Monday, October 12, 2009

आपका वोट तय करेगा राज्य का भविष्य

आज का लेख चुनावों के संबंध में लिखे जा रहे लेखों के सिलसिले की अंतिम कड़ी है। कल अर्थात 13 अक्टूबर को वोट डाले जायेंगे। स्पष्ट है उस दिन इतना अवसर ही नहीं होगा कि इन राज्यों में हमारे पाठक अपने मताधिकार का प्रयोग करने से पूर्व अखबार पढ़ने का समय निकाल सकें। जबकि कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें सामने रखना बेहद आवश्यक है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि अपने वोट का इस्तेमाल अवश्य करें। आपने सुना होगा कि जब भी भारत में मुसलमानों की संख्या की बात आती है तो अक्सर मुस्लिम संगठन यह दावा करते हैं कि लगभग 24 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है मगर जब सरकारी
आंकड़ों की भाषा में बात की जाती है तो यह संख्या घटकर लगभग 14 प्रतिशत के आसपास रह जाती है।

भारतीय जनता पार्टी के लोग तो 12 प्रतिशत से आगे बढ़ना ही नहीं चाहते और वह भी शायद गलत नहीं हैं इसलिए कि अपनी मुस्लिम विरोधी रणनीति से उन्हें जब-जब सत्ता में आने का अवसर मिला है उन्होंने आंकड़ों की भाषा में इस संख्या को कम ही करने का प्रयास किया है। कारण केवल यह नहीं कि उनके इस प्रयास से मुसलमानों से मताधिकार छिन जाता है बल्कि मुसलमानों को इसका नुक़्सान हर मैदान में उठाना पड़ता है।

मुस्लिम संगठन जब आबादी के आंकड़ेे जमा करते हैं तो वह भारत में मुसलमानों की जनसंख्या पर काम करते हैं। उनमें से कितने मतदाता हैं और कितने मतदाता नहीं हैं वह मुस्लिम विरोधी षडयंत्रकारी मानसिकता के इस फरेब को नहीं जान पाते और संभवतः इस पर अधिक काम भी नहीं होता कोई भी संगठन कुछ करना भी चाहता है तो उसे केवल परेशानियों और हतोत्साहित होने के अलावा कुछ नहीं मिलता। गौरखपुर, मऊ, आज़मगढ़ के क्षेत्र में सरगर्म एक समाजी संगठन के कार्यकर्ता श्री असद हयात ने मुझे बताया कि उनके संगठन ने इस सिलसिले में बड़ा काम किया है।

उन्होंने यह आंकड़े जमा किये हैं कि कितने मुसलमानों के मतदाता परिचय पत्र नहीं बने हैं उनका नाम मतदाता सूची में नहीं है जबकि उनके पास अपने नागरिक होने के तमाम सबूत मौजूद हैं। आप निश्चित रूप से यह कड़वी सच्चाई जानकर हैरान होंगे कि एक ही शहर में 70 हज़ार से अधिक मुसलमानों के पास मतदाता परिचय पत्र नहीं है और जब उन्होंने यह प्रयास किया कि किसी तरह इनके मतदाता परिचय पत्र बनवा दिये जायें तो एक वर्ष से अधिक की मेहनत और भागदौड़ के बावजूद उसमें सफल नहीं हो सके।

इसलिए कि प्रशासन के लोगों का बताया गया रास्ता इतना पेचीदा था कि वह चाहकर भी लोगों के मतदाता परिचय पत्र नहीं बनवा पाए। व्यक्तिगत रूप से कुछ नागरिक अपना परिचय पत्र बनवा सकते हैं मगर सामूहिक रूप से इस संगठन के लिए यह सम्भव नहीं हो पाया। अब ज़ाहिर है कि दो वक्त की रोटी प्राप्त करने के संघर्ष में लगा कोई व्यक्ति केवल मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज कराने के लिए इतना समय खर्च नहीं कर सकता।

इस लेखक को व्यक्तिगत रूप से भी इसका तल्ख तजुर्बा है अतः वह भाग्यशाली जिनके पास मतदाता परिचयपत्र है। जिनका नाम मतदाता सूची में दर्ज है कम से कम वह तो शत प्रतिशत अपने वोट का उपयोग करें ही। और जिनके पास मतदाता परिचय पत्र नहीं है मगर कोई भी परिचय पत्र है वह भी पोलिंग बूथ तक पहुंचकर चुनाव अधिकारी से संपर्क करें और प्रयास करें कि उन्हें मताधिकार का अवसर मिल सके और जिनके पास यह दोनों ही नहीं हैं वह चुनावी गतिविधि में शामिल होने के लिए कम से इतना तो कर ही सकते हैं कि जो बूढ़े और बीमार मतदाता किसी के सहारे के बिना पोलिंग बूथ तक नहीं पहुंच पा रहे हैं वह अपनी सेवाएं उनके लिए पेश कर दें।

खुदा के लिए इस चुनावी गतिविधि के महत्व को समझें। आप जिन बहुत सी समस्याओं से घिरे हैं उनका बड़ी हद तक हल इसी रास्ते से निकल सकता है। मेरे सामने इस समय 2004 में हुए महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों का विवरण है जिसे मैं इस लेख के साथ प्रकाशित कर रहा हूं। कृपया इस पर एक नज़र डालें और देखें कि कितने प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मत का प्रयोग किया और किसके समर्थन में। फिर ध्यान दें कि किस तरह और बेहतर तरीके से अपने मत का प्रयोग कर सकते हैं।
जहां तक प्रश्न इस बात का है कि अपने वोट का इस्तेमाल किस दल या प्रत्याशी के समर्थन में किया जाये तो इस सिलसिले में काफी कुछ लिखा जा चुका है।

बहुत हद तक आप मन बना भी चुके होंगे और बना भी लिया जाना चाहिए ज़ाहिर है भारत की जनता इस देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था देखना चाहती है और उसके लिए धर्मनिर्पेक्ष सरकार का अस्तित्व में आना आवश्यक है चाहे वह केन्द्र की बात हो या राज्य की। मुस्लिम मतदाताओं का हमेशा यह प्रयास रहा है कि उनका वोट धर्मनिर्पेक्ष प्रत्याशी और धर्मनिर्पेक्ष दल के समर्थन में ही इस्तेमाल हो फिर भी राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के मनमोहक झांसे कभी-कभी ऐसी स्थितियां पैदा कर देते हैं कि अपनी समझ से वह वोट तो धर्मनिर्पेक्ष प्रत्याशी और धर्मनिर्पेक्ष दल को दे रहे होते हैं मगर लाभ साम्प्रदायिक पार्टी को पहुंच रहा होता है।

जहां तक महाराष्ट्र का प्रश्न है तो इस समय दो ही गठजोड़ ऐसे हैं जो महाराष्ट्र में सरकार बनाने में सफल हो सकते हैं इनमें से एक कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस का गठजोड़ है जिसे धर्मनिर्पेक्ष गठजोड़ भी कह सकते हैं और दूसरा भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना का गठजोड़ है, इनके विषय में कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है। महाराष्ट्र की जनता ने इनक क्रिया कलापों को अच्छी तरह देखा और महसूस किया है। हमने भी पिछले दिनों लिखे गये अपने लेखों में इन तथ्यों को फिर से जनता के सामने लाने का प्रयास किया है और ‘‘आलमी सहारा’’ साप्ताहिक के ताज़ा अंक में ऐसी कुछ घटनाओं को जमा करके इसे एक दस्तावेज़ की शक्ल देने का प्रयास किया है।

यह अंक आपके शहर में उपलब्ध है (आप अपने अखबार के साथ अपने हाॅकर से भी मंगा सकते हैं) भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना के कारनामों का विस्तृत अध्ययन आप हमारी इस विशेष प्रस्तुति में कर सकते हैं। इनके अलावा एक राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना है, अब इस विषय में भाई मैं तो केवल इतना ही कहना चाहूंगा कि सेनाएं तो सारी हमें सीमाओं पर ही अच्छी लगती हैं। चुनावी गतिविधियो में सेनाओं का क्या काम? बाकी आपकी इच्छा। राज साहब के अतिरिक्त एक तीसरा मोर्चा भी है यह बेचारे इस मामले में तो बहुत ईमानदार राजनीतिज्ञ हैं कि हमेशा अपने आप को तीसरा मोर्चा ही ठहराते हैं।

उन्हें विश्वास है कि पहला और दूसरा स्थान उनके पास हो ही नहीं सकता। अब सरकार तो उसकी बनती है जिसे पहला स्थान प्राप्त हो। विपक्षी अर्थात अपोज़ीशन पार्टी उसको माना जाता है, जिसके पास दूसरा स्थान हो। जहां तक हमारा अनुमान है हर व्यक्ति स्वयं को पहले स्थान पर ही देखना चाहता है या पहले स्थान पर पहुंचने वाले की सहायता करना चाहता है, उसके साथ जुड़े रहना चाहता है। अब कौन तीसरे स्थान वाले को पसन्द करे और क्यों यह सोचने वाली बात है। वैसे भी उनको दिया जाने वाला मत किसके काम आयेगा, किसको नुक़्सान पहुंचायेगा इतनी राजनीतिक चेतना तो आज लगभग तमाम मतदाताओं में है।

अतः मनमोहक सुन्दर आश्वासनों पर ध्यान न देकर ज़मीनी सच्चाई को महसूस करें, फिर अपने मत का प्रयोग करें।
एक बात और जो इस अवसर पर समझना आवश्यक है वह यह कि सरकार जिसकी भी आप बनवाएं। स्पष्ट बहुमत के साथ बनवाएं बैसाखियों पर टिकी लूली लंगड़ी सरकार अक्सर ब्लैक मेलिंग का शिकार होती रहती है। इससे जनता का लाभ नहीं होता, बल्कि अपना समर्थन देकर सरकार बनवाने और चलवाने वाले हर कदम पर अपने समर्थन की क़ीमत वसूल करते रहते हैं। नतीजा आप वोट देकर भी तमाम आवश्यकताओं से वंचित रहते हैं और वह आपके वोट के सहारे मुंह मांगी मुराद प्राप्त करते रहते हैं।

अब अंतिम बात जो मैं आपकी सेवा में कहना चाहता हूं वह है भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना का महाराष्ट्र असंेंबली में प्रतिनिधित्व का इतिहास। 1962 से 1986 तक के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना को कोई बड़ी सफलता प्राप्त नहीं हुई। 1990 का पहला राज्य विधानसभा चुनाव था जब इन दोनों साम्प्रदायिक दलों को उल्लेखनीय सफलता प्राप्त हुई। हालांकि शिवसेना ने 1972 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में बाकायदा भाग लिया था। 26 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किये थे और उनमें से एक प्रत्याशी को सफलता भी प्राप्त हुई थी, लेकिन उसके बाद 1978 के चुनाव में 35 प्रत्याशी खड़े करने के बावजूद इस पार्टी के किसी उम्मीदवार को कोई सफलता प्राप्त नहीं हुई। 1990 में शिवसेना ने 183 उम्मीदवार खड़े किये और 52 सीटों पर उसे विजय प्राप्त हुई इसके बाद से उसकी कामयाबी का ग्राफ बढ़ता रहा है।

1995 में 73, 1999 में 69 और 2004 में उसे 62 सीटें प्राप्त हुईं। इसी तरह भारतीय जनता पार्टी ने 1980 और 1985 के चुनाव में 14 और 16 सीटें प्राप्त कीं मगर 1990 के बाद उसने क्रमशः 42-56-56-54 सीटें प्राप्त कीं। आंकड़े गवाह हैं कि इन दोनों साम्प्रदायिक पार्टियों को राम मन्दिर मुद्दा, बाबरी मस्जिद की शहादत और मुम्बई में होने वाले साम्प्रदायिक दंगोें के बाद ही अपनी जड़ें मज़बूती के साथ जमाने का अवसर मिला अगर इस सिलसिले को यहीं पर इसी चुनाव में नहीं रोका गया तो राजनीतिक सफलता के लिए इनकी जो रणनीति है उसे रोकना कितना मुश्किल होगा समझा जा सकता है।

अगर एक और बार भी इस मानसिकता की पार्टियों को सत्ता में आने का अवसर मिला तो यह राज्य किस दिशा में जायेगा , इस राज्य की शांति का क्या होगा, इस राज्य में बसने वाले तमाम भारतीयों का भविष्य क्या होगा, इस सबके बारे में सोचना है आपको वोट देने से पूर्व। इसलिए कि आपका वोट इस राज्य के 6 करोड़ 59 लाख 66 हज़ार 296 मतदाताओं का ही नहीं बल्कि 9 करोड़ 68 लाख 78 हज़ार जनता का भविष्य तय करेगा। इनके अलावा लाखों की संख्या में उत्तर भारत और दक्षिण भारत के लोग भी जो रोज़गार की तलाश में आकर इस राज्य में बस गये हैं, मगर न वह यहां के मतदाता हैं और न ही उनमें से बहुतों को बाकायदा इस आबादी के आंकड़ों में शामिल किया जा सकता है उन सबका भविष्य जुड़ा है, आपके एक वोट से।

Sunday, October 11, 2009

ये मुसलमानों के ही नहीं, हिन्दुओं के भी दुश्मन हैं

शिवसेना के सम्बन्ध में पिछले कुछ दिनों के अन्दर हमने जो कुछ लिखा, उस पर अपनी जगह कायम हैं, आज भी इस सिलसिले में और कुछ लिखना चाहते थे लेकिन इससे पहले आज कुछ बातें भारतीय जनता पार्टी से सम्बन्धित कहना भी जरूरी हैं। आम ख्याल यह है कि शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी मुसलमानों को नापसन्द करने वाली पार्टियां हैं लेकिन सच यह है कि शिवसेना केवल मुसलमानों को नापसन्द करने वाली या मुसलमानों की दुश्मन पार्टी ही नहीं है बल्कि शिवसेना की कार्यवाही इंसानियत दुश्मन है।

उत्तरी भारत से आने वालों पर अत्याचार करने से पहले शिवसेना ने दक्षिण भारत से मुम्बई आने वालों पर हिंसा तथा अत्याचार की शुरूआत की। ज़ाहिर है कि उत्तरी भारत और दक्षिणी भारत से आने वाले यह भारतीय क्षेत्रीयता पर आधारित घृणा तथा कट्टरता का शिकार हुए, धर्म की आधार पर नहीं। पलायन कर मुम्बई या महाराष्ट्र आने वालों में केवल मुसलमान ही नहीं, हिन्दू भी बड़ी संख्या में थे। इसलिए घृणा तथा कट्टरता का शिकार केवल मुसलमान ही नहीं हुए, हिन्दू भी हुए और हो रहे हैं।

भारतीय जनता पार्टी मुसलमानों की किस हद तक दुश्मन है, आज इस पर बहुत अधिक न लिखकर हम कहना यह चाहते हैं कि दरअसल भारतीय जनता पार्टी मुसलमानों की ही नहीं हिन्दुओं की भी बहुत बड़ी दुश्मन है। हमारे इस वाक्य पर आश्चर्य भी हो सकता है और आपत्ति भी मगर अगली कुछ पंक्तियों में यह स्पष्ट हो जायेगा कि हम जो कुछ कह रहे हैं वह अकारण नहीं है बल्कि उसके पीछे ठोस वास्तविकता है। भारतीय जनता पार्टी ने मन्दिर बनाने का झांसा दिया, हिन्दुओं को। मुसलमानों की नहीं, हज़ारों निर्दाेष हिन्दुओं की भी जानें गईं।

पर क्या मन्दिर बना? बनी तो केवल सरकार और उसके बाद राम मन्दिर का मुद्दा ठण्डे बस्ते में चला गया। अब उसकी याद तभी आती है, जब चुनाव निकट हों या उसका राजनीतिक लाभ उठाने का अवसर हो। यह हिन्दुओं से दुश्मनी नहीं है तो क्या है। भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता में आने का सपना तीन बार पूरा किया और जिन राज्योें के मतदाताओं के सहारे आज महाराष्ट्र में उन्हीं पर अत्याचार तथा हिंसा हो रही है मगर वह अपने राजनीतिक स्वार्थाें की ख़ातिर उत्तर भारतीयों पर होने वाले इस अत्याचार को देखकर भी ख़ामोश है और अत्याचार करने वाले के साथ है।

यह सभी विषय बहुत लम्बे हैं लेकिन हमारे पास 13 अक्टूबर यानी महाराष्ट्र, हरियाणा तथा अरूणाचल प्रदेश में मतदान से पहले के केवल दो दिन शेष हैं यानी अधिक से अधिक दो लेख हम अपने पाठकों की सेवा में प्रस्तुत कर सकते हैं और इस लिहाज़ से दूसरा लेख बहुत ज्यादा उन राज्यों की जनता के ध्यान को केन्द्रित कर पायेगा, इसकी आशा कम ही है। इसलिए कि जिस समय मतदान का सिलसिला शुरू होगा शायद उस समय तक तो उन राज्यों में हर दरवाज़े तक हमारा यह अख़बार पहुंचेगा भी नहीं। फिर भी अपनी बात कहने के लिए दो दिन या दो लेख भी कुछ कम नहीं हैं।

साम्प्रदायिक राजनीतिक दल के सम्बन्ध में तो बहुत कुछ हम आज ही के लेख में कह देने का इरादा रखते हैं और धर्म निर्पेक्षता का झण्डा उठाने वाली पार्टियों के बारे विश्लेषण कल आपकी सेवा में प्रस्तुत किया जायेगा। आज के इस लेख में हम शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के साथ-साथ तमिल टाइगर के नाम से पहचाने जाने वाले प्रभाकरण, खालिस्तान की मांग उठाने वाले जरनैल सिंह भिंडरावाला, बिहार में दलितों पर अत्याचार करने वाली रणवीर सेना और कश्मीर के पृथक्तवादी यासीन मलिक के बारे में भी कुछ वाक्य कहना चाहेंगे।

बाला साहब ठाकरे हिटलर के अनुयायी हैं यह तो सब जानते ही हैं मगर शायद यह बहुतों को ज्ञात नहीं होगा कि बाल ठाकरे प्रभाकरण और भिंडरावाला से भी प्रभावित नज़र आते हैं। प्रभाकरण का नारा था ‘‘तमिल राष्ट्र, तमिल राष्ट्रीयता और तमिलों को निर्णय लेने का अधिकर’’ भिंडरावाला सिखों की बहुलता के आधार पर पंजाब को खालिस्तान के रूप में देखना चाहते थे तो यासीन मलिक कश्मीर को एक स्वतंत्र राज्य रणवीर सेना जिन उद्देश्यों को लेकर अस्तित्व में आई वह बहुत स्पष्ट रूप से शिवसेना से मिलते-जुलते हैं जिस प्रकार बाल ठाकरे मराठियों के अधिकार की बात करते हैं, इसी प्रकार रणवीर सेना ने भूमिहार ज़मीदारों के पक्ष में आवाज़ उठाने के नाम पर अपना आन्दोलन आरंभ किया। इस संस्था के नाम में भी शब्द ‘‘सेना’’ अर्थात फौज का प्रयोग किया गया और शिवसेना में भी। रणबीर सेना ने दलितों तथा अनुसूचित जातियों के विरूद्ध हिंसा का रास्ता अपनाया तो शिवसेना ने पहले दक्षिण भारतीयों तथा बाद में उत्तर भारतीयों के विरूद्ध।

हम अपने आज के इस लेख में प्रभाकरण, भिंडरावाला, रणवीर सेना और यासीन मलिक का उल्लेख कर अपने पाठकों तथा महाराष्ट्र की जनता से यह कहना चाहते हैं कि क्या इन्हें वह रास्ता पसन्द है जो प्रभाकरण, भिंडरावाला, यासीन मलिक और रणवीर सेना ने अपनाया? अगर नहीं तो कृपया इंसान दोस्ती, राष्ट्रीय एकता, साम्प्रदायिक सद्भावना तथा देश से प्रेम की मांग यह है कि शिवसेना के इस रास्ते पर चलने को प्रोत्साहित न करें। भारतीय जनता पार्टी के हिन्दू-हिन्दी प्रेम को सच्चाई की कसौटी पर परखें तब कोई फैसला करें। कहने का अर्थ यह नहीं है कि उनको वोट न दें या अमुक को दें। वोट जिसको चाहें दें मगर उसको मजबूर करें कि आपके वोट का अधिकारी वह तभी हो सकता है जब उसके दिल में इंसान दोस्ती की भावना हो।

देश से प्रेम की भावना हो, सबको साथ लेकर चलने की भावना हो। अगर नहीं तो उस वक्त तक आपके वोट का हकदार नहीं।
आईये अब एक नज़र डालते हैं बाल ठाकरे सहित उन सभी लोगों द्वारा आरंभ किये गये आन्दोलनों पर जिनका उल्लेख ऊपर की पंक्तियों में किया गया है।
बाल ठाकरे

बाला साहब केशव ठाकरे शिवसेना के प्रमुख तथा स्थापक हैं। ठाकरे ने 19 जून 1966 को शिवसेना गठित की। ठाकरे ने फ्रीप्रेस जनरल में कार्टूनिस्ट के रूप में अपना कैरियर आरंभ किया और 60 के दशक में टाइम्स आॅफ इंडिया के संडे एडिशन में भी ठाकरे का कार्टून प्रकाशित होने लगा। महाराष्ट्र में गुजराती तथा दक्षिण भारतीय मज़दूरों के बढ़ते प्रभाव के विरूद्ध ठाकरे अभियान चलाते रहे हैं।

शिवसेना का गठन महाराष्ट्र वालों के अधिकारों की लड़ाई के नाम पर किया गया। शिवसेना का आरंभिक उद्देश्य दक्षिण भारत के लोगों, गुजरातियों और मारवाड़ियों और महाराष्ट्र के लोगों के लिए रोज़गार को सुनिश्चित करना था। राजनीतिक रूप से शिवसेना कम्युनिस्ट विरोधी रही है और सेना ने मुम्बई की तमाम ट्रेड यूनियनों से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का कब्ज़ा समाप्त करके अपना जमा लिया और व्यापार करने वालों से सुरक्षा के नाम पर रकम मांगी जाने लगी।

70 के दशक में ठाकरे ने नारा दिया कि महाराष्ट्र केवल महाराष्ट्र वालों के लिए है। ठाकरे ने दक्षिण भारत से पलायन करने वालों को मुम्बई छोड़ने की धमकी दी। 2002 में ठाकरे ने मुसलमानों के विरूद्ध हिन्दु आत्मघाती दस्ते बनाने की काल दी। ठाकरे अपने उत्तेजित विचारों का इज़हार अक्सर पार्टी के प्रवक्ता अखबार ‘‘सामना’’ के सम्पादकीय द्वारा करते हैं।

1980 में ठाकरे ने मुसलमानों के सम्बन्ध में कहा था कि यह लोग ‘‘कैंसर’’ (ब्ंदबमत) की तरह फैसला रहे हैं और उनका इलाज भी आॅप्रेशन द्वारा होना चाहिए। देश को मुसलमानों से बचाना चाहिए और इसमें पुलिस को भी सहायता करना चाहिए जिस प्रकार पंजाब में पुलिस खालिस्तान का समर्थन करने वालों के साथ सहानुभूति रखती थी।

श्रीकृष्णा कमीशन ने अपनी जांच में पाया कि बाल ठाकरे ने न केवल अपने ज़हरीले भाषण से भीड़ को भड़काया बल्कि दंगाईयों की गतिविधियों की सीधे तौर पर निगरानी तथा सहायता की। दंगों के बाद फरवरी 1993 में ठाकरे ने कहा कि हमारे लड़कों ने जो कुछ भी कहा उस पर हमें गर्व है हमें जवाब देना था और हमने दिया।

5 मार्च 2008 को ठाकरे ने अपने सम्पादकीय में लिखा कि ‘‘एक बिहारी 100 बीमारी’’ शिवसेना के उत्तर भारत के प्रमुख जय भगवान गोयल ने ठाकरे पर आरोप लगाया कि ‘शिवसेना खालिस्तान और जम्मू व कश्मीर के कट्टरपंथी गु्रप से अलग नहीं है और क्षेत्र के आधार पर देश के लोगों में घृणा तथा दूरी पैदा कर रही है और उनका उद्देश्य देश को तोड़ना है। एमएनएस की तरह सेना ने भी उत्तर भारतीयों का न केवल अपमान किया है बल्कि अमानवीय व्यवहार भी किया है’।

ठाकरे जर्मनी के तानाशाह हिटलर की प्रशंसा करते हैं और स्वयं की कई चीज़ों को हिटलर की भांति बड़ी शान से बताते हैं।
ठाकरे ने स्वीकार किया है कि वह तमिल टाइगर्स के समर्थक हैं और ठाकरे चाहते थे कि केन्द्र द्वारा एलटीटीई पर लगाया गया प्रतिबंध हटा लिया जाये।

वेलू पिल्लई प्रभाकरण

प्रभाकरण लिब्रेशन टाइगर आॅफ तमिलईलम (एलटीटीई) का संस्थापक और लीडर था जो श्रीलंका के उत्तर तथा पूर्वी भाग में एक पृथक देश बनाना चाहता था। 25 वर्ष से भी अधिक समय तक एलटीटीई ने श्रीलंका सरकार के विरूद्ध अभियान जारी रखा, इसी के परिणाम स्वरूप एलटीटीई को 32 देशों ने आतंकवादी संगठन करार दिया था। इंटरपोल के साथ ही श्रीलंका तथा भारतीय सरकार को प्रभाकरण की तलाश थी। 18 मई को श्रीलंका की सरकार ने घोषणा की कि प्रभाकरण श्रीलंका की सेना द्वारा मारा गया।

एलटीटीई का सिद्धांत तथा धर्मदर्शन बहुत महत्वपूर्ण नहीं था लेकिन ऐसा कहा जाता है कि वह बौद्ध धर्म के विरूद्ध थी। प्रभाकरण ने 10 अप्रैल 2002 को प्रेस कांफ्रेंस के दौरान पत्रकारों के प्रश्नों का जवाब देते हुए कहा कि मैंने अपने लोगों से कहा है कि जब कभी मैं सिद्धांतों से हटूं तो मुझे उड़ा दिया जाये।

प्रभाकरण ने एलटीटीई की तीन प्रमुख मांगों को इस प्रकार पेश किया। तमिल राष्ट्र, तमिल राष्ट्रीयता और तमिलों को निर्णय लेने का अधिकार जैसे ही इन मोगों के प्रकाश में कोई हल सामने आता है वह तमिल जनता को भी स्वीकार होगा।

जनरैल सिंह भिंडरावाला

1981 में भिंडरावाला को हिन्द समाचार ग्रुप के मालिक जगत नारायण की हत्या के मामले में पुलिस ने गिरफ्तार किया। जिसे बाद में सबूत न मिलने के कारण छोड़ दिया गया। आप्रेशन ब्लू स्टार में लिप्त होने के कारण भिंडरावाला अधिक बदनाम हैं। जिसमें भिंडरावाला और उनके समर्थकों ने अमृतसर स्थिति गोल्डन टैंपल के साथ ही अकाल तख्त पर कब्ज़ा कर लिया था। आप्रेशन के दौरान प्रधानमंत्री इन्दिरागांधी के आदेश पर सैनिक कार्यवाई में भिंडरावाला मारा गया।

भिंडरावाले को सिख बहुल राज्य खालिस्तान का समर्थक करार दिया जाता रहा। 13 अप्रैल 1978 को अखण्ड क्रीति जत्था के कुछ अमृतधारी सिखों ने नरंकारियों के विरूद्ध प्रदर्शन किया इसके कारण अखण्ड क्रीर्ति जत्था के 13 सदस्यों की हत्या हो गई। उसके बाद 24 अपै्रल 1980 को निरंकारियों के लीडर गुरवचन सिंह निरंकारी की हत्या हो गई और एफ.आई.आर. में 20 लोगों का नाम शामिल था और उनमें से अधिकतर का सम्बन्ध भिंडरावाला से था। उसके बाद भिंडरावाला को हत्या का आदेश देने के मामले में गिरफ्तार किया गया लेकिन प्रमाण न होने की वजह से छोड़ दिया गया।

1982 में भिंडरावाला ने अपने सशस्त्र साथियों के साथ गोल्डन टैंपल में शरण थी। 3 जून 1984 को प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने आप्रेशन ब्लू स्टार आरंभ करने का आदेश दिया।

यासीन मलिक

यासीन मलिक जम्मू व कश्मीर लिबे्रेशन फ्रंट के दो में से एक घटक का अध्यक्ष है जबकि दूसरे घटक के फारूक सिद्दीकी (फारूक पापा) जम्मू व कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट के उस समय दो गुट हो गये जब फ्रंट के कई वरिष्ठ नेता कश्मीर समस्या पर नागालैंड की तरह ही भारत के साथ द्वीपक्षीय बातचीत से इंकार कर दिया और जिसके लिए मलिक ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ गुप्त भेंटें भी कीं। मलिक ने अपना आन्दोलन जम्मू व कश्मीर की आज़ादी के लिए आरंभ किया। यासीन मलिक लगभग 6 वर्ष तक जेल में रहा है।

भारतीय सेना के साथ मुठभेड़ में जेकेएलएफ के चीफ कमांडर अश्फाक वाणी की मृत्यु के बाद यासीन मलिक जेकेएलएफ के एरिया कमांडर के तौर पर प्रसिद्ध हुआ। 1994 में जेल से छूटने के बाद यासीन मलिक ने हिंसा का रास्ता छोड़कर कश्मीर समस्या के समाधान के लिए शांतिपूर्ण तरीके से काम करने का ऐलान किया। यासीन मलिक हिन्दू कश्मीरियों को भी कश्मीरी समाज का हिस्सा करार देता है और वापसी के उनके अधिकार की वकालत करता है।

रणवीर सेना

रणवीर सेना जाति पर आधारित एक ग्रुप है जो बिहार में सक्रिय है। उसके बारे में कहा जाता है कि उसको भूमिहार ज़मींदारों ने बनाया है और यह दलितों के विरूद्ध कार्यवाही करती है। भारत सरकार उसे आतकवादी गु्रप समझती है। रणबीर सेना ने दलितों तथा अनुसूचित जातियों के विरूद्ध हिंसक कार्यवाही की है। 1995 में बिहार सरकार ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया था।
रणवीर सेना का नाम रणवीर बाबा (देव मालाओं से सम्बन्धित व्यक्तित्व) के नाम पर और सेना का अर्थ फौज है। 19वीं सदी के दौरान सेना के सेवानिवृत्त रणवीर बाबा जो भोजपुर के रहने वाले थे, ने भूमिहारों के अधिकार की सुरक्षा की और कई दशकों बाद ब्रहमहेश्वर सिंह मुखिया ने एक संस्था बनाई तो उसका नाम रणबीर सेना रखा।

यह दावा किया जाता है कि रणबीर सेना का गठन केन्द्रीय बिहार में माओवादियों के बढ़ते प्रभाव की समाप्ति के लिए हुआ। सितम्बर 1994 में भोजपुर जिले के उदवंत नगर प्रखंड के बेलूर गांव में रणवीर सेना बनाई गई और रणवीर सेना जातियों की निजी सेना स्वर्ण लिब्रेशन आर्मी और सन लाइट सेना के मिल जाने से हुआ। भोजपुर में गठन के बाद रणबीर सेना जहानाबाद, पटना, रोहतास, औरगंाबाद, गया, भभुआ और बक्सर जिलों तक फैल गई। रणवीर सेना ने पिपुल्स वार ग्रुप, माओइस्ट कम्युनिस्ट और सी.पी.आई. (एम.एल.) के विरूद्ध लोगों को संगठित किया।

रणवीर सेना का प्रमुख ब्रहमेश्वर सिंह मुखिया था। रणवीर सेना के बारे में कहा जाता है कि उसमें 400 भूमिगत कैडर शामिल हैं। सूत्रों के अनुसार वर्ष 2004 तक उसके एक कैडर को हत्या के लिए मासिक 1100 रूपये से 1200 रूपये मिलते थे और सामूहिक हत्या में शामिल कैडर का जीवन बीमा हज़ारों रूपये का होता था।

रणवीर सेना ने ऊंची जाति के अपने लोगों के सामाजिक तथा आर्थिक स्वार्थ के मद्देनज़र रणवीर किसान महासंघ भी बना लिया है और इसी तरह रणवीर महिला संघ की भी स्थापना कर ली है। उनके सदस्यों को भी हथियारों का प्रशिक्षण दिया जाता है।

Saturday, October 10, 2009

चिंगारी बारूद बने इससे पहले ही बुझा दो


चिंगारी बारूद बने इससे पहले ही बुझा दो

बातचीत महाराष्ट्र,हरियाणा और अरूणाचल प्रदेश के चुनाव पर जारी थी बल्कि ख़ासतौर पर जिस राज्य के चुनाव का हम उल्लेख कर रहे थे वह है महाराष्ट्र का यह सिलसिला अभी जारी रहना था और शायद कल के बाद फिर से जारी कर भी दिया जाये लेकिन आज की दिल दहलाने वाली खबर ने मजबूर कर दिया कि पहले उन शहीदों को श्रृद्धांजलि पेश की जाये जिन्होंने माओवादियों से मुकाबला करते समय अपनी जान गंवा दी। यह दुखद त्रासदी भी महाराष्ट्र में ही हुई जहां सब इंस्पेक्टर सी.एस. देशमुख सहित 17 पुलिसकर्मी शहीद हो गये।

माओवादियों की संख्या 150 से अधिक थी। सूत्रों के अनुसार माओवादियों ने क्षेत्र में ग्राम पंचायत कार्यालय को जला डाला और इस आतंकवादी त्रासदी के बाद पुलिस के जवानों से आमने-सामने की मुठभेड़ हुई। इससे एक सप्ताह पूर्व ही झारखण्ड में पुलिस इंस्पेक्टर फ्रान्सिस इन्दवार का सर काट दिया गया था। माओवादियों ने इंस्पेक्टर इन्दवार को छोड़ने के बदले फिरौती में अपने तीन साथियों की रिहाई की मांग की थी जिनमें कुबेद गैंडी भी शामिल हैं। रांची देहात के पुलिस कप्तान के अनुसार यहां से लगभग 12 किलोमीटर दूर नामकाॅम पुलिस स्टेशन के तहत राशाघाटी के निकट मंगल की सुबह इन्दवार की सर कटी लाश बरामद हुई। गृहमंत्री पि0 चिदम्बरम का कहना था कि फिरौती के रूप में तीन साथियों की रिहाई की मांग की बात गलत है।

हम इस समय इस विस्तार में नहीं जाना चाहते कि फिरौती के रूप में माओवादियों ने अपने तीन साथियों की मांग की थी या नहीं। हमारे लिए अत्यधिक दुख का पहलू यह है कि रांची (झारखण्ड) में जहां अगले दो महीने के अन्दर राज्य के चुनाव होने हैं तथा महाराष्ट्र जहां राज्य के चुनाव की प्रक्रिया अंतिम चरण में है वहां माओवादियो का यह आतंकवाद क्या चुनाव को प्रभावित करने के लिए है क्या इस समय का चुनाव एक सोची समझी राजनीति के तहत है। क्या अरूणाचल प्रदेश में पिछले कुछ दिनों में घुसपैठ तथा नक्सलवादी आतंक का आपस में कोई सम्बनध है। यह तमाम बातें विचार करने तथा अत्यधिक गंभीरता से लिये जाने के योग्य है।
वैसे भी नक्सल आतंकवाद का यह कोई ऐसा चेहरा नहीं है जिसके प्रभाव को कम करके देखा जा सके। एक लंबे समय से नक्सलवादियों का यह आतंकी अमल जारी है जो शायद अब कश्मीर में जारी आतंकवाद से भी ज्यादा खतरनाक रूप धारण कर चुका है। हम अपने इस किस्तवार लेख की पिछली कुछ तहरीरों में इस बात की संभावना स्पष्ट कर चुके हैं कि छोटी-छोटी दिखाई देने वाली बातें जब बड़ा रूप धारण कर लेती हैं तो उसका परिणाम क्या होता है? आज महाराष्ट्र में प्रवेश के लिए परमिट की बात कहा जाना शायद साधारण बात लगे परन्तु आने वाले कल में इसके परिणाम कितने भयानक हो सकते हैं उन्हें आज नहीं समझा गया तो बहुत देर हो जायेगी।

इसी खतरे की आहट को समझाने के उद्देश्य से हम आज नक्सलवादी आन्दोलन कब, किस तरह और किन बातों को लेकर शुरू हुआ, सामने रखना चाहते हैं, इसके बाद अगली किस्तों में भिण्डरा वाला और प्रभाकरण जैसे लोगों और रणबीण सेना के बारे में भी जानकारी उपलब्ध करना चाहेंगे, ताकि भारत सरकार तथा जनता को समझा सकें कि यदि प्रारंभिक दौर में यह आभास कर लिया जाये कि क्षेत्रीय या सीमित सोच को दृष्टि में रखते हुए जब कोई ख़तरनाक आन्दोलन शुरू किया जाता है तो कुछ सीधे-साधे लोग इसमें अपना लाभ देखकर झांसे में आ जाते हैं और बाद में हज़ारों निर्दोष लोगों की जान चली जाती है और यह आतंकवादी संगठन जहां जनता के लिए जानलेवा सिद्ध होते हैं वहीं भारत सरकार के लिए एक बड़ा सिरदर्द।

आइए अब एक दृष्टि डालें इस नक्सलवादी आन्दोलन पर कि कब किन बातों को लेकर यह शुरू हुआ और फिर आप ज़हन पर ज़ोर डालें कि कहीं आज भी इसी तरह के कुछ नये आन्दोलन जन्म तो नहीं ले रहे हैं, अगर हां तो अन्दाज़ा करें कि आने वाले समय में अगर ऐसा ही खतरनाक रूप उन्होंने भी धारण कर लिया तो देश की एकता और शांति का क्या होगा।

नक्सलवादी आन्दोलन, नक्सालाइट या नक्सल या नक्सलबाड़ी सभी माओवादी गु्रप के ही नाम हैं और यह ग्रुप भूमिहीन मज़दूरों और आदिवासी लोगों की आवाज़ ज़मींदारों और दूसरे लोगों के खिलाफ बुलन्द करने का दावा करते हैं नक्सलवादी मानते हैं कि वह शोषण, जुल्म और हिंसा के खिलाफ लड़कर समान स्तर के लोगों का समाज बनाने के लिए प्रयास कर रहे हैं। नक्सलवादियों को इनकी हरकतों की वजह से आतंकवादी करार दिया जाता है तथा उन पर आरोप है कि वर्गीय युद्ध ;बसें तद्ध के नाम से जनता पर अत्याचार और हिंसा कर रहे हैं।

साधारण तथा माओवादी उन क्षेत्रों में अधिक सक्रिय पाये गये हैं जो क्षेत्र विकास की दृष्टि से पिछड़े कहे जाते हैं। अधिकतर ग्रामीण और जनजातीय क्षेत्र और कभी-कभी जंगलों से अपनी कार्यवाही को अंजाम देते हैं (उत्तर से दक्षिण) विशेष रूप से झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, पूर्वी महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश का तिलंगाना (उत्तर पूर्वी) का क्षेत्र तथा पश्चिमी उड़ीसा में माओवादी सक्रिय हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह लोग तटीय क्षेत्र से दूर भीतरी क्षेत्रों में सक्रिय हैं।

प्यूपिल्स वार गु्रप विशेष रूप से आंध्रा प्रदेश, पश्चिमी उड़ीसा तथा पूर्वी महाराष्ट्र में सक्रिय हैं जबकि माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर बिहार, झारखण्ड तथा उत्तरी छत्तीसगढ़ में सक्रिय है।

प्रायः नक्सलवादी स्वयं को भारत के सबसे निचले वर्ग का प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं (जो वर्ग देश के विकास कार्यक्रम से अछूता तथा चुनावी मुहिम के अमल से अलग रह गया है) इनमें विशेष रूप से जनजातीय, दलित और सबसे गरीब ऐसे लोग शामिल हैं जो बेज़मीन मज़दूर हैं और कम से कम मज़दूरी पर काम करने के लिए मजबूर किये जाते हैं।(माओवादी) नक्सलवादी की अपनी विचारधारा के बावजूद इन पर आलोचना इसलिए की जाती है कि इतने वर्षों में यह एक और आतंकवादी संगठन बन गये हैं।

मध्यम वर्गीय ज़मींदारों से ज़बरदस्ती वसूली (क्योंकि बड़े ज़मींदार अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध कर लेते हैं) और सबसे बुरा यह कि (जिस वर्ग के प्रतिनिधित्व का दावा करते हैं) जनजातीय और ग्रामीण क्षेत्र के लोगों से भी न्याय के नाम पर वसूली और इन पर नियंत्रण करने का आरोप लगता है।

इन लोगों का मानना है कि देश के बहुसंख्यकों को आज भी भूख,गरीबी तथा धनाढ वर्ग, जो उत्पादन के तमाम साधनों पर कब्ज़ा किये हुए है से आज़ादी प्राप्त करनी होगी इसलिए वर्तमान व्यवस्था को पलट देना चाहिए और उसके लिए राजनीतिक नेताओं पुलिस अधिकारियों और जंगलों के ठेकेदारों को अपना निशाना बनाते हैं।

स्थानीय स्तर पर माओवादी गांव के बड़े ज़मींदारों को अपना निशाना बनाते हैं और प्रायः रक्षा के नाम पर भी उनसे रूपये वसूल करते हैं माओवादियों के बारे में कहा जाता है कि जिन क्षेत्रों में सरकार से भी ज्यादा इनका आदेश चलता है वहां पर यह लोग जनजातीय और ग्रामीण जनता से भी वसूली करते हैं।

इस आन्दोलन की सबसे पहली घटना भारत में जुलाई 1948 में तिलंगाना संघर्ष के दौरान मिलती हैं। इस संघर्ष की विचाराधारा चीन के नेता माओजे तुंग का था। जिस का उद्देश्य भारत के अन्दर क्रान्ति लाना था, यह विचाराधारा आंध्रा प्रदेश में आज भी मज़बूती के साथ पाई जाती है परन्तु पूरे आन्दोलन ने तब स्पष्ट रूप धारण कर लिया जब सी.पी.आई. (एम) ने पश्चिमी बंगाल चुनाव में शिरकत और सरकार में हिस्सेदारी का फैसला किया तब चारू मजूमदार के नेतृत्व में कुछ लोगों ने सी.पी.आई. (एम.एल.) स्थापित की।

25 मई 1967 को पश्चिमी बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी गांव में एक जनजातीय व्यक्ति पर गांव के ही ज़मींदार के गुण्डों ने हमला कर दिया तथा जवाबी हमले में जनजातीय लोगों ने ज़मीदार पर हमला किया तथा अपनी ज़मीन वापस ले ली। नक्सलबाड़ी की इसी बगावत के बाद ही नक्सलवादी शब्द दुनिया के सामने आया।

60 और 70 के दशक में नक्सलबाड़ी आन्दोलन काफी लोकप्रिय था। आई.आई.टी. जैसी सुप्रसिद्ध संस्थाओं के भी कई छात्र गरीब मज़दूरों और जनजातीय लोगों के पक्ष के लिए इस आन्दोलन में शामिल हुए परन्तु जैसा कि अनेक आन्दोलनों के साथ होता है कि प्रारंभ में बात सिद्धांतों पर होती है लेकिन समय बीतने के साथ-साथ माओवादियो के इस आन्दोलन ने भी अपने सिद्धांतों के साथ समझौता कर लिया परन्तु आज भी पुरूषों और महिलाओं की बड़ी संख्या इसमें शामिल हो रही है और यह मालूम होता है कि अभी भी इसी विचारधारा में लोगों का विश्वास बाकी है।

भारत का पूरा राजनीतिक समाज नक्सलवादियों का विरोध करता है। विचारणीय बात यह है कि जब बंगाल में पहली बार माओवादी सामने आये थे तब सी.पी.आई. (एम) सरकार ने केन्द्र की कांग्रेसी सरकार के साथ मिलकर कड़े कदम उठाये थे। ग्रामीण स्तर पर माओवादियों की आतंकवादी रणनीति के परिणाम स्वरूप कई स्थानीय सेनाएं (आर्मी) ज़मीदारों और दूसरे लोगों की रक्षा के नाम पर बन गई।

इनमें सबसे बदनाम बिहार और झारखंड में रणबीर सेना है जो भूमिहार जाति के ज़मींदारों ने बनाई। रणबीर सेना जनजातीय, दलित लोगों, बेज़मीन मज़दूरों को जवाबी कार्यवाही या फिर अपने अधीन रखने के लिए मारती है।

چنگاری بارود بنے اس سے پہلے ہی بجھا دو

گفتگو مہاراشٹر، ہریانہ اور اروناچل پردیش کے انتخابات پر جاری تھی، بلکہ خاص طور پر جس ریاست کے انتخابات کا ہم ذکر کررہے تھے وہ مہاراشٹر تھی۔ یہ سلسلہ ابھی جاری رہنا تھا اور شاید کل کے بعد پھر سے جاری کربھی دیا جائے، لیکن آج کی دل دہلانے والی خبر نے مجبور کردیا کہ پہلے ان شہیدوں کو خراج عقیدت پیش کیا جائے، جنہوں نے ماونوازوں سے مقابلہ کرتے ہوئے اپنی جان گنوادی۔ یہ افسوسناک سانحہ بھی مہاراشٹر میں ہی پیش آیا، جہاں سب انسپکٹر سی ایس دیشمکھ سمیت 17پولیس اہلکار شہید ہوگئے۔ ماﺅنوازوں کی تعداد 150سے زیادہ تھی۔

ذرائع کے مطابق ماﺅنوازوں نے علاقہ میں گرام پنچایت دفتر کو نذرآتش کردیا اور اس کے بعد پولیس کے جوانوں سے آمنے سامنے کی مڈبھیڑ ہوئی۔ اس دہشت گردانہ سانحہ کے ایک ہفتہ قبل بھی جھارکھنڈ میں پولیس انسپکٹر فرانسس اندوار کا سرقلم کردیا گیا تھا۔ ماونوازوں نے انسپکٹر اندوار کو چھوڑنے کے بدلے پھروتی میں اپنے تین ساتھیوں کی رہائی کا مطالبہ کیا تھا، جن میں کوبیڈ گینڈی بھی شامل ہیں۔ رانچی دیہات کے پولیس کپتان کے مطابق یہاں سے تقریباً 12کلومیٹر دور نام کوم پولیس اسٹیشن کے تحت راشہ گھاٹی کے قریب منگل کی صبح اندوار کی سرکٹی لاش برآمد ہوئی۔

وزیرداخلہ پی چدمبرم کا کہنا تھا کہ پھروتی کی شکل میں تین ساتھیوں کی رہائی کے مطالبہ کی بات غلط ہے۔ہم اس وقت اس تفصیل میں نہیں جانا چاہتے کہ پھروتی کی شکل میں ماﺅنوازوں نے اپنے تین ساتھیوں کی مانگ کی تھی یا نہیں، ہمارے نزدیک انتہائی افسوسناک پہلو یہ ہے کہ رانچی(جھارکھنڈ) میں جہاں اگلے دو مہینے کے اندر ریاستی انتخابات ہونے ہیں اور مہاراشٹر جہاں ریاستی انتخابات کا عمل آخری مرحلہ میں ہے، وہاں ماﺅنوازوں کی یہ دہشت گردی کیا انتخابات کو متاثر کرنے کے لےے ہے؟ کیا اس وقت کا انتخاب ایک سوچی سمجھی حکمت عملی کے تحت ہے؟

کیا اروناچل پردیش میں پچھلے کچھ دنوں سے جاری دراندازی اور اس نکسلائٹ دہشت گردی کا آپس میں کوئی تعلق ہے؟ ان تمام باتوں پر غور کرنے اور انتہائی سنجیدگی سے لےے جانے کی ضرورت ہے، ویسے بھی نکسلائٹ دہشت گردی کا یہ کوئی ایسا چہرہ نہیں ہے، جس کے اثرات کو کم کرکے دیکھا جاسکے۔ ایک لمبے عرصہ سے نکسلائٹس کے دہشت گردانہ حملے جاری ہےں، جو شاید اب کشمیر میں جاری دہشت گردی سے بھی زیادہ خطرناک شکل اختیار کرچکے ہےں۔ ہم اپنے اس قسط وار مضمون کی پچھلی کچھ تحریروں میں اس بات کا اندیشہ ظاہر کرچکے ہیں کہ چھوٹی چھوٹی دکھائی دینے والی باتیں جب بڑی اور خطرناک شکل اختیار کرلیتی ہیں تو اس کا انجام کیا ہوتا ہے؟

آج مہاراشٹر میں داخلہ کے لےے پرمٹ کی بات کہا جانا شاید بہت معمولی بات لگے، مگر آنے والے کل میں اس کے نتائج کتنے خوفناک ہوسکتے ہیں، انہیں آج نہیں سمجھاگیا تو بہت دیر ہوجائے گی۔ اسی خطرے کی آہٹ کو سمجھانے کی غرض سے ہم آج نکسلائٹ تحریک کب، کس طرح اور کن باتوں کو لے کر شروع ہوئی سامنے رکھنا چاہتے ہیں، اس کے بعد آئندہ قسطوں میں بھنڈراںوالااور پربھاکرن جیسے لوگوں اوررنبیر سینا کے بارے میں بھی جانکاری فراہم کرنا چاہےں گے، تاکہ حکومت ہند اور عوام کو باور کراسکیں کہ اگر ابتدائی دور میں یہ اندازہ کرلیا جائے کہ علاقائی یا محدود سوچ کے پیش نظر جب کوئی خطرناک تحریک شروع کی جاتی ہے تو کچھ معصوم لوگ اس میں اپنا مفاد دیکھ کر جھانسے میں آجاتے ہیں، لیکن بعد میں ہزاروں بے گناہوں کی جان چلی جاتی ہے اور یہ دہشت گرد تنظیمیں جہاں عوام کے لےے جان لیوا ثابت ہوتی ہیں، وہیں حکومت ہند کے لےے ایک بڑا سردرد۔

آئےے اب ایک نظر ڈالیں اس نکسلائٹ تحریک پر کہ کب کن باتوں کو لے کر یہ شروع ہوئی اور پھر آپ ذہن پر زورڈالیں کہ کہیں آج بھی اس طرح کی کچھ نئی تحریکیں توجنم تو نہیں لے رہی ہیں، اگر ہاں تو اندازہ کریں کہ اگر آنے والے وقت میں ایسی ہی خطرناک شکل انہوں نے بھی اختیار کرلی تو ملک کی سالمیت اور امن و امان کا کیا ہوگا؟

نکسلائٹ تحریکنکسلائٹ یا نکسل یا نکسل باڑی سبھی ماونواز گروپوں کے ہی نام ہیںاور یہ گروپ بے زمین مزدوروں اور قبائلی لوگوں کی آواز زمیں داروں اور دوسرے لوگوں کے خلاف بلند کرنے کا دعویٰ کرتے ہیں۔ نکسلائٹ مانتے ہیں، وہ استحصال، ظلم اور تشدد کے خلاف لڑ کر ایک ہم رتبہ لوگوں کا سماج بنانے کے لئے جدو جہد کر رہے ہیں۔ نکسلائٹ کو ان کی حرکتوں کی وجہ سے دہشت گرد قرار دیا جاتا ہے اور ان پر الزام ہے کہ ےہ طبقاتی جنگ (Class war) کے نام سے عوام پر ظلم اور تشدد کر رہے ہیں۔

عام طور پر ماونواز ان علاقوں میں زیادہ سرگرم پائے گئے ہیں، جو علاقے ترقیاتی تعلق سے پسماندہ کہے جاتے ہیں۔ زیادہ تر دیہی اور قبائلی علاقے اور کبھی کبھی جنگلات سے اپنی کارروائی کو انجام دیتے ہیں۔ (شمال سے جنوب) خاص طور سے جھارکھنڈ، چھتیس گڑھ، مدھیہ پردیش، مشرقی مہاراشٹر، آندھرا پردیش کا تلنگانہ (شمال مشرقی) کا علاقہ اور مغربی اڑیسہ میں ماونواز سرگرم ہیں۔ غور طلب بات یہ ہے کہ یہ لوگ ساحلی علاقہ سے دور اندرونی علاقے میں سرگرم ہیں۔پیپلس وار گروپ خاص طور سے آندھرا پردیش، مغربی اڑیسہ اور مشرقی مہاراشٹر میں سرگرم ہے۔

جب کہ ماوسٹ کمیونسٹ سینٹر بہار، جھارکھنڈ اور شمالی چھتیس گڑھ میں سرگرم ہے۔ اکثر نکسلائٹ خود کو ہندوستان کے سب سے نچلے طبقے کے نمائندہ ہونے کا دعویٰ کرتے ہیں (جو طبقہ ملک کے ترقیاتی پروگرام سے اچھوتا رہ گیا اور انتخابی عمل سے علیحدہ رہ گیا ہے) ان میں خاص طور سے قبائلی، دلت اور سب سے غریب ایسے لوگ شامل ہیں، جو بے زمین مزدور ہیں اور کم سے کم مزدوری پر کام کرنے کے لئے مجبور کئے جاتے ہیں۔(ماونواز) نکسلائٹ کے اپنے نظریہ کے باوجود ان پر تنقید اس لئے کی جاتی ہے کہ اتنے برسوں میں یہ ایک اور دہشت گرد تنظیم بن گئے ہیں۔

مڈل کلاس زمیں داروں سے جبراً وصولی (کیونکہ بڑے زمیں دار اپنی حفاظت کا انتظام کرلیتے ہیں)اور سب سے برا یہ کہ (جس طبقہ کی نمائندگی کا دعویٰ کرتے ہیں) قبائلی اور دیہی علاقے کے لوگوں سے بھی انصاف کے نام پر وصولی اور ان پر کنٹرول کرنے کا الزام لگتاہے۔ ان لوگوں کا ماننا ہے کہ ملک کی اکثریت کو آج بھی بھوک، محرومی اور امیر طبقے جو پیداوار کے تمام ذرائع پر قبضہ کئے ہوئے ہیں، سے آزادی حاصل کرنی ہوگی، اس لئے موجودہ نظام کو پلٹ دینا چاہئے اور اس کے لئے سیاسی لیڈروں، پولس افسروں اور جنگلات کے ٹھیکیداروں کو اپنا نشانہ بناتے ہیں۔مقامی سطح پر ماونواز گاوں کے بڑے زمیں داروں کو اپنا نشانہ بناتے ہیں اور اکثر حفاظت کے نام پر بھی ان سے روپے وصول کرتے ہیں۔

ماونوازوں کے بارے میں کہا جاتاہے کہ جن علاقوں میں حکومت سے بھی زیادہ ان کا حکم چلتا ہے، وہاں پر یہ لوگ قبائلی اور دیہی عوام سے بھی وصولیابی کرتے ہیں۔اس تحریک کے سب سے پہلے واقعات ہندوستان میں جولائی 1948 میں تلنگانہ جدو جہد کے دوران ملتے ہیں۔ اس جدو جہد کا نظریہ چین کے لیڈر ماوزے تنگ کا تھا، جس کا مقصد ہندوستان کے اندر انقلاب لاناتھا، جب کہ یہ نظریہ آندھرا پردیش میں آج بھی مضبوطی کے ساتھ پایا جاتاہے، لیکن پوری تحریک نے تب واضح شکل اختیار کر لی، جب سی پی آئی (ایم) نے مغربی بنگال انتخابات میں شرکت اور حکومت میں حصہ داری کا فیصلہ کیا تب چارو مجمدار کی قیادت میں کچھ لوگوں نے سی پی آئی (ایم ایل)قائم کی۔

25 مئی 1967 کو مغربی بنگال کے دارجلنگ ضلع کے نکسل باڑی گاو¿ں میں ایک قبائلی شخص پر گاوں کے ہی زمیں دار کے غنڈوں نے حملہ کردیا اور جوابی حملے میں قبائلی لوگوں نے زمیں دار پر حملہ کیا اور اپنی زمین واپس لے لی۔ نکسل باڑی کی اس بغاوت کے بعد ہی نکسلائٹ لفظ دنیا کے سامنے آیا۔60اور70 کی دہائی میں نکسلائٹ تحریک کافی مقبول تھی۔

آئی آئی ٹی جیسے معروف اداروں کے بھی کئی طلبہ غریب مزدوروں اور قبائلی لوگوں کے حق کے لئے اس تحریک میں شامل ہوئے، لیکن جیسا کہ کئی تحریکوں کے ساتھ ہوتاہے کہ وہ ابتدا میں اپنے اعلیٰ اصولوں پر قائم رہتی ہےں، لیکن وقت گزرنے کے ساتھ ماونوازوں کی اس تحریک نے اپنے اصولوں کے ساتھ سمجھوتہ کر لیا،لےکن آج بھی مرد اور خواتین کی بڑی تعداد اس میں شامل ہو رہی ہے اور یہ معلوم ہوتا ہے کہ ابھی بھی اس نظریہ میں لوگوں کا یقین باقی ہے۔ہندوستان کا پورا سیاسی سماج نکسلائٹ کی مخالفت کرتاہے۔

قابل غور یہ ہے کہ جب بنگال میں پہلی بار ماونواز سامنے آئے تھے تب سی پی آئی (ایم) حکومت نے مرکز کی کانگریس حکومت کے ساتھ مل کر سخت قدم اٹھائے تھے۔ دیہی سطح پر ماونوازوں کی دہشت گردانہ حکمت عملی کے نتیجہ میں کئی مقامی فوجیں(آرمی) زمیں داروں اور دوسرے لوگوں کی حفاظت کے نام پر بن گئیں۔ ان میں سب سے بدنام بہار اور جھارکھنڈ میں رنبیر سیناہے جو بھومیہار ذات کے زمیں داروں نے بنائی۔ رنبیر سینا قبائلی، دلت، بے زمین مزدروں کو جوابی کارروائی یا پھر اپنے زیر تسلط رکھنے کے لئے مارتی ہے۔

Thursday, October 8, 2009

सवाल सियासत का नहीं, राष्ट्रीय एकता का है


सवाल सियासत का नहीं, राष्ट्रीय एकता का है

13 अक्टूबर को तीन राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव हमारे लिये पिछले संसदीय चुनावों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। संसदीय चुनावों के बीच हमने जो भी लिखा उसमें प्रयास रहा था कि देश पर राज करने के लिए एक ऐसी सरकार अस्तित्व में आए जो सबको साथ लेकर चलने वाली हो, जो धर्म और जाति से ऊपर उठकर काम कर सके, इसमें हमें बहुत हद तक सफलता भी प्राप्त हुई, वास्तव में हमारा उद्देश्य किसी भी दल का समर्थन या विरोध नहीं था और इस समय भी नहीं है, मगर हां लोकतांत्रिक मूल्यों पर चलने वाले हमारे देश में साम्प्रदायिकता के लिए कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए और जातिवाद का विरोध भी इस आधार पर किया जाना चाहिए कि अगर हमने क्षेत्र, भाषा या जाति पर आधारित राजनीति को महत्व देना शुरू कर दिया तो देश एक रहते हुए भी फिर छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित नज़र आएगा जैसा कि पूर्व में छोटे-छोटे राज्य हुआ करते थे।

अतः हम चाहेंगे कि पार्टी कोई जीते कोई हारे सबका स्वभाव धर्मनिर्पेक्ष हो और वो समाज के हर वर्ग को साथ लेकर चलने का इरादा रखती हो, आज अगर कोई इस श्रेणी में आता है तो हमारी बात उसके पक्ष में जा सकती है और जो इस श्रेणी में नहीं आता उसके पक्ष में नहीं हो सकती लेकिन हम जो कुछ कह रहे हैं वह वास्तव में भारत का संविधान कहता है, भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था कहती है, चुनाव आयोग की आचार सहिंता कहती है।

जैसा कि हमने अपने लेख के आरंभ में ही यह निवेदन किया है कि हमारे लिए वर्तमान राज्य चुनाव पिछले संसदीय चुनावों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं तो इसका कारण है अरूणाचल प्रदेश और महाराष्ट्र। चुनाव तो हरियाणा में भी हैं मगर हम उसके लिए अधिक चिंतित नहीं हैं इसलिए कि वहां बात केवल और केवल राजनीती और सत्ता की है। वहां कोई इतना बड़ा मुद्दा हमें दिखाई नहीं देता जिसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर जनता को चिंतित होने की आवश्यकता हो, लेकिन अरूणाचल प्रदेश और महाराष्ट्र के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है।

अरूणाचल प्रदेश वह सरहदी राज्य है जिस पर शुरू से ही चीन की नज़र है। 1959 में तिब्बत पर कब्ज़ा कर लेने के बाद से चीन के हौंसले बढ़े हुए हैं और 1962 के युद्ध में भारत पर हमला करके नेफा के कई क्षेत्रों पर चीन पहले ही कब्ज़ा कर चुका है। चीन अरूणाचल प्रदेश में किसी भी तरह की राजनीतिक सरगर्मी का कट्टर विरोधी रहा है और है।

पिछले असेंबली चुनावों के समय भी उसने राज्य को प्रभावित करने की कोशिश की थी और इस बार भी पिछले 3 महीनों में 70 से अधिक बार घुसपैठ का प्रयास किया जा चुका है, अतः अरूणाचल प्रदेश का मामला हमारे लिए केवल एक विधानसभा चुनाव का नहीं है बल्कि यह हमारे देश की अखंडता और सरहदों की सुरक्षा का है, हमारे देश की आबरू का मामला है, अतः वहां जो भी सरकार बने वह इतनी सुदृढ़ और सक्षम हो कि किसी भी तरह की घुसपैठ को रोक सके।

केन्द्र का भरपूर सहयोग उसे प्राप्त हो और पड़ोसी देश चीन के किसी भी विरोधी मंसूबे को असफल कर सके।महाराष्ट्र वह दूसरा राज्य है जिसके चुनावों को हम हलके तौर पर नहीं ले सकते अगर महाराष्ट्र और गुजरात की स्थितियों पर नज़र डालें तो पिछले कुछ वर्षों में वहां साम्प्रदायिक शक्तियां बहुत हावी हुई हैं। फरवरी 2002 में गुजरात का मुस्लिम नरसंहार अभी भी भूला नहीं है और बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद से मुम्बई सहित महाराष्ट्र के विभिन्न क्षेत्रों में जो कुछ हुआ वह भी किसी से छुपा नहीं है।

विस्तृत विवरण श्रीकृष्णा कमीशन की रिपोर्ट में दर्ज है जिसमें शिवसेना के मुस्लिम विरोधी प्रदर्शन को देखा जा सकता है। शहीद हेमन्त करकरे ने अपनी ज़िन्दगी में मालेगांव इन्वेस्टीगेशन के दौरान आतंकवादियों का जो चेहरा सामने रखा उससे यह भी स्पष्ट हो गया कि इस राज्य में आतंकवाद की जड़ें कितनी गहरी हैं और इन्हें किन-किन लोगों का समर्थन प्राप्त है।

सबसे अधिक हैरान और परेशान करदेने वाली जो बात रही वह यह थी कि आतंकवादियों ने हमारी फौज में भी सेंध लगाने में सफलता प्राप्त कर ली। कर्नल प्रोहित और मेजर उपाध्याय की गिरफ्तारी बहुत चैंकाने वाली थी और उससे भी अधिक अफसोसनाक पहलू यह था कि कुछ राजनीतिक दलों ने उन जैसे आतंकवादियों के बचाव में ज़मीन आसमान एक कर दिया।

जिन संदिग्ध आतंकवादियों को बहुत से सबूतों के आधार पर शहीद हेमन्त करकरे ने गिरफ्तार किया था। उनके बचाव के लिए भी राजनीति की गई, क्या इसें देश की शांति व्यवस्था के पक्ष में कहा जा सकता है? क्या यह कार्य आतंकवाद पर अंकुश लगाने में रूकावट नहीं बनेगा? क्या इससे हमारी पुलिस और ए।टी।एस हतोउत्साहित नहीं होगी?

हम इस समय 26/11 का उल्लेख करके बात का रूख किसी अन्य दिशा में नहीं मोड़ना चाहते, मगर इतना अवश्य कह देना चाहते हैं कि 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर होने वाला आतंकवादी हमला केवल मुम्बई पर हमला नहीं था बल्कि यह हमला हिन्दुस्तान पर था। केवल मुम्बई या महाराष्ट्र में ही नहीं भारत के किसी भी शहर में किसी भी तरह के आतंकवादी हमले को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता, मगर यह केवल लिख देने और बोलने भर से नहीं होगा, इसके लिए हमें अमली रूप से कदम उठाने होंगे, हमें राज्य में एक ऐसी सरकार देनी होगी जो आतंकवाद पर और आतंकवादियों पर काबू पा सके।

वह जो आतंकवादियों का बचाव करते हों, वह जो आतंकवाद या साम्प्रदायिक दंगों के लिए ज़िम्मेदार ठहराए जाते हों, वह जिन्हें न्यायालय ने ‘नीरो’ घोषित किया हो, वह जिनके नाम पर गुजरात का कलंक हो, वह जिनकी इनसान दुश्मनी का विवरण जसटिस श्रीकृष्ण कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में सैकड़ों पृष्ठों पर दर्ज किया हो। कम से कम उन्हें राज्य में सत्ता में आने का अवसर देना ख़तरे से ख़ाली नहीं होगा।

हमने महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के सम्बन्ध में जिन दो बातों पर विशेष ध्यान दिया वह हैं मुम्बई में दाखिला परमिट लागू करने की बात कहना और दूसरा बाल ठाकरे के द्वारा राज ठाकरे को जिन्ना उपनाम दिया जाना। निःसन्देह आतंकवाद पर काबू पाना बेहद आवश्यक है जैसा कि हमने ऊपर की पंक्तियों में लिखा भी है मगर इन दो बातों को भी नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता जो बाल ठाकरे और उद्धव ठाकरे के द्वारा कही गईं।

उद्धव ठाकरे केवल बाल ठाकरे के बेटे ही नहीं शिवसेना के अध्यक्ष भी हैं और अगर शिवसेना-भाजपा सत्ता में आती हैं तो मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी। अगर राज्य का मुख्यमंत्री इस मानसिकता का हो जो भारत के एक राज्य को शेष भारत से अलग कर देने की मानसिकता रखता हो तो समझा जा सकता है कि ऐसे लोगों के हाथ में सत्ता आने से राज्य का क्या हाल होगा।

बात केवल धार्मिक संकीर्णता की ही नहीं जिन्ना की तरह अलग राज्य के निमार्ण की आधारशिला रखने जैसी होगी। इसके अतिरिक्त बाल ठाकरे ने जिस तरह साध्वी प्रज्ञा सिंह का बचाव किया, यह किसी से छिपा नहीं है। भारतीय जनता पार्टी के नेता लाल कृष्ण आडवाणी मुम्बई में 26 नवम्बर को होने वाले आतंकवादी हमले से पूर्व राजस्थान के विधानसभा चुनावों में साध्वी प्रज्ञा सिंह का शपथपत्र लेकर घूमते रहे थे और उस पर किये जाने वाले अत्याचारों की दुहाई देते रहे थे उनकी बात को इतनी गंभीरता से लिया गया कि नैशनल सेक्योरिटी चीफ को उनके घर जाकर विश्वास दिलाना पड़ा कि साध्वी प्रज्ञा सिंह पर अब पूँछताछ के दौरान कोई अत्याचार नहीं किया जायेगा।

इतना ही नहीं, उन्होंने प्रधानमंत्री से साध्वी प्रज्ञा सिंह के मुद्दे पर भेंट भी की। नतीजा सबके सामने है। शहीद हेमन्त करकरे के जीवन में उनकी जांच के चलते जिस साध्वी प्रज्ञा सिंह के चेहरे पर खौफ और दहशत स्पष्ट दिखाई देती थी आज वह चेहरा निश्चिंत और विश्वास से भरपूर नज़र आता है। इस समय वह अस्पताल में आराम फरमा रही हैं।

इस लेख में इस घटना का उल्लेख करने के पीछे उद्देश्य केवल इतना है कि क्या मुम्बई की जेलों में बन्द अन्य आतंकवादियों के साथ भी ऐसा ही रवैया अपनाया गया या अपनाया जाना चाहिए? क्या आतंकवाद को धर्म और जाति के चश्मे से देखा जाना चाहिए? क्या ऐसे राजनीतिज्ञों का उत्साहवर्धन करना चाहिए जो आतंकवादियों को केवल आतंकवादी नहीं बल्कि किसी धर्म का प्रतिनिधा समझते हों।

जब उन्हें लगे कि यह संदिग्ध आतंकवादी उनके धर्म से सम्बन्ध रखता है तो ज़मीन आसमान एक कर दें और जब उन्हें यह लगे कि यह संदिग्ध आतंकवादी उस धर्म से सम्बन्ध रखता है जिससे वह दुर्भावना रखते हैं तो फिर उनका प्रयास यह हो कि उसे कठिन से कठिन यात्नाएं दी जाएं।

अपने आज के इस लेख में अगली बात जो मैं लिखने जा रहा हूं हो सकता है वह बहुतों के लिए अप्रिय हो और बहस का मुद्दा भी बने मगर मैं फिर सपष्ट कर देना चाहता हूं कि भारत की जनता के लिए भारत की अखंडता और भारत की मोहब्बत से बढ़कर और कुछ भी नहीं.......... कम से कम राजनीति तो बिल्कुल भी नहीं।

26-11-2008 को मुम्बई पर होने वाले आतंकवादी हमले में पाकिस्तान का संलिप्त होना बहुत से सबूतों के आधार पर साबित हो चुका है। यह आतंकवादी गुजरात के रास्ते मुम्बई पहुंचे यह भी साबित हो चुका है। भारत का सीमावर्ती राज्य कश्मीर लम्बे समय से आतंकवाद का शिकार है। इस आतंकवाद को शक्ति मिलती है पाकिस्तान से और उन शक्तियों से जो भारत को मज़बूत नहीं देखना चाहते, वही पाकिस्तान की सहायता भी करते हैं।

हम पिछले 20 वर्षों से कश्मीर में चलने वाले आतंक से परेशान हैं और इसके लिए पाकिस्तान को बड़ी सीमा तक उत्तरदायी मानते हैं, अर्थात वह विदेशी शक्तियां या हमारे पड़ोसी देश जो हमें एक मज़बूत देश की शक्ल में नहीं देखना चाहते अपने नापाक इरादों को पूरा करने के लिए कोई भी कदम उठाने से चूकते नहीं हैं।

जिस तरह कश्मीर में पाकिस्तान के हस्तक्षेप को समझा जा सकता है अगर उस तरह नहीं तो कम से कम गुजरात में इस्राइल के हस्तक्षेप को सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता। यही वह वाक्य है जिसे लेकर कुछ राजनीतिज्ञ आग बबूला हो सकते हैं।

क्या 26/11 के आतंकवादी हमले में इस्राइल को पाक-साफ ठहराया जा सकता है? क्या वह सभी बातें जो जनता के सामने आईं और जिनका सम्बन्ध नरीमन हाउस से था? क्या गवाह अनीता ओदय्या की गुमशुदगी को अनदेखा किया जा सकता है? क्या चश्मदीद गवाह इस्राइली रब्बी के बच्चे को अपने साथ लेकर जाने वाली महिला के वापस न लौटने को संदिग्ध नहीं समझा जा सकता, क्या मात्र मुस्लिम दुश्मनी के कारण कुछ राजनेताओं के इज्ऱाइल से संबंध किसी से छिपे हैं?

हम कहना केवल यह चाहते हैं कि पाकिस्तान के हस्तक्षेप से हम पहले ही बहुत परेशान हैं, अगर भारत का कोई राज्य विशेष रूप से सीमावर्ती राज्य या वह राज्य जहां समुन्द्र के रास्ते आसानी से पहुंचा जा सकता है, जैसा कि 26/11 के मामले में हमें देखने को मिला हल्के रूप में नहीं लिया जा सकता। क्या कारण है कि जिस राज्य में अपने ही देश के अन्य राज्यों से पहुंचने वालों से धुतकारा जाता हो, यात्नाएं दी जाती हों वहीं इसी मानसिकता के लोग इस्राइलियों के स्वागत के लिए पलकें बिछाते हों।

प्रश्न हिन्दू और मुसलमान का नहीं है, प्रश्न मराठी और गैर मराठी का नहीं है, प्रश्न उत्तर भारतीयों और दक्षिण भारतीयों का नहीं है, प्रश्न है भारत की अखंडता का, राष्ट्रीय एकता का साम्प्रदायिक सौहार्द का।

चुनाव होते रहते हैं, चुनाव आते जाते रहते हैं कभी कोई पार्टी सत्ता में होती है तो कभी कोई दूसरी सत्ता में होती है, मगर इस नाजु़क अवसर हमें देखना यह है कि कहीं हमारा कोई गलत निर्णय हमारी देश की अखंडता के हिलए ख़तरा न बन जाए, साम्प्रदायिक तनाव का कारण न बन जाए इसलिए कि लोकतंत्र में हर निर्णय वोट के द्वारा ही होता है, अतः आज हमारे पास यह अवसर यह सोचने का कि हम यह निर्णय लेते समय धर्म,क्षेत्र,भाषा और जाति जैसे बन्धनों से आज़ाद होकर अपना मत उसके पक्ष में प्रकट करें जो सबको साथ लेकर चलने का इरादा रखता हो जो सबके हक की बात करता हो और चौकन्ना रहें उनसे भी जो अपने व्यक्तिगत, राजनीतिक, आर्थिक हितों के लिए किसी न किसी रूप में उनके सहायक हो सकते हैं, जो नफ़रत और अलगाव की राजनीति करते हैं।


سوال سیاست کا نہیں، ملک کی سالمیت کا ہے

13اکتوبر کو تین ریاستوں میں ہونے والے انتخابات ہمارے لےے گزشتہ پارلیمانی انتخابات سے کم اہمیت کے حامل نہیں ہیں، لہٰذا عام انتخابات کے دوران ہم نے جو بھی لکھا، اس میں کوشش یہی تھی کہ ملک پر حکومت کرنے کے لےے ایک ایسی سرکار وجود میں آئے، جو سب کو ساتھ لے کر چلنے والی ہو، جو مذہب- ذات سے اوپر اٹھ کرکام کرسکے، اس میں ہمیں بہت حد تک کامیابی بھی حاصل ہوئی۔دراصل ہمارا مقصد کسی بھی سیاسی پارٹی کی موافقت یا مخالفت نہیں تھا اور اس وقت بھی نہیں ہے، مگر ہاں جمہوری قدروں پر گامزن ہمارے ملک میں فرقہ پرستی کے لےے کوئی گنجائش نہیں ہونی چاہےے اور ذات پرستی کی مخالفت بھی اس بنا پر کی جانی چاہےے کہ اگر ہم نے علاقہ، زبان یا ذات پر مبنی سیاست کو اہمیت دینی شروع کردی تو ملک ایک رہتے ہوئے بھی پھر چھوٹے چھوٹے ٹکڑوں میں بٹا نظر آئے گا، جیسے کہ ماضی میں چھوٹی چھوٹی ریاستیں ہوا کرتی تھیں۔

لہٰذا ہم چاہیں گے کہ پارٹی کوئی جیتے، کوئی ہارے سب کا مزاج سیکولر ہواور وہ معاشرہ کے ہر طبقہ کو ساتھ لے کر چلنے کا ارادہ رکھتی ہو۔ آج اگر کوئی اس زمرے میں آتا ہے تو ہماری بات اس کے حق میں جاسکتی ہے اور جو اس زمرے میں نہیں آتا، اس کے حق میں نہیں ہوسکتی، لیکن ہم جو کچھ کہہ رہے ہیں وہ دراصل ہندوستان کا آئین کہتا ہے، ہندوستان کا جمہوری نظام کہتا ہے، الیکشن کمیشن کا ضابطہ¿ اخلاق کہتا ہے۔جیسا کہ ہم نے اپنے مضمون کی ابتدا میں ہی یہ عرض کیا ہے کہ ہمارے نزدیک موجودہ ریاستی انتخابات گزشتہ پارلیمانی انتخابات سے کم اہمیت کے حامل نہیں ہیں تو اس کی وجہ ہے اروناچل پردیش اور مہاراشٹر۔

الیکشن تو ہریانہ میں بھی ہے، مگر ہم اس کے لےے زیادہ فکرمند نہیں ہیں، اس لےے کہ وہاں بات صرف اور صرف سیاست اور اقتدار کی ہے، وہاں کوئی اتنا بڑا ایشو ہمیں نظر نہیں آرہا، جس کے لےے قومی سطح پر عوام کو فکرمند ہونے کی ضرورت ہے، لیکن اروناچل پردیش اور مہاراشٹر کے بارے میں ایسا نہیں کہا جاسکتا۔ اروناچل پردیش وہ سرحدی ریاست ہے، جس پر شروع سے ہی چین کی نظر ہے۔ 1959میں تبت پر قبضہ کرلینے کے بعد سے چین کے حوصلے بلند ہیں اور1962کی جنگ میں ہندوستان پر حملہ کرکے نیفا کے کئی علاقوں پر چین پہلے ہی قبضہ کرچکا ہے۔ چین اروناچل پردیش میں کسی بھی طرح کے سیاسی عمل کا شدید مخالف رہا ہے اور ہے۔

گزشتہ اسمبلی انتخابات کے وقت بھی اس نے اس ریاست کو متاثر کرنے کی کوشش کی جاچکی تھی اور اس بار بھی پچھلے تین مہینوں میں70سے زیادہ مرتبہ دراندازی کی کوشش کی ہے، لہٰذا اروناچل پردیش کا معاملہ ہمارے لےے محض ایک اسمبلی الیکشن کا معاملہ نہیں ہے، بلکہ یہ ہمارے ملک کی سالمیت اور سرحدوں کی حفاظت کا معاملہ ہے۔ ہمارے ملک کی آبرو کا معاملہ ہے، لہٰذا وہاں جو بھی سرکار بنے وہ اتنی مضبوط اور اس بات کی اہل ہو کہ کسی بھی طرح کی دراندازی کو روک سکے، مرکز کا بھرپور تعاون اسے حاصل ہو اور پڑوسی ملک چین کے کسی بھی مخالف منصوبہ کو ناکام بناسکے۔مہاراشٹر وہ دوسری ریاست ہے، جس کے انتخابات کو ہم ہلکے طور پر نہیں لے سکتے۔

اگر مہاراشٹر اور گجرات کے حالات پر نظرڈالیں تو گزشتہ چند برسوں میں وہاں فرقہ پرست طاقتیں بہت حاوی ہوئی ہیں۔ فروری2002-میں گجرات کا مسلم کش فساد ابھی بھی بھولا نہیں ہے اور بابری مسجد کی شہادت کے بعد سے ممبئی سمیت مہاراشٹر کے مختلف علاقوں میں، جو کچھ ہوا وہ کسی سے چھپا نہیں ہے۔ تفصیل شری کرشن کمیشن کی رپورٹ میں درج ہے، جس میں شیوسینا کی مسلم مخالف کارکردگی کو دیکھا جاسکتا ہے۔ شہید ہیمنت کرکرے نے اپنی زندگی میں مالیگاو¿ں انویسٹی گیشن کے دوران دہشت گردوں کے جو چہرے سامنے رکھے، اس سے یہ بھی واضح ہوگیا کہ اس ریاست میں دہشت گردوں کی جڑیں کتنی گہری ہیں اور انہیں کن کن لوگوں کی حمایت حاصل ہے۔

سب سے زیادہ حیران کن اور پریشان کردینے والی جو بات رہی، وہ یہ تھی کہ دہشت گردوں نے ہماری فوج میں بھی سیندھ لگانے میں کامیابی حاصل کرلی ہے۔ کرنل پروہت اور میجر اپادھیائے کی گرفتاری انتہائی چونکانے والی تھی اور اس سے بھی زیادہ افسوسناک پہلو یہ تھا کہ بعض سیاسی جماعتوں نے ان جیسے دہشت گردوں کے بچاو¿ میں زمین آسمان ایک کردےے۔

جن مشتبہ دہشت گردوں کو متعدد ثبوتوں کی بنیاد پر شہیدہیمنت کرکرے نے گرفتار کیا تھا، ان کے دفاع کے لےے بھی سیاست کی گئی۔ کیا اسے ملک کے امن و امان کے حق میں قرار دیا جاسکتا ہے؟ کیا یہ عمل دہشت گردی پر قابو پانے میں رکاوٹ نہیں ہوگا؟ کیا اس سے ہماری پولس اور اے ٹی ایس کی حوصلہ شکنی نہیں ہوگی؟ہم اس وقت 26/11کا ذکر کرکے بات کا رُخ کسی دوسری جانب نہیں موڑنا چاہتے، مگر اتنا ضرور کہہ دینا چاہتے ہیں کہ 26نومبر2008کو ممبئی پر ہونے والا دہشت گردانہ حملہ صرف ممبئی پر حملہ نہیں تھا، بلکہ یہ حملہ ہندوستان پر تھا۔ صرف ممبئی یا مہاراشٹر میں ہی نہیں ہندوستان کے کسی بھی شہر میں کسی بھی طرح کے دہشت گردانہ حملہ کو برداشت نہیں کیا جاسکتا، مگر یہ صرف لکھ دینے اور بولنے بھر سے نہیں ہوگا، اس کے لےے ہمیں عملی قدم اٹھانے ہوں گے۔

ہمیں ریاست میں ایک ایسی سرکار دینی ہوگی، جو دہشت گردی پر اور دہشت گردوں پر قابو پاسکے، وہ جو دہشت گردوں کا بچاوکرتے ہوں، وہ جو دہشت گردی یا فرقہ وارانہ فسادات کے لےے ذمہ دار قرار دئے جاتے ہوں، وہ جنہیں عدالت ”نیرو“ قرار دے، وہ جن کے نام پر گجرات کا کلنک ہو، وہ جن کی انسان دشمنی کی تفصیل جسٹس شری کرشن کمیشن نے اپنی رپورٹ میں سیکڑوں صفحات پر درج کی ہو۔ کم ازکم انہیں ریاست میں برسراقتدار آنے کا موقع دینا خطرے سے خالی نہیں ہوگا۔ہم نے مہاراشٹر اسمبلی انتخابات کے تعلق سے جن دو باتوں پر خصوصی توجہ دی، وہ تھیں ممبئی میں داخلہ پر پرمٹ لاگو کرنے کی بات کہنا اور دوسرا بال ٹھاکرے کے ذریعہ راج ٹھاکرے کو جناح کا لقب دینا۔ بیشک دہشت گردی پر قابو پانا انتہائی ضروری ہے جیسا کہ ہم نے درج بالا سطروں میں لکھا بھی ہے، مگر ان دو باتوں کو بھی نظرانداز نہیں کیا جاسکتا جو بال ٹھاکرے اور اودھو ٹھاکرے کے ذریعہ کہی گئیں۔ اودھو ٹھاکرے صرف بال ٹھاکرے کے بیٹے ہی نہیں، شیوسینا کے صدر بھی ہیں اور اگر شیوسینا-بی جے پی برسراقتدار آتی ہے تو وزیراعلیٰ بننے کے دعویدار بھی۔

اگر ریاست کا چیف منسٹر اس ذہنیت کا ہو، جو ہندوستان کی ایک ریاست کو باقی ہندوستان سے الگ کردینے کی ذہنیت رکھتا ہو تو سمجھا جاسکتا ہے کہ ایسے لوگوں کے ہاتھ میں اقتدار آنے سے ریاست کا کیا حال ہوگا۔ بات پھر صرف مذہبی تعصب کی ہی نہیں، جناح کی طرح علیحدہ ایک ریاست کی داغ بیل ڈالنے جیسی ہوگی۔ اس کے علاوہ بال ٹھاکرے نے جس طرح سادھوی پرگیہ سنگھ کا بچاو¿ کیا، یہ کسی سے چھپا نہیں ہے۔ بھارتیہ جنتا پارٹی کے سربراہ لال کرشن اڈوانی ممبئی میں 26نومبر کو ہونے والے دہشت گردانہ حملہ سے قبل راجستھان کے ریاستی انتخابات میں سادھوی پرگیہ سنگھ کا حلف نامہ لے کر گھومتے رہے تھے اور اس پر کےے جانے والے مظالم کی دہائی دیتے پھر رہے تھے۔

ان کی بات کو اس قدر سنجیدگی سے لیا گیا کہ نیشنل سیکوریٹی چیف کو ان کے گھر جاکر یقین دہانی کرانی پڑی کہ سادھوی پرگیہ سنگھ پر پوچھ تاچھ کے دوران اب کوئی ظلم نہیں کیا جائے گا۔ اتنا ہی نہیں، انہوں نے وزیراعظم سے سادھوی پرگیہ سنگھ کے ایشو پر ملاقات بھی کی۔ نتیجہ سب کے سامنے ہے۔ شہیدہیمنت کرکرے کی زندگی میں ان کی تحقیقات کے سبب جس سادھوی پرگیہ سنگھ کے چہرے پر خوف و دہشت صاف نظر آتی تھی، آج وہ چہرہ پرسکون اور پراعتماد نظر آتا ہے۔ اس وقت وہ اسپتال میں آرام فرما رہی ہیں۔ اس تحریر میں اس واقعہ کا ذکر کرنے کے پیچھے مقصد صرف اتنا ہے کہ کیا ممبئی کی جیلوں میں بند باقی مشتبہ دہشت گردوں کے ساتھ بھی ایسا ہی رویہ اپنایا گیایا اپنایا جانا چاہےے؟ کیا دہشت گردی کو مذہب اور ذات کے چشمے سے دیکھا جانا چاہےے؟ کیا ایسے سیاستدانوں کی حوصلہ افزائی کی جانی چاہےے، جو دہشت گردوں کو صرف دہشت گرد نہیں، بلکہ کسی مذہب کا نمائندہ سمجھتے ہوں؟

جب انہیں لگے کہ یہ مشتبہ دہشت گرد ان کے مذہب سے تعلق رکھتا ہے تو زمین و آسمان ایک کردیں اور جب انہیں لگے کہ یہ مشتبہ دہشت گرد اس مذہب سے تعلق رکھتا ہے، جس سے وہ تعصب برتتے ہیں تو ان کی پھر کوشش یہ ہو کہ اسے سخت سے سخت اذیتیں دی جائیں۔ اپنے آج کے اس مضمون میں میں اگلی جو بات لکھنے جارہا ہوں، ہوسکتا ہے وہ بہتوں کے لےے ناگوارِخاطر ہو اور موضوع بحث بھی بنے، مگر میں پھر واضح کردینا چاہتا ہوں کہ ہندوستانی عوام کے لےے ہندوستان کی سالمیت اور ہندوستان کی محبت سے بڑھ کر اور کچھ بھی نہیں.... کم از کم سیاست تو بالکل بھی نہیں۔26-11-2008کو ممبئی پر ہونے والے دہشت گردانہ حملہ میں پاکستان کا ملوث ہونا بہت سے ثبوتوں کی بنیاد پر ثابت ہوچکا ہے۔

یہ دہشت گرد گجرات کے راستہ ممبئی پہنچے، یہ بھی ثابت ہوچکا ہے۔ ہندوستان کی سرحدی ریاست کشمیر ایک لمبے عرصہ سے دہشت گردی کا شکار ہے۔ دہشت گردی کو تقویت ملتی ہے پاکستان سے اور ان طاقتوں سے جو ہندوستان کو ایک مضبوط ملک نہیں دیکھنا چاہتے، وہی پاکستان کی مدد بھی کرتے ہیں۔ ہم گزشتہ تقریباً 20برس سے کشمیر میں چلنے والی دہشت گردی سے پریشان ہیں اور اس کے لےے پاکستان کو بہت حد تک ذمہ دار مانتے ہیں، یعنی وہ غیرملکی طاقتیں یا ہمارے پڑوسی ملک جو ہمیں ایک مضبوط ملک کی شکل میں نہیں دیکھنا چاہتے، اپنے ناپاک ارادوں کو پورا کرنے کے لےے کوئی بھی قدم اٹھانے سے چوکتے نہیں ہیں۔

جس طرح کشمیر میں پاکستان کے دخل کو سمجھا جاسکتا ہے، اگر اس طرح نہیں تو کم ازکم گجرات میں اسرائیل کے دخل کو سرے سے خارج بھی نہیں کیا جاسکتا۔ یہی وہ جملہ ہے، جسے لے کر کچھ سیاستداں چراغ پا ہوسکتے ہیں۔ کیا 26/11کے دہشت گردانہ حملہ میں اسرائیل کو پاک صاف قرار دیا جاسکتا ہے؟ کیا وہ تمام باتیں جومنظرعام پر آئیں اور جن کا تعلق نریمن ہاو¿س سے تھا؟ کیا گواہ انیتا اُدیا کی گمشدگی کو نظرانداز کیا جاسکتا ہے؟ کیا عینی شاہد اسرائیلی ربّی کے بچے کو اپنے ساتھ لے کر جانے والی خاتون کے واپس نہ لوٹنے کو مشکوک نہیں سمجھاجاسکتا؟کیا صرف مسلم دشمنی کی وجہ سے کچھ سیاستدانوں کے اسرائیل سے تعلقات کسی سے چھپے ہیں؟ہم کہنا صرف یہ چاہتے ہیں کہ پاکستان کی دخل اندازی سے ہم پہلے ہی بہت پریشان ہیں۔

اگر ہندوستان کی کوئی ریاست بالخصوص سرحدی ریاست یا وہ ریاست جہاں سمندر کے راستے بآسانی پہنچا جاسکتا ہے، جیسا کہ 26/11کے معاملہ میں ہمیں دیکھنے کو ملا، ہلکے طور پر نہیں لیا جاسکتا۔کیا وجہ ہے کہ جس ریاست میں اپنے ہی ملک کی دوسری ریاستوں سے پہنچنے والوں کو دھتکارا جاتا ہو، اذیتیں دی جاتی ہوں، وہیں اسی ذہنیت کے لوگ اسرائیلیوں کے خیرمقدم کے لےے پلکیں بچھاتے ہوں۔ سوال ہندو اور مسلمان کا نہیںہے؟ سوال مراٹھا اور غیرمراٹھا کا نہیں ہے؟ سوال اتربھارتیوں اور دکشن بھارتیوں کا نہیںہے؟ سوال ہے ہندوستان کی سالمیت کا، قومی یکجہتی کا، فرقہ وارانہ ہم آہنگی کا۔

انتخابات ہوتے رہتے ہیں، الیکشن آتے جاتے رہتے ہیں، کبھی کوئی پارٹی برسراقتدار ہوتی ہے تو کبھی کوئی اور برسراقتدار ہوتی ہے، مگر اس نازک موقع پر ہمیں دیکھنا یہ ہے کہ کہیں ہمارا کوئی غلط فیصلہ ہمارے ملک کی سالمیت کے لےے خطرہ نہ بن جائے، فرقہ وارانہ کشیدگی کا باعث نہ بن جائے، اس لےے کہ جمہوریت میں ہر فیصلہ ووٹ کے ذریعہ ہی ہوتا ہے، لہٰذا آج ہمارے پاس موقع ہے یہ سوچنے کا کہ ہم یہ فیصلہ لیتے وقت مذہب، علاقہ، زبان اور ذات جیسے بندھنوں سے آزاد ہوکر اپنی رائے کا اظہار اس کے حق میں کرےں، جو سب کو ساتھ لے کر چلنے کا ارادہ رکھتا ہو، جو سب کے حق کی بات کرتا ہو اور محتاط رہیں ان سے بھی جو اپنے ذاتی، سیاسی، معاشی مفاد کی خاطر کسی نہ کسی شکل میں ان کے مددگار ہوسکتے ہیں، جو نفرت اور علیحدگی کی سیاست کرتے ہیں۔

हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान या मराठी-मराठा-मराठिस्तान


हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान या मराठी-मराठा-मराठिस्तान

यह तय करना है अब भारतीय जनता पार्टी को कि उसे किस रास्ते पर चलना है कभी उसका नारा हुआ करता था ‘‘हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान’’ यह नारा तो अब शायद हो नहीं सकता, इसलिए कि महाराष्ट्र में जिस तरह वह शिवसेना की पिछलगू पार्टी दिखाई दे रही है उससे तो लगता है कि अब ‘‘मराठी-मराठा-मराठिस्तान’’ का नारा उसे लगाना पड़ेगा। कारण बिल्कुल स्पष्ट है कि महाराष्ट्र के इन विधानसभा चुनावों में चुनाव तो भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना मिलकर लड़ रहे हैं लेकिन राज्य का जो परिदृश्य देखने को मिल रहा है उसमें हर जगह शिवसेना, बाल ठाकरे और उद्धव ठाकरे या शिवसेना के बाग़ी ग्रुप एमएनएस के राज ठाकरे दिखाई देते हैं।

मुख्यमंत्री के रूप में भी जो नाम उछाला जा रहा है वह उद्धव ठाकरे का है। भाजपा या गोपीनाथ मुंडे कहां, किस कोने में हैं कुछ पता ही नहीं। इस पार्टी के किसी बड़े नेता का भी अभी तक यह साहस नहीं हुआ कि वह शिवसेना की इस दावेदारी पर जु़बान खोले। इसके दो ही कारण हो सकते हैं, या तो उन्हें विश्वास है कि भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना गठजोड़ बहुमत में आयेगा ही नहीं, सरकार बनाने का अवसर मिलेगा ही नहीं तो फिर मुख्यमंत्री के नाम पर झगड़ा किस बात का?

पार्टी के आपसी झगड़े में आबरू तो जा ही रही है (संसदीय चुनावों के बाद भाजपा का जो हाल हुआ उसे देखकर तो यही कहा जा सकता है ), अब रहे सहे साथियों को भी क्यों नाराज़ होने का अवसर दिया जाये और दूसरा कारण यह हो सकता है कि उन्होंने शिवसेना के सामने हथियार डाल दिये हों, वैसे भी शिवसेना के बाल ठाकरे के सामने बोलने योग्य भाजपा में कद किसका है।

ले देकर केवल एक लाल कृष्ण आडवाणी हैं जिनके ऊपर पिछले कुछ दिनों में इतनी उंगलियां उठाई गईं कि उन्हें सन्यास लेने की घोषणा तक करनी पड़ी। हमने ‘‘हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान’’ के स्थान पर ‘‘मराठी-मराठा-मराठिस्तान’’ की बात कहकर भारतीय जनता पार्टी को उसके आदर्शों की याद दिलाने का प्रयास इसलिए किया कि अब तक वह मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्य धारा में आने का पाठ पढ़ाती रही थी।

अब देखना यह है कि क्या वह शिवसेना को राष्ट्रीय धारा में आने का पाठ पढ़ा सकती है? मुसलमान तो राष्ट्रीय धारा में हैं, उन्होंने कभी नहीं कहा कि अरबी, फारसी या ऊर्दू उनकी भाषा होगी, जबकि ऊर्दू को भारत की राष्ट्रीय भाषा होने का सौभाग्य प्राप्त रहा है और आज भी भारत में सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा ऊर्दू ही है। भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिक मित्र बाल ठाकरे, उनके पुत्र उद्धव ठाकरे, चचा की भाषा में नालायक औलाद राज ठाकरे मराठी से हटकर भारत की राष्ट्रीय भाषा हिन्दी को अपनाना ही नहीं चाहते।

बात अगर ऊर्दू की होती तो कुछ देर के लिए यह सोचा भी जा सकता कि कारण मुसलमानों से नाराज़गी या ऊर्दू भाषा से वैमनस्य है लेकिन हिन्दी के बारे में अगर उनका यही रवैया है तो फिर क्या कहा जाए? क्या ऐसे लोगों से आशा की जा सकती है कि वह राष्ट्रीय धारा में चल सकते हैं? हम यहां एक उदाहरण राष्ट्रीयगान का देना चाहेंगे। स्पष्ट है कि राष्ट्रगान भारत के हर होशमन्द नागरिक को ज़ुबानी याद होगा, फिर भी हम शब्दशः नीचे लिखकर दे रहे हैं ताकि अपनी बात को पूरी तरह सामने रख सकें।

जन गण मन अधिनायक जया है
भारत भाग्य विधाता
पंजाब सिंध गुजरात मराठा
द्रविड़ उत्कल बंगा
विन्धय, हिमाचल, यमुना, गंगा
उच्छल जलधि तिरंगा
तव शुभ नामे जागे
तव शुभ आशीष मांगे
गाहे तब जय गाथा
जन गण मंगल दायक जया है
भारत भाग्य विधाता
जया है, जया है, जया है
जय, जय, जय, जय है

और अब इतिहास के हवाले से वह पृष्ठभूमि जब राष्ट्रगान लिखा गया। जन गण मन भारत का राष्ट्रगीत है जो बंगाली भाषा में लिखा गया है। यह ब्रहम प्रशंसा के पहले पांच बन्द हैं। नोबिल इनाम प्राप्त करने वाले रविन्द्र नाथ टैगोर ने इसे लिखा है। 27 दिसम्बर 1911 को कोलकाता में हुए कांग्रेस के पहले अधिवेशन में इसे गाया गया था। जन गण मन को बाकायदा तौर पर 24 जनवरी 1950 को संविधान निर्मात्री सभा ने अपनाया।

हालांकि बुनियादी तौर पर पूरा तराना बंगाली में लिखा है लेकिन देश के भाषाई मतभेदों के कारण तराने का उच्चारण अलग-अलग भागों में अलग है। स्तुति में शामिल कई शब्दों की अदायगी दूसरी भाषाओं के बोलने वाले इस तरह करते हैं जिस तरह बंगाली भाषा वाले करते हैं और अकसर गाने वाले की भाषा के असल शब्दों से मिलता जुलता उच्चारण होता है।स्वाधीन भारत में राष्ट्रगीत के रूप में जन गण मन के प्रासंगिकता का विवाद आज भी जिन्दा है यह कविता 1911 में लिखी गई थी।

यह वह समय था जब जार्ज पंचम की ताजपोशी हो रही थी और कई लोग इसे ‘‘भारत की तकदीर के मालिक’’ की शान में पढ़ा गया कसीदा ठहराते हैं। इसे पहली बार कोलकाता में हुए इंडियन नैशनल कांग्रेस के जलसे में पढ़ा गया। 1911 में हुए इस जलसे के दूसरे दिन भी पढ़ा गया और जलसे के दूसरे दिन का एजेंडा जार्ज पंचम के भारत आने का स्वागत करने का था इस घटना की रिपोर्ट भारतीय प्रेस में भी आई।

रविन्द्र नाथ टैगारे के द्वारा विशेष रूप से लिखे गये इस गीत के बाद जलसे की कार्यवाई शुरू हुई।27 दिसम्बर 1911 बुध के दिन जब इंडियन नैशनल कांग्रेस की कार्यवाही आरंभ हुई तब जार्ज पंचम के स्वागत में बंगाली गीत गाया गया।2005 में तराने से सिंधू शब्द को हटाने की और इसे कश्मीर से बदलने की मांग की गई। इसके लिए औचित्य यह पेश किया गया कि सिंधू अब भारत का भाग नहीं है। 1947 में देश विभाजन के बाद अब सिंध पाकिस्तान का भाग है।

इस मांग के विरोधियों ने कहा कि सिंध शब्द सिंधू नदी और सिंधी सभ्यता और उससे जुड़े लोगों की ओर संकेत करता है जो भारतीय संस्कृति का अटूट भाग हैं। परन्तु सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रगान में संधोधन करने से इंकार कर दिया।यह राष्ट्रीय गान लिखा गया रविन्द्र टैगोर के द्वारा जो बंगाली थे और यह लिखा भी गया संस्कृत मिली बंगाला भाषा। 24 जनवरी 1950 में संविधान निर्मात्री सभा में जब इसे राष्ट्रगान के रूप में बाकायदा अपनाया गया उस समय मौलाना अबुल कलाम आज़ाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री के रूप में सरकार में मौजूद थे, मगर न तो जन गण मन की भाषा पर ऐतराज़ किया गया और न ही उसके भावार्थ पर।

हालांकि उससे कुछ पहले तक ऊर्दू भारत की राष्ट्रीय भाषा थी और उस समय अल्लामा इकबाल के द्वारा लिखा गया कौमी तराना ‘‘सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा’’ भी मौजूद था, जिसे अल्लामा इकबाल ने 16 अगस्त 1904 से पूर्व लिखा था। इसलिए कि साप्ताहिक पत्रिका ‘‘ इत्तेहाद’’ में यह 16 अगस्त 1904 के प्रकाशन में शामिल किया गया था जबकि रवन्द्रि नाथ टैगोर ने पहली बार 28 दिसम्बर 1911 को जार्ज पंचम अर्थात ब्रिेटेन के शहंशाह का स्वागत करने के लिए राष्ट्रगान गाया था, जो 28 दिसम्बर 1911 ‘‘स्टैटमैन’’ में प्रकाशित किया गया।

हम चन्द पंक्तियों में अल्लामा इकबाल के द्वारा लिखे गये कौमी तराना जिसे तराना-ए-हिन्दी भी कहा जाता है को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ सहित प्रकाशित करने जा रहे हैं ताकि पाठकों को यह विश्वास दिला सकें कि जिन्हें आज तक भारतीय जनता पार्टी या उसकी राजनीतिक मित्र शिवसेना संकीर्ण मानसिकता वाला ठहराती रही। संकीर्ण मानसिकता वाले वह हैं या यह साम्प्रदायिक पार्टियां।
सारे जहाँ से अच्छा
हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुले हैं इसकी
ये गुलसितां हमारा
गुर्बत में हो अगर हम
रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी
दिल है जहाँ हमारा
परबत वो सब से ऊंचा
हमसाय आसमाँ का
वो संतरी हमारा
वो पासबां हमारा
गोदी में खेलती हैं
इसकी हज़ारों नदियां
गुलशन है जिनके दम से
रश्क-ए-जना हमारा
ए-आबरू-ए-गंगा
वो दिन है याद तुझको
उतरा तेरे किनारे
जब कारवाँ हमारा
मज़हब नहीं सिखाता
आपस में बेर रखना
हिन्दी हैं हम वतन है
हिन्दोस्तां हमारा
युनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा
सब मिट गये जहाँ से
अब तक मगर है बाक़ी
नामो निशां हमारा
कुछ बात है कि हस्ती
मिटती नहीं हमारी
सदियो रहा है दुश्मन
दौर-ए-ज़मां हमारा
इकबाल कोई मेहरम
अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को
दर्द-ए-निहा हमारा।

सारे जहां से अच्छा ‘राष्ट्र प्रेम पर ऊर्दू में लिखी गयी सर्वश्रेष्ठ कविताओं में से एक है वास्तव में इसे बच्चों के लिए ऊर्दू शायरी के ग़ज़ल स्टाइल में मोहम्मद इकबाल ने लिखा था यह कविता पहली बार 16 अगस्त 1904 में साप्ताहिक पत्रिका ‘‘इत्तेहाद’’ में प्रकाशित हुई और अगले ही वर्ष इकबाल ने इसे लाहौर के गोरमेंट कालिज में पहली बार पढ़ा और शीघ्र ही भारत पर अंग्रेज़ी सरकार के विरोध का तराना बन गया।

इस कविता में भारत की स्तुति की गई है जिसमें आज के भारत-पाकिस्तान और बंग्लादेश शामिल थे यह कविता तराना-ए-हिन्दी के रूप में अधिक लोकप्रिय है। इकबाल इस समय गोरमेंट कालिज लाहौर में लैक्चरार थे और लाला हरदयाल नामी छात्र ने उनको एक प्रोग्राम की अध्यक्षता के लिए आमंत्रित किया था। सम्बोधन की जगह इकबाल ने इस अवसर पर ‘सारे जहां से अच्छा को गाया’। इस कविता में भारत की धरती से लगाव से इज़हार किया गया है।

1905 में जब इकबाल केवल 27 वर्ष के थे तभी उन्होंने महादीप के भविष्य के समाज को बहु संस्कृति और मिले-जुले समाज के रूप में देखा था।‘‘राष्ट्रीय गान’’ और अल्लामा इक़्बाल का राष्ट्रीय तराना आज के लेख में क्यों शामिल किया गया, कुछ हमद तक तो पाठकों को अंदाज़ा हो गया होगा। परन्तु अभी पूरी तरह स्पष्ट करने की आवश्यकता है, इसलिए आज का यह लेख अधूरा है, कल भी इसी विषय पर बात होगी, इसलिए आज केवल इतना कह देना काफ़ी है कि जिनका सब कुछ था, भाषा थी, तराना था, उन्होंने कभी यह रूख़ नहीं अपनाया जो आज मराठी और मराठा के नाम पर देखने को मिल रहा है।

अब देश के विभाजन या पाकिस्तान की स्थापना का उदाहरण मत दीजिएगा, इसलिए कि हम ही नहीं जसवंत सिंह से लेकर बाल ठाकरे तक जिन्ना के बारे में बहुत कुछ कह चुके हैं और यदि पाकिस्तान जिन्ना की देन है तो फिर पाकिस्तान की स्थापना के कारण को भी समझा जा सकता है।.................................(जारी)

ہندی-ہندو-ہندوستان یامراٹھی-مراٹھا-مراٹھستان

یہ طے کرنا ہے اب بھارتیہ جنتا پارٹی کو کہ اسے کس راستے پر چلنا ہے۔ کبھی اس کا نعرہ ہوا کرتا تھا: ”ہندی-ہندو-ہندوستان“۔ یہ نعرہ تو اب شاید ہونہیںسکتا، اس لےے کہ مہاراشٹر میں جس طرح وہ شیوسینا کی پچھ لگو پارٹی نظر آرہی ہے، اس سے تو لگتا ہے کہ اب ”مراٹھی- مراٹھا- مراٹھستان“ کا نعرہ اسے لگانا پڑے گا۔ وجہ بالکل صاف ہے کہ مہاراشٹر کے ان ریاستی انتخابات میں الیکشن تو بھارتیہ جنتا پارٹی اور شیوسینا مل کر لڑرہے ہیں، لیکن ریاست کا جو منظرنامہ دیکھنے کو مل رہا ہے، اس میں ہر جگہ شیوسینا، بال ٹھاکرے، اودھوٹھاکرے یا شیوسینا کے باغی گروپ ایم این ایس کے راج ٹھاکرے نظر آتے ہیں۔

وزیراعلیٰ کے طور پر بھی جو نام اچھالا جارہا ہے، وہ اودھوٹھاکرے کا ہے۔ بھارتیہ جنتا پارٹی یاگوپی ناتھ منڈے کہاں، کس کونے میں ہیں، کچھ پتا ہی نہیں۔ اس پارٹی کے کسی بڑے لیڈر کی بھی ابھی تک یہ ہمت نہیں ہوئی ہے کہ وہ شیوسینا کی اس دعویداری پر زبان کھولے۔ اس کی دو ہی وجہیں ہوسکتی ہیں، یا تو انہیں یقین ہے کہ بھارتیہ جنتا پارٹی اور شیوسینا اتحاد اکثریت میں آئے گا ہی، سرکار بنانے کا موقع ملے گا ہی نہیں تو پھر وزیراعلیٰ کے نام پر جھگڑا کس بات کا؟پارٹی کے آپسی جھگڑے میں آبرو تو جاہی رہی ہے(پارلیمانی انتخابات کے بعد بی جے پی کا جو حشر ہوا، اسے دیکھ کر تو یہی کہاجاسکتا ہے)، اب رہے سہے ساتھیوں کو بھی کیوں ناراض ہونے کا موقع دیا جائے اور دوسری وجہ یہ ہوسکتی ہے کہ انہوں نے شیوسینا کے سامنے خودسپردگی اختیار کرلی ہو۔

ویسے بھی شیوسینا کے بال ٹھاکرے کے سامنے بولنے لائق بی جے پی میں قد کس کا ہے۔ لے دے کر صرف ایک لال کرشن اڈوانی ہیں، جن کے اوپر گزشتہ چند روز میں اس قدر انگلیاں اٹھائی گئیں کہ انہیں سنیاس لینے کا اعلان تک کرنا پڑا۔ہم نے ”ہندی-ہندو-ہندوستان“ کی جگہ ”مراٹھی-مراٹھا-مراٹھستان“ کی بات کہہ کر بھارتیہ جنتا پارٹی کو اس کے اصولوں کی یاد دلانے کی کوشش اس لےے کی کہ اب تک وہ مسلمانوں کو قومی دھارا میں آنے کا سبق پڑھاتی رہی تھی۔ اب دیکھنا یہ ہے کہ کیا وہ شیوسینا کو قومی دھارا میں آنے کا سبق پڑھا سکتی ہے؟

مسلمان تو قومی دھارا میں ہےں، انہوں نے کبھی نہیں کہا کہ عربی، فارسی یا اردو ان کی زبان ہوگی، جبکہ اردو کو ہندوستان کی قومی زبان ہونے کا شرف حاصل رہا ہے ا ور آج بھی ہندوستان میں سب سے زیادہ بولی اور سمجھی جانے والی زبان اردو ہی ہے۔ بھارتیہ جنتا پارٹی کے سیاسی دوست بال ٹھاکرے، ان کے بیٹے اودھو ٹھاکرے، چچا کی زبان میں نالائق اولاد راج ٹھاکرے، مراٹھی سے ہٹ کر ہندوستان کی قومی زبان ہندی کو اپنانا ہی نہیں چاہتے۔ بات اگر اردو کی ہوتی تو کچھ دیر کے لےے یہ سوچا بھی جاسکتا تھا کہ وجہ مسلمانوں سے نفرت یا اردو زبان سے تعصب ہے، لیکن ہندی کے بارے میں اگر ان کا یہی رویہ ہے تو پھر کیا کہا جائے؟

کیاایسے لوگوں سے امید کی جاسکتی ہے کہ وہ ملک کی قومی دھارا میں چل سکتے ہیں؟ ہم یہاں ایک مثال راشٹریہ گان کی دینا چاہیں گے۔ ظاہر ہے ”راشٹریہ گان“ہندوستان کے ہر ذی ہوش شہری کو زبانی یاد ہوگا، تاہم لفط بلفظ نیچے تحریر کردے رہے ہیں، تاکہ اپنی بات کو مکمل طور پر سامنے رکھ سکیں

جن گن من ادھنائک جیا ہے
بھارت بھاگیہ ودھاتا
پنجاب سندھ گجرات مراٹھا
دراوڑ اتکل بنگا
وندھیا ہماچل یمنا گنگا
اچچھل جلدھی ترنگا
تو شبھ نامے جاگے
تو شبھ آشیش مانگے
گاہے تب جے گاتھا
جن گن منگل دایک جیا ہے
بھارت بھاگیہ ودھاتا
جیا ہے جےا ہے جےا
ہےجے جے جے جےا ہے

اور اب تاریخ کے حوالہ سے وہ پس منظر جب ”راشٹریہ گان“ لکھا گیا۔ جن گن من ہندوستان کا قومی ترانہ ہے ، جو بنگالی زبان مےں لکھا گےاہے۔ےہ برہمو حمدکے پہلے پانچ بند ہےں۔ نوبل انعام ےافتہ رابندر ناتھ ٹےگور نے اسے لکھاہے۔ 27دسمبر 1911کو کلکتہ مےں ہوئے کانگرےس کے پہلے سےشن مےں اسے گاےاگےا تھا۔ جن گن من کو باقاعدہ طور پر 24جنوری 1950کو کاٹسٹی ٹوئنٹ اسمبلی نے اپناےا۔

قومی ترانے کو گانے مےں عام طور سے 52سےکنڈ کا وقت لگتاہے۔حالانکہ بنےادی طور پر پورا ترانہ بنگالی مےں لکھاہے، لےکن ملک کے لسانی اختلاف کے سبب ترانے کا تلفظ الگ الگ حصوں مےں مختلف ہے۔حمد مےں شامل کئی الفاظ کی ادائےگی دوسری ہندوستانی زبان کے بولنے والے اس طرح کرتے ہےں، جس طرح بنگالی زبان والے کرتے ہےں اور اکثر گانے والے کی زبان کے ہم اصل لفظ سے ملتا جلتا تلفظ ہوتاہے۔آزاد ہندوستان مےں قومی ترانے کے طور پر جن گن من کی مناسبت کا قضےہ آج بھی زندہ ہے۔

ےہ نظم 1911مےں قلم بند ہوئی تھی ۔ ےہ وہی وقت تھا جب جارج پنجم کی تاج پوشی ہورہی تھی اور کئی لوگ اسے ’ہندوستان کو تقدےر کے مالک‘ کی شان مےں پڑھا گےا قصےدہ قرار دےتے ہےں۔ اسے پہلی بار کلکتہ مےں ہوئے انڈےن نےشنل کانگرےس کے جلسہ مےں پڑھاگےا۔ 1911مےں ہوئے اس جلسہ کے دوسرے دن بھی پڑھا گےا اور جلسہ کے دوسرے دن کا اےجنڈہ جارج پنجم کی ہندوستان آمد کا استقبال کرنے کا تھا۔ اس واقعہ کی رپورٹ ہندوستانی پرےس مےں بھی آئی۔رابندر ناتھ ٹےگور کے ذرےعہ خصوصی طور پر لکھے گئے اس گےت کے بعد جلسہ کی کارروائی شروع ہوئی۔

27دسمبر 1911بدھ کے دن جب انڈےن نےشنل کانگرےس کی کارروائی شروع ہوئی، تب جارج پنچم کے استقبال مےں بنگالی گےت گاےا گےا۔ 2005مےں ترانے سے سندھ لفظ کو ہٹانے کا اور اسے کشمےر سے بدلنے کا مطالبہ کےاگےا۔ اس کے لئے جواز ےہ دےاگےا کہ سندھ اب ہندوستان کا حصہ نہےں ہے۔ 1947 مےں تقسےم وطن کے بعد اب سندھ پاکستان کا حصہ ہے۔ اس مطالبہ کے مخالفےن نے کہا کہ سندھ لفظ سندھ ندی اور سندھی ثقافت اور اس سے جڑے لوگوں کی جانب اشارہ کرتاہے، جو ہندوستانی ثقافت کے اٹوٹ حصہ ہےں، لیکن سپرےم کورٹ نے قومی ترانے کے ا لفاظ مےں تبدےلی کرنے سے انکار کردےا۔یہ ”راشٹریہ گان“ لکھا گیارابندرناتھ ٹیگور کے ذریعہ، جو بنگالی تھے اور یہ لکھا بھی گیا سنسکرت آمیز بنگالی زبان میں۔

24جنوری 1950میں کونسٹینٹ اسمبلی میںجب اسے ”راشٹریہ گان“ کے طور پر باقاعدہ اپنایا گیا، اس وقت مولانا ابوالکلام آزاد ہندوستان کے پہلے وزیرتعلیم کی حیثیت سے حکومت میں موجود تھے، مگر نہ تو ’جن گن من‘ کی زبان پر اعتراض کیا گیا اور نہ ہی اس کی عبارت پر، حالانکہ اس سے کچھ پہلے تک اردو ہندوستان کی قومی زبان تھی اور اس وقت علامہ اقبال کے ذریعہ لکھا گیا قومی ترانہ ”سارے جہاں سے اچھا ہندوستاں ہمارا“ بھی موجود تھا، جسے علامہ اقبال نے 16اگست1904سے پہلے قلمبند کیا، اس لےے کہ ہفت روزہ ”اتحاد“ میں یہ 16اگست1904کے شمارے میں شامل اشاعت کیا گیا تھا، جبکہ رابندرناتھ ٹیگور نے پہلی بار 28دسمبر1911کو جارج پنجم یعنی برطانیہ کے شہنشاہ کو خوش آمدید کہنے کے لےے ”راشٹریہ گان“ گایا تھا، جو28دسمبر1911”اسٹیٹ مین“ میں شائع کیا گیا۔

ہم چند سطروں میں علامہ اقبال کے ذریعہ لکھے گئے قومی ترانہ جسے ترانہ¿ ہندی بھی کہا جاتا ہے، کو بمعہ تاریخی پس منظر شائع کرنے جارہے ہیں تاکہ قارئین کو یہ باور کراسکیں کہ جنہیں آج تک بھارتیہ جنتا پارٹی یا اس کی سیاسی دوست شیوسینا تنگ نظر قرار دیتی رہی، تنگ نظر وہ ہیں یا یہ فرقہ پرست جماعتیں:

سارے جہاں سے اچھا
ہندوستاں ہمارا
ہم بلبلیں ہیں اس کی،
یہ گلستاں ہمارا
غربت میں ہوں اگر ہم،
رہتا ہے دل وطن میں
سمجھو وہیں ہمیں بھی،
دل ہو جہاں ہمارا
پربت وہ سب سے اونچا،
ہمسایہ آسماں کا
وہ سنتری ہمارا،
وہ پاسباں ہمارا
گودی میں کھیلتی ہیں
اس کی ہزاروں ندیاں
گلشن ہے جن کے دم سے
رشک جناں ہمارا
اے آبروئے گنگا،
وہ دن ہیں یاد تجھ کو؟
اترا ترے کنارے
جب کارواں ہمارا
مذہب نہیں سکھاتا
آپس میں بیر رکھنا
ہندی ہیں ہم وطن ہے
ہندوستاں ہمارا
یونان و مصر و روما
سب مٹ گئے جہاں سے
اب تک مگر ہے باقی
نام و نشاں ہمارا
کچھ بات ہے کہ ہستی
مٹتی نہیں ہماری
صدیوں رہا ہے دشمن
دورِ زماں ہمارا
اقبال! کوئی محرم
اپنا نہیں جہاں میں
معلوم کیا کسی کو
درد نہاں ہمارا

”سارے جہاں سے اچھا....“ حب الوطنی پر اردو میں لکھی گئی بہترین نظموں میں سے ایک ہے۔دراصل اسے بچوں کے لےے اردو شاعری کے غزل اسٹائل میں علامہ اقبال نے لکھا تھا۔ یہ نظم پہلی بار16اگست1904میں ہفتہ وار رسالہ ”اتحاد“ میں شائع ہوئی اور اگلے ہی سال اسے اقبال نے لاہور کے گورنمنٹ کالج میں پہلی بار پڑھا اور جلد ہی یہ نظم ہندوستان پر انگریزی حکومت کی مخالفت کا ترانہ بن گئی۔ اس نظم میں ہندوستان کی قصیدہ خوانی کی گئی ہے، جس میں آج کے ہندوستان، پاکستان اور بنگلہ دیش شامل تھے۔

یہ نظم ترانہ ہندی کے طور پر زیادہ مقبول ہے۔اقبال اس وقت گورنمنٹ کالج لاہور میں لکچرر تھے اور لالہ ہردیال نامی طالب علم نے ان کو ایک پروگرام کی صدارت کرنے کے لےے مدعو کیا تھا۔ خطاب کرنے کی جگہ اقبال نے اس موقع پر ”سارے جہاں سے اچھا....“ گایا۔ اس نظم میں ہندوستانی سرزمین سے لگاﺅ کا اظہار کیا گیا ہے۔ 1905میں جب اقبال محض27سال کے تھے، تبھی انہوں نے برعظیم کے سماج کو کثیرثقافتی اور ملے جلے معاشرہ کے طور پر دیکھا تھا۔

”راشٹریہ گان“ اور علامہ اقبال کا قومی ترانہ آج کی تحریر میں کیوں شامل کیا گیا، کچھ حد تک تو قارئین کو اندازہ ہوگیا ہوگا۔ ہاں، ابھی مکمل وضاحت کی ضرورت ہے، لہٰذا آج کی یہ تحریر ادھوری ہے، کل بھی گفتگو اسی پس منظر میں ہوگی تاہم اتنا کہہ دینا ضروری ہے کہ جن کا سب کچھ تھا، زبان بھی، ترانہ تھا، انہوں نے کبھی یہ رُخ اختیار نہیں کیا جو آج مراٹھی اور مراٹھا کے نام پر دیکھنے کو مل رہا ہے۔ اب تقسیم وطن یا پاکستان کے قیام کی مثال مت دیجئے گا، اس لےے کہ ہم ہی نہیں جسونت سنگھ سے لے کر بال ٹھاکرے تک جناح کے بارے میں بہت کچھ کہہ چکیں اور اگر پاکستان جناح کی دین ہے تو پھر پاکستان کے وجود میں آنے کی وجہ کو بھی سمجھا جاسکتا ہے۔............................(جاری)

Wednesday, October 7, 2009

तो मुंबई में लागू होगा परमिट सिस्टम!




किसी भी व्यक्ति का बात करने का अंदाज़ और उसकी ज़बान, उसके व्यक्तित्व का आईना होती है, जिससे उसके मिजाज़ और परिवारिक पृष्ठभूमि को समझा जा सकता है। अपने इस लेख में अगले कुछ वाक्य जो मैं लिखने जा रहा हूं, वह मेरे लेख का हिस्सा अवश्य हैं परन्तु उनका संबंध मुझ से नहीं है। यह देश के एक प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ की ज़बान है, जो उन्होंने अपने अख़बार में प्रयोग की हैः‘‘कांग्रेस और राष्ट्रवादी के हरामखोरों ने महाराष्ट्र का जो सत्यानाश किया है, जनता के जीवन को जिस तरह से नष्ट किया है, उसे सुधारने के लिए शिवसेना-भारतीय जनता पार्टी के हरीश चंद्र के हाथ में सत्ता की चाबी सौंपनी ज़रूरी है।

गांधी जी कहा करते थे कि हिंदुस्थान को दुनिया भर के बेसहारों और दलितों का आश्रय स्थान बनना चाहिए। हिंदुस्थान वैश्विक धर्मशाला बन चुका है। इस धर्मशाला में हिंदुस्थानियों की अपेक्षा बांग्लादेशी और पाकिस्तान प्रेमियों की आबादी ज़्यादा हो गई है। शिवराय के महाराष्ट्र की हालत कुछ ज़्यादा ही दयनीय है। धर्मशाला में भी किसी मालिक की अनुमति की आवश्यकता होती है। मुंबई और महाराष्ट्र को ‘‘आओ-जाओ घर अपना’’ है वाली धर्मशाला बना दी गई है। मुंबई की छाती पर बांग्लादेशी सवार हो गए हैं।

इसलिए हमारा पक्का इरादा है कि सरकार में आने पर हम मुंबई में परमिट सिस्टम लागू करेंगे। .................................................................... कांग्रेसवालों ने महाराष्ट्रवासियों को फोड़कर सत्ता पर कब्ज़ा करने का स्वप्न संजोया है। उसके लिए मनसे जैसी नालायक औलाद को हाथ में लेकर राजकरण का गजकर्ण चलाया गया है। यह गजकर्ण मुस्लिम लीग की अपेक्षा ज़्यादा भयंकर है। मुस्लिम लीग और उसके मोहम्मद अली जिन्ना ने धर्म के नाम पर खुल्लम-खुल्ला पाकिस्तान बनाया। देश तोड़ा, खून की नदियां बहाई और हमेशा-हमेशा के लिए हिंदुस्थान के हिंदुओं को दुखी और अस्थिर किया।

अंग्रेज़ों ने जिन्ना की खोपड़ी में ज़हर घोलकर उसके हाथ में कुल्हाड़ी सौंप दी। उस कुल्हाड़ी से हिंदुस्थान के दो टुकड़े कर दिए गए। कांग्रेसवाले महाराष्ट्र और मराठी माणुस के लिए वही बंटवारे का बीज बो चुके हैं। उस समय मोहम्मद अली जिन्ना था, इधर घरवाला ही जिन्ना है।’’यह इबारत थी महाराष्ट्र मुम्बई से प्रकाशित होने वाले मराठी और हिन्दी अख़बार ‘‘दोपहर का सामना’’ के सम्पादकीय की, जिसके सर्वेसर्वा हैं बाला साहब ठाकरे। वही बाला साहब ठाकरे जो शिवसेना के सुप्रीमो भी हैं। वह कांग्रेस या एन।सी.पी के लिए क्या दृष्टिकोण रखते हैं, यह कांग्रेस ओर एन.सी.पी वाले जानें या वह जानें, हमें इस पर कुछ नहीं कहना।

बाल ठाकरे अपने भतीजे राज ठाकरे को जो चाहे कहें, यह उनका घरेलू मामला है। जैसाकि स्वयं अपने लेख में उन्होंने उसे घरवाला कहा है, परन्तु यदि राज ठाकरे को जिन्ना कहा जाएगा तो फिर हमें इतिहास के दामन में झांक कर देखना होगा। देश के विभाजन की परिस्तिथियों पर ग़ौर करना होगा। मोहम्मद अली जिन्ना की कार्यप्रणाली पर ग़ौर करना होगा। मोहम्मद अली जिन्ना की भूमिका पर नज़र डालनी होगी और बाल ठाकरे के अनुसार आज के जिन्ना यानी राज ठाकरे के किरदार को समझना होगा। पिछले दो दिनों में इसपर बहुत कुछ लिखा है, आगे भी लिखने की आश्यकता हो सकती है।

इस बीच एनडी टी.वी. ने भी अपने विशेष कार्यक्रम में इस मुद्दे को उठाया है अतः आज के इस लेख में जिन्ना के सन्दर्भ में कही गई बात पर बहस नहीं करनी है बल्कि इस लेख में जो अन्य बातें कही गई हैं उस पर पाठकगण का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। हमने भाषा का उल्लेख इसलिए किया था कि इससे सामने वाले के चरित्र को समझने का अवसर मिलता है। अगर यह सामने वाला कोई साधारण व्यक्ति है तब हम उसकी बात को अनदेखा कर सकते हैं। उस पर अधिक ध्यान देने या बहस की आवश्यकता महसूस नहीं करते, लेकिन यदि वह व्यक्ति हमारा नेता बनने का दावा करता हो, राज्य का सर्वेसर्वा बनने का इच्छुक हो तब हमें ध्यान देना आवश्यक लगता है, इसलिए कि हम अपना भविष्य ऐसे अशिष्ठ व्यक्ति के हाथों में कैसे सौंप सकते हैं जिसे बात करने का सलीका भी न हो जो कुछ भी कहा गया इस सम्पादकीय में उसका भावार्थ तो वही रह सकता था हां मगर भाषा सुसंस्कृत हो सकती थी।

बंग्लादेशियों और पाकिस्तान से प्यार करने वालों का सन्दर्भ किनके लिए और क्यों दिया गया है यह भी किसी से छुपा नहीं है इसका उल्लेख भी हम ज़रा आगे चलकर करेंगे। इस समय जिस विशेष बात पर ध्यान दिलाना आवश्यक है वह यह है कि अगर सत्ता में आए तो हमारा पक्का इरादा कि हम मुम्बई मं परमिट सिस्टम लागू करेंगे, अर्थात अपने ही देश में एक शहर से दूसरे शहर जाने के लिए अर्थात देश के किसी भी भाग से मुम्बई में प्रवेश करने के लिए परमिट की आवश्यकता होगी। दूसरे शब्दों में देश के अन्दर ही एक और पासपोर्ट दरकार होगा।

इस बात का सम्बन्ध किसी धर्म, जाति या साम्प्रदाय से नहीं बल्कि उन तमाम भारतीयों से है जबकि मुम्बई को मुम्बई बनाने में, मुम्बई को भारत की आर्थिक राजधानी बनाने के लिए बहुतों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हम बेहद सम्मान के साथ बाल ठाकरे साहब की सेवा में यह निवेदन करना चाहते हैं कि मुम्बई ही नहीं पूरे भारत का सबसे बड़ा व्यापारी परिवार मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी मुम्बई में रहते हैं लेकिन धीरूभाई अम्बानी का सम्बन्ध गुजरात से था। टेªजिडी किंग दिलीप कुमार उर्फ यूसुफ खांन और कपूर परिवार पेशावर से आकर मुम्बई में बसें। धर्मेन्द्र, सुनील दत्त और विनोद खन्ना इन सभी का सम्बन्ध पंजाब से था। दुनिया भर में अपनी ताकत का लोहा मनवाने वाले दारा सिंह भी इसी धरती से सम्बन्ध रखते थे।

बोलीवुड के शहंशाह अमिताभ बच्चन का परिवार उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद से सम्बन्ध रखता है तो बादशाह अर्थात शाहरूख खांन का सम्बन्ध दिल्ली से है। वेजयंती माला और रेखा से लेकर रानी मुखर्जी, सुष्मिता सैन, ऐश्वर्या राॅय तक सभी पश्चिम बंगाल या दक्षिण भारत से आने वाली अभिनेत्रियां हैं। फीरोज़ खांन,संजय खांन,समीर खांन, अकबर खांन इन सबका सम्बन्ध बंगलौर से है तो अपनी अदाकारी का लौहा मनवाने वाली जयाप्रदा और तब्बू आंध्रा प्रदेश से हैं। मोहम्मद रफी नौशाद जैसे नामों में से कोई भी मराठी नहीं।

अगर इन सबको अलग कर दें तो मुम्बई में क्या रह जाता है? जो सम्मान दौलत और शोहरत कमाकर उन्होंने और उन जैसे व्यक्तियों ने मुम्बई को दी और विश्व के मानचित्र पर एक प्रतिष्ठित नाम बनाया आखिर वह उनके सिवा कौन लोग हैं जिनका नाम लिया जा सके? ठाकरे के परिवार या भारतीय जनता पार्टी के नेतागण जिनमें नरेन्द्र मोदी जैसे नाम आज सबसे अधिक उल्लेखनीय हैं उन्हें किस रूप में देखा जाता है, यह किससे छुपा है क्या यह वही नरेन्द्र मोदी नहीं हैं जिन्हें गुजरात दंगों के बाद मुख्यमंत्री रहते हुए भी अमेरिका और इंग्लैण्ड में प्रवेश की अनुमति नहीं दी गई थी।

बाल ठाकरे, उद्धव ठाकरे, राज ठाकरे राष्ट्रीय और अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर किन बतों के लिए लोकप्रिय हैं यह दुनिया जानती है। उन्होंने मुम्बई को मुम्बई बनाने में कौन सी भूमिका निभाई है यह श्रीकृष्णा कमीशन की रिपोर्ट में साफ-साफ दर्ज है। चन्द पंक्तियां सन्दर्भ के रूप में पेश हैंः-1- 22 जून 1997 को श्रीकृष्णा कमीशन को मोहित नाम के व्यक्ति ने अपने बयान में कहा कि फोन काल्स के कारण मेरी और शिवसेना चीफ की बात में रूकावट पड़ रही थी वह एक साथ कई फोन पर बोल रहे थे, और जैसा मैंने सुना और समझा, वह सेना के कार्यकर्ताओं को मुसलमानों पर हमला करने का आदेश दे रहे थे मराठी में उन्होंने ‘‘सरला नडिया ना मारून टाका’’ कहा फोन करने वाले को निर्देश दिया कि ध्यान रहे कि कोई भी मुसलमान अदालत में गवाही देने के लिए जिन्दा न बचने पाये।2-कमीशन की रिपोर्ट कहती है कि ‘‘8 जनवरी 1993 से इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि मुसलमानों और उनकी सम्पत्तियों पर सुनियोजित ढंग से हमला करने में शिवसेना और शिवसैनिकों ने मुख्य भूमिका निभाई और यह सबकुछ पार्टी के कई नेताओं शाखा प्रमुख से लेकर शिवसेना प्रमुख की निगरानी में हुआ।

सेनाप्रमुख ने एक तजुर्बेकार जनरल की तरह अपने वफादार शिवसैनिकों को मुसलमानों पर सुनियोजित ढंग से हमले के द्वारा बदला लेने का आदेश दिया। शिवसेना के द्वारा साम्प्रदायिक दंगे भड़काए गए और उसका प्रयोग अपराधी तत्वों ने एक अवसर के रूप में किया जब तक शिवसेना यह जान पाई कि बदले के नाम पर बहुत कुछ किया जा चुका है तब तक स्थितियां उनके लीडरों के काबू से बाहर हो गई थीं और उनके नेताओं को इसे समाप्त करने की अपील करनी पड़ी’’।3-कमीशन यह शामिल करना नहीं भूली ‘‘यहां तक कि जब यह स्पष्ट हो गया कि शिवसेना के नेता ही साम्प्रदायिक दंगे की आग लगाने में शामिल रहे हैं तब पुलिस ने कहा कि अगर ऐसे नेताओं को हिरासत में लिया जाता है तो साम्प्रदायिक स्थितियां और भी बदतर हो सकती हैं और मुख्यमंत्री सुधाकर राव नायक के शब्दों में कहें तो ‘बोम्बे में आग लग जाएगी’

जैसा कि हमने अपने कल के लेख में लिखा था कि भारतीय जनता पार्टी और शिवेसना के प्रदर्शन को सामने रखने के लिए हमारे पास गुजरात दंगे और श्रीकृष्णा कमीशन की रिपोर्ट में दर्ज ऐसी अनेक घटनाएं हैं जिनसे इन पार्टियों के स्वभाव को समझा जा सकता है, लेकिन मैं आज के और आने वाले कल के लेख में यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि वास्तव में मुस्लिम दुश्मनी के नाम पर हिन्दुत्व का ढिंढोरा पीटने वाली यह पार्टियां हिन्दुओं की प्रतिनिधि पार्टियां हो ही नहीं सकतीं बल्कि जहां उन्होंने एक तरफ मुसलमानों के नरसंहार और उन पर किये जाने वाले अत्याचारों के कारण उनके दिलों में घृणा और नाराज़गी पैदा की है वहीं हिन्दु भाईयों को भी कुछ कम कष्ट नहीं दिये हैं।

इस मानसिकता ने जो पहला कत्ल किया वह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का था जो हिन्दू थे। सारे भारत में स्वयं को कट्टर हिन्दुवादी बताकर हिन्दु भाईयों का नाम अपने साथ जोड़कर कभी हिन्दु-मुस्लिम, कभी हिन्दू-सिख तो हिन्दू ओर ईसाई के बीच खाई पैदा करते रहे। पंजाब में जो कुछ हुआ वह हिन्दू और मुसलमानों के बीच नहीं हिन्दुओं और सिखों के बीच था। उड़ीसा और कर्नाटक में जो गिरजाघर जलाये गये उससे हिन्दू और ईसाइयों के बीच खाई पैदा हुई। बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात दंगों ने हिन्दु और मुसलमानों के बीच नफरत की दीवार खड़ी की। क्या यह सब देश की प्रगति और शांति में कारगर साबित हो सकता है?

नहीं बिल्कुल नहीं..........बल्कि यह सोच, यह मानसिकता देश की प्रगति में सबसे बड़ी रूकावट है। हिन्दु और मुसलमान के बीच, अर्थात भाई-भाई के बीच यह नफरत का सबसे बड़ा कारण है। आज जब दुनिया की बड़ी ताक़तें फिर से हमें अपना ग़ुलाम बनाने की कोशिशों में लगी हुई हैं, आज जबकि हमारे अपने पड़ोसियों से रिश्ते बहुत खुशगवार नहीं हैं, आज जब हम आतंकवाद के साए में जीने को विवश हो गए हैं, ऐसे में अपनी राजनीति के लिए नफ़रत के बीज बोने वालों को न तो इतिहास कभी मांफ करेगा और न आज हमें उनके धोखे में आना चाहिए।

दरअसल यह वही लोग हैं, यह वही मानसिकता है, जिसने पहले भी इस देश के टुकड़े किए और आज अलगाववादी मिजाज़ पैदा करके राज्यों को सरहदों की दीवारों में बांट देने के षड़यंत्र रच रहे हैं। उनका नाम कभी जिन्ना होता है तो कभी कोई ठाकरे हिदुस्तान की अखंडता और राष्ट्रीय एकता को हानि पहुंचाने के लिए सामने आ जाता है हमें इन चेहरों को धर्म के अधार पर नहीं देखना चाहिए। क्षेत्रीयता या भाषा के हवाले से भी नहीं देखना चाहिए। आवश्यकता है तो केवल और केवल उन्हें उनके चरित्र और मानसिकता से पहचानने की।

एक अंतिम वाक्य लिखकर मैं आज के इस लेख को समाप्त करता हूं कि पूरी दुनिया में कश्मीरियों के पृथकतावाद की चर्चा है, मगर कश्मीर की सीमा में प्रवेश करने के लिए परमिट सिस्टम की बात तो इस राज्य के किसी ऐसे जिम्मेदार ने भी नहीं की जिसका कद शिवसेना के चीफ जैसा हो और जो राज्य में सत्ता में आने का दावेदार हो। अतः इस बात को यूंही अनदेखा नहीं किया जा सकता क्योंकि इसका सम्बन्ध हर भारतीय से है। भारत की अखण्डता से है, साम्प्रदायिक सदभव से, राष्ट्रीय एकता से है।



کسی بھی شخص کا انداز گفتگو اور اس کی زبان، اس کی شخصیت کا آئینہ ہوتی ہے، جس سے اس کے مزاج اور خاندانی پس منظر کو سمجھا جاسکتا ہے۔ اپنی اس تحریر میں اگلے چند جملے جو میں لکھنے جارہا ہوں، وہ میری تحریر کا حصہ ضرور ہیں، مگر ان کا تعلق مجھ سے نہیں ہے۔ یہ ملک کے ایک نامور سیاستداں کی زبان ہے، جو انہوں نے اپنے اخبار میں استعمال کی ہے۔”کانگریس اور راشٹروادی کے حرام خوروں نے مہاراشٹر کا جو ستیاناس کیا ہے۔ جنتا کے جیون کو جس طرح سے نشٹ کیا ہے(عوام کی زندگی کو جس طرح برباد کیا ہے)، اسے سدھارنے کے لےے شیوسینا، بھارتیہ جنتا پارٹی کے ہریش چندر کے ہاتھ میں ستا کی چابی سونپنی ضروری ہے۔

گاندھی جی کہا کرتے تھے کہ ہندواستھان کو دنیا بھر کے بے سہاروں اور دلتوں کا آشرے استھان بننا چاہےے۔ ہندواستھان ویشوک دھرم شالہ بن چکا ہے۔ اس دھرم شالہ میں ہندواستھانیوں کی اپیکشا (کی بہ نسبت) بنگلہ دیشی اور پاکستان پریمیوں کی آبادی زیادہ ہوگئی ہے۔ شیورائے کے مہاراشٹر کی حالت کچھ زیادہ ہی دےنیےے (قابل رحم) ہے۔ دھرم شالہ میں بھی کسی مالک کی انومتی (اجازت) کی آوشیکتا (ضرورت) ہوتی ہے۔ ممبئی اور مہاراشٹر کو آﺅ جاﺅ، گھر اپنا ہے والی دھرم شالہ بنادی گئی ہے۔ ممبئی کی چھاتی پر بنگلہ دیشی سوار ہوگئے ہیں، اس لےے ہمارا پکا ارادہ ہے کہ سرکار میں آنے پر ہم ممبئی میں پرمٹ سسٹم لاگو کریں گے............ ................ کانگریس والوں نے مہاراشٹر واسیوں کو توڑ کر ستا پر قبضہ کرنے کا سوپن (خواب) سنجویا ہے۔ اس کے لےے منسے جیسی نالائق اولاد کو ہاتھ میں لے کر راج کرن (اقتدار) کا گج کرن (ہتھیار) چلایا ہے۔

یہ گج کرن مسلم لیگ کی اپیکشا(بہ نسبت) زیادہ بھینکر (خطرناک) ہے۔ مسلم لیگ اور اس کے محمد علی جناح نے دھرم کے نام پر کھلم کھلا پاکستان بنایا ہے۔ دیش کو توڑا، خون کی ندیاں بہائیں اور ہمیشہ ہمیشہ کے لےے ہندواستھان کے ہندوو¿ں کو دکھی اور آاِستھر (غیرمستحکم) کیا۔ انگریزوں نے جناح کی کھونپڑی میں زہر گھول کر اس کے ہاتھ میں کلہاڑی سونپ دی۔ اس کلہاڑی سے ہندوستان کے دو ٹکڑے کر دئےے گئے۔ کانگریس والے مہاراشٹر اور مراٹھی مانس کے لےے وہی بٹوارے کے بیج بو چکے ہیں۔ اس سمے (وقت) محمد علی جناح تھا، ادھر گھر والا ہی جناح ہے۔“یہ عبارت تھی مہاراشٹر ممبئی سے شائع ہونے والے مراٹھی اور ہندی اخبار ”دوپہر کا سامنا“ کے ادارےے کی، جس کے سروے سروا ہےں بالا صاحب ٹھاکرے۔ وہی بالا صاحب ٹھاکرے جو شیوسینا کے سپریمو بھی ہیں۔ وہ کانگریس یا این سی پی کے لےے کیا نظریہ رکھتے ہیں، یہ کانگریس اور این سی پی والے جانیں یا وہ جانیں، ہمیں اس پر کچھ نہیں کہنا۔ بال ٹھاکرے اپنے بھتیجے راج ٹھاکرے کو جو چاہے کہےں، یہ ان کا گھریلو معاملہ ہے۔

جیسا کہ خود اپنی تحریر میں انہوں نے اسے گھروالا قرار دیا ہے، مگر اگر راج ٹھاکرے کو جناح کہا جائے گا تو پھر ہمیں تاریخ کے دامن میں جھانک کر دیکھنا ہوگا۔ تقسیم وطن کے حالات پر غور کرنا ہوگا۔ محمد علی جناح کے عمل پر غور کرنا ہوگا۔ محمد علی جناح کے رول پر نظرثانی کرنی ہوگی اور آج کے جناح بقول بال ٹھاکرے یعنی راج ٹھاکرے کے کردار کو سمجھنا ہوگا۔ گزشتہ دوروز میں اس پر کافی کچھ لکھا ہے، آئندہ بھی لکھنے کی ضرورت پڑسکتی ہے، اس درمیان ”این ڈی ٹی وی“ نے بھی اپنے خاص پروگرام میں اس ایشو کو اٹھایا ہے، لہٰذا آج کی اس تحریر میں جناح کے حوالے سے کہی گئی بات پر بحث نہیں کرنا ہے، بلکہ اس تحریر میں جو دیگر باتیں کہی گئی ہیں اس پر قارئین کرام کی توجہ دلانا چاہتے ہیں۔ ہم نے زبان کا ذکر اس لےے کیا تھا کہ اس سے سامنے والے کے کردار کو سمجھنے کا موقع ملتا ہے۔

اگر یہ سامنے والا کوئی عام انسان ہے، تب ہم اس کی بات کو نظرانداز کرسکتے ہیں۔ اس پر زیادہ توجہ یا بحث کی ضرورت محسوس نہیں کرتے، لیکن وہی شخص اگر ہمارا رہنما بننے کا دعویٰ کرتا ہو، ریاست کا سربراہ بننے کا خواہاں ہو، تب ہمیں غور کرنا ضروری لگتا ہے، اس لےے کہ ہم اپنا مستقبل کسی ایسے بداخلاق شخص کے ہاتھوں میں کیسے سونپ سکتے ہیں، جسے بات کرنے کا سلیقہ بھی نہ ہو، جو کچھ بھی کہا گیا اس ادارےے میں اس کا مفہوم تو وہی رہ سکتا تھا، ہاں مگر زبان شائستہ ہوسکتی تھی۔ بنگلہ دیشیوں اور پاکستان سے محبت کرنے والوں کا حوالہ کن کے لےے اور کیوں دیا گیا ہے، یہ بھی کسی سے چھپا نہیں ہے۔ اس کا ذکر بھی ہم ذرا آگے چل کر کریں گے۔ اس وقت جس خاص بات پر توجہ دلانا ضروری ہے، وہ یہ ہے کہ اگر برسراقتدار آئے تو ہمارا پکا ارادہ کہ ہم ممبئی میں پرمٹ سسٹم لاگو کریں گے، یعنی اپنے ہی ملک میں ایک شہر سے دوسرے شہر جانے کے لےے یعنی ملک کے کسی بھی حصہ سے ممبئی میں داخل ہونے کے لےے پرمٹ کی ضرورت ہوگی۔

بالفاظ دیگر ملک کے اندر ہی ایک اور پاسپورٹ درکار ہوگا۔ اس بات کا تعلق کسی مذہب، ذات یا فرقہ سے نہیں، بلکہ ان تمام ہندوستانیوں سے ہے جبکہ ممبئی کو ممبئی بنانے میں، ممبئی کو ہندوستان کی اقتصادی راجدھانی بنانے کے لےے بہتوں نے اہم کردار ادا کیا ہے۔ ہم بے حد ادب کے ساتھ بال ٹھاکرے صاحب کی خدمت میں عرض کرنا چاہتے ہیں کہ ممبئی ہی نہیں، پورے ہندوستان کا سب سے بڑا تاجر گھرانہ مکیش امبانی اور انل امبانی ممبئی میں رہتے ہیں، لیکن دھیروبھائی امبانی کا تعلق گجرات سے تھا۔ شہنشاہِ جذبات دلیپ کمار عرف یوسف خان اور کپور خاندان پشاور سے آکر ممبئی میں بسے۔ دھرمیندر، سنیل دت اور ونودکھنہ ان سبھی کا تعلق پنجاب سے تھا۔ دنیا بھر میں اپنی طاقت کا لوہا منوانے والے داراسنگھ بھی اسی زمین سے تعلق رکھتے تھے۔

بالی ووڈ کے شہنشاہ امیتابھ بچن کا خاندان اترپردیش کے الٰہ آباد سے تعلق رکھتا ہے تو بادشاہ خان یعنی شاہ رُخ خان کا تعلق دہلی سے ہے۔ وجینتی مالا اور ریکھا سے لے کر رانی مکھرجی، سشمتا سین، ایشوریہ رائے تک سبھی مغربی بنگال یا جنوبی ہند سے آنے والی اداکارائیں ہیں۔ فیروز خان، سنجے خان، سمیرخان، اکبرخان ان سب کا تعلق بنگلور سے ہے تو اپنی اداکاری کا لوہا منوانے والی جیہ پردا اور تبو آندھراپردیش سے ہیں۔ محمد رفیع، نوشاد جیسے ناموں میں سے کوئی بھی مراٹھی نہیں۔ اگر ان سب کو الگ کردیں تو ممبئی میں کیا رہ جاتا ہے؟ جو عزت، دولت اور شہرت کماکر انہوں نے اور ان جیسی شخصیتوں نے ممبئی کو دیں اور دنیا کے نقشہ پر ایک باحیثیت نام بنایا، آخر وہ ان کے سواکون لوگ ہیں، جن کا نام لیا جاسکے؟ ٹھاکرے کے خاندان یا بھارتیہ جنتا پارٹی کے لیڈران، جن میں نریندر مودی جیسے نام آج سرفہرست نظر آتے ہیں، انہیں کس روپ میں دیکھا جاتا ہے، یہ کسی سے چھپا ہے؟

کیا یہ وہی نریندر مودی نہیں ہیں، جنہیں گجرات فسادات کے بعد وزیراعلیٰ رہتے ہوئے بھی امریکہ اور انگلینڈ میں داخلہ کی اجازت نہیں دی گئی تھی۔ بال ٹھاکرے، اودھو ٹھاکرے، راج ٹھاکرے قومی اور بین الاقوامی سطح پر کن باتوں کے لےے مقبول ہیں، یہ زمانہ جانتا ہے۔ انہوں نے ممبئی کو ممبئی بنانے میں کون سا کردار نبھایا ہے، یہ شری کرشن کمیشن کی رپورٹ میں صاف صاف درج ہے۔ چند سطریں بطور حوالہ پیش خدمت ہیں:

(1)22جون 1997کو شری کرشنا کمےشن کوموہت نام کے شخص نے اپنے بےان مےں کہا کہ فون کالس کے سبب مےری اور شےوسےنا چےف کی بات مےں رخنہ پڑرہاتھا۔وہ اےک ساتھ کئی فون پر بول رہے تھے اور جےسا مےں نے سنا اور سمجھا ۔ وہ سےنا کے کارکنوں کو مسلمانوں پر حملہ کرنے کے لئے حکم دے رہے تھے۔ مراٹھی مےں انہوں نے ’سرلا نڈےا نامارون ٹاکا‘ کہا۔ فون کرنے والے کو ہداےت دی کہ خےال رہے کوئی بھی مسلمان عدالت مےں گواہی دےنے کے لئے زندہ نہ بچنے پائے۔(2)کمےشن کی رپورٹ کہتی ہے کہ ”8جنوری 1993سے اس بات مےں کوئی شک نہےں ہے کہ مسلمانوں اور ان کی املاک پر منظم انداز مےں حملہ کرنے مےں شےوسےنا اور شےوسےنکوں نے کلےدی رول ادا کےا اور ےہ سب کچھ پارٹی کے کئی لےڈروں شاکھا پرمکھ سے لے کر شےوسےنا پر مکھ کی نگرانی مےں ہوا۔

سےنا پرمکھ نے اےک تجربہ کار جنرل کی طرح اپنے وفادار شےوسےنکوں کو مسلمانوں پر منظم انداز مےں حملے کے ذرےعہ بدلہ لےنے کا حکم دےا۔ شےوسےنا کے ذرےعہ فرقہ وارانہ فسادات بھڑکائے گئے اور اس کا استعمال جرائم پےشہ افراد نے اےک موقع کے طور پر کےا۔ جب تک شےوسےنا ےہ جان پائی کہ بدلے کے نام پر بہت کچھ کےا جاچکاہے تب تک حالات ان کے لےڈروں کے قابو سے باہر ہوگئے تھے اور ان کے لےڈروں کو اسے ختم کرنے کی اپےل کرنی پڑی۔“(3)کمشن ےہ شامل کرنا نہےں بھولا ” ےہاں تک کہ جب ےہ واضح ہو گےا کہ شےوسےنا کے لےڈران ہی فرقہ وارانہ فساد کی آگ لگانے مےں شامل رہے ہےں، تب پولس نے کہا کہ اگر اےسے لےڈران کو حراست مےں لےا جاتا ہے تو فرقہ وارانہ حالات اور بھی بدتر ہوسکتے ہےں اور وزےراعلیٰ سدھا کر راﺅ نائک کے لفظوں مےں کہےں تو ’بامبے مےں آگ لگ جائے گی‘ ۔جیسا کہ ہم نے اپنی کل کی تحریر میں لکھا تھا کہ بھارتیہ جنتا پارٹی اور شیوسینا کی کارکردگی کو سامنے رکھنے کے لےے ہمارے پاس گجرات فسادات اور شری کرشن کمیشن کی رپورٹ میں درج ایسے متعدد واقعات ہیں، جن سے ان پارٹیوں کے مزاج کوسمجھا جاسکتا ہے، لیکن میں اپنی آج کی اور آنے والے کل کی تحریر میں یہ واضح کردینا چاہتا ہوں کہ دراصل مسلم دشمنی کے نام پر ہندوتو کا ڈھنڈورا پیٹنے والی یہ پارٹیاں ہندوو¿ں کی نمائندہ پارٹیاں ہوہی نہیں سکتیں، بلکہ جہاں انہوں نے ایک طرف مسلمانوں کے قتل عام اور ان پر کےے جانے والے مظالم کی وجہ سے ان کے دلوں میں نفرت اور ناراضگی پیدا کی ہے، وہیں ہندوبھائیوں کو بھی کچھ کم اذیتیں نہیں پہنچائی ہیں۔ اس ذہنیت نے جو پہلا قتل کیا، وہ راشٹرپتا مہاتما گاندھی کا تھا، جو ایک ہندو تھے۔ سارے ہندوستان میں خود کو کٹرہندووادی بتاکر ہندوبھائیوں کا نام اپنے ساتھ جوڑ کر کبھی ہندو-مسلم، کبھی ہندو-سکھ تو کبھی ہندواورعیسائی کے درمیان خلیج پیدا کرتے رہے۔

پنجاب میں جو کچھ ہوا، وہ ہندو اور مسلمانوں کے درمیان نہیں، ہندوو¿ں اورسکھوں کے درمیان تھا۔اڑیسہ اور کرناٹک میں جو گرجاگھر نذرآتش کےے گئے، اس سے ہندوﺅں اور عیسائیوں کے درمیان خلیج پیدا ہوئی۔ بابری مسجد سانحہ اور گجرات فسادات نے ہندوو¿ں اور مسلمانوں کے درمیان نفرت کی دیوار کھڑی کی۔ کیا یہ سب کچھ ملک کی ترقی اور امن و امان میں کارگر ثابت ہوسکتا ہے؟ نہیں، قطعاً نہیں.... بلکہ یہ سوچ، یہ ذہنیت ملک کی ترقی میں سب سے بڑی رکاوٹ ہے۔ ہندو اور مسلمان کے درمیان، یعنی بھائی بھائی کے درمیان یہ نفرت کی سب سے بڑی وجہ ہے۔ آج جب دنیا کی بڑی طاقتیں پھر سے ہمیں اپنا غلام بنانے کی کوششوں میں مصروف ہیں، آج جبکہ ہمارے اپنے پڑوسیوں سے رشتے بہت خوشگوار نہیں ہیں، آج جب ہم دہشت گردی کے سائے میں جینے کو مجبور ہوگئے ہیں، ایسے میں اپنی سیاست کے لےے نفرت کے بیج بونے والوں کو نہ تو تاریخ کبھی معاف کرے گی اور نہ آج ہمیں ان کے جھوٹے فریب میں آنا چاہےے۔

دراصل یہی وہ لوگ ہیں، یہی وہ ذہنیت ہے، جس نے پہلے بھی اس ملک کے ٹکڑے کےے اور آج علیحدگی پسندی کا مزاج پیدا کرکے ریاستوںکو سرحد کی دیواروں میں بانٹ دینے کی سازشیں رچ رہی ہیں۔ ان کا نام کبھی جناح ہوتا ہے تو کبھی کوئی ٹھاکرے ہندوستان کی سالمیت اور قومی یکجہتی کو نقصان پہنچانے کے لےے سامنے آجاتا ہے۔ ہمیں ان چہروں کو مذہب کی بنیادوں پر نہیں دیکھنا چاہےے۔ علاقائیت یا زبان کے حوالہ سے بھی نہیں دیکھنا چاہےے، ضرورت ہے تو صرف اور صرف انہیں ان کے کردار اور ان کی ذہنیت سے انہیں پہچاننے کی۔

ایک آخری جملہ لکھ کر میں اپنی آج کی اس تحریر کو ختم کرتا ہوں کہ تمام دنیا میں کشمیریوں کی علیحدگی پسندی کا چرچا ہے، مگر کشمیر کی سرحد میں داخل ہونے کے لےے پرمٹ سسٹم کی بات تو اس ریاست کے کسی ایسے ذمہ دار نے بھی نہیں کی، جس کا قد شیوسینا کے سربراہ جیسا ہو اور جو ریاست میں برسراقتدار آنے کا دعویدار ہو، لہٰذا اس بات کو یونہی نظرانداز نہیں کیا جاسکتا کیوں کہ اس کا تعلق ہر ہندوستانی سے ہے۔ ہندوستان کی سالمیت سے ہے، فرقہ وارانہ ہم آہنگی سے ہے، قومی یکجہتی میں ہے۔