26 नवम्बर अर्थात् भारत के इतिहास का वह अशुभ दिन जब हमें एक आतंकवादी हमले का सामना करना पड़ा। 26 नवम्बर अर्थात् भारत के इतिहास का वह अशुभ दिन जब हमें अपने ऐसे जांबाज़ पुलिस अधिकारी को खोना पड़ा जो अपनी जान की परवाह किए बिना आतंकवादी गतिविधियों के सच को सामने रखने का प्रयास कर रहा था। 26 नवम्बर भारत के इतिहास का वह अर्थपूर्ण दिन जहां तमाम सुविधाओं के बावजूद हम अभी तक ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने में असफल हैं जो प्रश्न शहीद हेमंत करकरे की विधवा कविता करकरे अर्थात् भाभी मां ने उठाए हैं। निःसंदेह अभी तक के प्रमाणों के आधार पर पाकिस्तान इन हमलों के लिए ज़िम्मेदार है, मगर श्रीमति कविता करकरे के बुलट प्रूफ़ जेकेट के मामले में उठाए गए प्रश्नों का उत्तर पाकिस्तान सरकार से तो नहीं मांगा जा सकता।
विचित्र संयोग है कि पिछले वर्ष 25-26 नवम्बर को मैं भारत में नहीं था और इस बार भी 25-26 नवम्बर को मैं भारत में नहीं हूं। उस समय हुए इस आतंकवादी हमले पर मैंने पहला लेख विदेश से ही लिखा था और इस बार भी स्थिति यही है। व्हाइट हाउस में भारत के प्रधानमंत्री डा॰ मनमोहन सिंह को दिए गए शानदार स्वागत भोज के आयोजन के बीच अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भाषण में भी 26/11 अर्थात् मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमलों का उल्लेख था। क्या हम उनका धन्यवाद करें कि वह हमारे दुख में बराबर के शरीक हैं? क्या हम उनके भाषण में इस उल्लेख को उनकी राजनीतिक रणनीति समझें?
क्या हम इस आतंकवादी हमले का उल्लेख करते हुए 9/11 की पृष्ठ भूमि और उसके बाद की स्थितियों की ओर भारत को संकेत देने का प्रयास समझें? अभी विस्तार से इस विषय पर लिखा जाना कठिन होगा, हां मगर इन्शाअल्लाह भारत वापसी के बाद, इस विदेशी धरती पर बीते एक-एक क्षण को लिखने का प्रयास किया जाएगा। एक बार फिर उन तमाम भाषणों के सार का अध्ययन किया जाएगा जो हमारे प्रधानमंत्री या विदेशी राष्ट्राध्यक्षों द्वारा दिये गये, इसलिए कि उनका संबंध हमारी क़ौम के भविष्य से है, हमारे देश के भविष्य से है। बात वंदे मातरम् की जारी थी, जारी है और अभी इसे जारी रखने की आवश्यकता भी है।
सिलसिला रोक दिया तो कुछ दिनों में हम सब कुछ भूल जाएंगे, जो तूफान उठा इस प्रश्न पर वह भी, जो पुतले जलाए गए पवित्र, धार्मिक शिक्षा संस्थान दारुल उलूम के वह भी, और जब कुछ वर्ष बीत जाएंगे तो मुसलमानों को अपमानित करने के लिए इस्लाम दुशमन शक्तियों के हाथ में फिर यह हथियार होगा, अतः बावजूद इसके कि मैं स्विटज़रलैंड, अमरीका, पोर्ट ऑफ़ स्पेन, ट्रीनीडाड, टोबेको की यात्रा पर हूं और लेखों के इस सिलसिले को जारी रखने के लिए मुझे आधी रात, अर्थात् रात के लग भग 3 बजे इस कॉलम के अंतर्गत छपने वाले लेखों को अंतिम रूप देना होता है, मगर मैं महसूस करता हूं कि यदि किसी परिणाम पर पहुंचे बगैर यह सिलसिला टूट गया तो सम्भवतः फिर यह स्वीकार किया जाता रहेगा कि मुसलमानों की आपत्ति अकारण थी उनके पास अपने प्रश्नों को उठाने के लिए कोई ठोस दलील नहीं थी, अतः मैं आवश्यक समझता हूं कि न केवल यह कि सिलसिला जारी रहे बल्कि किसी परिणाम पर भी पहुंचे।
मेरे ई-मेल और मेरे ब्लॉग पर, टेलीफोन द्वारा और फैक्स द्वारा भी लोगों की भावनाएं मुझ तक पहुंच रही हैं, इसमें एक विचार का मैं विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगा, मुहम्मद उबैदुल्ला का। मेरा उनसे निवेदन है कि वह लेख निःसंदेह मेरे कॉलम के अंतर्गत प्रकाशित किया गया, मगर इस बीच मैं विभिन्न दृष्टिकोणों पर आधारित लेख प्रकाशित कर रहा हूं, ताकि वंदे मातरम् विवाद का हर पहलू सामने आ जाए, जैसे आज भी इस कालम के अंतर्गत मैं प्रो॰ ए॰ जी नूरानी का लेख प्रकाशित कर रहा हूं, जो प्रसिद्ध विधिवेता हैं और जिन्होंने वैधानिक दृष्टिकोण से वंदे मातरम् के दृष्टिकोण पर प्रकाश डाला है।
देखें प्रो॰ ए॰जी॰ नूरानी का लेख ‘‘कितना सेक्युलर है वंदे मातरम्’’?:
वंदे मातरम् को गाने की अनिवार्यता भारतीय संविधान की धारा 28 (1) और (3) के विपरीत है। पहली धारा में कहा गया है कि सरकारी धन से चलने वाले विद्यालयों को किसी भी तरह का धार्मिक निर्देश नहीं दिया जा सकता। दूसरी धारा में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति जो इस तरह के विद्यालयों में अध्ययन करता है, वह उस संस्थान के परिसर में आयोजित किसी धार्मिक प्रार्थना में भाग लेने के लिए बाध्य नहीं है।संविधान में दिया गया यह प्रावधान पूरी तरह स्पष्ट है। सुप्रीम कोर्ट भी यह व्यवस्था दे चुका है कि किसी भी व्यक्ति को राष्ट्र गान गाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
स्वाभाविक रूप से, यह बात राष्ट्रीय गीत पर भी लागू होती है। भाजपा के लोग कहते हैं कि वंदे मातरम् में किसी तरह का धार्मिक अंश नहीं है। यह पूरी तरह असत्य है। यदि ऐसा न होता तो 1937 में कांग्रेस कार्यसमिति को यह बयान न देना पड़ता- समिति इस गीत के कुछ हिस्सों के प्रति मुसलमान दोस्तों की तरफ से उठाई गई आपत्तियों को महसूस करती है।’ कार्यसमिति ने कहा था कि वंदे मातरम् के सिर्फ दो शुरूआती अंतरे ही गाए जाने चाहिएं। जिस गीत को काट-छांट कर गानापड़े वह सर्वत्र स्वीकार्यता की आशा नहीं कर सकता।
अपनी पुस्तक ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ एन अननोन इंडियन’ में नीरद सी चैधरी ने वंदे मातरम् के लिखे जाने की परिस्थितियों का बहुत सटीक विवरण दिया है, “बंकिम चंद्र चटर्जी ओर रमेश चंद्र की ऐतिहासिक रचनाओं मुस्लिम शासन के विरुद्ध हिन्दू बग़ावत को महिमामंडित किया गया है और मुसलमानों को बड़े अनुचित ढंग से पेश किया गया है। बंकिम चंद्र असंदिग्ध रूप से और बहुत प्रखरता के साथ मुस्लिम विरोधी थे।” इतिहासकार आरसी मजूमदार ने लिखा है कि 1905 से 1947 तक वंदे मातरम् भारत के देशभक्त सपूतों का युद्धघोष था और हजारों लोगों ने वंदे मातरम् का उच्चारण करते हुए ब्रिटिश पुलिस की यातनाएं सहते हुए प्राण त्याग दिए थे।
आनंद मठ की मूलभूत परिकल्पना उन सन्यासियों (जिन्हें सनातन कहा जाता था) या बच्चों पर केंद्रित है जिन्होंने अपने घर त्याग कर अपने जीवन को मातृभूमि के लिए समर्पित कर दिया था। ये लोग अपनी मातृभूमि को मां काली के रूप में पूजते थे। आनंद मठ के इस पहलू और मां काली की परिकल्पना को देखते हुए इस बात में कोई संदेह नहीं रह जाता कि बंकिम चंद्र का राष्ट्रवाद हिंदू राष्ट्रवाद था, भारतीय राष्ट्रवाद नहीं। उनकी अन्य रचनाओं में यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है जिनमें मुस्लिमों के हाथों भारत की पराधीनता को लेकर भावावेश में भरी आक्रामक टिप्पणियां की गई हैं। उसी दिन हमारे गौरव का सूर्य अस्त हो गया।
उनकी रचनाओं में मुसलमानों के प्रति नकारात्मक और कई बार अप्रासंगिक टिप्पणियां मिलती हैं। मजूमदार लिखते हैं कि ‘बंकिम चंद्र ने देशभक्ति को धर्म और धर्म को देशभक्ति के साथ मिला दिया था।
उनका उपन्यास आनंद मठ ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ भी नहीं था। उसके अंतिम अध्याय में कोई परामानवीय शक्ति सन्यासियों के नेता सत्यानंद को युद्ध रोकने के लिए समझाती हुई दिखाई गई है। दोनों के बीच होने वाली बातचीत काफी दिलचस्प हैःशक्तिः तुम्हारा कार्य संपन्न हो गया है। मुसलमानों की सत्ता का विनाश हो चुका है। अब तुम्हारे करने के लिए कुछ नहीं बचा। बेवजह की हत्याएं करने से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला।
सत्यानंदः मुस्लिम सत्ता जरूर नष्ट हो गई है लेकिन हिंदू साम्राज्य अभी तक स्थापित नहीं हुआ है। कलकत्ता पर अब भी ब्रिटिशों का क़ब्ज़ा है।
शक्तिः हिंदू साम्राज्य अभी स्थापित नहीं होगा। अगर तुम अपने काम में लगे रहे तो लोग बेवजह मारे जाएंगे। इसलिए मेरे साथ आओ।
सत्यानंद (दुख के साथ): हे भगवान, यदि हिंदू साम्राज्य की स्थापना नहीं होगी तो फिर कौन शासन करेगा? क्या मुस्लिम शासक लौट आएंगे?
शक्तिः नहीं, अब अंग्रेज़ शासन करेंगे।सत्यानंद विरोध करते हैं लेकिन परामानवीय शक्ति उन्हें हथियार डालने के लिए मना लेती है।
शक्तिः तुम्हारा प्रण पूरा हो चुका है। तुम अपनी मां के लिए समृद्धि ला चुके हो। तुमने एक ब्रिटिश सरकार की स्थापना करवा दी है। अब लड़ाई छोड़ दो। लोगों को अपने काम करने दो। धरती को फसलों से हरी-भरी होने दो और लोगों को धन-संपत्ति से समृद्ध होने दो।
सत्यानंद (रोते हुए): मैं अपनी मां को उसके शत्रुओं के रक्त से सींच कर उस पर समृद्धि की फसल उगाऊंगा।शक्तिः शत्रु कौन है? अब कोई शत्रु नहीं है। अंगे्रज तो दोस्त हैं और शासक भी। और उन्हें कोई हरा नहीं सकता।
सत्यानंदः अगर ऐसा है तो मैं मां की प्रतिमा के सामने स्वयं को समाप्त कर दूंगा।
शक्तिः नासमझी में? आओ और जानो। हिमालय में मां का एक मंदिर है। मैं तुम्हें वहां उसकी छवि दिखाऊंगा।ऐसा कहकर उसने सत्यानंद का हाथ पकड़ लिया।
पूरे उपन्यास में मुस्लिम विरोधी अंश बहुतायत से मौजूद हैं। जीवानंद जब हाथ में तलवार लिए हुए मंदिर के द्वार पर खड़ा है और मां काली के भक्तों का आहवान करता है- हमने कई बार मुस्लिम शासन के घोंसले को तोड़ने और इन हमलावरों को खींच कर नदी में फेंक देने और भस्मीभूत कर भूमि मां को मुक्त कराने की बात सोची है। मित्रो, अब वह दिन आ गया है। जब भावानंद महेंद्र को आनंद मठ ले जाकर संघर्ष में शामिल होने के लिए प्रेरित करता है तब उसे पहले काली की प्रतिमा के सामने और फिर दुर्गा की प्रतिमा के सामने ले जाया जाता है और ‘वंदे मातरम्’ का उच्चारण करने को कहा जाता है।
उपन्यास के एक अन्य दृश्य में कुछ लोग ‘मुसलमानों को मार दो-मार दो’ के नारे लगाते हुए दिखाए गए हैं। उसी समय कुछ और लोग ‘वंदे मातरम्’ के नारे लगा रहे हैं और कुछ कह रहे हैं कि ‘क्या वह दिन कभी आएगा जब हम उनकी मस्जिदें तोड़कर उनके स्थान पर मंदिरों का निर्माण कर सकेंगे?’
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हिन्दोस्तां
न कौस से ग़रज़ है, न मतलब अज़ां से है
मुझ को अगर है इश्क़ तो हिन्दोस्तां से है
तहज़ीबे हिन्द का नहीं चश्मा2 अगर अज़ल3
यह मौजे रंग रंग फिर आई कहां से है
ज़र्रे में गर तड़प है तो इस ख़ाके पाक से
सूरज में रोशनी है तो इस आसमां से है
है इस के दम से गरमी-ए-हंगाम-ए- जहां4
मग़रिब5 की सारी रोनक इसी एक दुकां से है
मौलाना ज़फ़र अली ख़ां1.घण्टा, 2.ज़रिया, 3.क़ुदरत, 4.दुनिया की उथल पुथल, 5. पश्चिम
Thursday, November 26, 2009
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2 comments:
पूरे लेख की मूलभूत falacy यह है की वन्देमातरम को धार्मिक गीत बताया गया है. वन्देमातरम कतई धार्मिक गीत नहीं है - यह राष्ट्र-गीत है. सिर्फ संस्कृत में लिखा होने से यह धार्मिक गीत नहीं बन जाता. और जिस सेकुलरवाद की दुहाई दी जा रही है उस सेकुलरवाद में राष्ट्र हर धर्म और मजहब से बड़ा होता है. और सेक्युलर देश ही है तो सेक्युलर देश में सरे कानून सब के लिये होते हैं, किसी भी तरह के पर्सनल कानून की गुंजाईश सेक्युलर देश में नहीं होती. सेक्युलर ही बनना है तो हर तरह से, पूरी तरह से सेक्युलर बनिए, लूला-लंगड़ा सेकुलरवाद क्यों चला रहे हैं?
पूरे लेख की मूलभूत falacy यह है की वन्देमातरम को धार्मिक गीत बताया गया है. वन्देमातरम कतई धार्मिक गीत नहीं है - यह राष्ट्र-गीत है. सिर्फ संस्कृत में लिखा होने से यह धार्मिक गीत नहीं बन जाता. और जिस सेकुलरवाद की दुहाई दी जा रही है उस सेकुलरवाद में राष्ट्र हर धर्म और मजहब से बड़ा होता है. और सेक्युलर देश ही है तो सेक्युलर देश में सरे कानून सब के लिये होते हैं, किसी भी तरह के पर्सनल कानून की गुंजाईश सेक्युलर देश में नहीं होती. सेक्युलर ही बनना है तो हर तरह से, पूरी तरह से सेक्युलर बनिए, लूला-लंगड़ा सेकुलरवाद क्यों चला रहे हैं?
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