Saturday, January 31, 2009

कल्याण मायावती के लिए वरदान.......?

कल्याण फैक्टर बहुजन समाज पार्टी के लिए किसी लोटरी से कम साबित नहीं होगा। दुविधा का प्रशन अगर है तो कांग्रेस के सामने.........लाभ और हानि का हिसाब देखना है तो समाजवादी पार्टी को। इस मामले में बहुजन समाज पार्टी के खेमे से भी उठती नज़र आरही थी, जब उन के कुछ संसद सदस्य इस बात से परेशान थे के मायावती उन को अधिक महत्त्व नहीं दे रही हैं और यह सम्भव है के इस बार उन्हें इस पार्टी से पार्लिमेंट का टिकट भी न मिले। अब जबके समाजवादी पार्टी कल्याण के साथ चले आने के कारण मुसलमानों में अपना पहले जैसा मकाम नहीं रख पाई है और यह भी सम्भव है के जैसे जैसे समय गुज़रता जाए, बाहर से चाहे जो भी दिखाई दे, मुसलमानों का गुस्सा समाजवादी पार्टी के लिए वोटों की शक्ल में उसे प्रभावित कर सकता है। अब तक जो वोट यक्श्मत बड़ी मात्रा में सिर्फ़ समाजवादी पार्टी को जाता था, अब वो बहुजन समाज पार्टी के खेमे की और मुड़ सकता है।

बहुजन समाज पार्टी के सम्बन्ध से यह दलील दी जा सकती है के वो भी कहाँ दूध की धूलि है, कई बार भारतीय जनता पार्टी के साथ सरकार बना चुकी है और अब ऐसा नहीं करेगी, इस बात का भी क्या भरोसा है। बात ठीक है, परन्तु यह भी देखना होगा के बहुजन समाज पार्टी अपने जनम से लेकर आज तक जिस स्थान पर पहुँची है, उस बीच उसे कई पडाव का सामना करना पड़ा है। अलग अलग पार्टियों के साथ अलग अलग अवसरों पर सरकार बनानी पड़ी, चुनाव लड़ना पड़ा, परन्तु इस का गठजोड़ तो भारतीय जनता पार्टी से रहा, परन्तु इस की अपनी पार्टी की ऐसी कोई जातिवाद सोच अभी तक सामने नहीं आई है, जिस से के यह मान लिया जाए के उसे भारतीय जनता पार्टी की लाइन में खड़ा किया जा सकता है। आज अगर यह पार्टी अकेले अपने दम पर हिंदुस्तान के सब से बड़े राज्य में सरकार बनाने में सफल हुई तो ऐसा तो नहीं हुआ होगा के मुसलमानों ने इस पार्टी को वोट न दिया हो......,

अब अगर कई कई बार भारतीय जनता पार्टी के साथ मिल कर सरकार बनाने के बावजूद भी पिछले राज्य चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को समाजवादी पार्टी से कम ही सही, परन्तु मुस्लिम वोट मिला तो आज कल्याण फैक्टर के बाद इस में सच मच बढोतरी की आशा की जा सकती है, कमी आने का तो प्रशन ही पैदा नहीं होगा। अगर कल्याण फैक्टर सामने न होता तब भी यह सम्भव था के कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठजोड़ बहुत बड़ी मात्रा में मुसलमानों का वोट प्राप्त कर लेता, परन्तु अब अधिक मात्रा में समाजवादी पार्टी को हानि की आशंका हो सकती है और उस से कुछ कम ही सही, परन्तु यह हानि साथ जाने की सूरत में कांग्रेस को भी हो सकती है।

हाँ, यह अलग बात है के जिन राज्यों में वो सेकुलर समझी जाने वाली अकेली पार्टी है, वहां मुसलमानों और अन्य सेकुलर मानसिकता रखने वाले वोटर्स की मजबूरी कांग्रेस ही हो, परन्तु यहाँ भी कांग्रेस के पालिसी बनाने वालों को इस बात का ध्यान रखना होगा के वोटर्स अगर बेदिली के साथ या मजबूरी में वोट डालने जाते हैं तो उन का वोट डालने का प्रतिशत दर बहुत कम होता है, उन की न तो वोट डालने में रूचि होती है और न चुनाव में साफ़ तौर पर भागेदारी। जबके उस के उलट अगर वो किसी की सरकार बनाने पर आजायें, दिल और जान सहित किसी के साथ खड़े होना चाहें, उसे सफल बनाना चाहें तो यह पोलिंग प्रतिशत दर काफ़ी अधिक होता है।

कांग्रेस के पास एक लंबे समय के बाद यह सुनहरी अवसर था के वो मुसलमानों का वोट राष्ट्र स्तर पर प्राप्त कर सकती, नरसिम्हा राव के दौर से पैदा हुई नाराजगी को दूर कर सकती, इस लिए के आतंकवाद के रोग से परेशान मुस्लमान केन्द्र में एक ऐसी सरकार देखना चाहता था जो जातिवाद न हो, बलके जातिवाद और आतंकवाद पर लगाम लगा सके, बेशक यह कांग्रेस के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी और अन्य एक विचार पार्टियों के समर्थन से सम्भव हो सकता था और बदले हुए वातावरण में यह भी असंभव नहीं था के कांग्रेस स्वयं ऐसी पोजीशन में आजाये के उसे सरकार बनाने के लिए किसी बड़ी कठिनाई का सामना न करना पड़े, परन्तु कल्याण फैक्टर ने जहाँ कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के लिए कुछ कठिनाइयां खड़ी की हैं, वहीँ बहुजन समाज पार्टी के लिए रास्ता बनाया।

अमेरिका में बराक हुसैन ओबामा के राष्ट्रपति बन्ने के बाद हिंदुस्तान में मायावती को ऐसी ही शक्ल में देखने वालों को अगर अपने सपने साकार होते दिखाई दें तो यह बिल्कुल आशचर्यजनक बात नहीं है, जिस प्रकार अमेरिका में बराक हुसैन ओबामा का राष्ट्रपति बनना एक क्रांति है, उसी प्रकार हिंदुस्तान में मायावती का प्रधान मंत्री बनना किसी क्रांति से कम नहीं होगा। हाँ, इस समय यह बात कुछ आशचर्यजनक अवश्य लगेगी के संसद में जिस पार्टी की सिर्फ़ १७ सीटें हों, उस को देश के प्रधान मंत्री के रूप में सोचना मानसिक असंतुलन है , परन्तु हालात कब, क्या करवट बदलें कहना बहुत कठिन है। कौन जानता था के जोर्ज डब्लेव बुश या हिलेरी क्लिंटन के सामने बराक हुसैन ओबामा उस देश के राष्ट्रपति बन जायेंगे, जहाँ नस्लवाद इतना था के एक साथ बैठ कर खाना पीना भी बर्दाश्त नहीं किया जाता था।

मायावती उत्तर परदेश में लग भाग यह कमाल दिखा चुकी हैं। शायद कांग्रेस की सरकारों के बाद यह पहला अवसर है, जब किसी एक जादुई व्यक्तित्व ने सिर्फ़ अपने बूते पर बिना किसी ग्लेमर के, धन या बल को जताने के लिए चुनाव में ऐसी सफलता प्राप्त की हो। अब अगर बहुजन समाज पार्टी उत्तर परदेश की ८० सीटों में से आधी सीटें जीतने में सफल हो जाती है और उसे १५-२० सीटें उत्तरपर्देश के बाहर भी मिल जाती हैं, जिसे पूरी तरह असंभव नहीं समझा जा सकता, इस लिए के महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ ही क्या हम ने ऐसे राज्यों में भी नीले झंडे देखे हैं, जहाँ उस की परिकल्पना भी मोहाल थी तो कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। हाँ, अब यह अवश्य सोचने वाली बात है के केन्द्र में सरकार बनाने के लिए २७३ सदस्यों की जहाँ आव्यशकता हो, वहां ७३ से भी कम सीटें प्राप्त करने वाली मायावती किस प्रकार उस कुर्सी की दावेदार हो सकती हैं?

तो उन की पहली सपोर्ट तो कम्युनिस्ट पार्टी है, जो पहले ही उन्हें भविष्य का प्रधान मंत्री बता कर एक सेकुलर प्रत्यावर्ती का इशारा दे चुकी है। अगर दोनों की सीटों की पूरी मात्रा १२५-१३० के पास भी होती है तो आध्रप्रदेश में चंद्र बाबु नाइडू, तमिल नाडू में जय ललिता, कर्नाटक में एच डी देवे गोडा जैसे लोग उन के साथ खड़े होने में ज़रा भी देर नहीं लगायेंगे। अब बाक़ी बचती हैं, वो सेकुलर पार्टियाँ जो आज कांग्रेस के साथ हैं तो उन के पास बदल खुला होगा।

कल्याण फैक्टर के बाद अगर उन्हें अपने राज्य में मायावती के साथ जाने में लाभ दिखायी दिया तो वो यह निर्णय पहले भी कर सकते हैं, वरना बाद में तो उन्हें अधिक विचार करने की आव्यशकता ही नहीं है। उन में पहला राज्य महाराष्ट्रा हो सकता है, जहाँ शरद पवार समय समय पर नाराज़गी जताते रहे हैं, कांग्रेस को महाराष्ट्र में समाजवादी पार्टी के साथ जाने में जितना लाभ होगा, उस से कहीं अधिक शरद पवार की नश्नालिस्ट कांग्रेस को बहुजन समाज पार्टी के साथ जाने से होगा। इस से जहाँ मायावती की पार्टी को महाराष्ट्र में अपना खाता खोलने का अवसर मिलेगा, वहीँ शरद पवार की सीटों में बढोतरी हो सकती है।

बिहार में लालू प्रसाद के लिए अब शासन में रहना अब अवश्य भी है और उन की मजबूरी भी है। बिहार में राज्य सरकार का चुनाव अभी दूर है, वैसे भी नीतिश कुमार अपनी जड़ें काफ़ी मज़बूत कर चुके हैं। ऐसे हालत में आज सोनिया गाँधी के गीत गाने वाले लालू प्रसाद यादव कल अगर मायावती के गीत गाने लगें तो बहुत आशचर्य नहीं होगा। वैसे भी बिहार में राम विलास पासवान लालू की मजबूरी हैं, उन के लिए आवश्यक नहीं। केन्द्र में सरकार बन्ने के बाद रेलवे मंत्रालय पर दोनों में जो झगडा हुआ वो किसी से छुपा नहीं है और लालू प्रसाद यादव भी कहाँ भूले होंगे के राम विलास पासवान की जिद ने बिहार में सरकार बनाने का अवसर उन के हाथ से निकाल दिया था, उस के बाद ख़ुद अपनी सीटें तो खोयी ही, उन्हें भी राज्य सरकार से बेदखल कर दिया। मायावती के साथ जाने पर इतने बड़े खतरे की उम्मीद तो है नहीं और राज्य में एक दलित लीडर का मनोबल बढ़ने से उन्हें दो फायदे होंगे, एक तो दलितों को अपनी ओर आकर्षित करेंगे, दूसरे राज्य स्तर पर राम विलास पासवान के बढ़ते हुए कद से जन्म लेने वाली चिंता दूर होगी।

इस प्रकार अगर देखा जाए तो एक ऐसा बदल, जिस का आज कहीं भी वजूद नहीं है, कल सामने आ सकता है। यह बदलाव कांग्रेस के लिए सब से बड़ी मुसीबत का कारन बन सकता है। अगर ऊपर उल्लिखत सभी राज्य पार्टियों के एक हो जाने पर भी यह मात्रा २७३ से बहुत दूर रहती है, परन्तु इतनी भी दूर नहीं के कांग्रेस की सीटें उस के साथ जोड़ ली जाएँ तो यह गिनती २७३ तक न पहुंचे तो ऐसे हालत में कांग्रेस को अपनी सरकार बनाने की आशा छोड़नी होगी। उस की मजबूरी होगी के ख़ुद को सेकुलर साबित करने के लिए, उस सेकुलर बदल को अपनी मजबूरी मान ले या फिर केन्द्र में एक सेकुलर सरकार की स्थापना में सब से बड़ी रुकावट का इल्जाम कुबूल करले।

जहाँ तक मायावती और उन की पार्टी की सोच का प्रशन है तो यह अपनी जिद पर अड़ जाने वाले लोग हैं और कई बार इस पर बात कर चुके हैं को हर चुनाव उन के लिए लाभदायक ही है और चुनाव जितने जल्दी जल्दी हों, उन्हें उतना ही लाभ होगा। अगर उन के इस दावे और पिछले परिणामों पर गौर किया जाए तो इस बात में दम लगता है। त्रिशंकु लोकसभा होने की सूरत में अगर कोई राय नहीं बनती है तो फिर इलेक्शन में जाने की मजबूरी होती होगी, जिस से कम से कम मायावती को तो कोई नुकसान होने वाला नहीं है। कांग्रेस यह जिद भी नहीं कर सकती को वो अकेली सब से बड़ी पार्टी है, इस लिए सरकार बनाने का दावा उसी का होगा, इस लिए के भूत काल में कांग्रेस चन्द्र शेखर, इन्द्र कुमार गुजराल और एच डी देवे गोडा के नेतृत्व में ऐसी सरकारें बनवा चुकी है, फिर एक दलित की बेटी के पहली बार देश की प्रधान मंत्री बन्ने की राह में रुकावट बन्ने का इल्जाम मुसलमानों के साथ साथ उस के पास बचे खुचे दलित वोटों को भी उस के खेमे से दूर कर देगा। ऐसे हालात में कांग्रेस के पास सिर्फ़ समाजवादी पार्टी और उस के महबूब कल्याण सिंह के सिवा क्या रह जायेगा.....?

मुसलमानों की अभी तक मायावती पहली पसंद नहीं रही हैं। पहले उस की पसंद कांगेस पार्टी थी, परन्तु नरसिम्हा राव को उन्होंने बाबरी मस्जिद की शहादत के लिए जिम्मेदार माना और कांगेरस से नाता तोड़ लिया। अब यह दूसरा अवसर होगा को जब कांग्रेस उन्हें बाबरी मस्जिद की शहादत के जिम्मेदार नरसिम्हा राव से भी बड़े अपराधी के साथ खड़ी नज़र आएगी। हज़ार कोशिशों के बावजूद नरसिम्हा राव अपने जीवन में मुसलमानों की नाराजगी दूर नहीं कर सके और कांग्रेस नरसिम्हा राव को व्यक्तिगत स्थिति में बाबरी मस्जिद का जिम्मेदार करार देकर भी मुसलमानों का दिल नहीं जीत सकी। यहाँ तक के उसे एक से अधिक बार जाने अनजाने में हुई उस गलती के लिए क्षमा भी माँगना पड़ी, मगर परिणाम बेकार।

मुसलमानों ने कांग्रेस का साथ छोड़ने के बाद जिसे सब से अधिक पसंद किया वो व्यक्ति थे मुलायम सिंह यादव और उन को पसंद किए जाने का सब से बड़ा कारण था बाबरी मस्जिद। क्यूंकि मुस्लमान यह मानता था के मुलायम सिंह यादव ने अपने शासक अवधि (१९९०) में अपनी सरकार की परवाह न करते हुए बाबरी मस्जिद की सुरक्षा की और अगर ६ दिसम्बर १९९२ को उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के बजाये मुलायम सिंह की सरकार होती तो बाबरी मस्जिद शहीद नहीं होती, परन्तु अब जबके वही व्यक्ति जो बाबरी मस्जिद की शहादत के लिए सीधे जिम्मेदार है, मुलायम सिंह के करीब आचुका है तो फिर मुस्लमान किस हद तक उन के करीब रह सकते हैं, यह समझना कोई बहुत कठिन नहीं है। हिंदुस्तान के प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने तो सिर्फ़ एक बार अमेरिका में पूर्व राष्ट्रपति को अपना और हिंदुस्तान का मित्र कहा था, जिसे हिंदुस्तान की जनता ने पसंद नहीं किया, जबके यह हिंदुस्तान के बाहर का मामला था और मुलायम सिंह तो कई बार कल्याण सिंह को अपना मित्र करार दे चुके हैं और बार बार कल्याण सिंह की मित्रता का दम भर रहे हैं, उन्हें निर्दोष साबित करने की हर सम्भव कोशिश कर रहे हैं।

ऐसे हालात में अगर मायावती अब मुसलमानों की पहली पसंद बन जाएँ तो उस में कोई आशचर्य नहीं होना चाहिए। यूँ भी उत्तर प्रदेश में उन के सामने अधिक प्रत्यावर्ती हैं ही नहीं। कांग्रेस का कल्याण के साथ खड़ा होना, वो चाहे उसे समाजवादी पार्टी का साथ कहें, कम से कम उत्तर परदेश में तो कांग्रेस के साथ दिल से जुड़ नहीं पायेगा। उत्तर परदेश के बाहर बिहार में लालू प्रसाद यादव मुसलमानों की पसंद हो सकते हैं, वैसे उन्हें शिकायत पासवान से भी नहीं है और सत्य तो यह है के नीतिश कुमार के भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से सरकार चलाने के बावजूद भी बिहार का मुस्लमान नीतिश कुमार को नापसंद नहीं करता, यह बात मायावती के हक में भी जाती है, इस लिए के जिस प्रकार बिहार में नीतिश कुमार ने भारतीय जनता पार्टी का साथ तो लिया, परन्तु अपने आप को उस के सामने सरेंडर नहीं किया। इसी प्रकार मायवती ने भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर सरकार तो चलाई, परन्तु भारतीय जनता पार्टी के सामने सरेंडर नहीं किया और यह चिंता भी नहीं की के उन की सरकार रहेगी या जायेगी।

खैर बात थी बिहार में लालू प्रसाद यादव का मुसलमानों की पहली पसंद बन जाने की। हाँ, परन्तु यह सम्भव तभी है, जब वो कल्याण सिंह के प्रशन पर अपने विशेष अंदाज़ में बहादुरी के साथ यह कहें के लाल कृष्ण अडवाणी के खुनी रथ का पहिया बिहार में आकर जाम हो गया था और कल्याण सिंह को बाबरी मस्जिद की शहादत का अपराधी मानते हैं, इस लिए उस के साथ खड़े नहीं हो सकते। तब संसद चुनाव के बाद की परिस्थिति क्या होगी, इस की बात तो तभी की जायेगी, परन्तु अभी कल्याण सिंह का न बचाव किया जा सकता है, न उस की हिमायत की जा सकती है।

लग भाग यही इशु आन्ध्र प्रदेश में चंद्र बाबु नाइडू के लिए कारामद साबित होगा जो पहले भी तीसरे मोर्चे के कन्वेनर रह चुके हैं, अब वो एक मिडल फोर्स के कन्वेनर हो सकते हैं, उस से न सिर्फ़ एक बार फिर केंद्रीय नेतृत्व में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लेंगे, बलके इस बात की भी आशा पैदा होगी के भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बिना अगर कोई प्रत्यावर्ती बनता है तो उस में चंद्र बाबु नाइडू की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है, साथ ही आँध्रप्रदेश में एक बार फिर उन्हें अपने वजूद को मजबूती से साबित करने का अवसर मिलेगा।

कर्नाटक के पिछले चुनाव के बाद लगभग साइड में चले गए एच दी देवेगोडा अब वहां सेकुलरिज्म के सब से बड़े झंडाबरदार दिखायी देंगे, इस लिए के राज्य में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और कांग्रेस के दामन पर कल्याण सिंह के साथ खड़े होने का दाग हो सकता है। कर्नाटक में मुसलमानों की मात्रा बहुत अधिक न सही, परन्तु इतनी कम भी नहीं है के उन्हें नज़र अंदाज़ किया जा सके और कम से कम सेकुलर वोट तो इस मात्रा में हैं ही के भारतीय जनता पार्टी का चेहरा बेनकाब कर दिया है। गिरजा घरों के जलाए जाने और ईसाइयों पर हुए ज़ुल्म से जहाँ शान्ति प्रेमी जनता भारतीय जनता पार्टी को नापसंद करने लगे हैं, वहीँ कांग्रेस ने केन्द्र में शासक रहते हुए भी उन की कोई विशेष सहायता नहीं की, इसलिए उन्हें भी एच दी देवेगोडा में आशा की एक किरण नज़र आसक्ति है।

ऐसे में अगर मिडल फोर्स का वजूद स्थित होगया और एच दी देवेगोडा को मायावती की भी सहायता प्राप्त हो गई तो उन्हें कम कर के नहीं देखा जा सकता।

इस सत्य से कौन इनकार करेगा के आज परिवर्तन के इस वातावरण में दलित की बेटी के साथ खड़ा हो कर दलितों को आकर्षित करने से क्यूँ पीछे हटा जाए, अगर मुट्ठी भर लूध वोट के लिए बाबरी मस्जिद के अपराधी कल्याण सिंह से सेकुलर समझी जाने वाली पार्टी हाथ मिला सकती है तो फिर कल्याण सिंह और मायावती की तो कोई तुलना ही नहीं है। उन का साथ तो निश्चित रूप से उन सब को वोट की शक्ल में कुछ न कुछ देगा ही, अब कल पार्लिमेंट की सूरत क्या होगी, नेतृत्व किस के हाथ में होगा, वो नेतृत्व कैसा होगा, इस की चिंता करे तो कांग्रेस करे, जिसे शासन की चाह सब से अधिक होगी, इस लिए के सेकुलरिज्म की सब से बड़ी अलमबरदार वही रही है और सेकुलरिज्म के नाम पर वोट भी प्राप्त करती रही है. इन राज्य पार्टियों के लीडर को तो अगर इज्ज़त के साथ केन्द्र में अपनी हैसियत बनाये रखने का अवसर मिल जाए तो इतना ही काफ़ी होगा और लगता नहीं के इतना देने में मायावती को थोडी भी परेशानी होगी।
दृश्यावली बदल तो रही है परन्तु.......?


आप परेशान हैं के मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह का दामन थाम लिया.....! आप परेशान हैं के बहुजन समाज पार्टी, भारतीय जनता पार्टी के साथ शामिल हो सकती है......! आप चिंतित हैं के क्या कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच सीटों का गठजोड़ होजायेगा.....! आप भयभीत हैं के कहीं अगली सरकार भारतीय जनता पार्टी की तो नहीं होगी......!


आप उस समय भी मानसिक तनाव का शिकार थे, जब न्यूक्लियर डील पर हस्ताक्षर होने थे। आप क्यूँ इन सभी बातों को लेकर परेशान हो जाते हैं? बेशक यह के यह सभी हालात आप के परेशान होने का सही कारण हैं। केन्द्र में किस की सरकार बनती है, यह आप के लिए बहुत महत्त्व रखता है, किंतु क्या आप के पास कोई प्लानिंग हैं? कोई कार्ययोजना है? क्या आप ने कभी सोचा है के ऐसा कौन सा तरीका अपनाएँ के केन्द्र में जिस की भी सरकार बने वो आप के अधिकारों का ख्याल रखे, आप की सुरक्षा का ख्याल रखे, आप की बस्तियों को वो सभी सहूलतें प्राप्त हों, जिन की आप आशा करते हैं, बच्चों के लिए शिक्षा का सटीक प्रबंध हो और वो उच्चय शिक्षा प्राप्त करके समाज में एक अच्छा पद प्राप्त कर सकें। वो आई ऐ एस बनें, आई पी एस बनें, डॉक्टर, इंजिनियर और वकील बन कर देश और कौम की सेवा करें।

आप के जो भी प्रतिनिधि चुन कर संसद या असम्बली में जाएँ, वो सब आप के उच्चय भविष्य के लिए आवाज़ उठाएं। आप के लिए भी उन्नति के उतनी ही संभावनाएं हो जितनी के अन्य देशवासियों के लिए। जातिवाद या आतंकवाद के सम्बन्ध से जब जब आवाज़ उठे तो उस की स्पष्टीकरण के लिए केवल आप ही को क्यूँ चिंतित होना पड़े, ऐसा क्यूँ लगे के अगर आप सड़कों पर उतर कर यह एलान नहीं करेंगे के आप आतंकवाद के विरुद्ध हैं तो लोग आप को शक्की नज़र से देखेंगे, आप का जीना कठिन हो जायेगा और लोग आप को आतंकवाद या जातिवाद का समर्थक समझ बैठेंगे।


स्वतंत्रता के बाद अर्थात १९५२ के पहले संसद चुनाव से लेकर अप्रैल - मई २००९ में होने वाले संसद चुनाव तक क्या कभी आप स्वयं अपने चुनावी एजेंडे के साथ मैदान में उतरे हैं। चलिए मान लिया के आरम्भ के दो चार चुनाव में आप भय या हीन भावना से ग्रहस्त थे क्यूंकि बटवारे का सब से अधिक नुकसान आप ही को हुआ था, आप का शिक्षित और अमीर समुदाय पाकिस्तान चला गया था और स्वतंत्रता के तुंरत बाद होने वाले जाती वादी दंगों और बहुमत संप्रदाय की ओर से बटवारे के लिए लगने वाले आरोपों ने आप को तोड़ कर रख दिया था, आप का नेतृत्व दुर्बल हो गया था, आप के पास मौलाना अबुलकलाम आजाद के सिवा कोई ऐसा चेहरा नहीं था, जो आप के अधिकार के लिए आवाज़ उठा सके और मौलाना आजाद जो भी जितनी भी आवाज़ उठा पाते थे, सरदार पटेल की उपस्थिति में उसे कोई विशेष महत्त्व नहीं मिल पाता था। पंडित जवाहर लाल नेहरू सेकुलर मानसिकता रखते थे, किंतु सरदार पटेल को विवश करने की स्थिति में वो भी नहीं थे। यहाँ तक के महात्मा गांधी जो स्वच्छ शब्दों में अल्पसंख्यकों की हिमायत करते, मौलाना आजाद से भी आगे बढ़ कर मुसलमानों की सुरक्षा के लिए चिंतित रहते थे, वो भी सरदार पटेल के गृह मंत्री रहते हुए मुसलामानों को पूरा न्याय दिला पाने में सफल नहीं हो पाये यहाँ तक के उस संघर्ष में उन्हें अपने प्राणों की आहुति तक देनी पड़ी।


आप के सामने सुरक्षा का जो प्रशन बटवारे के तुंरत बाद था, वही प्रशन आज भी स्थित है, परन्तु उस समय इस प्रशन का कारण था देश का बटवारा। वैसे इस बटवारे के लिए न तो देश का हिंदू जिम्मेदार था और न ही मुस्लमान, बलके उस समय की राजनीती जिम्मेदार थी, जिस प्रकार आज भी आतंकवाद के लिए न तो देश का हिंदू जिम्मेदार है और न देश का मुस्लमान, बलके इस देश की राजनीती जिम्मेदार है। राजनीती अगर चाहे तो मालेगाँव बम धमाकों के सम्बन्ध से हिंदू आतंकवादियों के चेहरे सामने आजाते हैं और राजनीती अगर चाहे तो दिल्ली, अहमदाबाद, मुंबई बम धमाकों के सम्बन्ध से मुस्लिम आतंकवादियों के चेहरे सामने आजाते हैं। सत्य क्या है, झूठ क्या है, यह समझना बहुत कठिन होता है। हिंदू और मुस्लमान घृणा का शिकार हो जाते हैं, राजनीती अपने उद्देश्य में सफल रहती है। वो सब जानते हैं के बारी बारी से राज उन्हें ही करना है, अगर वो अकेले राज करने के दावेदार नहीं बन पाते तो तय कर लेते हैं के कौन किस के साथ मिल कर सरकार बनाने का दावेदार बन सकता है, बस येही नींव होती है राजनैतिक रिश्तों के तय होने की।


आप के वोटों की मात्रा इतनी है के राजनैतिक एतबार से आप बहुत साधन संपन्न हैं, बलके सरकार बनाने और बिगाड़ने में एक महत्त्वपूर्ण रोल निभा सकते हैं और करते भी रहे हैं, परन्तु आप की कोई राजनैतिक हैसियत नहीं है। बात कड़वी है, परन्तु सत्य यह है क्यूंकि आप की कोई प्लानिंग नहीं है, आप का कोई तय किया गया एजेंडा नहीं है। न आप कभी किसी के साथ किसी प्लानिंग के तहत कुछ शर्तों के साथ जाते हैं और न ही किसी प्लानिंग के तहत अलग होते हैं। बस एक बात जो आप के साथ जुड़ गई है वो यह के आप भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध वोट देते हैं, इस लिए जो जहाँ भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध आप को आकर्षित करने के लिए आवाज़ उठाये, आप वहां उसी के साथ होलेंगे। राजनेता यही सोचते रहे हैं और वो ग़लत नहीं सोचते रहे हैं, क्यूंकि ऐसा ही होता रहा है। सब जानते हैं, इस का परिणाम क्या हुआ? भारतीय जनता पार्टी तो सचमुच आपकी शत्रु बन गई, किंतु आपका मित्र कौन बना और उस से भी अधिक अफ़सोस की बात तो यह है के अब न कोई आप की मित्रता को महत्त्व देता है और न किसी को आपकी शत्रुता की चिंता है। आप इतने टुकडों में बंट गए हैं के आप अपनी राजनैतिक हैसियत ही खो बैठे हैं। जहाँ एक सत्य यह है के आप सब एक होना चाहते हैं, एक राजनैतिक बल बनना चाहते हैं, वहीँ एक सत्य यह भी है के आप के प्रतिनिधि , चाहे वो राजनैतिक हों, समाजी या धर्मी आपस में एक नहीं होना चाहते, कम से कम अब तक का अनुभव तो यही है। खुदा करे के अब इस में कोई बदलाव आजाये। आ भी सकता है, अगर अब आप यह निशचय कर लें के आप को हर हाल में एक होना है और जो इस एकता में रुकावट बन रहे हैं या बन सकते हैं, उन से इस प्रकार दूर रहना है के उन से उन का साया भी साथ छोड़ दे।


समाज वादी पार्टी के साथ कल्यान सिंह खड़े होगये हैं। मुलायम सिंह यादव को और कल्यान सिंह को अपने वोट बैंक पर विशवास है। उन्हें लगता है के उन के साथ चलने से उन दोनों का वोट बैंक प्रभावित नहीं होगा। आप प्रभावित हो सकते हैं, परन्तु आप प्रभावित हो कर भी क्या कर लेंगे? जो कुछ लोग आवाज़ उठाएंगे, उन को लाइन पर ले जाने के लिए इतनी अधिक और इतनी बलवान आवाजें उठेंगी और उन आवाजों में इतना सही कारण होगा के आप अचंभित रह जायेंगे। अगर इन सब से नाराज़ न भी हुए तो आप तन्शय का शिकार तो हो ही जायेंगे के खुदा जाने सही कौन है और ग़लत कौन। बस उन के लिए उतना ही पर्याप्त है, जैसे ही आपकी मानसिकता बंटी, आपका वोट बंटा और उन सब का उद्देश्य हल हो गया. आप यह प्रशन करेंगे के मुलायम सिंह के साथ कल्याण सिंह क्यूँ? कल्याण सिंह तो मस्जिद की शहादत के लिए जिम्मेदार हैं तो उत्तर होगा के कांग्रेस कौन सी दूध की धूलि है, उस के पहलु में भी तो ऐसे कुछ चेहरे हैं, हो सकता है के उन्हें आप कल्याण सिंह की तरह बेदाग़ भी तो करार नहीं दे सकते. हो सकता है के कल बी जे पी की or से भी यह आवाज़ उठने लगे के कल्यान जो मस्जिद की शहादत के लिए सीधे जिम्मेदार थे, वो तो अब हमारे साथ नहीं हैं, इसलिए मुस्लमान अब हमारे नज़दीक आ सकते हैं, अधिक मात्रा में न सही, परन्तु कुछ लोग भी इस प्रोपेगंडे से प्रभावित नहीं होंगे, ऐसा आप नहीं कह सकते। क्या आप को नहीं पता के अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ की सीट से जीतने के लिए मुसलमानों का भी अच्छा खासा वोट प्राप्त करते रहे हैं। आप को लग रहा होगा के यह लेख भी आप को भ्रमित (confuse) कर रहा है, इस में किसी प्लानिंग का इशारा तो है नहीं, बलके इस से कुछ और उलझनें बढ़ रही हैं। हाँ, यह भी सही है क्यूंकि मानसिकता की पोरी जागृकता के लिए पहले उन्हें झिनझोड़ना आवयशक है। कोई भी प्लानिंग तैयार करने से पहले ऐसे सभी पहलुओं पर गौर करना आवयशक है, जो हमारे सामने हो सकते हैं, जिन बातों के द्वारा भड़काया जा सकता है। अगर उन्हें पहले ही अलग कर दिया जाए, उन पर बात ही न की जाए तो फिर चालाक राजनेताओं के लिए यह सरल हो जायेगा के वो आप में फूट पैदा करदें। अलग अलग कारणों के आधार पर आप के वोट का बटवारा करदें। कोई भारतीय जनता पार्टी का भय दिखा कर आप के वोट का दावेदार बन जाए, कोई कल्यान सिंह का चेहरा दिखा कर आप के वोट को प्रभावित करने में सफल हो जाए, कोई सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर आप में से किसी को उमीदवार बना कर आपके वोट का अधिकारी बन जाए और अन्तिम स्थिति आपके सामने यह हो के अब क्या करें? मजबूरी है, कहीं तो जाना ही है, सभी तो एक जैसे हैं। चलो इस बार उस को भी आजमा कर देख लेते हैं। क्या आपने कभी किसी डॉक्टर को ऐसी आज़माइश का अवसर दिया है के आप का बच्चा जीवन और मृत्यु के बीच साँसे ले रहा हो और आप कह दें के चलो इस बार इस डॉक्टर को आजमा कर देख लेते हैं। आज आप की कौम ऐसे ही हालात की शिकार है। अपनी सुरक्षा के लिए वो अन्तिम साँसे ले रही है। अगर आप गंभीर न हुए, आप ने होशमंदी से काम न लिया तो हमारा वजूद तो कायम रहेगा, परन्तु किसी भी प्रकार की सुरक्षा की बात भूल जाइए.....न राजनैतिक सुरक्षा........न समाजी सुरक्षा........न शिक्षण सुरक्षा........न आर्थिक सुरक्षा........और न धार्मिक सुरक्षा.......... । हाँ आज यह बात अनोखी लगेगी, परन्तु मैंने गाँव वाटोली, आदिलाबाद, आन्ध्र प्रदेश का वो उजड़ा हुआ घर जहाँ पहुँच कर स्वयं अपनी आंखों से देखा है। उस सैनिक जवान अनवर से एकांक में भेंट की है। उस की पीड़ा को समझा है, जिस के परिवार के सभी ६ व्यक्ति जिंदा जला दिए गए, उस ने जिस प्रकार चुपके से कांपती हुई ज़बान से अपने परिवार की आपबीती सुनाई, उस से यह अनुमान लगना बिल्कुल कठिन नहीं था के हमारी आज की यह लापरवाही आने वाले कल में धार्मिक सुरक्षा का प्रशन भी हमारे सामने खड़ा कर सकती है।


अगर इस निरंतरता का यह अन्तिम लेख होता तो मैं वो सब कुछ भी इसी समय आप के सामने रखता देता, जिस की प्रस्तावना के लिए मैंने यह कुछ लाइन लिखी हैं, परन्तु पहले मैं यह समझना चाहता हूँ के क्या वो समय आगया है के हम एक कार्ययोजना तैयार कर के आगे बढ़ सकें। क्या हम मानसिक रूप से कोई राजनैतिक निशचय लेने के लिए तैयार हैं। क्या हम में एकता आगई है, या आरही है। क्या हम पहले की तरह राजनेताओं और उन के द्वारा ड्यूटी पर लगाये जाने वालों की गुमराही का शिकार न होने का निर्णय ले चुके हैं। अगर हाँ तो वो बात की जा सकती है।


इस में कोई संदेह नहीं के पहले से बहुत बदलाव आया है। अब हम हर धमाके के बाद चिंतित तो होते हैं, विकल्प भी करते हैं और अल्लाह से दुआ भी मांगते हैं के वो कब हमारे देश को आतंकवाद के रोग से मुक्त कर सकते हैं, परन्तु अब इस प्रकार भयभीत नहीं होते के अभी कोई हमारे दरवाज़े पर दस्तक देगा और हमारे जवान बेटे को उठा कर लेजायेगा, फिर उसे आतंकवादी करार देकर लोहे की सलाखों के पीछे भेज दिया जायेगा और हम हज़ार निर्दोष होने के सबूत दे कर भी उन अपराधों का दंड भुगतने को विवश होंगे जो हम ने नहीं किए। एनकाउंटर आज भी हो रहे हैं, परन्तु अब उन पर प्रशन भी उठ रहे हैं और संतोषमय बात यह है के यह प्रशन समाज के सभी जिम्मेदार लोगों की ओर से उठाये जा रहे हैं। निशचित रूप से इस से अच्छा माहौल बनेगा। आतंकवाद का कारोबार फलफूल नहीं पायेगा और हमारे राजनेता वोटों के लिए किसी और मुद्दे की खोज में जुट जायेंगे।


माहौल में एक बदलाव यह भी आया है के राजनैतिक जागृकता पहले से कहीं अधिक दिखायी देती है। अब हम अपने राजनैतिक निर्णयों के अच्छे परिणामों पर गौर करने लगे हैं। ताज़ी राजनैतिक दृश्यावली इसी बदलाव का सबूत है। कल्यान सिंह पहले भी समाजवादी पार्टी के साथ आए थे परन्तु ऐसा हंगामा नहीं हुआ था। असम्बली के स्पीकर केसरी नाथ त्रिपाठी के सहारे दरपर्दा भारतीय जनता पार्टी से तालमेल का आरोप पहले भी लगा था, परन्तु ऐसा शोर नहीं उठा था। छगन भुजबल, संजय निरुपम कांग्रेस में शामिल हुए और मुसलमानों ने कोई विशेष प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। साक्षी महाराज समाजवादी पार्टी में आए और चले गए, किंतु कोई तूफ़ान न उठा। अब लगता है के हालात बदल गए हैं। अब सभी को सोचना होगा। भूत काल की दलीलें अब शायद बहुत कारआमद सिद्ध न हों। अब कोई नरेंद्र मोदी का हाथ थाम कर शायद यह न कह सके के अगर कल्यान सिंह स्वीकार्य हो सकते हैं तो नरेंद्र मोदी क्यूँ नहीं।


राजनैतिक माहौल में आया बदलाव बेशक एक संतोषजनक संदेस है, परन्तु अभी मंजिल बहुत दूर है। या तो जो कुछ जैसा चल रहा है, उसे चलने दीजिये, उसी को अपना मुकद्दर मान लीजिये। यह एक निराश सोच है। अगर मज़बूत सोच नहीं है और ज़हन किसी क्रांति के लिए तैयार नहीं है इस सच को स्वीकारना होगा। ऐसा भी न हो के जिस दामन पर कीचड उछाली, पनाह भी उसी दमन में ली जाए और अगर सचमुच स्वतंत्रता के ६१ वर्ष बाद अब मानसिक स्वतंत्रता के लिए इरादा किया जा चुका है तो फिर पहला काम अपने एकता कायम करने का होगा और जब सब एक होजायें तो फिर जहाँ भी जाएँ एक हो कर जाएँ। जो भी निर्णय लें एक हो कर लें ताके आप का निर्णय जिस के हक में भी हो उसे भी यह अहसास रहे के हाँ सभी कारणों के बावजूद हमें उन का समर्थन प्राप्त हुआ है और आप जो भी कहें हक के साथ कहें ताके जब आप को, आपका अधिकार मिले तो भीक की तरह नहीं, हमदर्दी या एहसान की तरह नहीं, बलके इस तरह जैसे के उस पर यह आवयशक था के वो आप के अधिकार आप को दे। पहला एहसान आप ने किया था उस पर अपना विशवास जता कर, उस ने तो बस विशवास को कायम रख कर अपना कर्तव्य निभाया है।

Friday, January 30, 2009


कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच कल्याण सिंह..........?



कांग्रेस इस दुविधा में है के उत्तर परदेश में समाजवादी पार्टी के साथ मिल कर चुनाव लड़े या नहीं। इसी कारण से न तो अभी तक समाजवादी पार्टी ने सभी सीटों पर अपने उमीदवारों का एलान किया है और न ही कांग्रेस ने उत्तर परदेश के सम्बन्ध से कोई निर्णय लिया है। कारण है, कल्याण सिंह की समाजवादी पार्टी से नजदीकी।


कांग्रेस देश की सब से पुरानी और बड़ी पार्टी है। अगर कांग्रेस को राजनैतिक समुद्र कहा जाए तो भी कुछ ग़लत नहीं होगा, इस में भारतीय जनता पार्टी से सम्बन्ध रखने वाले शंकर सिंह वाघेला भी हैं और शिव सेना से सम्बन्ध रखने वाले संजय निरुपम भी। यह उदहारण तो वर्त्तमान के हैं, अगर कांग्रेस के भूत काल पर नज़र डाली जाए तो कांग्रेस के अन्दर ही संघ परिवार की प्रतिनिधित्व भी रही है और मुस्लिम लीग ने अपनी जड़ें भी कांग्रेस के प्रोत्साहन से ही जमाई हैं। मोहम्मद अली जिनाह कांग्रेस से अलग थे न सरदार पटेल। मुस्लिम लीग जो हिंदुस्तान में रह गई, वो भी सदा कांग्रेस के साथ ही शामिल रही और संघ परिवार के मन की बात कहने की ज़िम्मेदारी भी कांग्रेस का कोई न कोई लीडर उठाता रहा है, जब तक जीवित रहे सरदार पटेल और उन के बाद मुरारजी देसी और नरसिम्हा राव जैसे लोग, यह ज़िम्मेदारी निभाते रहे। कल्याण सिंह जिस बाबरी मस्जिद विवाद की देन है, इस की शुरुआत की अगर बात करें तो बाबरी मस्जिद का ताला खुलने से लेकर "शीला न्यास" तक के कांग्रेस के मुख्य मंत्री वीर बहादुर सिंह और नारायण दत तिवारी रहे हैं, मूर्ती रखे जाने के दौर की बात मैं अभी नहीं कर रहा हूँ। बावजूद इस सब के बाबरी मस्जिद विवाद को अधिक गहराई से हम ने जाना और समझा ६ दिसम्बर १९९२ को अर्थात बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद से। उस समय क्यूंकि राज्य में कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे और देश के प्रधान मंत्री नरसिम्हा राव, इस लिए दोनों ही इस ज़िम्मेदारी से बच नहीं सके। नरसिम्हा राव तो अब दुन्या में नहीं हैं, परन्तु जब तक वो भी जीवित रहे, न तो मुस्लमान उन्हें क्षमा कर सके और न ही कांग्रेस पार्टी को। इस लिए आज भी जब कल्याण सिंह की बात आती है तो बाबरी मस्जिद के घावों की याद ताज़ा हो जाती है, जिस के प्रमुख आरोपी वो स्वयं थे। मुलायम सिंह लाख यह कहें के कल्याण सिंह बाबरी मस्जिद के शहादत के लिए जिम्मेदार नहीं हैं, परन्तु उन के जैसे वज़नदार लीडर की भी यह बात बेवज़न लगती है, अगर वो यह कह देते के कल्याण सिंह को अपनी गलती का अहसास हुआ है और अब वो अपने पापों का प्राश्चित करने की भावना रखते हैं तो शायद मुस्लमान कुछ क्षणों के लिए इस बात पर इस लिए विश्वास कर लेता के यह वाक्य मुसलामानों के दिलों की धड़कन रहे मुलायम सिंह जी की ज़बान से निकले हैं, जिन्हें कभी वो मौलाना मुलायम सिंह भी कहता रहा है, परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं कहा। वो एक गंभीर राजनेता हैं, इन हालात के चलते वो क्या कदम उठा रहे हैं, यह तो वही खूब जानते हैं।


हम आज के अपने इस लेख में किसी भी तरह का कोई इशारा करने का इरादा नहीं रखते। हम सिर्फ़ राजनैतिक दृश्यावली अपने पाठकों के सामने रखना चाहते हैं, सभी उंच नीच से उन्हें आगाह करना चाहते हैं, हम हिन्दुस्तानी राजनीती का भूत काल और वर्त्तमान सामने रख कर भविष्य का अनुमान लगाने के लिए सभी के मस्तिष्क को स्वतंत्र छोड़ना चाहते हैं, सिर्फ़ उन सभी बातों की जानकारी देना हमारा उद्देश्य है, जो या तो उन के मस्तिष्क में सुरक्षित नहीं हैं या फिर उन्हें जिन की जानकारी नहीं है, ताके वो जो भी निर्णय करें, अंधेरे में रह कर न करें, किसी ग़लत फ़हमी का शिकार हो कर न करें, किसी के बहकावे में आकर न करें बलके पूरी तरह सोच विचार कर करें।


समाजवादी पार्टी के जनरल सेक्रेट्री और प्रवकता श्री अमर सिंह जी ने कल्याण सिंह के साथ समाजवादी पार्टी के गठजोड़ की बात करते हुए कहा के यह पहला अवसर नहीं है, जब कल्याण सिंह समाजवादी पार्टी के साथ खड़े हुए हैं, इस से पहले भी वो समाजवादी पार्टी से दोस्ती कर चुके हैं। उन के सुपुत्र राजवीर सिंह, उत्तर परदेश सरकार में स्वास्थ्य मंत्री थे और कल्याण सिंह के नज़दीक समझी जाने वाली कुसुम रोय भी उस राज्य सरकार में मंत्री थीं, जिस में आज़म खान स्वयं भी मंत्री थे, जो आज कल्याण सिंह की परिस्थिति पर नाराजगी जता रहे हैं। बात ठीक है, परन्तु दृश्य कुछ अलग है, जिस समय की बात श्री अमर सिंह ने की, उस समय के दृश्य और आज के दृश्य में फर्क है। उस समय कल्याण सिंह "राष्ट्रिय क्रांति पार्टी" के लीडर हुआ करते थे, जो उन्होंने भारतीय जनता पार्टी से अलग हो कर स्थापित की थी। समाजवादी पार्टी अर्थात मुलायम सिंह के राज्य में राजवीर सिंह और कुसुम रोय इसी पार्टी का प्रतिनिधित्व करते थे। उस पार्टी ने अर्थात कल्याण सिंह ने समाजवादी पार्टी के साथ मिल कर इलेक्शन नहीं लड़ा था। समाजवादी पार्टी के विरुद्ध "राष्ट्रिय क्रांति पार्टी" के उमीदवार मैदान में थे, यहाँ तक के कल्याण सिंह और राजवीर के विरुद्ध समाजवादी पार्टी ने अपने उमीदवार खड़े किए थे और यह उमीदवार पार्टी के गंभीर उमीदवार थे, यानी उन की उमीदवारी रस्मी या "राष्ट्रिय क्रांति पार्टी" को लाभ पहुँचाने की नहीं थी। हम अपने इस निरंतर लेख की अगली कड़ियों में ऐसी सभी सीटों की मात्रा + उमीदवारों को मिलने वाले वोटों का विस्तार पाठकों की सेवा में पेश करेंगे, लेकिन आज हम जो बात साफ़ करना चाहते हैं, वो यह के उस चुनाव के दौरान मुसलमानों या सेकुलर लोगों की ओर से कोई तूफ़ान इस लिए नहीं उठा था क्यूंकि चुनाव में मुलायम सिंह और कल्याण सिंह साथ साथ नहीं थे। न एक साथ वोट माँगा.........., न एक साथ एक स्टेज से भाषण दिए........, न एक दूसरे की प्रशंसा ......, न उस समय मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह को बाबरी मस्जिद की शहादत के लिए मासूम और निर्दोष करार दिया........, न श्री अमर सिंह जी को कल्याण सिंह के सम्बन्ध में उस समय उन के बचाव की आस्यशाकता पड़ी। हाँ, बाद में जब समाजवादी पार्टी को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ और उसे सरकार बनाने के लिए अधिक विधानसभा सदस्यों की आव्यशकता महसूस हुई, तब दो ही रास्ते थे या तो भारतीय जनता पार्टी की सरकार उस के सहयोगियों के साथ मिल कर बन्ने दी जाती या फिर समाजवादी पार्टी सरकार बनाने की कोशिश करती। ऐसी सूरत में "राष्ट्रीय क्रांति पार्टी" यानी सदस्यों कल्याण सिंह की पार्टी का शामिल और उस के दो को मंत्रिपद से सम्मानित करने की मजबूरी को समझा जा सकता था। कम से कम ऐसी मजबूरी इस समय दिखाई नहीं दे रही है। यह साथ सहमति का साथ है, वो साथ मजबूरी का साथ था। इसी तरह कल जब साक्षी महाराज समाजवादी पार्टी के साथ आए और ६ वर्ष तक समाजवादी पार्टी की बदौलत राज्य सभा के सदस्य रह कर वापस चले गए तब भी उसे बहुत पसंद नहीं किया गया, परन्तु कोई तूफ़ान भी खड़ा नहीं हुआ।


फिर भी आज के हालात में समाजवादी पार्टी के सवभाव को भी समझना होगा। समाजवादी पार्टी का तो जन्म ही हुआ था समाजवादी विचारधारा अर्थात सोशलिज्म के दृष्टिकोण के साथ, उस दृष्टिकोण की सुरक्षा और बढ़ावे के लिए। जातिवाद बल के विरुद्ध एक राजनैतिक बल बन्ने के लिए, जबके कांग्रेस जिसे हमने राजनैतिक समुद्र का उदहारण दिया है, उस की भूमिका तो सेकुलर रही, परन्तु उस में अलग अलग सवभाव के लोग सदा रहे, इसलिए कांग्रेस का उदहारण देकर समाजवादी पार्टी के नेताओं का बचाव करना इतना वज़नदार नहीं लगता फिर कल्यासिंह, शंकर सिंह वाघेला, संजय निरुपम और छगन भुजबल के बीच अन्तर बहुत साफ़ है। हाँ, अगर कल्याण सिंह की किसी भी दूसरे राजनेता के साथ तुलना की जाती है तो वो नरेंद्र मोदी हैं। इस लिए के पहली गलती कल्याण सिंह के द्वारा हुई, अर्थात जब बाबरी मस्जिद की शहादत और उस के बाद हुआ गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार। हम ने श्री मुलायम सिंह और अमर सिंह का वो दौर अपनी आखों से देखा है, जब वो गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार पर सब से पहले वहां पहुंचे और उन के पहुँचने का मतलब सिर्फ़ घावों पर मरहम रखना या राजनैतिक एतबार से सहानुभूति प्राप्त करना नहीं था, बलके हमने अपनी आंखों से उन की तड़प और पीड़ा को महसूस किया था। उन की यही भावना ओपरेशन बटला हाउस के बाद भी देखने को मिली, जब सब से पहले उन्होंने तटस्त एन्कुएरी की बात की। प्रशनयह पैदा होता है के उन्हें अब क्या हो गया? यहाँ दो बातें गौर करने के लायक हैं, एक तो यह के एक ऐसी राजनैतिक पार्टी को, जिस का जन्म ही समाजवादी सोच के साथ हुआ, जिस का उद्देश्य जातिवाद ताक़तों को हराना था, उसे एक ऐसे व्यक्ति को गले लगाने की आव्यशकता क्यूँ महसूस हुई, उसे यह विचार ही क्यूँ आया के सरकार बनाने के लिए कल्याण सिंह भी आवयशक हैं, इस बात पर भी गौर करना होगा। दूसरे अगर समाजवादी पार्टी के लीडर आज अपनी पार्टी के मुस्लिम प्रतिनिधियों को इतना महत्त्व नहीं दे रहे हैं, जितनी के कल्याण सिंह के शामिल होने को, तो उस का कारण क्या है? क्या उन की पार्टी के यह मुस्लिम प्रतिनिधि मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करते, जिस प्रकार कल्याण सिंह के साथ रहने से उन्हें उन की बिरादरी के वोट मिल जाने का विशवास है, उन मुस्लिम प्रतिनिधियों के साथ रहने से मुस्लिम वोटों के मिल जाने का विशवास नहीं है या फिर उन का मुस्लिम वोटों पर विशवास इतना अधिक है के यह सब भी उन का दामन छोड़ कर चले जाएँ, तब भी उन्हें मुसलमानों का वोट मिलेगा ही या फिर मुस्लिम वोट उन के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं रह गया है। जिस की परवाह करना अब वो आवयशक नहीं समझते।


हम यह सभी प्रशन इस लिए उठा रहे हैं और सभी दृश्यावली इस लिए सामने रख रहे हैं के अगर राजनैतिक लाचारी ही हमारा भाग्य है तो बेशक इसी पर चलते रहे, परन्तु सारा सत्य जान लें और अगर हम अपने भविष्य के लिए कोई प्लानिंग करना चाहते हैं तो पूर्ण राजनैतिक दृश्यावली स्वतंत्रता के बाद से वर्त्तमान तक हमारी आंखों के सामने है।



हम ने बात शुरू की थी, कांग्रेस के तंशय से और बात छेड़ दी समाजवादी पार्टी के साथ कल्याण सिंह की नजदीकी की। कारण यह था के कांग्रेस की दुविधा का कारण यही तो है। समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का गठजोड़ मुसलमानों की पहली पसंद होना चाहिए, इस लिए के मौजूदा हालात में जब जातिवाद और आतंकवाद का बोल बाला चारों ओर दिखाई दे रहा हो, तब एक ईमानदार, जिम्मेदार और सेकुलर सरकार सिर्फ़ मुसलमानों की ही नहीं, देश की सब से बड़ी आव्यशकता है, परन्तु उसी क्षण इस आव्यशकता को महसूस करने के बावजूद इस बात पर गौर करना होगा के ऐसे सभी तत्व जिन के कारण किसी भी पार्टी को जाती वादी करार दिया जाता है या जिन के चेहरे देश दुश्मन, मुस्लिम दुश्मन, जम्हूरियत दुश्मन दिखाई देते हैं, वो सेकुलर पार्टियों के साथ खड़े नज़र आने लगें तो फिर जो दुविधा कांग्रेस को अपने खेमे में दिखाई दे रही है, लग भग वही दुविधा पूरे हिंदुस्तान की मुस्लिम जनता में भी देखने को मिलेगी।



काग्रेस की लीडर श्रीमती सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी प्राकृतिक रूप से सेकुलर हैं, अभी तक उन का कोई कार्य ऐसा नहीं दिखाई देता, जिस के कारण उन्हें सेकुलर मानने में कोई कठिनाई हो, मुलायम सिंह और अमर सिंह के मामले में और कुछ भी कहा जाए परन्तु उन के सेकुलरिज्म पर प्रशन नहीं उठाया जा सकता। यहाँ तक तो कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के साथ (कल्याण सिंह की नजदीकी से पहले तक) खड़े होने को देश के सेकुलरिज्म को मज़बूत होने के सिवा कुछ कहा ही नहीं जा सकता, परन्तु कांग्रेस सरकार के कार्य ने बार बार अवश्य यह सोचने पर विवश किया के कब वो मुसलमानों की हमदर्द है और कब उस के दिल से हमदर्दी निकल जाती है। जब दिल्ली धमाकों के बाद एक सप्ताह के अन्दर ही रमजान के महीने में जुम्मा के दिन एनकाउंटर के नाम पर दो मुस्लिम नौजवानों की हत्या कर दी जाती है, तब यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है के क्या सच मुच यह सरकार मुसलमानों की हमदर्द है? हम ने आज यह बात इस लिए लिखी के एनकाउंटर के नाम पर दो मुस्लिम नौजवानों की हत्या के बाद केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह स्वयं जुडिशियल एन्कुएरी की बात कह कर एनकाउंटर पर पर्श्न्चिंंह लगा चुके हैं, अमर सिंह का हवाला हमने इस में पहले ही दिया है। आशचर्य की बात यह है के जब यह एनकाउंटर ही अभी संदिग्ध है तो फिर यह सरकार उस एनकाउंटर में शामिल रहे इंसपेक्टर मोहन चन शर्मा को अशोक चक्र देने का निर्णय कैसे ले सकती है जबके उन के पिछले अंसल प्लाजा एनकाउंटर को भी फर्जी करार दिया जा रहा होऔर उस के चश्म दीद गवाह बार बार यह साबित करने की कोशिश कर रहे हों के यह एनकाउंटर नहीं था, मुडभेड़ फर्जी थी, कार से निकाल कर दो नौजवानों को गोली मारी गई थी। उस समय कुछ संतोष होता है, जब महाराष्ट्र ऐ टी एस शहीद वतन हेमंत करकरे के नेतृत्व में आतंकवाद का एक दूसरा चेहरा भी सामने रखती है, परन्तु मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले के बाद फिर एक बार ज़हनों में यह प्रशन कोंदने लगता है के नरीमन हाउस की गतिविधियाँ और जिन हालात में हेमंत करकरे, अशोक काम्टे और विजय सालसकर शहीद हुए, वो सब सत्य सामने लाने में सरकार की रूचि क्यूँ नहीं है?



फिर भी कांग्रेस प्रमुख के राजनैतिक सलाहकार अहमद पटेल, दिग्विजय सिंह और सलमान खुर्शीद जिस प्रकार देश को एक सेकुलर सरकार देने की कोशिशों में व्यस्त दिखायी पड़ते हैं और निरंतर प्रय्तनशील हैं के सेकुलर पार्टियाँ एक प्लेट फॉर्म पर रहे, उसे देख कर लगता है के अभी ऐसे लोग जो देश को जातिवाद का शिकार नहीं होने देना चाहते, चिंतित हैं और सरगर्म हैं, परन्तु यह कल्याण फैक्टर कहीं न कहीं कांग्रेस की उन ५ बड़ी व्यक्तित्वों को एक राय नहीं होने दे रहा है। पाँच में हम ने श्रीमती सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को भी शामिल कर लिया है, शायद इस लिए के अभी तक समाजवादी पार्टी के साथ गठजोड़ का निर्णय अन्तिम परिणाम तक नहीं पहुँचा है।



फिर जमीनी वास्तविकता पर कुछ वाक्य सामने रखना आवयशक हैं। कल्याण सिंह जी का यह कहना के वो भारतीय जनता पार्टी को बरबाद करदेंगे, अर्थहीन है, इसलिए के ऐसा ही दावा एक बार करके वो फिर भारतीय जनता पार्टी में वापस लौट चुके हैं। उन्हें अपनी सीट जीतने के लिए भी किसी की सहायता की आव्यशकता पेश आई थीबुलंद शहर से वो सभी सबूत आज भी सामने रखे जा सकत हैं जबके यह चुनाव उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर लड़ा था और बदरुल हसन जीतते जीतते हार गए थे। ऐसे ही खोखले दावे मध्य प्रदेश की मुख्य मंत्री रही उमा भरती भी करती रही हैं, परिणाम सब के सामने है और साक्षी महारह की तो बात ही क्या, तीनों का सम्बन्ध एक ही बिरादरी से है। हिंदुस्तान में तो क्या, क्षेत्रों में भी यह लोग भारतीय जनता पार्टी को हराने या ख़ुद जीतने की पोजीशन में नहीं हैं।


अब रहा प्रशन कांग्रेस का समाजवादी पार्टी के साथ लाभ या हानि का तो आज कांग्रेस की उत्तरपर्देश की पार्लिमेंट में ९ सीटें हैं, इस की पोजीशन में पहले से कुछ बढोतरी आई है. यह बढोतरी उस समय बहुत अधिक हो सकती है जब कल्याण फैक्टर का प्रभाव उन पर न पड़े। अगर कांग्रेस का ख़राब से ख़राब चित्र भी जाहें में रखा जाए तो भी कांग्रेस को १२-१० सीटें जीत लेना चाहिए कल्याण फैक्टर का प्रभाव न हो तो यह मात्रा दुगनी या उस से भी अधिक हो सकती है। समाजवादी पार्टी के साथ अगर नई सरकार बनाने का अवसर मिलता है तो उस की सहायता का पूरा विशवास होगा।......, हाँ यह अलग बात है के इस कल्याण फैक्टर के कारण अन्य राज्यों में सेकुलर समझी जाने वाली स्थानीय पार्टियों को मुसलमानों का वोट कल्याण और कांग्रेस के साथ होने की सूरत में अधिक मिल सकता है, वरना कांग्रेस वहां भी राज्य पार्टियों के मुकाबले अधिक मज़बूत हो सकती है। उत्तर परदेश में अगर समाजवादी पार्टी के साथ गठजोड़ के बाद मौजूदा सीटों की मात्रा दुगनी भी हो जाए तो अधिक से अधिक १८ सीटें उस के हिस्से में आसकती हैं, जबके इस से अधिक सीटें मुसलमानों की नाराजगी के चलते उसे बाकी हिन्दुस्तानमें खोनी पड़ सकती हैं।

Thursday, January 29, 2009

और अब नॉएडा एनकाउंटर भी संदिग्ध

देश में अगर कहीं भी बम धमाके हो रहे हैं तो षड़यंत्र करने वालों से लेकर बम प्लांट करने वालों तक सब के सब मुस्लमान ही होंगे और अगर पुलिस या ऐ टी एस कहीं संदिग्ध आतंकवादियों को गिरफ्तार कर रही है या चुपके से उठा कर ले जा रही है तो उन का सम्बन्ध भी किसी न किसी इस्लामी नाम वाले आतंकवादी संघटन से होगा और अगर कुछ आतंकवादी पुलिस के साथ एनकाउंटर में हलाक हो रहे हैं तब वो भी मुस्लमान ही होंगे। हाँ, हालत में थोड़ा सा बदलाव आप अवश्य अनुभव कर सकते हैं के अब वो मुस्लमान हिन्दुस्तानी मुस्लमान न हों, बलके पाकिस्तानी मुस्लमान हों और पाकिस्तान के बारे में तो कुछ कहने का प्रशन ही नहीं उठता। खैर अगर वो आतंकवादी है तो मुस्लमान ही होंगे। भूल जाइए के शहीद हेमंत करकरे आतंकवाद का कौन सा चेहरा दिखा रहे थे, भूल जाइए के उस आतंकवाद के तार कहाँ तक पहुँच रहे थे, संघ परिवार और भारतीय जनता पार्टी के कौन कौन से लोग शक के दायरे में थे और गिरफ्त में आसकते थे, इस लिए के ऐ टी एस के स्थानापन्न मुख्य अब रघुवंशी हैं और यह रघुवंशी मुंबई ऐ टी एस के पहले भी मुख्य रह चुके हैं। नांदेड जहाँ बम बनाने की कोशिश में बजरंग दल और शिव सेना के दो कार्यकर्ता मारे गए थे, वो आतंकवाद के एक बड़े नेटवर्क का हिस्सा थे, परन्तु बुद्धि का प्रयोग करते हुए मिस्टर रघुवंशी ने उस मामले को रफा दफा कर देने में धरती आकाश एक कर दिया था, आज भी उन के सवभाव में कोई बदलाव नज़र नहीं आता।



वैसे इस समय बात मालेगाँव बम धमाकों की निरंतरता में की जाने वाली छानबीन की नहीं है और न ही २६ नवम्बर को मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले के सम्बन्ध में कुछ लिखना है, हाँ नॉएडा में मारे गए आतंकवादी और मुंबई पर हुए आतंकवादी हमलों में कोई समानता है तो केवल इतनी के दोनों स्थानों पर आतंकवादी पाकिस्तानी थे, जैसा के मुंबई पुलिस और यु पी ऐ टी एस के द्वारा बताया गया है।



जहाँ तक "रोजनामा राष्ट्रीय सहारा" के द्वारा इन मामलात के उठाये जाने का या अपनी पत्रकारी छानबीन के द्वारा सच्चाई के सामने लाने की कोशिश का प्रशन है तो बात बहुत पूरानी नहीं है, उत्तर परदेश के एक ऐसे ही कारनामे को हम पिछले दिनों सामने लाये थे, यह बात १६ अक्टूबर २००८ की है, जब रात लगभग ८ बजे हमें यह ख़बर मिली के शाहीन बाग़ पुलिस स्टेशन के पास उत्तर परदेश पुलिस के जवानों को जनता के द्वारा पाकर शाहीन बाग़ पुलिस स्टेशन के हवाले कर दिया गया है क्यूँ के वो किसी नोर्दोश को आतंकवादी बता कर उस का एनकाउंटर करने वाले थे। यह "रोजनामा राष्ट्रीय सहारा" की कोशिशों का असर था के जनता ने एक सम्भव एनकाउंटर को रोक लिया, इतना ही नहीं, बलके "रोजनामा राष्ट्रीय सहारा" ने इस निरंतरता में अधिक रूचि लेते हुए उत्तर परदेश की राज्य मंत्री से सही कदम उठाने का निवेदन किया। परिणाम स्वरुप राज्य अल्पसंख्यक आयोग के सचिव मोहम्मद अकरम ने तत्काल कार्यवाही करते हुए उत्तर परदेश पुलिस के जिम्मेदारान से उत्तर माँगा और उस मुस्लिम नौजवान को उठाने वाले सभी पुलिस वालों के विरुद्ध कार्यवाही की गई। हम यहाँ इस घटना पर इस लिए बात कर रहे हैं के उत्तर परदेश ऐ टी एस ने नॉएडा सेक्टर ९७ में २६ जनवरी की सुबह जिन २ संदिग्ध आतंकवादियों को मार गिराया, वो कहानी भी हलक से नहीं उतर रही है और पहली नज़र में तो लगता है के यह एनकाउंटर भी फर्जी हो सकता है। इस सम्बन्ध में रोजनामा राष्ट्रीय सहारा आन्दोलन की एक सफलता भी करार दी जा सकती है के अब ऐसे प्रशन केवल हमारी और से ही नहीं उठाये जा रहे हैं, बलके अन्य राष्ट्रीय मीडिया भी इस मामले में भरपूर रूचि ले रहा है और वो पुलिस के ज़रिये बताई जाने वाली कहानी पर पूरी तरह से भरोसा न कर के सच्चाई को सामने रख रहा है। "टाईम्स ऑफ़ इंडिया" ने ललित कुमार और परवेज़ इकबाल सिद्दीकी की जो रिपोर्ट प्रकाशित की है, वो पुलिस की उस कार्यवाही पर प्रशन्चिंंह लगाती है।


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शनिवार की शाम से ही नॉएडा एनकाउंटर की सच्चाई पर प्रशन उठने शुरू हो गए थे।



सब से पहले स्वयं आतंकवादियों के बारे में प्राप्त होने वाली जानकारी पर ही प्रश्नाचिंंह लग रहे हैं। लखनऊ के डीप्टी इंसपेक्टर जनरल (ऐ टी एस) राजीव कृष्ण से जब यह पूछा गया के पुलिस के मुखबिर को कैसे शक हुआ तो उन का उत्तर था के उस ने उन लोगों के पास ऐ के ४७ राइफल देखी थी। उन्होंने विस्तारित बताते हुए कहा के मुखबिर ने देखा था के उन (आतंकवादियों) के बैग से राइफल की नली बहार निकली हुई है। राजीव कृष्ण ने यह भी बताया के मुखबिर असल में एक पुलिस कांस्टेबल का रिश्तेदार है। कृष्ण के अनुसार "ऐ के ४७ के बैरल पर एक विशेष प्रकार का "A" जैसा टारगेट गाइड होता है। मुखबिर ने बैग (थैला) देखा था और यह अनुभव किया था के "A" बाहर की और निकला हुआ है।"



इस से यह पता चलता है के आतंकवादी अपने मिशन के लिए जाते समय अपने हत्यारों को लेकर पूरी तरह से लापरवाह थे।



ऐ टी एस के अनुसार मुखबिर ने उन से बात कर के अपने शक को जताया था के यह संदिग्ध लोग स्थानीय नहीं लग रहे हैं, बलके उन की ज़बान "मुसलमानों से मिलती जुलती" है।



कृष्ण ने बताया के "असल में दोनों संदिग्ध व्यक्ति कुँवें के पास एक चाय की दुकान पर रुके और यह एक संयोग ही है के उन्होंने हमारे मुखबिर से दिल्ली का रास्ता और दूरी के बारे में पूछा।"



गणतंत्र दिवस के अवसर पर आतंकवादियों के द्वारा जिन की राइफल उन के थैले से बाहर को निकल रही थी, एक मुखबिर से दिल्ली के रास्ते के बारे में पूछना! क्या यह केवल एक संयोग है या फिर मनघडत कहानी? अगर आप इस दावे में यह भी जोड़ लें के आतंकवादी गणतंत्र दीवस के अवसर पर भोर के समय राजधानी में प्रवेश करने की कोशिश कर रहे थे। जबके उस दिन उस समय सुरक्षा का कड़ा प्रबंध होता है, तो यह कहानी अविश्वसनीय लगती है।



लेकिन ऐ टी एस बंदूक वाली बात पर अधिक ज़ोर दे रही है। कानून और व्यवस्था के अतिरिक्त महानिदेशक अपराध और आतंकवाद विरोधी दस्ते, ब्रिज लाल ने बताया के "गाड़ी पर गोली का निशान था, जिस के कारण हम उस गाड़ी का पीछा कर रहे थे। यहाँ तक के हमारे एक जवान की टांग पर गोली भी लगी थी, वो अब भी अस्पताल में भरती है।"



ब्रिज लाल ने आगे बताया के "जहाँ तक संदिग्ध व्यक्तियों की कार का सम्बन्ध है (जिस पर गोलियों के निशान नहीं हैं) जिस का पुलिस वाले पीछा कर रहे थे, तो उस बारे में पुलिस का कहना है के उन्होंने कार के निचले भाग को निशाना बनाया था, जिस के कारण कार का पिछला टायर पंक्चर हो गया था, यह इस लिए किया गया ताके वो कार को छोड़ कर बाहर निकल आयें और छिपने के लिए भागें।"



संयोग पर संयोग यह भी है के यह एनकाउंटर नॉएडा के सेक्टर ९७ में उसी स्थान पर पेश आया है जहाँ पर १८ दिसम्बर २००८ को नरेंद्र उर्फ़ कालू नाम के एक अपराधी को मार गिराया गया था, जिस पर कुछ सप्ताह पहले बागपत के तीन व्यापारियों की हत्या का आरोप था। यही नहीं, बलके तीन अन्य अपराधियों को भी इसी स्थान पर पिछले वर्ष १७ अप्रैल को गोली मार दी गई थी, जिन में से एक डाकू बिरजू पहाडी भी था।



नॉएडा के एक पुलिस अधिकारी का कहना है के "यह एक खाली जगह है जहाँ पर अपराधी छुप सकते हैं और उन्हें कोई परेशान भी नहीं कर सकता। इस के अलावा यह एक संयोग भी हो सकता है।"



(शायद अब एनकाउंटर स्पेशलिस्ट पुलिस अफसरों की तरह एनकाउंटर लोकेशन पर भी बात हुआ करेगी)



एक और विशेष बात जिस पर बात की जा सकती है वो यह के रविवार को होने वाले नॉएडा एनकाउंटर के दौरान मारे गए संदिग्ध आतंकवादियों के पास से पुलिस को एक भी मोबाइल फ़ोन नहीं मिला है, समीक्षकों को आशचर्य हो रहा है साथ ही इस एनकाउंटर की सच्चाई पर शक और भी गहरा होता चला जा रहा है।



जहाँ तक ओपरेशन का सम्बन्ध है तो इस प्रकार के आतंकवाद मॉड्यूल के लिए सेल फ़ोन एक अवश्य आले के तौर पर कार्य करता है। उन आतंकवादियों को प्रयोग करने वाले मोबाइल फ़ोन के द्वारा ही उन्हें पल पल की जानकारी उपलब्ध कराते रहते हैं और बाद में छानबीन करने वालों को भी वर्त्तमान में होने वाले इस प्रकार के आतंकवादी हमलों के दौरान इन मोबाइल फ़ोन से ही बहुत सहायता मिलती है। लगभग सभी घटनाओं में आतंकवादियों के पास से प्राप्त होने वाले मोबाइल फ़ोन से उन के बेक ग्राउंड का पता लगाने में भी काफ़ी सहायता मिली है, ऐसा छानबीन करने वालों का मानना है।



परन्तु यु पी ऐ टी एस के पास इस भी उत्तर मौजूद है, इस प्रशन पर उन का कहना है के ऐसा अनुभव होता है के आतंकवादियों ने भूत काल में की जाने वाली गलतियों से पाठ प्राप्त किया है। वो उदहारण पेश करते हुए कहते हैं के आतंकवादियों ने मुंबई हमलों के दौरान एक भी सेल फ़ोन का प्रयोग नहीं किया था, बलके इस के उलट सॅटॅलाइट फ़ोन पर ही निर्भर रहे, जिस को पकड़ पाना, विशेष कर हिन्दुस्तानी खुफिया एजेंसियों के लिए सरल नहीं है, इसलिए कुछ आतंकवादियों ने जो सेल फ़ोन प्रयोग किए, वो भी उन्होंने बंधक बनाये गए लोगों से लिए थे, जो के प्रयोग करने के बाद उन लोगों को वापस भी कर दिए गए। नॉएडा एनकाउंटर की छानबीन करने वाले कुछ अफसरों का कहना है के "क्यूंकि मोबाइल फ़ोन से काल की डिटेल प्राप्त की जासकती हैं, इस लिए इस ओपरेशन में आतंकवादियों ने किसी भी प्रकार के आले का प्रयोग न करने का निर्णय लिया था। वो शायद पी सी ओ बूथ का प्रयोग कर रहे थे या फिर प्रयोग करने के बाद फ़ेंक दिए जाने वाले हैण्ड सेट का।"



येही कारण है के पुलिस के अनुसार, आतंकवादियों के स्थानीय साथियों का पता लगाने में कठिनाई हो रही है। इस लिए छानबीन करने वालों का कहना है के वो इस मामले में अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए उस मारुती कार के असली मालिक का पता लगाने की कोशिश में लगे हुए हैं, जिसे आतंकवादी प्रयोग कर रहे थे। "एक बार जब पुलिस को उस स्थान का पता लग जायेगा, जहाँ से उस कार को उठाया गया तो वो उस गैंग का पता लगाने में सफल हो सकेंगे, जिन्होंने आतंकवादियों को गाड़ी उपलब्ध कराइ थी और फिर उन जगहों का भी पता लगा पायेंगे जहाँ जहाँ यह आतंकवादी गए थे। "छानबीन करने वालों को भरोसा है के यह दोनों संदिग्ध आतंकवादी अपने "मिशन" के आखरी पडाव में नेपाल में ठहरे होंगे और फिर अपने मिशन को पूरा करने के लिए हिंदुस्तान में प्रवेश किया होगा। उन में से एक के पास से प्राप्त होने वाला पासपोर्ट यह जताता है के उस पर काठ्मांडू का एग्जिट स्टांप नहीं लगा हुआ है जब के उस पर मई २००८ का कराची से आने का एंट्री स्टांप लगा हुआ है।



पुलिस २५ किलोमीटर वाले प्रशन से भयभीत क्यूँ है?



यु पी ऐ टी एस इस बात से इनकार कर रही है को उन्होंने दोनों आतंकवादियों का पीछा २५ किलोमीटर तक किया, परन्तु स्थानीय पुलिस का यही कहना है के २५ किलोमीटर तक पीछा करने वाली बात पुलिस को परेशानी में डाल सकती है क्यूँ को ऐसा करते समय एनकाउंटर की जगह तक पहुँचने से पहले वो गाज़िआबद और नॉएडा के पाँच पुलिस पोस्ट से हो कर गुज़रे होंगे।



इस का अर्थ यह हुआ के उन पोस्ट पर तैनात पुलिस वालों ने या तो आतंकवादियों की तेज़ दौड़ रही मारुती कार को रोका ही नहीं या फिर उन्होंने उस पर ध्यान देने या उन्हें रोकने की कोई परवाह ही नहीं की, जबके उन सभी पुलिस पोस्ट पर कार की गति को कम करने और उस पर कंट्रोल प्राप्त करने के आलात लगे हुए हैं।



शनिवार की शाम को होने वाली घटना में अगर उस कार का पीछा किया गया था तो उस के रास्ते में गाज़िआबद का विजय नगर पुलिस पोस्ट और नॉएडा का मॉडल टाऊन, सेक्टर ६०, सेक्टर ३७ और अमेटी पुलिस पोस्ट पड़ते हैं। इस का अर्थ यह हुआ के किसी ने भी उस गाड़ी को रोकने की कोशिश नहीं की।



जाली स्कूल आई कार्ड के बारे में प्रिंटर्स से पूछ ताछ



नॉएडा में होने वाले शूट आउट की जांच शुरू हो गई है। इस जांच में भाग लेने के लिए यु पी ऐ टी एस के सेनिअर पुलिस अफसर भी लखनऊ से नॉएडा पहुँच चुके हैं। छानबीन करने वाले इस नकली आई कार्ड की असलियत का पता लगाने में व्यस्त हैं जो शुभम माडर्न पब्लिक सेकेंडरी स्कूल से जारी हुआ है और जो मारे गए आतंकवादियों के पास से बरामद हुआ है। एक कार्ड जो समीर चौधरी के नाम पर जारी हुआ है, वो अबू इस्माइल के पास से बरामद हुआ है, अबू इस्माइल को उस के साथी फारूक उर्फ़ अली अहमद के साथ नॉएडा में रविवार को भोर के समय होने वाले एनकाउंटर में मार दिया गया था।



नॉएडा पुलिस के एक सीनियर अफसर के अनुसार उन्हें इस बात की दिल्ली पुलिस के उत्तर पूर्वी जिले से जानकारी प्राप्त हुई है। उन्होंने बताया के "हम लोग रिपोर्ट का अध्यन करने में लगे हुए हैं। मिलने वाली जानकारियों के आधार पर हम बहुत ही जल्दी अपनी जांच टीम को उस्मान पूर की विजय कालोनी में स्थित उस स्कूल में भेजेंगे।"



पुलिस के अनुसार जांच का फोकस वो प्रिंटिंग प्रेस होंगे, जहाँ से यह आई कार्ड प्रिंट किया गया है। पुलिस अधिकारी का कहना था के "हम ऐसे कुछ प्रिंटर्स से पूछ ताछ कर रहे हैं जो सामान्य तौर पर स्कूल के आई कार्ड छापते हैं। इस सम्बन्ध में हम दिल्ली पुलिस की भी सहायता लेंगे। जांच के लिए स्कूल की मुहर भी फोरेंसिक एक्सपर्ट के पास भेजी जायेगी। हम स्कूल प्रशासन से यह भी पूछेंगे के क्या वो अपने आई कार्ड पर किसी होलोग्राम का भी प्रयोग करते हैं, जिस से के उस की असलियत बनी रहे।"



इसी दौरान दिल्ली पुलिस ने कहा है के जांच के सम्बन्ध में यु पी पुलिस ने अब तक उन से कोई संपर्क नहीं किया है। दिल्ली पुलिस के पी आर ओ राजन भगत ने यह कहा है के उस्मान पूर पुलिस ने नॉएडा पुलिस को आई कार्ड के सम्बन्ध में एक रिपोर्ट भेजी है। नई दिल्ली पुलिस के जोइंट पुलिस कमिशनर धर्मेन्द्र कुमार ने आई कार्ड को नकली बताया है। उन का कहना है के "स्कूल ने पिछले दो वर्षों के दौरान ऐसा कोई भी आई कार्ड जारी नहीं किया है। इस के अलावा इस में उपलब्ध कराइ गई सभी जानकारियां भी जाली हैं। "पुलिस को परन्तु इस विशेष स्कूल के नाम पर तशवीश है। विशेष सेल के एक सीनियर अधिकारी के अनुसार "यह स्कूल उत्तर पूर्वी दिल्ली के काफ़ी अन्दर स्थित है। पाकिस्तना के किसी व्यक्ति के लिए इस स्कूल तक पहुंचना सरल नहीं है। ठीक इसी प्रकार उन के लिए यह भी सरल नहीं था के वो चोरी हो चुकी मारुती ८००, जिस पर गाज़िआबद के शाहपूर में रहने वाले एक व्यक्ति के स्कूटर का नंबर लिखा हुआ था, तक पहुँच जाएँ। इस लिए इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता के एन सी आर में आतंकवादियों के स्लीपर सेल में यहाँ का कोई स्थानीय व्यक्ति भी शामिल हो।"



हम ने १६ अक्टूबर २००८ को शाहीन बाग़ की घटना पर बात, उस मुस्लिम नौजवान मोहम्मद आमिर की फोटो, जिस कार में उसे उठा कर लेजाना था, की फोटो, वो कार और कार से प्राप्त होने वाले क्रेडिट कार्ड्स, इस लिए नॉएडा में हुए संदिग्ध एनकाउंटर की ख़बर के साथ प्रकाशित किए हैं ताके पाठक और सरकार अच्छी तरह समझ सकें के पुलिस के लिए इस तरह के सबूत जुटाना कुछ भी कठिन नहीं होता। मारुती -८०० जो ताज़ा घटना में प्रयोग हुई, उस के नीचे हम ने जिस कार की फोटो दी है, वो पुलिस के द्वारा प्रयोग की गई, उस पर कोई नंबर प्लेट नहीं लगी थी, बलके यह नंबर प्लेट उसी कार की डिगी से प्राप्त की गई थी। अब अगर मारुती ८०० पर किसी स्कूटर की नंबर प्लेट लगी है तो आशचर्य की बात क्या है? प्रशन यह उठता है के आख़िर इस प्रकार के एनकाउंटर कब तक किए जाते रहेंगे? सरकार कब तक चुप रहेगी? जनता की और से कब तक प्रदर्शन नहीं होगा? अब हर घटना में तो डॉक्टर हरिकृष्ण जैसा चश्मदीद गवाह मिल नहीं सकता, जो अंसल प्लाजा एनकाउंटर की तरह सत्य को सामने लाने का इरादा कर ले। यह चिंता जनक क्षण है सभी के लिए, जहाँ यह महत्त्वपूर्ण है के एनकाउंटर अगर फर्जी हो तो उस में निर्दोष मारे जाते हैं, वहीँ शान्ति प्रेमी जनता के दिलों में भय और आतंक भी जनम लेता है।

क्या कांग्रेस भी कल्याण के साथ........?

मेरी निगाहों के सामने इस समय ७ और ८ दिसम्बर १९९२ के दैनिक हैं, जिन की कुछ सुर्खियाँ मैं आप की सेवा में पेश करने जा रहा हूँ। ७ दिसम्बर १९९२ को पृष्ठ १ पर पहली और सब से बड़ी ख़बर थी " बाबरी मस्जिद बचाई नहीं जा सकी, कल्याण का इस्तीफा, उत्तर्पर्देश अस्सम्ब्ली बर्खास्त, राष्ट्रपति शासन लागू, इस के अलावा पृष्ठ १ पर अन्य खबरें थीं, "उत्तर्पर्देश में रेड एलर्ट", "कई राज्यों में कर्फियु" , "दिल्ली में सेना का फ्लैग मार्च" , "राष्ट्रपिता का प्रधानमंत्री को आदेश के वो तत्काल सही कदम उठाएं" , "बुखारी ने मुसलमानों से भावनाओं पर नियंत्रण रखने का निवेदन किया" , "अजोध्या की घटनाओं से कांग्रेस सहित सभी महत्वपूर्ण राजनैतिक पार्टियाँ हैरान, एक आवाज़ में सभी ने निंदा की और कार्यवाही की मांग की"

इस सब का जिम्मेदार कौन..........?

"कल्याण सिंह"

८ दिसम्बर १९९२ के दैनिकों में पृष्ठ एक की महत्त्वपूर्ण सुर्खियाँ थीं, "देश भर में तशद्दुद, १५० लोग मारे गए, कई शहरों में कर्फियु, हालात संगीन" , "अडवाणी कल्याण के विरुद्ध मुकदमा चलाने के इशारे, चीफ सेक्रेट्री सहित बड़े अफसर भी ज़द में आयेंगे" , "फैजाबाद के डी एम्, एस एस पी सस्पेंड" , "अडवाणी ने विपक्षी दल के लीडर के पद से इस्तीफा दिया" , " विवादास्पद स्थानों पर कारसेवकों का अभी भी कब्ज़ा ".

कुसूरवार कौन..........?

"कल्याण सिंह"

६ दिसम्बर १९९२ को जब बाबरी मस्जिद शहीद हुई, केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी और प्रधानमंत्री थे नरसिम्हा राव। मुसलमानों की ६ दिसम्बर के बाद कांग्रेस और नरसिम्हा राव से यही नाराजगी रही के उन की सरकार की अवधि में मस्जिद को बचाया नहीं जा सका। मुसलमानों ने कल्याण सिंह के साथ साथ नरसिम्हा राव को भी इस के लिए जिम्मेदार माना और उन के जीवन में कभी भी नरसिम्हा राव को क्षमा नहीं किया, यहाँ तक के कांग्रेस को भी मुसलमानों की नाराजगी का भुगतान करना पड़ा।

कल्याण सिंह के फिर से समाचारों में आने और समाजवादी पार्टी से मित्रता का उल्लेख बाद में करेंगे, पहले इस समय की कांग्रेस सरकार के वादों की एक झलक पाठकों के सामने रखना अवश्य समझते हैं। ७ दिसम्बर को अर्थात बाबरी मस्जिद की शहादत के अगले दिन कांग्रेस (कांग्रेस सरकार) ने यह वादा किया था के सरकार ढांचा (बाबरी मस्जिद) की फिर से स्थापना कराएगी। क्या पिछले १६ वर्षों में सरकार ने यह वादा पूरा किया? उपरोक्त समाचार इस प्रकार था के केंद्रीय सरकार ने अजोध्या में गिराए गए ढांचा (बाबरी मस्जिद) की फिर से स्थापना का निर्णय लिया है। सरकार जातिवादी संघटनों पर प्रतिबन्ध भी लगायेगी। सरकार ने उत्तर्पर्देश में राष्ट्रपति शासन लागू करने के बाद अजोध्या के हालात की उच्च स्तरीय छानबीन कराने का तत्काल एलान किया, जिस के बिन्दु निम्न लिखित थे:

१. गिराए गए ढांचा (बाबरी मस्जिद) की फिर से स्थापना की जाए और इलाबाद हाई कोर्ट का निर्णय आने (११ दिसम्बर) के बाद अजोध्या में एक नए राम मन्दिर की स्थापना के लिए सही कदम उठाये जायेंगे।

२. जातिवादी संघटनों पर प्रतिबन्ध लगाया जायेगा, उन संघटनों की सूची के बारे में गृह मंत्रालय गौर कर रही है।

३. अजोध्या में राम जनम भूमि, बाबरी मस्जिद ढांचा को तोड़ने की घटना से सम्बंधित दोषियों के विरुद्ध कानून के तहत कड़ी से कड़ी कार्यवाही की जायेगी। यह कार्यवाही उन लोगों के विरुद्ध भी की जायेगी, जिन्होंने लोगों को भड़काने और उकसाने का काम किया है।

४. ६ दिसम्बर के मामले में लापरवाही बरतने वाले अन्य सरकारी अधिकारीयों के विरुद्ध विभागीय कार्यवाही की जायेगी, उन पर मुक़दमे भी चलाये जा सकते हैं।

सरकारी अनुवादक ने उसे अजोध्या के हालात के सम्बन्ध से किए गए निर्णय की पहली कड़ी करार दिया।

अगले दिन अर्थात ८ दिसम्बर १९९२ को दैनिकों की पहली ख़बर यह थी: "देश भर में हुए अत्याचार में १५० लोग मारे गए, कई शहरों में कर्फियु, हालात नाज़ुक"

"दूसरी बड़ी ख़बर थी: "अडवाणी और कल्याण सिंह के विरुद्ध मुकदमा चलाये जाने के इशारे"

क्या सरकार बता पाएगी के वो कौन से जातिवादी संघटन हैं, जिन की फेहरिस्त गृह मंत्रालय ६ दिसम्बर १९९२ की घटना के बाद तैयार कर रही थी और उन में से किन किन जातिवादी संघटनों पर पिछले १६ वर्षों में प्रतिबन्ध लगाया गया। अगर नरसिम्हा राव से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक के राज्य काल की बात न करें, तब भी प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह के दौर में क्या कांग्रेस ने उस के सम्बन्ध में कोई कदम उठाया?

लाल कृष्ण अडवाणी और कल्याण सिंह के विरुद्ध कौन से मुक़दमे चलाये गए और उन का क्या परिणाम हुआ?

६ दिसम्बर १९९२ को बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद देश भर में हुए अत्याचार में १५० लोग मारे गए, कई शहरों में कर्फियु और हालात संगीन, यह ख़बर घटना के सिर्फ़ २४ घंटे गुजरने के बाद की थी। अगर हम १६ वर्षों की बात करें तो गुजरात सहित, बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद हुए जातिवादी दंगों में कितने लोग मारे गए हैं, घायल हुए हैं। क्या इन सब की ज़िम्मेदारी सब से अधिक कल्याण सिंह पर नहीं आती है? जब तक कल्याण सिंह भारतीय जनता पार्टी में थे, तब तक इस सम्बन्ध में कोई भी आवाज़ उठाना बेकार था, इस लिए के जब नरेंद्र मोदी के राज्य काल में मुसलमानों की हत्या पर उठाये जाने वाली आवाजों का कोई परिणाम नहीं निकला तो कल्याण सिंह के विरुद्ध आवाज़ उठाने से क्या मिलता?

लेकिन!

आज जब कल्याण सिंह को सेकुलर पार्टियों की श्रुंखला में खड़ा कर दिया गया है तो कांग्रेस को उन प्रशनों के उत्तर देने के साथ साथ इस प्रशन का उत्तर भी देना होगा के कांग्रेस सरकार जिन पर उस समय मुकदमा चलने की बात कर रही थी, आज उन्हीं के साथ गठजोड़ का निर्णय क्या उस के शब्दों और कार्य पर प्रशन नहीं उठाता? वो व्यक्ति जो बाबरी मस्जिद की शहादत के लिए जिम्मेदार है, वो व्यक्ति जिसे देश भर में हुए हजारों निर्दोषों की हत्या की ज़िम्मेदारी से अलग नहीं किया जा सकता, वो व्यक्ति जिसे मुस्लमान नरसिम्हा राव से भी अधिक नापसंद करते हैं, वो व्यक्ति जिस ने स्वतंत्रता के बाद एक बार फिर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच नफरत पैदा की, वो व्यक्ति जो केवल बाबरी मस्जिद की शहादत के लिए ही नहीं, बलके देश में शान्ति का नाश करने का जिम्मेदार है। क्या आज उस व्यक्ति को सेकुलर मान लिया जाए? क्या उस के पिछले सभी अपराधों को माफ़ कर दिया जाए? हमारे ख्याल में यह संभव नहीं है। समाजवादी पार्टी की इस राजनीतिक नीति के बारे में हम बाद में बात करेंगे, आज हम कांग्रेस को यह बता देना चाहते हैं के ६ दिसम्बर १९९२ के दैनिकों की इन सुर्खियों पर गौर करे, अपने किए हुए वादों पर गौर करे, उस व्यक्ति के कार्य पर गौर करे जो बाबरी मस्जिद की शहादत के लिए जिम्मेदार है, फिर यह निर्णय ले के क्या इस सब के बावजूद भी उसे कल्याण सिंह के साथ खड़ा होना स्वीकार है? उस के बाद यह निर्णय देश की सेकुलर जनता को करना होगा के अब वो किसे कम्युनल और किसे सेकुलर कहें, किस की हिमायत करें और किस से दूर रहे।

कब तक जकडे रहेंगे इन लोहे की ज़ंजीरों में?

मत पढिये आज का लेख........इस में न निरंतरता है कोई विशेष शीर्षक, मैं जो बात करने जारहा हूँ, यह कुछ बिखरे हुए से विचार हैं, शायद आज मैं जो कुछ लिख रहा हूँ वह अपनी मानसिक संतोष के लिए आने वाली पीढी के लिए ताके जब वो पढ़ें तो आज का लेख उन्हें यह अनुभव कराता रहे के उस दौर में भी कोई था जो सभी हालात से जागृक करता रहा, परन्तु यह कौम इतनी लाचार , बेबस और मजबूर थी के सब कुछ जानते, समझते हुए भी कोई कदम न उठा सकी, कोई ऐसी योजना न बना सकी के जिन परेशानियों का सामना स्वतंत्रता के तुंरत बाद से इस कौम को करना पड़ा, उन से छुटकारा पा सकती या कम से कम आने वाली पीढी के लिए ही कोई ऐसी योजना बना पाती के कम से कम उन्हें तो इन हालत का सामना न करना पड़ता, वो तो अपना भविष्य संवार लेते।

समस्याएँ अनेक हैं, एनकाउंटर बटला हाउस पर लिखिए, मालेगाँव की छानबीन के सिमटते दायरे पर बात कीजिये, समझौता एक्सप्रेस की वास्तविकता सामने आने पर भी चुप्पी बंध जाने के कारण पर ध्यान दीजिये, अंसल प्लाजा बेसमेंट में हुए फर्जी एनकाउंटर से परदा उठाने की कोशिश कीजिये, रामपुर सी आर पी ऍफ़ कैंप में हुए आतंकवादी हमले की फाइल ले कर बैठिये, पन्ने पलट पलट कर पाठ करते जाइये और अपना ही सर पीटते जाइए, इस लिए के सब कुछ आप के सामने हो तब भी आप सत्य को सत्य साबित नहीं कर सकते। बाबरी मस्जिद का मामला अठारा वर्षों से लम्बित है, जिन्हें इस मामले में दोषी होना चाहिए अब उन की सराहना की जा रही है। पार्लिमेंट में हुए हमले को लेकर हम बड़े चिंतित रहे परन्तु जितना गहराई में जा कर इसे देखते हैं, जांच का दायरा आगे बढाते हैं या जो जांच सामने आई है, उसी पर ध्यान देते हैं तो गूड़ता बढती चली जाती हैं। इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा वहां भी थे, इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा अंसल प्लाजा के फर्जी एनकाउंटर में भी थे, इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा बटला हाउस के उस संदिग्ध एनकाउंटर में भी थे, जिस की जुडिशिअल इन्कुएरी की बात अब केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह कर रहे हैं। इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा का नाम अशोक चक्र के लिए भी नामांकित किया जा रहा है। अगर अंसल प्लाजा एनकाउंटर फर्जी था, अगर बटला हाउस का एनकाउंटर फर्जी साबित होता है तो इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा को किसी पुरुस्कार का हकदार करार दिया जायेगा या निर्दोषों की हत्या का ज़िम्मेदार.......?


इस्राइल की राजधानी तिल अबीब में अब संघ परिवार का दफ्तर बनेगा, हिंदू राष्ट्र का आन्दोलन अब इस्राइल की मार्गदर्शन में चलाया जायेगा, उस का झंडा क्या होगा, संविधान क्या होगा, यह सब यहूदियों के मार्गदर्शन में तय होगा, इस लिए के आज इस्लाम दुश्मन शक्तियों में उन्हों ने अपनी जगह सब से ऊपर लिखा ली है और जिन का मस्तिष्क इस्लाम और मुसलमानों के विरोध में काम करता हो, उन के लिए यहूदियों से बेहतर मित्र कौन हो सकते हैं? इस्राइल से बेहतर जगह कौन सी हो सकती है? उन के सपनों को साकार करने के लिए तिल अबीब से बेहतर जगह कौन सी हो सकती है? हिंदू राष्ट्र के केन्द्र की खबरें तो अब आना शुरू हुई हैं, हमारे लिए तो मुंबई का नरीमन हाउस या छाबड़ हाउस भी संघ परिवार के केंद्रीय दफ्तर से कम नहीं था और अगर हमें यह शक है तो शक निराधार नहीं है। मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले का केन्द्र येही था और ऐ ti एस के चीफ हेमंत करकरे की शहादत के बाद सब से पहले खुशियाँ इसी इमारत में माने गई थीं। अगर पुलिस, प्रशासन, राज्य सरकार, केंद्रीय सरकार सब के सब इस सत्य को छुपाने का मन बना लें जो चीख चीख कर बोल रहा है तब आप सत्य को सत्य तो मान सकते हैं किंतु सत्य साबित नहीं कर सकते, फिर भी हमारा यह संघर्ष जारी रहेगा।

अंसार बरनी पाकिस्तानी नागरिक हैं, मेरे अच्छे मित्र हैं, भाई की तरह हैं, जब वो सरबजीत की रिहाई के लिए आवाज़ उठाते हैं तो हम हिन्दुस्तानियों की नज़र में उन का मर्तबा देवताओं की तरह होता है। मैं ने जगह जगह उन्हें सराहे जाते देखा है, राज्य सरकारें पलकें बिछा कर उन का स्वागत करती हैं, हिन्दुस्तानी जनता उन्हें सर आंखों पर बिठाती है, शायद येही हमारी सभ्यता है, हमें गर्व है अपनी रिवायत पर, मगर मैं यह कह दूँ के हिंदुस्तान, मुंबई आतंकवादी हमलों के बाद से लगातार पाकिस्तान पर हमले की बात क्यूँ कर रहा है? इस तरह के बयानात क्यूँ आ रहे हैं? इस आतंकवादी हमले का पूर्ण सत्य सामने आए बिना पाकिस्तानी सरकार के षड़यंत्र की पुष्टि के बिना हमले की बात क्यूँ? अकेले जीवित पकड़ में आया आतंकवादी अजमल आमिर कसाब अगर पाकिस्तानी है तो सिर्फ़ इस के पाकिस्तानी होने से यह बात कैसे साबित हो जाती है के इस में पाकिस्तान की सरकार शामिल है और उसे पाकिस्तान पर हमले का बहाना मान लिया जाना चाहिए अगर वो नौ लाशें पाकिस्तानियों की साबित हो जाती हैं तो भी यह साबित करना होगा के यह नौ लाशें उन्हीं आतंकवादियों की हैं, जिन्होंने २६ नवम्बर को मुंबई में आतंकवादी हमला किया, उस के साफ़ सबूत होने चाहिए। अगर सबूतों के साथ यह साबित हो जाता है के येही वो १० आतंकवादी, एक जीवित और नौ लाशें उस आतंकवादी हमले में शामिल थे तो देखना होगा के पाकिस्तान में किस ने हिन्दुस्तानके विरुद्ध षड़यंत्र रचा था, अगर वो कोई ऐसा ही गुमराह व्यक्ति जैसे हमारे देश का लेफ्टनेंट कर्नल पुरोहित या धर्म के चोले में आतंक फैलाने वाले दयानंद पांडे जैसा, तो पाकिस्तानी सरकार ज़िम्मेदार क्यूँ? हाँ! पाकिस्तान से यह अवश्य कहा जा सकता है के ऐसे लोगों को कड़ा दंड दिया जाए. जब तक पाकिस्तान की सरकार का षड़यंत्र में शामिल होना साबित न हो, पाकिस्तान पर हमले की बात करना क्या अन्य सम्भव दोषियों को राहत पहुँचने वाला कार्य नहीं है?

न जाने आतंकवाद की कितनी घटनाएं हमारे सामने हैं, जिन्हें बार बार हम ने अपने इस रोजनामा राष्ट्रीय सहारा के पन्नों पर जगह दी है, देश भर में कई भाषणों में कहा के निर्दोषों को दोषी साबित करके जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया, वर्षों तक वो उन पापों की सज़ा काटते रहे जो उन्होंने किए ही नहीं, उन्होंने जेल से पत्र लिखा, हम ने प्रकाशित किया, आवाज़ उठाई, वह निर्दोष साबित हुए, बाद में यह समाचार राष्ट्रीय मीडिया के ज़रिये भी सामने आया किंतु रिहाई का समय आते आते उन्हें निर्दोष साबित करने वाले सी बी आई अफसर को पुलिस के ज़रिये जान से मार देने की धमकियाँ मिलने लगीं. अगर सत्य को सत्य साबित करने के संघर्ष में एक पुलिस अधिकारी की जान दूसरा पुलिस अधिकारी लेने के लिए तैयार हो जाए तो फिर सत्य को सत्य कौन साबित करेगा? अगर आतंकवाद के चेहरे बेनकाब करने की कोशिश में ऐ टी एस चीफ हेमंत करकरे को जान से मारने की धमकियाँ मिलने लगीं और आख़िर में सच की जान चली जाए तो उस का अर्थ समझा जा सकता है, इन हालात के क्या परिणाम होंगे यह समझा जा सकता है. अगर एक चश्म दीद गवाह को इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा को हत्यारा करार दे और इंसपेक्टर शर्मा को पुरस्कार से सम्मानित किया जाए तो प्रोत्साहन इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा जैसी सोच रखने वालों की होगी या फिर देश के लिए अपने प्राणों की बलि देने वाले हेमंत करकरे जैसे लोगों की, जिन को अपने जीवन में देश के जिम्मेदार लोगों की ज़बान से देशद्रोही तक सुनना पड़ा, तो क्या हेमंत करकरे जैसी सोच रखने वालों की सराहना होगी?


पिछले ४-६ महीनों के दैनिकों का पाठ कीजिये, जगह जगह भारी मात्रा में विस्फोटक पदार्थ पाया गया, देश के कई राज्यों में बम बनने की कोशिश करते हुए बजरंग दल के कार्यकर्ता मरे गए, पकड़े गए, छोड़ दिए गए, मगर ऐसे समाचारों को या तो उचित स्थान नहीं मिला और अगर मिला भी तो इतना के इस पर बहस न हो सकी. किसी भी राज्य या केंद्रीय सरकार में यह रूचि नहीं दिखाई दी के इतनी बड़ी मात्रा में विस्फोटक पदार्थ का पाया जाना जो हजारों मासूम हिन्दुस्तानियों की जान लेने के लिए पर्याप्त था, यह सब लोगों ने किसलिए जमा किया था? क्यूँ एक जगह से दूसरी जगह ले जारहे थे? क्यूँ नहीं उन की खतरनाक योजनाओं की जानकारी प्राप्त की गई? ऐसे लोगों को कमज़ोर बनाने के लिए उन्हें दंड दिया जाए, परन्तु न ही हमारी पुलिस इस में कोई रूचि रखती है और न ही हमारी सरकार.......

फिर भी दावा यह के हमारी सरकार देश से आतंकवाद का खात्मा करना चाहती है. आतंकवादियों की सराहना होगी, आतंकवाद की घटनाओं को छुपाया जायेगा, पाया जाने वाले विस्फोटक को छुपाया जायेगा, निर्दोषों को फंसाया जायेगा, उन्हें दोषी साबित किया जायेगा, क्या येही तरीका है आतंकवाद पर काबू पाने का?


पुलिस अपनी चार्जशीट में ख़ुद यह कहती है के इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा को ओपरेशन बटला हाउस के दौरान जो गोलियाँ लगीं, वो उन संदिग्ध आतंकवादियों की थी जो जायेवार्दात से फरार होने में सफल हो गए, सभी मीडिया ने नक्षा बनाकर इलस्ट्रेशन के ज़रिये पूरे इलाके को देख कर हज़ार बार यह बात कही के आरोपियों का वहां से फरार हो जाना सम्भव ही नहीं है क्यूँ की बिल्डिंग से नीचे कूदा नहीं जा सकता, सीढियाँ ही एक रास्ता हैं जहाँ से नीचे जाया जा सकता था और वहां पुलिस तैनात थी, फिर कैसे वो संदिग्ध आतंकवादी फरार होने में सफल हो गए? इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा गोलियाँ लगने के बाद चार मंजिलों वाली इमारत की सीढियों से उतर कर पैदल ज़मीन तक आरहे हैं, सड़क पर आने के बाद दो साथियों की सहायता से गाड़ी में सवार हो रहे हैं, पाँच मिनट के फासले पर अस्पताल में चिकित्सा सहायता प्राप्त हो रही है, मगर अगले कुछ मिनट में उन की मृत्यु हो जाती है. देश के प्रसिद्ध सर्जन की सेवा प्राप्त करके हम पूछते हैं के ऐसी कौन सी गोलियां हो सकती हैं जो इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा की मृत्यु का कारण बनीं. उत्तर मिलता है के जो घाव दिखाई दे रहे हैं उन के हिसाब से तो मोहन चंद शर्मा की मृत्यु नहीं होना चाहिए. पोस्ट मार्टम की रिपोर्ट कहाँ है, वो क्या कहती है? उसे सामने क्यूँ नहीं लाया गया. अब सी एस ऍफ़ एल की रिपोर्ट आतिफ और साजिद के ज़रिये गोलियों का चलाया जाना साबित कर रही है, शायद अर्जुन सिंह के ज़रिये जुडिशिअल इन्कुएरी की बात कह देने का परिणाम है के अब पुलिस एक बार फिर मीडिया की सहायता से यह साबित करने की कोशिश में व्यस्त है के किसी न किसी तरह एनकाउंटर बटला हाउस को सही साबित करदिया जाए. बटला हाउस से लेकर सराय मीर, आज़म गढ़ तक हजारों लोग उन के निर्दोष होने का सबूत दें तो भी पुलिस और सरकार मानने के लिए तैयार नहीं. लेखक ने एल १८ बटला हाउस के उस फ्लैट से लेकर उस के सामने की इमारत, दरवाज़ा, सीढियां, आस पास की इमारतें और जगह जा कर सभी जानकारियां इकठ्ठा कीं , ऐसे सभी सबूत जो सत्य को दिखा सकते हैं सामने रखे, सराय मीर, आज़म गढ़ जाकर उन के पुश्तैनी बैकग्राउंड को समझा, सेंकडों लोगों से बात की, परन्तु पुलिस जो साबित करना चाहती है, वो साबित करने में शायद सफल हो जायेगी, इस लिए के हमारे पास एनकाउंटर बटला हाउस में डॉक्टर हरिकृष्ण जैसा चश्मदीद गवाह नहीं है, जो अपनी जान पर खेल कर भी यह साबित करने का इरादा रखता हो के वो सत्य को सत्य साबित करके रहेगा.

हमें इस सत्य पर भी ध्यान देना होगा के बम धमाकों के बाद हम जिन्हें आतंकवादी मान लेते हैं, पुलिस जिन्हें आतंकवादी बता कर गिरफ्तार कर लेती है, दंड देती है, फिर वर्षों बाद वो निर्दोष साबित होते हैं और उन्हें छोड़ दिया जाता है, तो भी क्या उन के साथ पूर्ण न्याय हो पाता है? मक्का मस्जिद, हैदराबाद का ताज़ा उदहारण हमारे सामने है. हम ने ख़ुद वहां जाकर हालात को देखा. मस्जिद के आँगन में जहाँ बम धमाके हुए वहां खून की बूंदों से लेकर टूटे हुए पत्थर तक, मृतकों के घरों तक जाकर भी देखा जिन्हें दोषी बताकर गिरफ्तार किया, उन के परिवार से मिले, फिर मुख्यमंत्री से निवेदन किया के जिस तरह मालेगाँव छानबीन के बाद आतंकवादियों का एक नया चेहरा सामने आरहा है, फिर से सभी घटनाओं की छानबीन की जाए, सभी के सभी २१ आरोपी रिहा कर दिए गए, मगर हम यह मानते हैं के उन के साथ न्याय नहीं हुआ.

यह कैसा न्याय है, अगर आज पुलिस, अदालत और सरकार यह मानती है के यह सभी निर्दोष हैं इसलिए उन्हें रिहा कर दिया जाना चाहिए. अगर हमारी आवाज़ ऊंची करने के बाद तिहाड़ जेल से पत्र लिखने वाले निर्दोष साबित होगये थे और अब उन्हें रिहाई भी मिल जायेगी तो क्या येही पूर्ण न्याय है.....? जिन लोगों ने उन के निर्दोष होते हुए भी उन्हें आतंकवादी साबित किया, उन्हें मानसिक और शारीरिक पीडाएं दीं, उन के परिवारों को रुसवा किया, समाज में उन का जीना कठिन कर दिया, क्या उन के दामन पर लगा दाग इतनी आसानी से धुल जायेगा? क्या उन की खुशियाँ जो छीन ली गई थी, वापस मिल जायेंगी? क्यूँ नहीं उन सभी पुलिस वालों और अदालती कार्यवाही के दौरान पुलिस के बयानात को सही मान लेने वालों को जिन की वजह से यह जेल की सलाखों के पीछे जीवन काटने पर विवश हुए, उन्हें दोषी माना जाए? क्या वो उन पर हुए अत्याचार के लिए जिम्मेदार नहीं हैं? क्या उन पुलिस वालों को दंड नहीं मिलना चाहिए? अगर उन को दंड नहीं मिलेगा तो फिर किस प्रकार पुलिस वालों से कर्तव्य को निभाने की आशा की जासकती है? वो जिसे चाहेंगे आतंकवादी साबित करदेंगे और जिस आतंकवादी को चाहेंगे, उसे निर्दोष साबित कर देंगे.

मई १९८७ में मीरठ, मल्याना, हाशिम पूरा में निर्दोषों को नहर के किनारे खड़ा कर के गोली मार दी गई. १६५ पृष्ठों पर आधारित रिपोर्ट और अनुमानित १००० पृष्ठों पर आधारित अन्य विस्तार का पाठ किया जा रहा है, किंतु क्या दोषियों को दंड मिल पायेगा? आज २२ वर्ष बीत जाने के बाद भी अगर अपराधी आजाद हैं और अगर आने वाले कुछ वर्षों में उन का अपराध साबित हो भी जाए तो भी उन के लिए दंड का अर्थ क्या? और कितने अपराधी उस दंड को पाने के लिए जीवित रहेंगे? अगर न्याय की येही धीमी गति जारी रही तो किस तरह आतंकवाद का सर्वनाश होगा?

क्या हमें यह मान लेना चाहिए के पुलिस या पी ऐ सी के ज़रिये किसी भी निर्दोष की जान लेना आतंकवाद नहीं है, क्या हमें यह मान लेना चाहिए के राजनीतिज्ञों के मार्गदर्शन में जन्म लेने वाला आतंकवाद, आतंकवाद नहीं है तो फिर हमें समझना होगा के आख़िर सरकार के नज़दीक आतंकवाद का पैमाना क्या है? वो किन को आतंकवादी मानती है? आज मालेगाँव छानबीन के बाद ऐ टी एस की चार्जशीट में जिन ११ लोगों को आतंकवाद के मामलात में शामिल करार दिया गया है, वो सभी समाज में सम्मानित जीवन जी रहे थे और आज भी जिस तरह के समाचार उन लोगों के सम्बन्ध में पेश किए जा रहे हैं, वो यह के उन का उद्देश्य हिंदू राष्ट्र का निर्माण था अर्थात जनता का एक बड़ा हिस्सा दंड पाने के बाद भी उन का आभारी रहे, उन को सम्मान की निगाह से देखे, उन के आतंकवाद को आतंकवाद न समझे, बलके हिंदू राष्ट्र के निर्माण के लिए उसे उन का बलिदान माना जाए, क्या यह ठीक है? क्या इस तरह इस का प्रचार किया जाना चाहिए?

अब चुनाव की सरगर्मियां आरम्भ हो गई हैं, कुछ ही दिनों में संसद चुनाव का एलान हो जायेगा, कुछ घटनाएं जो राजनीतिज्ञों को चुनाव का मुद्दा बनाने में काम आयेंगे, उन पर बहस जारी रहेगी, बाकी सभी घटनाओं पर बहस बंद हो जायेगी, सब कुछ चुनाव के शोर में समाप्त हो जायेगा, फिर कोई यह साबित करने के लिए सामने नहीं आएगा के बटला हाउस का एनकाउंटर सही नहीं था, अंसल प्लाजा के फर्जी एनकाउंटर पर बातचीत बंद हो जायेगी, अगर कोई मीरठ, मल्याना, हाशिम्पूरा की घटनाओं को दोहराने की कोशिश करेगा तो कहा जायेगा के क्यूँ गधे मुर्दे उखाड़ते हो, यह समय ऐसी बातें करने का नहीं है, अगर आप खून में लिप्त गुजरात की बात करेंगे तो कौन आप की आवाज़ में आवाज़ मिलाएगा? अब जबके अनिल अम्बानी और रतन टाटा वाइब्रेंट गुजरात की बात कर रहे हैं और सरकार से लेकर सरकार के सहायक तक कोई खून से लिप्त गुजरात की बात नहीं कर रहा है तो फिर आप कौन होते हैं घाव कुरेदने वाले? हाँ! साबित कर दिया होगा जस्टिस श्री कृष्ण ने अपनी रिपोर्ट में के महाराष्ट्र के जातिवादी दंगों के दौरान शिव सेना के कार्यकर्ताओं ने चुन चुन कर मुसलमानों को मारा, उन के कारोबार को बर्बाद किया और उस रिपोर्ट के सामने आजाने के बाद न दोषियों को दंड मिला, न दोषियों पर मुकदमा चला तो फिर आव्यशकता ही क्या है किसी एन्कुएरी कमीशन के बिठाए जाने की। क्यूँ अर्जुन सिंह जुडिशिअल एन्कुएरी की बात कर रहे हैं? क्या यूँही कुछ समय के लिए घाव पर मरहम रख कर चुनाव में सफलता पाना ही उद्देश्य रह गया है। खुदा के लिए बस कीजिये इस राजनैतिक खेल को.

हाँ हम जानते हैं के हम चारों ओर से घिरे हुए हैं, हर आतंकवादी हमले के बाद हमें ही मैदान में आकर साबित करना है के हम आतंकवाद के विरुद्ध जलसा करके उल्माए कराम से लेकर बुद्धिजीवियों तक सब को मंच पर आकर आतंकवाद की निंदा करना है, आतंकवाद के विरुद्ध बयान देना है, क्या सिर्फ़ एक विशेष संप्रदाय की ज़िम्मेदारी है यह? क्या इस में सभी हिन्दुस्तानियों को इस तरह शामिल नहीं होना चाहिए? क्या ६१ वर्षों बाद भी हिंदुस्तान के एक मखसूस तबके को ख़ुद को देश प्रेमी साबित करना होगा? क्या यह ऐतिहासिक सच्चाई नहीं है के हिन्दुस्तंका मुस्लमान दुन्या की वो एक कौम है, जिस के पास अपनी मर्ज़ी का देश चुनने का अवसर था, देश के बटवारे के बाद वो पाकिस्तान या हिंदुस्तान में से किसी एक देश को चुन सकता था, उस ने जब हिंदुस्तान को चुन कर अपना फ़ैसला उसी वक्त सुना दिया तो आज उस से यह प्रशन क्यूँ?

अब फिर एक नई उलझन हमारे सामने है, आने वाले संसद चुनाव में मुसलमानों के वोट का अधिकारी कौन है? वो सेकुलर पार्टियों के साथ जाना चाहता है मगर सेकुलरिस्म का पैमाना क्या है? क्या सिर्फ़ मुस्लमान ही देश को सेकुलर बना पायेंगे? नहीं, बहुमत चाहेंगे तभी देश सेकुलर रहेगा। बात निराशा की नहीं, किंतु चिंता की अवश्य है। अगर मुस्लमान वर्षों तक किसी पार्टी को सेकुलर मान कर उस को मज़बूत बनाने की कोशिश करता रहे, उसे इस लायक बना दे के केंद्रीय सरकार उस के रहमो करम पर टिकी है, उस की हिमायत जारी रही तो सरकार का वजूद बाकी रहे, वो हिमायत वापस लेले तो सरकार खतरे में पड़ जाए, फिर वही पार्टी मुसलमानों की भावनाओं, अनुभूति की हत्या करते हुए एक ऐसे व्यक्ति को अपने साथ लेले, जिस ने स्वतंत्रता के बाद देश में आतंकवादी दौर की शुरुआत की हो, जिस ने बाबरी मस्जिद की शहादत के साथ देश में जातिवाद और आतंकवाद के न समाप्त होने वाले दौर की शुरुआत की हो.

चलिए बंद करते हैं इस बहस को...........

मैं क्यूँ आप का समय ख़राब कर रहा हूँ, शायद यह सब बेकार बातें हैं, सब की अपनी अपनी मजबूरियाँ हैं, कोई स्वयं उमीदवार है, संसद की सदस्यता के सपने का बलिदान कैसे करे, कोई किसी उमीदवार से जुडा हुआ है, वो कैसे उस का दामन छोड़ दे?
कोई एहसानों के बोझ टेल दबा है तो किसी को यह आशा है के आने वाला कल आज की हिमायत की शक्ल में अच्छी सौगात ले कर आएगा। शायद सब कुछ इसी तरह चलता रहेगा, हम नेतृत्व के आभाव का मातम करते रहेंगे, मजलूम हो कर भी जालिम करार दिए जाते रहेंगे। आतंकवाद का शिकार हो कर भी आतंकवादी कहलाये जाते रहेंगे, देश प्रेमी होते हुए भी संदिग्ध निगाहों से देखे जाते रहेंगे और यह राजनैतिक उलझनें हमारे पैरों में लोहे की जंजीरों की तरह पड़ी रहेंगी। हम अंग्रेजों की गुलामी की जंजीरों से छुटकारा पाने का संघर्ष तो कर सकते हैं, परन्तु यह जंजीरें जिन्हें हम अपने पैरों की सुंदर पायल समझ बैठे हैं, जिन्हें हम ने स्वयं अपने पैरों में डाला है, उन से कब और किस प्रकार छुटकारा पाएंगे? शायद कभी नहीं........! मैं ने कहा था न मत पढिये इसे, यह सब लिखना बेमतलब है फिर भी लिख रहा हूँ के आने वाली पीढी यह न कहें के सब कुछ देखता रहा और खामोश रहा।

Thursday, January 22, 2009

इन्कुएरी न्याय के लिए या वोट के लिए......?


एनकाउंटर बटला हाउस पर केंद्रीय मंत्री श्रीमान अर्जुन सिंह का बयान के इस एनकाउंटर की जुडिशिअल इन्कुएरी कराइ जानी चाहिए, सरकार इस पर गौर कर रही है। उन के इस बयान से हम निश्चित हो गए हैं के इलेक्शन अब बस नज़दीक आ ही चुका है.....नहीं! हमें श्रीमान अर्जुन सिंह के बयान या सरकार की निय्यत पर कोई शक नहीं है, अगर एक केंद्रीय मंत्री ने यह बात कही है तो इस के महत्त्व को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता, किंतु क्या करें अभी कुछ दिनों पहले की ही तो बात है, एक और केंद्रीय मंत्री को अपने बयान पर काफ़ी परेशानियों का सामना करना पड़ा था। विरोध पक्ष तो हमलावर था ही, अपनों की सहायता से भी वो वंचित ही रहे। अब खुदा जाने अर्जुन सिंह के इस बयान के बाद उन का क्या अंजाम हो, भारतीय जनता पार्टी ने तो अपने कड़े तेवरों को जता ही दिया है। हो सकता है, इस बार सरकार और कांग्रेस पार्टी ऐसा व्योहार न करे जो उन्होंने केंद्रीय मंत्री (अल्पसंख्यकों के मामले) श्रीमान अब्दुर रहमान अंतुले के मामले में किया था। और यह भी हो सकता है के मुसलमानों को प्रभावित करने के लिए, उन का वोट पाने के लिए राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की सहायता से एक विशेष कार्यक्रम की व्यवस्थता में उप राष्ट्रपति की उपस्थिति में जानबूझ कर यह बयान सरकार की योजनानुसार ही दिया गया हो, इस लिए के इलेक्शन से पहले अब किसी भी इन्कुएरी का परिणाम आने की आशा तो है नहीं, क्यूँ न इन्कुएरी के फैसले की बात कह कर वाहवाही लूट ली जाए।

मैं ने २० जनवरी के अपने लेख में लिखा था के एनकाउंटर बटला हाउस का मामला तो हमारे सामने है ही, उसी दिन जब मैं अन्य दैनिकों का पाठ कर रहा था तो मैं ने "टाईम्स ऑफ़ इंडिया" के पहले पन्ने पर एनकाउंटर बटला हाउस के लिए इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा को "अशोक चक्र" के अवार्ड के लिए मनोनीत किए जाने का समाचार पढ़ा और ठीक उसी समय जब अर्जुन सिंह दिल्ली के विज्ञान भवन में एनकाउंटर बटला हाउस की जुडिशिअल इन्कुएरी की बात कर रहे थे, एक सब से तेज़ चैनल बटला हाउस का समाचार प्रसार कर रहा था और वो आतिफ और साजिद को "इंडियन मुजाहिदीन "का मास्टर माइंड, दिल्ली के बम धमाकों का जिम्मेदार साबित करते हुए टेलीफोन पर हुई बात चीत को ड्रामाई अंदाज़ में पेश कर रहा था। हो सकता है यह उस की तेज़ी हो या फिर जैसे बहुत सारे संयोग हम ने २६ नवम्बर २००८ को मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले में देखे, यह भी ऐसा ही एक संयोग हो? वैसे डॉक्टर हरी कृष्ण के हवाले से अंसल प्लाजा फर्जी एनकाउंटर चश्म दीद गवाह के अनुसार इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा का कार्य करने का तरीका बयान कर रहे थे जो हम ने अपनी पिछली कड़ियों में आप के सामने पेश की, अगर वो सत्य है (झूठा होने की कोई वजह भी दिखाई नहीं देती) और केंद्रीय मंत्री श्रीमान अर्जुन सिंह एनकाउंटर बटला हाउस की इन्कुएरी की बात भी कर रहे हैं तो फिर २६ जनवरी के उस कारनामे के लिए अशोक चक्र अवार्ड दिए जाने का अर्थ!

ऐसे ही अनगिनत प्रशन हैं, जिन्हें अर्जुन सिंह के इस बयान के बाद उठाया जायेगा, अगर सरकार वास्तव में गंभीर है तो उसे दो बातों का यकीन दिलाना होगा , एक तो यह के इन्कुएरी वोट डालने के समय से पहले पूर्ण हो जायेगी और उस का परिणाम आजायेगा। दूसरे यह के अपराधियों को दंड अवश्य दिया जाएगा और उस का अंजाम पिछले इन्कुएरी कमिशनों की रिपोर्ट की तरह नहीं होगा।

इस लिए आज हम ने इस शीर्षक को सिर्फ़ अपने लेख तक सीमित न रखते हुए दस्तावेज़ का शीर्षक इस लिए बना लिया के अब हम यह इशु जनता के हवाले कर रहे हैं ताके वो अपनी राय जता सकें।


उसे पता था की उस की हत्या कर दी जायेगी
नहीं यह लेख मेरा नहीं है परन्तु इस लेख में, मैं एक चित्र देख रहा हूँ, शायद आप को भी वही चित्र नज़र आए। आज लिखना था मुझे एनकाउंटर बटला हाउस पर, किंतु जब मैंने श्री लंकन दैनिक " दी सन्डे लीडर" के संपादक लेसंथा विक्रम तुंगा के जीवन का यह आखरी लेख पढ़ा तो मुझे लगा के आज एक महान पत्रकार का यह विशेष लेख आप को पेश करूँ। निश्चित रूप से आप को यह जान कर दुःख होगा के संपादक विक्रम तुंगा की इसी ८ जनवरी को हत्या कर दी गयी और उन का यह लेख उन की हत्या के बाद उन के अन्तिम लेख की सूरत में उन के दैनिक में प्रकाशित किया गया।
इस लेख ने मेरे इरादों को दुर्बल नहीं किया बल्कि और भी अधिक ठोस कर दिया है इस लिए कल जब मैं एनकाउंटर बटला हाउस पर लिख रहा होऊंगा तब और भी मजबूती से अपना dरुश्तिकों पाठकों और हिन्दुस्तानी सरकार के सामने रख पाउँगा।
श्रीलंका में पत्रकारिता के अलावा ऐसा कोई दूसरा मैदान नहीं है जिस में आप से यह उम्मीद की जाती हो के आप अपनी जान पर खेल कर अपने हुनर का उपयोग सेना के बचाव के लिए करेंगे। पिछले कुछ वर्षों में स्वतंत्र पत्रकारिता पर हमलों में बढोतरी हुई है। इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के दफ्तरों को जलाया गया है, उन पर बमबारी हुई है, उन्हें सील किया गया है और दबाया गया है। कई पत्रकारों को परेशान किया गया, धमकाया गया और मार डाला गया है। मेरे लिए चिंता की बात है के मैं उस ग्रुप का हिस्सा हूँ।
मैं पत्रकारिता के पेशे में बहुत समय से हूँ। २००९ में "दी सन्डे लीडर" को १५ साल हो जायेंगे। इस दौर में श्री लंका में कई चीज़ें बदल चुकी हैं। अधिकतर की हालत ख़राब ही हुई है। हम एक ऐसी गृहयुद्ध में गिरफ्तार हैं, जिस में शामिल खून के प्यासों का कोई अंत नहीं। आतंक हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन चुकी है, चाहे वो आतंकवादियों की तरफ़ से हो या सरकार की। हत्या वो पहला हथ्यार है, जिस का उपयोग सरकार स्वंतंत्रता के इस स्रोत पर कंट्रोल के लिए करती है। आज पत्रकार हैं कल जज होंगे। किसी के लिए भी खतरा कम या ज़्यादा नहीं है।
परन्तु मैं यह काम क्यूँ करता हूँ, मैं एक पति हूँ, मेरे तीन हँसते खेलते बच्चे हैं। मेरे मित्र कहते हैं के मुझे कोई दूसरा सुरक्षित और बेहतर काम करना चाहिए दोनों ही ग्रुपों के राजनीतिकों ने मुझ से कई बार कहा को मैं राजनीती में आजाऊँ, मुझे मंत्रिपद की पेशकश भी की गई। राजदूतों को पता है के श्री लंका में पत्रकारिता करना कितना भयानक है। उन्हों ने मुझे किसी दूसरे देश में सुरक्षित ठिकाना देने की बात की, परन्तु मैं ने किसी की न सुनी। ऊंचे पद , नाम और सुरक्षा से भी एक बड़ी वस्तु होती है, आत्मा की आवाज़।
दी सन्डे लीडर एक विवादास्पद दैनिक है क्यूंकि उस में चोर को चोर कहते हैं और हत्यारे को हत्यारा। उसे हम शब्दों के उलट फेर में नहीं घुमाते। अगर हम परदा फाश करते हैं तो उस के कागजी सबूत भी देते हैं। सभी इन्केशाफत के बावजूद पिछले १५ वर्षों में हमें कोई ग़लत साबित नहीं कर सका है। स्वतंत्र मीडिया एक आईने के प्रकार होता है, जिस में लोग अपनी सूरत देख सकते हैं। कभी कभी लोगों को उस में अपनी सूरत अच्छी नहीं लगती। इसी लिए उस आईने को पकड़ने वाला पत्रकार खतरों में घिरा रहता है। हमारा प्रण श्री लंका में स्वच्छ, सेकुलरिस्म के लिए है। इन शब्दों को गौर से देखिये। साफ़ यानी सरकार की जवाबदेही लोगों के लिए हो और वह राजपाट का दुरूपयोग न करे। सेकुलर ताके हमारे जैसे बहु धर्मीय और सांस्कृतिक समाज में एक साथ रह सकें। उदार ताके हम दूसरों को वह जैसे भी हैं स्वीकार करें और अगर आप मुझ से सेकुलरिस्म का महत्त्व नहीं जानना चाहते हैं तो यह अच्छा होगा के आप मेरा दैनिक खरीदना बंद कर दें।
दी सन्डे लीडर ने बहुमत की हाँ में हाँ मिलाकर सुरक्षित रहना कभी पसंद नहीं किया। हम ने प्राय: उन विचारों को पेश किया जो बहुत से लोगों को पसंद नहीं आते। उदहारण के तौर पर हम यह कहते रहे के जुदाई पसंदी और आतंकवाद को ख़त्म कर दिया जाना चाहिए, लेकिन अधिक महत्त्वपूर्ण है के आतंकवाद के आधार को समाप्त किया जाए। हम ने श्री लंका सरकार से निवेदन किया के वह नस्लवाद के तनाव को एतिहासिक नज़रिए से देखे, आतंकवाद के नज़रिए से नहीं। हम ने आतंकवाद के खिलाफ लडाई में सरकार के इस आतंकवाद का भी विरोध किया, जो अपने ही नागरिकों पर बम बरसाती है।
कुछ लोग मानते हैं के सन्डे लीडर का कोई राजनैतिक एजेंडा है, हमारा ऐसा कोई एजेंडा नहीं है। हम प्राय: सरकार की नुकता चीनी विरोधियों से भी अधिक करते हैं तो सिर्फ़ इस लिए के विरोधियों की नुकता चीनी का लाभ भी क्या है? हम ने जो इन्केशाफत किए हैं, उन की वजह से हम यु एम् पी सरकार की आँख का सब से बड़ा काँटा बने हुए हैं, परन्तु हम तमिल टाइगर की पॉलिसियों के भी उतने ही विरोधी हैं। एल टी टी ई जैसी बेदर्द और लहू की प्यासी संघठन इस धरती पर दूसरी कोई नहीं है, इसे समाप्त किया ही जाना चाहिए, लेकिन यह कार्य सामान्य तमिल जनता पर फाइरिंग और बमबारी करके नहीं होना चाहिए। यह ग़लत तो है ही, संहली जनता के लिए भी लज्जा की बात है।
दो बार मुझ पर हमला हो चुका है और मेरे घर पर मशीन गन से फाइरिंग भी हो चुकी है, न पुलिस ने इस की कभी गंभीरता से छानबीन की और न हमला करने वालों को कभी गिरफ्तार ही किया जा सका। कई कारणों से मैं मानता हूँ के हमला करने वालों को सरकार से ही सीख मिली थी और अगर मैं मारा गया तो सरकार ही असली अपराधी होगी। बहुत कम लोग जानते हैं के मैं और महेंद्र राज पक्षे एक चौथाई शताब्दी तक मित्र रहे हैं। मैं उन लोगों में से हूँ जो महेंद्र को उस के पहले नाम से पुकारते हैं। शायद ही कोई ऐसा महिना हो जब हम न मिलते हों। २००५ में जब उन का नाम राष्ट्रपति पद के लिए आया तो उस का जितना स्वागत इस कालम में हुआ उतना कहीं नहीं हुआ। मानवाधिकार के लिए उन के हौसले को उस समय हर व्यक्ति जानता था फिर एक गलती हुई और "हमबन टोटा" का स्कैंडल सामने आगया।
एक बहुत बड़ी समस्या से जूजने के बाद हम ने वह रिपोर्ट प्रकाशित की थी और उस से निवेदन किया था की वो पैसा वापस कर दें और कई सप्ताह के बाद जब उन्होंने यह किया तो उन की इमेज को धक्का लग चुका था।
मैं जानता हूँ के मेरी मृत्यु के बाद आप भी दुःख व्यक्त करेंगे। तुंरत ही छानबीन का एलान भी होगा, लेकिन पिछली सभी जांचों के प्रकार इस बार भी सत्य सामने नहीं आएगा। हम दोनों को पता है के इस के पीछे कौन है, लेकिन कोई नाम नहीं लेगा। मेरे ही नहीं आपके जीवन के पीछे भी वही है।
देश के उत्तर पूर्वी हिस्सा जो के सेना के कब्जे में है, वहां तमिल जनता बिल्कुल द्वितीय श्रेणी के नागरिक बन कर रहने पर विवश हैं। उन को आत्म सम्मान से अलग कर दिया गया है। ऐसा सोचिये भी मत के आप युद्ध के बाद उन को सिर्फ़ प्रगतिशील कार्य और निर्माण के नाम पर अपना दीवाना बना लेंगे। युद्ध के घाव उन को सदा के लिए आप से दूर कर देंगे। वह आप से और अधिक घृणा करने लगेंगे और एक समस्या जिस का राजनीती से समाधान किया जा सकता है, वह एक ऐसा घाव बन जायेगा जो सदा बहता रहेगा। अगर मैं गुस्सा हूँ या असंतुष्ट हुआ तो अपने स्वदेशियों के कारन होऊंगा और सब से अधिक तर अपनी सरकार के कारन होऊंगा। मैं यह पूर्ण वर्तमान स्थिति दीवार पर स्वच्छ लिखी हुई देख रहा हूँ।
तुम ने मुझे कई बार बताया था के तुम राष्ट्रपति बन्ने में अधिक रूचि नहीं रखते, तुम को इस पद के पीछे भागने की आव्यशकता नहीं है। यह पद तो तुम्हारी झोली में यूँही गिर गया है। तुम ने मुझ से कई बार कहा के तुम्हारे सुपुत्र तुम्हारे लिए सब से ज़्यादा खुशी की वजह है और मैं अपने भाइयों को राज्य प्रशासन चलाने के लिए छोड़ देता हूँ। यह प्रशासन इतना शानदार और अच्छी तरह से काम कर रहा होता है के यूँ लगता है के अब मेरी भी आव्यशकता नही है, परन्तु अफ़सोस की बात यह है की वो सभी सपने जो तुमने अपने देश के लिए बचपन से सजा रखे थे, एक ढेर में बदल चुके हैं। तुम ने देश प्रेम के नाम पर सभी मानवाधिकार को नष्ट किया है। तुम ने करप्शन का इस प्रकार पालन पोसन किया है और जनता के धन को इस प्रकार नष्ट किया है के इस से पहले किसी राष्ट्रपति ने ऐसा नहीं किया।
तुम्हारा व्योहार एक ऐसे बच्चे जैसा हो गया है जिस को अचानक खिलोने की दुकान में छोड़ दिया जाए, खैर यहाँ यह उदहारण ठीक नहीं है के तुम ने अपने नागरिकों के अधिकारों से अपने हाथों को लहुलहान कर दिया है। आज तुम अपने राज्य के नशे में इतने मदहोश हो के तुम को कुछ दिखायी नहीं दे रहा है। तुम को इस बात पर अफ़सोस होगा की तुम्हारे बच्चों को ऐसी विरासत मिली है, जो सिर्फ़ दुखद का पूर्वानुमान साबित हो सकता है। जहाँ तक मेरा प्रश्न है मैं अपने जन्मदाता के साथ साफ़ आत्मा के साथ भेंट करूँगा। मेरी भी येही इच्छा है के तुम जब अपने जन्मदाता से मिलो तो तुम्हारी आत्मा भी ऐसी ही हो जैसी के मेरी है।
मेरे लिए यह संतोषजनक है के मैं जब कभी चला एक ऊंचे व्यक्ति के प्रकार चला, मैं किसी के आगे झुका नहीं, लेकिन मैंने जीवन का सफर अकेले नहीं काटा, मेरे साथ काम करने वाले, अन्य पत्रकार मीडिया से जुड़े हैं, मेरे साथ रहे। उन में से अधिक तर की मृत्यु हो चुकी है या बिना किसी मुक़दमे के जेलों में सड़ रहे हैं या दूसरे स्थानों पर देशनिकाले का जीवन बिता रहे हैं। कई पत्रकार तुम्हारे राष्ट्रपति पद के कारन उपजे मृत्यु के भयंकर साए के अन्दर जी रहे हैं। यह वही हालत है जिस के विरोध में तुम ने कड़ा संघर्ष किया था। तुम को कभी इस बात की अनुमति नहीं दी जायेगी के मेरी मृत्यु तुम्हारी देख रेख में हो। मुझे अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है के तुम्हारे पास मेरे हत्यारे का बचाव करने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं है। तुम इस बात का पूरा ख्याल रखोगे के कोई भी अपराधी दंड न पासके। तुम्हारे पास कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है, मुझे तुम पर अफ़सोस हो रहा है।
दी सन्डे लीडर के पाठकों के लिए मैं क्या कह सकता हूँ सिवाय इस के की वो हमारे मिशन का साथ दें, हम ने एक अप्रसिद्ध इशु को उठाया है। हम ने ऐसे लोगों से पंगा लिया है जो राज के नशे में इतने बलवान हो गए हैं के वह अपनी जड़ों को भूलते जा रहे हैं। ऐसे लोगों के विरोध में बगावत की है जो जनता की मेहनत की कमाई को बर्बाद कर रहे हैं और वो ऐसे हालात पैदा कर रहे हैं के जनता तक सिर्फ़ विपरीत बयान ही पहुँच सके। इस कार्य के लिए मैंने और मेरे खानदान ने कीमत चुकाई है। मुझे इस बात का अंदाजा था के मुझ को इस की कीमत चुकानी पड़ेगी। मैं सदा इस हालत के लिए तैयार रहा हूँ। मैंने इस हालत को पैदा होने से रोकने के लिए कुछ नहीं किया है। न सुरक्षा प्रबंध किए हैं न ख़ुद को बचाने के लिए कुछ और। मैं अपने हत्यारे को बता देना चाहता हूँ के मैं ऐसा कोई बुजदिल नहीं हूँ, जो बहुत बड़ी भीड़ के पीछे खड़ा हो। क्या मुझ जैसे बहुत से लोग नहीं हैं। शायद यह पहले ही लिखा जा चुका है के मरी ज़िन्दगी कौन लेगा। शायद सिर्फ़ यह लिखा जाना बाक़ी है के यह जान कब ली जायेगी और हाँ यह भी लिखा जा चुका है के सन्डे लीडर अपना संघर्ष जारी रखेगा। मैं जानता हूँ के यह युद्ध मैं अकेले नहीं लड़ रहा हूँ, मुझ से पहले बहुत से लोग मारे जा चुके हैं और मेरे बाद भी बहुत से लोग मारे जायेंगे।
लीडर की जब अन्तिम क्रिया कर दी जायेगी। मुझे आशा है के मरी हत्या स्वतंत्रता की हार नहीं होगी। मरी हत्या उन लोगों को काम करने के लिए हिम्मत देती रहेगी जो अपना प्रयास जारी रखना चाहते हैं और मरी हत्या उन लोगों को हौसला भी देती रहेगी जो मानव की आत्मनिर्भरता और देश की स्वतंत्रता के लिए काम करना चाहते हैं। मुझे आशा है के मेरी हत्या मेरे राष्ट्रपिता की आँखें खोल देगी और उन को इस बात का अनुभव हो जायेगा के देश भक्ति के नाम पर बहुत से लोग मारे जाते रहेंगे परन्तु मानवता की अनुभूति बढती रहेगी और राजा पक्से जैसे लोग इस अनुभूति को फ़ना करने में सफल नहीं हो सकते हैं।
लोग मुझ से पूछते हैं के मैं ऐसे खतरों से क्यूँ खेलता हूँ और मुझ से कहते हैं के मुझ को रास्ते से हटा दिया जायेगा। निश्चित रूप से ऐसा होगा , मुझे मालूम है के यह नामुमकिन नहीं है, परन्तु मैं ऐसे मौके पर न बोलूं तो ऐसा कौन बचेगा , जो उन लोगों के लिए आवाज़ उठाएगा जो बोल नहीं सकते हैं। वो चाहे नस्ली अल्पसंख्यक हो, समाज का लाचार समुदाय हो या वो लोग जो मुकदमों में फंसाए जा रहे हैं।
दी लीडर सदा आप के लिए आवाज़ उठाता रहेगा। चाहे आप संहली हों, तमिल हों, मुस्लमान हों, उच्चय जाती के हों या अपाहिज या किसी ऐसी सोच से जुड़े हों जिस पर सामान्य तौर पर सकारात्मक टिप्पणी न की जाती हो। दी लीडर का स्टाफ आप के संघर्ष को आगे बढायेगा। वो किसी के आगे नहीं झुकेगा, किसी से नहीं डरेगा, वो ऐसी हिम्मत दिखायेगा जिस का उदहारण नापैद नहीं रही हैं। इस वादे को भूलें नहीं के आपको इस बारे में कोई शक नहीं रहना चाहिए के हम पत्रकार जो भी बलिदान पेश करते हैं हम अपने नाम या धन के लिए नहीं करते। वो आप के लिए अपनी जान बलिदान कर देते हैं। लेकिन आप उन के बलिदान के लायक हैं या नहीं यह एक दूसरी बात है। मेरे लिए तो सिर्फ़ महत्त्व इस बात का है के मैं ने प्रयास किया।

Wednesday, January 21, 2009


झूठा कौन, चश्म दीद गवाह या पुलिस......?

एक अमेरिकी दैनिक ने आज शाम फ़ोन पर लगभग आधा घंटा मुंबई पर हुए आतंकवादी हमलों के सम्बन्ध में मेरे विचार जानने के लिए बात की। वो अपने समाचारपत्र और अन्य पश्चिम मीडिया के लिए मेरा एक विस्तारित इंटरव्यू चाहते थे। उन का कहना था की उन्होंने मेरे जारी लेख "मुसलमानाने हिंद....माज़ी , हाल और मुस्तकबिल???"की १०० वीं कड़ी का अभ्यास किया है और इस की ५ कॉपी खरीद कर अमेरिका भी भेजी हैं।

वो पिछले कई दिनों से मुझ से बात करना चाहते थे, वो मुसलसल हिन्दुस्तानी दैनिकों का अभ्यास कर रहे हैं और उन्हें हमारे ज़रिये उठाये गए प्रशनों पर मीडिया की खामोशी से काफ़ी आशचर्य है। अपनी बात चीत में इस खामोशी को उन्होंने "क्रिमिनल साइलेंस" का नाम देते हुए कहा के इतने गंभीर प्रशन उठाये जाने पर भी मीडिया की इस खामोशी को सिवाय इस के कुछ और नहीं कहा जा सकता।

बेशक उन्हें आशचर्य हो सकता है, इस लिए के अमेरिका व बरतानवी राज्कर्ताओं का मिज़ाज जो भी हो मगर वहां मीडिया इस हद तक पुलिस वर्जन को सामने रखने का आदि नहीं है, जितना के हम ने अपने यहाँ "एनकाउंटर बटला हाउस" और "२६ नवम्बर को मुंबई पर हुए आतंकवादी हमलों" के बाद देखा, लेकिन अब हालात बदलते नज़र आरहे हैं। इस अमेरिकी पत्रकार के सामने तो शायद पिछले छे महीने की पूर्ण दृश्यावली नहीं होंगी मगर हमारे पाठक अच्छी तरह जानते हैं के एनकाउंटर बटला हाउस के बाद मीडिया, पुलिस के ज़रिये दी गई जानकारियों को ही दिखाता रहा मगर कुछ दिनों बाद ही उस ने भी सच्चाई को सामने लाना शुरू कर दिया, ख़ास तौर से "मेल टुडे" "दी हिंदू" "टाईम्स ऑफ़ इंडिया" और "हिंदुस्तान टाईम्स" ने लगभग वही प्रशन उठाना शुरू कर दिए जो १९ सितम्बर को बटला हाउस में हुए संदिग्ध एनकाउंटर के बाद २१ सितम्बर से रोजनामा राष्ट्रीय सहारा ने उठाने शुरू किए थे और जनवरी के दूसरे हफ्ते में पुलिस के ज़रिये तीसरी चार्ज शीट दाखिल करने का समय आते आते लगभग सभी राष्ट्रीय मीडिया ने पूरे स्पष्टीकरण के साथ ये लिखना शुरू कर दिया के जब पुलिस ख़ुद इस बात का एतराफ कर रही है के इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा पर इस संदिग्ध एनकाउंटर में मारे गए आतिफ और साजिद के ज़रिये गोलियाँ नहीं चलाई गयीं और कहा है के इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा को उन आतंकवादियों की गोलियां लगीं जो जायवारदात से फरार हो गए थे। पुलिस की इस नाकाबिले यकीन कहानी पर पहले ही बहुत कुछ लिखा जा चुका है क्यूंकि बटला हाउस एल १८ के उस फ्लैट से भागने का सिर्फ़ एक ही रास्ता था, वो सीढियां जिन से उतर कर नीचे पहुँचा जा सकता था और ओपरेशन बटला हाउस के समय उन सीढियों पर ऊपर से नीचे तक पुलिस तैनात थी, इस लिए इस बात की सम्भावना नहीं थी के पुलिस की उपस्थिति में इस तंग जीने से कोई भी फरार हो सके।

आज हमारे सामने बटला हाउस का मामला तो है ही इस के अलावा मक्का मस्जिद ब्लास्ट के सभी २१ अभियुक्त रिहा किए जा चुके हैं, अब प्रशन यह पैदा होता है के असल मुजरिम कहाँ हैं क्यूंकि वो सब तो मुजरिम साबित नहीं हुए जिन्हें पुलिस ने गिरफ्तार किया था और अब उन के निर्दोष साबित होजाने के बाद उन अपराधी पुलिस वालों पर मुक़दमा क्यूँ नहीं जिन्होंने ने इन सब को निर्दोष होते हुए भी दोषी साबित करने की कोशिश में दर्दनाक सज़ाएं दी, जेल की सलाखों के पीछे रहने को मजबूर किया, आतंकवादी कह कर पुकारा, उन के खानदानों को समाज में रुसवा होने के लिए मजबूर किया, हम यह मामला भी उठाएंगे।

हमारे सामने ३१ दिसम्बर २००७ और १ जनवरी २००८ की पहली रात में रामपुर सी आर पी ऍफ़ कैंप में हुए हादसे की पूरी रिपोर्ट भी है, जिस से यह सवाल उठते हैं के पुलिस ने एक अविश्वसनीय कहानी बना कर उसे आतंकवादी हमला साबित करने का प्रयास किया, शीघ्र ही इस की पूरी सच्चाई हम सामने लायेंगे।

मुंबई लोकल ट्रेन में हुए बोम्ब ब्लास्ट की सच्चाई क्या है, यह सब सामने आने के बाद फिर एक बार शहीद हेमंत करकरे की याद आएगी, इस लिए के मालेगाँव बोम्ब ब्लास्ट के मामले में जो चोंका देने वाले रहस्योद्घाटन उन्होंने किए थे, ऐसा ही बहुत कुछ उन धमाकों के सम्बन्ध में भी देखने को मिल सकता है।

लेकिन हम इन सभी घटनाओं को कुछ समय के लिए पीछे छोड़ कर आज दो महत्त्वपूर्ण घटनाओं को पाठकों के सामने रखना चाहते हैं। पहली घटना तो वही है जिसे हम ने अपने पिछले जारी लेख की १०० वीं कड़ी में सामने रखा था यानी मुंबई पर आतंकवादी हमला और मुंबई ऐ टी एस चीफ हेमंत करकरे की शहादत। दूसरा महत्त्वपूर्ण मामला है जिसे इस घटना के साथ हम एक बार फिर सामने लाना चाहते हैं, वो है अंसल प्लाजा के बेसमेंट में हुआ एक ऐसा ही एनकाउंटर जैसा के एनकाउंटर बटला हाउस था।

२६ नवम्बर २००८ को कराची से समंदर के रास्ते मुंबई में प्रवेश करने वाले आतंकवादियों की एक मात्र चश्म दीद गवाह अनीता उदैया के साथ पिछले हफ्ते जो कुछ गुज़रा उसे हम अपने शब्दों में नहीं बल्कि विशवास कुलकर्णी और भूपेन पटेल की जांच के बाद सामने आई सच्चाई के प्रकाश में कहना चाहेंगे। हालाँकि हमारी मुंबई इन्वेस्टीगेटिव टीम लगातार इस घटना और हालात की जांच कर रही है मगर इस वक़्त हम चाहते हैं के अब जबकि राष्ट्रीय मीडिया ने २६ नवम्बर २००८ को मुंबई पर हुए आतंकवादी हमलों के सम्बन्ध में प्रशन उठाना शुरू कर दिया है और विशेषकर अनीता उदैया के मामले को अंग्रेज़ी, हिन्दी और अन्य स्थानीय भाषाओँ के लगभग सभी दैनिकों ने उठाया है तो हम क्यूँ न शब्द से शब्द यह दास्तान उन्हीं के हवाले से बयान करें और फिर कुछ वाक्यों में अपना तजज़िया पेश कर दें ताकि कोई यह न कह सके के हम बिना किसी कारन मामले को खींच रहे हैं। पेश है, अनीता उदैया को रहस्यमयी तरीके से भोर के समय उस के निवास स्थान के नज़दीक से उठा कर अमेरिका ले जाने की दास्तान और फिर अमेरिका से वापसी के बाद जब उस ने इस रहस्य का इन्केशाफ़ किया तो डिप्टी कमिशनर पुलिस राकेश मरिया के ज़रिये उसे झूठा करार देने का प्रयास.

पहले अनीता उदैया के मामले से अमेरिका ले जाए जाने और वापसी के बाद की कहानी:
२६/११ की गवाह अनीता उदैया जो चुपके से गायब हो गई थी, का कहना है के उसे गोरे, अमेरिका ले कर गए थे। ११ जनवरी की सुबह से वह अचानक अपने घर से गायब हो गई थी और बहुत तलाश करने के बाद भी जब वो नहीं मिली तो उस के घर वालों ने पुलिस स्टेशन में उस की गुम होने की रिपोर्ट दर्ज करादी। लेकिन १४ जनवरी को वो फिर रहस्यमई तरीके से अपने घर वापस भी लौट आई। वापसी के बारे में बताते हुए उदैया की बेटी ने पत्रकारों से कहा के उस की माँ को जांच करने वाले अमेरिका ले गए थे। लेकिन मुंबई पुलिस की क्राइम ब्रांच ने इस दावे को बकवास कहा है और यह भी कहा है के वो मुंबई के आतंकवादी हमलों की एक मात्र गवाह नहीं है। बल्कि उदैया के खिलाफ आई पी सी के सेक्शन १८२ के तहत पुलिस को ग़लत ख़बर देने और गुमराह करने का मामला भी दर्ज कर लिया गया है। अपने घर वापस लौटने पर उदैया ने मीडिया और पुलिस से बचने के लिए झूठ बोला था के वो अपने रिश्तेदारों से मिलने सतारा जिला चली गई थी और वहां से विरार में जीवदानी की तीर्थ पर चली गई थी। लेकिन जब क्राइम ब्रांच ने उस की सच्चाई पर प्रशन चिन्ह लगाने शुरू कर दिए तो उस ने मीडिया के सामने सच बात कहने में ही खैरियत जानी।
पत्रकारों से बात करते हुए अनीता उदैया ने बताया के "मैं गायब नहीं हुई थी, मैंने अपने पति को इस की ख़बर दे दी थी। २७ नवम्बर २००८ से ही कुछ विदेशी मेरे संपर्क में थे। उन्होंने मेरी कहानी सुनी थी के कैसे मैंने उन लड़कों (आतंकवादियों) को यहाँ आते हुए देखा था। मुझ से तीन बार मिलने के बाद उन्होंने बताया था की वो एक दो दिन के लिए मुझे कहीं बाहर ले जाना चाहते हैं। मैंने उन पर विशवास किया, मैं उन की मदद करना चाहती थी, इस लिए मैंने "हाँ" में जवाब दे दिया। मैं सतारा नहीं गई थी, बल्कि अमेरिका गई थी। मैंने पुलिस से सतारा जाने की बात इस लिए कही क्यूंकि मैं डर गई थी।"

उदैया एक जाहिल औरत है, वो विस्तार से बयान नहीं करसकती, उस की कहानी में कई झोल भी हैं और अपने दावे को सच साबित करने के लिए उस के पास कोई कागज़ इत्यादि भी नहीं है।
अगर उस की बात सच है तो यह एक खुफिया इंटेलिजेंस ओपरेशन की निशानदही करता है।
हमारी मुलाक़ात उदैया से ब्रहस्पतिवार यानि १५ जनवरी की सुबह ७ बजे हुई जब वो अभी अभी नहा कर बाहर निकली थी और अपने बालों में कंघी कर रही थी लेकिन उस के चेहरे पर थकान दिखायी दे रही थी। उस का कहना था की "चारों तरफ़ से यलगार की वजह से मैं बहुत नाखुश हूँ। पुलिस हमें परेशान कर रही है। वो विरार में मेरी बेटी के पड़ोसी के घर भी गई थी, इस के बाद यहाँ पर मीडिया का हुजूम है।"

इस के बावजूद वो हम से बात करने के लिए तैयार हो जाती है। उदैया बताती है के २७ नवम्बर को यह बता देने के बाद के उस ने ६ लोगों को समुद्रतट से किनारे की तरफ़ आते हुए देखा था, बहुत सरे लोग इस सिलसिले में उस से बात चीत करनेके लिए आने लगे। उस की यह बातें बाद में टी वी पर भी दिखाई गयीं। उस के कुछ देर बाद ही कुछ "लंबे चौड़े क़द वाले लोग" उस से मिलने के लिए आए। उन के साथ एक हिन्दुस्तानी भी था (अनुवाद करने वाला)जिस का नाम शायद सुधाकर था "छोटा क़द, काला चेहरा, घुंघराले बाल और बड़ी बड़ी मूंछें" वो उस से इस बारे में बात करना चाहते थे के उस ने क्या देखा।

दिसम्बर के अन्तिम दिनों में और जनवरी के प्रारम्भ में उन्होंने अनीता उदैया से तीन बार मुलाक़ात की , उस से ज़्यादा से ज़्यादा विस्तार जानने की कोशिश की। और फिर उस से यह पूछा की वो उन के साथ कुछ दिनों के लिए देश से बहार जाने के लिए राज़ी है"। मैंने उन पर विशवास कर लिया, मैं उन की सहायता करना चाहती थी, इस लिए मैंने "हाँ" कह दिया। उस ने अपना यह बयान क्राइम ब्रांच के सामने भी दर्ज कराया था और उस का कहना है की मुंबई पुलिस के लोग भी उस से कई बार प्रशन कर चुके थे।

उदैया ने आगे बताया के "यह विदेशी मेरे साथ बड़ी अच्छी तरह पेश आए और मैंने उन से कहा के अगर वो मुझे सुरक्षित मेरे घर वापस छोड़ देंगे तो मैं उन के साथ जाने को तैयार हूँ।"
देश से बाहर जाने की तयारी में अनीता उदैया को एक "बड़े एयर कंडीशंड हॉस्पिटल" ले जा कर उस का मेडिकल टेस्ट कराया गया। लेकिन वो अस्पताल को नहीं पहचानती। उसे बताया गया के उसे शनिवार को बहार ले जाया जाएगा। क्यूंकि उस का पति सेंट जोर्ज हॉस्पिटल में भरती है और उस के दो छोटे बच्चे घर पर रहते हैं जिन की देखभाल उसे ख़ुद करनी पड़ती है, इसलिए उस ने अपनी बड़ी बेटी को (जो के विवाहित है और अपने पति के साथ विरार में रहती है) उसे कुछ दिनों के लिए अपने ही घर पर बुला लिया। उस ने एक छोटा सूट केस भी पैक किया, उस ने हमें यह दिखाया भी, जिस में उस ने अपनी सब से अच्छी दो साडियाँ रखीं। शनिवार को देर रात तक वो उन की प्रतीक्षा करती रही लेकिन वो नहीं आए।

रविवार (११ जनवरी) की सुबह को ५ या ६ बजे के आस पास उसे फोन कर के बताया गया के वो अपने घर से बाहर निकल आए और साथ में कोई भी सामान न लाये" यह बहाना करते हुए के " मैं शौचालय जा रही हूँ" वो घर से बाहर निकली।

कुछ दूरी पर एक गाड़ी उस का इंतज़ार कर रही थी। "मैं ने उन से कहा के जाने से पहले मुझे अपने पति से मिलना है इसलिए वो मुझे सेंट जोर्ज हॉस्पिटल ले गए जहाँ पर मैंने अपने पति से कहा के मैं कुछ दिनों बाद वापस आ जाउंगी ,उस ऐ बाद हम लोग एयर पोर्ट चले गए जहाँ मुझे एक स्कर्ट, ब्लाउज और एक स्कार्फ पहेन्ने के लिए दिया गया। इस के बाद हम लोग एक जहाज़ में सवार हो गए, यह सफ़ेद और नीले रंग का था और उस की दुम पर एक सितारा बना हुआ था। यह बड़ा जहाज़ नहीं था। मैं जिस सीट पर बैठी थी उस के आगे की कुछ सीटें खाली थी। उस जहाज़ में कुल १५-२० लोग थे। जब यह जहाज़ उड़ने लगा तो मैं बहुत घबरायी लेकिन कुछ देर बाद सब ठीक होगया और मैं सो गई"।

जब हम लोग जहाज़ से उतरे तो रात का समय था। वो एक बहुत बड़ा एअरपोर्ट था। उन्होंने मुझे कुछ सिक्यूरिटी चेक से गुज़ारा, उस के बाद हम बाहर आगये। जब हम बाहर आए तो बहुत ठण्ड थी। बहुत ही ठण्ड लेकिन उसे बर्दाश्त किया जासकता था। हम जल्द ही एक कार में बैठ गए और आगे को चल दिए। सड़कों पर अधिक भीड़ नहीं थी, जैसा के मुंबई में होती है, रास्ते में मैंने बड़ी बड़ी इमारतें देखि, ठीक वैसी ही जैसी के हमारे यहाँ का वर्ल्ड ट्रेड सेंटर है। मुझे एक होटल में ले जाया गया। क्या ही शानदार कमरा था! बिस्तर भी उतना ही मुलायम और स्प्रिंग की तरह था, लेकिन मैं आप को बताऊँ, मैं ज़मीन पर ही सो गई क्यूँ की मुझे इस की आदत थी। लेकिन इस से पहले हमें रात का खाना खिलाया गया, यह विदेशी खाना था, लेकिन मैंने उस की परवाह नहीं की।"
उदैया के अनुसार, अगली सुबह उसे एक ईमारत में ले जाया गया जो के उस होटल से बहुत दूर था, उस की दूरी उतनी ही थी जितनी के "कोलाबा से मछीमार नगर है" वहां हमें एक कमरे में ले जाया गया जहाँ पर पहले से ३०-४० लोग मौजूद थे लेकिन बीच में एक बड़ा काला आदमी बैठा हुआ था, जिस ने मुझ से पूछा के जब आतंकवादी वहां पर उतरे तो समय क्या हो रहा था, उन की सूरत शकल कैसी थी, वो कौन सा कपड़ा पहने हुए थे, उन के कन्धों पर लटके हुए बैग का रंग कैसा था, उन के उतरने और कोलाबा में होने वाले पहले धमाके के बीच कितना समय गुज़रा था। क्या मैं यह जानती हूँ की उन (आतंकवादियों) का ख़ास निशाना विदेशी ही थे।"

प्रशन व उत्तर के इस लंबे वक़्त के दौरान उदैया को कई बार काफ़ी पिलाई गई। उदैया के अनुसार, उस की यह पूरी बातचीत कैमरे के ज़रिये रिकॉर्ड भी की जा रही थी। जब उसे वहां से वापस होटल में लाया गया तो शाम का अँधेरा छा चुका था। "लोग मेरे साथ बहुत अच्छी तरह पेश आए और उन्होंने मुझ से कहा के अगर आव्यशकता पड़ी तो वो मुझे दोबारा बुलाएँगे।"

जब वो एअरपोर्ट पहुँची तो दोबारा अँधेरा हो चुका था। "जिस समय में मुंबई से चली थी उस वक़्त एअरपोर्ट पर ज़्यादा देर इंतज़ार नहीं करना पड़ा था, लेकिन यहाँ पर मुझे एक बड़े कमरे में ले जाया गया और वहां पर कई घंटे तक इंतज़ार करना पड़ा। जिस हवाई जहाज़ से हम लोग वापस आए वो भी अलग था। यह एक बहुत बड़ा जहाज़ था, उस में गोरी एरहोस्टेस के अलावा कुछ औरतें साडियों में भी थीं, जो हमारी सेवा कर रही थीं और उस जहाज़ का रंग सफ़ेद था जिस पर लाल रंग की धारी बनी हुई थी।"

यह जहाज़ बीच में भी कहीं पर आधे या एक घंटे के लिए रुका, लेकिन उदैया को नहीं मालूम के वो जगह कौन सी थी। उदैया मुंबई में मंगलवार की शाम ६ बजे पहुँची और फिर उसे एक होटल में ले जाया गया, बहुत ही "आलिशान" होटल जहाँ पर उसे हिन्दुस्तानी खाना दिया गया।"खाना आने में काफ़ी देर लगी, जो आदमी मेरे साथ था, वो मुझ से लगातार बातें किए जा रहा था, लेकिन जब खाना आया तो यह सचमुच बहुत ही बढ़िया खाना था।"

इसी होटल में लगभग ४८ घंटों के बाद उदैया ने अपने कपड़े बदले। रात के ११ बजे उस के लिए एक टैक्सी बुलाई गई और टैक्सी ड्राईवर को ५०० रूपये दे कर कहा गया के उदैया को कोलाबा में स्थित उस के घर छोड़ दे। "मैं वापस आई, वहां पर मैंने पुलिस और मीडिया वालों को मेरा इंतज़ार करते हुए पाया, और फिर सारा तनाजा शुरू हो गया।"

बार बार पूछने के बावजूद उदैया ने और विस्तार बताने से मना कर दिया, उस ने किसी विदेशी का नाम भी नहीं बताया और न ही उस का नाम बताया जो शुरू से आख़िर तक उस के साथ रहा। परन्तु उस ने हमें कुछ कार्ड दिखाए जो विदेशियों के थे और वो भी पत्रकारों के विजिटिंग कार्ड थे। लेकिन उदैया की बेटी न बताया के उस की माँ को १०,००० अमेरिकी डॉलर देने का वादा किया गया है, लेकिन यह पैसे अभी उसे मिले नहीं हैं।

उदैया की २५ वर्षीय सब से बड़ी बेटी, सीमा केतन जोशी जो अपने पति के साथ विरार में रहती है, ने बताया के "मेरी माँ उस से पहले क्राइम ब्रांच के कार्यकर्ताओं के साथ आतंकवादियों की लाशों को पहचाने के लिए गई थी और पिछले कई दिनों से बार बार यह कह रही थी के बहुत जल्दी कोई उस को बुलाएगा और ये के "उस को कुछ दिनों के लिए ले जाने की तैयारियां चल रही हैं" लेकिन हमारी बार बार की कोशिशों के बावजूद उस ने हमें यह बताने से इंकार कर दिया के कौन उसे ले कर जायेगा और कहाँ। शनिवार के दिन हम लोग दिन भर बैठे हुए येही बातें करते रहे और रविवार की सुबह को लगभग ६ बजे जब वो शौचालय के लिए गई तो वहां से वापस नहीं लौटी।"

आस पड़ोस में उस की छान बीन करने के बाद जब उस का कहीं पता नहीं चला तो उदैया की फॅमिली कफ़ परेड पुलिस स्टेशन पहुँची और गुम होने का मामला दर्ज करा दिया। कफ़ परेड पुलिस स्टेशन के सब इंसपेक्टर सुनील विपत ने बताया के "हम ने शहर के सभी पुलिस स्टेशन को एलर्ट कर दिया है और दूरदर्शन पर उदैया की तस्वीर भी दिखाई है। हमें इस के बारे में अब तक कोई सुराग नहीं मिला है।" क्राइम ब्रांच के सीनियर कार्यकर्ता जो इस हमले की जांच कर रहे हैं, उन्होंने कोई भी बात करने से इंकार करदिया है।

इस बीच, उदैया की फॅमिली के लोगों और उस के पड़ोसी लगातार उस की खोज में लगे रहे और उन्हें इस बात का डर भी रहा कहीं उस की जान खतरे में न पड़ जाए क्यूंकि वो २६/११ हादसे की जांच से जुड़ी है। उदैया, जो बुधवार पार्क में सफाई का काम करती थी, उस दिन अपने घर के बाहर बैठी हुई थी जब उस ने आतंकवादियों को उधर से गुज़रते हुए देखा। कालोनी के चेयरमैन मधुसुदन नायर के अनुसार, जिस समय आतंकवादी वहां से गुज़र रहे थे उस समय उस (उदैया) के कुत्ते न उन पर भोंकना शुरू कर दिया, इस लिए उस न यूँही उन लोगों से पूछ लिया के वो कौन हैं, लेकिन उन आतंकवादियों न उसे झिडकते हुए कहा के वो अपना काम करे।

नायर ने बताया के जब उदैया ने उस से यह कहा के वो बाहर जाने वाली है तो उसे शक हुआ था के यह जांच का हिस्सा हो सकता है। नायर के अनुसार, "उस के गायब होने से कुछ दिनों पहले हम दोनों में बात चीत हुई थी और उस समय उस ने बताया था के उसे कुछ दिनों के लिए देश से बाहर जाना पड़ सकता है। उस ने यह भी कहा था के उस का पासपोर्ट जारी करने की भी तयारी चल रही है क्यूंकि वो क्राइम ब्रांच के दफ्तर में कई बार जा चुकी थी और फिर वहां से वापस आ जाती थी इस लिए मैंने सोचा के यह भी उसी जांच का हिस्सा हो सकता है। लेकिन वो अचानक गायब हो गई और हमें उस के बारे में कुछ भी पता नहीं चला के वो कहाँ है, अब हम उस की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं।"

इसी बीच, आज एक और घटना घटी जिस ने उस के परिवार के लोगों को और क्रोधित कर दिया, उन के पास मौजूद एक मात्र मोबाइल भी उन के घर से चोरी हो गया। सीमा ने बताया के "जिस समय हम लोग अपने दरवाज़े के बाहर खड़े पत्रकारों से बात कर रहे थे उसी समय किसी ने हमारे उस मोबाइल को घर से चुरालिया। यह एक ही मोबाइल था जिस से हमारी माँ हम से संपर्क बनाये रखती थी लेकिन अब यह भी गायब हो चुका है।"
अनीता उदैया की अमेरिका से वापसी

पी टी आई को बताते हुए अनीता उदैया ने कहा है के "मुझे यह बताया गया था के (अमेरिका के) जिन अफसरों ने मुंबई हमलों के बारे में मुझ से प्रशन किए थे वो मुझे अमेरिका ले कर जायेंगे। वो रविवार की सुबह मेरे पास आए और मुझे एक हवाई जहाज़ के ज़रिये अमेरिका ले जाया गया। जब मैं वहां से वापस आई तो मैंने पुलिस से झूट बोला के मैं सतारा जिला गई थी (अपने भाई के पास) क्यूंकि उन अफसरों ने मुझ से कहा था की मैं अमेरिका जाने के बारे में किसी को कुछ न बताऊँ।"
अमेरिका जाने की कहानी बयान करते हुए उदैया ने कहा के शनिवार की रात को लगभग १० बजे उदैया जांच करने वाले अफसरों के आने का इंतज़ार कर रही थी। बाद में रविवार की सुबह जब वो शौचालय के लिए बाहर गई तो वहीँ से चार अफसर उसे एक गाड़ी में बिठा कर एअरपोर्ट ले गए। उदैया के मुताबिक उन चारों में से एक अफसर हिन्दी जानता था।

उदैया ने बताया के "सब से पहले मुझे सेंट जोर्ज हॉस्पिटल ले कर जाया गया ताकि मैं अपने पति राजेन्द्र को देख सकूँ। मैंने अपने पति को बताया के मैं कुछ दिनों बाद घर लौट आउंगी।" अस्पताल से मुझे एअरपोर्ट ले जाया गया। मुझे एअरपोर्ट पर बिठा दिया गया और बाक़ी अफसर एअरपोर्ट पर मौजूद कार्यकर्ताओं को कागज़ दिखने में लगे हुए थे। मेरे पास कोई सामान नहीं था। कुछ देर बाद, मैं जहाज़ में सवार हुई परन्तु मैं वहां पर बेचैनी महसूस कर रही थी।

उदैया जिस न हवाई जहाज़ के उस सफर में १७-१८ घंटे गुजारे,ने बताया के "सफर के दौरान ही मुझे बताया गया के हम अमेरिका जा रहे हैं। मैं हवाई जहाज़ में ठीक ढंग से खाना नहीं खा पा रही थी क्यूंकि वो लोग मुझे चॉकलेट सेनविच और खाने पीने की दूसरी चीज़ें दे रहे थे। मुझे नहीं मालूम के मैंने वो चीज़ें कैसे खायीं।"

"अमेरिका में हवाई जहाज़ से उतारते ही मुझे एक कार में बिठा कर एक आलिशान होटल में ले जाया गया। कुछ घंटों के बाद हम सब लोग एक बड़ी ईमारत में गए जहाँ पर मुझ से आतंकवादियों और मुंबई हमलों के बारे में कई प्रशन पूछे गए। मैं हिन्दी में जो कुछ बताती थी उस का अनुवाद अंग्रेज़ी में एक अफसर करता था और फिर अंग्रेज़ी में पूछे गए प्रशन का हिन्दी में अनुवाद करके मुझे बताया जाता था। यह सिलसिला दो तीन घंटे तक चला।"

"मैंने (हामिद कुरैशी )मुंबई का एक स्क्रैप डीलर जहाँ अनीता उदैया काम करती है) को फ़ोन के ज़रिये कई बार बताया के मैं सुरक्षित स्थान पर हूँ।" उस के बाद उदैया को उस ईमारत से वापस उस होटल में लाया गया फिर मुंबई ले जाने के लिए वहां से एअरपोर्ट लाया गया। मुंबई एअरपोर्ट से एक टैक्सी के ज़रिये वो अपने घर वापस लौट आई।

अब ऐसी खबरें मिले रही हैं की मुंबई पुलिस की क्राइम ब्रांच ने उदैया के ख़िलाफ़ इंडियन पेनल कोड के सेक्शन १८२ के तहत पुलिस को गुमराह करने और ग़लत ख़बर देने का मामला दर्ज कर लिया है। मुंबई पुलिस (क्राइम ब्रांच) के जोइंट कमिशनर राकेश मारिया ने कहा है के उदैया अमेरिका नहीं गई थी बल्कि सतारा जिले में रहमत पूर गाँव गई थी। लेकिन प्रशन यह उठता है के राकेश मारिया को यह सब कैसे पता चला और वो यह बात यकीन के साथ कैसे कह सकते हैं। मारिया ने और जानकारी देने से मना कर दिया है।

इस बीच हिंदुस्तान में स्थित अमेरिकी सिफारत खाने के एक व्यक्ति ने अनीता उदैया के अमेरिका लेजाने की बात को खारिज कर दिया है।

मुंबई के डिप्टी कमिशनर राकेश मारिया का कहना है के अनीता उदैया झूठ बोल रही है, ऐसा ही कहा गया था डॉक्टर हरी कृष्ण के मामले में जो दिल्ली में हुए फर्जी एनकाउंटर (चश्मदीद गवाह डॉक्टर हरी कृष्ण) अंसल प्लाजा, जहाँ पुलिस ने दो नौजवानों को कार से बाहर निकाल कर गोली मार दी और फिर उन्हें आतंकवादी करार दे दिया। इस मामले की पूरी फाइल इस समय मेरे सामने है और इस लेख के अगले सिलसिले में पूर्ण विस्तार पाठकों की सेवा में पेश की जायेगी जो यह साबित करती है के पुलिस किस तरह चश्म दीद गवाहों को परेशान करती है, उन्हें लालच देती है, धमकियां देती है। अनीता उदैया तो एक गरीब, कमज़ोर, अनपढ़ औरत है, जब डॉक्टर हरी कृष्ण जैसे शिक्षित, समाज में एक अच्छी पोजीशन, दिल्ली की एक पोश कालोनी के शानदार बंगले में रहने वाले व्यक्ति को पुलिस परेशान कर सकती है, उन के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर सकती है क्यूंकि उन्होंने इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा के ज़रिये किए गए उस फर्जी एनकाउंटर की असलियत को सामने रखा था, जी हाँ यह वही एनकाउंटर स्पेशलिस्ट इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा हैं जिन्होंने ओपरेशन बटला हाउस में भाग लिया था।

२६ नवम्बर २००८ को मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले के बाद २८ नवम्बर को मैं ने अपने जारी लेख की ८५ वीं कड़ी इस टाइटल "हेमंत करकरे के बाद ऐ टी एस" के तहत शहीद वतन हेमंत करकरे की मौत पर शक का इज़हार किया था, उस के बाद मुसलसल १० दिनों तक लगभग हर दिन अपने लेखों के ज़रिये हम ने वो प्रशन सामने रखे जिन का उत्तर न तो पुलिस के पास था और न ही हिन्दुस्तानी सरकार के पास। क्यूंकि आज भी वो प्रशन अपनी जगह मौजूद हैं और उस पर लिखने का सिलसिला भी जारी है इस लिए आज के इस लेख में हम उस दौरान लिखे गए लेखों के कुछ टाइटल पाठकों की सेवा में पेश कर देना आवयशक समझते हैं।

८५ कड़ी: हेमंत करकरे के बाद ऐ टी एस (२८.११.२००८)

८६ कड़ी: मालेगाँव धमाकों की जांच और मुंबई आतंकवादी हमलों का क्या कोई सम्बन्ध है? (२९.११.२००८)

८७ कड़ी: करकरे के बाद भी क्या बेनकाब हो पायेंगे सफ़ेद पोश दहशत गर्द? ( ०१.१२.२००८)

८८ कड़ी: 5 अलग अलग स्थान पर 60 घंटे तक तबाही और केवल 10 आतंकवादी, बात कुछ हज़म नहीं हुई (०२.१२.२००८)

८९ कड़ी: शहीदों के रिश्तेदार न्याय मांग रहे हैं वह समझते हैं की जो दिख रहा है उसके परदे में सच्चाई कुछ और भी है (०३.१२.२००८)

९० कड़ी: मुंबई पर आतंकवादी हमला या क्रिया की प्रतिक्रिया "क्रिया" करकरे की जांच और "प्रतिक्रिया" करकरे की मौत (०४.१२.२००८)

९१ कड़ी: किसी भी निर्णय से पहले हमारी सरकार यह तो सोचे विश्वसनीय कौन! आतंकवादी "क़सब" या "शहीद करकरे" (०५.१२.२००८)

९२ कड़ी: प्रज्ञा और प्रोहित नए नहीं हैं आतंकवाद १९४७ से ही आर एस एस का कल्चर रहा है(०६.१२.२००८)

९३ कड़ी: १९९३ के अतिरिक्त सभी आतंकवादी घटनाएं संघ व मोसाद की साजिश का नतीजा हैं! करकरे इस सच्चाई को सामने ला रहे ठ(०७.१२.२००८)

९४ कड़ी: कौन है मास्टर माइंड इन आतंकवादी हमलों का, क्या सोचते हैं आप! विचार करें और बताएं (०९.१२.२००८)

अब यह सभी लेख एक बार फिर शहीद वतन हेमंत करकरे की शहादत यानी अपने जारी लेख की १०० कड़ी के दूसरे एडिशन में प्रकाशित किए जा रहे हैं।

हालात और सबूत जिस तरफ़ इशारा कर रहे हैं, उन से अंदाजा होता है के २६ नवम्बर २००८ को मुंबई पर हुआ आतंकवादी हमला सिर्फ़ १० आतंकवादियों का कारनामा नहीं था बल्कि एक ऐसे विदेशी षड़यंत्र का परिणाम था जो हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच जंग देखना चाहती थी, जो हिंदुस्तान को खाना जंगी का शिकार देखना चाहती थी, जो हिंदुस्तान में हिंदू और मुसलमानों के बीच ऐसी ही कशीदगी देखना चाहती थी, जो ६ दिसम्बर १९९२ को बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद देखि गई। और उन विदेशी ताकतों में अमेरिका और इस्राइल शामिल नज़र आते हैं।

अगर हिन्दुस्तानी सरकार अपने देश को उन विदेशी शिकंजों से बचाना चाहती है और उसे हिंदुस्तान की १०० करोड़ जनता की थोडी सी भी चिंता है तो उन सच्चाइयों को सामने लाना ही होगा जो उन आतंकवादी हमलों से जुड़ी हैं। हिन्दुस्तानी सरकार को बताना होगा के नरीमन हाउस का सच क्या है? जिस तरह के इशारे मिल रहे हैं २६, २७ और २८ नवम्बर को मुंबई पर हुए आतंकवादी हमलों का केन्द्र नरीमन हाउस था, जिसे छाबड़ हाउस के नाम से भी जाना जाता था, उस नरीमन हाउस में उन तीन दिनों में क्या हुआ उस की अकेली चश्मदीद गवाह सेंड्रा सामुएल जो इस्राइली रब्बी ग्योरेल नोच होतेज्बर्ग और उस की पत्नी रिविका के बच्चे की आया थी और जो उसी दिन से इस्राइल में है और इस्राइली सरकार उसे अपने देश के सब से बड़े अवार्ड से नवाजने जा रही है।

आख़िर क्या वजह है के वो अपने दो बेटों को हिंदुस्तान में छोड़ कर दूसरे की औलाद की परवरिश के लिए इस्राइल में रहना चाह रही है, क्या यह उस की मर्ज़ी है या उस के ऊपर इस्राइल का ऐसा दबाव है के उस के पास इस के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं, हिन्दुस्तानी सरकार उसे वापस बुलाकर सभी बातों की जानकारी क्यूँ नहीं चाहती? हिंदुस्तान की पुलिस उस का बयान लेना ज़रूरी क्यूँ नहीं समझती? वो पासपोर्ट और विज़ा के बिना किस तरह इस्राइल पहुँची? उन तीन दिनों में उस ने क्या देखा? वो कौन लोग थे जिन्हें आतंकवादियों न मार दिया और वो आतंकवादी कौन थे जिन के कब्जे में नरीमन हाउस था? किन लोगों के लिए १०० किलो मांस और २५००० की शराब मंगाई?

इसी तरह हिन्दुस्तानी सरकार को इन प्रशनों का उत्तर भी देना होगा के अनीता उदैया को पासपोर्ट और विज़ा के बिना हिंदुस्तान के बाहर कैसे ले जाया गया? हिंदुस्तान की पुलिस को उस की जानकारी क्यूँ नहीं थी? ऍफ़ बी आई या अमेरिकी खुफिया एजेन्सी को उस से किसी भी जानकारी की आव्यशकता क्यूँ पड़ी? हमारी सरकार और पुलिस उस चश्मदीद गवाह के अमेरिकी सफर को छिपाना क्यूँ चाहती है? क्या अमेरिका ले जा कर उस पर यह दबाव डाला गया के उस दिन रबर की कश्ती से पहुँचने वाले आतंकवादियों का सही हुलया वो अपनी ज़बान पर न लाये? क्या वो आतंकवादी गोरी चमड़ी के थे?क्या उस आतंकवादी हमले में अमेरिका और इस्राइल शामिल है? क्या वो इस चश्मदीद गवाह की ज़बान को खामोश रख कर उस राज़ पर परदा रखना चाहते हैं?

हो सकता है के हिन्दुस्तानी सरकार आज इन प्रशनों का उत्तर न देना चाहे मगर जल्दी ही होने वाले चुनाव में उसे ऐसे प्रशनों से गुज़रना होगा। हमारे सामने डॉक्टर हरी कृष्ण की सूरत में एक ऐसा ही चश्मदीद गवाह मौजूद है क्यूंकि हमने अंसल प्लाजा केस की फाइल को पढ़ा है इस लिए हम अंदाजा कर सकते हैं. जो कुछ डॉक्टर कृष्ण के साथ गुज़रा वैसा ही कुछ अनीता उदैया के साथ भी गुज़रा होगा।