अपने इस सिलसिलेवार लेख ‘‘आज़ाद भारत का इतिहास’’ के तहत पिछले कुछ दिनों से मैं ‘‘वंदे मातरम्’’ शीर्षक पर लिख रहा हूं। शुरू में बंकिम चंद्र चटोपाध्याय के उपन्यास ‘‘आनंद मठ’’ के हवाले से मैंने कुछ ऐसे अंश अपने पाठकों, अपने देशवासियों और भारत सरकार की सेवा में पेश किए, ताकि स्पष्ट कर सकूं कि आज़ादी से पूर्व से लेकर आज तक दरअसल ‘‘वंदे मातरम्’’ विवाद का शिकार क्यों होता रहा है। अभी तो मैंने कुछ अंश ही पेश किए हैं, जिससे यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि न केवल मुस्लिम दुशमनी, मुसलमानों से घृणा और नाराजगी इस उपन्यास की भूमि है, बल्कि हिन्दू धर्म के मानने वाले भारतीयों की भूमिका भी बहुत अच्छी नहीं दिखाई गई है और हद तो उस समय हो गई जब इस उपन्यास का केंन्द्रीय विचार अंग्रेज़ों का समर्थन करता नज़र आता है।
ऐसी स्थिति में अगर इस उपन्यास के प्रमुख अंश ‘‘वंदे मातरम्’’ को बार-बार विवाद का सामना करना पड़ता है, तो यह कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं है। अच्छा तो यह था कि इस मूक विषय को फिर से देवबंद की धर्ती से आवाज़् देकर नया जीवन न दिया गया होता, लेकिन जिस तरह 6 वर्ष पूर्व दारुलउलूम देवबंद द्वारा ‘‘वंदे मातरम्’’ पर दिए गए फ़तवे को वर्तमान अधिवेशन में जो जमीअत उलमा-ए-हिन्द की ओर से नवम्बर के पहले सप्ताह में आयोजित किया गया था, उठाया गया तो फिर से एक नई चर्चा शुरू हो गई। न चाहते हुए भी हमें अपना राष्ट्रीय दायित्व जान पड़ा कि न केवल बंकिम चंद्र उपाध्याय के उपन्यास ‘‘आनंद मठ’’ का अध्ययन करके, बल्कि इतिहास के दामन में झांक कर सम्पूर्ण सच्चाइयों को सामने लाया जाए। दारुल उलूम देवबंद के सम्मान पर किए गए हमले के बाद तथ्यों को समाने लाना तो आवश्यक था ही लेकिन भारतीय समाज को भी तमाम तथ्यों की जानकारी हो ताकि बार-बार यह विवाद खड़ा न हो, इसलिए हमने बाक़ाएदा तहक़ीक़ करके लिखना शुरू किया।
यह सिलसिला अब भी जारी है, लेकिन इस बीच विभिन्न विचारधाराओं पर आधारित लेख भी हमारी नज़रों से गुज़रे, ऐसा न लगे कि केवल हम अपनी ही बात कहने का इरादा रखते हैं, इसलिए हमने आवश्यक समझा कि कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के विचारों पर आधारित उनके लेख भी प्रकाशन में सम्मिलित किए जाएं।
पूर्व केन्द्रीय मंत्री आरिफ़ मो॰ ़ख़ाँ उन लोगों में से हैं जिन्होंने ‘‘वंदे मातरम्’’ के विषय पर बहुत कुछ लिखा है। और केवल इतना ही नहीं लिखा है, उन्होंने उर्दू भाषा में ‘‘वंदे मातरम्’’ का अनुवाद भी किया है। हम अपनी आज और कल की क़िस्त में आरिफ़ मो॰ ख़ाँ का लेख ‘‘जिस धर्ती पर अन्न-जल खाया उसको नमन क्यों न करें’’ प्रकाशित करने जा रहे हैं, उसके बाद स्वर्गीय प्रभाष जोशी का लेख पाठकों के सामने पेश किया जाएगा, इसलिए ‘‘वंदे मातरम्’’ पर जारी की गई इस चर्चा के संदर्भ में पेश है आरिफ़ मो॰ ख़ाँ का दृष्टिकोणः
वन्दे मातरम् पर इस समय कोई विवाद होना ही नहीं चाहिए था। अगर कोई विवाद था तो वह 1936 में ही सुलझ गया था। इसके बाद भी यदि कोई दल या कुछ लोग उसका विरोध करते हैं तो वे संविधान विरोधी कार्य कर रहे हैं, क्योंकि संविधान सभा ने एक प्रस्ताव पारित कर जन गण मन के समान ही वन्दे मातरम् को राष्ट्र गीत स्वीकार किया है। लेकिन जब मैंने मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के प्रवक्ता को टीवी पर यह कहते हुए सुना कि पर्सनल ला बोर्ड ने मुस्लिम अभिभावकों को यह सलाह दी है कि वे 7 सितम्बर को अपने बच्चों को स्कूल न भेजें और वन्दे मातरम् से परहेज करें, तब मेरे मन में यह बात पैदा हुई कि जो वन्दे मातरम् से परहेज करने की अपील कर रहे हैं, क्या उन्होंने स्वयं संस्कृत में लिखा वन्दे मातरम् पढ़ा है?
क्या उसका अभिप्राय समझा है? अथवा ये लोग इस बात का फायदा उठा रहे हैं कि सामान्य लोगों को वन्दे मातरम् में प्रयोग किए गए शब्दों का अर्थ पता नहीं है, इसलिए मैंने सोचा कि मैं वन्दे मातरम् का सरल सामान्य भाषा में अनुवाद करूं और स्वयं भी देखूं कि इसमें ऐसा क्या है जिस पर कुछ लोगों को आपत्ति है।
वन्दे मातरम् का उर्दू अनुवादः
तसलीमात मां तसलीमात।
तू भरी है मीठे पानी से
फल-फूलों की शादाबी से
दक्खिन की ठंडी हवाओं से
फसलों की सुहानी फिज़ाओं से
तसलीमात मां तसलीमात।।
तेरी रातें रोशन चांद से
तेरी रौनक सब्ज़े फाम से
तेरी प्यार भरी मुस्कान है
तेरी मीठी बहुत ज़ुबान है
तेरी बाहों में मेरी राहत है
तसलीमात मां तसलीमात।।
मैंने पहले ही अनेक बार वन्दे मातरम् पढ़ा था, थोड़ी बहुत संस्कृत भी जानता हूं, पर वन्दे मातरम् के अनुवाद के लिए मैंने अपने एक परिचित संस्कृत के विद्वान को साथ बैठाया, महर्षि अरविंद द्वारा वन्दे मातरम् का अंग्रेज़ी में किया गया अनुवाद भी साथ में रखा और फिर एक-एक पंक्ति का अनुवाद किया। तब एक बात और यह ध्यान में आयी कि केवल संस्कृत और अरबी में ही ऐसी विशेषता है कि इसमें एक ही शब्द में वाक्य पूरा हो जाता है।
संस्कृत का तो एक ही शब्द पूरी बात कह देता है। जैसे ‘सुजलाम्’ का अनुवाद करते समय मैंने देखा- ‘तू भरी है मीठे पानी से’ या ‘शस्य श्यामलाम्’ को लिखा-फसलों की सुहानी फिज़ाओं से। ऐसे ही ‘सुफलाम्’ का अर्थ मिला ‘फल-फूलों की शादाबी से’ और ‘मलयज शीतलम्’ का अर्थ हुआ ‘दक्खिन की ठंडी हवाओं से’। और ये सब अर्थ निकालने के बाद जब मैंने अपने संस्कृत के विद्वान मित्र से पूछा तो उन्होंने भी सहमति दी कि इन शब्दों का यही भावार्थ हो सकता है। ऐसे ही जब ‘शुभ्रज्योत्सना या फुल्ल कुसुमित’ के अर्थ ढूंढे तो वाक्य बने
‘तेरी रातें रोशन चांद से, तेरी रौनक सब्जे फाम से।
तेरी प्यार भरी मुस्कान है, तेरी मीठी बहुत ज़ुबान है...’’
सब्ज़े फाम का अर्थ जब ढूंढा तो पता चला कि ऐसी हरियाली जो गहरा हरा रंग लिए हो, स्याह गाढ़ा। इतना गहरा हरा कि लगे वह कालापन लिए है। और ऐसी हरियाली वहीं होती है जहां की भूमि अधिक उपजाऊ हो अथवा उन पेड़-पौधों को अधिक खाद-पानी दिया गया हो।
सुहासिनी को महर्षि अरविंद ने अपने वन्दे मातरम् में ‘स्वीट स्माइल’ लिखा और मैंने इसे ‘तेरी प्यार भरी मुस्कान’ लिखा है।
सुमधुर भाषिणीम् को ‘तेरी मीठी बहुत ज़ुबान है’ से बेहतर और क्या कहा जा सकता है।
‘सुखदाम्’ यानी सुख मिले और सुख कहां मिलता है- मां की बांहों में, इसलिए लिखा कि ‘तेरी बांहों में मेरी राहत है’ और ‘वरदाम्’ यहां आकर मैंने बहुत विचार किया, क्योंकि ‘वरदाम्’ का अरबी या फारसी में सीधे-सीधे शाब्दिक अर्थ होता है ‘दुआ देना’, पर ‘वर’ ऐसी वस्तु है जो कोई आदमी किसी दूसरे साधारण आदमी को नहीं दे सकता। ‘वर’ एक असाधारण चीज़ है और धरती के संदर्भ में ‘वरदाम्’ को कैसे जोड़ा गया है, यह समझना आवश्यक था। तब मैंने पाया कि इस्लामी चिंतन में यह कहा गया कि मां के पैरों के नीचे जन्नत है और यह जन्नत कोई आदमी किसी दूसरे आदमी को नहीं दे सकता। पर मां भी इंसान है, लेकिन उसके क़दमों के नीचे जन्नत बतायी गयी है। इस दर्शन को समझना होगा। मां के क़दमों के नीचे जन्नत है पर उस जन्नत को पाना उसके पुत्रों के कर्मो पर निर्भर करता है। अब मेरे आचार, विचार, व्यवहार और कर्म तय करेंगे कि मैं उस जन्नत को हासिल कर सकूंगा या नहीं।............................................(जारी)
प्यारा हिन्दोस्तां हमारा
बुलबुल हैं हम वतन की वह गुल्सितां हमारा
प्यारे हम उसके प्यारा हिन्दोस्तां हमारा
यह तन हुआ हमारा ख़ाके वतन से पैदा
काम आयेगा वतन के हर उस्तख्वाँ हमारा
दिल में वतन की उलफत सर में वतन का सौदा
नामे वतन हो यारब्ब विरदे जबां हमारा
फसले बहार आये गर गुलशने वतन में
ख़ूने जिगर से सीचे हर नोजवां हमारा
हिन्दू हो या मुसलमां कह दें मुखालिफों से
‘‘हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोंस्तां हमारा’’
गर ईश्वर ने चाहा, तो देखना कि इक दिन
उड़ता हिमालिया पर होगा निशां हमारा
हम अहद कर चुके हैं मर जायेंगे वतन पर
क्या कर सकेगा देखें दौरे ज़मां हमारा
मिट जायेंगे वह ख़ुद ही ‘‘हमदम’’ जहां के हाथों
जो चाहते मिटाना नामो निशां हमारा
अक्सीर सियालकोटी
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