Thursday, January 29, 2009

कब तक जकडे रहेंगे इन लोहे की ज़ंजीरों में?

मत पढिये आज का लेख........इस में न निरंतरता है कोई विशेष शीर्षक, मैं जो बात करने जारहा हूँ, यह कुछ बिखरे हुए से विचार हैं, शायद आज मैं जो कुछ लिख रहा हूँ वह अपनी मानसिक संतोष के लिए आने वाली पीढी के लिए ताके जब वो पढ़ें तो आज का लेख उन्हें यह अनुभव कराता रहे के उस दौर में भी कोई था जो सभी हालात से जागृक करता रहा, परन्तु यह कौम इतनी लाचार , बेबस और मजबूर थी के सब कुछ जानते, समझते हुए भी कोई कदम न उठा सकी, कोई ऐसी योजना न बना सकी के जिन परेशानियों का सामना स्वतंत्रता के तुंरत बाद से इस कौम को करना पड़ा, उन से छुटकारा पा सकती या कम से कम आने वाली पीढी के लिए ही कोई ऐसी योजना बना पाती के कम से कम उन्हें तो इन हालत का सामना न करना पड़ता, वो तो अपना भविष्य संवार लेते।

समस्याएँ अनेक हैं, एनकाउंटर बटला हाउस पर लिखिए, मालेगाँव की छानबीन के सिमटते दायरे पर बात कीजिये, समझौता एक्सप्रेस की वास्तविकता सामने आने पर भी चुप्पी बंध जाने के कारण पर ध्यान दीजिये, अंसल प्लाजा बेसमेंट में हुए फर्जी एनकाउंटर से परदा उठाने की कोशिश कीजिये, रामपुर सी आर पी ऍफ़ कैंप में हुए आतंकवादी हमले की फाइल ले कर बैठिये, पन्ने पलट पलट कर पाठ करते जाइये और अपना ही सर पीटते जाइए, इस लिए के सब कुछ आप के सामने हो तब भी आप सत्य को सत्य साबित नहीं कर सकते। बाबरी मस्जिद का मामला अठारा वर्षों से लम्बित है, जिन्हें इस मामले में दोषी होना चाहिए अब उन की सराहना की जा रही है। पार्लिमेंट में हुए हमले को लेकर हम बड़े चिंतित रहे परन्तु जितना गहराई में जा कर इसे देखते हैं, जांच का दायरा आगे बढाते हैं या जो जांच सामने आई है, उसी पर ध्यान देते हैं तो गूड़ता बढती चली जाती हैं। इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा वहां भी थे, इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा अंसल प्लाजा के फर्जी एनकाउंटर में भी थे, इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा बटला हाउस के उस संदिग्ध एनकाउंटर में भी थे, जिस की जुडिशिअल इन्कुएरी की बात अब केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह कर रहे हैं। इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा का नाम अशोक चक्र के लिए भी नामांकित किया जा रहा है। अगर अंसल प्लाजा एनकाउंटर फर्जी था, अगर बटला हाउस का एनकाउंटर फर्जी साबित होता है तो इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा को किसी पुरुस्कार का हकदार करार दिया जायेगा या निर्दोषों की हत्या का ज़िम्मेदार.......?


इस्राइल की राजधानी तिल अबीब में अब संघ परिवार का दफ्तर बनेगा, हिंदू राष्ट्र का आन्दोलन अब इस्राइल की मार्गदर्शन में चलाया जायेगा, उस का झंडा क्या होगा, संविधान क्या होगा, यह सब यहूदियों के मार्गदर्शन में तय होगा, इस लिए के आज इस्लाम दुश्मन शक्तियों में उन्हों ने अपनी जगह सब से ऊपर लिखा ली है और जिन का मस्तिष्क इस्लाम और मुसलमानों के विरोध में काम करता हो, उन के लिए यहूदियों से बेहतर मित्र कौन हो सकते हैं? इस्राइल से बेहतर जगह कौन सी हो सकती है? उन के सपनों को साकार करने के लिए तिल अबीब से बेहतर जगह कौन सी हो सकती है? हिंदू राष्ट्र के केन्द्र की खबरें तो अब आना शुरू हुई हैं, हमारे लिए तो मुंबई का नरीमन हाउस या छाबड़ हाउस भी संघ परिवार के केंद्रीय दफ्तर से कम नहीं था और अगर हमें यह शक है तो शक निराधार नहीं है। मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले का केन्द्र येही था और ऐ ti एस के चीफ हेमंत करकरे की शहादत के बाद सब से पहले खुशियाँ इसी इमारत में माने गई थीं। अगर पुलिस, प्रशासन, राज्य सरकार, केंद्रीय सरकार सब के सब इस सत्य को छुपाने का मन बना लें जो चीख चीख कर बोल रहा है तब आप सत्य को सत्य तो मान सकते हैं किंतु सत्य साबित नहीं कर सकते, फिर भी हमारा यह संघर्ष जारी रहेगा।

अंसार बरनी पाकिस्तानी नागरिक हैं, मेरे अच्छे मित्र हैं, भाई की तरह हैं, जब वो सरबजीत की रिहाई के लिए आवाज़ उठाते हैं तो हम हिन्दुस्तानियों की नज़र में उन का मर्तबा देवताओं की तरह होता है। मैं ने जगह जगह उन्हें सराहे जाते देखा है, राज्य सरकारें पलकें बिछा कर उन का स्वागत करती हैं, हिन्दुस्तानी जनता उन्हें सर आंखों पर बिठाती है, शायद येही हमारी सभ्यता है, हमें गर्व है अपनी रिवायत पर, मगर मैं यह कह दूँ के हिंदुस्तान, मुंबई आतंकवादी हमलों के बाद से लगातार पाकिस्तान पर हमले की बात क्यूँ कर रहा है? इस तरह के बयानात क्यूँ आ रहे हैं? इस आतंकवादी हमले का पूर्ण सत्य सामने आए बिना पाकिस्तानी सरकार के षड़यंत्र की पुष्टि के बिना हमले की बात क्यूँ? अकेले जीवित पकड़ में आया आतंकवादी अजमल आमिर कसाब अगर पाकिस्तानी है तो सिर्फ़ इस के पाकिस्तानी होने से यह बात कैसे साबित हो जाती है के इस में पाकिस्तान की सरकार शामिल है और उसे पाकिस्तान पर हमले का बहाना मान लिया जाना चाहिए अगर वो नौ लाशें पाकिस्तानियों की साबित हो जाती हैं तो भी यह साबित करना होगा के यह नौ लाशें उन्हीं आतंकवादियों की हैं, जिन्होंने २६ नवम्बर को मुंबई में आतंकवादी हमला किया, उस के साफ़ सबूत होने चाहिए। अगर सबूतों के साथ यह साबित हो जाता है के येही वो १० आतंकवादी, एक जीवित और नौ लाशें उस आतंकवादी हमले में शामिल थे तो देखना होगा के पाकिस्तान में किस ने हिन्दुस्तानके विरुद्ध षड़यंत्र रचा था, अगर वो कोई ऐसा ही गुमराह व्यक्ति जैसे हमारे देश का लेफ्टनेंट कर्नल पुरोहित या धर्म के चोले में आतंक फैलाने वाले दयानंद पांडे जैसा, तो पाकिस्तानी सरकार ज़िम्मेदार क्यूँ? हाँ! पाकिस्तान से यह अवश्य कहा जा सकता है के ऐसे लोगों को कड़ा दंड दिया जाए. जब तक पाकिस्तान की सरकार का षड़यंत्र में शामिल होना साबित न हो, पाकिस्तान पर हमले की बात करना क्या अन्य सम्भव दोषियों को राहत पहुँचने वाला कार्य नहीं है?

न जाने आतंकवाद की कितनी घटनाएं हमारे सामने हैं, जिन्हें बार बार हम ने अपने इस रोजनामा राष्ट्रीय सहारा के पन्नों पर जगह दी है, देश भर में कई भाषणों में कहा के निर्दोषों को दोषी साबित करके जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया, वर्षों तक वो उन पापों की सज़ा काटते रहे जो उन्होंने किए ही नहीं, उन्होंने जेल से पत्र लिखा, हम ने प्रकाशित किया, आवाज़ उठाई, वह निर्दोष साबित हुए, बाद में यह समाचार राष्ट्रीय मीडिया के ज़रिये भी सामने आया किंतु रिहाई का समय आते आते उन्हें निर्दोष साबित करने वाले सी बी आई अफसर को पुलिस के ज़रिये जान से मार देने की धमकियाँ मिलने लगीं. अगर सत्य को सत्य साबित करने के संघर्ष में एक पुलिस अधिकारी की जान दूसरा पुलिस अधिकारी लेने के लिए तैयार हो जाए तो फिर सत्य को सत्य कौन साबित करेगा? अगर आतंकवाद के चेहरे बेनकाब करने की कोशिश में ऐ टी एस चीफ हेमंत करकरे को जान से मारने की धमकियाँ मिलने लगीं और आख़िर में सच की जान चली जाए तो उस का अर्थ समझा जा सकता है, इन हालात के क्या परिणाम होंगे यह समझा जा सकता है. अगर एक चश्म दीद गवाह को इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा को हत्यारा करार दे और इंसपेक्टर शर्मा को पुरस्कार से सम्मानित किया जाए तो प्रोत्साहन इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा जैसी सोच रखने वालों की होगी या फिर देश के लिए अपने प्राणों की बलि देने वाले हेमंत करकरे जैसे लोगों की, जिन को अपने जीवन में देश के जिम्मेदार लोगों की ज़बान से देशद्रोही तक सुनना पड़ा, तो क्या हेमंत करकरे जैसी सोच रखने वालों की सराहना होगी?


पिछले ४-६ महीनों के दैनिकों का पाठ कीजिये, जगह जगह भारी मात्रा में विस्फोटक पदार्थ पाया गया, देश के कई राज्यों में बम बनने की कोशिश करते हुए बजरंग दल के कार्यकर्ता मरे गए, पकड़े गए, छोड़ दिए गए, मगर ऐसे समाचारों को या तो उचित स्थान नहीं मिला और अगर मिला भी तो इतना के इस पर बहस न हो सकी. किसी भी राज्य या केंद्रीय सरकार में यह रूचि नहीं दिखाई दी के इतनी बड़ी मात्रा में विस्फोटक पदार्थ का पाया जाना जो हजारों मासूम हिन्दुस्तानियों की जान लेने के लिए पर्याप्त था, यह सब लोगों ने किसलिए जमा किया था? क्यूँ एक जगह से दूसरी जगह ले जारहे थे? क्यूँ नहीं उन की खतरनाक योजनाओं की जानकारी प्राप्त की गई? ऐसे लोगों को कमज़ोर बनाने के लिए उन्हें दंड दिया जाए, परन्तु न ही हमारी पुलिस इस में कोई रूचि रखती है और न ही हमारी सरकार.......

फिर भी दावा यह के हमारी सरकार देश से आतंकवाद का खात्मा करना चाहती है. आतंकवादियों की सराहना होगी, आतंकवाद की घटनाओं को छुपाया जायेगा, पाया जाने वाले विस्फोटक को छुपाया जायेगा, निर्दोषों को फंसाया जायेगा, उन्हें दोषी साबित किया जायेगा, क्या येही तरीका है आतंकवाद पर काबू पाने का?


पुलिस अपनी चार्जशीट में ख़ुद यह कहती है के इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा को ओपरेशन बटला हाउस के दौरान जो गोलियाँ लगीं, वो उन संदिग्ध आतंकवादियों की थी जो जायेवार्दात से फरार होने में सफल हो गए, सभी मीडिया ने नक्षा बनाकर इलस्ट्रेशन के ज़रिये पूरे इलाके को देख कर हज़ार बार यह बात कही के आरोपियों का वहां से फरार हो जाना सम्भव ही नहीं है क्यूँ की बिल्डिंग से नीचे कूदा नहीं जा सकता, सीढियाँ ही एक रास्ता हैं जहाँ से नीचे जाया जा सकता था और वहां पुलिस तैनात थी, फिर कैसे वो संदिग्ध आतंकवादी फरार होने में सफल हो गए? इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा गोलियाँ लगने के बाद चार मंजिलों वाली इमारत की सीढियों से उतर कर पैदल ज़मीन तक आरहे हैं, सड़क पर आने के बाद दो साथियों की सहायता से गाड़ी में सवार हो रहे हैं, पाँच मिनट के फासले पर अस्पताल में चिकित्सा सहायता प्राप्त हो रही है, मगर अगले कुछ मिनट में उन की मृत्यु हो जाती है. देश के प्रसिद्ध सर्जन की सेवा प्राप्त करके हम पूछते हैं के ऐसी कौन सी गोलियां हो सकती हैं जो इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा की मृत्यु का कारण बनीं. उत्तर मिलता है के जो घाव दिखाई दे रहे हैं उन के हिसाब से तो मोहन चंद शर्मा की मृत्यु नहीं होना चाहिए. पोस्ट मार्टम की रिपोर्ट कहाँ है, वो क्या कहती है? उसे सामने क्यूँ नहीं लाया गया. अब सी एस ऍफ़ एल की रिपोर्ट आतिफ और साजिद के ज़रिये गोलियों का चलाया जाना साबित कर रही है, शायद अर्जुन सिंह के ज़रिये जुडिशिअल इन्कुएरी की बात कह देने का परिणाम है के अब पुलिस एक बार फिर मीडिया की सहायता से यह साबित करने की कोशिश में व्यस्त है के किसी न किसी तरह एनकाउंटर बटला हाउस को सही साबित करदिया जाए. बटला हाउस से लेकर सराय मीर, आज़म गढ़ तक हजारों लोग उन के निर्दोष होने का सबूत दें तो भी पुलिस और सरकार मानने के लिए तैयार नहीं. लेखक ने एल १८ बटला हाउस के उस फ्लैट से लेकर उस के सामने की इमारत, दरवाज़ा, सीढियां, आस पास की इमारतें और जगह जा कर सभी जानकारियां इकठ्ठा कीं , ऐसे सभी सबूत जो सत्य को दिखा सकते हैं सामने रखे, सराय मीर, आज़म गढ़ जाकर उन के पुश्तैनी बैकग्राउंड को समझा, सेंकडों लोगों से बात की, परन्तु पुलिस जो साबित करना चाहती है, वो साबित करने में शायद सफल हो जायेगी, इस लिए के हमारे पास एनकाउंटर बटला हाउस में डॉक्टर हरिकृष्ण जैसा चश्मदीद गवाह नहीं है, जो अपनी जान पर खेल कर भी यह साबित करने का इरादा रखता हो के वो सत्य को सत्य साबित करके रहेगा.

हमें इस सत्य पर भी ध्यान देना होगा के बम धमाकों के बाद हम जिन्हें आतंकवादी मान लेते हैं, पुलिस जिन्हें आतंकवादी बता कर गिरफ्तार कर लेती है, दंड देती है, फिर वर्षों बाद वो निर्दोष साबित होते हैं और उन्हें छोड़ दिया जाता है, तो भी क्या उन के साथ पूर्ण न्याय हो पाता है? मक्का मस्जिद, हैदराबाद का ताज़ा उदहारण हमारे सामने है. हम ने ख़ुद वहां जाकर हालात को देखा. मस्जिद के आँगन में जहाँ बम धमाके हुए वहां खून की बूंदों से लेकर टूटे हुए पत्थर तक, मृतकों के घरों तक जाकर भी देखा जिन्हें दोषी बताकर गिरफ्तार किया, उन के परिवार से मिले, फिर मुख्यमंत्री से निवेदन किया के जिस तरह मालेगाँव छानबीन के बाद आतंकवादियों का एक नया चेहरा सामने आरहा है, फिर से सभी घटनाओं की छानबीन की जाए, सभी के सभी २१ आरोपी रिहा कर दिए गए, मगर हम यह मानते हैं के उन के साथ न्याय नहीं हुआ.

यह कैसा न्याय है, अगर आज पुलिस, अदालत और सरकार यह मानती है के यह सभी निर्दोष हैं इसलिए उन्हें रिहा कर दिया जाना चाहिए. अगर हमारी आवाज़ ऊंची करने के बाद तिहाड़ जेल से पत्र लिखने वाले निर्दोष साबित होगये थे और अब उन्हें रिहाई भी मिल जायेगी तो क्या येही पूर्ण न्याय है.....? जिन लोगों ने उन के निर्दोष होते हुए भी उन्हें आतंकवादी साबित किया, उन्हें मानसिक और शारीरिक पीडाएं दीं, उन के परिवारों को रुसवा किया, समाज में उन का जीना कठिन कर दिया, क्या उन के दामन पर लगा दाग इतनी आसानी से धुल जायेगा? क्या उन की खुशियाँ जो छीन ली गई थी, वापस मिल जायेंगी? क्यूँ नहीं उन सभी पुलिस वालों और अदालती कार्यवाही के दौरान पुलिस के बयानात को सही मान लेने वालों को जिन की वजह से यह जेल की सलाखों के पीछे जीवन काटने पर विवश हुए, उन्हें दोषी माना जाए? क्या वो उन पर हुए अत्याचार के लिए जिम्मेदार नहीं हैं? क्या उन पुलिस वालों को दंड नहीं मिलना चाहिए? अगर उन को दंड नहीं मिलेगा तो फिर किस प्रकार पुलिस वालों से कर्तव्य को निभाने की आशा की जासकती है? वो जिसे चाहेंगे आतंकवादी साबित करदेंगे और जिस आतंकवादी को चाहेंगे, उसे निर्दोष साबित कर देंगे.

मई १९८७ में मीरठ, मल्याना, हाशिम पूरा में निर्दोषों को नहर के किनारे खड़ा कर के गोली मार दी गई. १६५ पृष्ठों पर आधारित रिपोर्ट और अनुमानित १००० पृष्ठों पर आधारित अन्य विस्तार का पाठ किया जा रहा है, किंतु क्या दोषियों को दंड मिल पायेगा? आज २२ वर्ष बीत जाने के बाद भी अगर अपराधी आजाद हैं और अगर आने वाले कुछ वर्षों में उन का अपराध साबित हो भी जाए तो भी उन के लिए दंड का अर्थ क्या? और कितने अपराधी उस दंड को पाने के लिए जीवित रहेंगे? अगर न्याय की येही धीमी गति जारी रही तो किस तरह आतंकवाद का सर्वनाश होगा?

क्या हमें यह मान लेना चाहिए के पुलिस या पी ऐ सी के ज़रिये किसी भी निर्दोष की जान लेना आतंकवाद नहीं है, क्या हमें यह मान लेना चाहिए के राजनीतिज्ञों के मार्गदर्शन में जन्म लेने वाला आतंकवाद, आतंकवाद नहीं है तो फिर हमें समझना होगा के आख़िर सरकार के नज़दीक आतंकवाद का पैमाना क्या है? वो किन को आतंकवादी मानती है? आज मालेगाँव छानबीन के बाद ऐ टी एस की चार्जशीट में जिन ११ लोगों को आतंकवाद के मामलात में शामिल करार दिया गया है, वो सभी समाज में सम्मानित जीवन जी रहे थे और आज भी जिस तरह के समाचार उन लोगों के सम्बन्ध में पेश किए जा रहे हैं, वो यह के उन का उद्देश्य हिंदू राष्ट्र का निर्माण था अर्थात जनता का एक बड़ा हिस्सा दंड पाने के बाद भी उन का आभारी रहे, उन को सम्मान की निगाह से देखे, उन के आतंकवाद को आतंकवाद न समझे, बलके हिंदू राष्ट्र के निर्माण के लिए उसे उन का बलिदान माना जाए, क्या यह ठीक है? क्या इस तरह इस का प्रचार किया जाना चाहिए?

अब चुनाव की सरगर्मियां आरम्भ हो गई हैं, कुछ ही दिनों में संसद चुनाव का एलान हो जायेगा, कुछ घटनाएं जो राजनीतिज्ञों को चुनाव का मुद्दा बनाने में काम आयेंगे, उन पर बहस जारी रहेगी, बाकी सभी घटनाओं पर बहस बंद हो जायेगी, सब कुछ चुनाव के शोर में समाप्त हो जायेगा, फिर कोई यह साबित करने के लिए सामने नहीं आएगा के बटला हाउस का एनकाउंटर सही नहीं था, अंसल प्लाजा के फर्जी एनकाउंटर पर बातचीत बंद हो जायेगी, अगर कोई मीरठ, मल्याना, हाशिम्पूरा की घटनाओं को दोहराने की कोशिश करेगा तो कहा जायेगा के क्यूँ गधे मुर्दे उखाड़ते हो, यह समय ऐसी बातें करने का नहीं है, अगर आप खून में लिप्त गुजरात की बात करेंगे तो कौन आप की आवाज़ में आवाज़ मिलाएगा? अब जबके अनिल अम्बानी और रतन टाटा वाइब्रेंट गुजरात की बात कर रहे हैं और सरकार से लेकर सरकार के सहायक तक कोई खून से लिप्त गुजरात की बात नहीं कर रहा है तो फिर आप कौन होते हैं घाव कुरेदने वाले? हाँ! साबित कर दिया होगा जस्टिस श्री कृष्ण ने अपनी रिपोर्ट में के महाराष्ट्र के जातिवादी दंगों के दौरान शिव सेना के कार्यकर्ताओं ने चुन चुन कर मुसलमानों को मारा, उन के कारोबार को बर्बाद किया और उस रिपोर्ट के सामने आजाने के बाद न दोषियों को दंड मिला, न दोषियों पर मुकदमा चला तो फिर आव्यशकता ही क्या है किसी एन्कुएरी कमीशन के बिठाए जाने की। क्यूँ अर्जुन सिंह जुडिशिअल एन्कुएरी की बात कर रहे हैं? क्या यूँही कुछ समय के लिए घाव पर मरहम रख कर चुनाव में सफलता पाना ही उद्देश्य रह गया है। खुदा के लिए बस कीजिये इस राजनैतिक खेल को.

हाँ हम जानते हैं के हम चारों ओर से घिरे हुए हैं, हर आतंकवादी हमले के बाद हमें ही मैदान में आकर साबित करना है के हम आतंकवाद के विरुद्ध जलसा करके उल्माए कराम से लेकर बुद्धिजीवियों तक सब को मंच पर आकर आतंकवाद की निंदा करना है, आतंकवाद के विरुद्ध बयान देना है, क्या सिर्फ़ एक विशेष संप्रदाय की ज़िम्मेदारी है यह? क्या इस में सभी हिन्दुस्तानियों को इस तरह शामिल नहीं होना चाहिए? क्या ६१ वर्षों बाद भी हिंदुस्तान के एक मखसूस तबके को ख़ुद को देश प्रेमी साबित करना होगा? क्या यह ऐतिहासिक सच्चाई नहीं है के हिन्दुस्तंका मुस्लमान दुन्या की वो एक कौम है, जिस के पास अपनी मर्ज़ी का देश चुनने का अवसर था, देश के बटवारे के बाद वो पाकिस्तान या हिंदुस्तान में से किसी एक देश को चुन सकता था, उस ने जब हिंदुस्तान को चुन कर अपना फ़ैसला उसी वक्त सुना दिया तो आज उस से यह प्रशन क्यूँ?

अब फिर एक नई उलझन हमारे सामने है, आने वाले संसद चुनाव में मुसलमानों के वोट का अधिकारी कौन है? वो सेकुलर पार्टियों के साथ जाना चाहता है मगर सेकुलरिस्म का पैमाना क्या है? क्या सिर्फ़ मुस्लमान ही देश को सेकुलर बना पायेंगे? नहीं, बहुमत चाहेंगे तभी देश सेकुलर रहेगा। बात निराशा की नहीं, किंतु चिंता की अवश्य है। अगर मुस्लमान वर्षों तक किसी पार्टी को सेकुलर मान कर उस को मज़बूत बनाने की कोशिश करता रहे, उसे इस लायक बना दे के केंद्रीय सरकार उस के रहमो करम पर टिकी है, उस की हिमायत जारी रही तो सरकार का वजूद बाकी रहे, वो हिमायत वापस लेले तो सरकार खतरे में पड़ जाए, फिर वही पार्टी मुसलमानों की भावनाओं, अनुभूति की हत्या करते हुए एक ऐसे व्यक्ति को अपने साथ लेले, जिस ने स्वतंत्रता के बाद देश में आतंकवादी दौर की शुरुआत की हो, जिस ने बाबरी मस्जिद की शहादत के साथ देश में जातिवाद और आतंकवाद के न समाप्त होने वाले दौर की शुरुआत की हो.

चलिए बंद करते हैं इस बहस को...........

मैं क्यूँ आप का समय ख़राब कर रहा हूँ, शायद यह सब बेकार बातें हैं, सब की अपनी अपनी मजबूरियाँ हैं, कोई स्वयं उमीदवार है, संसद की सदस्यता के सपने का बलिदान कैसे करे, कोई किसी उमीदवार से जुडा हुआ है, वो कैसे उस का दामन छोड़ दे?
कोई एहसानों के बोझ टेल दबा है तो किसी को यह आशा है के आने वाला कल आज की हिमायत की शक्ल में अच्छी सौगात ले कर आएगा। शायद सब कुछ इसी तरह चलता रहेगा, हम नेतृत्व के आभाव का मातम करते रहेंगे, मजलूम हो कर भी जालिम करार दिए जाते रहेंगे। आतंकवाद का शिकार हो कर भी आतंकवादी कहलाये जाते रहेंगे, देश प्रेमी होते हुए भी संदिग्ध निगाहों से देखे जाते रहेंगे और यह राजनैतिक उलझनें हमारे पैरों में लोहे की जंजीरों की तरह पड़ी रहेंगी। हम अंग्रेजों की गुलामी की जंजीरों से छुटकारा पाने का संघर्ष तो कर सकते हैं, परन्तु यह जंजीरें जिन्हें हम अपने पैरों की सुंदर पायल समझ बैठे हैं, जिन्हें हम ने स्वयं अपने पैरों में डाला है, उन से कब और किस प्रकार छुटकारा पाएंगे? शायद कभी नहीं........! मैं ने कहा था न मत पढिये इसे, यह सब लिखना बेमतलब है फिर भी लिख रहा हूँ के आने वाली पीढी यह न कहें के सब कुछ देखता रहा और खामोश रहा।

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