कल्याण मायावती के लिए वरदान.......?
कल्याण फैक्टर बहुजन समाज पार्टी के लिए किसी लोटरी से कम साबित नहीं होगा। दुविधा का प्रशन अगर है तो कांग्रेस के सामने.........लाभ और हानि का हिसाब देखना है तो समाजवादी पार्टी को। इस मामले में बहुजन समाज पार्टी के खेमे से भी उठती नज़र आरही थी, जब उन के कुछ संसद सदस्य इस बात से परेशान थे के मायावती उन को अधिक महत्त्व नहीं दे रही हैं और यह सम्भव है के इस बार उन्हें इस पार्टी से पार्लिमेंट का टिकट भी न मिले। अब जबके समाजवादी पार्टी कल्याण के साथ चले आने के कारण मुसलमानों में अपना पहले जैसा मकाम नहीं रख पाई है और यह भी सम्भव है के जैसे जैसे समय गुज़रता जाए, बाहर से चाहे जो भी दिखाई दे, मुसलमानों का गुस्सा समाजवादी पार्टी के लिए वोटों की शक्ल में उसे प्रभावित कर सकता है। अब तक जो वोट यक्श्मत बड़ी मात्रा में सिर्फ़ समाजवादी पार्टी को जाता था, अब वो बहुजन समाज पार्टी के खेमे की और मुड़ सकता है।
बहुजन समाज पार्टी के सम्बन्ध से यह दलील दी जा सकती है के वो भी कहाँ दूध की धूलि है, कई बार भारतीय जनता पार्टी के साथ सरकार बना चुकी है और अब ऐसा नहीं करेगी, इस बात का भी क्या भरोसा है। बात ठीक है, परन्तु यह भी देखना होगा के बहुजन समाज पार्टी अपने जनम से लेकर आज तक जिस स्थान पर पहुँची है, उस बीच उसे कई पडाव का सामना करना पड़ा है। अलग अलग पार्टियों के साथ अलग अलग अवसरों पर सरकार बनानी पड़ी, चुनाव लड़ना पड़ा, परन्तु इस का गठजोड़ तो भारतीय जनता पार्टी से रहा, परन्तु इस की अपनी पार्टी की ऐसी कोई जातिवाद सोच अभी तक सामने नहीं आई है, जिस से के यह मान लिया जाए के उसे भारतीय जनता पार्टी की लाइन में खड़ा किया जा सकता है। आज अगर यह पार्टी अकेले अपने दम पर हिंदुस्तान के सब से बड़े राज्य में सरकार बनाने में सफल हुई तो ऐसा तो नहीं हुआ होगा के मुसलमानों ने इस पार्टी को वोट न दिया हो......,
अब अगर कई कई बार भारतीय जनता पार्टी के साथ मिल कर सरकार बनाने के बावजूद भी पिछले राज्य चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को समाजवादी पार्टी से कम ही सही, परन्तु मुस्लिम वोट मिला तो आज कल्याण फैक्टर के बाद इस में सच मच बढोतरी की आशा की जा सकती है, कमी आने का तो प्रशन ही पैदा नहीं होगा। अगर कल्याण फैक्टर सामने न होता तब भी यह सम्भव था के कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठजोड़ बहुत बड़ी मात्रा में मुसलमानों का वोट प्राप्त कर लेता, परन्तु अब अधिक मात्रा में समाजवादी पार्टी को हानि की आशंका हो सकती है और उस से कुछ कम ही सही, परन्तु यह हानि साथ जाने की सूरत में कांग्रेस को भी हो सकती है।
हाँ, यह अलग बात है के जिन राज्यों में वो सेकुलर समझी जाने वाली अकेली पार्टी है, वहां मुसलमानों और अन्य सेकुलर मानसिकता रखने वाले वोटर्स की मजबूरी कांग्रेस ही हो, परन्तु यहाँ भी कांग्रेस के पालिसी बनाने वालों को इस बात का ध्यान रखना होगा के वोटर्स अगर बेदिली के साथ या मजबूरी में वोट डालने जाते हैं तो उन का वोट डालने का प्रतिशत दर बहुत कम होता है, उन की न तो वोट डालने में रूचि होती है और न चुनाव में साफ़ तौर पर भागेदारी। जबके उस के उलट अगर वो किसी की सरकार बनाने पर आजायें, दिल और जान सहित किसी के साथ खड़े होना चाहें, उसे सफल बनाना चाहें तो यह पोलिंग प्रतिशत दर काफ़ी अधिक होता है।
कांग्रेस के पास एक लंबे समय के बाद यह सुनहरी अवसर था के वो मुसलमानों का वोट राष्ट्र स्तर पर प्राप्त कर सकती, नरसिम्हा राव के दौर से पैदा हुई नाराजगी को दूर कर सकती, इस लिए के आतंकवाद के रोग से परेशान मुस्लमान केन्द्र में एक ऐसी सरकार देखना चाहता था जो जातिवाद न हो, बलके जातिवाद और आतंकवाद पर लगाम लगा सके, बेशक यह कांग्रेस के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी और अन्य एक विचार पार्टियों के समर्थन से सम्भव हो सकता था और बदले हुए वातावरण में यह भी असंभव नहीं था के कांग्रेस स्वयं ऐसी पोजीशन में आजाये के उसे सरकार बनाने के लिए किसी बड़ी कठिनाई का सामना न करना पड़े, परन्तु कल्याण फैक्टर ने जहाँ कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के लिए कुछ कठिनाइयां खड़ी की हैं, वहीँ बहुजन समाज पार्टी के लिए रास्ता बनाया।
अमेरिका में बराक हुसैन ओबामा के राष्ट्रपति बन्ने के बाद हिंदुस्तान में मायावती को ऐसी ही शक्ल में देखने वालों को अगर अपने सपने साकार होते दिखाई दें तो यह बिल्कुल आशचर्यजनक बात नहीं है, जिस प्रकार अमेरिका में बराक हुसैन ओबामा का राष्ट्रपति बनना एक क्रांति है, उसी प्रकार हिंदुस्तान में मायावती का प्रधान मंत्री बनना किसी क्रांति से कम नहीं होगा। हाँ, इस समय यह बात कुछ आशचर्यजनक अवश्य लगेगी के संसद में जिस पार्टी की सिर्फ़ १७ सीटें हों, उस को देश के प्रधान मंत्री के रूप में सोचना मानसिक असंतुलन है , परन्तु हालात कब, क्या करवट बदलें कहना बहुत कठिन है। कौन जानता था के जोर्ज डब्लेव बुश या हिलेरी क्लिंटन के सामने बराक हुसैन ओबामा उस देश के राष्ट्रपति बन जायेंगे, जहाँ नस्लवाद इतना था के एक साथ बैठ कर खाना पीना भी बर्दाश्त नहीं किया जाता था।
मायावती उत्तर परदेश में लग भाग यह कमाल दिखा चुकी हैं। शायद कांग्रेस की सरकारों के बाद यह पहला अवसर है, जब किसी एक जादुई व्यक्तित्व ने सिर्फ़ अपने बूते पर बिना किसी ग्लेमर के, धन या बल को जताने के लिए चुनाव में ऐसी सफलता प्राप्त की हो। अब अगर बहुजन समाज पार्टी उत्तर परदेश की ८० सीटों में से आधी सीटें जीतने में सफल हो जाती है और उसे १५-२० सीटें उत्तरपर्देश के बाहर भी मिल जाती हैं, जिसे पूरी तरह असंभव नहीं समझा जा सकता, इस लिए के महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ ही क्या हम ने ऐसे राज्यों में भी नीले झंडे देखे हैं, जहाँ उस की परिकल्पना भी मोहाल थी तो कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। हाँ, अब यह अवश्य सोचने वाली बात है के केन्द्र में सरकार बनाने के लिए २७३ सदस्यों की जहाँ आव्यशकता हो, वहां ७३ से भी कम सीटें प्राप्त करने वाली मायावती किस प्रकार उस कुर्सी की दावेदार हो सकती हैं?
तो उन की पहली सपोर्ट तो कम्युनिस्ट पार्टी है, जो पहले ही उन्हें भविष्य का प्रधान मंत्री बता कर एक सेकुलर प्रत्यावर्ती का इशारा दे चुकी है। अगर दोनों की सीटों की पूरी मात्रा १२५-१३० के पास भी होती है तो आध्रप्रदेश में चंद्र बाबु नाइडू, तमिल नाडू में जय ललिता, कर्नाटक में एच डी देवे गोडा जैसे लोग उन के साथ खड़े होने में ज़रा भी देर नहीं लगायेंगे। अब बाक़ी बचती हैं, वो सेकुलर पार्टियाँ जो आज कांग्रेस के साथ हैं तो उन के पास बदल खुला होगा।
कल्याण फैक्टर के बाद अगर उन्हें अपने राज्य में मायावती के साथ जाने में लाभ दिखायी दिया तो वो यह निर्णय पहले भी कर सकते हैं, वरना बाद में तो उन्हें अधिक विचार करने की आव्यशकता ही नहीं है। उन में पहला राज्य महाराष्ट्रा हो सकता है, जहाँ शरद पवार समय समय पर नाराज़गी जताते रहे हैं, कांग्रेस को महाराष्ट्र में समाजवादी पार्टी के साथ जाने में जितना लाभ होगा, उस से कहीं अधिक शरद पवार की नश्नालिस्ट कांग्रेस को बहुजन समाज पार्टी के साथ जाने से होगा। इस से जहाँ मायावती की पार्टी को महाराष्ट्र में अपना खाता खोलने का अवसर मिलेगा, वहीँ शरद पवार की सीटों में बढोतरी हो सकती है।
बिहार में लालू प्रसाद के लिए अब शासन में रहना अब अवश्य भी है और उन की मजबूरी भी है। बिहार में राज्य सरकार का चुनाव अभी दूर है, वैसे भी नीतिश कुमार अपनी जड़ें काफ़ी मज़बूत कर चुके हैं। ऐसे हालत में आज सोनिया गाँधी के गीत गाने वाले लालू प्रसाद यादव कल अगर मायावती के गीत गाने लगें तो बहुत आशचर्य नहीं होगा। वैसे भी बिहार में राम विलास पासवान लालू की मजबूरी हैं, उन के लिए आवश्यक नहीं। केन्द्र में सरकार बन्ने के बाद रेलवे मंत्रालय पर दोनों में जो झगडा हुआ वो किसी से छुपा नहीं है और लालू प्रसाद यादव भी कहाँ भूले होंगे के राम विलास पासवान की जिद ने बिहार में सरकार बनाने का अवसर उन के हाथ से निकाल दिया था, उस के बाद ख़ुद अपनी सीटें तो खोयी ही, उन्हें भी राज्य सरकार से बेदखल कर दिया। मायावती के साथ जाने पर इतने बड़े खतरे की उम्मीद तो है नहीं और राज्य में एक दलित लीडर का मनोबल बढ़ने से उन्हें दो फायदे होंगे, एक तो दलितों को अपनी ओर आकर्षित करेंगे, दूसरे राज्य स्तर पर राम विलास पासवान के बढ़ते हुए कद से जन्म लेने वाली चिंता दूर होगी।
इस प्रकार अगर देखा जाए तो एक ऐसा बदल, जिस का आज कहीं भी वजूद नहीं है, कल सामने आ सकता है। यह बदलाव कांग्रेस के लिए सब से बड़ी मुसीबत का कारन बन सकता है। अगर ऊपर उल्लिखत सभी राज्य पार्टियों के एक हो जाने पर भी यह मात्रा २७३ से बहुत दूर रहती है, परन्तु इतनी भी दूर नहीं के कांग्रेस की सीटें उस के साथ जोड़ ली जाएँ तो यह गिनती २७३ तक न पहुंचे तो ऐसे हालत में कांग्रेस को अपनी सरकार बनाने की आशा छोड़नी होगी। उस की मजबूरी होगी के ख़ुद को सेकुलर साबित करने के लिए, उस सेकुलर बदल को अपनी मजबूरी मान ले या फिर केन्द्र में एक सेकुलर सरकार की स्थापना में सब से बड़ी रुकावट का इल्जाम कुबूल करले।
जहाँ तक मायावती और उन की पार्टी की सोच का प्रशन है तो यह अपनी जिद पर अड़ जाने वाले लोग हैं और कई बार इस पर बात कर चुके हैं को हर चुनाव उन के लिए लाभदायक ही है और चुनाव जितने जल्दी जल्दी हों, उन्हें उतना ही लाभ होगा। अगर उन के इस दावे और पिछले परिणामों पर गौर किया जाए तो इस बात में दम लगता है। त्रिशंकु लोकसभा होने की सूरत में अगर कोई राय नहीं बनती है तो फिर इलेक्शन में जाने की मजबूरी होती होगी, जिस से कम से कम मायावती को तो कोई नुकसान होने वाला नहीं है। कांग्रेस यह जिद भी नहीं कर सकती को वो अकेली सब से बड़ी पार्टी है, इस लिए सरकार बनाने का दावा उसी का होगा, इस लिए के भूत काल में कांग्रेस चन्द्र शेखर, इन्द्र कुमार गुजराल और एच डी देवे गोडा के नेतृत्व में ऐसी सरकारें बनवा चुकी है, फिर एक दलित की बेटी के पहली बार देश की प्रधान मंत्री बन्ने की राह में रुकावट बन्ने का इल्जाम मुसलमानों के साथ साथ उस के पास बचे खुचे दलित वोटों को भी उस के खेमे से दूर कर देगा। ऐसे हालात में कांग्रेस के पास सिर्फ़ समाजवादी पार्टी और उस के महबूब कल्याण सिंह के सिवा क्या रह जायेगा.....?
मुसलमानों की अभी तक मायावती पहली पसंद नहीं रही हैं। पहले उस की पसंद कांगेस पार्टी थी, परन्तु नरसिम्हा राव को उन्होंने बाबरी मस्जिद की शहादत के लिए जिम्मेदार माना और कांगेरस से नाता तोड़ लिया। अब यह दूसरा अवसर होगा को जब कांग्रेस उन्हें बाबरी मस्जिद की शहादत के जिम्मेदार नरसिम्हा राव से भी बड़े अपराधी के साथ खड़ी नज़र आएगी। हज़ार कोशिशों के बावजूद नरसिम्हा राव अपने जीवन में मुसलमानों की नाराजगी दूर नहीं कर सके और कांग्रेस नरसिम्हा राव को व्यक्तिगत स्थिति में बाबरी मस्जिद का जिम्मेदार करार देकर भी मुसलमानों का दिल नहीं जीत सकी। यहाँ तक के उसे एक से अधिक बार जाने अनजाने में हुई उस गलती के लिए क्षमा भी माँगना पड़ी, मगर परिणाम बेकार।
मुसलमानों ने कांग्रेस का साथ छोड़ने के बाद जिसे सब से अधिक पसंद किया वो व्यक्ति थे मुलायम सिंह यादव और उन को पसंद किए जाने का सब से बड़ा कारण था बाबरी मस्जिद। क्यूंकि मुस्लमान यह मानता था के मुलायम सिंह यादव ने अपने शासक अवधि (१९९०) में अपनी सरकार की परवाह न करते हुए बाबरी मस्जिद की सुरक्षा की और अगर ६ दिसम्बर १९९२ को उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के बजाये मुलायम सिंह की सरकार होती तो बाबरी मस्जिद शहीद नहीं होती, परन्तु अब जबके वही व्यक्ति जो बाबरी मस्जिद की शहादत के लिए सीधे जिम्मेदार है, मुलायम सिंह के करीब आचुका है तो फिर मुस्लमान किस हद तक उन के करीब रह सकते हैं, यह समझना कोई बहुत कठिन नहीं है। हिंदुस्तान के प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने तो सिर्फ़ एक बार अमेरिका में पूर्व राष्ट्रपति को अपना और हिंदुस्तान का मित्र कहा था, जिसे हिंदुस्तान की जनता ने पसंद नहीं किया, जबके यह हिंदुस्तान के बाहर का मामला था और मुलायम सिंह तो कई बार कल्याण सिंह को अपना मित्र करार दे चुके हैं और बार बार कल्याण सिंह की मित्रता का दम भर रहे हैं, उन्हें निर्दोष साबित करने की हर सम्भव कोशिश कर रहे हैं।
ऐसे हालात में अगर मायावती अब मुसलमानों की पहली पसंद बन जाएँ तो उस में कोई आशचर्य नहीं होना चाहिए। यूँ भी उत्तर प्रदेश में उन के सामने अधिक प्रत्यावर्ती हैं ही नहीं। कांग्रेस का कल्याण के साथ खड़ा होना, वो चाहे उसे समाजवादी पार्टी का साथ कहें, कम से कम उत्तर परदेश में तो कांग्रेस के साथ दिल से जुड़ नहीं पायेगा। उत्तर परदेश के बाहर बिहार में लालू प्रसाद यादव मुसलमानों की पसंद हो सकते हैं, वैसे उन्हें शिकायत पासवान से भी नहीं है और सत्य तो यह है के नीतिश कुमार के भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से सरकार चलाने के बावजूद भी बिहार का मुस्लमान नीतिश कुमार को नापसंद नहीं करता, यह बात मायावती के हक में भी जाती है, इस लिए के जिस प्रकार बिहार में नीतिश कुमार ने भारतीय जनता पार्टी का साथ तो लिया, परन्तु अपने आप को उस के सामने सरेंडर नहीं किया। इसी प्रकार मायवती ने भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर सरकार तो चलाई, परन्तु भारतीय जनता पार्टी के सामने सरेंडर नहीं किया और यह चिंता भी नहीं की के उन की सरकार रहेगी या जायेगी।
खैर बात थी बिहार में लालू प्रसाद यादव का मुसलमानों की पहली पसंद बन जाने की। हाँ, परन्तु यह सम्भव तभी है, जब वो कल्याण सिंह के प्रशन पर अपने विशेष अंदाज़ में बहादुरी के साथ यह कहें के लाल कृष्ण अडवाणी के खुनी रथ का पहिया बिहार में आकर जाम हो गया था और कल्याण सिंह को बाबरी मस्जिद की शहादत का अपराधी मानते हैं, इस लिए उस के साथ खड़े नहीं हो सकते। तब संसद चुनाव के बाद की परिस्थिति क्या होगी, इस की बात तो तभी की जायेगी, परन्तु अभी कल्याण सिंह का न बचाव किया जा सकता है, न उस की हिमायत की जा सकती है।
लग भाग यही इशु आन्ध्र प्रदेश में चंद्र बाबु नाइडू के लिए कारामद साबित होगा जो पहले भी तीसरे मोर्चे के कन्वेनर रह चुके हैं, अब वो एक मिडल फोर्स के कन्वेनर हो सकते हैं, उस से न सिर्फ़ एक बार फिर केंद्रीय नेतृत्व में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लेंगे, बलके इस बात की भी आशा पैदा होगी के भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बिना अगर कोई प्रत्यावर्ती बनता है तो उस में चंद्र बाबु नाइडू की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है, साथ ही आँध्रप्रदेश में एक बार फिर उन्हें अपने वजूद को मजबूती से साबित करने का अवसर मिलेगा।
कर्नाटक के पिछले चुनाव के बाद लगभग साइड में चले गए एच दी देवेगोडा अब वहां सेकुलरिज्म के सब से बड़े झंडाबरदार दिखायी देंगे, इस लिए के राज्य में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और कांग्रेस के दामन पर कल्याण सिंह के साथ खड़े होने का दाग हो सकता है। कर्नाटक में मुसलमानों की मात्रा बहुत अधिक न सही, परन्तु इतनी कम भी नहीं है के उन्हें नज़र अंदाज़ किया जा सके और कम से कम सेकुलर वोट तो इस मात्रा में हैं ही के भारतीय जनता पार्टी का चेहरा बेनकाब कर दिया है। गिरजा घरों के जलाए जाने और ईसाइयों पर हुए ज़ुल्म से जहाँ शान्ति प्रेमी जनता भारतीय जनता पार्टी को नापसंद करने लगे हैं, वहीँ कांग्रेस ने केन्द्र में शासक रहते हुए भी उन की कोई विशेष सहायता नहीं की, इसलिए उन्हें भी एच दी देवेगोडा में आशा की एक किरण नज़र आसक्ति है।
ऐसे में अगर मिडल फोर्स का वजूद स्थित होगया और एच दी देवेगोडा को मायावती की भी सहायता प्राप्त हो गई तो उन्हें कम कर के नहीं देखा जा सकता।
इस सत्य से कौन इनकार करेगा के आज परिवर्तन के इस वातावरण में दलित की बेटी के साथ खड़ा हो कर दलितों को आकर्षित करने से क्यूँ पीछे हटा जाए, अगर मुट्ठी भर लूध वोट के लिए बाबरी मस्जिद के अपराधी कल्याण सिंह से सेकुलर समझी जाने वाली पार्टी हाथ मिला सकती है तो फिर कल्याण सिंह और मायावती की तो कोई तुलना ही नहीं है। उन का साथ तो निश्चित रूप से उन सब को वोट की शक्ल में कुछ न कुछ देगा ही, अब कल पार्लिमेंट की सूरत क्या होगी, नेतृत्व किस के हाथ में होगा, वो नेतृत्व कैसा होगा, इस की चिंता करे तो कांग्रेस करे, जिसे शासन की चाह सब से अधिक होगी, इस लिए के सेकुलरिज्म की सब से बड़ी अलमबरदार वही रही है और सेकुलरिज्म के नाम पर वोट भी प्राप्त करती रही है. इन राज्य पार्टियों के लीडर को तो अगर इज्ज़त के साथ केन्द्र में अपनी हैसियत बनाये रखने का अवसर मिल जाए तो इतना ही काफ़ी होगा और लगता नहीं के इतना देने में मायावती को थोडी भी परेशानी होगी।
Saturday, January 31, 2009
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