पिछले का शेष............
लोकमान्य तिलक की मृत्यु के बाद वह कांगे्रस और हिन्दू महा सभा दोनों में काम करते रहे। गांधी जी के अहिंसक असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलनों में भाग लेकर ख़िलाफ़त आन्दोलन के वे आलोचक हो गए व पकड़े भी गए और 1922 में जेल से छूटे। नागपुर में 1923 के दंगों में उन्होंने डा॰ मुंजे के साथ सक्रिय सहयोग किया। अगले साल सावरकर का ‘‘हिन्दुत्व’’ निकला जिसकी पाण्डुलिपि उनके पास भी थी। सावरकर के हिन्दू राष्ट्र के सपने को साकार करने के लिए ही हेडगेवार ने 1925 में दशहरे के दिन राष्ट्रीय स्वयंमसेवक संघ की स्थापना की।
तब से वे निजी हैसियत में तो आज़ादी के आन्दोलन और राजनीति में रहे। लेकिन संघ को इन सबसे अलग रखा। सारा देश जब नमक सत्या गृह और सिविल नाफ़रमानी में कूद पड़ा तो हेडगेवार भी उसमें आए लेकिन राष्ट्रीय स्वयंमसेवक संघ की कमान परांजपे को सौंप गए। वह स्वयंसेवकों को उनकी निजी हैसियत में तो आज़ादी के आन्दोलन में भाग लेने देते थे लेकिन संघ को उनने सशस्त्र क्रांतिकारी गतिविधि में लगाया न अहिंसक असहयोग आन्दोलन में लगने दिया। संघ ऐसे समर्पित लोगों के चरित्र निर्माण का कार्य कर रहा था जो देश के लिए कुरबान हो जाएंगे। सावरकर ने तब चिढ़ कर बयान दिया था, ‘‘संघ के स्वयं सेवकों के समाधि लेख में लिखा होगा, वे जन्मा संघ में गया और बिना कुछ किए धरे मर गया।
हेडगेवार तो फिर भी क्रान्तिकारियों और असहयोग आन्दोलन कार्यों में रहे, दूसरे सर संचालक माधव सदाशिव गोलवलकर तो ऐसे हिन्दू राष्ट्र निष्ठ थे कि राष्ट्रीय आन्दोलन, क्रान्तिकारी गतिविधियों और ब्रिटिश विरोध से उनने संघ और स्वयं सेवकों को बिल्कुल अलग कर लिया। वाल्टर एन्डरसन और श्रीधर दामले ने संघ पर जो पुस्तक ‘‘द ब्रदर हुड इन सेफराॅन’ लिखी है उसमें कहा है ‘‘गोलवलकर मानते थे के राष्ट्रीय स्वयंमसेवक संघ पर पाबंदी लगाने का कोई बहाना अंग्रेज़ों को न दिया जाए।’’ अंग्रेजों ने जब गैर सरकारी संगठनों में वर्दी पहनना और सैनिक क़वायद पर पाबंदी लगाई तो संघ ने इसे तत्काल स्वीकार किया। 29 अप्रैल 1943 को गोलवल्कर ने संघ के लोगों को एक दस्ती पत्र भेजा इसमें संघ की सैनिक शाखा बंद करने का आदेश था।
दस्ती पत्र की भाषा से पता चलता है कि संघ पर पाबंदी की उन्हें कितनी चिंता थी। ‘‘हमने सैनिक क़वायद और वर्दी पहनने पर पाबंदी जैसे सरकारी आदेश मान कर ऐसी सब गतिविधियों छोड़ दी हैं ताकि हमारा काम क़ानून के दायरे में रहे, जैसा कि क़ानून को मानने वाले हर संगठन को करना चाहिए। ऐसा हमने इस उम्मीद में किया कि हालात सुधर जाएंगे और हम फिर यह प्रशिक्षण देने लगेंगे। लेकिन अब हम तय कर रहे हैं कि वक़्त के बदलने का इंतिज़ार किए बिना यह गतिविधियां और यह विभाग ही समाप्त कर देंगे।’’ (यह वह दौर था जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे क्रान्तिकारी अपने तरीक़े से संघर्ष कर रहे थे।) पारंपरिक अर्थों में गोलवलकर क्रान्तिकारी नहीं थे। अंग्रेज़ो ने इसे ठीक से समझ लिया था।1943 में संघ की गतिविधियों पर तैयार की गई एक सरकारी रिपोर्ट में गृह विभाग ने निष्कर्ष निकाला था कि संघ से विधि और व्यवस्था को कोई आसन्न संकट नहीं है।
1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में हुई हिंसा पर टिप्पणी करते हुए मुंम्बई के गृह विभाग ने कहा था ‘‘संघ ने बड़ी सावधानी से अपने को क़ानूनी दायरे में रखा है, ख़ासकर 1942 में जो हिंसक उपद्रव हुए हैं उनमें संघ ने बिल्कुल भाग नहीं लिया है।’’ हेडगेवार 1925 से 1940 तक सर संघ संचालक रहे और उनके बाद आज़ादी मिलने तक गोलवलकर रहे। इन 22 वर्षों में आज़ादी के आन्दोलन में संघ ने कोई योगदान या सहयोग नहीं किया। संघ परिवारियों के लिए संघ कार्य ही राष्ट्र सेवा और राष्ट्र भक्ति का सबसे बड़ा काम था। संघ का कार्य क्या है? हिन्दू राष्ट्र के लिए मर मिटने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवकों का संगठन बनाना, इन स्वंय सेवकों का चरित्र निर्माण करना उनमें राष्ट्र भक्ति को ही जीवन की सबसे बड़ी प्रेरणा और शक्ति मानने की परम आस्था बैठाना।
1947 में जब देश आज़ाद हुआ तो देश में कोई 7 हज़ार शाखाओं में 6 से 7 लाख स्वयं सेवक भाग ले रहे थे। आप पूछ सकते हैं कि एकनिष्ठ देश भक्त स्वयं सेवकों ने आज़ादी के आन्दोलन में क्या किया? अगर यह सशस्त्र क्रान्ति में विश्वास करते थे तो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ इनने कितने सशस्त्र उपद्रव किए, कितने अंगे्रज़ों को मारा और उनके कितने संस्थानों को नष्ट किया। कितने स्वयं सेवक अंगे्रज़ों की गोलियों से मरे और कितने वन्दे मातरम् कह कर फांसी पर झूल गए। हिन्दुत्व वादियों के हाथ से एक निहत्था अहिंसक गांधी ही मारा गया।
संघ और इन स्वयं सेवकों के लिए आज़ादी के आन्दोलन से ज़्यादा महत्वपूर्ण स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र के लिए संगठन बनाना और स्वयं सेवक तैयार करना था। संगठन को अंगे्रज़ों की पाबंदी से बचाना था। इनके लिए स्वतंत्र भारत राष्ट्र अंगे्रज़ों से आज़ाद कराया गया भारत नहीं था। इनका हिन्दू राष्ट्र तो कोई पाँच हज़ार साल से ही बना हुआ है। उसे पहले मुसलमानों और फिर अंग्रेज़ों से मुक्त कराना है। मुसलमान हिन्दू राष्ट्र का दुशमन नं॰ 1 और अंग्रेज़ नं॰ 2 था। सिर्फ अंग्रेज़ों को बाहर करने से इनका हिन्दू राष्ट्र आज़ाद नहीं होता। मुसलमानों को भी या तो बाहर करना होगा या उनहें हिन्दू संस्कृति को मानना होगा। इसलिए अब उनका नारा है वंदे मातरम् गाना होगा, नहीं तो यहां से जाना होगा।
सवाल यह है कि जब आज़ादी का आन्दोलन संघ परिवारियों के लिए स्वैच्छिक था तो स्वतंत्र धर्म निर्पेक्ष लोकतांत्रिक भारत में वंदे मातरम् गाना स्वैच्छिक क्यूँ नहीं हो सकता? भारत ने हिन्दू राष्ट्र को स्वीकार नहीं किया है। यह भारत संघियों का हिन्दू राष्ट्र नहीं है। वंदे मातरम् राष्ट्र गीत है, राष्ट्रीयता की कसौटी नहीं है।..........................................
सरफ़रोशी की तमन्ना
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
देखना है ज़ोर कितना बाजू-ए-क़ातिल में है।।
रह रवे राहे मुहब्बत रह न जाना राह में।
लज़्ज़ते सहरा नवरदी दूरिये मंज़िल में है।।
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आस्मां।
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है।।
आके मक़तल में यह क़ातिल कह रहा है बार बार।
क्या तमन्नाये शहादत भी किसी के दिल में है।।
ऐ शहीदे मुल्को मिल्लत तेरे कदमों पर निसार।
तेरी क़ुरबानी का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है।।
अब न अगले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़।
एक मिट जाने की हसरत अब दिले बिस्मिल में है।।
असीर सियालकोटी
Tuesday, November 24, 2009
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