कोई अन्तर नहीं पड़ता अगर समय और परिस्तिथियां अनुमति दें तो दुनिया के किसी कोने में भी बैठ कर अपने आन्दोलन को जारी रख सकते हैं। मैं इस समय वाशिंगटन में हूं और रात के साढ़े तीन बजे हैं। जब मैं इस विषय पर आज प्रकाशित किए जाने वाले लेख के यह प्रारंभिक वाक्य लिख रहा हूं। जिस समय मैं भारत से रवाना हुआ मेरे क़िस्तवार कॉलम ‘‘आज़ाद भारत का इतिहास’’ में ‘वंदे मातरम्’ पर बहस जारी थी यह बहस अभी जारी रहनी है, इसलिए कि इस पर विवाद की शुरूआत तो 1937 में ही हो गई थी, मगर संघ परिवार वाले आज़ादी के बाद से ही इसे अपना एक प्रभावी हथियार मानते रहे हैं, जिससे जब उनका दिल चाहता है मुसलमानों को घायल कर देते हैं।
ख़ुदा जाने किसने उन्हें यह अधिकार दिया कि कोई एक गीत भी देश से प्रेम की कसौटी हो सकता है और इस गीत का निर्णय भी उनके द्वारा ही किया जाएगा। क्योंकि कि इस बार देश की उस महान संस्था दारुल उलूम देवबंद को निशाना बनया गया, जिसने स्वाधीनता संग्राम में महम्वपूर्ण भूमिका निभाई तो हमें लगा कि यह बहस उठ ही गई है तो अब इसे किसी विशेष नतीजे पर पहुंचना चाहिए, अतः सबसे पहले हमने अपने श्रृंखलाबद्ध लेख में बंकिम चंद उपाध्याय के उपन्यास ‘‘अनंद मठ’ के महत्वपूर्ण अंश शामिल किए, ताकि हिन्दू भाई भी जानें कि क्या हिन्दुओं के लिए भी इसको देश से प्रेम की कसौटी ठहराया जाना चाहिए, जबकि अंग्रेज़ सरकार से प्रेम और उनके सत्ता में आने को सफलता उपन्यासकार का इस उपन्यास में उद्देश्य नज़र आता है।
पिछले दो दिन के लेखों में आपने आरिफ़ मो॰ ख़ान के वंदे मातरम् पर लिखे गए लेख और ‘वंदे मातरम्’ का उर्दू अनुवार पढ़ा है, मैंने इसमें किसी भी तरह की एडिटिंग नहीं की, इसलिए कि मैं चाहता था कि उन ज़िम्मेदार लोगों के दृष्टिकोण शब्दशः आप तक पहुँचें। आज भी इस पर कोई टिप्पणी नहीं इसलिए कि आज मैं स्वर्गीय प्रभाष जोशी का इसी विषय पर लिखा गया लेख जिसका शीर्षक है ‘‘यह राष्ट्रीयता की कसौटी नहीं’’ मगर मैंने इसे अपने क़िस्तवार काॅलम में मामूली से संशोधन के साथ ‘‘वंदे मातरम्’’ राष्ट्रीयता की कसौटी नहीं है’’ के शीर्षक के साथ पेश किया है। यह लेख स्वयं अपने आप में संघ परिवार के विचारों की क़लई खोलता है। देखें स्वर्गीय प्रभाष जोशी के क़लम से लिखा गया एक उच्च कोटि का
लेखः
जिन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी का राज है और जहां वह दूसरी पार्टी के साथ राज कर रही है, वहां की सरकारों ने ‘वंदे मातरम्’ गाने को अनिवार्य कर दिया था। लेकिन जहां कांग्रेस और दूसरी पार्टियों का राज है वहां उसके गाने न गाने की छूट थी। जिन भाजपाई सरकारो ने इसे अनिवार्य किया वह भी दावा नहीं कर सकतीं कि जो मुसलमान, ईसाई और सिख इसे गाना नहीं चाहते थे उनसे भी वंदे मातरम् गवा लिया गया है।
आदमी अगर ऐसा ही मशीनी होता और तो और गाना रिकार्ड बजवाने जैसा मेकेनिकल काम होता तो ना तो महान गीत होते ना महान संगीत। अपनी माँ, मातृभूमि और देश से आप सहज और स्वैच्छिक प्रेम करते हैं, कोई करवा नहीं सकता। सहजता और स्वैच्छिकता संस्कृति की महान उपलब्धियों की कुंजी है। जो राष्ट्र अपने नागरिकों की सहजता और स्वैच्छिकता का आदर करता है उन पर कोई चीज़ थोप कर उन्हें मजबूर नहीं करता सभ्यता और संस्कृति में वह उतना ही विकसित होता है।
कोई प्रेरित व्यक्ति जितने बड़े काम कर सकता है मजबूर आदमी नहीं कर सकता है। अगर इस सत्य को आप समझते हैं तो लोगों को प्रेरित करेंगे, जो वे मन से और सहजता से कर सकते हैं, उसे करने की छूट देंगे और इस स्वतंत्र और स्वैच्छिकता वातावरण में जो प्राप्त होगा उसका गौरव गान करेंगे। वंदेमातरम् के राष्ट्रगीत होने की जैसे भी और जैसी भी मनाई गई शताब्दी पर अगर देशप्रेम, शहीदों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के प्रति कृतज्ञता और समर्पण को ऊँचा उठा देने वाली भावना सर्वव्यापी नहीं हुई तो दोष उन्हीं का है जो इसका गाना अनिवार्य करना चाहते थे।
यह पहली बार नहीं हुआ है कि मुसलमानों के एक तबक़े ने वंदे मातरम् के गाने को इस्लाम विरोधी कहा हो। वैसे ही यह भी पहली बार नहीं हुआ है कि संघ परिवारियों ने इसके गाने को मुसलमानों के लिए अनिवार्य करने का हल्ला मचाया हो। मुस्लिम लीग, हिन्दू महा सभा और राष्ट्रीय स्वयंमसेवक संघ के बीच यह झगड़ा आज़ादी के बहुत पहले से चला आ रहा है। आज़ादी के आन्दोलन की मुख्यधारा तो कांग्रेस की ही थी और उसी ने वंदे मातरम् को बाक़ायदा अपनाया भी। लेकिन उसी ने इसे गाते हुए भी इस का गाना स्वैच्छिक रखा। कांगे्रस का 1937 के अधिवेशन का प्रस्ताव इसका प्रमाण है। उसी ने इसे स्वतंत्र लोकतांत्रिक गणराज्य भारत का राष्ट्र गीत भी बनाया।
अल्प संख्यकों ख़ासकर मुसलमानों के लिए वंदे मातरम् का गाना अनिवार्य करने की मांग संघ परिवारियों की ही रही है। यह वही लोग हैं जिनने उस स्वतंत्रता संग्राम को भी स्वैच्छिक माना है जिसमें से वंदे मातरम् निकला है। अगर भारत माता की स्वतंत्रता के लिए कुरबान हो जाना ही देश भक्ति की कसौटी है तो संघ परिवारी तो उस पर चढ़े भी नहीं, खरे उतरने की तो बात ही नहीं है। लाल कृष्ण आडवाणी ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता कि राष्ट्र भक्ति का कोई प्रतीक स्वैच्छिक हो। तो फिर आज़ादी की लड़ाई के निर्णायक ‘‘भारत छोड़ो आन्दोलन’’ के दौरान वे ख़ुद क्या कर रहे थे?
उनने ख़ुद ही कहा है- ‘‘मैं संघ में लगभग उन्हीं दिनों गया जब भारत छोड़ो आन्दोलन छिड़ा था क्योंकि मैं मानता था कि कांग्रेस के तौर तरीक़ों से तो भारत आज़ाद नहीं होगा। और भी कुछ करने की ज़रूरत थी।’’ संघ का रवैया यह था कि जब तक हम पहले देश के लिए अपनी जान क़ुरबान कर देने वाले लोगों का मज़बूत संगठन नहीं बना लेते, भारत स्वतंत्र नहीं हो सकता। लाल कृष्ण आडवाणी भारत छोड़ो आन्दोलन को छोड़ कर कराची में आराम-दक्ष करते देश पर क़ुरबान हो सकने वाले लोगों का संगठन बनाते रहे। पाँच साल बाद देश आज़ाद तो हो गया। इस आज़ादी में उनके संगठन संघ के कितने स्वयंसेवकों ने जान की कुरबानी दी ज़रा बताएं।
एक और बड़े देशभक्त स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपयी हैं वह भी भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान बच्चे नहीं, संघ कार्य कर्ता स्वयंसेवक ही थे। एक बार बटेशवर में आज़ादी के लिए लड़ते लोगों की संगत में पड़ गए। उधम हुआ। पुलिस ने पकड़ा हो उत्पात करने वाले सेनानियों को नाम बताकर छूट गए। (दस्तावेज़ी प्रमाण के लिए यहाँ देखें।) आज़ादी आने तक उनने भी देश पर कुरबान होने वाले लोगों का संगठन बनाया जिन्हें कुरबान होने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। क्योंकि वह भी आज़ादी के आन्दोलन को राष्ट्र भक्ति के लिए स्वैच्छिक समझते थे।
अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने को देश भक्तों का महान संगठन कहे और देश पर जान न्यौछावर करने वालों की सूची बनाए तो यह बड़े मज़ाक़ का विषय है। 1925 में संघ की स्थापना करने वाले डा॰ केशव बलिराम हेडगेवार को बड़ा क्रांतिकारी और देश भक्त बताया जाता है। वे डाक्टरी की पढ़ाई करने 1910 में नागपुर से कोलकाता गए जोकि क्रान्तिकारियों का गढ़ था। हेडगेवार वहां 6 साल रहे। संघ वालों का दावा है कि कोलकाता पहुंचते ही उन्हें अनुशीलन समिति की सबसे विश्वस्नीय मंडली में ले लिया गया और मध्यप्रांत के क्रांतिकारियों को हथियार और गोला-बारूद पहुंचाने की ज़िम्मेदारी उन्हीं की थी।
लेकिन ना तो कोलकाता के क्रांतिकारियों की गतिविधियों के साहित्य में उनका नाम आता है, न तब के पुलिस रिकॉर्ड में। (इतिहासकारों का छोड़ें क्योंकि यहां इतिहासकारों का उल्लेख करने पर कुछ को उनकी निष्पक्षता पर सवाल खड़ा करने का अवसर मिल सकता है) ख़ैर हेडगेवार ने वहां कोई महत्व का काम नहीं किया ना ही उन्हें वहां कोई अहमियत मिली। वे ना तो कोई क्रांतिकारी काम करते देखे गए और ना ही पुलिस ने उन्हें पकड़ा। 1916 में वे वापस नागपुर आ गए।.........................(जारी)
मर जायेंगे
देश हित पैदा हुए हैं देश हित मर जायेंगे
मरते मरते देश को ज़िन्दा मगर कर जायेंगे
हमको पीसेगा फलक चक्की में अपनी कब तलक
ख़ाक बन कर अंख में उसकी बसर कर जायेंगे
कर रही बादे-ए-खिजां को बादे सर सर दूर क्यों
पेशवाए फसले गुल हैं ख़ुद समर कर जायेंगे
ख़ाक में हमको मिलाने का तमाशा देखना
तो मरे ‘जी’ से नये पैदा शजर हो जायेंगे
नौ नौ आंसू जो रूलाते हैं हमें उनके लिये
अश्क के सैलाब से बरपा हशर हो जायेंगे
गरदिशे गरदाब में डूबें तो कुछ परवा नहीं
बहरे हस्ती में नई पैदा लहर कर जायेंगे
क्या कुचलते हैं समझ कर वह हमें बर्गे हिना
अपने खूं से हाथ उनके तर बतर कर जायेंगे
नक्शे पा हैं क्या मिटाता तू हमें ज़ोरे फलक
रहबरी का काम देंगे जो गुज़र कर जायेंगे
आर.एन.शर्मा
Tuesday, November 24, 2009
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