाड, टोबेको की यात्रा पर हूं और लेखों के इस सिलसिले को जारी रखने के लिए मुझे आधी रात, अर्थात् रात के लग भग 3 बजे इस कॉलम के अंतर्गत छपने वाले लेखों को अंतिम रूप देना होता है, मगर मैं महसूस करता हूं कि यदि किसी परिणाम पर पहुंचे बगैर यह सिलसिला टूट गया तो सम्भवतः फिर यह स्वीकार किया जाता रहेगा कि मुसलमानों की आपत्ति अकारण थी उनके पास अपने प्रश्नों को उठाने के लिए कोई ठोस दलील नहीं थी, अतः मैं आवश्यक समझता हूं कि न केवल यह कि सिलसिला जारी रहे बल्कि किसी परिणाम पर भी पहुंचे।

मेरे ई-मेल और मेरे ब्लॉग पर, टेलीफोन द्वारा और फैक्स द्वारा भी लोगों की भावनाएं मुझ तक पहुंच रही हैं, इसमें एक विचार का मैं विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगा, मुहम्मद उबैदुल्ला का। मेरा उनसे निवेदन है कि वह लेख निःसंदेह मेरे कॉलम के अंतर्गत प्रकाशित किया गया, मगर इस बीच मैं विभिन्न दृष्टिकोणों पर आधारित लेख प्रकाशित कर रहा हूं, ताकि वंदे मातरम् विवाद का हर पहलू सामने आ जाए, जैसे आज भी इस कालम के अंतर्गत मैं प्रो॰ ए॰ जी नूरानी का लेख प्रकाशित कर रहा हूं, जो प्रसिद्ध विधिवेता हैं और जिन्होंने वैधानिक दृष्टिकोण से वंदे मातरम् के दृष्टिकोण पर प्रकाश डाला है।

देखें प्रो॰ ए॰जी॰ नूरानी का लेख ‘‘कितना सेक्युलर है वंदे मातरम्’’?:

वंदे मातरम् को गाने की अनिवार्यता भारतीय संविधान की धारा 28 (1) और (3) के विपरीत है। पहली धारा में कहा गया है कि सरकारी धन से चलने वाले विद्यालयों को किसी भी तरह का धार्मिक निर्देश नहीं दिया जा सकता। दूसरी धारा में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति जो इस तरह के विद्यालयों में अध्ययन करता है, वह उस संस्थान के परिसर में आयोजित किसी धार्मिक प्रार्थना में भाग लेने के लिए बाध्य नहीं है।संविधान में दिया गया यह प्रावधान पूरी तरह स्पष्ट है। सुप्रीम कोर्ट भी यह व्यवस्था दे चुका है कि किसी भी व्यक्ति को राष्ट्र गान गाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

स्वाभाविक रूप से, यह बात राष्ट्रीय गीत पर भी लागू होती है। भाजपा के लोग कहते हैं कि वंदे मातरम् में किसी तरह का धार्मिक अंश नहीं है। यह पूरी तरह असत्य है। यदि ऐसा न होता तो 1937 में कांग्रेस कार्यसमिति को यह बयान न देना पड़ता- समिति इस गीत के कुछ हिस्सों के प्रति मुसलमान दोस्तों की तरफ से उठाई गई आपत्तियों को महसूस करती है।’ कार्यसमिति ने कहा था कि वंदे मातरम् के सिर्फ दो शुरूआती अंतरे ही गाए जाने चाहिएं। जिस गीत को काट-छांट कर गानापड़े वह सर्वत्र स्वीकार्यता की आशा नहीं कर सकता।

अपनी पुस्तक ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ एन अननोन इंडियन’ में नीरद सी चैधरी ने वंदे मातरम् के लिखे जाने की परिस्थितियों का बहुत सटीक विवरण दिया है, “बंकिम चंद्र चटर्जी ओर रमेश चंद्र की ऐतिहासिक रचनाओं मुस्लिम शासन के विरुद्ध हिन्दू बग़ावत को महिमामंडित किया गया है और मुसलमानों को बड़े अनुचित ढंग से पेश किया गया है। बंकिम चंद्र असंदिग्ध रूप से और बहुत प्रखरता के साथ मुस्लिम विरोधी थे।” इतिहासकार आरसी मजूमदार ने लिखा है कि 1905 से 1947 तक वंदे मातरम् भारत के देशभक्त सपूतों का युद्धघोष था और हजारों लोगों ने वंदे मातरम् का उच्चारण करते हुए ब्रिटिश पुलिस की यातनाएं सहते हुए प्राण त्याग दिए थे।

आनंद मठ की मूलभूत परिकल्पना उन सन्यासियों (जिन्हें सनातन कहा जाता था) या बच्चों पर केंद्रित है जिन्होंने अपने घर त्याग कर अपने जीवन को मातृभूमि के लिए समर्पित कर दिया था। ये लोग अपनी मातृभूमि को मां काली के रूप में पूजते थे। आनंद मठ के इस पहलू और मां काली की परिकल्पना को देखते हुए इस बात में कोई संदेह नहीं रह जाता कि बंकिम चंद्र का राष्ट्रवाद हिंदू राष्ट्रवाद था, भारतीय राष्ट्रवाद नहीं। उनकी अन्य रचनाओं में यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है जिनमें मुस्लिमों के हाथों भारत की पराधीनता को लेकर भावावेश में भरी आक्रामक टिप्पणियां की गई हैं। उसी दिन हमारे गौरव का सूर्य अस्त हो गया।

उनकी रचनाओं में मुसलमानों के प्रति नकारात्मक और कई बार अप्रासंगिक टिप्पणियां मिलती हैं। मजूमदार लिखते हैं कि ‘बंकिम चंद्र ने देशभक्ति को धर्म और धर्म को देशभक्ति के साथ मिला दिया था।

उनका उपन्यास आनंद मठ ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ भी नहीं था। उसके अंतिम अध्याय में कोई परामानवीय शक्ति सन्यासियों के नेता सत्यानंद को युद्ध रोकने के लिए समझाती हुई दिखाई गई है। दोनों के बीच होने वाली बातचीत काफी दिलचस्प हैःशक्तिः तुम्हारा कार्य संपन्न हो गया है। मुसलमानों की सत्ता का विनाश हो चुका है। अब तुम्हारे करने के लिए कुछ नहीं बचा। बेवजह की हत्याएं करने से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला।


सत्यानंदः मुस्लिम सत्ता जरूर नष्ट हो गई है लेकिन हिंदू साम्राज्य अभी तक स्थापित नहीं हुआ है। कलकत्ता पर अब भी ब्रिटिशों का क़ब्ज़ा है।

शक्तिः हिंदू साम्राज्य अभी स्थापित नहीं होगा। अगर तुम अपने काम में लगे रहे तो लोग बेवजह मारे जाएंगे। इसलिए मेरे साथ आओ।

सत्यानंद (दुख के साथ): हे भगवान, यदि हिंदू साम्राज्य की स्थापना नहीं होगी तो फिर कौन शासन करेगा? क्या मुस्लिम शासक लौट आएंगे?

शक्तिः नहीं, अब अंग्रेज़ शासन करेंगे।सत्यानंद विरोध करते हैं लेकिन परामानवीय शक्ति उन्हें हथियार डालने के लिए मना लेती है।

शक्तिः तुम्हारा प्रण पूरा हो चुका है। तुम अपनी मां के लिए समृद्धि ला चुके हो। तुमने एक ब्रिटिश सरकार की स्थापना करवा दी है। अब लड़ाई छोड़ दो। लोगों को अपने काम करने दो। धरती को फसलों से हरी-भरी होने दो और लोगों को धन-संपत्ति से समृद्ध होने दो।

सत्यानंद (रोते हुए): मैं अपनी मां को उसके शत्रुओं के रक्त से सींच कर उस पर समृद्धि की फसल उगाऊंगा।शक्तिः शत्रु कौन है? अब कोई शत्रु नहीं है। अंगे्रज तो दोस्त हैं और शासक भी। और उन्हें कोई हरा नहीं सकता।

सत्यानंदः अगर ऐसा है तो मैं मां की प्रतिमा के सामने स्वयं को समाप्त कर दूंगा।

शक्तिः नासमझी में? आओ और जानो। हिमालय में मां का एक मंदिर है। मैं तुम्हें वहां उसकी छवि दिखाऊंगा।ऐसा कहकर उसने सत्यानंद का हाथ पकड़ लिया।

पूरे उपन्यास में मुस्लिम विरोधी अंश बहुतायत से मौजूद हैं। जीवानंद जब हाथ में तलवार लिए हुए मंदिर के द्वार पर खड़ा है और मां काली के भक्तों का आहवान करता है- हमने कई बार मुस्लिम शासन के घोंसले को तोड़ने और इन हमलावरों को खींच कर नदी में फेंक देने और भस्मीभूत कर भूमि मां को मुक्त कराने की बात सोची है। मित्रो, अब वह दिन आ गया है। जब भावानंद महेंद्र को आनंद मठ ले जाकर संघर्ष में शामिल होने के लिए प्रेरित करता है तब उसे पहले काली की प्रतिमा के सामने और फिर दुर्गा की प्रतिमा के सामने ले जाया जाता है और ‘वंदे मातरम्’ का उच्चारण करने को कहा जाता है।

उपन्यास के एक अन्य दृश्य में कुछ लोग ‘मुसलमानों को मार दो-मार दो’ के नारे लगाते हुए दिखाए गए हैं। उसी समय कुछ और लोग ‘वंदे मातरम्’ के नारे लगा रहे हैं और कुछ कह रहे हैं कि ‘क्या वह दिन कभी आएगा जब हम उनकी मस्जिदें तोड़कर उनके स्थान पर मंदिरों का निर्माण कर सकेंगे?’
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हिन्दोस्तां

न कौस से ग़रज़ है, न मतलब अज़ां से है

मुझ को अगर है इश्क़ तो हिन्दोस्तां से है

तहज़ीबे हिन्द का नहीं चश्मा2 अगर अज़ल3

यह मौजे रंग रंग फिर आई कहां से है

ज़र्रे में गर तड़प है तो इस ख़ाके पाक से

सूरज में रोशनी है तो इस आसमां से है

है इस के दम से गरमी-ए-हंगाम-ए- जहां4

मग़रिब5 की सारी रोनक इसी एक दुकां से है

मौलाना ज़फ़र अली ख़ां1.घण्टा, 2.ज़रिया, 3.क़ुदरत, 4.दुनिया की उथल पुथल, 5. पश्चिम

Tuesday, November 24, 2009

वन्दे मातरम् राष्ट्रीयता की कसौटी नहीं है-2

पिछले का शेष............

लोकमान्य तिलक की मृत्यु के बाद वह कांगे्रस और हिन्दू महा सभा दोनों में काम करते रहे। गांधी जी के अहिंसक असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलनों में भाग लेकर ख़िलाफ़त आन्दोलन के वे आलोचक हो गए व पकड़े भी गए और 1922 में जेल से छूटे। नागपुर में 1923 के दंगों में उन्होंने डा॰ मुंजे के साथ सक्रिय सहयोग किया। अगले साल सावरकर का ‘‘हिन्दुत्व’’ निकला जिसकी पाण्डुलिपि उनके पास भी थी। सावरकर के हिन्दू राष्ट्र के सपने को साकार करने के लिए ही हेडगेवार ने 1925 में दशहरे के दिन राष्ट्रीय स्वयंमसेवक संघ की स्थापना की।

तब से वे निजी हैसियत में तो आज़ादी के आन्दोलन और राजनीति में रहे। लेकिन संघ को इन सबसे अलग रखा। सारा देश जब नमक सत्या गृह और सिविल नाफ़रमानी में कूद पड़ा तो हेडगेवार भी उसमें आए लेकिन राष्ट्रीय स्वयंमसेवक संघ की कमान परांजपे को सौंप गए। वह स्वयंसेवकों को उनकी निजी हैसियत में तो आज़ादी के आन्दोलन में भाग लेने देते थे लेकिन संघ को उनने सशस्त्र क्रांतिकारी गतिविधि में लगाया न अहिंसक असहयोग आन्दोलन में लगने दिया। संघ ऐसे समर्पित लोगों के चरित्र निर्माण का कार्य कर रहा था जो देश के लिए कुरबान हो जाएंगे। सावरकर ने तब चिढ़ कर बयान दिया था, ‘‘संघ के स्वयं सेवकों के समाधि लेख में लिखा होगा, वे जन्मा संघ में गया और बिना कुछ किए धरे मर गया।


हेडगेवार तो फिर भी क्रान्तिकारियों और असहयोग आन्दोलन कार्यों में रहे, दूसरे सर संचालक माधव सदाशिव गोलवलकर तो ऐसे हिन्दू राष्ट्र निष्ठ थे कि राष्ट्रीय आन्दोलन, क्रान्तिकारी गतिविधियों और ब्रिटिश विरोध से उनने संघ और स्वयं सेवकों को बिल्कुल अलग कर लिया। वाल्टर एन्डरसन और श्रीधर दामले ने संघ पर जो पुस्तक ‘‘द ब्रदर हुड इन सेफराॅन’ लिखी है उसमें कहा है ‘‘गोलवलकर मानते थे के राष्ट्रीय स्वयंमसेवक संघ पर पाबंदी लगाने का कोई बहाना अंग्रेज़ों को न दिया जाए।’’ अंग्रेजों ने जब गैर सरकारी संगठनों में वर्दी पहनना और सैनिक क़वायद पर पाबंदी लगाई तो संघ ने इसे तत्काल स्वीकार किया। 29 अप्रैल 1943 को गोलवल्कर ने संघ के लोगों को एक दस्ती पत्र भेजा इसमें संघ की सैनिक शाखा बंद करने का आदेश था।

दस्ती पत्र की भाषा से पता चलता है कि संघ पर पाबंदी की उन्हें कितनी चिंता थी। ‘‘हमने सैनिक क़वायद और वर्दी पहनने पर पाबंदी जैसे सरकारी आदेश मान कर ऐसी सब गतिविधियों छोड़ दी हैं ताकि हमारा काम क़ानून के दायरे में रहे, जैसा कि क़ानून को मानने वाले हर संगठन को करना चाहिए। ऐसा हमने इस उम्मीद में किया कि हालात सुधर जाएंगे और हम फिर यह प्रशिक्षण देने लगेंगे। लेकिन अब हम तय कर रहे हैं कि वक़्त के बदलने का इंतिज़ार किए बिना यह गतिविधियां और यह विभाग ही समाप्त कर देंगे।’’ (यह वह दौर था जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे क्रान्तिकारी अपने तरीक़े से संघर्ष कर रहे थे।) पारंपरिक अर्थों में गोलवलकर क्रान्तिकारी नहीं थे। अंग्रेज़ो ने इसे ठीक से समझ लिया था।1943 में संघ की गतिविधियों पर तैयार की गई एक सरकारी रिपोर्ट में गृह विभाग ने निष्कर्ष निकाला था कि संघ से विधि और व्यवस्था को कोई आसन्न संकट नहीं है।


1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में हुई हिंसा पर टिप्पणी करते हुए मुंम्बई के गृह विभाग ने कहा था ‘‘संघ ने बड़ी सावधानी से अपने को क़ानूनी दायरे में रखा है, ख़ासकर 1942 में जो हिंसक उपद्रव हुए हैं उनमें संघ ने बिल्कुल भाग नहीं लिया है।’’ हेडगेवार 1925 से 1940 तक सर संघ संचालक रहे और उनके बाद आज़ादी मिलने तक गोलवलकर रहे। इन 22 वर्षों में आज़ादी के आन्दोलन में संघ ने कोई योगदान या सहयोग नहीं किया। संघ परिवारियों के लिए संघ कार्य ही राष्ट्र सेवा और राष्ट्र भक्ति का सबसे बड़ा काम था। संघ का कार्य क्या है? हिन्दू राष्ट्र के लिए मर मिटने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवकों का संगठन बनाना, इन स्वंय सेवकों का चरित्र निर्माण करना उनमें राष्ट्र भक्ति को ही जीवन की सबसे बड़ी प्रेरणा और शक्ति मानने की परम आस्था बैठाना।

1947 में जब देश आज़ाद हुआ तो देश में कोई 7 हज़ार शाखाओं में 6 से 7 लाख स्वयं सेवक भाग ले रहे थे। आप पूछ सकते हैं कि एकनिष्ठ देश भक्त स्वयं सेवकों ने आज़ादी के आन्दोलन में क्या किया? अगर यह सशस्त्र क्रान्ति में विश्वास करते थे तो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ इनने कितने सशस्त्र उपद्रव किए, कितने अंगे्रज़ों को मारा और उनके कितने संस्थानों को नष्ट किया। कितने स्वयं सेवक अंगे्रज़ों की गोलियों से मरे और कितने वन्दे मातरम् कह कर फांसी पर झूल गए। हिन्दुत्व वादियों के हाथ से एक निहत्था अहिंसक गांधी ही मारा गया।


संघ और इन स्वयं सेवकों के लिए आज़ादी के आन्दोलन से ज़्यादा महत्वपूर्ण स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र के लिए संगठन बनाना और स्वयं सेवक तैयार करना था। संगठन को अंगे्रज़ों की पाबंदी से बचाना था। इनके लिए स्वतंत्र भारत राष्ट्र अंगे्रज़ों से आज़ाद कराया गया भारत नहीं था। इनका हिन्दू राष्ट्र तो कोई पाँच हज़ार साल से ही बना हुआ है। उसे पहले मुसलमानों और फिर अंग्रेज़ों से मुक्त कराना है। मुसलमान हिन्दू राष्ट्र का दुशमन नं॰ 1 और अंग्रेज़ नं॰ 2 था। सिर्फ अंग्रेज़ों को बाहर करने से इनका हिन्दू राष्ट्र आज़ाद नहीं होता। मुसलमानों को भी या तो बाहर करना होगा या उनहें हिन्दू संस्कृति को मानना होगा। इसलिए अब उनका नारा है वंदे मातरम् गाना होगा, नहीं तो यहां से जाना होगा।

सवाल यह है कि जब आज़ादी का आन्दोलन संघ परिवारियों के लिए स्वैच्छिक था तो स्वतंत्र धर्म निर्पेक्ष लोकतांत्रिक भारत में वंदे मातरम् गाना स्वैच्छिक क्यूँ नहीं हो सकता? भारत ने हिन्दू राष्ट्र को स्वीकार नहीं किया है। यह भारत संघियों का हिन्दू राष्ट्र नहीं है। वंदे मातरम् राष्ट्र गीत है, राष्ट्रीयता की कसौटी नहीं है।..........................................

सरफ़रोशी की तमन्ना

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।

देखना है ज़ोर कितना बाजू-ए-क़ातिल में है।।

रह रवे राहे मुहब्बत रह न जाना राह में।

लज़्ज़ते सहरा नवरदी दूरिये मंज़िल में है।।

वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आस्मां।

हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है।।

आके मक़तल में यह क़ातिल कह रहा है बार बार।

क्या तमन्नाये शहादत भी किसी के दिल में है।।

ऐ शहीदे मुल्को मिल्लत तेरे कदमों पर निसार।

तेरी क़ुरबानी का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है।।

अब न अगले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़।

एक मिट जाने की हसरत अब दिले बिस्मिल में है।।

असीर सियालकोटी

वन्दे मातरम् राष्ट्रीयता की कसोटी नहीं है

कोई अन्तर नहीं पड़ता अगर समय और परिस्तिथियां अनुमति दें तो दुनिया के किसी कोने में भी बैठ कर अपने आन्दोलन को जारी रख सकते हैं। मैं इस समय वाशिंगटन में हूं और रात के साढ़े तीन बजे हैं। जब मैं इस विषय पर आज प्रकाशित किए जाने वाले लेख के यह प्रारंभिक वाक्य लिख रहा हूं। जिस समय मैं भारत से रवाना हुआ मेरे क़िस्तवार कॉलम ‘‘आज़ाद भारत का इतिहास’’ में ‘वंदे मातरम्’ पर बहस जारी थी यह बहस अभी जारी रहनी है, इसलिए कि इस पर विवाद की शुरूआत तो 1937 में ही हो गई थी, मगर संघ परिवार वाले आज़ादी के बाद से ही इसे अपना एक प्रभावी हथियार मानते रहे हैं, जिससे जब उनका दिल चाहता है मुसलमानों को घायल कर देते हैं।

ख़ुदा जाने किसने उन्हें यह अधिकार दिया कि कोई एक गीत भी देश से प्रेम की कसौटी हो सकता है और इस गीत का निर्णय भी उनके द्वारा ही किया जाएगा। क्योंकि कि इस बार देश की उस महान संस्था दारुल उलूम देवबंद को निशाना बनया गया, जिसने स्वाधीनता संग्राम में महम्वपूर्ण भूमिका निभाई तो हमें लगा कि यह बहस उठ ही गई है तो अब इसे किसी विशेष नतीजे पर पहुंचना चाहिए, अतः सबसे पहले हमने अपने श्रृंखलाबद्ध लेख में बंकिम चंद उपाध्याय के उपन्यास ‘‘अनंद मठ’ के महत्वपूर्ण अंश शामिल किए, ताकि हिन्दू भाई भी जानें कि क्या हिन्दुओं के लिए भी इसको देश से प्रेम की कसौटी ठहराया जाना चाहिए, जबकि अंग्रेज़ सरकार से प्रेम और उनके सत्ता में आने को सफलता उपन्यासकार का इस उपन्यास में उद्देश्य नज़र आता है।


पिछले दो दिन के लेखों में आपने आरिफ़ मो॰ ख़ान के वंदे मातरम् पर लिखे गए लेख और ‘वंदे मातरम्’ का उर्दू अनुवार पढ़ा है, मैंने इसमें किसी भी तरह की एडिटिंग नहीं की, इसलिए कि मैं चाहता था कि उन ज़िम्मेदार लोगों के दृष्टिकोण शब्दशः आप तक पहुँचें। आज भी इस पर कोई टिप्पणी नहीं इसलिए कि आज मैं स्वर्गीय प्रभाष जोशी का इसी विषय पर लिखा गया लेख जिसका शीर्षक है ‘‘यह राष्ट्रीयता की कसौटी नहीं’’ मगर मैंने इसे अपने क़िस्तवार काॅलम में मामूली से संशोधन के साथ ‘‘वंदे मातरम्’’ राष्ट्रीयता की कसौटी नहीं है’’ के शीर्षक के साथ पेश किया है। यह लेख स्वयं अपने आप में संघ परिवार के विचारों की क़लई खोलता है। देखें स्वर्गीय प्रभाष जोशी के क़लम से लिखा गया एक उच्च कोटि का

लेखः

जिन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी का राज है और जहां वह दूसरी पार्टी के साथ राज कर रही है, वहां की सरकारों ने ‘वंदे मातरम्’ गाने को अनिवार्य कर दिया था। लेकिन जहां कांग्रेस और दूसरी पार्टियों का राज है वहां उसके गाने न गाने की छूट थी। जिन भाजपाई सरकारो ने इसे अनिवार्य किया वह भी दावा नहीं कर सकतीं कि जो मुसलमान, ईसाई और सिख इसे गाना नहीं चाहते थे उनसे भी वंदे मातरम् गवा लिया गया है।

आदमी अगर ऐसा ही मशीनी होता और तो और गाना रिकार्ड बजवाने जैसा मेकेनिकल काम होता तो ना तो महान गीत होते ना महान संगीत। अपनी माँ, मातृभूमि और देश से आप सहज और स्वैच्छिक प्रेम करते हैं, कोई करवा नहीं सकता। सहजता और स्वैच्छिकता संस्कृति की महान उपलब्धियों की कुंजी है। जो राष्ट्र अपने नागरिकों की सहजता और स्वैच्छिकता का आदर करता है उन पर कोई चीज़ थोप कर उन्हें मजबूर नहीं करता सभ्यता और संस्कृति में वह उतना ही विकसित होता है।


कोई प्रेरित व्यक्ति जितने बड़े काम कर सकता है मजबूर आदमी नहीं कर सकता है। अगर इस सत्य को आप समझते हैं तो लोगों को प्रेरित करेंगे, जो वे मन से और सहजता से कर सकते हैं, उसे करने की छूट देंगे और इस स्वतंत्र और स्वैच्छिकता वातावरण में जो प्राप्त होगा उसका गौरव गान करेंगे। वंदेमातरम् के राष्ट्रगीत होने की जैसे भी और जैसी भी मनाई गई शताब्दी पर अगर देशप्रेम, शहीदों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के प्रति कृतज्ञता और समर्पण को ऊँचा उठा देने वाली भावना सर्वव्यापी नहीं हुई तो दोष उन्हीं का है जो इसका गाना अनिवार्य करना चाहते थे।

यह पहली बार नहीं हुआ है कि मुसलमानों के एक तबक़े ने वंदे मातरम् के गाने को इस्लाम विरोधी कहा हो। वैसे ही यह भी पहली बार नहीं हुआ है कि संघ परिवारियों ने इसके गाने को मुसलमानों के लिए अनिवार्य करने का हल्ला मचाया हो। मुस्लिम लीग, हिन्दू महा सभा और राष्ट्रीय स्वयंमसेवक संघ के बीच यह झगड़ा आज़ादी के बहुत पहले से चला आ रहा है। आज़ादी के आन्दोलन की मुख्यधारा तो कांग्रेस की ही थी और उसी ने वंदे मातरम् को बाक़ायदा अपनाया भी। लेकिन उसी ने इसे गाते हुए भी इस का गाना स्वैच्छिक रखा। कांगे्रस का 1937 के अधिवेशन का प्रस्ताव इसका प्रमाण है। उसी ने इसे स्वतंत्र लोकतांत्रिक गणराज्य भारत का राष्ट्र गीत भी बनाया।


अल्प संख्यकों ख़ासकर मुसलमानों के लिए वंदे मातरम् का गाना अनिवार्य करने की मांग संघ परिवारियों की ही रही है। यह वही लोग हैं जिनने उस स्वतंत्रता संग्राम को भी स्वैच्छिक माना है जिसमें से वंदे मातरम् निकला है। अगर भारत माता की स्वतंत्रता के लिए कुरबान हो जाना ही देश भक्ति की कसौटी है तो संघ परिवारी तो उस पर चढ़े भी नहीं, खरे उतरने की तो बात ही नहीं है। लाल कृष्ण आडवाणी ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता कि राष्ट्र भक्ति का कोई प्रतीक स्वैच्छिक हो। तो फिर आज़ादी की लड़ाई के निर्णायक ‘‘भारत छोड़ो आन्दोलन’’ के दौरान वे ख़ुद क्या कर रहे थे?


उनने ख़ुद ही कहा है- ‘‘मैं संघ में लगभग उन्हीं दिनों गया जब भारत छोड़ो आन्दोलन छिड़ा था क्योंकि मैं मानता था कि कांग्रेस के तौर तरीक़ों से तो भारत आज़ाद नहीं होगा। और भी कुछ करने की ज़रूरत थी।’’ संघ का रवैया यह था कि जब तक हम पहले देश के लिए अपनी जान क़ुरबान कर देने वाले लोगों का मज़बूत संगठन नहीं बना लेते, भारत स्वतंत्र नहीं हो सकता। लाल कृष्ण आडवाणी भारत छोड़ो आन्दोलन को छोड़ कर कराची में आराम-दक्ष करते देश पर क़ुरबान हो सकने वाले लोगों का संगठन बनाते रहे। पाँच साल बाद देश आज़ाद तो हो गया। इस आज़ादी में उनके संगठन संघ के कितने स्वयंसेवकों ने जान की कुरबानी दी ज़रा बताएं।


एक और बड़े देशभक्त स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपयी हैं वह भी भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान बच्चे नहीं, संघ कार्य कर्ता स्वयंसेवक ही थे। एक बार बटेशवर में आज़ादी के लिए लड़ते लोगों की संगत में पड़ गए। उधम हुआ। पुलिस ने पकड़ा हो उत्पात करने वाले सेनानियों को नाम बताकर छूट गए। (दस्तावेज़ी प्रमाण के लिए यहाँ देखें।) आज़ादी आने तक उनने भी देश पर कुरबान होने वाले लोगों का संगठन बनाया जिन्हें कुरबान होने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। क्योंकि वह भी आज़ादी के आन्दोलन को राष्ट्र भक्ति के लिए स्वैच्छिक समझते थे।


अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने को देश भक्तों का महान संगठन कहे और देश पर जान न्यौछावर करने वालों की सूची बनाए तो यह बड़े मज़ाक़ का विषय है। 1925 में संघ की स्थापना करने वाले डा॰ केशव बलिराम हेडगेवार को बड़ा क्रांतिकारी और देश भक्त बताया जाता है। वे डाक्टरी की पढ़ाई करने 1910 में नागपुर से कोलकाता गए जोकि क्रान्तिकारियों का गढ़ था। हेडगेवार वहां 6 साल रहे। संघ वालों का दावा है कि कोलकाता पहुंचते ही उन्हें अनुशीलन समिति की सबसे विश्वस्नीय मंडली में ले लिया गया और मध्यप्रांत के क्रांतिकारियों को हथियार और गोला-बारूद पहुंचाने की ज़िम्मेदारी उन्हीं की थी।


लेकिन ना तो कोलकाता के क्रांतिकारियों की गतिविधियों के साहित्य में उनका नाम आता है, न तब के पुलिस रिकॉर्ड में। (इतिहासकारों का छोड़ें क्योंकि यहां इतिहासकारों का उल्लेख करने पर कुछ को उनकी निष्पक्षता पर सवाल खड़ा करने का अवसर मिल सकता है) ख़ैर हेडगेवार ने वहां कोई महत्व का काम नहीं किया ना ही उन्हें वहां कोई अहमियत मिली। वे ना तो कोई क्रांतिकारी काम करते देखे गए और ना ही पुलिस ने उन्हें पकड़ा। 1916 में वे वापस नागपुर आ गए।.........................(जारी)

मर जायेंगे

देश हित पैदा हुए हैं देश हित मर जायेंगे

मरते मरते देश को ज़िन्दा मगर कर जायेंगे

हमको पीसेगा फलक चक्की में अपनी कब तलक

ख़ाक बन कर अंख में उसकी बसर कर जायेंगे

कर रही बादे-ए-खिजां को बादे सर सर दूर क्यों

पेशवाए फसले गुल हैं ख़ुद समर कर जायेंगे

ख़ाक में हमको मिलाने का तमाशा देखना

तो मरे ‘जी’ से नये पैदा शजर हो जायेंगे

नौ नौ आंसू जो रूलाते हैं हमें उनके लिये

अश्क के सैलाब से बरपा हशर हो जायेंगे

गरदिशे गरदाब में डूबें तो कुछ परवा नहीं

बहरे हस्ती में नई पैदा लहर कर जायेंगे

क्या कुचलते हैं समझ कर वह हमें बर्गे हिना

अपने खूं से हाथ उनके तर बतर कर जायेंगे

नक्शे पा हैं क्या मिटाता तू हमें ज़ोरे फलक

रहबरी का काम देंगे जो गुज़र कर जायेंगे

आर.एन.शर्मा

अब एक नज़र विभिन्न विचारधाराओं पर भी-2

पिछले का शेष....

यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि कोई क़ानून बनाकर, ज़ोर जबरदस्ती करके किसी को अपनी मां से प्यार करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता। किसी के प्रति प्यार पैदा करने के लिए क़ानून में कोई तरीक़ा नहीं है, लेकिन किसी व्यक्ति को यह एहसास अवश्य कराया जा सकता है कि यदि उसने अपनी मां से मोहब्बत नहीं की, उसकी सेवा नहीं की तो मां के क़दमों में जो जन्नत है, वह उसे नहीं मिलेगी। जहां हम पैदा हुए हैं, उसे हम मादरे वतन(मातृभूमि)कहते हैं, इस मादरे वतन की अपनी मां के साथ तुलना करूं तो यह कोई मज़हब विरोधी काम नहीं है, जिसका दोहन हमने सारी ज़िदगी किया, जिसका अनाज और पानी अंतिम सांस तक पिया, उसका कोई अधिकार हमारे ऊपर है या नहीं?


हदीस में भी एक स्थान पर कहा गया है कि पूरी धरती मेरे लिए मस्जिद बना दी गई है, इसीलिए यह दिखाई देता है कि केवल मस्जिद में नमाज़ पढ़ना ज़रूरी नहीं है बल्कि एक मुसलमान यात्रा के समय रेलगाड़ी में, प्लेटफार्म या पैदल चलते समय कहीं भी, किसी पेड़ के नीचे गमछा (अंग वस्त्र) बिछाकर नमाज़ पढ़ लेता है तो क्या कोई कहेगा कि मस्जिद का सम्मान नहीं होना चाहिए? फिर उस मस्जिद (धरती) का कितना सम्मान होना चाहिए जहां ऊपर वाले ने हमें पैदा किया है? इसका फल-फूल, अन्न-पानी तो हमने खाया ही है, मरने पर हमें इसी धरती का हिस्सा बन जाना है। जिस मिट्टी में मेरे बुज़ुर्गो की हड्डियां मिली हुई हैं, क्या वो मेरे लिए क़ाबिले ताज़ीम नहीं होनी चाहिए?

उस धरती की ताज़ीम करना मेरा फर्ज़ है, जिसे हदीस में मस्जिद कहा गया है। यानी धरती की ताज़ीम करनी चाहिए। पर मेरी अपनी धरती, जहां मैंने जन्म लिया, मैं इससे प्यार क्यों न करूं?

जब मैंने वन्दे मातरम् का अनुवाद करना शुरू किया तो मुझे लगा कि लोग इस बेमिसाल गीत का अज्ञानता के कारण विरोध करते हैं। मैंने भी वन्दे मातरम् की गहराई को तब समझा जब मैंने इसका अनुवाद करना प्रारंभ किया। मैंने पूरे वन्दे मातरम् का अनुवाद नहीं किया है, जिस पर वर्तमान में जिस वन्दे मातरम् की चर्चा हो रही है, उस वन्दे मातरम् का अनुवाद किया है जो हमारी संविधान सभा द्वारा राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकृत किया गया है, वह वही मूल गीत है जो 1875 में बंकिम चन्द्र जी ने लिखा है। बाद में 1881 में ‘आनंद मठ’ में इसे शामिल करते समय इसका विस्तार किया गया था। इसलिए मैंने उसी वन्दे मातरम् का अनुवाद किया जो राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकृत किया गया था।

पर सम्पूर्ण वन्दे मातरम्, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसमें मूर्ति पूजा का भाव आता है, वास्तव में ‘आनंद मठ’ उपन्यास की आवश्यकता के कारण इसमें वह हिस्सा जोड़ा गया और जहां तक बंकिम बाबू की बात है, तो वे जिस समुदाय से संबंध रखते थे वह मूर्ति पूजा का विरोधी था। बंकिम चंद्र ने स्वयं मूर्ति पूजा के विरूद्ध एक लेख लिखा है। ‘काल टू ट्रूथ’ नामक अपने लेख में उन्होंने लिखा था, ‘मूर्ति पूजा विज्ञान विरोधी है। जहां कहीं मूर्ति पूजा है वहां ज्ञान नहीं रहता।

वे आर्य ऋर्षि, जिन्होंने भारत में ज्ञान का वर्धन किया, वे मूर्तिपूजक नहीं थे।’ बंकिम चन्द्र ने वन्दे मातरम् के अगले खंड में ऐसी बातें क्यों लिखीं, जिनसे मूर्ति पूजा का आभास होता है, इस पर गहराई से विचार करना चाहिए। मेरी दृष्टि में इसका कारण यह था कि केवल भारत ही नहीं, सभी पूर्वी देशों में यह पुरानी परम्परा रही है कि जब भी किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर जनचेतना जगानी होती थी तो उसे एक धार्मिक आधार प्रदान कर दिया जाता था। उस समय बंगाल में मुस्लिम नवाब का शासन केवल नाममात्र को था और सत्ता के सूत्र वास्तव में अंग्रेज़ों के पास थे। ऐसे में इन दोनों में विरुद्ध राष्ट्रवादी लोगों की चेतना जागृत करने के लिए बंकिम चंद्र ने वन्दे मातरम् में धार्मिक प्रतिमानों का सहारा लिया।

जो लोग यह कहते हैं कि बंकिम चन्द्र के उपन्यास ‘आनंद मठ’ से भी उनके मुस्लिम विरोधी होने का आभास मिलता है, उन्हें इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को भी समझना चाहिए कि उस समय देश को गुलाम बनाने वाले अंग्रेज़ बंगाल के नवाब के एजेन्ट के रूप में कार्य कर रहे थे। ‘आनंद मठ’ में बंकिम चन्द्र का आक्रोश उस नवाब के विरुद्ध है, आम मुसलमान के विरुद्ध नहीं।


हालांकि मैं नहीं मानता, पर पाकिस्तान के अधिकांश और भारत में बहुत से लोगों का ऐसा मानना है कि अल्लामा इक़बाल पाकिस्तान के सूत्रधार थे। लेकिन क्या इस आधार पर भारत में कोई कहेगा कि ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ गाना बंद कर दिया जाए? बंकिम चन्द्र के साहित्य को भी इसी दृष्टि से देखें। प्रख्यात आलोचक रियाजुल करीम ने इसलिए वन्दे मातरम् पर साहित्यिक चर्चा करते हुए मन को छू जाने वाला एक वाक्य लिखा है। उन्होंने कहा कि इस गीत ने गूंगों को जबान दे दी है और जो कमज़ोर दिल के थे, उन्हें साहस दे दिया। इस दृष्टि से बंकिम चन्द्र का योगदान अतुलनीय है।दरअसल आज़ादी के आंदोलन के दौरान वन्दे मातरम् का विरोध इसलिए नहीं किया गया कि इसमें कहीं मज़हब विरोधी बातें थी, बल्कि इसलिए किया गया ताकि मुसलमान राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा न बनें।

इसीलिए मोहम्मद अली जिन्ना ने 1936 में कांग्रेस के साथ बातचीत में जो तीन शर्ते रखीं, उनमें पहली थी कि कांग्रेस मुस्लिम सम्पर्क का काम बंद करे। वन्दे मातरम् न गाने की शर्त दूसरी थी। मुस्लिम सम्पर्क बंद करने की मांग इसलिए की गई ताकि कांग्रेस यह न कह सके कि वह राष्ट्रीय पार्टी है। सभी वर्गो का प्रतिनिधित्व करती है। यदि कांग्रेस सिर्फ हिन्दू पार्टी बनकर रह जाती तभी तो मुस्लिम लीग को मुसलमानों की पार्टी माना जाता। इसलिए मुस्लिमों में कांग्रेस के सम्पर्क कार्यक्रम का विरोध किया गया। इस राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए वन्दे मातरम् का विरोध किया गया।

जिन्ना का उद्देश्य स्पष्ट था कि भले ही आज़ादी अभी मिले या देर से मिले, पर पहले हमारी मांगों का फैसला हो जाए। जब आजादी के बारे में ही जिन्ना का दृष्टिकोण बदल चुका था, तब वन्दे मातरम् के बारे में उनकी सोच को समझा जा सकता है।जिन लोगों ने यह कहा है कि न केवल हमारा मजहब अलग हैं, बल्कि हमारी संस्कृति और परम्पराएं अलग हैं। इसी द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के आधार पर अलग देश बनाया, वे आज बहुत पीछे हैं, उनके टुकड़े भी हो गए। पर इस सिद्धांत का विरोध करने वाले भारत में सभी मत, पंथों, साम्प्रदायों के लोग शांतिपूर्वक रह रहे हैं और यह देश आगे बढ़ रहा है। पर देश के विभाजन का ज़ख़्म बहुत गहरा है।


यदि देश का विभाजन न हुआ तो हम 20 वर्ष बाद भारत के महाशक्ति बनने का जो सपना देख रहे हैं, वह अब तक पूरा हो गया होता। लेकिन इतनी बड़ी हानि उठाने के बाद भी कुछ लोग इस देश में ऐसे हैं, जो पूरे इतिहास की अनदेखी कर यह कह रहे हैं कि हमारी पहचान अलग है। यद्यपि अब उनमें इतना साहस तो नहीं है कि वे यह कहें कि हम मज़हब के आधार पर अलग राष्ट्र हैं। जिन्ना की अलगाववादी विरासत को संभाले हुए कुछ लोग उसी सोच को खाद-पानी देने के लिए आज भी वन्दे मातरम् का विरोध कर रहे हैं। इसीलिए मैंने वन्दे मातरम् का अनुवाद किया ताकि इसके बारे में कोई भ्रम न फैला सके। साथ ही मुझे यह भी कहना है कि यदि कोई न गाना चाहे तो न गाए, यह उसका व्यक्तिगत मामला है।

क़ानून बनाकर उसे बाध्य नहीं किया जा सकता, लेकिन वन्दे मातरम् का विरोध करने का कोई कारण नहीं है। इसका विरोध करने वालों को समझना चाहिए कि भले ही इस राष्ट्रगीत के प्रति उसकी भावना सही न हो, पर इतना तो ध्यान रखें कि इस देश के करोड़ों-करोड़ लोगों के लिए यह गीत राष्ट्रीयता का प्रतीक है। फांसी के फंदे पर झूलने वाले उन लोगों को तो याद कर लीजिए, जिनके लबों पर अंतिम समय में यह गीत था।

अगर वन्दे मातरम् गाते हुए लोग सड़कों पर न निकले होतो, फांसी न चढ़े होते तो आज यह आज़ादी न मिली होती। आज भी इस देश में वे जगहें होतीं, जहां लिखा होता कि भारतीय और कुत्ते यहां नहीं आ सकते। वन्दे मातरम् का विरोध करने वाले कम से कम इस बात का श्रेय तो उन क्रांतिवीरों को दे ही सकते हैं जिनके कारण उन्हें और हमें कुत्ते की श्रेणी से निकलकर एक इंसान के रूप में एक आज़ाद देश में स्वाभिमान के साथ रहने का मौक़ा मिला।


उम्मीद की झलक

उरुजे कामयाबी पर कभी हिन्दोस्तां होगा

रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशयां होगा

चखायेंगे मज़ा बरबादिये गुलशन का गुलचीं को

बहार आजाएगी उस दिन जब अपना बाग़बां होगा

वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है

सुना है आज मक़तल में हमारा इमतिहां होगा

जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दे वतन हरगिज

न जाने बाद मुर्दन मैं कहां और तू कहां होगा

यह आये दिन की छेड़ अच्छी नहीं ऐ खंजरे क़ातिल

बता कब फैसला उनके हमारे दर्मियां होगा

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वर्ष मेले

वतन पर मरने वालों का यही बाक़ी निशां होगा

कभी वह दिन भी आएगा कि जब स्वराज देखेंगे

जब अपनी ही ज़मीं होगी जब अपना आसमां होगा


उल्लास वर्मा

Sunday, November 22, 2009

अब एक नज़र विभिन्न विचारधाराओं पर भी


अपने इस सिलसिलेवार लेख ‘‘आज़ाद भारत का इतिहास’’ के तहत पिछले कुछ दिनों से मैं ‘‘वंदे मातरम्’’ शीर्षक पर लिख रहा हूं। शुरू में बंकिम चंद्र चटोपाध्याय के उपन्यास ‘‘आनंद मठ’’ के हवाले से मैंने कुछ ऐसे अंश अपने पाठकों, अपने देशवासियों और भारत सरकार की सेवा में पेश किए, ताकि स्पष्ट कर सकूं कि आज़ादी से पूर्व से लेकर आज तक दरअसल ‘‘वंदे मातरम्’’ विवाद का शिकार क्यों होता रहा है। अभी तो मैंने कुछ अंश ही पेश किए हैं, जिससे यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि न केवल मुस्लिम दुशमनी, मुसलमानों से घृणा और नाराजगी इस उपन्यास की भूमि है, बल्कि हिन्दू धर्म के मानने वाले भारतीयों की भूमिका भी बहुत अच्छी नहीं दिखाई गई है और हद तो उस समय हो गई जब इस उपन्यास का केंन्द्रीय विचार अंग्रेज़ों का समर्थन करता नज़र आता है।

ऐसी स्थिति में अगर इस उपन्यास के प्रमुख अंश ‘‘वंदे मातरम्’’ को बार-बार विवाद का सामना करना पड़ता है, तो यह कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं है। अच्छा तो यह था कि इस मूक विषय को फिर से देवबंद की धर्ती से आवाज़् देकर नया जीवन न दिया गया होता, लेकिन जिस तरह 6 वर्ष पूर्व दारुलउलूम देवबंद द्वारा ‘‘वंदे मातरम्’’ पर दिए गए फ़तवे को वर्तमान अधिवेशन में जो जमीअत उलमा-ए-हिन्द की ओर से नवम्बर के पहले सप्ताह में आयोजित किया गया था, उठाया गया तो फिर से एक नई चर्चा शुरू हो गई। न चाहते हुए भी हमें अपना राष्ट्रीय दायित्व जान पड़ा कि न केवल बंकिम चंद्र उपाध्याय के उपन्यास ‘‘आनंद मठ’’ का अध्ययन करके, बल्कि इतिहास के दामन में झांक कर सम्पूर्ण सच्चाइयों को सामने लाया जाए। दारुल उलूम देवबंद के सम्मान पर किए गए हमले के बाद तथ्यों को समाने लाना तो आवश्यक था ही लेकिन भारतीय समाज को भी तमाम तथ्यों की जानकारी हो ताकि बार-बार यह विवाद खड़ा न हो, इसलिए हमने बाक़ाएदा तहक़ीक़ करके लिखना शुरू किया।

यह सिलसिला अब भी जारी है, लेकिन इस बीच विभिन्न विचारधाराओं पर आधारित लेख भी हमारी नज़रों से गुज़रे, ऐसा न लगे कि केवल हम अपनी ही बात कहने का इरादा रखते हैं, इसलिए हमने आवश्यक समझा कि कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के विचारों पर आधारित उनके लेख भी प्रकाशन में सम्मिलित किए जाएं।


पूर्व केन्द्रीय मंत्री आरिफ़ मो॰ ़ख़ाँ उन लोगों में से हैं जिन्होंने ‘‘वंदे मातरम्’’ के विषय पर बहुत कुछ लिखा है। और केवल इतना ही नहीं लिखा है, उन्होंने उर्दू भाषा में ‘‘वंदे मातरम्’’ का अनुवाद भी किया है। हम अपनी आज और कल की क़िस्त में आरिफ़ मो॰ ख़ाँ का लेख ‘‘जिस धर्ती पर अन्न-जल खाया उसको नमन क्यों न करें’’ प्रकाशित करने जा रहे हैं, उसके बाद स्वर्गीय प्रभाष जोशी का लेख पाठकों के सामने पेश किया जाएगा, इसलिए ‘‘वंदे मातरम्’’ पर जारी की गई इस चर्चा के संदर्भ में पेश है आरिफ़ मो॰ ख़ाँ का दृष्टिकोणः


वन्दे मातरम् पर इस समय कोई विवाद होना ही नहीं चाहिए था। अगर कोई विवाद था तो वह 1936 में ही सुलझ गया था। इसके बाद भी यदि कोई दल या कुछ लोग उसका विरोध करते हैं तो वे संविधान विरोधी कार्य कर रहे हैं, क्योंकि संविधान सभा ने एक प्रस्ताव पारित कर जन गण मन के समान ही वन्दे मातरम् को राष्ट्र गीत स्वीकार किया है। लेकिन जब मैंने मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के प्रवक्ता को टीवी पर यह कहते हुए सुना कि पर्सनल ला बोर्ड ने मुस्लिम अभिभावकों को यह सलाह दी है कि वे 7 सितम्बर को अपने बच्चों को स्कूल न भेजें और वन्दे मातरम् से परहेज करें, तब मेरे मन में यह बात पैदा हुई कि जो वन्दे मातरम् से परहेज करने की अपील कर रहे हैं, क्या उन्होंने स्वयं संस्कृत में लिखा वन्दे मातरम् पढ़ा है?

क्या उसका अभिप्राय समझा है? अथवा ये लोग इस बात का फायदा उठा रहे हैं कि सामान्य लोगों को वन्दे मातरम् में प्रयोग किए गए शब्दों का अर्थ पता नहीं है, इसलिए मैंने सोचा कि मैं वन्दे मातरम् का सरल सामान्य भाषा में अनुवाद करूं और स्वयं भी देखूं कि इसमें ऐसा क्या है जिस पर कुछ लोगों को आपत्ति है।

वन्दे मातरम् का उर्दू अनुवादः

तसलीमात मां तसलीमात।

तू भरी है मीठे पानी से

फल-फूलों की शादाबी से

दक्खिन की ठंडी हवाओं से

फसलों की सुहानी फिज़ाओं से

तसलीमात मां तसलीमात।।

तेरी रातें रोशन चांद से

तेरी रौनक सब्ज़े फाम से

तेरी प्यार भरी मुस्कान है

तेरी मीठी बहुत ज़ुबान है

तेरी बाहों में मेरी राहत है

तसलीमात मां तसलीमात।।

मैंने पहले ही अनेक बार वन्दे मातरम् पढ़ा था, थोड़ी बहुत संस्कृत भी जानता हूं, पर वन्दे मातरम् के अनुवाद के लिए मैंने अपने एक परिचित संस्कृत के विद्वान को साथ बैठाया, महर्षि अरविंद द्वारा वन्दे मातरम् का अंग्रेज़ी में किया गया अनुवाद भी साथ में रखा और फिर एक-एक पंक्ति का अनुवाद किया। तब एक बात और यह ध्यान में आयी कि केवल संस्कृत और अरबी में ही ऐसी विशेषता है कि इसमें एक ही शब्द में वाक्य पूरा हो जाता है।

संस्कृत का तो एक ही शब्द पूरी बात कह देता है। जैसे ‘सुजलाम्’ का अनुवाद करते समय मैंने देखा- ‘तू भरी है मीठे पानी से’ या ‘शस्य श्यामलाम्’ को लिखा-फसलों की सुहानी फिज़ाओं से। ऐसे ही ‘सुफलाम्’ का अर्थ मिला ‘फल-फूलों की शादाबी से’ और ‘मलयज शीतलम्’ का अर्थ हुआ ‘दक्खिन की ठंडी हवाओं से’। और ये सब अर्थ निकालने के बाद जब मैंने अपने संस्कृत के विद्वान मित्र से पूछा तो उन्होंने भी सहमति दी कि इन शब्दों का यही भावार्थ हो सकता है। ऐसे ही जब ‘शुभ्रज्योत्सना या फुल्ल कुसुमित’ के अर्थ ढूंढे तो वाक्य बने

‘तेरी रातें रोशन चांद से, तेरी रौनक सब्जे फाम से।

तेरी प्यार भरी मुस्कान है, तेरी मीठी बहुत ज़ुबान है...’’

सब्ज़े फाम का अर्थ जब ढूंढा तो पता चला कि ऐसी हरियाली जो गहरा हरा रंग लिए हो, स्याह गाढ़ा। इतना गहरा हरा कि लगे वह कालापन लिए है। और ऐसी हरियाली वहीं होती है जहां की भूमि अधिक उपजाऊ हो अथवा उन पेड़-पौधों को अधिक खाद-पानी दिया गया हो।
सुहासिनी को महर्षि अरविंद ने अपने वन्दे मातरम् में ‘स्वीट स्माइल’ लिखा और मैंने इसे ‘तेरी प्यार भरी मुस्कान’ लिखा है।
सुमधुर भाषिणीम् को ‘तेरी मीठी बहुत ज़ुबान है’ से बेहतर और क्या कहा जा सकता है।
‘सुखदाम्’ यानी सुख मिले और सुख कहां मिलता है- मां की बांहों में, इसलिए लिखा कि ‘तेरी बांहों में मेरी राहत है’ और ‘वरदाम्’ यहां आकर मैंने बहुत विचार किया, क्योंकि ‘वरदाम्’ का अरबी या फारसी में सीधे-सीधे शाब्दिक अर्थ होता है ‘दुआ देना’, पर ‘वर’ ऐसी वस्तु है जो कोई आदमी किसी दूसरे साधारण आदमी को नहीं दे सकता। ‘वर’ एक असाधारण चीज़ है और धरती के संदर्भ में ‘वरदाम्’ को कैसे जोड़ा गया है, यह समझना आवश्यक था। तब मैंने पाया कि इस्लामी चिंतन में यह कहा गया कि मां के पैरों के नीचे जन्नत है और यह जन्नत कोई आदमी किसी दूसरे आदमी को नहीं दे सकता। पर मां भी इंसान है, लेकिन उसके क़दमों के नीचे जन्नत बतायी गयी है। इस दर्शन को समझना होगा। मां के क़दमों के नीचे जन्नत है पर उस जन्नत को पाना उसके पुत्रों के कर्मो पर निर्भर करता है। अब मेरे आचार, विचार, व्यवहार और कर्म तय करेंगे कि मैं उस जन्नत को हासिल कर सकूंगा या नहीं।............................................(जारी)

प्यारा हिन्दोस्तां हमारा

बुलबुल हैं हम वतन की वह गुल्सितां हमारा

प्यारे हम उसके प्यारा हिन्दोस्तां हमारा

यह तन हुआ हमारा ख़ाके वतन से पैदा

काम आयेगा वतन के हर उस्तख्वाँ हमारा

दिल में वतन की उलफत सर में वतन का सौदा

नामे वतन हो यारब्ब विरदे जबां हमारा

फसले बहार आये गर गुलशने वतन में

ख़ूने जिगर से सीचे हर नोजवां हमारा

हिन्दू हो या मुसलमां कह दें मुखालिफों से

‘‘हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोंस्तां हमारा’’

गर ईश्वर ने चाहा, तो देखना कि इक दिन

उड़ता हिमालिया पर होगा निशां हमारा

हम अहद कर चुके हैं मर जायेंगे वतन पर

क्या कर सकेगा देखें दौरे ज़मां हमारा

मिट जायेंगे वह ख़ुद ही ‘‘हमदम’’ जहां के हाथों

जो चाहते मिटाना नामो निशां हमारा

अक्सीर सियालकोटी

Friday, November 20, 2009

हमारे राष्ट्रीय प्रतीक हिन्दू धर्म के प्रतीक भी हैं


क़ुरआने करीम पूर्ण जीवन दर्शन है, मानव जीवन के लिए। विश्व की कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे क़ुरआने करीम की रोशनी में समझा न जा सके। आयाते क़ुरआनी को समझना जब हमारे लिए मुश्किल होता है तो हम हदीस की तरफ़ लौटते हैं और जब कोई हदीस समझ से ऊपर होती है तो हम क़ुरआन की तरफ़ लौटते हैं। क़ुरआने करीम के द्वारा ईश्वर ने क्या संदेश दिया है इसे समझने के लिए कभी-कभी केवल आयाते क़ुरआनी को पढ़ लेना ही पर्याप्त नहीं होता बल्कि हमें अनुवाद, टीकाऐं और उसके उतरने के कारण का भी सहारा लेना पड़ता है। जब हम इस दृष्टिकोण से ध्यान पूर्वक अध्य्यन कर लेते हैं तब उस संदेश तक पहुंचना बहुत सरल हो जाता है।

यही कार्य पद्धति यदि हम विश्व के सभी मामलों में गूढ़ समस्याओं को सुलझाने के लिए व्यवहार में लाएं तो इस पवित्र आकाशीय पुस्तक का प्रकाश हर दृष्टिकोण से हर पक्ष को स्पष्ट कर देता है। ‘वन्दे मातरम’ भारतीय समाज के लिए पिछले लम्बे समय से अनसुल्झी पहेली बना हुआ है। अक्सर इस पर विवाद खड़ा हो जाता है, लम्बी बहस चलती है, फिर लोग थक जाते हैं, नई समस्याऐं अपनी ओर ध्यान केन्द्रित कर लेती हैं और यह समस्या पीछे चली जाती है। आज़ादी के पूर्व से लेकर अब तक इसी प्रकार यह सिलसिला जारी है।

यदि दारूल उलूम बेवबंद की गरिमा को निशाना न बनाया जाता तो शायद हमें इतनी गहराई से शोध की आवश्यक्ता पेश न आती। परन्तु अब जबकि देशवासियों के एक वर्ग विश्ेष ने देशप्रेम का पैमाना वन्दे मातरम को ही मान लिया है तो हमें ज़रूरी लगा कि क़ौम के दामन पर दाग़ लगाने की इस कोशिश को असफ़ल बनाने के लिए पूरी ईमानदारी के साथ तमाम तथ्यों को भारत सरकार और जनता के सामने रख दिया जाये। मैं फिर यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि वन्दे मातरम के सम्बंध में मेरे लेख न तो इसके विरोध में हैं और न इसके समर्थन में। हमारा प्रयास तो बस इतना है कि हम सब तमाम सच्चाइयों को खुली आंखों से देख लें फिर जिसकी सद्बृद्धि जो उचित समझे.


कोई भी बात कब कही गई, किन परिस्थितियों में कही गई, किस काल में कही गई और किस अवसर पर कही गई, जब तक हम इसका अध्य्यन नहीं करेंगे, बात की गहराई तक पहुंचना आसान नहीं होगा। राष्ट्र गीत की हैसियत रखने वाले वन्दे मातरम पर बहस आरम्भ करने के तुरन्त बाद मैंने आवश्यक समझा कि इस ऐतिहासिक परिदृश्य की ध्यान पूर्वक विवेचना की जाये, कि जब इसे लिखा गया वह परिस्थितियाँ किया थीं? लिखने का कारण क्या था? काल क्या था और कब इसे ‘राष्ट्र गीत’ का दर्जा दिया गया? साथ ही हमारी राष्ट्रीय पहचान से सम्बद्ध जितनी भी निशानियाँ हैं उनका भी गहराई से अध्य्यन किया जाये।


यह भी देखा जाये कि केवल राष्ट्र गीत ही दो हैं या हमारी अन्य राष्ट्रीय निशानियाँ भी दो-दो हैं फिर जब हम किसी एक का चुनाव करते हैं तो हमारी नज़र इस वर्ग में आने वाली अन्य अनेक चीज़ों पर भी होती है, उदाहरण स्वरूप मैं अपने लेख के साथ पिछले कई दिन से एक-एक कविता भी प्रकाशित कर रहा हूँ। यह कविता, गीत, तराना या आज की लोरी सब के सब स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन कविगण द्वारा लिखे गए जिनमें हिन्दू और मुसलमान दोनों का काव्य है, जो स्वतंत्रता सैनानियों के उत्साह को बढ़ाने के इरादे से लिखी गयीं।


आज इस लेख के साथ प्रकाशित की जाने वाली लोरी मोहतरम अख़तर शीरानी की कृति है और इसकी सबसे बड़ी विशेषता मुझे यह लगी कि इस दौर में एक माँ अपने अल्पायु बच्चे को नींद की गोद में पहुंचने से पूर्व भी उसे देशभक्ति का गीत सुनाती थी और उसके मन व मस्तिष्क में वह उत्साह पैदा करती थी कि वह अपने देश की स्वतंत्रता को अपने जीवन का उद्देश्य बनाकर जीवन बिताये। यह भावना थी हमारे शायरों की और यह वह गीत हैं जिनसे घबरा कर अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें ज़ब्त कर लिया था। इसलिए कि वह समझते थे कि उनका प्रभाव इतना गहरा है कि उनकी सरकार की चूलें हिल सकती हैं। मुझे नहीं मालूम कि क्या ‘वन्दे मातरम्’ भी अंग्रेज़ सरकार द्वारा ज़ब्त किया गया?


शोध जारी है, वैसे भी अभी मैंने सीधे रूप में वन्दे मातरम् पर बहस का सिलसिला शुरू नहीं किया है, हां अल्बत्ता आनन्द मठ के कुछ हवाले ज़रूर पेश किये हैं। इन्शा अल्लाह जल्द ही तमाम विस्तार के साथ इस पर भी क़ल्म उठाया जायेगा। अभी तक तो राष्ट्रीय प्रतीकों पर बातचीत जारी थी, इनमें से जिन तीन का उल्लेख शेष रह गया आज उस पर बात समाप्त करना चाहता हूँ और वह तीन प्रतीक हैं हमारा राष्ट्रीय फल, राष्ट्रीय फूल और राष्ट्रीय वृक्ष।


हमारा राष्ट्रीय फल ‘आम’ है वेदों में आम को भगवान का फल बताया गया है, मैं इस पर कोई बहस नहीं करना चाहता, मिर्ज़ा ग़ालिब को भी आम बहुत पसन्द थे और शायद सभी भारतियों की पहली पसन्द भी आम हैं। हां फूल पर कुछ वाक्य अवश्य लिखना चाहेंगे। ‘कमल’ के फूल को भारत मंे प्राचीन काल से ही पवित्र माना जाता रहा है और भारतीय देवमाला में इसे विशेष स्थान प्राप्त है। हिन्दू धर्म के अनुयाइयों के लिए यह फूल विशेष महत्व रखता है। इस धर्म के अनुसार कमल को भगवान विष्णु, ब्रह्मा, लक्ष्मी और पार्वती से जोड़ा जाता है। भगवान विष्णु के सौन्र्दय का उल्लेख करने के लिए कमल से उनको उपमा दी जाती है, अनेक धार्मिक रीतियों को पूरा करने में भी कमल के फूल का प्रयोग किया जाता है।

वेदों में भी कमल का उल्लेख मिलता है। सम्भव है कि इन्ही विशेषताओं के आधार पर भारतीय जनता पार्टी ने इसे अपना चुनाव चिन्ह चुना है। अन्यथा पण्डित जवाहर लाल नेहरू की शेरवानी पर मुस्कराने वाला गुलाब का फूल भी अपने सौन्र्दय और सुगन्ध के लिए तमाम फूलों में एक विशेष स्थान रखता है और वर्ष में एक दिन ऐसा भी आता है जब प्रेम करने वाले युवा लड़के लड़कियों के द्वारा फूल उनका प्रेम सन्देश बन कर उनके प्रेमी तक पहुंचता है और हमारे लिए तो इसका महत्व यूँ भी बढ़ जाता है कि ख़वाजा ग़रीब नवाज़ (रह।) की दरगाह हर समय इसी गुलाब की सुगन्ध से महकती रहती है और यह फूल तीर्थ स्थल ‘पुष्कर’ से आता है।



बहरहाल अब उल्लेख राष्ट्रीय वृक्ष ‘बरगद’ का। नीम के हवाले से आयुर्वेद और यूनानी दवाइयों के विशेषज्ञ बहुत कुछ कहते हैं, हमारे पूर्वज भी नीम के वृक्ष को आंगन में लगाना स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक समझते हों, यह सब अलग बात है, परन्तु हमारा राष्ट्रीय वृक्ष ‘बरगद’ है। जब मैं बरगद की विशेषताओं का अध्य्यन कर रहा था तो इतनी सामग्री मेरे सामने थी कि कई लेख केवल बरगद के धार्मिक पहलू को सामने रख कर लिखे जा सकते हैं। फल और फूल की दृष्टि से तो बरगद का उल्लेख निरर्थक है, इसलिए कि इस पर लगने वाले फूल और फल उल्लेखनीय नहीं, हां अल्बत्ता इसकी विशालता शेष सभी वृक्षों से बढ़कर है।

अब रहा प्रश्न इसे हिन्दू धर्म के महत्व के रूप में देखने का तो प्राचीन काल से ही भारत में इसकी पूजा की जाती रही है। ऋज्ञ वेद और अथर वेद ने इसकी पूजा को अनिवार्य क़रार दिया है। हिन्दू देव माला में भगवान शिव को बरगद के वृक्ष के नीचे बैठा हुआ बताया गया है। हिन्दू धर्म के अनुयायी इसे ‘कल्प वृक्ष’ भी कहते हैं जिसका अर्थ है कि एक ऐसा वृक्ष जो तमाम मुरादों को पूरा करता है। सम्भव है इसका एक कारण यह भी रहा हो कि जब चित्रकूट की ओर जाते हुए सीता जी के रास्ते में यह वृक्ष पड़ा तो उन्होनें इसे नमस्कार किया और अपने पतिव्रत धर्म के पालन के लिए इस वृक्ष से प्रार्थना की। हाथ जोड़ कर सीता जी बहुत देर तक मौन इसके सामने खड़ी रहीं और अपनी मुराद को पूरा करने की प्रार्थना की जिसे संस्कृत के इस श्लोक में दर्शाया गया है

तेषु ते प्लवमुत्सृज्य प्रस्थाय यमुनावनात् ।
श्यामं न्यग्रोधमासेदुः शीतलं हरितच्छदम् ।।
न्यग्रोधं समुपागम्य वैदेही चाभ्यवन्दत ।
नमस्तेऽस्तु महावृक्ष पारयेन्मे पतिव्रतम् ।।


रामायण, अयोध्या काण्ड, 2, पृष्ठ 23-24, 55

‘हे महावट वृक्ष जो यमुना के किनारे स्थित है और शीतल छाया से आच्छादित है, मुझे पतिव्रता धर्म का पालन करने की सार्मथ्य दो और निर्विधनता का आर्शीवाद दो।’

और जब बनवास से सीता जी श्रीराम जी के साथ वापस लौट रही थीं तो इस सृन्दर वृक्ष को देख कर श्रीराम जी ने सीता जी को सम्बोधित करके कहा कि तुम ने जिस वृक्ष से प्रार्थना की थी, यह अन्य वृक्षों के बीच इस समय ऐसा ही स्पष्ट नज़र आ रहा है जैसे अनेक नीलमों के बीच पुखराज जड़ा हो। सम्भवतः सही कारण है कि आज भी विवाहित हिन्दू महिलाएं लम्बे और ख़ुशहाल गृहस्थ जीवन के लिए बरगद की पूजा करती हैं।

अपने इन राष्ट्रीय चिन्हों के सम्बंध में और भी कुछ लिखा जा सकता है परन्तु हम बात को और लम्बा नहीं करना चाहते, इसलिए कि हमें अब वन्दे मातरम् की तरफ़ लौटना है, हां इतना लिखने के पीछे भी उद्देश्य केवल यह था कि इस खोज से जो सच्चाई सामने आती है उससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि तमाम राष्ट्रीय चिन्हों का चुनाव करते समय हमारे धर्मनिरपेक्ष भारत के भाग्य विधाताओं ने क़दम-क़दम पर एक धर्म विशेष के प्रतिनिधित्व का ख़याल रखा था।

लोरी

कभी तो रहम पर आमादा बे रहम आसमाँ होगा।

कभी तो ये जफ़ा पेशा मुक़द्दर मेहरबाँ होगा।

कभी तो सर पे अब्रे रहमते हक़ गुलफ़िशां होगा।

मुसर्रत का समाँ होगा

मेरा नन्हा जवाँ होगा।।

किसी दिन तो भला होगा ग़रीबों की दुआओं का

असर ख़ाली न जाएगा ग़म आलूद इलतिजाओं का।

नतीजा कुछ तो निकलेगा फकीराना सदाओं का।

ख़ुदा गर मेहरबाँ होगा

मेरा नन्हा जवाँ होगा।

ख़ुदा रख्खे जवाँ होगा तो ऐसा नौजवाँ होगा।

हुसैन व फ़हमदाँ होगा दिलेरो तैग़रां होगा।

बहुत शीरी जुबाँ होगा बहुत शीरी बयाँ होगा।

यह महबूबे जहाँ होगा

मेरा नन्हा जवाँ होगा।

वतन और क़ौम की सौ जान से ख़िदमत करेगा यह।

ख़ुदा की और ख़ुदा के हुक्म की इज़्ज़त करेगा यह।

हर अपने और पराए से सदा उल्फ़त करेगा यह।

हर इक पर मेहरबाँ होगा

मेरा नन्हा जवाँ होगा।।

मेरा नन्हा बहादुर एक दिन हथियार उठाएगा।

सिपाही बनके सूए अर्सा गाहे रज़्म जाएगा।

वतन के दुश्मनों की ख़ून की नहरें बहाएगा।

और आख़िर कामरां होगा

मेरा नन्हा जवाँ होगा।।

वतन की जंगे आज़ादी में जिसने सर कटाया है।

ये उस शैदाए मिल्लत बाप का पुरजोश बेटा है।

अभी से आलमें तिफ़ली का हर अन्दाज़ कहता है।

वतन का पासबां होगा

मेरा नन्हा जवाँ होगा।।

है उसके बाप के घोड़े को कब से इन्तिज़ार उसका।

है रस्ता देखती कब से फ़िज़ाए कारज़ार उसका।

हमेशा हाफ़िज़ो नासिर रहे परवरदिगार उसका।

बहादुर पहलवाँ होगा

मेरा नन्हा जवाँ होगा।।

वतन के नाम पर इक रोज़ यह तलवार उठाएगा।

वतन के दुश्मनों को कुन्जे तुरबत में सुलाएगा।

और अपने मुल्क को ग़ैरों के पंजे से छुड़ाएगा।

ग़ुरूरे ख़ान्दाँ होगा

मेरा नन्हा जवाँ होगा।।

सफ़े दुश्मन में तलवार उसकी जब शोले गिराएगी।

शुजाअत बाज़ुओं में (आग) बन के लहलहाएगी।

जबीं की हर शिकन में मर्गे दुश्मन थरथराएगी।

यह ऐसा तेग़ रां होगा

मेरा नन्हा जवाँ होगा।।

सरे मैदान जिस दम दुश्मन उसको घेरते होंगे।

बाजाए ख़ूं रगों में उसकी शोले तैरते होंगे।

सब उसके हमला ऐ शेराना से मुंह फेरते होंगे।

तहो बाला जहां होगा।

मेरा नन्हा जवाँ होगा।।

अख़्तर शीरानी

1।अत्याचारी, 2। ईश्वरीय कृपा के बादल, 3। फूलों की वर्षा, 4. ख़ुशी, 5. दुखमय, 6. याचनाएं, 7. आवाज़ें, 8. समझदार, 9. कटार चलाने वाला (योद्धा), 10. मीठा, 11. प्रेम, 12. तरफ़, 13. युद्ध का मैदान, 14. सफल, 15. राष्ट्र प्रेमी, 16. बचपन, 17. रखवाला, 18. युद्ध का वातावरण, 19. रखवाला, 20. सहायक, 21. पालनहार, 22. क़ब्र का कोना, 23. गर्व, 24. पंक्ति, 25. बहादुरी, 26. माथा, 27. मृत्यु, 28. शेरों जैसा आक्रमण, 29. उलट-पलट

Thursday, November 19, 2009

दारूल उलूम देवबन्द का सवाल कितना उचित कितना अनुचित?

कल जिस विषय पर हम बात कर रहे थे उसका संबंध ‘‘वंदे मातृम’’ से तो था ही, लेकिन उसके साथ ही जितने भी हमारे राष्ट्रीय प्रतीक हैं उनका भी उल्लेख था। राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय चिन्ह और राष्ट्रीय गीत अर्थात राष्ट्रगान इन सब पर संकेतात्मक रूप से कुछ पंक्तियां लिख कर हमने सःसम्मान यह निवेदन करने का प्रयास किया था कि यदि आपत्ति करना उद्देश्य होता तो आपत्ति की गुंजाइश यहां भी निकाली जा सकती थी, परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ अतएव हम अपने इस क्रमवार लेख में उन सभी बातों का भी उल्लेख करने का प्रयास करेंगे जिससे साबित हो जाएगा कि देश प्रेम में किसी बात पर विवाद खड़ा न करने के उद्देश्य से ही ऐसी तमाम बातों को नज़र अंदाज़ कर दिया गया होगा जिन पर बहस की जा सकती थी, अपना तर्क सामने रखा जा सकता था परन्तु सम्भवतः एक ओर देश की आज़ादी की ख़ुशी और दूसरी ओर देश विभाजन का ग़म, अर्थात कुल मिलाकर हमारे बुजुर्गों की मानसिक स्थिति ऐसी रही होगी कि इन तमाम विषयों पर बहुत बारीकी से न तो ध्यान दिया गया होगा और न बहस की गई होगी।

चूंकि वह सभी लोग जो स्वाधीनता संघर्ष में डूबे हुए थे, उनके लिए आज़ादी बहुत बड़ी सफलता थी और वतन का दो टुकड़ों में विभाजित हो जाना बहुत बड़ा ग़म, परन्तु वे लोग जो अंग्रेजों की गुलामी के दौर में किसी न किसी तरह उनसे निकटता प्राप्त करने के प्रयास में व्यस्त थे या उनकी दी गई पदवियों पर आश्रित थे, उनसे यह आशा की ही नहीं जा सकती कि उनकी भावनाएं भी स्वतंत्रता सेनानियों के समान हों, हां मगर इस आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता कि जो अंगे्रज़ों के सत्ता में रहते हुए उनके कर्मचारियों के रूप में कार्यरत थे वह स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी अंग्रेजों के लिए काम करने की मानसिकता रखते हों।

शातिर दिमाग फ़िरंगी जब यह अच्छी तरह समझ गए होंगे कि अब भारत को स्वतंत्र किए बिना कोई रास्ता नहीं तो उन्होंने जाते-जाते ऐसे बीज अवश्य बोए होंगे जो भारत में न रहते हुए भी उनके उद्देश्यों को पूरा कर सकें।देश विभाजन पर इस समय बहस नहीं करेंगे, अन्यथा विषय से भटक जाने का ख़तरा पैदा हो जाएगा, फिर भी यह लिख देना आवश्यक लगता है कि देश विभाजन के संबंध में भी अंग्रेजों की शरारत पर यदि शोध किया जाए तो बहुत कुछ ऐसा मिलेगा जिससे कि यह समझा जा सके कि पाकिस्तान की स्थापना केवल मुहम्मद अली जिन्ना या मुसलमानों का ही प्रयास नहीं था, बल्कि उस समय के बड़े राजनेताओं की चूक और फ़िरंगियों का शातिराना दिमाग भी इसमें शामिल था। यह एक अलग विषय है जिस पर चर्चा फिर कभी।

इस समय यह चंद पंक्तियां भी इसलिए लिखी गईं कि इस लेख के सिलसिलें में बंकिम चंद चटोपाध्याय के उपन्यास ‘अनंद मठ’ की ज़मीन क्या थी, किस पृष्ठभूमि में यह लिखा गया, उसका उद्देश्य क्या था और लिखने वाले का संबंध किससे था, क्या वह स्वाधीनता संघर्ष में लगे थे, क्या उनका यह उपन्यास अंग्रेजों के अधिपत्य से मुक्ति के संघर्ष का एक भाग था? क्या वंदे मातृम अंग्रेजों के विरूद्ध और देश की आज़ादी के मतवालों को प्रेरित करने के लिए था या फिर वह स्वयं अंग्रेजों के अधिकारी थे और उन्हें प्रसन्न करने के लिए यह उपन्यास लिखा गया था? अगर बाद वाली बात साबित होती है तो फिर इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता होगी कि क्या वंदे मातृम भारत की आज़ादी के लिए ही लिखा गया था या फिर इसके पीछे उद्देश्य कुछ और था?

आज भी मैं इस बात से इन्कार नहीं कर रहा हूं कि भारत सरकार ने या उस समय के राजनीतिज्ञों ने इसे राष्ट्रीय गीत का दर्जा देने का निर्णय लेने में कोई चूक की, बल्कि मैं एक पत्रकार और जाने अनजाने इस विषय से प्रभावित होने वाले समुदाय से सम्बन्धित होने के कारण समस्त तथ्यों को जनता के सामने रखने का प्रयास कर रहा हूँ और निर्णय भारत सरकार व भारत की जनता पर छोड़ता हूं कि इन तथ्यों की रोशनी में इन्साफ़ का तक़ाज़ा क्या कहता है?

और यह सब भी इसलिए कि दारुलउलूम देवबंद जैसी सम्मानित दीनी शिक्षण संस्था को निशाना बनाया गया उसके पुतले जलाए गए, जबकि दारुलउलूम देवबंद की स्वाधीनता संघर्ष में क्या भूमिका रही है यह दिन के उजाले की तरह स्पष्ट है। अफ़सोस कि आज उन धर्म गुरूओं को आरोपित करने का प्रयास किया जा रहा है। मैं उनके हृदय की व्यापक्ता और देश प्रेम के सुबूत के रूप में अगली कुछ पंक्तियों के माध्यम से कुछ लिखने का प्रयास कर रहा हूं।

हमारी राष्ट्रीय पहचान के जितने भी प्रतीकों का उल्लेख किया गया है एकतरफ़ा रूप से हर जगह एक धर्म के विशेष प्रतिनिधित्व को दर्शाने का प्रयास किया गया है। क्या एक लोकतांत्रिक देश में जहां विभिन्न धर्मों के मानने वाले रहते हों यह एक स्वस्थ निर्णय है। अब यह तो सोचा भी नहीं जा सकता कि मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे धार्मिक व्यक्तित्व और दारुलउलूम देवबंद जैसी दीनी संस्था की नज़रों से यह सब बातें छुपी रह गई होंगी, फिर भी अगर वह सब न केवल यह कि ख़ामोश रहे बल्कि प्रसन्नतापूर्वक इन तमाम राष्ट्रीय प्रतीकों को स्वीकार किया तो समझा जा सकता है कि वतन के लिए और वतन से जोड़े जाने वाले प्रतीकों के लिए उनकी भावनाएं क्या थीं और क्या हैं।

यदि हम पूरी ईमानदारी के साथ इन सच्चाइयों को समझ लेंगे तो ‘‘वंदे मातृम’’ के संदर्भ में आज जो बातें कही जा रही हैं उन्हें कम से कम ध्यान देने लायक़ तो अवश्य ही समझा जाएगा और इस धार्मिक संवेदना को साप्रदायिकता के चश्मे से देखने वालों को भी वास्तविकता समझने का अवसर मिलेगा। अब मैं उल्लेख आरम्भ करता हूं उन राष्ट्रीय प्रतीकों का जिन्हें हमने सहर्ष स्वीकार किया है और करते हैं, मगर कमो-बेश वह सबके सब धार्मिक रंग में रंगे नज़र आते हैं।

राष्ट्रीय पंचांग के रूप में शक संवतः का प्रयोग किया जाता है। देश में हिन्दू धर्म के मानने वाले इस पंचांग के द्वारा धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण दिनों को निश्चित करने में सहायता लेते हैं। इस केलण्डर की शुरूआत ‘‘राजा सालीवाहन’’ के पदासीन होने से मानी जाती है। 22 मार्च 1957 से इस केलण्डर के प्रयोग को राष्ट्रीय पंचांग के रूप में स्वीकार किया गया। इसके हिसाब से साल का पहला महीना चैत्र का महीना होता है। भारत का राज पत्र, आकाशवाणी की ख़बरों का प्रसारण, भारत सरकार द्वारा जारी किए गए केलण्डर और भारत सरकार के द्वारा जनता को सम्बोधित किए जाने वाले संदेश, इन सभी का संबंध राष्ट्रीय पंचांग अर्थात इस राष्ट्रीय केलण्डर से होता है।

अगर इस्लामी दृष्टिकोण से देखें तो साल का पहला महीना मुहर्रम का महीना है और यह इस्लामी केलण्डर आज भी मुसलमानों के बीच अपने धार्मिक पर्वो तिथियों के उद्देश्य से प्रयोग किया जाता है। समस्त इस्लामी त्यौहार चाँद की तिथियों के हिसाब से तय होते हैं। क्या ऐसा कोई उदाहरण मिलता है जब मुसलमानों ने, इस्लामी मदरसों ने, मस्जिदों के इमामों ने जो चाँद के दिखाई देने या न देने की घोषणा करते हैं उनमें से किसी ने भी भारत सरकार के सामने यह प्रस्ताव पेश किया हो कि यदि राष्ट्रगान के साथ-साथ राष्ट्रीय गीत को भी राष्ट्रीय दर्जा दिया जा सकता है तो राष्ट्रीय पंचांग के साथ-साथ इस्लामी केलण्डर को भी राष्ट्रीय केलण्डर का दर्जा दे दिया जाए।

यदि राष्ट्रीय गीत दो हो सकते हैं तो राष्ट्रीय केलण्डर दो क्यों नहीं, अब यह अलग बात है कि व्यवहारिक रूप से धार्मिक मामलों और तीज त्योहारों को छोड़ कर हम सभी अंगे्रज़ी केलण्डर के अनुसार चलते हैं।

राष्ट्रीय पशु के रूप में शेर को यह महत्व दिया गया है। पोराणिक काल से ही शेर को शाही जानवर स्वीकार किया जाता है मगर यह भी सच है कि शेर को दुर्गा देवी की सवारी के रूप में भी पहचान प्राप्त है। अगर शेर की जगह गाय को यह दर्जा दिया जाता तो ‘‘गऊ माता’’ के साथ जुड़ी भावनाओं का प्रतिनिधित्व समझा जा सकता था, परन्तु शेर को राष्ट्रीय पशु के रूप में स्वीकार कर लिए जाने का कारण संभवतः दुर्गा देवी की सवारी होना ही रहा होगा। यहां मुसलमानों के पास अपनी पसंद को सामने रखने का औचित्य था।

यदि शेर दुर्गा देवी की सवारी के लिए अपनी पहचान रखता है तो घोड़ा हज़रत इमाम हुसैन रज़ि॰ की सवारी की हैसियत रखता है। करबला के मैदान में यज़ीद की सेना का मुक़ाबला करने के लिए हज़रत इमाम हुसैन घोड़े पर सवार हो कर गए थे, जैसा कि रिवायत है। कुछ वर्गों में मुहर्रम के महीने में ज़ुल्जनाह के रूप में घोड़े को जो महत्व दिया जाता है, उसे हमारे देशवासियों ने भी अवश्य देखा होगा। बावजूद इसके यह बात कभी नहीं कही गई कि राष्ट्रीय पशु शेर ही क्यों, घोड़ा क्यों नहीं, जबकि आज भी तमाम मशीनों की शक्ति को नापने का पैमाना ‘‘हार्स पावर’’ ;भ्वतेम च्वूमतद्ध है, ‘‘लायन पावर’’ ;स्पवद च्वूमतद्ध नहीं।

राष्ट्रीय पक्षी की बात करें तो मोर को राष्ट्रीय पक्षी होने का महत्व प्राप्त है, इस पक्षी को भी हिन्दू धर्म के मानने वाले पवित्र मानते हैं। हिन्दू धर्म के देवी देवताओं को चित्रों में मोर को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। हिन्दू धर्म के अनुसार मोर को वर्षा के देवता के रूप में सोचा जाता है। दक्षिणी भारत में मोर भगवान (भगवान मुरुगा) की सवारी माना जाता है। इस सब पर न कोई आपत्ति न कोई शिकवा, सहर्ष स्वीकार, कल भी और आज भी, मगर फिर वही सविनय निवेदन कि भारत की पहचान तो राष्ट्रीय स्तर पर एक शांति प्रिय देश की रही है, राष्ट्र पिता महात्मा गांधी को शांति का मसीहा कहा गया और कहा जाता है कि हज़रत इमाम हुसैन ने जंग टालने के लिए करबला के मैदान से भारत आने की इच्छा प्रकट की थी, आज भी हम 15 अगस्त और 26 जनवरी को शांति के प्रतीक के रूप में कबूतरों को आकाश में उड़ाते हैं।

क्या कबूतर राष्ट्रीय पक्षी के रूप में स्वीकार किए जाने योग्य नहीं हो सकता था? अब यह अलग बात है कि शहज़ादे सलीम की अनारकली से लेकर दिल्ली-6 की हीरोइन सोनिया कपूर तक यह कबूतर ही उंगलियों पर नाचता दिखाई देता है।

हमारा वतन दिल से प्यारा वतन

यह हिन्दोस्तां है हमारा वतन!

मुहब्बत की आंखों का तारा वतन।

हमारा वतन दिल से प्यारा वतन।।

वो इसके दरख्तों की तैयारियां

वो फलफूल पौदे वो फुलवारियां।

हमारा वतन दिल से प्यारा वतन।।

हवा में दरख़्तों का वो झूमना

वो पत्तों का फूलों का मुंह चूमना।

हमारा वतन दिल से प्यारा वतन।।

वो सावन में काली घटा की बहार

वो बरसात की हल्की हल्की फुहार।

हमारा वतन दिल से प्यारा वतन।।

वो बाग़ों में कोयल, वो जंगल के मोर

वो गंगा की लहरें, वो जमना का ज़ोर।

हमारा वतन दिल से प्यारा वतन।।

इसी से है ज़िन्दगी की बहार

वतन की मुहब्बत हो या मां का प्यार।

हमारा वतन दिल से प्यारा वतन।।

पंडित ब्रजनारायण चकबस्त1।देश, 2। पेड़

राष्ट्रीयता के प्रश्न पर चर्चा करेगा अब ‘‘रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा’’

आज बात राष्ट्रीयता पर। रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा का सम्पादक हूं मैं और वो भी पहले ही दिन से, इसलिए यह अधिकार तो बनता है मेरा, ‘‘राष्ट्रीयता’’ शब्द पर बात करने का। वैसे भी मैं अपने आपको पूरी तरह राष्ट्रीय मानता हूं। यहां मुसलमान होने की तुलना की जाने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है, वह धर्म है मेरा और यह राष्ट्रीयता है मेरी। बहरहाल 1991 में जब ‘राष्ट्रीय सहारा’ आरम्भ हुआ तब हिन्दी के बाद उर्दू में नाम राष्ट्रीय सहारा ही रहे या राष्ट्रीय शब्द का उर्दू अनुवाद अर्थात ‘‘क़ौमी सहारा’’ रखा जाए, यह तय किया जाना था। परम आदरणीय सुब्रत राय सहारा अर्थात सहारा श्री जी ने यह निर्णय हम पर छोड़ते हुए कहा कि आप बताएं क्या उचित रहेगा?

उस समय यह मेरा ही फैसला था जिसे चेयरमैन साहब व अन्य सभी के द्वारा स्वीकार कर लिया गया और इस तरह तय पाया कि उर्दू में नाम ‘‘राष्ट्रीय सहारा’’ ही रहेगा। आज हमारी अंग्रेज़ी पत्रिका ‘सहारा टाइम’ और टीवी चैनल ‘सहारा समय’ के नाम से पहचाने जाते हैं लेकिन उर्दू ‘‘रोजनामा राष्ट्रीय सहारा’’ के नाम से ही। उस समय मुझे यह बिल्कुल अनुमान नहीं था कि 18 वर्ष बाद जब राष्ट्रीय गीत ‘‘वंदे मातृम’’ पर बहस छिड़ी होगी तो रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के सम्पादक के रूप में मुझे भी इस बहस में शामिल होने की आवश्यकता पेश आएगी। बहरहाल आज का कड़वा सच यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर यह बहस जारी है और हमने इस बहस को अंतिम चरण तक पहुंचाने के इरादे से इसमें शामिल होना स्वीकार कर लिया है।

सबसे पहले तो मैं अपने तमाम पाठकों और देशवासियों की सेवा में यह निवेदन करना चाहता हूं कि वंदे मातृम की स्वीकार्यता या उसके गाए जाने को किसी धर्म की पृष्ठ भूमि में देखना उचित नहीं होगा, बल्कि इसे राष्ट्रीय परिदृश्य में देखना होगा, राष्ट्र प्रेम के दृष्टिकोण से देखना होगा और यह भी दिमाग में रखना होगा कि इस पर आपत्ति केवल मुसलमानों की तरफ़ से ही नहीं बल्कि स्वयं राबिन्दर नाथ टैगोर जिनकी रचना को राष्ट्रगान होने का सम्मान प्राप्त है। और जिन्होंने इसकी पहली दो पंक्तियों को 1896 में गाया था। उन्होंने इस पर आपत्ति भी ज़्ााहिर की थी, और इस आपत्ति में वह अकेले नहीं थे, बल्कि ‘‘ब्रह्मो समाज’’ से संबंध रखने वाले हिन्दू भद्रजन भी मुसलमानों के साथ-साथ आपत्ति करने वालों में शामिल थे।

निःसंदेह कि अब मेरा यह श्रृंखलाबद्ध लेख ‘‘वंदे मातृम’’ पर केन्द्रित है जिसे राष्ट्रगीत क़रार दिया गया है परन्तु मैं आज उन तमाम राष्ट्रीय प्रतीकों से अपनी बात शुरू करना चाहता हूं जिन्हें राष्ट्रीय प्रतीक का स्थान प्राप्त है। अतएव सबसे पहले ‘‘राष्ट्रीय ध्वज’’ की बात करना चाहूंगा। हमारे राष्ट्रीय ध्वज में तीन अलग-अलग रंग की सीधी पट्टियां हैं, जिनमें समान अनुपात में गहरा केसरिया रंग सबसे ऊपर है, बीच में सफ़ेद और सबसे नीचे हरा। सफ़ेद पट्टी के बीच में नीले रंग का चक्कर, जिसे अशोक के चक्र से लिया गया है, जिसमें 24 तीलियां हैं, इसे राष्ट्रीय ध्वज की हैसियत से 22 जुलाई 1947 को अपनाया गया।

यूं तो रंगों का कोई धर्म नहीं होता फिर भी रंगों को धर्मों की पहचान से जोड़ कर भी देखा जाता है और इस दृष्टि से अगर देखें तो हरे रंग को मुसलमानों से और केसरिया रंग को हिन्दुओं से जोड़ कर देखा जाता है। जिस समय हमारे राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार किया गया क्या मुसलमानों ने इस बात पर आपत्ति की कि हरा रंग सबसे नीचे क्यों है? स्वाधीनता की लड़ाई में हम किसी से पीछे तो न थे और क्या इस बात पर आपत्ति की गई कि भगवा रंग सबसे ऊपर क्यों है? क्या किसी ने कहा कि चलो सफ़ेद रंग जो अमन व शान्ति का प्रतीक है उसे ही सबसे ऊपर रखा जाए, या झंडे की शक्ल कुछ ऐसी हो कि केसरया और हरा रंग बराबरी के महत्व के साथ शामिल किए जाएं न कोई ऊपर न कोई नीचे, शायद नहीं।

यह भी ध्यान में रहे कि जिस समय अर्थात 22 जुलाई 1947 को इसे हमारे राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार किया गया उस समय तक पाकिस्तान अस्तित्व में नहीं आया था, अर्थात यह राष्ट्रीय ध्वज सभी के लिए स्वीकार्य था, सभी की रज़ामंदी से स्वीकार किया गया था, अर्थात इस निर्णय में पंडित जवाहर लाल नेहरू भी शामिल थे सरदार पटेल भी और मुहम्मद अली जिन्ना भी और बात केवल एक जिन्ना की नहीं, बल्कि वह समस्त मुसलमान भी शामिल थे जो बाद में पाकिस्तान के नागरिक कहलाए, किसी को भी इस ध्वज पर कोई आपत्ति नहीं थी।

अब बात राष्ट्रीय चिन्ह की- हमारा राष्ट्रीय चिन्ह जो कि अशोक के सिंह इस्तम्भ, शेरों वाली लाठ से लिया गया है, जिसमें चार शेर एक दूसरे की ओर पीठ किए हुए हैं, नीचे घण्टे की शक्ल के पदम के ऊपर एक चित्र, वल्लरी में एक हाथी चैकड़ी भरता हुआ, एक घोड़ा, एक सांड और एक शेर की उभरी हुई मूर्तियां हैं इसके बीच-बीच में चक्र बने हुए हैं जो लोहे के पत्तल को काट-काट कर बनाए गए हैं। संग स्तम्भ के ऊपर धर्म चक्र रखा हुआ है। इसमें केवल तीन शेर दिखाए देते हैं चैथा दिखाई नहीं देता, पट्टी के बीचों-बीच उभरी हुई नक्काशी में चक्कर है जिसके दाईं ओर एक सांड और बाईं ओर एक घोड़ा है। दाएं और बाएं किनारों पर अन्य चक्करों के किनारे हैं। भारत सरकार ने इस चिन्ह को 26 जनवरी 1950 को अपनाया

‘‘मंडिकोपनिषद (उपनिषद का नाम) का सूत्र के बाद ‘सत्यमेव जयते’ देवनागरी लिपि में अंकित है जिसका अर्थ है सत्य की ही विजय होती है।’’

इस राष्ट्रीय प्रतीक पर कोई टिप्पणी न करते हुए मैं केवल इतना कहना चाहूंगा कि क्या कोई आपत्ति किसी भी ओर से देखने या सुनने को मिली? किसी इस्लामी संस्था या मुसलमानों के प्रतिनिधियों ने कभी इसे वाद-विवाद का विषय बनाया? शायद कभी नहीं?

यह बात कुछ केन्द्रीय विषय से अलग लग सकती है मगर मैं अपने पाठकों से निवेदन करना चाहता हूं कि इस शुष्क लेख को इसलिए सहन कर लें कि इन पंक्तियों के द्वारा मैं कोई महत्वपूर्ण बात करने का इरादा रखता हूं। शायद इसे उस समय तक नहीं समझा जा सकता जब तक कि बात पूरी न हो जाए। अलबत्ता इरादा क्या है यह मैं शुरू में ही सामने रख देना चाहता हूं ताकि पढ़ने वालों और सुनने वालों की दिलचस्पी बनी रहे इस लेख के अन्तर्गत, मैं इन तमाम प्रतीकों पर बात करना चाहता हूं जिन्हें हम अपना राष्ट्रीय प्रतीक स्वीकार करते हैं जो हमारी राष्ट्रीय निशानियां हैं।

उसके बाद मैं साबित यह करना चाहता हूं कि यदि तमाम राष्ट्रीय निशानियों में से किसी एक पर भी ऐसी आपत्ति देखने को नहीं मिली जैसी कि वंदे मातृम पर देखने को मिल रही है तो हमें पूरी ईमानदारी से इस पर ध्यान देना होगा कि आख़िर इसका कारण क्या है और हमें इस सच्चाई पर भी ध्यान देना होगा कि हमारी इन सभी राष्ट्रीय निशानियों के से ऐसी कोई भी निशानी नहीं है, सिवाए वंदे मातृम के जहां हमने किन्हीं दो राष्ट्रीय निशानियों को एक ही श्रेणी में रखा हो।

उदाहरणतः हमारा राष्ट्रीय ध्वज एक है तो है, दो राष्ट्रीय ध्वजों को यह सम्मान प्राप्त नहीं है कि हम दोनों को अपना राष्ट्रीय ध्वज मानें। अगर हमारा राष्ट्रीय चिन्ह जिसका अभी उल्लेख किया एक है तो है, जो सभी के लिए स्वीकार्य है, ऐसा नहीं कि हमने दो राष्ट्रीय चिन्ह अर्थात राष्ट्रीय निशान स्वीकार कर लिए हों और दोनों को एक जैसी हेसियत प्राप्त हो, तब फिर ऐसी क्या विवश्ता हमारे सामने आई कि हमारे एक राष्ट्रगान के होते हुए हमें एक और राष्ट्रीय गीत की आवश्यकता महसूस हुई? यह उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूं कि हमने राष्ट्रीय पंचांग अर्थात केलण्डर भी एक ही माना है, जबकि एक से अधिक केलण्डर भारत में आज भी मौजूद हैं और प्रयोग में भी। राष्ट्रीय पशु एक ही है, किसी ने यह बहस नहीं की कि उसके पसंदीदा अन्य किसी पशु को भी राष्ट्रीय पशु का स्थान प्राप्त हो।

राष्ट्रीय पक्षी वह भी एक ही सबको स्वीकार्य है, यहां तक कि राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय वृक्ष, राष्ट्रीय फल किसी पर न कोई विवाद न बहस न एक साथ दो वृक्ष, दो फूल या दो फल एक जैसे महत्व वाले। अर्थात तमाम राष्ट्रीय प्रतीकों में केवल एक राष्ट्रीय गान और राष्ट्रीय गीत यही दो हैं और इनमें से भी विवाद केवल ‘‘वंदे मातृम पर है और यह विवाद भी इतना कि इसे राष्ट्र से प्रेम की कसौटी बनाकर पेश किया जा रहा है। अगर ऐसा न होता तो सम्भवतः हमारी बहस इतनी लम्बी न होती, मगर अब चूंकि यह राष्ट्रीय स्तर पर बहस का विषय है और हमारे बनाए बिना है तो फिर यह हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है कि तमाम सच्चाइयों के साथ इसे राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय परिपेक्ष में राष्ट्र के सामने रख दें फिर जो निर्णय राष्ट्र का।

नोटः आज से हम रोज़ एक ऐसा गीत भी प्रकाशित करने जा रहे हैं जो स्वाधीनता संघर्ष के दौरान लिखा गया और गाया गया ताकि हमारे पाठक अनुमान कर सकें कि किस-किस गीत ने आज़ादी के मतवालों के दिलों में वह स्थिति पैदा की होगी कि हमारी आज़ादी का सपना वास्तविकता में बदल गया और हम गुलामी की ज़ंजीरें तोड़ने में कामयाब हुए, और साथ ही यह भी कि वह आज़ादी के गीत किस-किस ने लिखे और किस-किस भाषा में। हमें यह भी याद रखना होगा कि उस समय वह कौन-कौन सी भाषाएं थीं जो लोकप्रिय थीं और किन-किन भाषाओं में कही जाने वाली बात कितना प्रभाव रखती थी। अगर हमारी बात को समझना ज़रा भी कठिन लगे तो याद करें लता मंगेशकर की आवाज़ में गूंजने वाला यह गीत:

‘‘ऐ मेरे वतन के लोगों! ज़रा आँख में भर लो पानी,

जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कु़रबानी’’।

..............(जारी)

हमारा देस

जग से भला संसार से प्यारा।

दिल की ठन्डक आंख का तारा।

सबसे अनोखा सबसे नियारा।

दुनिया के जीने का सहारा।

प्यारा भारत देस हमारा।।

इसके दरया, इसके समुन्दर।

इसके संगम, इसके बंदर1।

प्रेम की मूरत, प्रीत का मंदर।

हुस्नो मुहब्बत का गहवारा2।

प्यारा भारत देस हमारा।।

कितनी पुर क़ैफ़3 इसकी अदाएं।

कितनी दिलकश इसकी फ़िज़ाएं।

मुश्क से बढ़कर इसकी हवाएं।

ख़ुल्द4 से बेहतर इसका नज़ारा।

प्यारा भारत देस हमारा।।

मुल्क को हासिल हो आज़ादी।

ख़त्म हो दौरे सितम ईजादी5।

दूर हो इसकी सब बरबादी।

चर्ख़े6 पे चमके बन के तारा।

प्यारा भारत देस हमारा।।

हम में पैदा हो यक जाई।

सब हों बाहम भाई भाई।

हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई।

गाएं मिलकर गीत यह प्यारा।

प्यारा भारत देस हमारा।।

हकीम मोहम्मद मुस्तफा ख़ां
1.घाट, 2. झूला, 3. अच्छी, 4. स्वर्ग, 5. अत्याचार का युग, 6. आकाश

Wednesday, November 18, 2009

वंदेमातरम! बात निकली है तो फिर दूर तलक जाएगी

इस समय मैं केवल एक लेखक, एक पत्रकार या एक सम्पादक की हैसियत से ही स्वयं को नहीं देख रहा हूं, और इस समय मैं स्वयं को बस एक मुस्लिम प्रतिनिधि के रूप में भी नहीं महसूस कर रहा हूं, बल्कि मेरी इस बात को एक निष्पक्ष रिसर्च इस्कोलर के शोध पर ही आधारित समझें तो किसी सही नतीजे पर पहुंच सकेंगे। आज का यह लेख निःसन्देह मेरे नियमित पाठकों के लिए लिये तो है ही परन्तु साथ में इस लेख के द्वारा अपने हमवतन भाई बहनों का ध्यान भी आकर्षित करना चाहता हूं इसलिए कि मेरे सामने राष्ट्रीय चिन्ह पर लिखी वह पंक्ति है जिस पर दर्ज है ‘‘सत्यमेव जयते’’ अर्थात सच्चाई की जीत होती है।

अतः मुझे पूर्ण विश्वास है कि इंशाअल्लाह जीत सच्चाई की ही होगी, बस इसे सलीके और बुद्धिमानी के साथ पेश किये जाने की आवश्यकता है। हम मानते हैं कि पत्थर पर लिखी यह वह पंक्ति है जो भारत की सोच का आइना है। यही कारण है कि मैं राष्ट्रीय प्रतीक पर लिखे गये इन दो शब्दों को ही कसौटी मानकर अपनी बात समस्त भारतीयों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और यह निर्णय उन पर छोड़ता हूं कि राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम के मामले में अभी तक जो दृष्टिकोण बना हुआ है क्या उस पर नये सिरे से चिन्तन मनन की आवश्यकता है या नहीं? इस बात को छोड़ दें कि यह आपत्ति मुसलमानों की तरफ से की जाती रही है।

इस बात को छोड़ दें कि 6 वर्ष पहले भारत के गौरवशाली शिक्षा संस्थान दारउल उलूम देवबन्द ने इसके गाये जाने को अनुचित ठहराया है। इस बात को छोड़ दें कि जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के 30वें अधिवेशन में पेश किये गये प्रस्तावों में दारउल उलूम देवबन्द के फतवे का समर्थन किया गया है। अब बात हो तथ्यों की रोशनी में, ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के हवालों के साथ, केवल भावनाओं की दुहाई देकर नहीं! मेरे सामने इस समय कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं और जो पहला दस्तावेज़ है वह है बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय का नोवेल ‘‘आनन्द मठ’’।

मैं इसका एक-एक शब्द आरंभ से अंत तक न केवल पढ़ चुका हूं बल्कि ध्यानपूवर्क अध्ययन कर चुका हूं और अभी भी यह मेरे अध्ययन में है, इसलिए कि मैं अब केवल वह ही नहीं पढ़ रहा हूं, जो शब्दों में लिखा गया है बल्कि अब वह भी पढ़ने का प्रयास कर रहा हूं, जिसे लिखा तो नहीं गया, मगर एक संदेश के रूप में पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास किया गया है।

इसके कुछ वाक्य मैं आज भी अपने पाठकों की सेवा में पेश करने जा रहा हूं और इस निवेदन के साथ कि ‘‘आनन्द मठ’’ के यह वाक्य हम सब अपने हमवतन भाईयों के सामने भी ससम्मान अवश्य रखें और उनसे निवेदन करें कि कृप्या इन्हें ईमानदारी की कसौटी पर परखें, उपन्यासकार की मानसिकता का अन्दाज़ा करें, फिर वन्दे मात्रम पर बात करें, उसके राष्ट्रगीत होने पर गौर करें, मुसलमानों की आपत्ति के कारण को समझें, तब सम्भवतः हम राष्ट्रहित में किसी नतीजे पर पहुंच सकें।

‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-77 पर तीसरी और चैथी पंक्ति में लिखा हैः
‘‘हम राज्य नहीं चाहते- हम केवल मुसलमानों को भगवान का विद्वेषी मानकर उनका वंश-सहित नाश करना चाहते हैं।’’पृष्ठ-88-89 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय ने अपने उपन्यास ‘‘आनन्द मठ’’ में लिखा हैः
‘‘भवानंद ने कह दिया था, ‘‘भाई, अगर किसी घर में एक तरफ मणि-मणिक्य, हीरक, प्रवाल आदि देखो और दूसरी तरफ टूटी बंदूक देखो तो मणि-मणिक्य, हरिक और प्रवाल छोड़कर टूटी बंदूक ही लेकर आना।’’

इसके अलावा उन्होंने गांव-गांव में खोजी दस्ते भेजे। खोजी लोग जिस गांव में हिन्दू देखते, कहते, ‘‘विष्णुपूजा करोगे?’’ यह कहकर 20-25 आदमी साथ लेकर मुसलमानों के गांव में आते और उनके घरों में आग लगा देते। मुसलमान प्राण-रक्षा के लिए भागमभाग करते। सन्तान उनका सब कुछ लूटकर नए विष्णु-भक्तों में वितरित कर देते। लूट का माल पाकर ग्रामीण लोग बेहद खुश हो जाते तो उन्हें मंदिर में लाकर सन्तान बनाया जाता। लोगों ने देखा, सन्तान बनने में खूब लाभ है। खासकर सभी मुसलमान-राज्य की अराजकता तथा अकुशल शासन के कारण परेशान हो उठे थे।

हिन्दू-धर्म के विलोप होने से अनेक हिन्दू हिन्दुओं की पुनस्र्थापना के लिए आग्रहशील थे। अतएव दिन-ब-दिन सन्तानों की संख्या में वृद्धि होने लगी। हर दिन सौ-सौ, हर माह हज़ारो हज़ारों सन्तानें भवानंद-जीवानंद के चरणों को स्पर्श करने आ पहुंचती, दलबद्ध होकर वे दिग-दिगन्त से मुसलमानों को शासन करने से बेदखल करने लगी। जहां वे राजपुरूष पाते उन्हें पकड़ कर उनकी मारपीट करते। कभी-कभी उनकी हत्या तक कर देते। जहां वे सरकारी रूपया पाते, लूटकर उसे घर ले आते। जहां मुसलमानों का गांव पाते, आग लगाकर उसे भस्मीभूत कर देते।

यह विद्रोह देखकर तब स्थानीय राजपुरूषों ने सन्तानों को शासित करने के वास्ते भारी मात्रा में सेना भेजनी शुरू कर दी। मगर अब सन्तान लोग दलबद्ध थे, सशस्त्र थे और महापराक्रमी व अनुशासित थे। उनके दर्प के आगे मुसलमानों की सेना आगे नहीं बढ़ पाती। यदि आगे बढ़ती तो अमित अल के साथ सन्तान उनके ऊपर टूट पड़ती और उन्हें छिन्न-भिन्न करके हरि-ध्वनि का शोर गुंजा देती। यदि कभी किसी सन्तान सेना को यवन-सेना पराजित कर देती तो न जाने कहां से सन्तानों का एक दल आ धमकता और विजेताओं का सिर काटकर फेंक देता और हरि-ध्वनि करता हुआ चला जाता। इस समय में कीर्तिमान्य भारतीय अंग्रेज़-कुल के प्रातः सुर्य वारेन हेस्टिंग साहब भारतवर्ष के गवर्नर जनरल थे।

‘‘आनन्द मठ’’ के पृष्ठ-111 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैं:
‘‘भाई ऐसा भी दिन कभी नसीब में आएगा कि मस्जिद तोड़कर राधा-माधव का मन्दिर बना सकूं?’’
दस हज़ार नर-कंठों का कल-कल रत्र, मधुर वायु से संताड़ित वृक्षों के पत्तों का गर्मर स्वर, रेतीले तटों में बहती नदी की मृदुल सर्र-सर्र ध्वनि, नील आकाश में चन्द्रमा की आभार श्वेत मेघ-राशि, श्यामल धरणी-तले हरित कानन, स्वच्छ नदी, सफेद रेतीले कण, खिले हुए पुष्प! और बीच-बीच में समवेत स्वर में ‘‘वंदे मातरम’ की गूंज।’’

पाठकगण मेरे हमवतन भाईयों सहित आसानी से यह महसूस कर सकते हैं कि वन्दे मात्रम की यह गूंज किस बात की ओर इशारा करती थी। क्या मुसलमानों के नरसंहार के बाद यह जीत का नारा नहीं था? क्या मुसलमानों की मस्जिदों को तहस-नहस करने के बाद यह सफलता के जश्न का संकेत नहीं था?

एक और पैराग्राफ पाठकों की सेवा में:

‘‘आनंद मठ’’ के पृष्ठ-127 पर बंकिम चन्द चटोपाध्याय लिखते हैंः

‘‘उस एक रात में ही गांव-गांव और नगर-नगर में महाकोलाहल मच गया। सभी कह रहे थे ‘‘मुसलमान हार गए, देश दुबारा हिन्दुओं का हो गया है। सभी एक बार मुक्तकण्ठ में हरि-हरि बोलो।’’ गांव के लोग मुसलमान को देखते ही उसे मारने को दौड़ते। कोई-कोई उस रात दल बनाकर मुसलमानों के मुहल्ले में गया और उनके घरों में आग लगाकर सर्वस्व लूटने लगा। कई यवन मारे गए। अनेक मुसलमानों ने दाढ़ी मुंडवा ली और बदन पर मिट्टी मलकर हरिनाम का जाप करना शुरू कर दिया। पूछने पर कहते, ‘‘हम हिन्दू हैं।’’ दल के दल मुसलमान नगर की ओर भागने लगे।

और अब इस नोवेल का अंतिम पैराग्राफ एक बार फिर पाठकों की सेवा में, ताकि समझा जा सके कि इस नाविल के लिखने के पीछे बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय की मानसिकता क्या थी और वन्दे मात्रम से उनका मूल उद्देश्य क्या था।

‘‘सत्यानन्द ने जवाब दिया, ‘‘चलिए, मैं तैयार हूं। मगर हे महात्मन, मेरा एक संदेह दूर कीजिए। मैंने जिस पल युद्ध में जीतकर सन्तान-धर्म को निष्कंटक किया, उसी समय से मुझे प्रत्याख्यान का आदेश क्यों?’’

जो आए थे, वे बोले, ‘‘तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया, मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया। अब तुम्हारा और कोई काम नहीं। अनर्थक प्राणिहत्या की क्या ज़रूरत।’’

‘‘मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया, मगर हिन्दुओं का राज्य तो स्थापित नहीं हुआ। अब भी कलकत्ता में अंग्रेज़ों का राज्य है।

‘‘हिन्दुओं का राज्य अभी स्थापित नहीं होगा- तुम्हारे रहने से अनर्थक नर-हत्या होगी। इसलिए चलो...’’सुनकर सत्यानन्द तीव्र मर्मपीड़ा से कातर हो गए। बोले, ‘‘हे प्र्रभू। अगर हिन्दुओं का राज्य स्थापित नहीं होगा तो किसका राज्य होगा? क्या फिर मुसलमानों का राज्य होगा।वे बोले, ‘‘नहीं, अब अंग्रेज़ों का राज्य होगा। ’’

अब अंत में चन्द पंक्तियां सम्मान के साथ अपने उन भाईयों की सेवा में जिन्होंने वन्दे मात्रम की वकालत करते हुए उस के गाये जाने को राष्ट्रीय दायित्व बताने का प्रयास किया है। इस बात को छोड़ दें कि वह हिन्दु है या मुसलमान, क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के इस नोवेल को पढ़ा है? क्या उन्होंने बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय के जीवन का अध्ययन किया है?

क्या इस उपान्यास के पीछे छुपे उद्देश्य को समझा है? अगर ऐसे हर प्रश्न का उत्तर हां है और फिर भी उनका निर्णय वही है तो फिर मुझे उन लोगों से कुछ नहीं कहना, मगर न्यायप्रिय भारतीयों से अवश्य कहना है कि भारत का हर एक मुसलमान हमारे राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार करता है, इस पर कोई बात नहीं करता, राष्ट्र चिन्ह को दिल की गहराई से स्वीकार करता है कोई बहस नहीं करता, राष्ट्रगान जन गण मन गाने पर गर्व अनुभव करता है।

किसी को कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पंचाग अर्थात कलंडर का कोई विरोध नहीं। राष्ट्रीय पशु के रूप में शेर को स्वीकार करने पर कोई आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय पक्षी मोर को स्वीकार करने पर कोई बहस नहीं, राष्ट्रीय पुष्प अगर कमल है तो है, किसी को आपत्ति नहीं, राष्ट्रीय वृक्ष का तम्ग़ा यदि बरगद के पास है तो यह भी स्वीकार है, राष्ट्रीय फल आम खुशी से स्वीकार है........फिर अगर इन सब के बीच केवल राष्ट्रगीत वन्दे मात्रम पर ही आपत्ति है तो आपत्ति के कारण को भी समझना होगा, ऐसे तमाम कारणों को वास्तविकता के आइने में देखना होगा, पूरी ईमानदारी के साथ राष्ट्रीय हितों, साम्प्रदायिक सौहार्द के महत्व को महसूस करते हुए कोई निर्णय लेना होगा।

मैं आज भी नहीं कहता कि वन्दे मात्रम गाया जाये या न गाया जाये, मैं तो पहले राष्ट्रीय स्तर पर तमाम तथ्यों को जनता के सामने रख देना चाहता हूं और फिर निवेदन वतन के जिम्मेदारों से यह करना चाहता हूं कि अगर यह बहस छिड़ ही गई है तो दोबारा इस पर गौर करें और किसी ऐसे नतीजे पर पहुंचे कि जिससे न किसी की भावनाएं आहत हों, न किसी को शर्मिन्दगी का अहसास हो और न किसी की आस्था को ठेस पहुंचे। यह समय की एक अहम आवश्यकता भी है और वतन से मोहब्बत का तकाज़ा भी।
बातचीत कल भी इसी विषय पर जारी रहेगी.................

Monday, November 16, 2009

और अब होगी बात झारखंड की, वंदेमातरम की और कल्याण की

रांची से रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के प्रकाशन का निर्णय काफी पहले लिया जा चुका था और तमाम तैयारियां पूरी थीं, बस अगर इन्तज़ार था तो बस इस बात का कि मैं वहां पहुंचकर समस्त तैयारियों का जायज़ा ले लूं ताकि प्रकाशन का सिलसिला आरंभ किया जा सके। अतः तुरन्त झारखण्ड की यात्रा का निर्णय लेना पड़ा, विलम्ब अब इसलिए भी संभव नहीं था क्योंकि इस राज्य में भी राजनीतिक जंग का बिगुल बज चुका है और कमोबेश सीधा मुकाबला साम्प्रदायिक शक्तियों और धर्मनिर्पेक्षता के बीच है।

पिछले संसदीय चुनाव के बाद से ही यह महसूस किया जाने लगा है कि रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा लोकतंत्र की सुदृढ़ता, साम्प्रदायिक शक्तियों की हार व धर्मनिर्पेक्ष शक्तियों को सत्ता में लाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता रहा है। बात चाहें महाराष्ट्र, हरियाणा, अरूणाचल प्रदेश की हो या झारखण्ड राज्य के विधानसभा चुनावों की, हमारा मानना है कि लोकतांत्रिक मूल्यों की मज़बूती केवल हमारी ही नहीं बल्कि इस देश की आवश्यकता है, देश की जनता की आवश्यकता है क्योंकि धर्मनिर्पेक्ष राजनीति ही देश के अन्दर साम्प्रदायिक सौहार्द और शांति व एकता की आवश्यकता को पूरा कर सकती है।

साम्प्रदायिक शक्तियां चाहें उनका सम्बन्ध किसी भी धर्म से क्यों न हो, देश के लिए लाभयदायक साबित नहीं हो सकतीं और जात-पात के आधार पर की जाने वाली राजनीति भी देश के लिए हानिकारक है। महाराष्ट्र में हम देख ही रहे हैं कि किस तरह मराठों को भारत से अलग करके पृथक्तवाद की नींव डाली जा रही है, अतः आवश्यक समझा गया कि बिना विलम्ब रांची से रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के प्रकाशन का सिलसिला शुरू कर दिया जाये। हम आशा करते हैं कि इंशाअल्लाह यह लेख जब आपके हाथों में होगा तो झारखण्ड की जनता भी अपनी धरती से संबंधित लिखे गये इस लेख को उसी समय पढ़ रही होगी।

यूं तो मेरा यह सफर रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के प्रकाशन के सम्बन्ध में ही था परन्तु सफर के बीच झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी से शाम की चाय पर एक महत्वपूर्ण भेंट और फिर केन्द्रीय मंत्री श्री सुबोधकांत सहाय के साथ खाने पर की गई बातचीत बहुत महत्वपूर्ण रही है और जिस तरह राज्य के तमाम जिम्मेदार राजनीतिज्ञों की मौजूदगी में खाने की मेज़ पर सुबोधकांत सहाय साहब ने चुनाव घोषणा पत्र को अंतिम रूप दिये जाने से पूर्व इस लेखक से विचार विमर्श को महत्व दिया तो मुझे लगा कि अल्लाह का शुक्र है कि अब ऊर्दू पत्रकारिता एक बार फिर उस रास्ते पर नज़र आ रही है जहां आज़ादी के सफर में उसने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

क्योंकि अभी यह चुनाव घोषणा पत्र जनता के सामने नहीं आया है, इसलिए आज के लेख में, मैं इसका विवरण देना नहीं चाहता, बस इतना ही कहना चाहता हूं कि अल्पसंख्यकों की आवश्यकताओं का विशेष ध्यान रखा गया है और आशा की जा सकती है कि अगर उन्हें सत्ता में आने का अवसर मिला तो इसको अमली जामा पहनाने का प्रयास भी किया जायेगा। दूसरी स्थिति में किसी भी तरह की कोताही या अनदेखा किये जाने पर रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा अपनी जिम्मेदारियों से पीछे नहीं हटेगा, इसलिए आज ही यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि बात केवल वह ही की जाये जिसे पूरा भी किया जा सके। हमारा परामर्श अपनी जगह, आपकी राजनीति के तकाज़े अपनी जगह।

झारखण्ड राज्य के सफर के दौरान एक और खूबसूरत और उल्लेखनीय बात यह रही कि ‘‘दायरा’’ नाम का एक संगठन, जो अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर 15 नवम्बर को एक कांफ्रेंस आयोजित कर रहा था उसने मुझे भी विचार प्रकट करने का निमंत्रण दिया और जब लगा कि झारखण्ड की जनता के बीच विशेष रूप से अपनी कौम के बीच जाकर उनके हालात को समझने का एक अवसर है मेरे पास, अतः मुझे अवश्य जाना चाहिए। यूं भी ज़िलहिज के महीने के आगमन के समय अगर मैं मदीने की गलियों में न जा सका तो कम से कम उस गली में जाने का अवसर तो न छोड़ा जाये जिस गली में मदीना मस्जिद मौजूद है।

अतः 15 नवम्बर की सुबह जब मैं हेलीकाप्टर के द्वारा डाल्टनगंज एयर स्ट्रिप पर उतरा तो आशा के विपरीत बहुत से लोग फूलों के साथ मेरी प्रतीक्षा में थे। आशा के विपरीत इसलिए कि प्लामू, डाल्टनगंज की धरती पर कदम रखने का यह मेरा पहला अवसर था जहां मैं सीधे किसी को जानता भी नहीं था और बड़ी संख्या में मेरा अखबार पटना से छपकर यहां पहुंचता होगा, इसकी भी आशा कम ही थी, इसलिए कि यह इलाका नक्सलवाद से प्रभावित है और सड़क के द्वारा लम्बी यात्रा आसान नहीं। बहरहाल मेरा लिये यह बेहद प्रसन्नता का अवसर था कि मैं उस धरती पर खड़े होकर अपनी बात कह रहा था जहां से शहीद अश्फाक उल्ला खां ने आज़ादी की जंग आरंभ की थी।

मैंने अपने भाषण में जो कुछ कहा इसका उल्लेख तो मैं आगामी किस्तों में करूंगा, लेकिन वह चन्द वाक्य जिनका सम्बन्ध ‘‘वन्दे मात्रम’’ से था। मैं अभी लिखना चाहूंगा, इसलिए कि मैंने अपने पिछले लेख में जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के ३० वें अधिवेशन के 16वें प्रस्ताव पर अपनी बात को अधूरा छोड़ा था और उसके बाद मैं जिस प्रस्ताव पर विस्तृत बहस का इरादा रखता हूं वह ‘‘वन्दे मात्रम’’ का विषय ही है लेकिन ऐसा भी न लगे कि 16वें प्रस्ताव पर की जाने वाली बात को बीच में ही अधूरा छोड़ दिया गया, अतः आज के इस लेख में चन्द वाक्य उसी सिलसिले में लिखकर इस विषय पर अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा।

16वें प्रस्ताव का सम्बन्ध शिक्षा और शैक्षणिक संस्थाओं से था और बातचीत भी इसी विषय की रोशनी में थी। केवल एक और अंतिम बात, इस बड़े अधिवेशन में चन्द लोग स्टेज पर थे, अर्थात ऊपर मंच पर तशरीफ रखते थे और जो इस अधिवेशन में शिरकत कर रहे थे उनमें बड़ी संख्या यदि मेरा अनुमान गलत नहीं है तो 90 प्रतिशत से अधिक सम्मानित अतिथियों की संख्या उन्हीं दीनी मदरसों से सम्बन्ध रखने वाली थी जो या तो मदारिस में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं या दीनी तालीम दे रहे हैं, मगर वह सब नीचे की कुर्सियों पर थे, ऊपर बैठे चन्द विशेष और उल्लेखनीय लोगों में कुछ को छोड़कर वह ही थे, जिन्होंने सरकारी , गैर सरकारी संस्थाओं में शिक्षा प्राप्त की है।

उनमें हमारी कौम से सम्बन्ध रखने वाले वह महत्वपूर्ण व्यक्ति भी थे, जो बड़े बड़े पदों पर होने के साथ साथ शिक्षा क्षेत्र के दायित्वों से भी जुड़े हैं। न केवल यह कि उन्होंने शिक्षा ऐसी संस्थाओं में प्राप्त की, जिन को सरकारी गैर सरकारी श्रेणी में रखा जा सकता है, बल्कि उनके संरक्षण में चलने वाली शिक्षा संस्थाओं में भी लड़के-लड़कियों को एक साथ पढ़ाए जाने की व्यवस्था है। बहरहाल मैं तो केवल इतना चाहता हूं कि मेरी कौम के नौजवान लड़के-लड़कियां पूर्ण रूप से धार्मिक शिक्षा भी प्राप्त करें और दुनियावी शिक्षा में भी पारंगत हों ताकि कम से कम उन्हें तो ऊपर मंच पर बैठने के लिए जगह मिल सके।

भले ही उनके बुजुर्गों ने नीचे बैठकर जिन्दगी गुज़ार दी हो और अब ‘‘वन्दे मात्रम’’ के विषय पर धनबाद के भाषण में बंकिम चन्द चटोपाध्याय के उपन्यास ‘‘आनन्द मठ’’ की वह चन्द पंक्तियां जो लेखक की मानसिकता को भी स्पष्ट करती हैं और इस सच्चाई को भी कि आखिर मुसलमान इसे क्यों नपसन्द करते हैं और क्या हिन्दू भाईयों को भी मुसलमानों की सोच से सहमत नहीं होना चाहिए।


‘‘सत्यानन्द ने जवाब दिया, ‘‘चलिए, मैं तैयार हूं। मगर हे महात्मन, मेरा एक संदेह दूर कीजिए। मैंने जिस पल युद्ध में जीतकर सन्तान-धर्म को निष्कंटक किया, उसी समय से मुझे प्रत्याख्यान का आदेश क्यों?’’


जो आए थे, वे बोले, ‘‘तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया, मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया। अब तुम्हारा और कोई काम नहीं। अनर्थक प्राणिहत्या की क्या ज़रूरत।’’

‘‘मुसलमानों का राज्य ध्वस्त हो गया, मगर हिन्दुओं का राज्य तो स्थापित नहीं हुआ। अब भी कलकत्ता में अंग्रेज़ों का राज्य है।

‘‘हिन्दुओं का राज्य अभी स्थापित नहीं होगा- तुम्हारे रहने से अनर्थक नर-हत्या होगी। इसलिए चलो...’’सुनकर सत्यानन्द तीव्र मर्मपीड़ा से कातर हो गए। बोले, ‘‘हे प्र्रभू। अगर हिन्दुओं का राज्य स्थापित नहीं होगा तो किसका राज्य होगा? क्या फिर मुसलमानों का राज्य होगा।

वे बोले, ‘‘नहीं, अब अंग्रेज़ों का राज्य होगा। ’’

मैंने वन्दे मात्रम पर जुबान खोलने का सहास उस समय तक नहीं किया जब तक कि मैंने बंकिम चन्द के इस उपन्यास ‘‘आनन्द मठ’’ का पहली पंक्ति से अंतिम पंक्ति तक का ध्यानपूवर्क अध्ययन नहीं कर लिया और अब मुझे लगता है कि मैं इस विषय पर लिख भी सकता हूं और बोल भी सकता हूं आज के इस लेख के साथ मैं सम्मिलित कर रहा हूं झारखण्ड डाल्टनगंज की जनता के भावनाओं में डूबे हुए वह शब्द और एक कविता जिससे समझा जा सकता है कि आपके प्रिय रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा का पाठकों के दिल में क्या स्थान हैः

सेवा में...............................समुह सम्पादक, रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा

श्रीमान ,
सबसे पहले हम झारखंड की जनता साधारणतः और इस छोटे राज्य के छोटे शहर डाल्टनगंज की जनता विशेषतः इस धरती पर आपका पुरतपाक स्वागत करती है। हम आपकी सेवा में धन्यवाद प्रस्तुत करते हुए कृतज्ञ भी हैं कि आप जैसे व्यस्तम पत्रकार और विश्व स्तर की स्थितियों पर गहरी निगाह रखने वाले व्यक्ति ने अपनी पत्रकारिता की व्यस्तताओं के बावजूद अपने बहुमूल्य समय में से थोड़ा सा समय हमें देने की कृपा की, और यह थोड़ा समय यहां की जनता के लिए इतना बहुमूल्य है कि इसके लिए धन्यवाद के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता।

बेबाक कलम के सिपाही! आपने अपने कलम का प्रयोग पत्रकारिता के उस स्थान पर किया है जहां आज तक उर्दू पत्रकारिता पहुंच नहीं सकी थी, और माशाअल्लाह आप ने अपनी पत्रकारिता को जीवित रखने के लिए न तो उसका सौदा किया और न ही किसी डर से काम किया। आपके लेख पढ़कर इस समय भारतीय मुसलमानों की राजनीतिक, समाजिक और शैक्षणिक चेतना में परिवर्तन हो रहा है ये सब आपके बेबाक कलम की देन है।

पत्रकारिता के गौरव! उर्दू पत्रकारिता का भारत में मौलाना मोहम्मद अली जौहर, मौलाना ज़फर अली खां और मौलाना अबुल कलाम आजाद के बाद दम घुटता नज़र आ रहा था। विशेषतः भारत की आज़ादी के बाद उर्दू पत्रकारिता ने कोई बड़ी क्रांति नहीं पैदा की और न ही किसी चेतना के साथ उर्दू जनता को जागृत करने का कारनामा अंजाम दिया। मगर आपको उपरोक्त तीनों महान पत्रकारों के बाद हमें पत्रकारिता का गौरव कहने में कोई झिझक नहीं। आपकी उर्दू पत्रकारिता ने भारत की तमाम भाषाओं की पत्रकारिता को एक नई डगर दी। यह आपका महान कारनामा है।

हमदर्द-ए- क़ौम व मिल्लत! आप अपनी पत्रकारिता की व्यस्तताओं के बावजूद घूम घूम कर भारत के कोने कोने में फैले मुसलमानों की शोचनीय स्थिति का जायजा लेकर जिस मिल्ली हमदर्दी व राष्ट्रीय सौहार्द का नमूना पेश कर रहे हैं, यह आने वाले समय में भारतीय मुसलमानों के लिए प्रकाश स्तंभ साबित होगा। हमारे पास शब्द नहीं कि आपकी शान के अनुरूप मुबारकबाद के शब्दों के साथ अपने हालात को आपके सामने रख सकें। मगर आपकी दिव्यदृष्टि ऐसी है कि आप संक्षिप्त जायजे में भी बहुत दूर तक देख लेते हैं और इसका प्रकटीकरण आपका कलम कागज पर करता रहा है।

हम इतना ही निवेदन करेंगे कि आप अपनी इस दिव्यदृष्टि से झारखंड की मुस्लिम जनता की बेचारगी, बेबसी और पिछड़ेपन का भी जायजा लें और उसकी शोचनीय स्थिति दूर करने के लिए ठोस कार्यक्रम के साथ-साथ कुछ न कुछ दृष्टिकोण दें, ताकि हम झारखंड और डाल्टनगंज की पिछड़े हुई जनता अपनी चेतना जागृत करके आपके बताये हुए रास्ते पर चल सके।

एकबार फिर हम आपके आगमन का स्वागत ही नहीं बल्कि धन्यवाद भी करते हैं। इस आशा के साथ हम अपनी बात समाप्त करते हैं कि आप हमारी आवाज़ बनकर अपनी पत्रकारिता में इसका प्रकटीकरण अवश्य करेंगे।
मिनजानिब
‘‘दायरा’’ झारखंड, (पलामू)


सेवा में ..........................................
ग्रुप एडीटर रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा


गुलहा-ए- अकीदत

जो करता तज़करा है हर घड़ी सिदक व सदाकत का

लिए है मर्तबा आली जो दुनिया-ए- सहाफत का

सबक देता है जो सब को अखूवत का, मुहब्बत का

है जिसके दिल में दर्द ओ ग़म हमेशा क़ौम ओ मिल्लत का

निगाहे इल्म व दानिश मे जो अकरम हैं, मुअज्ज़म हैं

बसद इखलास करते आपका हम खैर मक़दम हैं

अदाए मुशफेक़ाना, पुरअसर तक़रीर है जिसकी

ज़बां में लज्जते शीरीं, बयां तासीर है जिसकी

अदूए हक़ की ख़ातिर खमा एक शमशीर है जिसकी

बहुत बेदाग़ और बेबाक हर तहरीर है जिसकी

बयाने ख़ैर से करने हमें जो ताज़ा दम आया

पलामू की जमीं पर वो शहंशाहे कलम आया

बफैजे रब सरापा इल्म व दानिश का जो पैकर है

मिसाले बदरे कामिल जो सहाफत के उफक़ पर है

कि जिसकी रौशनी से तीरगीए शब मुनव्वर है

हवाए तुन्द में रौशन चिरागे़ अज़्म लेकर है

हवा का रूख बदल दे जो, क़लम में ऐसी कुदरत है

कि जिसके दम से मंज़र नाज़िशे उर्दू सहाफत है।

नतीजए फिक्र .............................मकबूल मंज़र
मुस्लिम नगर, डाल्टनगंज, पलामू (झारखंड)ः822101
1-अधिक दया करने वाला, 2-बहुत बड़ा, 3-बहुत खुलूस के साथ, 4-स्वागत, 5-मीठा स्वा6-प्रभावकारी, 7-प्रेमपूर्ण अदा, 8-तेज़ हवा, 9-रात का अन्धेरा, 10-प्रकाशमय

Tuesday, November 10, 2009

एक नज़र अल्लामा इक़बाल की शिक्षा और शैक्षिक संस्थानों पर भी


9 नवम्बर मेरे बेटे सुब्रत अज़ीज़ का जन्मदिवस है। 8 नवम्बर की रात 12 बजकर 1 मिनट पर जब मैं उसे जन्मदिन की मुबारकबाद दे रहा था तो मैंने उससे पूछा कि क्या तुम जानते हो क़ौमी तराना ‘‘सारे जहां से अच्छा हिन्दुसतां हमारा’’ किसने लिखा है। उसने बताया ‘‘हां, अल्लामा इकबाल की’’, फिर मैंने पूछा ‘‘क्या तुम्हें उनके जन्म की तारीख मालूम है और क्या तुम उनके बारे में इससे अधिक कुछ जानते हो?’’ वह खामोश रहा। दरअसल उस रात मैं अल्लामा इकबाल से सम्बन्धित मोहम्मद बदीउज़्ज़मा ख़ां (गया) का रिसर्च पेपर पढ़ रहा था।

मुझे नहीं मालूम यह लेखक की थेसिस का एक भाग था या उनके अध्ययन पर आधारित लेख, बहरहाल यह इस क़दर मालूमाती था कि मुझे लगा, इसे रिसर्च पेपर का नाम दिया जा सकता है।

जब मैंने अपने बेटे को बताया कि अल्लामा इकबाल का जन्म दिवस 9 नवम्बर है, तो वह बहुत खुश हुआ। मैं चाहता हूं कि अल्लामा इकबाल की जिन्दगी और उनकी शिक्षा और शिक्षण संस्थानों के बारे में जो कुछ अपने बेटे को बताया, वह सब हमारे नौजवान लड़के लड़कियां भी जानें, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी इससे मार्गदर्शन हासिल कर सके। यूं भी आजकल मैं जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के 30वें अधिवेशन के 16वें प्रस्ताव, जिसका सम्बन्ध शिक्षा तथा शिक्षण संस्थानों से है, पर लिख रहा हूं कल का लेख भी इसी विषय पर आधारित होना चाहिए था, लेकिन महाराष्ट्र विधानसभा में मुजाहिदे हिन्दी अबू आसिम आज़मी के साथ जो घटना घटित हुई, उसके लिए एक दिन की प्रतीक्षा भी उचित नहीं लगी।

हालांकि ऐन वक्त पर विषय को बदल देना बहुत आसान नहीं था, इसलिए कि शाम को जन्मदिन के संक्षिप्त समारोह में कुछ मेहमानों को भी आमंत्रित किया गया था और कम से कम आज की शाम और रात का कुछ समय मैंने अपने परिवार के साथ बिताना तय किया हुआ था, फिर भी मेरे दायित्व ने मुझे यह आभास दिलाया कि अबू आसिम आज़मी के साथ जो कुछ हुआ, उसे आज ही लिखना और वन्दे मातरम के प्रश्न पर मुसलमानों को निशाना बनाकर मुस्लिम विरोधी लोग और संस्थाएं जो तूफान उठा रही थीं, समय पर उन्हें यह आइना दिखाना भी आवश्यक है कि अब राष्ट्रभाषा के अपमान पर वह क्या कहेंगे? क्या अब भी उनके शब्दों की धार उतनी ही तीव्र होगी, जितनी कि राष्ट्रगीत के मामले में थी, या फिर अब मसलेहत आड़े आएगी?

लिहाज़ा कल का लेख ‘‘यह थप्पड़ अबू आसिम आज़मी पर नहीं राष्ट्रीय भाषा पर था’’ इसी विषय पर था। अब चर्चा श्रृंद्धाजलि के साथ, अत्यन्त संक्षिप्त शब्दों में अल्लामा इकबाल की शिक्षा और शिक्षण संस्थानों की। यह इसलिए भी समय पर है कि अगर हमारे युवक सरकारी और गैर सरकारी पाठशालाओं के धर्म विरोधी वातावरण से भयभीत होकर यह सोचने लगें कि मदरसे तो लगभग 4 प्रतिशत शिक्षा की आवश्यकता ही पूरी कर पा रहे हैं, अगर 96 प्रतिशत छात्र-छात्राए अब नए अस्तित्व में आने वाले धार्मिक शैली के संस्थानो से पहले शिक्षा ग्रहण करें तो कहां करें? तो हमारा सुझाव है कि वह अल्लामा इकबाल के जीवन को शिक्षा ग्रहण करने के मामले में मार्गदर्शन बनाएं और निर्भय होकर आगे बढ़ें।

सड़क पर निकलने से दुर्घटना का शिकार हो सकते हैं, इस भय से स्वयं को घर की चार दीवारी में बन्द तो नहीं किया जा सकता। हां सावधानी जरूरी है।

16 वर्ष की आयु में इकबाल ने फस्र्ट डिवीज़न से मैट्रिक पास किया और इण्टरमीडिएट स्काच मिशन स्कूल से पास किया। जब अल्लामा इकबाल ने स्काच मिशन कालेज स्यालकोट में प्रवेश प्राप्त किया तो आपके पिता ने आपसे वादा लिया कि तुम शैक्षणिक जीवन में सफल होने के बाद अपने जीवन को इस्लाम के लिए समर्पित कर दोगे। इक़बाल इस संकल्प पर जीवन भर कायम रहे। 1897 में इकबाल ने पंजाब यूनिवर्सिटी से बी.ए. पास किया और अरबी विषय में स्वर्ण पदक प्राप्त किया। उसी साल एम.ए. (दर्शनशास्त्र) में प्रवेश लिया, जहां प्रोफेसर टी.डब्लयू अर्नाल्ड से सम्बन्ध स्थापित हुए। 1899 में एम.ए. की परीक्षा दी और पंजाब भर में प्रथम आए।

फरवरी 1900 को पहली बार इकबाल ने अपनी नज़्म ‘‘नाला-ए-यतीम’’ अंजुमन के मंच से गाकर सुनाई तो सुनने वाले स्तब्ध रह गये। यह दिल को छू लेने वाली नज़्म इतनी लोकप्रिय हुई कि अंजुमन की सभाओं में लोग इकबाल को सुनने के इच्छुक रहा करते थे, अल्लामा अपनी प्रभावकारी नज़्मों से सबका दिल जीत लेते थे ‘‘हिमालय’’ और ‘‘तराना-ए-हिन्दी’’ उसी ज़माने की लोकप्रिय नज्में हैं, जो उन्हीं जलसों में सुनाई गईं। जलसों की लोकप्रियता और सभाओं के महत्व का अन्दाज़ा इससे होता है कि एक जलसे में मौलाना हाली, डाक्टर नज़ीर अहमद देहल्वी, मिर्ज़ा असर गोरगानी, मियां सर मोहम्मद शफी, सर शेख अब्दुल क़ादिर, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, ख्वाजा हसन निज़ामी जैसे महान व्यक्ति उपस्थित थे। राजकीय कालेज से शिक्षा पूरी करके इकबाल सितम्बर 1905 को लाहौर से यूरोप रवाना हो गये।

लन्दन पहुंचकर इकबाल ने कैम्बरिज यूनिवर्सिटी के ट्रीनिटी कोंलेज में प्रवेश लिया, जहां के नियमों के अनुसार इकबाल को दोबारा बी.ए. करना पड़ा। यहां प्रोफेसर मैक.टी. गे्रट से इकबाल ने बहुत कुछ सीखा। उसके बाद इकबाल लन्दन के मशहूर कालेज ‘‘लिंकनस इन’’ में कानून की शिक्षा प्राप्त करने लगे। यह वही कालेज है जिसमें कायद-ए-आज़म ने कानून की शिक्षा प्राप्त की थी। उसके बाद इकबाल पी.एच.डी. के लिए जर्मनी गये और उसके लिए उन्होंने ‘‘फलसफा और तसव्वुफ’’ विषय चुना।

जर्मनी में निवास की इकबाल की एक विशेषता यह है कि उन्होंने केवल तीन महीने में जर्मन भाषा में इतनी योग्यता प्राप्त कर ली कि पी.एच.डी. की डिग्री के लिए मौखिक इंटरव्यू जर्मन भाषा ही में दिया और म्यूनिख़ यूनिवर्सिटी से दर्शनशास्त्र में डाक्ट्रेट की डिग्री प्राप्त की उसके बाद लन्दन वापस आ गये। 1 जनवरी 1923 को इकबाल को सर की उपाधि मिली। पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के कुछ वर्ष पूर्व 21 अप्रैल 1938 को अल्लामा इकबाल ने इस दुनिया में अंतिम साँस ली। उनके द्वारा क़ौमी तराना ‘‘सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा’’ लिखने के बावजूद, पाकिस्तान समर्थक होने पर चर्चा फिर कभी।

बहरहाल इरादा था कि आज का लेख 30वें अधिवेशन के 16वें प्रस्ताव से जुड़ा होगा, मगर महाराष्ट्र विधानसभा में राष्ट्रभाषा का जो अपमान किया गया है उस पर भी नई स्थितियों की रोशनी में बात की जायेगी, मगर शायद आज फिर जगह कम पड़ जाये, इन दोनों विषयों पर अपनी बात कहने के लिए, क्योंकि कल की व्यस्तता ने मुझे इतना अवसर नहीं दिया कि मैं अपनी डाक, जिसमें ई-मेल पर प्राप्त होने वाले पत्र भी शामिल थे, का अध्यन कर सकता।

लिहाज़ा आज कुछ समय निकालकर जब मैं उन सब पत्रों पर नज़र डाल रहा था तो अपने ई-मेल की डाक में मुझे जनाव अज़ीमुल्लाह सिद्दीकी कासमी का पत्र भी प्राप्त हुआ, लिहाज़ा मैं समझता हूं कि इस पत्र को हूबहू प्रकाशित कर दिया जाये, हां मगर मैंने उसमें एडिटिंग के नाम पर इतना अवश्य किया है कि उन यूनिवर्सिटियों के नामों को हटा दिया है, जिनका उल्लेख किया गया है, वह इसलिए कि सम्बन्धित संस्थान तथा वहां शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्र-छात्राओं के लिए पीड़ा पहुंचाने वाला और आपत्तिजनक न हो और वह पत्र लिखने वाले से नाराज़ न हो जाएं और हां मैं इस सिलसिले में लिखे गये अपने उस आपत्तिजनक शब्द ‘‘तालिबानी’’ को वापस लेता हूं बल्कि माफी चाहता हूं ऐसे किसी भी वाक्य के लिए, जिससे किसी की भावनाओं को ठेस पहुंची हो, परन्तु निवेदन बस इतना सा है कि हम सबकी निगाह में कौम का सर ऊंचा रखने और आने वाली पीढ़ियों का भविष्य निजी सोच और स्वाभिमान से बहुत ऊपर हो। और अब वह पत्र.........

जनाब अज़ीज़ बर्नी साहब! अस्सलामुअलेकुम
सबसे पहले मैं यह बात स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के 30वें अधिवेशन के विभिन्न प्रस्तावों पर चर्चा का जो सिलसिला आपने आरंभ किया है और उस सम्बन्ध में विभिन्न बिन्दुओं तथा पक्षों को उजागर करने का प्रयास किया है उसके लिए आप बधाई के पात्र हैं। एक अच्छे और लोकतांत्रिक समाज में इस तरह की चर्चा और टिप्पणियां अच्छी निगाहों से देखी जानी चाहिएं, विशेष रूप से उन समस्याओं पर जिनका सम्बन्ध पूरे समुदाय से हो और पूरा समाज ऐसी गलतियों से खंडित और कभी कभी अपने अस्तित्व की रक्षा की समस्याओं से जूझ रहा हो तो उन गलतियों को चिन्हित किया जाना आवश्यक है।

हम सब चूंकि मुसलमान हैं, हमारे सामने कुरआन, हदीस और अल्लाह के रसूल स.अ.व की जिन्दगी है, उनके स्पष्ट संदेश हैं, उन संदेशों के अनुसार ही जीवन यापन करने के हम पाबन्द हैं, हमारे जीवन का कोई भी क्षेत्र अगर इस्लामी शिक्षा के विरूद्ध है तो हमें अल्लाह की पकड़ से गाफिल नहीं रहना चाहिए। जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के सामने भी यही पहलू तमाम पहलुओं से ऊपर है। अपने प्रस्तावों में जमीअत ने जहां आधुनिक शिक्षा की आवश्यकता पर प्रकाश डाला है वहीं मुसलमानों से अपील की है कि वह ऐसे संस्थान स्थापित करें, जहां धामिर्क वातावरण में शिक्षा दी जा सके। जमीअत ने आधुनिक संस्थानों को धर्म विरोधी घोषित नहीं किया है बल्कि उन संस्थानों के वातावरण को धर्म विरोधी करार दिया है, जहां पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण किया जाता है।

बर्नी साहब! कभी ........... विश्वविद्यालय और ........... विश्व विद्यालय का वातावरण देख कर आएं, किस तरह बेहयाई की बीमारी आम है, कम से कम कपड़ों में नग्न युवा पीढ़ी की बहुलता, खुले तौर पर पे्रम का इज़हार यहां तक कि दिन और रात का अधिकांश हिस्सा शिक्षा के अलावा आपस की गपशप और यहां तक कि किसी पार्क में जाकर शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करने की महामारी क्या धर्म विरोधी नहीं है? इस्लाम में सम्मान को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। मान सम्मान की सुरक्षा न केवल इस्लामी शिक्षा का अंग है बल्कि भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति में भी इसको अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।

कभी आप उन रिपोर्टों को भी पढ़िए जिनमें बड़ी बेशर्मी के साथ उन बेशर्म संस्थानों की 33 प्रतिशत लड़कियां अपने दोस्तों के साथ शारीरिक सम्बन्धों तक को भी मीडिया के सामने स्वीकार करती नज़र आएंगी, अगर यह गैर इस्लामी वातावरण नहीं है, तो फिर आप ही बतला दें कि इस सिलसिले में इस्लाम का मार्ग दर्शन क्या है, जमीअत ने उन संस्थानों में मुसलमानों को जाने से मना नहीं किया है, बल्कि स्वयं मुसलमानों से अपील की है कि वह धार्मिक वातवरण के अधुनिक संस्थान स्थापित करें। मुझे इस बात पर बहुत अफसोस है कि आपने इस्लामी वातावरण पर आपत्ति जताने में इस बात की भी परवाह नहीं की कि जो आपत्ति इस्लाम विरोधी किया करते हैं वही आपने कर डाली।

इस्लामी वातावरण में शिक्षा की अपील को तालिबानी व्यवस्था बतलाकर, इस तरह की आशा आपसे एकदम नहीं थी, आप तो मुसलमानों के सम्मान के लिए संघर्ष करते रहे हैं, इस्लाम का सर ऊंचा रखने के लिए कलम उठाया है, इसलिए इस तरह की बात अत्यन्त खेदपूर्ण है। तालिबान तो कल की पैदावार है और इस्लाम के अस्तित्व को 1500 साल बीत चुके हैं, संभव है कि तालिबान ने धार्मिक शिक्षाओं को आम करने का प्रयास किया हो मगर उनकी कार्यशैली गलत थी, कुछ लोगों की गलतियों की वजह से हर कोशिश को तालिबानी व्यवस्था करार देना यह अमरीकी जुबान है, आर.एस.एस. के बात करने की शैली है। आपके मुंह से यह शोभा नहीं देता।

मैं प्रोफेसर अख्तरउल वासे साहब का सम्मान करता हूं मगर उन्होंने अकारण अपनी बात का फैलाया है, उन्होंने जिस पहलू पर रोशनी डाली है उसका इस प्रस्ताव से कोई लेना देना नहीं है। प्रस्ताव में न तो गैर मुस्लिम से पढ़ने को मना किया है और न आधुनिक शिक्षा को नुकसान दायक करार दिया है बल्कि एक अन्य प्रस्ताव में मुसलमानों द्वारा स्थापित किये गये स्कूलों के लिए सरकार से समान पाठयक्रम बनाने की अपील की है, इसलिए प्रोफेसर साहब की बातों को अनुचित मतभेद के प्रयास की दृष्टि से देखा जा सकता है। मगर आपने इस्लामी वातावरण में शिक्षा को तालिबानी व्यवस्था से जोड़ने का प्रयास किया है, वह अत्यन्त खेदपूर्ण है, इस्लाम की व्यवस्था का तालिबानी व्यवस्था से कोई सम्बन्ध नहीं है।

इस्लाम एक कदीम मज़हब है, जबकि तालिबान एक सुधारवादियों के कट्टरपंथी गिरोह का नाम है। जबकि इस्लाम में हिंसा की कोई गुंजाइश नहीं है। मुझे आशा है कि आप आपना यह शब्द वापस ले लेंगे।

नोट: परम्परा के अनुसार मेरे इस लेख को प्रकाशन योग्य समझकर अपने कालम में स्थान अवश्य देंगे, जहां आप अपने समर्थन में अख्तर साहब को जगह दे रहे हैं तो पत्रकारिता की निष्पक्षता के अनुसार इसे भी प्रकाशित करेंगे। किसी तकलीफदेह बात के लिए क्षमा चाहता हूं।

अज़ीमुल्लाह सिद्दीक़ी क़ासमी, महपतिया, मधेपुर, मधुबनी, बिहार