सवाल सियासत का नहीं, राष्ट्रीय एकता का है
13 अक्टूबर को तीन राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव हमारे लिये पिछले संसदीय चुनावों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। संसदीय चुनावों के बीच हमने जो भी लिखा उसमें प्रयास रहा था कि देश पर राज करने के लिए एक ऐसी सरकार अस्तित्व में आए जो सबको साथ लेकर चलने वाली हो, जो धर्म और जाति से ऊपर उठकर काम कर सके, इसमें हमें बहुत हद तक सफलता भी प्राप्त हुई, वास्तव में हमारा उद्देश्य किसी भी दल का समर्थन या विरोध नहीं था और इस समय भी नहीं है, मगर हां लोकतांत्रिक मूल्यों पर चलने वाले हमारे देश में साम्प्रदायिकता के लिए कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए और जातिवाद का विरोध भी इस आधार पर किया जाना चाहिए कि अगर हमने क्षेत्र, भाषा या जाति पर आधारित राजनीति को महत्व देना शुरू कर दिया तो देश एक रहते हुए भी फिर छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित नज़र आएगा जैसा कि पूर्व में छोटे-छोटे राज्य हुआ करते थे।
अतः हम चाहेंगे कि पार्टी कोई जीते कोई हारे सबका स्वभाव धर्मनिर्पेक्ष हो और वो समाज के हर वर्ग को साथ लेकर चलने का इरादा रखती हो, आज अगर कोई इस श्रेणी में आता है तो हमारी बात उसके पक्ष में जा सकती है और जो इस श्रेणी में नहीं आता उसके पक्ष में नहीं हो सकती लेकिन हम जो कुछ कह रहे हैं वह वास्तव में भारत का संविधान कहता है, भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था कहती है, चुनाव आयोग की आचार सहिंता कहती है।
जैसा कि हमने अपने लेख के आरंभ में ही यह निवेदन किया है कि हमारे लिए वर्तमान राज्य चुनाव पिछले संसदीय चुनावों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं तो इसका कारण है अरूणाचल प्रदेश और महाराष्ट्र। चुनाव तो हरियाणा में भी हैं मगर हम उसके लिए अधिक चिंतित नहीं हैं इसलिए कि वहां बात केवल और केवल राजनीती और सत्ता की है। वहां कोई इतना बड़ा मुद्दा हमें दिखाई नहीं देता जिसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर जनता को चिंतित होने की आवश्यकता हो, लेकिन अरूणाचल प्रदेश और महाराष्ट्र के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है।
अरूणाचल प्रदेश वह सरहदी राज्य है जिस पर शुरू से ही चीन की नज़र है। 1959 में तिब्बत पर कब्ज़ा कर लेने के बाद से चीन के हौंसले बढ़े हुए हैं और 1962 के युद्ध में भारत पर हमला करके नेफा के कई क्षेत्रों पर चीन पहले ही कब्ज़ा कर चुका है। चीन अरूणाचल प्रदेश में किसी भी तरह की राजनीतिक सरगर्मी का कट्टर विरोधी रहा है और है।
पिछले असेंबली चुनावों के समय भी उसने राज्य को प्रभावित करने की कोशिश की थी और इस बार भी पिछले 3 महीनों में 70 से अधिक बार घुसपैठ का प्रयास किया जा चुका है, अतः अरूणाचल प्रदेश का मामला हमारे लिए केवल एक विधानसभा चुनाव का नहीं है बल्कि यह हमारे देश की अखंडता और सरहदों की सुरक्षा का है, हमारे देश की आबरू का मामला है, अतः वहां जो भी सरकार बने वह इतनी सुदृढ़ और सक्षम हो कि किसी भी तरह की घुसपैठ को रोक सके।
केन्द्र का भरपूर सहयोग उसे प्राप्त हो और पड़ोसी देश चीन के किसी भी विरोधी मंसूबे को असफल कर सके।महाराष्ट्र वह दूसरा राज्य है जिसके चुनावों को हम हलके तौर पर नहीं ले सकते अगर महाराष्ट्र और गुजरात की स्थितियों पर नज़र डालें तो पिछले कुछ वर्षों में वहां साम्प्रदायिक शक्तियां बहुत हावी हुई हैं। फरवरी 2002 में गुजरात का मुस्लिम नरसंहार अभी भी भूला नहीं है और बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद से मुम्बई सहित महाराष्ट्र के विभिन्न क्षेत्रों में जो कुछ हुआ वह भी किसी से छुपा नहीं है।
विस्तृत विवरण श्रीकृष्णा कमीशन की रिपोर्ट में दर्ज है जिसमें शिवसेना के मुस्लिम विरोधी प्रदर्शन को देखा जा सकता है। शहीद हेमन्त करकरे ने अपनी ज़िन्दगी में मालेगांव इन्वेस्टीगेशन के दौरान आतंकवादियों का जो चेहरा सामने रखा उससे यह भी स्पष्ट हो गया कि इस राज्य में आतंकवाद की जड़ें कितनी गहरी हैं और इन्हें किन-किन लोगों का समर्थन प्राप्त है।
सबसे अधिक हैरान और परेशान करदेने वाली जो बात रही वह यह थी कि आतंकवादियों ने हमारी फौज में भी सेंध लगाने में सफलता प्राप्त कर ली। कर्नल प्रोहित और मेजर उपाध्याय की गिरफ्तारी बहुत चैंकाने वाली थी और उससे भी अधिक अफसोसनाक पहलू यह था कि कुछ राजनीतिक दलों ने उन जैसे आतंकवादियों के बचाव में ज़मीन आसमान एक कर दिया।
जिन संदिग्ध आतंकवादियों को बहुत से सबूतों के आधार पर शहीद हेमन्त करकरे ने गिरफ्तार किया था। उनके बचाव के लिए भी राजनीति की गई, क्या इसें देश की शांति व्यवस्था के पक्ष में कहा जा सकता है? क्या यह कार्य आतंकवाद पर अंकुश लगाने में रूकावट नहीं बनेगा? क्या इससे हमारी पुलिस और ए।टी।एस हतोउत्साहित नहीं होगी?
हम इस समय 26/11 का उल्लेख करके बात का रूख किसी अन्य दिशा में नहीं मोड़ना चाहते, मगर इतना अवश्य कह देना चाहते हैं कि 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर होने वाला आतंकवादी हमला केवल मुम्बई पर हमला नहीं था बल्कि यह हमला हिन्दुस्तान पर था। केवल मुम्बई या महाराष्ट्र में ही नहीं भारत के किसी भी शहर में किसी भी तरह के आतंकवादी हमले को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता, मगर यह केवल लिख देने और बोलने भर से नहीं होगा, इसके लिए हमें अमली रूप से कदम उठाने होंगे, हमें राज्य में एक ऐसी सरकार देनी होगी जो आतंकवाद पर और आतंकवादियों पर काबू पा सके।
वह जो आतंकवादियों का बचाव करते हों, वह जो आतंकवाद या साम्प्रदायिक दंगों के लिए ज़िम्मेदार ठहराए जाते हों, वह जिन्हें न्यायालय ने ‘नीरो’ घोषित किया हो, वह जिनके नाम पर गुजरात का कलंक हो, वह जिनकी इनसान दुश्मनी का विवरण जसटिस श्रीकृष्ण कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में सैकड़ों पृष्ठों पर दर्ज किया हो। कम से कम उन्हें राज्य में सत्ता में आने का अवसर देना ख़तरे से ख़ाली नहीं होगा।
हमने महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के सम्बन्ध में जिन दो बातों पर विशेष ध्यान दिया वह हैं मुम्बई में दाखिला परमिट लागू करने की बात कहना और दूसरा बाल ठाकरे के द्वारा राज ठाकरे को जिन्ना उपनाम दिया जाना। निःसन्देह आतंकवाद पर काबू पाना बेहद आवश्यक है जैसा कि हमने ऊपर की पंक्तियों में लिखा भी है मगर इन दो बातों को भी नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता जो बाल ठाकरे और उद्धव ठाकरे के द्वारा कही गईं।
उद्धव ठाकरे केवल बाल ठाकरे के बेटे ही नहीं शिवसेना के अध्यक्ष भी हैं और अगर शिवसेना-भाजपा सत्ता में आती हैं तो मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी। अगर राज्य का मुख्यमंत्री इस मानसिकता का हो जो भारत के एक राज्य को शेष भारत से अलग कर देने की मानसिकता रखता हो तो समझा जा सकता है कि ऐसे लोगों के हाथ में सत्ता आने से राज्य का क्या हाल होगा।
बात केवल धार्मिक संकीर्णता की ही नहीं जिन्ना की तरह अलग राज्य के निमार्ण की आधारशिला रखने जैसी होगी। इसके अतिरिक्त बाल ठाकरे ने जिस तरह साध्वी प्रज्ञा सिंह का बचाव किया, यह किसी से छिपा नहीं है। भारतीय जनता पार्टी के नेता लाल कृष्ण आडवाणी मुम्बई में 26 नवम्बर को होने वाले आतंकवादी हमले से पूर्व राजस्थान के विधानसभा चुनावों में साध्वी प्रज्ञा सिंह का शपथपत्र लेकर घूमते रहे थे और उस पर किये जाने वाले अत्याचारों की दुहाई देते रहे थे उनकी बात को इतनी गंभीरता से लिया गया कि नैशनल सेक्योरिटी चीफ को उनके घर जाकर विश्वास दिलाना पड़ा कि साध्वी प्रज्ञा सिंह पर अब पूँछताछ के दौरान कोई अत्याचार नहीं किया जायेगा।
इतना ही नहीं, उन्होंने प्रधानमंत्री से साध्वी प्रज्ञा सिंह के मुद्दे पर भेंट भी की। नतीजा सबके सामने है। शहीद हेमन्त करकरे के जीवन में उनकी जांच के चलते जिस साध्वी प्रज्ञा सिंह के चेहरे पर खौफ और दहशत स्पष्ट दिखाई देती थी आज वह चेहरा निश्चिंत और विश्वास से भरपूर नज़र आता है। इस समय वह अस्पताल में आराम फरमा रही हैं।
इस लेख में इस घटना का उल्लेख करने के पीछे उद्देश्य केवल इतना है कि क्या मुम्बई की जेलों में बन्द अन्य आतंकवादियों के साथ भी ऐसा ही रवैया अपनाया गया या अपनाया जाना चाहिए? क्या आतंकवाद को धर्म और जाति के चश्मे से देखा जाना चाहिए? क्या ऐसे राजनीतिज्ञों का उत्साहवर्धन करना चाहिए जो आतंकवादियों को केवल आतंकवादी नहीं बल्कि किसी धर्म का प्रतिनिधा समझते हों।
जब उन्हें लगे कि यह संदिग्ध आतंकवादी उनके धर्म से सम्बन्ध रखता है तो ज़मीन आसमान एक कर दें और जब उन्हें यह लगे कि यह संदिग्ध आतंकवादी उस धर्म से सम्बन्ध रखता है जिससे वह दुर्भावना रखते हैं तो फिर उनका प्रयास यह हो कि उसे कठिन से कठिन यात्नाएं दी जाएं।
अपने आज के इस लेख में अगली बात जो मैं लिखने जा रहा हूं हो सकता है वह बहुतों के लिए अप्रिय हो और बहस का मुद्दा भी बने मगर मैं फिर सपष्ट कर देना चाहता हूं कि भारत की जनता के लिए भारत की अखंडता और भारत की मोहब्बत से बढ़कर और कुछ भी नहीं.......... कम से कम राजनीति तो बिल्कुल भी नहीं।
26-11-2008 को मुम्बई पर होने वाले आतंकवादी हमले में पाकिस्तान का संलिप्त होना बहुत से सबूतों के आधार पर साबित हो चुका है। यह आतंकवादी गुजरात के रास्ते मुम्बई पहुंचे यह भी साबित हो चुका है। भारत का सीमावर्ती राज्य कश्मीर लम्बे समय से आतंकवाद का शिकार है। इस आतंकवाद को शक्ति मिलती है पाकिस्तान से और उन शक्तियों से जो भारत को मज़बूत नहीं देखना चाहते, वही पाकिस्तान की सहायता भी करते हैं।
हम पिछले 20 वर्षों से कश्मीर में चलने वाले आतंक से परेशान हैं और इसके लिए पाकिस्तान को बड़ी सीमा तक उत्तरदायी मानते हैं, अर्थात वह विदेशी शक्तियां या हमारे पड़ोसी देश जो हमें एक मज़बूत देश की शक्ल में नहीं देखना चाहते अपने नापाक इरादों को पूरा करने के लिए कोई भी कदम उठाने से चूकते नहीं हैं।
जिस तरह कश्मीर में पाकिस्तान के हस्तक्षेप को समझा जा सकता है अगर उस तरह नहीं तो कम से कम गुजरात में इस्राइल के हस्तक्षेप को सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता। यही वह वाक्य है जिसे लेकर कुछ राजनीतिज्ञ आग बबूला हो सकते हैं।
क्या 26/11 के आतंकवादी हमले में इस्राइल को पाक-साफ ठहराया जा सकता है? क्या वह सभी बातें जो जनता के सामने आईं और जिनका सम्बन्ध नरीमन हाउस से था? क्या गवाह अनीता ओदय्या की गुमशुदगी को अनदेखा किया जा सकता है? क्या चश्मदीद गवाह इस्राइली रब्बी के बच्चे को अपने साथ लेकर जाने वाली महिला के वापस न लौटने को संदिग्ध नहीं समझा जा सकता, क्या मात्र मुस्लिम दुश्मनी के कारण कुछ राजनेताओं के इज्ऱाइल से संबंध किसी से छिपे हैं?
हम कहना केवल यह चाहते हैं कि पाकिस्तान के हस्तक्षेप से हम पहले ही बहुत परेशान हैं, अगर भारत का कोई राज्य विशेष रूप से सीमावर्ती राज्य या वह राज्य जहां समुन्द्र के रास्ते आसानी से पहुंचा जा सकता है, जैसा कि 26/11 के मामले में हमें देखने को मिला हल्के रूप में नहीं लिया जा सकता। क्या कारण है कि जिस राज्य में अपने ही देश के अन्य राज्यों से पहुंचने वालों से धुतकारा जाता हो, यात्नाएं दी जाती हों वहीं इसी मानसिकता के लोग इस्राइलियों के स्वागत के लिए पलकें बिछाते हों।
प्रश्न हिन्दू और मुसलमान का नहीं है, प्रश्न मराठी और गैर मराठी का नहीं है, प्रश्न उत्तर भारतीयों और दक्षिण भारतीयों का नहीं है, प्रश्न है भारत की अखंडता का, राष्ट्रीय एकता का साम्प्रदायिक सौहार्द का।
चुनाव होते रहते हैं, चुनाव आते जाते रहते हैं कभी कोई पार्टी सत्ता में होती है तो कभी कोई दूसरी सत्ता में होती है, मगर इस नाजु़क अवसर हमें देखना यह है कि कहीं हमारा कोई गलत निर्णय हमारी देश की अखंडता के हिलए ख़तरा न बन जाए, साम्प्रदायिक तनाव का कारण न बन जाए इसलिए कि लोकतंत्र में हर निर्णय वोट के द्वारा ही होता है, अतः आज हमारे पास यह अवसर यह सोचने का कि हम यह निर्णय लेते समय धर्म,क्षेत्र,भाषा और जाति जैसे बन्धनों से आज़ाद होकर अपना मत उसके पक्ष में प्रकट करें जो सबको साथ लेकर चलने का इरादा रखता हो जो सबके हक की बात करता हो और चौकन्ना रहें उनसे भी जो अपने व्यक्तिगत, राजनीतिक, आर्थिक हितों के लिए किसी न किसी रूप में उनके सहायक हो सकते हैं, जो नफ़रत और अलगाव की राजनीति करते हैं।
سوال سیاست کا نہیں، ملک کی سالمیت کا ہے
13اکتوبر کو تین ریاستوں میں ہونے والے انتخابات ہمارے لےے گزشتہ پارلیمانی انتخابات سے کم اہمیت کے حامل نہیں ہیں، لہٰذا عام انتخابات کے دوران ہم نے جو بھی لکھا، اس میں کوشش یہی تھی کہ ملک پر حکومت کرنے کے لےے ایک ایسی سرکار وجود میں آئے، جو سب کو ساتھ لے کر چلنے والی ہو، جو مذہب- ذات سے اوپر اٹھ کرکام کرسکے، اس میں ہمیں بہت حد تک کامیابی بھی حاصل ہوئی۔دراصل ہمارا مقصد کسی بھی سیاسی پارٹی کی موافقت یا مخالفت نہیں تھا اور اس وقت بھی نہیں ہے، مگر ہاں جمہوری قدروں پر گامزن ہمارے ملک میں فرقہ پرستی کے لےے کوئی گنجائش نہیں ہونی چاہےے اور ذات پرستی کی مخالفت بھی اس بنا پر کی جانی چاہےے کہ اگر ہم نے علاقہ، زبان یا ذات پر مبنی سیاست کو اہمیت دینی شروع کردی تو ملک ایک رہتے ہوئے بھی پھر چھوٹے چھوٹے ٹکڑوں میں بٹا نظر آئے گا، جیسے کہ ماضی میں چھوٹی چھوٹی ریاستیں ہوا کرتی تھیں۔
لہٰذا ہم چاہیں گے کہ پارٹی کوئی جیتے، کوئی ہارے سب کا مزاج سیکولر ہواور وہ معاشرہ کے ہر طبقہ کو ساتھ لے کر چلنے کا ارادہ رکھتی ہو۔ آج اگر کوئی اس زمرے میں آتا ہے تو ہماری بات اس کے حق میں جاسکتی ہے اور جو اس زمرے میں نہیں آتا، اس کے حق میں نہیں ہوسکتی، لیکن ہم جو کچھ کہہ رہے ہیں وہ دراصل ہندوستان کا آئین کہتا ہے، ہندوستان کا جمہوری نظام کہتا ہے، الیکشن کمیشن کا ضابطہ¿ اخلاق کہتا ہے۔جیسا کہ ہم نے اپنے مضمون کی ابتدا میں ہی یہ عرض کیا ہے کہ ہمارے نزدیک موجودہ ریاستی انتخابات گزشتہ پارلیمانی انتخابات سے کم اہمیت کے حامل نہیں ہیں تو اس کی وجہ ہے اروناچل پردیش اور مہاراشٹر۔
الیکشن تو ہریانہ میں بھی ہے، مگر ہم اس کے لےے زیادہ فکرمند نہیں ہیں، اس لےے کہ وہاں بات صرف اور صرف سیاست اور اقتدار کی ہے، وہاں کوئی اتنا بڑا ایشو ہمیں نظر نہیں آرہا، جس کے لےے قومی سطح پر عوام کو فکرمند ہونے کی ضرورت ہے، لیکن اروناچل پردیش اور مہاراشٹر کے بارے میں ایسا نہیں کہا جاسکتا۔ اروناچل پردیش وہ سرحدی ریاست ہے، جس پر شروع سے ہی چین کی نظر ہے۔ 1959میں تبت پر قبضہ کرلینے کے بعد سے چین کے حوصلے بلند ہیں اور1962کی جنگ میں ہندوستان پر حملہ کرکے نیفا کے کئی علاقوں پر چین پہلے ہی قبضہ کرچکا ہے۔ چین اروناچل پردیش میں کسی بھی طرح کے سیاسی عمل کا شدید مخالف رہا ہے اور ہے۔
گزشتہ اسمبلی انتخابات کے وقت بھی اس نے اس ریاست کو متاثر کرنے کی کوشش کی جاچکی تھی اور اس بار بھی پچھلے تین مہینوں میں70سے زیادہ مرتبہ دراندازی کی کوشش کی ہے، لہٰذا اروناچل پردیش کا معاملہ ہمارے لےے محض ایک اسمبلی الیکشن کا معاملہ نہیں ہے، بلکہ یہ ہمارے ملک کی سالمیت اور سرحدوں کی حفاظت کا معاملہ ہے۔ ہمارے ملک کی آبرو کا معاملہ ہے، لہٰذا وہاں جو بھی سرکار بنے وہ اتنی مضبوط اور اس بات کی اہل ہو کہ کسی بھی طرح کی دراندازی کو روک سکے، مرکز کا بھرپور تعاون اسے حاصل ہو اور پڑوسی ملک چین کے کسی بھی مخالف منصوبہ کو ناکام بناسکے۔مہاراشٹر وہ دوسری ریاست ہے، جس کے انتخابات کو ہم ہلکے طور پر نہیں لے سکتے۔
اگر مہاراشٹر اور گجرات کے حالات پر نظرڈالیں تو گزشتہ چند برسوں میں وہاں فرقہ پرست طاقتیں بہت حاوی ہوئی ہیں۔ فروری2002-میں گجرات کا مسلم کش فساد ابھی بھی بھولا نہیں ہے اور بابری مسجد کی شہادت کے بعد سے ممبئی سمیت مہاراشٹر کے مختلف علاقوں میں، جو کچھ ہوا وہ کسی سے چھپا نہیں ہے۔ تفصیل شری کرشن کمیشن کی رپورٹ میں درج ہے، جس میں شیوسینا کی مسلم مخالف کارکردگی کو دیکھا جاسکتا ہے۔ شہید ہیمنت کرکرے نے اپنی زندگی میں مالیگاو¿ں انویسٹی گیشن کے دوران دہشت گردوں کے جو چہرے سامنے رکھے، اس سے یہ بھی واضح ہوگیا کہ اس ریاست میں دہشت گردوں کی جڑیں کتنی گہری ہیں اور انہیں کن کن لوگوں کی حمایت حاصل ہے۔
سب سے زیادہ حیران کن اور پریشان کردینے والی جو بات رہی، وہ یہ تھی کہ دہشت گردوں نے ہماری فوج میں بھی سیندھ لگانے میں کامیابی حاصل کرلی ہے۔ کرنل پروہت اور میجر اپادھیائے کی گرفتاری انتہائی چونکانے والی تھی اور اس سے بھی زیادہ افسوسناک پہلو یہ تھا کہ بعض سیاسی جماعتوں نے ان جیسے دہشت گردوں کے بچاو¿ میں زمین آسمان ایک کردےے۔
جن مشتبہ دہشت گردوں کو متعدد ثبوتوں کی بنیاد پر شہیدہیمنت کرکرے نے گرفتار کیا تھا، ان کے دفاع کے لےے بھی سیاست کی گئی۔ کیا اسے ملک کے امن و امان کے حق میں قرار دیا جاسکتا ہے؟ کیا یہ عمل دہشت گردی پر قابو پانے میں رکاوٹ نہیں ہوگا؟ کیا اس سے ہماری پولس اور اے ٹی ایس کی حوصلہ شکنی نہیں ہوگی؟ہم اس وقت 26/11کا ذکر کرکے بات کا رُخ کسی دوسری جانب نہیں موڑنا چاہتے، مگر اتنا ضرور کہہ دینا چاہتے ہیں کہ 26نومبر2008کو ممبئی پر ہونے والا دہشت گردانہ حملہ صرف ممبئی پر حملہ نہیں تھا، بلکہ یہ حملہ ہندوستان پر تھا۔ صرف ممبئی یا مہاراشٹر میں ہی نہیں ہندوستان کے کسی بھی شہر میں کسی بھی طرح کے دہشت گردانہ حملہ کو برداشت نہیں کیا جاسکتا، مگر یہ صرف لکھ دینے اور بولنے بھر سے نہیں ہوگا، اس کے لےے ہمیں عملی قدم اٹھانے ہوں گے۔
ہمیں ریاست میں ایک ایسی سرکار دینی ہوگی، جو دہشت گردی پر اور دہشت گردوں پر قابو پاسکے، وہ جو دہشت گردوں کا بچاوکرتے ہوں، وہ جو دہشت گردی یا فرقہ وارانہ فسادات کے لےے ذمہ دار قرار دئے جاتے ہوں، وہ جنہیں عدالت ”نیرو“ قرار دے، وہ جن کے نام پر گجرات کا کلنک ہو، وہ جن کی انسان دشمنی کی تفصیل جسٹس شری کرشن کمیشن نے اپنی رپورٹ میں سیکڑوں صفحات پر درج کی ہو۔ کم ازکم انہیں ریاست میں برسراقتدار آنے کا موقع دینا خطرے سے خالی نہیں ہوگا۔ہم نے مہاراشٹر اسمبلی انتخابات کے تعلق سے جن دو باتوں پر خصوصی توجہ دی، وہ تھیں ممبئی میں داخلہ پر پرمٹ لاگو کرنے کی بات کہنا اور دوسرا بال ٹھاکرے کے ذریعہ راج ٹھاکرے کو جناح کا لقب دینا۔ بیشک دہشت گردی پر قابو پانا انتہائی ضروری ہے جیسا کہ ہم نے درج بالا سطروں میں لکھا بھی ہے، مگر ان دو باتوں کو بھی نظرانداز نہیں کیا جاسکتا جو بال ٹھاکرے اور اودھو ٹھاکرے کے ذریعہ کہی گئیں۔ اودھو ٹھاکرے صرف بال ٹھاکرے کے بیٹے ہی نہیں، شیوسینا کے صدر بھی ہیں اور اگر شیوسینا-بی جے پی برسراقتدار آتی ہے تو وزیراعلیٰ بننے کے دعویدار بھی۔
اگر ریاست کا چیف منسٹر اس ذہنیت کا ہو، جو ہندوستان کی ایک ریاست کو باقی ہندوستان سے الگ کردینے کی ذہنیت رکھتا ہو تو سمجھا جاسکتا ہے کہ ایسے لوگوں کے ہاتھ میں اقتدار آنے سے ریاست کا کیا حال ہوگا۔ بات پھر صرف مذہبی تعصب کی ہی نہیں، جناح کی طرح علیحدہ ایک ریاست کی داغ بیل ڈالنے جیسی ہوگی۔ اس کے علاوہ بال ٹھاکرے نے جس طرح سادھوی پرگیہ سنگھ کا بچاو¿ کیا، یہ کسی سے چھپا نہیں ہے۔ بھارتیہ جنتا پارٹی کے سربراہ لال کرشن اڈوانی ممبئی میں 26نومبر کو ہونے والے دہشت گردانہ حملہ سے قبل راجستھان کے ریاستی انتخابات میں سادھوی پرگیہ سنگھ کا حلف نامہ لے کر گھومتے رہے تھے اور اس پر کےے جانے والے مظالم کی دہائی دیتے پھر رہے تھے۔
ان کی بات کو اس قدر سنجیدگی سے لیا گیا کہ نیشنل سیکوریٹی چیف کو ان کے گھر جاکر یقین دہانی کرانی پڑی کہ سادھوی پرگیہ سنگھ پر پوچھ تاچھ کے دوران اب کوئی ظلم نہیں کیا جائے گا۔ اتنا ہی نہیں، انہوں نے وزیراعظم سے سادھوی پرگیہ سنگھ کے ایشو پر ملاقات بھی کی۔ نتیجہ سب کے سامنے ہے۔ شہیدہیمنت کرکرے کی زندگی میں ان کی تحقیقات کے سبب جس سادھوی پرگیہ سنگھ کے چہرے پر خوف و دہشت صاف نظر آتی تھی، آج وہ چہرہ پرسکون اور پراعتماد نظر آتا ہے۔ اس وقت وہ اسپتال میں آرام فرما رہی ہیں۔ اس تحریر میں اس واقعہ کا ذکر کرنے کے پیچھے مقصد صرف اتنا ہے کہ کیا ممبئی کی جیلوں میں بند باقی مشتبہ دہشت گردوں کے ساتھ بھی ایسا ہی رویہ اپنایا گیایا اپنایا جانا چاہےے؟ کیا دہشت گردی کو مذہب اور ذات کے چشمے سے دیکھا جانا چاہےے؟ کیا ایسے سیاستدانوں کی حوصلہ افزائی کی جانی چاہےے، جو دہشت گردوں کو صرف دہشت گرد نہیں، بلکہ کسی مذہب کا نمائندہ سمجھتے ہوں؟
جب انہیں لگے کہ یہ مشتبہ دہشت گرد ان کے مذہب سے تعلق رکھتا ہے تو زمین و آسمان ایک کردیں اور جب انہیں لگے کہ یہ مشتبہ دہشت گرد اس مذہب سے تعلق رکھتا ہے، جس سے وہ تعصب برتتے ہیں تو ان کی پھر کوشش یہ ہو کہ اسے سخت سے سخت اذیتیں دی جائیں۔ اپنے آج کے اس مضمون میں میں اگلی جو بات لکھنے جارہا ہوں، ہوسکتا ہے وہ بہتوں کے لےے ناگوارِخاطر ہو اور موضوع بحث بھی بنے، مگر میں پھر واضح کردینا چاہتا ہوں کہ ہندوستانی عوام کے لےے ہندوستان کی سالمیت اور ہندوستان کی محبت سے بڑھ کر اور کچھ بھی نہیں.... کم از کم سیاست تو بالکل بھی نہیں۔26-11-2008کو ممبئی پر ہونے والے دہشت گردانہ حملہ میں پاکستان کا ملوث ہونا بہت سے ثبوتوں کی بنیاد پر ثابت ہوچکا ہے۔
یہ دہشت گرد گجرات کے راستہ ممبئی پہنچے، یہ بھی ثابت ہوچکا ہے۔ ہندوستان کی سرحدی ریاست کشمیر ایک لمبے عرصہ سے دہشت گردی کا شکار ہے۔ دہشت گردی کو تقویت ملتی ہے پاکستان سے اور ان طاقتوں سے جو ہندوستان کو ایک مضبوط ملک نہیں دیکھنا چاہتے، وہی پاکستان کی مدد بھی کرتے ہیں۔ ہم گزشتہ تقریباً 20برس سے کشمیر میں چلنے والی دہشت گردی سے پریشان ہیں اور اس کے لےے پاکستان کو بہت حد تک ذمہ دار مانتے ہیں، یعنی وہ غیرملکی طاقتیں یا ہمارے پڑوسی ملک جو ہمیں ایک مضبوط ملک کی شکل میں نہیں دیکھنا چاہتے، اپنے ناپاک ارادوں کو پورا کرنے کے لےے کوئی بھی قدم اٹھانے سے چوکتے نہیں ہیں۔
جس طرح کشمیر میں پاکستان کے دخل کو سمجھا جاسکتا ہے، اگر اس طرح نہیں تو کم ازکم گجرات میں اسرائیل کے دخل کو سرے سے خارج بھی نہیں کیا جاسکتا۔ یہی وہ جملہ ہے، جسے لے کر کچھ سیاستداں چراغ پا ہوسکتے ہیں۔ کیا 26/11کے دہشت گردانہ حملہ میں اسرائیل کو پاک صاف قرار دیا جاسکتا ہے؟ کیا وہ تمام باتیں جومنظرعام پر آئیں اور جن کا تعلق نریمن ہاو¿س سے تھا؟ کیا گواہ انیتا اُدیا کی گمشدگی کو نظرانداز کیا جاسکتا ہے؟ کیا عینی شاہد اسرائیلی ربّی کے بچے کو اپنے ساتھ لے کر جانے والی خاتون کے واپس نہ لوٹنے کو مشکوک نہیں سمجھاجاسکتا؟کیا صرف مسلم دشمنی کی وجہ سے کچھ سیاستدانوں کے اسرائیل سے تعلقات کسی سے چھپے ہیں؟ہم کہنا صرف یہ چاہتے ہیں کہ پاکستان کی دخل اندازی سے ہم پہلے ہی بہت پریشان ہیں۔
اگر ہندوستان کی کوئی ریاست بالخصوص سرحدی ریاست یا وہ ریاست جہاں سمندر کے راستے بآسانی پہنچا جاسکتا ہے، جیسا کہ 26/11کے معاملہ میں ہمیں دیکھنے کو ملا، ہلکے طور پر نہیں لیا جاسکتا۔کیا وجہ ہے کہ جس ریاست میں اپنے ہی ملک کی دوسری ریاستوں سے پہنچنے والوں کو دھتکارا جاتا ہو، اذیتیں دی جاتی ہوں، وہیں اسی ذہنیت کے لوگ اسرائیلیوں کے خیرمقدم کے لےے پلکیں بچھاتے ہوں۔ سوال ہندو اور مسلمان کا نہیںہے؟ سوال مراٹھا اور غیرمراٹھا کا نہیں ہے؟ سوال اتربھارتیوں اور دکشن بھارتیوں کا نہیںہے؟ سوال ہے ہندوستان کی سالمیت کا، قومی یکجہتی کا، فرقہ وارانہ ہم آہنگی کا۔
انتخابات ہوتے رہتے ہیں، الیکشن آتے جاتے رہتے ہیں، کبھی کوئی پارٹی برسراقتدار ہوتی ہے تو کبھی کوئی اور برسراقتدار ہوتی ہے، مگر اس نازک موقع پر ہمیں دیکھنا یہ ہے کہ کہیں ہمارا کوئی غلط فیصلہ ہمارے ملک کی سالمیت کے لےے خطرہ نہ بن جائے، فرقہ وارانہ کشیدگی کا باعث نہ بن جائے، اس لےے کہ جمہوریت میں ہر فیصلہ ووٹ کے ذریعہ ہی ہوتا ہے، لہٰذا آج ہمارے پاس موقع ہے یہ سوچنے کا کہ ہم یہ فیصلہ لیتے وقت مذہب، علاقہ، زبان اور ذات جیسے بندھنوں سے آزاد ہوکر اپنی رائے کا اظہار اس کے حق میں کرےں، جو سب کو ساتھ لے کر چلنے کا ارادہ رکھتا ہو، جو سب کے حق کی بات کرتا ہو اور محتاط رہیں ان سے بھی جو اپنے ذاتی، سیاسی، معاشی مفاد کی خاطر کسی نہ کسی شکل میں ان کے مددگار ہوسکتے ہیں، جو نفرت اور علیحدگی کی سیاست کرتے ہیں۔
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