Thursday, November 19, 2009

दारूल उलूम देवबन्द का सवाल कितना उचित कितना अनुचित?

कल जिस विषय पर हम बात कर रहे थे उसका संबंध ‘‘वंदे मातृम’’ से तो था ही, लेकिन उसके साथ ही जितने भी हमारे राष्ट्रीय प्रतीक हैं उनका भी उल्लेख था। राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय चिन्ह और राष्ट्रीय गीत अर्थात राष्ट्रगान इन सब पर संकेतात्मक रूप से कुछ पंक्तियां लिख कर हमने सःसम्मान यह निवेदन करने का प्रयास किया था कि यदि आपत्ति करना उद्देश्य होता तो आपत्ति की गुंजाइश यहां भी निकाली जा सकती थी, परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ अतएव हम अपने इस क्रमवार लेख में उन सभी बातों का भी उल्लेख करने का प्रयास करेंगे जिससे साबित हो जाएगा कि देश प्रेम में किसी बात पर विवाद खड़ा न करने के उद्देश्य से ही ऐसी तमाम बातों को नज़र अंदाज़ कर दिया गया होगा जिन पर बहस की जा सकती थी, अपना तर्क सामने रखा जा सकता था परन्तु सम्भवतः एक ओर देश की आज़ादी की ख़ुशी और दूसरी ओर देश विभाजन का ग़म, अर्थात कुल मिलाकर हमारे बुजुर्गों की मानसिक स्थिति ऐसी रही होगी कि इन तमाम विषयों पर बहुत बारीकी से न तो ध्यान दिया गया होगा और न बहस की गई होगी।

चूंकि वह सभी लोग जो स्वाधीनता संघर्ष में डूबे हुए थे, उनके लिए आज़ादी बहुत बड़ी सफलता थी और वतन का दो टुकड़ों में विभाजित हो जाना बहुत बड़ा ग़म, परन्तु वे लोग जो अंग्रेजों की गुलामी के दौर में किसी न किसी तरह उनसे निकटता प्राप्त करने के प्रयास में व्यस्त थे या उनकी दी गई पदवियों पर आश्रित थे, उनसे यह आशा की ही नहीं जा सकती कि उनकी भावनाएं भी स्वतंत्रता सेनानियों के समान हों, हां मगर इस आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता कि जो अंगे्रज़ों के सत्ता में रहते हुए उनके कर्मचारियों के रूप में कार्यरत थे वह स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी अंग्रेजों के लिए काम करने की मानसिकता रखते हों।

शातिर दिमाग फ़िरंगी जब यह अच्छी तरह समझ गए होंगे कि अब भारत को स्वतंत्र किए बिना कोई रास्ता नहीं तो उन्होंने जाते-जाते ऐसे बीज अवश्य बोए होंगे जो भारत में न रहते हुए भी उनके उद्देश्यों को पूरा कर सकें।देश विभाजन पर इस समय बहस नहीं करेंगे, अन्यथा विषय से भटक जाने का ख़तरा पैदा हो जाएगा, फिर भी यह लिख देना आवश्यक लगता है कि देश विभाजन के संबंध में भी अंग्रेजों की शरारत पर यदि शोध किया जाए तो बहुत कुछ ऐसा मिलेगा जिससे कि यह समझा जा सके कि पाकिस्तान की स्थापना केवल मुहम्मद अली जिन्ना या मुसलमानों का ही प्रयास नहीं था, बल्कि उस समय के बड़े राजनेताओं की चूक और फ़िरंगियों का शातिराना दिमाग भी इसमें शामिल था। यह एक अलग विषय है जिस पर चर्चा फिर कभी।

इस समय यह चंद पंक्तियां भी इसलिए लिखी गईं कि इस लेख के सिलसिलें में बंकिम चंद चटोपाध्याय के उपन्यास ‘अनंद मठ’ की ज़मीन क्या थी, किस पृष्ठभूमि में यह लिखा गया, उसका उद्देश्य क्या था और लिखने वाले का संबंध किससे था, क्या वह स्वाधीनता संघर्ष में लगे थे, क्या उनका यह उपन्यास अंग्रेजों के अधिपत्य से मुक्ति के संघर्ष का एक भाग था? क्या वंदे मातृम अंग्रेजों के विरूद्ध और देश की आज़ादी के मतवालों को प्रेरित करने के लिए था या फिर वह स्वयं अंग्रेजों के अधिकारी थे और उन्हें प्रसन्न करने के लिए यह उपन्यास लिखा गया था? अगर बाद वाली बात साबित होती है तो फिर इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता होगी कि क्या वंदे मातृम भारत की आज़ादी के लिए ही लिखा गया था या फिर इसके पीछे उद्देश्य कुछ और था?

आज भी मैं इस बात से इन्कार नहीं कर रहा हूं कि भारत सरकार ने या उस समय के राजनीतिज्ञों ने इसे राष्ट्रीय गीत का दर्जा देने का निर्णय लेने में कोई चूक की, बल्कि मैं एक पत्रकार और जाने अनजाने इस विषय से प्रभावित होने वाले समुदाय से सम्बन्धित होने के कारण समस्त तथ्यों को जनता के सामने रखने का प्रयास कर रहा हूँ और निर्णय भारत सरकार व भारत की जनता पर छोड़ता हूं कि इन तथ्यों की रोशनी में इन्साफ़ का तक़ाज़ा क्या कहता है?

और यह सब भी इसलिए कि दारुलउलूम देवबंद जैसी सम्मानित दीनी शिक्षण संस्था को निशाना बनाया गया उसके पुतले जलाए गए, जबकि दारुलउलूम देवबंद की स्वाधीनता संघर्ष में क्या भूमिका रही है यह दिन के उजाले की तरह स्पष्ट है। अफ़सोस कि आज उन धर्म गुरूओं को आरोपित करने का प्रयास किया जा रहा है। मैं उनके हृदय की व्यापक्ता और देश प्रेम के सुबूत के रूप में अगली कुछ पंक्तियों के माध्यम से कुछ लिखने का प्रयास कर रहा हूं।

हमारी राष्ट्रीय पहचान के जितने भी प्रतीकों का उल्लेख किया गया है एकतरफ़ा रूप से हर जगह एक धर्म के विशेष प्रतिनिधित्व को दर्शाने का प्रयास किया गया है। क्या एक लोकतांत्रिक देश में जहां विभिन्न धर्मों के मानने वाले रहते हों यह एक स्वस्थ निर्णय है। अब यह तो सोचा भी नहीं जा सकता कि मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे धार्मिक व्यक्तित्व और दारुलउलूम देवबंद जैसी दीनी संस्था की नज़रों से यह सब बातें छुपी रह गई होंगी, फिर भी अगर वह सब न केवल यह कि ख़ामोश रहे बल्कि प्रसन्नतापूर्वक इन तमाम राष्ट्रीय प्रतीकों को स्वीकार किया तो समझा जा सकता है कि वतन के लिए और वतन से जोड़े जाने वाले प्रतीकों के लिए उनकी भावनाएं क्या थीं और क्या हैं।

यदि हम पूरी ईमानदारी के साथ इन सच्चाइयों को समझ लेंगे तो ‘‘वंदे मातृम’’ के संदर्भ में आज जो बातें कही जा रही हैं उन्हें कम से कम ध्यान देने लायक़ तो अवश्य ही समझा जाएगा और इस धार्मिक संवेदना को साप्रदायिकता के चश्मे से देखने वालों को भी वास्तविकता समझने का अवसर मिलेगा। अब मैं उल्लेख आरम्भ करता हूं उन राष्ट्रीय प्रतीकों का जिन्हें हमने सहर्ष स्वीकार किया है और करते हैं, मगर कमो-बेश वह सबके सब धार्मिक रंग में रंगे नज़र आते हैं।

राष्ट्रीय पंचांग के रूप में शक संवतः का प्रयोग किया जाता है। देश में हिन्दू धर्म के मानने वाले इस पंचांग के द्वारा धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण दिनों को निश्चित करने में सहायता लेते हैं। इस केलण्डर की शुरूआत ‘‘राजा सालीवाहन’’ के पदासीन होने से मानी जाती है। 22 मार्च 1957 से इस केलण्डर के प्रयोग को राष्ट्रीय पंचांग के रूप में स्वीकार किया गया। इसके हिसाब से साल का पहला महीना चैत्र का महीना होता है। भारत का राज पत्र, आकाशवाणी की ख़बरों का प्रसारण, भारत सरकार द्वारा जारी किए गए केलण्डर और भारत सरकार के द्वारा जनता को सम्बोधित किए जाने वाले संदेश, इन सभी का संबंध राष्ट्रीय पंचांग अर्थात इस राष्ट्रीय केलण्डर से होता है।

अगर इस्लामी दृष्टिकोण से देखें तो साल का पहला महीना मुहर्रम का महीना है और यह इस्लामी केलण्डर आज भी मुसलमानों के बीच अपने धार्मिक पर्वो तिथियों के उद्देश्य से प्रयोग किया जाता है। समस्त इस्लामी त्यौहार चाँद की तिथियों के हिसाब से तय होते हैं। क्या ऐसा कोई उदाहरण मिलता है जब मुसलमानों ने, इस्लामी मदरसों ने, मस्जिदों के इमामों ने जो चाँद के दिखाई देने या न देने की घोषणा करते हैं उनमें से किसी ने भी भारत सरकार के सामने यह प्रस्ताव पेश किया हो कि यदि राष्ट्रगान के साथ-साथ राष्ट्रीय गीत को भी राष्ट्रीय दर्जा दिया जा सकता है तो राष्ट्रीय पंचांग के साथ-साथ इस्लामी केलण्डर को भी राष्ट्रीय केलण्डर का दर्जा दे दिया जाए।

यदि राष्ट्रीय गीत दो हो सकते हैं तो राष्ट्रीय केलण्डर दो क्यों नहीं, अब यह अलग बात है कि व्यवहारिक रूप से धार्मिक मामलों और तीज त्योहारों को छोड़ कर हम सभी अंगे्रज़ी केलण्डर के अनुसार चलते हैं।

राष्ट्रीय पशु के रूप में शेर को यह महत्व दिया गया है। पोराणिक काल से ही शेर को शाही जानवर स्वीकार किया जाता है मगर यह भी सच है कि शेर को दुर्गा देवी की सवारी के रूप में भी पहचान प्राप्त है। अगर शेर की जगह गाय को यह दर्जा दिया जाता तो ‘‘गऊ माता’’ के साथ जुड़ी भावनाओं का प्रतिनिधित्व समझा जा सकता था, परन्तु शेर को राष्ट्रीय पशु के रूप में स्वीकार कर लिए जाने का कारण संभवतः दुर्गा देवी की सवारी होना ही रहा होगा। यहां मुसलमानों के पास अपनी पसंद को सामने रखने का औचित्य था।

यदि शेर दुर्गा देवी की सवारी के लिए अपनी पहचान रखता है तो घोड़ा हज़रत इमाम हुसैन रज़ि॰ की सवारी की हैसियत रखता है। करबला के मैदान में यज़ीद की सेना का मुक़ाबला करने के लिए हज़रत इमाम हुसैन घोड़े पर सवार हो कर गए थे, जैसा कि रिवायत है। कुछ वर्गों में मुहर्रम के महीने में ज़ुल्जनाह के रूप में घोड़े को जो महत्व दिया जाता है, उसे हमारे देशवासियों ने भी अवश्य देखा होगा। बावजूद इसके यह बात कभी नहीं कही गई कि राष्ट्रीय पशु शेर ही क्यों, घोड़ा क्यों नहीं, जबकि आज भी तमाम मशीनों की शक्ति को नापने का पैमाना ‘‘हार्स पावर’’ ;भ्वतेम च्वूमतद्ध है, ‘‘लायन पावर’’ ;स्पवद च्वूमतद्ध नहीं।

राष्ट्रीय पक्षी की बात करें तो मोर को राष्ट्रीय पक्षी होने का महत्व प्राप्त है, इस पक्षी को भी हिन्दू धर्म के मानने वाले पवित्र मानते हैं। हिन्दू धर्म के देवी देवताओं को चित्रों में मोर को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। हिन्दू धर्म के अनुसार मोर को वर्षा के देवता के रूप में सोचा जाता है। दक्षिणी भारत में मोर भगवान (भगवान मुरुगा) की सवारी माना जाता है। इस सब पर न कोई आपत्ति न कोई शिकवा, सहर्ष स्वीकार, कल भी और आज भी, मगर फिर वही सविनय निवेदन कि भारत की पहचान तो राष्ट्रीय स्तर पर एक शांति प्रिय देश की रही है, राष्ट्र पिता महात्मा गांधी को शांति का मसीहा कहा गया और कहा जाता है कि हज़रत इमाम हुसैन ने जंग टालने के लिए करबला के मैदान से भारत आने की इच्छा प्रकट की थी, आज भी हम 15 अगस्त और 26 जनवरी को शांति के प्रतीक के रूप में कबूतरों को आकाश में उड़ाते हैं।

क्या कबूतर राष्ट्रीय पक्षी के रूप में स्वीकार किए जाने योग्य नहीं हो सकता था? अब यह अलग बात है कि शहज़ादे सलीम की अनारकली से लेकर दिल्ली-6 की हीरोइन सोनिया कपूर तक यह कबूतर ही उंगलियों पर नाचता दिखाई देता है।

हमारा वतन दिल से प्यारा वतन

यह हिन्दोस्तां है हमारा वतन!

मुहब्बत की आंखों का तारा वतन।

हमारा वतन दिल से प्यारा वतन।।

वो इसके दरख्तों की तैयारियां

वो फलफूल पौदे वो फुलवारियां।

हमारा वतन दिल से प्यारा वतन।।

हवा में दरख़्तों का वो झूमना

वो पत्तों का फूलों का मुंह चूमना।

हमारा वतन दिल से प्यारा वतन।।

वो सावन में काली घटा की बहार

वो बरसात की हल्की हल्की फुहार।

हमारा वतन दिल से प्यारा वतन।।

वो बाग़ों में कोयल, वो जंगल के मोर

वो गंगा की लहरें, वो जमना का ज़ोर।

हमारा वतन दिल से प्यारा वतन।।

इसी से है ज़िन्दगी की बहार

वतन की मुहब्बत हो या मां का प्यार।

हमारा वतन दिल से प्यारा वतन।।

पंडित ब्रजनारायण चकबस्त1।देश, 2। पेड़

1 comment:

Mohammed Umar Kairanvi said...

जनाब बर्नी साहब आपके वंदे मातरम के संबंध में लेख हमेशा की तरह बेहद शानदार रहे, जिसने भी पढा वाह-वाह कर रहा है, आपको दुआऐं दे रहा है, खुशी की बात है कि आज शाम मैंने ब्लाग hamarianjuman.blogspot.com पर पोस्ट कर दिया जो ब्लाग सेंटरस पर रजिस्‍ट्ड है जिसे हम 8 मुस्लिम हिन्‍दी ब्‍लागर्स मिलकर चलाते हैं, फिर wandematram.blogspot.com पर भी डाला जाएगा,
http://hamarianjuman.blogspot.com/2009/11/aziz-burney-final-shots-vande-matram.html
डायरेक्‍ट लिंक

दो बातों पर फिलहाल जानकारी चाहिए थी
आपने लिखा ''यदि राष्ट्रीय गीत दो हो सकते हैं''
जबकि राष्‍ट्रीय गीत तो एक है वंदे मातरम, आज एक ब्लाग पर हमारे राष्‍ट्रीय प्रतीकों की चर्चा देखिये, हमारी राष्‍ट्रीय मिठाई 'जलेबी'
http://subeerindia.blogspot.com/2009/11/blog-post.html
डायरेक्‍ट लिंक
सरकारी वेबसाइट पर प्रतीक बताये गये हैं उसमें भी गीत एक है वंदे मातरम,
http://bharat.gov.in/knowindia/national_song.php

दूसरी बात इस निम्‍न पंक्ति में किया कहा गया है, मुझे लगता है यहां इं‍ग्लिश में कुछ होगा,
‘‘हार्स पावर’’ ;भ्वतेम च्वूमतद्ध है, ‘‘लायन पावर’’ ;स्पवद च्वूमतद्ध नहीं।