Saturday, October 10, 2009
चिंगारी बारूद बने इससे पहले ही बुझा दो
चिंगारी बारूद बने इससे पहले ही बुझा दो
बातचीत महाराष्ट्र,हरियाणा और अरूणाचल प्रदेश के चुनाव पर जारी थी बल्कि ख़ासतौर पर जिस राज्य के चुनाव का हम उल्लेख कर रहे थे वह है महाराष्ट्र का यह सिलसिला अभी जारी रहना था और शायद कल के बाद फिर से जारी कर भी दिया जाये लेकिन आज की दिल दहलाने वाली खबर ने मजबूर कर दिया कि पहले उन शहीदों को श्रृद्धांजलि पेश की जाये जिन्होंने माओवादियों से मुकाबला करते समय अपनी जान गंवा दी। यह दुखद त्रासदी भी महाराष्ट्र में ही हुई जहां सब इंस्पेक्टर सी.एस. देशमुख सहित 17 पुलिसकर्मी शहीद हो गये।
माओवादियों की संख्या 150 से अधिक थी। सूत्रों के अनुसार माओवादियों ने क्षेत्र में ग्राम पंचायत कार्यालय को जला डाला और इस आतंकवादी त्रासदी के बाद पुलिस के जवानों से आमने-सामने की मुठभेड़ हुई। इससे एक सप्ताह पूर्व ही झारखण्ड में पुलिस इंस्पेक्टर फ्रान्सिस इन्दवार का सर काट दिया गया था। माओवादियों ने इंस्पेक्टर इन्दवार को छोड़ने के बदले फिरौती में अपने तीन साथियों की रिहाई की मांग की थी जिनमें कुबेद गैंडी भी शामिल हैं। रांची देहात के पुलिस कप्तान के अनुसार यहां से लगभग 12 किलोमीटर दूर नामकाॅम पुलिस स्टेशन के तहत राशाघाटी के निकट मंगल की सुबह इन्दवार की सर कटी लाश बरामद हुई। गृहमंत्री पि0 चिदम्बरम का कहना था कि फिरौती के रूप में तीन साथियों की रिहाई की मांग की बात गलत है।
हम इस समय इस विस्तार में नहीं जाना चाहते कि फिरौती के रूप में माओवादियों ने अपने तीन साथियों की मांग की थी या नहीं। हमारे लिए अत्यधिक दुख का पहलू यह है कि रांची (झारखण्ड) में जहां अगले दो महीने के अन्दर राज्य के चुनाव होने हैं तथा महाराष्ट्र जहां राज्य के चुनाव की प्रक्रिया अंतिम चरण में है वहां माओवादियो का यह आतंकवाद क्या चुनाव को प्रभावित करने के लिए है क्या इस समय का चुनाव एक सोची समझी राजनीति के तहत है। क्या अरूणाचल प्रदेश में पिछले कुछ दिनों में घुसपैठ तथा नक्सलवादी आतंक का आपस में कोई सम्बनध है। यह तमाम बातें विचार करने तथा अत्यधिक गंभीरता से लिये जाने के योग्य है।
वैसे भी नक्सल आतंकवाद का यह कोई ऐसा चेहरा नहीं है जिसके प्रभाव को कम करके देखा जा सके। एक लंबे समय से नक्सलवादियों का यह आतंकी अमल जारी है जो शायद अब कश्मीर में जारी आतंकवाद से भी ज्यादा खतरनाक रूप धारण कर चुका है। हम अपने इस किस्तवार लेख की पिछली कुछ तहरीरों में इस बात की संभावना स्पष्ट कर चुके हैं कि छोटी-छोटी दिखाई देने वाली बातें जब बड़ा रूप धारण कर लेती हैं तो उसका परिणाम क्या होता है? आज महाराष्ट्र में प्रवेश के लिए परमिट की बात कहा जाना शायद साधारण बात लगे परन्तु आने वाले कल में इसके परिणाम कितने भयानक हो सकते हैं उन्हें आज नहीं समझा गया तो बहुत देर हो जायेगी।
इसी खतरे की आहट को समझाने के उद्देश्य से हम आज नक्सलवादी आन्दोलन कब, किस तरह और किन बातों को लेकर शुरू हुआ, सामने रखना चाहते हैं, इसके बाद अगली किस्तों में भिण्डरा वाला और प्रभाकरण जैसे लोगों और रणबीण सेना के बारे में भी जानकारी उपलब्ध करना चाहेंगे, ताकि भारत सरकार तथा जनता को समझा सकें कि यदि प्रारंभिक दौर में यह आभास कर लिया जाये कि क्षेत्रीय या सीमित सोच को दृष्टि में रखते हुए जब कोई ख़तरनाक आन्दोलन शुरू किया जाता है तो कुछ सीधे-साधे लोग इसमें अपना लाभ देखकर झांसे में आ जाते हैं और बाद में हज़ारों निर्दोष लोगों की जान चली जाती है और यह आतंकवादी संगठन जहां जनता के लिए जानलेवा सिद्ध होते हैं वहीं भारत सरकार के लिए एक बड़ा सिरदर्द।
आइए अब एक दृष्टि डालें इस नक्सलवादी आन्दोलन पर कि कब किन बातों को लेकर यह शुरू हुआ और फिर आप ज़हन पर ज़ोर डालें कि कहीं आज भी इसी तरह के कुछ नये आन्दोलन जन्म तो नहीं ले रहे हैं, अगर हां तो अन्दाज़ा करें कि आने वाले समय में अगर ऐसा ही खतरनाक रूप उन्होंने भी धारण कर लिया तो देश की एकता और शांति का क्या होगा।
नक्सलवादी आन्दोलन, नक्सालाइट या नक्सल या नक्सलबाड़ी सभी माओवादी गु्रप के ही नाम हैं और यह ग्रुप भूमिहीन मज़दूरों और आदिवासी लोगों की आवाज़ ज़मींदारों और दूसरे लोगों के खिलाफ बुलन्द करने का दावा करते हैं नक्सलवादी मानते हैं कि वह शोषण, जुल्म और हिंसा के खिलाफ लड़कर समान स्तर के लोगों का समाज बनाने के लिए प्रयास कर रहे हैं। नक्सलवादियों को इनकी हरकतों की वजह से आतंकवादी करार दिया जाता है तथा उन पर आरोप है कि वर्गीय युद्ध ;बसें तद्ध के नाम से जनता पर अत्याचार और हिंसा कर रहे हैं।
साधारण तथा माओवादी उन क्षेत्रों में अधिक सक्रिय पाये गये हैं जो क्षेत्र विकास की दृष्टि से पिछड़े कहे जाते हैं। अधिकतर ग्रामीण और जनजातीय क्षेत्र और कभी-कभी जंगलों से अपनी कार्यवाही को अंजाम देते हैं (उत्तर से दक्षिण) विशेष रूप से झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, पूर्वी महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश का तिलंगाना (उत्तर पूर्वी) का क्षेत्र तथा पश्चिमी उड़ीसा में माओवादी सक्रिय हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह लोग तटीय क्षेत्र से दूर भीतरी क्षेत्रों में सक्रिय हैं।
प्यूपिल्स वार गु्रप विशेष रूप से आंध्रा प्रदेश, पश्चिमी उड़ीसा तथा पूर्वी महाराष्ट्र में सक्रिय हैं जबकि माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर बिहार, झारखण्ड तथा उत्तरी छत्तीसगढ़ में सक्रिय है।
प्रायः नक्सलवादी स्वयं को भारत के सबसे निचले वर्ग का प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं (जो वर्ग देश के विकास कार्यक्रम से अछूता तथा चुनावी मुहिम के अमल से अलग रह गया है) इनमें विशेष रूप से जनजातीय, दलित और सबसे गरीब ऐसे लोग शामिल हैं जो बेज़मीन मज़दूर हैं और कम से कम मज़दूरी पर काम करने के लिए मजबूर किये जाते हैं।(माओवादी) नक्सलवादी की अपनी विचारधारा के बावजूद इन पर आलोचना इसलिए की जाती है कि इतने वर्षों में यह एक और आतंकवादी संगठन बन गये हैं।
मध्यम वर्गीय ज़मींदारों से ज़बरदस्ती वसूली (क्योंकि बड़े ज़मींदार अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध कर लेते हैं) और सबसे बुरा यह कि (जिस वर्ग के प्रतिनिधित्व का दावा करते हैं) जनजातीय और ग्रामीण क्षेत्र के लोगों से भी न्याय के नाम पर वसूली और इन पर नियंत्रण करने का आरोप लगता है।
इन लोगों का मानना है कि देश के बहुसंख्यकों को आज भी भूख,गरीबी तथा धनाढ वर्ग, जो उत्पादन के तमाम साधनों पर कब्ज़ा किये हुए है से आज़ादी प्राप्त करनी होगी इसलिए वर्तमान व्यवस्था को पलट देना चाहिए और उसके लिए राजनीतिक नेताओं पुलिस अधिकारियों और जंगलों के ठेकेदारों को अपना निशाना बनाते हैं।
स्थानीय स्तर पर माओवादी गांव के बड़े ज़मींदारों को अपना निशाना बनाते हैं और प्रायः रक्षा के नाम पर भी उनसे रूपये वसूल करते हैं माओवादियों के बारे में कहा जाता है कि जिन क्षेत्रों में सरकार से भी ज्यादा इनका आदेश चलता है वहां पर यह लोग जनजातीय और ग्रामीण जनता से भी वसूली करते हैं।
इस आन्दोलन की सबसे पहली घटना भारत में जुलाई 1948 में तिलंगाना संघर्ष के दौरान मिलती हैं। इस संघर्ष की विचाराधारा चीन के नेता माओजे तुंग का था। जिस का उद्देश्य भारत के अन्दर क्रान्ति लाना था, यह विचाराधारा आंध्रा प्रदेश में आज भी मज़बूती के साथ पाई जाती है परन्तु पूरे आन्दोलन ने तब स्पष्ट रूप धारण कर लिया जब सी.पी.आई. (एम) ने पश्चिमी बंगाल चुनाव में शिरकत और सरकार में हिस्सेदारी का फैसला किया तब चारू मजूमदार के नेतृत्व में कुछ लोगों ने सी.पी.आई. (एम.एल.) स्थापित की।
25 मई 1967 को पश्चिमी बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी गांव में एक जनजातीय व्यक्ति पर गांव के ही ज़मींदार के गुण्डों ने हमला कर दिया तथा जवाबी हमले में जनजातीय लोगों ने ज़मीदार पर हमला किया तथा अपनी ज़मीन वापस ले ली। नक्सलबाड़ी की इसी बगावत के बाद ही नक्सलवादी शब्द दुनिया के सामने आया।
60 और 70 के दशक में नक्सलबाड़ी आन्दोलन काफी लोकप्रिय था। आई.आई.टी. जैसी सुप्रसिद्ध संस्थाओं के भी कई छात्र गरीब मज़दूरों और जनजातीय लोगों के पक्ष के लिए इस आन्दोलन में शामिल हुए परन्तु जैसा कि अनेक आन्दोलनों के साथ होता है कि प्रारंभ में बात सिद्धांतों पर होती है लेकिन समय बीतने के साथ-साथ माओवादियो के इस आन्दोलन ने भी अपने सिद्धांतों के साथ समझौता कर लिया परन्तु आज भी पुरूषों और महिलाओं की बड़ी संख्या इसमें शामिल हो रही है और यह मालूम होता है कि अभी भी इसी विचारधारा में लोगों का विश्वास बाकी है।
भारत का पूरा राजनीतिक समाज नक्सलवादियों का विरोध करता है। विचारणीय बात यह है कि जब बंगाल में पहली बार माओवादी सामने आये थे तब सी.पी.आई. (एम) सरकार ने केन्द्र की कांग्रेसी सरकार के साथ मिलकर कड़े कदम उठाये थे। ग्रामीण स्तर पर माओवादियों की आतंकवादी रणनीति के परिणाम स्वरूप कई स्थानीय सेनाएं (आर्मी) ज़मीदारों और दूसरे लोगों की रक्षा के नाम पर बन गई।
इनमें सबसे बदनाम बिहार और झारखंड में रणबीर सेना है जो भूमिहार जाति के ज़मींदारों ने बनाई। रणबीर सेना जनजातीय, दलित लोगों, बेज़मीन मज़दूरों को जवाबी कार्यवाही या फिर अपने अधीन रखने के लिए मारती है।
چنگاری بارود بنے اس سے پہلے ہی بجھا دو
گفتگو مہاراشٹر، ہریانہ اور اروناچل پردیش کے انتخابات پر جاری تھی، بلکہ خاص طور پر جس ریاست کے انتخابات کا ہم ذکر کررہے تھے وہ مہاراشٹر تھی۔ یہ سلسلہ ابھی جاری رہنا تھا اور شاید کل کے بعد پھر سے جاری کربھی دیا جائے، لیکن آج کی دل دہلانے والی خبر نے مجبور کردیا کہ پہلے ان شہیدوں کو خراج عقیدت پیش کیا جائے، جنہوں نے ماونوازوں سے مقابلہ کرتے ہوئے اپنی جان گنوادی۔ یہ افسوسناک سانحہ بھی مہاراشٹر میں ہی پیش آیا، جہاں سب انسپکٹر سی ایس دیشمکھ سمیت 17پولیس اہلکار شہید ہوگئے۔ ماﺅنوازوں کی تعداد 150سے زیادہ تھی۔
ذرائع کے مطابق ماﺅنوازوں نے علاقہ میں گرام پنچایت دفتر کو نذرآتش کردیا اور اس کے بعد پولیس کے جوانوں سے آمنے سامنے کی مڈبھیڑ ہوئی۔ اس دہشت گردانہ سانحہ کے ایک ہفتہ قبل بھی جھارکھنڈ میں پولیس انسپکٹر فرانسس اندوار کا سرقلم کردیا گیا تھا۔ ماونوازوں نے انسپکٹر اندوار کو چھوڑنے کے بدلے پھروتی میں اپنے تین ساتھیوں کی رہائی کا مطالبہ کیا تھا، جن میں کوبیڈ گینڈی بھی شامل ہیں۔ رانچی دیہات کے پولیس کپتان کے مطابق یہاں سے تقریباً 12کلومیٹر دور نام کوم پولیس اسٹیشن کے تحت راشہ گھاٹی کے قریب منگل کی صبح اندوار کی سرکٹی لاش برآمد ہوئی۔
وزیرداخلہ پی چدمبرم کا کہنا تھا کہ پھروتی کی شکل میں تین ساتھیوں کی رہائی کے مطالبہ کی بات غلط ہے۔ہم اس وقت اس تفصیل میں نہیں جانا چاہتے کہ پھروتی کی شکل میں ماﺅنوازوں نے اپنے تین ساتھیوں کی مانگ کی تھی یا نہیں، ہمارے نزدیک انتہائی افسوسناک پہلو یہ ہے کہ رانچی(جھارکھنڈ) میں جہاں اگلے دو مہینے کے اندر ریاستی انتخابات ہونے ہیں اور مہاراشٹر جہاں ریاستی انتخابات کا عمل آخری مرحلہ میں ہے، وہاں ماﺅنوازوں کی یہ دہشت گردی کیا انتخابات کو متاثر کرنے کے لےے ہے؟ کیا اس وقت کا انتخاب ایک سوچی سمجھی حکمت عملی کے تحت ہے؟
کیا اروناچل پردیش میں پچھلے کچھ دنوں سے جاری دراندازی اور اس نکسلائٹ دہشت گردی کا آپس میں کوئی تعلق ہے؟ ان تمام باتوں پر غور کرنے اور انتہائی سنجیدگی سے لےے جانے کی ضرورت ہے، ویسے بھی نکسلائٹ دہشت گردی کا یہ کوئی ایسا چہرہ نہیں ہے، جس کے اثرات کو کم کرکے دیکھا جاسکے۔ ایک لمبے عرصہ سے نکسلائٹس کے دہشت گردانہ حملے جاری ہےں، جو شاید اب کشمیر میں جاری دہشت گردی سے بھی زیادہ خطرناک شکل اختیار کرچکے ہےں۔ ہم اپنے اس قسط وار مضمون کی پچھلی کچھ تحریروں میں اس بات کا اندیشہ ظاہر کرچکے ہیں کہ چھوٹی چھوٹی دکھائی دینے والی باتیں جب بڑی اور خطرناک شکل اختیار کرلیتی ہیں تو اس کا انجام کیا ہوتا ہے؟
آج مہاراشٹر میں داخلہ کے لےے پرمٹ کی بات کہا جانا شاید بہت معمولی بات لگے، مگر آنے والے کل میں اس کے نتائج کتنے خوفناک ہوسکتے ہیں، انہیں آج نہیں سمجھاگیا تو بہت دیر ہوجائے گی۔ اسی خطرے کی آہٹ کو سمجھانے کی غرض سے ہم آج نکسلائٹ تحریک کب، کس طرح اور کن باتوں کو لے کر شروع ہوئی سامنے رکھنا چاہتے ہیں، اس کے بعد آئندہ قسطوں میں بھنڈراںوالااور پربھاکرن جیسے لوگوں اوررنبیر سینا کے بارے میں بھی جانکاری فراہم کرنا چاہےں گے، تاکہ حکومت ہند اور عوام کو باور کراسکیں کہ اگر ابتدائی دور میں یہ اندازہ کرلیا جائے کہ علاقائی یا محدود سوچ کے پیش نظر جب کوئی خطرناک تحریک شروع کی جاتی ہے تو کچھ معصوم لوگ اس میں اپنا مفاد دیکھ کر جھانسے میں آجاتے ہیں، لیکن بعد میں ہزاروں بے گناہوں کی جان چلی جاتی ہے اور یہ دہشت گرد تنظیمیں جہاں عوام کے لےے جان لیوا ثابت ہوتی ہیں، وہیں حکومت ہند کے لےے ایک بڑا سردرد۔
آئےے اب ایک نظر ڈالیں اس نکسلائٹ تحریک پر کہ کب کن باتوں کو لے کر یہ شروع ہوئی اور پھر آپ ذہن پر زورڈالیں کہ کہیں آج بھی اس طرح کی کچھ نئی تحریکیں توجنم تو نہیں لے رہی ہیں، اگر ہاں تو اندازہ کریں کہ اگر آنے والے وقت میں ایسی ہی خطرناک شکل انہوں نے بھی اختیار کرلی تو ملک کی سالمیت اور امن و امان کا کیا ہوگا؟
نکسلائٹ تحریکنکسلائٹ یا نکسل یا نکسل باڑی سبھی ماونواز گروپوں کے ہی نام ہیںاور یہ گروپ بے زمین مزدوروں اور قبائلی لوگوں کی آواز زمیں داروں اور دوسرے لوگوں کے خلاف بلند کرنے کا دعویٰ کرتے ہیں۔ نکسلائٹ مانتے ہیں، وہ استحصال، ظلم اور تشدد کے خلاف لڑ کر ایک ہم رتبہ لوگوں کا سماج بنانے کے لئے جدو جہد کر رہے ہیں۔ نکسلائٹ کو ان کی حرکتوں کی وجہ سے دہشت گرد قرار دیا جاتا ہے اور ان پر الزام ہے کہ ےہ طبقاتی جنگ (Class war) کے نام سے عوام پر ظلم اور تشدد کر رہے ہیں۔
عام طور پر ماونواز ان علاقوں میں زیادہ سرگرم پائے گئے ہیں، جو علاقے ترقیاتی تعلق سے پسماندہ کہے جاتے ہیں۔ زیادہ تر دیہی اور قبائلی علاقے اور کبھی کبھی جنگلات سے اپنی کارروائی کو انجام دیتے ہیں۔ (شمال سے جنوب) خاص طور سے جھارکھنڈ، چھتیس گڑھ، مدھیہ پردیش، مشرقی مہاراشٹر، آندھرا پردیش کا تلنگانہ (شمال مشرقی) کا علاقہ اور مغربی اڑیسہ میں ماونواز سرگرم ہیں۔ غور طلب بات یہ ہے کہ یہ لوگ ساحلی علاقہ سے دور اندرونی علاقے میں سرگرم ہیں۔پیپلس وار گروپ خاص طور سے آندھرا پردیش، مغربی اڑیسہ اور مشرقی مہاراشٹر میں سرگرم ہے۔
جب کہ ماوسٹ کمیونسٹ سینٹر بہار، جھارکھنڈ اور شمالی چھتیس گڑھ میں سرگرم ہے۔ اکثر نکسلائٹ خود کو ہندوستان کے سب سے نچلے طبقے کے نمائندہ ہونے کا دعویٰ کرتے ہیں (جو طبقہ ملک کے ترقیاتی پروگرام سے اچھوتا رہ گیا اور انتخابی عمل سے علیحدہ رہ گیا ہے) ان میں خاص طور سے قبائلی، دلت اور سب سے غریب ایسے لوگ شامل ہیں، جو بے زمین مزدور ہیں اور کم سے کم مزدوری پر کام کرنے کے لئے مجبور کئے جاتے ہیں۔(ماونواز) نکسلائٹ کے اپنے نظریہ کے باوجود ان پر تنقید اس لئے کی جاتی ہے کہ اتنے برسوں میں یہ ایک اور دہشت گرد تنظیم بن گئے ہیں۔
مڈل کلاس زمیں داروں سے جبراً وصولی (کیونکہ بڑے زمیں دار اپنی حفاظت کا انتظام کرلیتے ہیں)اور سب سے برا یہ کہ (جس طبقہ کی نمائندگی کا دعویٰ کرتے ہیں) قبائلی اور دیہی علاقے کے لوگوں سے بھی انصاف کے نام پر وصولی اور ان پر کنٹرول کرنے کا الزام لگتاہے۔ ان لوگوں کا ماننا ہے کہ ملک کی اکثریت کو آج بھی بھوک، محرومی اور امیر طبقے جو پیداوار کے تمام ذرائع پر قبضہ کئے ہوئے ہیں، سے آزادی حاصل کرنی ہوگی، اس لئے موجودہ نظام کو پلٹ دینا چاہئے اور اس کے لئے سیاسی لیڈروں، پولس افسروں اور جنگلات کے ٹھیکیداروں کو اپنا نشانہ بناتے ہیں۔مقامی سطح پر ماونواز گاوں کے بڑے زمیں داروں کو اپنا نشانہ بناتے ہیں اور اکثر حفاظت کے نام پر بھی ان سے روپے وصول کرتے ہیں۔
ماونوازوں کے بارے میں کہا جاتاہے کہ جن علاقوں میں حکومت سے بھی زیادہ ان کا حکم چلتا ہے، وہاں پر یہ لوگ قبائلی اور دیہی عوام سے بھی وصولیابی کرتے ہیں۔اس تحریک کے سب سے پہلے واقعات ہندوستان میں جولائی 1948 میں تلنگانہ جدو جہد کے دوران ملتے ہیں۔ اس جدو جہد کا نظریہ چین کے لیڈر ماوزے تنگ کا تھا، جس کا مقصد ہندوستان کے اندر انقلاب لاناتھا، جب کہ یہ نظریہ آندھرا پردیش میں آج بھی مضبوطی کے ساتھ پایا جاتاہے، لیکن پوری تحریک نے تب واضح شکل اختیار کر لی، جب سی پی آئی (ایم) نے مغربی بنگال انتخابات میں شرکت اور حکومت میں حصہ داری کا فیصلہ کیا تب چارو مجمدار کی قیادت میں کچھ لوگوں نے سی پی آئی (ایم ایل)قائم کی۔
25 مئی 1967 کو مغربی بنگال کے دارجلنگ ضلع کے نکسل باڑی گاو¿ں میں ایک قبائلی شخص پر گاوں کے ہی زمیں دار کے غنڈوں نے حملہ کردیا اور جوابی حملے میں قبائلی لوگوں نے زمیں دار پر حملہ کیا اور اپنی زمین واپس لے لی۔ نکسل باڑی کی اس بغاوت کے بعد ہی نکسلائٹ لفظ دنیا کے سامنے آیا۔60اور70 کی دہائی میں نکسلائٹ تحریک کافی مقبول تھی۔
آئی آئی ٹی جیسے معروف اداروں کے بھی کئی طلبہ غریب مزدوروں اور قبائلی لوگوں کے حق کے لئے اس تحریک میں شامل ہوئے، لیکن جیسا کہ کئی تحریکوں کے ساتھ ہوتاہے کہ وہ ابتدا میں اپنے اعلیٰ اصولوں پر قائم رہتی ہےں، لیکن وقت گزرنے کے ساتھ ماونوازوں کی اس تحریک نے اپنے اصولوں کے ساتھ سمجھوتہ کر لیا،لےکن آج بھی مرد اور خواتین کی بڑی تعداد اس میں شامل ہو رہی ہے اور یہ معلوم ہوتا ہے کہ ابھی بھی اس نظریہ میں لوگوں کا یقین باقی ہے۔ہندوستان کا پورا سیاسی سماج نکسلائٹ کی مخالفت کرتاہے۔
قابل غور یہ ہے کہ جب بنگال میں پہلی بار ماونواز سامنے آئے تھے تب سی پی آئی (ایم) حکومت نے مرکز کی کانگریس حکومت کے ساتھ مل کر سخت قدم اٹھائے تھے۔ دیہی سطح پر ماونوازوں کی دہشت گردانہ حکمت عملی کے نتیجہ میں کئی مقامی فوجیں(آرمی) زمیں داروں اور دوسرے لوگوں کی حفاظت کے نام پر بن گئیں۔ ان میں سب سے بدنام بہار اور جھارکھنڈ میں رنبیر سیناہے جو بھومیہار ذات کے زمیں داروں نے بنائی۔ رنبیر سینا قبائلی، دلت، بے زمین مزدروں کو جوابی کارروائی یا پھر اپنے زیر تسلط رکھنے کے لئے مارتی ہے۔
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