Wednesday, September 30, 2009

अल्लाह का शुक्र है की यह आवाज़ सुनी तो गई!


मुझे नहीं मालूम कि अपने अख़बार के माध्यम से मैं जो काम करने का प्रयास कर रहा हूं, वह किस हद तक कारगर सिद्ध होगा? मगर इस बात का संतोष अवश्य है कि धीरे-धीरे ही सही असर हो रहा है। जो आवाज़ सत्ता के गलियारों तक पहुंचती ही नहीं थी वह अब पहुंचने भी लगी है और उस आवाज़ पर ध्यान भी दिया जा रहा है। कोई एक समाचारपत्र देश की तस्वीर या कौम की तक़दीर बदल देगा, इस भ्रम का शिकार तो नहीं हुआ जा सकता, मगर हम निराशा के दायरे से बाहर निकल रहे हैं इसे शुभ संकेत तो समझा ही जा सकता है।

कल रात लगभग 8 बजे उत्तर प्रदेश जिला बस्ती से फोन द्वारा मुझे बताया गया कि यहां साम्प्रदायिक दंगे की स्थिति है बात बड़ी साधारण सी थी, जिसने बड़े विवाद का रूप धारण कर लिया है अगर शीघ्र ही इस पर कोई उचित कदम नहीं उठाया गया तो स्थिति बेकाबू हो सकती है। उसी समय केन्द्रीय सरकार के एक जिम्मेदार व्यक्ति (नाम इसलिए नहीं लिख रहा हूं कि वह हमेशा शोहरत और दिखावे से दूर रहना पसन्द करते हैं) से बात की। उचित परिणाम बरामद हुए। कुछ ही देर में जिला मजिस्ट्रेट स्वयं वहां पहुंचे और स्थिति को और बिगड़ने से बचाया। 11 बजते-बजते महमूद कासमी ने मुझे फोन पर यह सूचना दी कि अल्लाह के फज़ल से अब स्थितियां काबू में हैं और लोग सकून की नींद सो सकते हैं।

दूसरी तसल्ली मुझे उस समय मिली जब ‘‘राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग’’ के अध्यक्ष श्री शफी कुरैशी के ओ.एस.डी. श्री नईम अहमद सिद्दीकी ने मुझे बताया कि दो दिन पूर्व, 27 सितम्बर को आपके समाचार पत्र में शादाब असदक की गुमशुदगी से सम्बन्धित जो समाचार तथा गृहमंत्री के नाम लिखा गया पत्र प्रकाशित किया गया है, उसका नोटिस लेते हुए आयोग के अध्यक्ष ने गृहमंत्री को एक पत्र लिखकर मामले में रूचि लेने का निवेदन किया है, साथ ही महाराष्ट्र और आंध्रा प्रदेश के गृहमंत्री को भी यह पत्र भेजा रहा है ताकि इस मामले में उचित कार्यवाई की जा सके। इस सिलसिले में आयोग के अध्यक्ष को सांसद गुलाम जीलानी का पत्र भी प्राप्त हुआ है। मैं गृहमंत्री के नाम अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष श्रीमान शफी कुरैशी का वह पत्र अपने पत्र के साथ भेज रहा हूं।

अब हम आशा करते हैं कि आंध्रा प्रदेश, राजस्थान तथा महाराष्ट्र की सरकारें जिस मुस्लिम युवक इंजीनियर की गुमशुदगी के बाद से सोई पड़ी थी, अब उनकी नींद जरूर टूटेगी।
.........लेकिन इस तरह के मामले इतने अधिक हैं, अल्लाह ही बेहतर जानता है कि कब हम पूरी तरह सकून की सांस ले सकेंगे। इसके बाद, एक के बाद दूसरा यह अफसोसनाक मामले इस तेज़ी से सामने आते जा रहे हैं कि कुछ समझ में नहीं आता है कि किस तरह उन्हें रोका जाये?
मैं उपरोक्त मामलों में उलझा हुआ था कि मेरे मोबाईल फोन पर सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी का एस.एम.एस मिला, जो पांच मुस्लिम युवकों के उठा लिये जाने तथा उन्हें उत्पीड़न देने से सम्बन्ध रखता था। मैंने फिर इस मामले कों गंभीरता से लेते हुए अपने संवाददाता सलीम सिद्दीकी को शबनम हाशमी, हर्षमन्दर सिंह तथा समबन्धित लोगों से सम्पर्क स्थापित कर घटना का विवरण प्राप्त करने को कहा।

मैं पाठकों तथा भारत सरकार की सेवा में इस आशा के साथ वह रिपोर्ट प्रकाशित कर रहा हूं कि इस सिलसिले में भी उचित कदम उठाया जायेगा।
नई दिल्लीः 29 सितम्बर (सलीम सिद्दीकी/एस.एन.बी.) बड़ौदा पुलिस ने योजनाबद्ध षडयंत्र के तहत पांच मुस्लिम युवकों का अपहरण करने के बाद उन्हें शहर से बाहर एक फार्म हाउस में ले जाकर कई दिन तक टार्चर किया। कई दिन बीतने पर जब यह मामला तूल पकड़ने लगा तो पुलिस ने 6 सितम्बर को उनकी गिरफ्तारी दिखाकर 7 सितम्बर को अदालत में पेश कर दिया। पुलिस ने उनके पास से राॅकेट लांचर तथा सुतली बमों की बरामदगी दिखाकर यह आरोप लगाते हुए झूठा केस दर्ज कर दिया कि यह युवक गणेश विसर्जन यात्रा पर हमला करने की साजिश कर रहे थे। यह खुलासा किया प्रसिद्ध मानव अधिकार संस्था ‘‘अनहद’’ ने और पीड़ितों को न्याय दिलाने में सहायता करने की अपील की। इसके अलावा आज सुबह उन सभी लोगों ने राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग तथा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन से भेंट कर उन्हें अपनी कहानी सुनाई जिसके बाद अल्पसंख्यक आयोग ने इस मामले की जांच के लिए अपनी टीम बड़ौदा भेजने का आश्वासन दिलाया है।


‘‘अनहद’’ संस्था से सम्बन्धित प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी ने मीडिया को बताया कि बड़ौदा पुलिस ने ज़हीर अब्बास और मुश्ताक को एक सितम्बर, इकबाल और अमीन को 2 सितम्बर और उस्मान गनी नवाब को 3 सितम्बर को अचानक उठा लिया और उनके घर वालों को उनके बारे में कोई सूचना नहीं दी गई। जब यह मामला गर्म हुआ तो पूर्व डिप्टी मेयर मोहम्मद भाई दोरा से डीसीपी राकेश स्थाना ने इन युवकों के पुलिस के पास होने की बात स्वीकार की और उन सबकी गिरफ्तारी 6 सितम्बर को दिखाकर उन्हें 7 सितम्बर को न्यायालय में पेश किया गया।

उसी दिन बड़ौदा के पुलिस आयुक्त ने एक प्रेस कांफ्रेंस करके यह दावा किया कि इन युवकों के पास से राकेट लांचर और सुतली बम बरामद किये गये हैं और उनकी योजना गणेश विसर्जन यात्रा पर हमला करने की थी। शबनम हाशमी ने बताया कि इस घटना की जानकारी के बाद वह स्वयं, प्रसिद्ध मानव अधिकार कार्यकर्ता हर्षमन्दर और राहुल राष्ट्रपाल बड़ौदा गये तथा उन युवकों के परिवार वालों से जाकर मिले। यह लोग इतने भयभीत थे कि उन्होंने शुरू में कुछ बताने से ही इंकार किया। काफी विश्वास में लेने के बाद उन्होंने पूरी कहानी बयान की और बताया कि उन्हें पुलिस की ओर से धमकियां दी जा रही हैं।

शबनम हाशमी ने बताया कि उन्होंने 25 सितम्बर को राहुल राष्ट्रपाल, दुष्यंत भाई तथा सचिन पांडया के साथ बड़ौदा सेंट्रल जेल में जाकर उन 5 युवकों में से 2 इकबाल तथा ज़हीर से भेंट की। उन दोनों युवकों ने बताया कि उन्हें शहर से 10-15 किलोमीटर दूर एक फार्म हाउस में ले जाया गया था। वहां उनके अलावा 3 युवक और भी थे। उनके अनुसार पुलिस वालों ने उन सबकों लाठियों से बुरी तरह पीटा, बिजली के झटके दिये और तालिबान आतंकवादी कहते हुए मां तथा बहन को निशाना बनाकर गंदी गालियां दी गईं। ज़हीर ने उन्हें बताया कि उसे हाथ बांधकर छत से लटका दिया गया और सोने नहीं दिया गया। ज़हीर और इकबाल को रोज़ा खोलने के लिए रात के 11 बजे तक भी कुछ नहीं दिया गया। उनसे जबरन यह बात मनवाने का प्रयास किया गया कि वह गणेश विसर्जन यात्रा पर बमों से हमला करने वाले थे। ज़हीर ने उन्हें यह भी बताया कि पुलिस वालों ने उसे जान से मारने की धमकी भी दी।

उच्चतम न्यायालय की अधिवक्ता वन्दना ग्रोवर ने कहा कि पुलिस को किसी भी मामले की जांच करने का पूरा अधिकार है लेकिन किसी को भी अवैध रूप से हिरासत में रखने या टार्चर करने का कोई अधिकार नहीं है। उन्होंने कहा कि पुलिस के इस तरह के रवैये पर केवल अदालत ही रोक लगा सकती है। अदालतों को सबकुछ पता है कि क्या हो रहा है। वन्दना ग्रोवर ने कहा कि काग़ज़ात पर ‘मुसलमान, राकेट लांचर और बम’ लिखा देकर अदालत के भी आंख और कान बन्द हो रहे हैं, यह एक बहुत खतरनाक प्रवृत्ति है। उन्होंने कहा कि जहांतक बात बम या राॅकेट लांचर बरामद किये जाने की है तो आरोपियों के पास से जो भी सामान बरामद दिखाना हो वह सब पहले से ही थानों में मौजूद होता है। उन्होंने कहा कि देश की अदालतों के सामने यह एक बहुत बड़ा चैलेंज है कि यह देश बचेगा या नहीं क्योंकि झूठे केसों की सूची अब बहुत लम्बी हो चुकी है। प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता हर्षमन्दर ने कहा कि बड़ौदा पुलिस ने जिन युवकों को उठाकर उनके विरूद्ध केस दर्ज किये हैं उनके विरूद्ध पहले कोई मामूली झगड़े तक का केस नहीं है। यह प्रचार पूर्ण रूप से गलत है कि वह गणेश विसर्जन यात्रा पर हमला करने वाले थे। पुलिस का यह रवैया और सोच अत्यन्त खतरनाक है। आज यह मुस्लिम युवकों के साथ हो रहा है, कल किसी के भी साथ हो सकता है।

इस अवसर पर शबनम हाशमी, हर्षमन्दर और प्रसिद्ध अधिवक्ता वन्दना ग्रोवर ने इन युवकों की गिरफ्तारी और उन्हें अवैध हिरासत में रखकर कई दिन तक टार्चर करने के लिए पुलिस आयुक्त राकेश अस्थाना, एसीपी राकेश शर्मा, पी.आई. क्राइम ब्रांच, जे.डी. राम गाडिया और पी.आई. बड़ौदा डी.आर. धमाल को दोषी ठहराया है। उन्होंने मानव अधिकार आयोग, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग तथा भारत सरकार से इस पूरे मामले की निष्पक्ष जांच कर दोषी पुलिस अधिकारियों को कठोर सज़ा दिये जाने की मांग की है।
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SMS
5 young men were picked up on September 1st from Baroda and could not be traced for 5 days, produced after 5 days in a court on alleged charges of planning to attack Ganesh Visarjan. Another team managed to meet the families who were threatened not to contact any one. Later we manage to meet two of them in the central jail and were shocked to hear stories of third degree in a private farm house on the outskirt of Baroda. Families of some of the victims appeal to you for support September-29 at her office Shabnam Hashmi, Harshmandar will address along the family members.....................................Shabnam Hashmi
اللہ کا شکر ہے کہ یہ آواز سنی تو گئی
مجھے نہیں معلوم اخبار کے ذریعہ میں جو کام کرنے کی کوشش کررہا ہوں، وہ کس حد تک کارآمد ثابت ہوگا؟ ، مگر اس بات کا اطمینان ضرور ہے کہ آہستہ آہستہ ہی سہی اثر ہورہا ہے، جو آواز ایوانِ اقتدار تک پہنچتی ہی نہیں تھی، وہ اب پہنچنے بھی لگی ہے اور اس آواز پر توجہ بھی دی جارہی ہے۔ کوئی ایک اخبار ملک کی تصویر یا قوم کی تقدیر بدل دے گا، اس غلط فہمی کا شکار تو نہیں ہوا جاسکتا، مگر ہم ناامیدی کے دائرے سے باہر نکل رہے ہیں، اسے ایک خوش آئند پیغام تو سمجھا ہی جاسکتا ہے۔
کل رات تقریباً 8بجے اترپردیش ضلع بستی سے فون کرمحمود قاسمی صاحب نے مجھے بتایا کہ یہاں فرقہ وارانہ فساد کے حالات ہیں۔ بات بڑی معمولی سی تھی، جس نے بڑے تنازع کی شکل اختیار کرلی ہے، اگر فوری طور پر کوئی مناسب قدم نہیں اٹھایا گیا تو حالات بے قابو ہوسکتے ہیں۔ اسی وقت مرکزی حکومت کی ایک ذمہ دار شخصیت(نام اس لےے نہیں لکھ رہا ہوں کہ وہ ہمیشہ نام و نمود سے دور رہنا پسند کرتے ہیں)سے بات کی، خاطرخواہ نتائج برآمد ہوئے۔ کچھ ہی دیر میں ضلع مجسٹریٹ خود وہاں پہنچے اور حالات کو مزید بگڑنے سے بچایا۔ 11بجتے بجتے محمود قاسمی صاحب نے مجھے فون پر یہ اطلاع دی کہ بفضلہ تعالیٰ اب حالات قابو میں ہیں اور لوگ سکون کی نیند سو سکتے ہیں۔دوسری تسلی مجھے اس وقت ملی جب ”نیشنل مائناریٹی کمیشن“ کے چیئرمین محمد شفیع قریشی کے آفیسر آن اسپیشل ڈیوٹی جناب نعیم احمد صدیقی نے بتایا کہ دو روز قبل 27ستمبر کو آپ کے اخبار میں شاداب اصدق کی گمشدگی کے تعلق سے جو خبر اور وزیرداخلہ کے نام لکھا گیا خط شائع کیا گیا ہے، اس کا نوٹس لیتے ہوئے کمیشن کے چیئرمین نے وزیرداخلہ کو ایک خط لکھ کر معاملہ میں دلچسپی لینے کی درخواست کی ہے، ساتھ ہی مہاراشٹر اور آندھراپردیش کے وزیرداخلہ کو بھی یہ خط روانہ کیا جارہا ہے، تاکہ اس معاملہ میں مناسب کارروائی کی جاسکے۔
اس سلسلہ میں کمیشن کے چیئرمین کو ممبرپارلیمنٹ غلام جیلانی کا مکتوب بھی موصول ہوا ہے۔ میں وزیرداخلہ کے نام اقلیتی کمیشن کے چیئرمین محترم محمد شفیع قریشی کا وہ خط اپنے رقعہ کے ہمراہ ارسال کررہا ہوں۔اب ہم امید کرسکتے ہیں کہ آندھراپردیش، راجستھان اور مہاراشٹر کی سرکاریں جس مسلم نوجوان انجینئر کی گمشدگی کے بعد سے سوئی پڑی تھیں، اب ان کی نیند ضرور ٹوٹے گی۔....لیکن اس طرح کے معاملے اس قدر زیادہ ہےں کہ اللہ ہی بہتر جانتا ہے،کب ہم پوری طرح سکون کی سانس لے سکیں گے۔اس کے بعد یکے کے بعد دیگرے یہ افسوسناک معاملات اس تیزی سے سامنے آتے جارہے ہیں کہ کچھ سمجھ میں نہیں آتا کہ کس طرح انہیں روکا جائے؟
میں مذکورہ بالا معاملات میں الجھا ہوا تھا کہ میرے موبائل فون پر سماجی کارکن شبنم ہاشمی کاایس ایم ایس ملا، جو پانچ مسلم نوجوانوں کے اٹھالئے جانے اور انہیں اذیتیں دینے سے تعلق رکھتا تھا، میں نے پھر اس معاملہ میں دلچسپی لیتے ہوئے اپنے نامہ نگار سلیم صدیقی سے کہا کہ شبنم ہاشمی، ہرش مندرسنگھ اور متعلقین سے رابطہ قائم کر واقعہ کی تفصیل حاصل کریں۔ میں قارئین اور حکومت ہند کی خدمت میں اس امید کے ساتھ وہ رپورٹ شائع کررہا ہوں کہ اس سلسلہ میں بھی مناسب قدم اٹھایا جائے گا:بڑود ہ پولس نے منصوبہ بندسازش کے تحت پانچ بے قصور مسلم نوجوانوں کا اغوا کرنے کے بعد انہیں شہر سے باہر ایک فارم ہاﺅس میں لے جا کرکئی دن تک ٹارچر کیا۔کئی دن گزرنے پر جب یہ معاملہ طول پکڑنے لگا تو پولس نے 6ستمبر کو ان کی گرفتاری دکھا کر 7ستمبر کو عدالت میں پیش کر دیا۔
پولس نے ان کے پاس سے راکٹ لانچر اور ستلی بم برآمد دکھا کریہ الزام لگاتے ہوئے جھوٹا مقدمہ درج کر دیا کہ یہ نواجون ’گنیش وسرجن یاترا ‘پر حملہ کرنے کی سازش کر رہے تھے۔یہ انکشاف کیا معروف انسانی حقوق تنظیم ’ انہد‘ نے اور اس نے مظلومین کو انصاف دلانے میں مدد کرنے کی اپیل کی۔اس کے علاوہ آج صبح ان تمام لوگوں نے قومی انسانی حقوق کمیشن اور قومی اقلیتی کمیشن کے چیئرمین سے ملاقات کر ان سے اپنی روداد بیان کی، جس کے بعد اقلیتی کمیشن نے اس معاملے کی تفتیش کے لئے اپنی ٹیم بڑودہ بھیجنے کی یقین دہانی کرائی ہے ۔ ’انہد ‘تنظیم سے متعلق معروف سماجی کارکن شبنم ہاشمی نے میڈیا کو بتایا کہ بڑودہ پولس نے ظہیر عباس اور مشتاق کو یکم ستمبر، اقبال اور امین کو 2ستمبر اور عثمان غنی نواب کو 3ستمبر کو اچانک اٹھا لیا اور ان کے گھر والوں کو ان کے بارے میں کوئی اطلاع نہیں دی گئی ۔
جب یہ معاملہ گرم ہوا تو سابق ڈپٹی میئر محمد بھائی وورا سے ڈی سی پی راکیش استھانہ نے ان نوجوانوں کے پولس کے پاس ہونے کی بات قبول کی اوران سب کی گرفتاری 6ستمبر کو دکھا کر انہیں 7ستمبر کو عدالت میں پیش کیا گیا۔ اسی دن بڑودہ کے پولس کمشنر نے ایک پریس کانفرنس کر کے یہ دعویٰ کیا کہ ان نوجوانوں کے پاس سے راکٹ لانچر اور ستلی بم برآمد کئے گئے ہیں اور ان کا منصوبہ گنیش ورسجن یاترا پر حملہ کرنا تھا۔ شبنم ہاشمی نے بتایا کہ اس واقعہ کا علم ہونے کے بعد وہ خود،معروف انسانی حقوق کارکن ہرش مندر اور راہل راشٹرپال بڑودہ گئے اور ان نوجوانوں کے گھر والوں سے جا کر ملے ۔ یہ لوگ اتنے خوف زدہ تھے کہ انہوں نے شروع میں کچھ بتانے سے ہی گریز کیا ۔ کافی اعتماد میں لینے کے بعد انہوں نے تمام داستان بیان کی اور بتایا کہ انہیںپولس کی جانب سے دھمکیاں دی جا رہی ہیں ۔ شبنم ہاشمی نے بتایا کہ انہوں نے 25ستمبر کوراہل راشٹرپال،دشینت بھائی اور سچن پانڈیا کے ساتھ بڑودہ سینٹرل جیل میں جا کر ان پانچ نوجوانوں میں سے دو اقبال اور ظہیر سے ملاقات کی۔
ان دونو ںنوجوانوں نے بتایا کہ انہیں شہر سے 10-15کلومیٹر دور ایک فارم ہاﺅس میںلے جایا گیا تھا،وہاں ان کے علاوہ تین نوجوان اور بھی تھے ۔ ان کے مطابق پولس والوں نے ان سب کو لاٹھیوں سے بری طرح سے پیٹا ، بجلی کے جھٹکے دئے گئے اور طالبان و دہشت گرد کہتے ہوئے ماں اور بہن کو نشانہ بنا کرفحش گالیاں دی گئیں۔ ظہیر نے انہیں بتایا کہ اس کے ہاتھ باندھ کر چھت سے لٹکا دیا گیا اور سونے نہیں دیا گیا۔ظہیر اور اقبال کو روزہ کھولنے کے لئے رات کے گیارہ بجے تک بھی کچھ نہیں دیا گیا ۔ ان سے جبراً یہ بات قبول کرانے کوشش کی گئی کہ وہ گنیش وسرجن یاترا پر بموں سے حملہ کرنے والے تھے۔ ظہیرنے انہیں یہ بھی بتایا کہ پولس والوں نے اسے جان سے مارنے کی دھمکی بھی دی۔سپریم کورٹ کی وکیل وندنا گروور نے کہا کہ پولس کو کسی بھی معاملے کی تفتیش کرنے کا پورا ختیار ہے، لیکن اسے کسی کو بھی غیر قانونی حراست میں رکھنے یا ٹارچر کرنے کا کوئی حق نہیں ہے۔ انہوں نے کہا کہ پولس کے اس طرح کے عمل پر صرف عدالت ہی روک لگا سکتی ہے ۔
عدالتوں کو سب کچھ پتہ ہے کہ کیا ہو رہا ہے؟ وندنا گروور نے کہا کہ کاغذات پر ’ مسلمان، راکٹ لانچر اور بم ‘ لکھا دیکھ کر عدالت کے بھی آنکھ اور کان بند ہو رہے ہیں ، یہ ایک بہت خطرناک رجحان ہے۔انہوں نے کہا کہ جہاں تک بات بم یا راکٹ لانچر برآمد کئے جانے کی ہے تو ملزمان کے پاس سے جو بھی سامان برآمد دکھانا ہو وہ سب پہلے سے ہی تھانوں میں موجود ہوتا ہے۔انہوں نے کہا کہ ملک کی عدالتوں کے سامنے یہ ایک بہت بڑا چیلنج ہے کہ یہ ملک بچے گا یا نہیں کیونکہ اب جھوٹے کیسوں کی فہرست بہت طویل ہو چکی ہے۔معروف سماجی کارکن ہرش مندرنے کہا کہ بڑودہ پولس نے جن نوجوانوں کو اٹھا کر ان کے خلاف مقدمات درج کئے ہیں، ان کے خلاف پہلے کوئی معمولی جھگڑے تک کا کیس نہیں ہے۔ یہ پروپیگنڈہ سراسر غلط ہے کہ وہ گنیش ورسجن یاترا پر حملہ کرنے والے تھے۔ پولس کا یہ رویہ اور سوچ انتہائی خطرناک ہے۔
آج یہ مسلم نوجوانوں کے ساتھ ہو رہا ہے کل کسی کے بھی ساتھ ہو سکتا ہے۔ اس موقع شبنم ہاشمی، ہرش مندر اور معروف وکیل وندنا گروور نے ان نواجوانوں کی گرفتاری اور انہیں غیر قانونی حراست میں رکھ کر کئی دن تک ٹارچر کرنے کے لئے پولس کمشنر راکیش استھانہ، اے سی پی راکیش شرما، پی آئی کرائم برانچ جے ڈی رام گاڈیا اور پی آئی بڑودہ سٹی ڈی آر دھمال کو قصور وار قرار دیا ہے۔ انہوں نے انسانی حقوق کمیشن،قومی اقلیتی کمیشن اور حکومت ہند سے اس پورے معاملے کی غیر جانبدارانہ تفتیش کراکر قصور وار پولس افسران کو سخت سزا دئے جانے کا مطالبہ کیا ہے۔
ایس ایم ایس
یکم ستمبر کو بروڈا سے پانچ نوجوانوںکو اٹھایا گیا اور ان کا 5دن تک کوئی پتہ نہیں چلا۔ پانچ روز بعد انہیں ”گنیش وسرجن“ پر حملہ کی منصوبہ بندی کرنے کے مبینہ الزام میں عدالت میں پیش کیا گیا۔ ایک اور ٹیم نے ان کے اہل خاندان سے ملاقات کی اور انہیں دھمکی دی کہ وہ اس سلسلہ میں کسی سے رابطہ قائم نہ کریں۔ بعد میں ہم نے ان میں سے دو سے سینٹرل جیل میں ملاقات کی اور بیرون بڑودا واقع ایک پرائیویٹ فارم ہاو¿س میں انہیں سخت ایذائیں دینے کی کہانیاں سن کر ہمیں دھکا لگا۔ کچھ مظلومین کے خاندان آپ سے اپیل کرتے ہیں کہ آپ شبنم ہاشمی،ہرش مندرکے دفتر میں29ستمبر کو ان کی حمایت کے لےے تشریف لائیں، جہاں ہرش مندر اورمظلومین کے اہل خانہ بات چیت کریں گے۔................................شبنم ہاشمی
محمد شفیع قریشی ڈی او نمبرسی ایچ 392009-این سی ایم
چیئرپرسن حکومت ہند
قومی اقلیتی کمیشن
29ستمبر2009
محترم!
جےسا کہ آپ سے بات ہوئی تھی ، قومی اقلےتی کمےشن کے عزت مآب چےئر پرسن کی جانب سے مرکزی وزےر داخلہ کے نام روانہ کردہ لےٹر( اس کی کاپےاں مہاراشٹر اور آندھرا پردےش کے وزرائے داخلہ کو بھی روانہ کی گئی ہےں) کی اےک کاپی آپ کو بذرےعہ فےکس بھےجی جارہی ہے۔ ےہ لےٹرشری سےد شاداب اصدق کی گمشدگی سے متعلق ہے۔
احترام کے ساتھ
آپ کا
(نعیم احمد صدےقی)
بخدمت
جناب عز ےز برنی
گروپ اےڈےٹر
راشٹرےہ سہارا


ستمبر2009 29

شری پی چدمبرم ،عزت مآب وزیر داخلہ

میں مجاہد آزادی، سابق ایم ایل اے ، ایم ایل سی اورایم سی اے جموں و کشمیر پیر زادہ غلام جیلانی کے ذریعہ بھیجے گئے اس مکتوب کو منسلک کر رہا ہوں جو سید شاداب اصدق ولد ممشاد اصدق ساکن کوٹہ، راجستھان کے سکندرآباد، جے پور ہالی ڈے اسپیشل (0995) سے سفر کے دوران08-09-2009 کو صبح 10:10 بجے ناگپور اسٹیشن سے لاپتہ ہونے کے متعلق ہے۔ وہ حیدر آباد سے کولکاتا جارہا تھا۔اس کے اعزا و اقارب تمام تر کوششوں کے باوجود اس گمشدہ نوجوان کاپتہ نہیں لگا سکے۔ 20 دن گزر جانے کے بعد بھی پولس اس کا سراغ لگانے میں ناکام ہے۔ میرے خیال میں سید شاداب اصدق کے والد سید ممشاد اصدق روزنامہ راشٹریہ سہارا نئی دہلی کے دفتر سے آپ کے دفتر میں فیکس کی گئی درخواست میں آپ سے مداخلت کی استدعا کرچکے ہیں۔ سید شاداب اصدق کے والدین بیٹے کے اچانک لاپتہ ہونے سے صدمے کی حالت میں ہیں۔
اگر آپ کی نوازش،کوشش اورمداخلت کی بدولت متعلقہ حکام اس گمشدہ نوجوان کا پتہ لگاسکیں تاکہ یہ نوجوان اپنے اعزا کے پاس آجائے اور وہ مطمئن ہوسکیں تو میں اس سلسلہ میں آپ کا شکر گزار رہوںگا۔
چونکہ یہ واقعہ ناگپور اسٹیشن پر پیش آیا،لہٰذا میں اس درخواست کی کاپیاں مہاراشٹر اور آندھرا پردیش کے وزرائے داخلہ کو بھی روانہ کررہا ہوں تاکہ وہ اس معاملہ میں کارروائی کرسکیں۔

شری پی چدمبرم آپ کا مخلص
عزت مآب وزیر داخلہ
حکومت ہند(محمد شفیع قریشی)
کمرہ نمبر 104،نارتھ بلاک
نئی دہلی-110001

Tuesday, September 29, 2009

जो खोया है सियासत में, वो मिलेगा भी सियासत से ही

जो खोया है सियासत में, वो मिलेगा भी सियासत से ही
एक पैसा भी खो जाता है अगर किसी का तो वह ढूंढता है उसे, वापस पाना चाहता है, उसे एहसास रहता है अपने एक पैसे के खो जाने का.... और हमने तो अपना सब कुछ खो दिया, मगर कोई तलाश कोई प्रयास ही नहीं। हमने अपना राजपाट खो दिया, शान-व-शौकत और सम्मान खो दिया.......भाई-भाई से बिछड़ गया....... हमारे लिए अपना ही देश बेगाना हो गया। क्या कुछ नहीं खोया हमने? क्या आज़ादी इसलिए पाई थी हमने अपना खून पसीना बहाकर सब कुछ इस तरह खो देंगे? फिर भी हमें एहसास नहीं है। हम फिर से कुछ भी पाना नहीं चाहते।

शायद हमने हालात से समझोता कर लिया है। ऐसा क्यों? जिसका एक पैसा भी खो जाता है, अगर वह उसे पाना चाहता है, उसे उसके खो जाने का एहसास बाकी रहता है तो फिर हमें अपना सब कुछ खो देने का एहसास क्यों नहीं? हमारे मन व मस्तिष्क में फिर से अपना खोया हुआ सम्मान पाने का संघर्ष क्यों नहीं? स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी हमने, देश को गुलामी की जं़ज़ीरों से छुटकारा दिलाया हमने, अंग्रेज़ों को देश छोड़कर चले जाने पर मजबूर किया हमने, स्वतंत्रता के गीत गाए हमने, तराने लिखे हमने, पत्रकारिता द्वारा दिलों में भावनाएं जगाईं हमने, अंगे्रेज़ों के अत्याचार सहन किए हमने। हम नहीं कहते कि इस लड़ाई में हमारे देशवासी शामिल नहीं थे परन्तु इतिहास साक्षी है हर मोर्चे पर हम दूसरों से आगे थे, हमारे हज़ारों उलेमा फिरंगियों द्वारा फंासी पर चढ़ा दिए गए

फिर यह क्या हुआ कि वह देश से प्रेम, वह बलिदान सबकुछ भुला दिया गया। और हमें हमारे ही देश में ग़द्दार घोषित कर दिया जाने लगा। हम पर ही हमारे देश की ज़मीन तंग की जाने लगी। हमको ही पराया कहकर पुकारा जाने लगा। देश के विभाजन का दाग़ हमारे दामन पर लगा, जबकि विभाजन हमारे सीने पर सबसे बड़ा घाव था, जिसके लिए हम नहीं बल्कि राजनीति ज़िम्मेदार थी और अब तो वह भी इस वास्तविकता को स्वीकार करने लगें हैं जो यह आरोप हम पर लगाने में सबसे आगे थे। फिर हम क्यों नहीं समझते कि हमें बेहैसियत बना देने वाली राजनीति है। हमसे हमारी ज़बान छीन लेने वाली राजनीति है। हमें हमारे ही देश में बेगाना बना देनी वाली राजनीति है। भाई को भाई से अलग कर देने वाली राजनीति है।

आज हमें गुलामों से भी बुरा जीवन व्यतीत करने पर विवश कर देने वाली राजनीति है। फिर क्यों नहीं समझते हम राजनीति के इस खेल को? हमें क्यों आवश्यक नहीं लगता कि हमने अपना सब कुछ खो दिया, जिस राजनीति के चलते उसको पाने का तरीक़ा भी राजनीति के बिना संभव नहीं...... ऐसा नहीं कि हम में योग्यता का अभाव है, ऐसा नहीं कि हम में ज्ञान की कमी है, ऐसा नहीं कि ताकत, जोश व जज्बे की कमी है, ऐसा नहीं कि हम में राजनीतिक सोच की कमी है, हां अगर अभाव है तो केवल इच्छा शक्ति का, आपसी एकता का, राजनीतिक सूझबूझ का और सबसे बढ़कर एक सियासी सिपहसालार का।हम जब जंग के मैदान में उतरते हैं तो वीर अब्दुल हमीद के नाम से जाने जाते हैं। इतिहास हमारी बहादुरी की कहानियों को भुला नहीं सकता। चाहे चर्चा शहीद अशफाकुल्लाह खां की हो, वीर अब्दुल हमीद की या कैप्टन जावेद की।

हर कदम पर हमारा खून काम आया है और रंग लाया है। हम विज्ञान तथा टैक्नालोजी को अपने ध्यान का केन्द्र बनाएं तो ए।पी.जे. अब्दुल कलाम भी हमारी ही पंक्तियों से निकलता है, जिसने देश को एटमी पावर बनाया, कला की बात करें तो शहनशाह-ए-जज्बात यूसुफ खां (दिलीप कुमार) से लेकर आमिर खांन, शाहरूख ख़ान, सलमान खांन सब इसी खून से पैदा हैं गायकी का मैदान हो तो स्वर्गीय मोहम्मद रफी की आवाज़ को भुलाया नहीं जा सकता, नौशाद की धुन आज भी हमारे कानों में गूंजती है। खेल के मैदान की ओर जाएं तो नवाब मंसूर अली ख़ां पटौदी से लेकर सानिया मिर्ज़ा तक एक लम्बी सूची है, जब हमारे खिलाड़ियों ने मुल्क का नाम रोशन किया। व्यवसाय में अज़ीम प्रेम जी जैसे नाम हमारे सामने हैं तो चित्रकला में मकबूल फिदा हुसैन भी हमने ही दिया है

और अगर राजनीति की चर्चा करें तो दामन यहां भी हमारा ख़ाली कहां रहा है। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद हमारी ही सफों में से थे, शाहनवाज़ खां, रफी अहमद किदवाई, शौकतुल्लाह अंसारी, सआदत अली खां, मोलाना हिफजुर्रहमान, जुल्फिकार अली खां, इब्राहीम सुलेमान सेठ, यूनुस सलीम, मौलाना इसहाक संभली, गुलाम महमूद बनातवाला, सी.के. जाफर शरीफ, ए.आर.अंतुले, डा. फारूक अब्दुल्लाह, सै. शहाबुद्दीन, तारिक अनवर से लेकर अहमद पटेल, प्रोफेसर सैफुद्दीन सोज़, गुलाम नबी आज़ाद, सुल्तान सलाहुद्दीन उवैसी, सलीम शेरवानी, आज़म खां और ऊमर अब्दुल्लाह तक मुस्लिम राजनीतिज्ञों की कमी नहीं है।

हां, मगर उनमें से कोई भी न तो मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की जगह ले सका और वर्तमान की बात करें तो न ही मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और मायावती की तरह अपनी कौम का प्रतिनिधित्व करने के योग्य बन सका, कारण उनमें राजनीतिक दृष्टि की कमी रहा, उन पर कौम के विश्वास का या फिर यह भी जान बूझकर एक सोचे समझे षडयंत्र का परिणाम था कि जिस प्रकार मोहम्मद अली जिन्ना को भारत की राजनीति से दरकिनार करने के लिए भारत के प्रधानमंत्री पद की दावेदारी से बाहर करने के लिए उन्हें ज़मीन का एक टुकड़ा देकर अलग किया गया और उनके बाद मुसलमानों में से कोई इस ओर सोच भी न सके इसी षडयंत्र के मद्देनज़र मुसलमानों पर देश के विभाजन का आरोप लगाया गया और यह झूठ हज़ार बार इसीलिए बोला गया कि सच सा लगने लगे।

मुसलमान अपराध बोध तथा हीनभावना का शिकार बना रहे। पहले दो और फिर तीन टुकड़ों में बंटकर उसकी शक्ति बिखर जाये। वह कभी राजनीति शक्ति बनने के बारे में सोच भी न सके। इसी प्रकार उसके बाद जब धीरे-धीरे नई पीढ़ी जवान होने लगी, जिस पर देश के विभाजन की जिम्मेदारी नहीं डाली जा सकती थी, तब यह तय किया गया कि उन्हें राजनीतिक शक्ति न बनने देने का एक ही उपाय है कि उनके बीच से नेतृत्व न उभरने दिया जाये जब भी लगे कि अमुक व्यक्ति योग्य है और राजनीतिक दृष्टि रखता है, जो अपनी कौम का नेतृत्व कर सके तो उसे या तो महत्वहीन बनाकर पीछे डाल दिया गया या फिर उसे उपकारों के तले दबाकर स्वयं उसकी ज़ात तक सीमित कर दिया गया कि वह अपने संकुचित दायरे से बाहर निकलकर कौम के बारे में सोच भी न सके।

प्रश्न उबैदुल्लाह ख़ां आज़मी के समाजवादी पार्टी में शामिल होने का उठा तो भारत की मुस्लिम राजनीति के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य पर एक उचटती नज़र डालने की आवश्यकता महसूस हुई। हमारा अतीत बहुत शानदार था, वर्तमान भी बहुत बेहतर हो सकता था अगर हमने साम्प्रदायिक और संकुचित विचारों की राजनीति को समझ लिया होता और भविष्य भी संवर सकता है, अगर हम मज़बूत इच्छाशक्ति के साथ तमाम परिस्थितियों का विश्लेषण कर सुनियोजित रूप से कोई राजनीतिक रणनीति बना सकें तो मैं केवल एक उदाहरण आपके सामने रखना चाहता हूं, जनवरी 2004 में मुलायम सिंह यादव ने गन्नूर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा और कुल डाले गये मतों का 92 प्रतिशत प्राप्त कर एक इतिहास लिखा जब उन्होंने अपने विरोधी को एक लाख 83 हज़ार 899 मतों से हरा दिया। संसदीय चुनाव में सफलता की ऐसी ही मिसाल हाजीपुर (बिहार) से जीतकर रामविलास पासवान ने स्थापित की जब गिनीज़ वल्र्ड रिकार्ड में उनका नाम दर्ज किया गया। क्या हमने कभी अपने राजनीतिक प्रतिनिधियों को ऐसी भव्य सफलता दिलाने के बारे में सोचा है?

हमें चिंता नहीं कि पिछले संसदीय चुनावों में सी.के. जाफर शरीफ, ए.आर. अंतुले तथा तारिक अनवर जैसे मुस्लिम राजनीतिज्ञ क्यों हार गये? सलीम इकबाल शेरवानी को सफलता क्यों नहीं प्राप्त हो सकी? आज़म खां जो एक राजनीतिक महत्व रखते थे क्यों महत्वहीन हो गये? सीएम इब्राहीम जो एक समय में केन्द्रीय सरकार में प्रधानमंत्री के बाद सबसे ताकतवर समझे जाते थे, अब संसद में भी क्यों नहीं पहुंच सके? यह बात हमारी समझ में क्यों नहीं आती कि यह सबकुछ अचानक नहीं हो जाता है, बल्कि इसके पीछे एक बहुत गहरी साजिश हो सकती है। कट्टर राजनीतिज्ञ नहीं चाहते कि मुसलमानों में से कोई इतना शक्तिशाली राजनीतिज्ञ उभरे कि पूरी मुस्लिम कौम उसके पीछे खड़ी हो जाये। इसलिए अगर ऐसा हो गया तो जनसंख्या के अनुपात के अनुसार उसकी शक्ति को नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता।

फिर चाहे मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में लेने की बात हो, उनकी शिक्षा तथा पिछड़ेपन का मामला हो, उनके कारोबार को बढ़ावा देने की बात हो या उनके माथे से आतंकवाद का दाग़ मिटाने का प्रश्न............हर जगह वह मुस्लिम नेता ढाल की तरह खड़ा नज़र आयेगा। कम व बेश एक ‘‘काॅमन मिनिमम प्रोग्राम’’ की सोच के तहत इस मामले में सभी एक मत हैं, इसलिए चाहे प्रश्न आज़म ख़ां का हो, सलीम शेरवानी का या उबैदुल्लाह ख़ां आज़मी का, कैसे उन्हें आगे बढ़ने से रोकना है, बन्द कमरे में बैठकर यह तय कर लिया जाता है। किसी से कुछ छीनकर उसे महत्वहीन बना दिया जाता है तो किसी को कुछ देकर और हम हैं कि इस राजनीति को समझ ही नहीं पाते। काश कि वह वक्त आए कि हम इन राजनीतिक चालों को समझने लगें और जिस तरह अन्य विभागों में बड़ी सफलताएं प्राप्त की हैं, उसी तरह राजनीति के मैदान में भी सिद्ध कर दें कि अब यह कौम राजनीतिक नेतृत्व के लिए दूसरों की मोहताज नहीं है।

काश कि हम यह समझ लें कि हम तो वह कौम हैं कि चार लोग भी किसी यात्रा के लिए निकलते हैं तो पहले कारवां के एक मुखिया का चुनाव कर लेते हैं। आज इस कारवां में 20 करोड़ से अधिक लोग हैं और कोई कारवां का मुखिया नहीं.......! बस इसीलिए हम ज़लील व ख्वार हो रहे हैं, दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं, हमारे शिक्षित युवक रास्ते से उठाए जा रहे हैं और हम हैं कि बस आंसू बहाए जा रहे हैं, इससे आगे कुछ सोचते ही नहीं। सोचो आखिर कब सोचोगे?

नीचे पी डी ऍफ़ की लिंक दी जारही
http://groups.google.com/group/aziz-burney/web/jo%20khoya%20hai%20siyasat%20mein%20wo%20milega%20bhi%20siyasat%20se%20hi.pdf?hl=en

Monday, September 28, 2009

एक किनारे पर आप, एक पर कल्याण और क़ौम.........

मौलाना उबैदुल्लाह खां आज़मी साहब का समाजवादी पार्टी में सम्मिलित होना कोई ऐसा विषय नहीं है, जिस पर एक पंक्ति में टिप्पणी करके मामले को समाप्त कर दिया जाये और न ही इसमें प्रशंसा का ऐसा कोई पहलू है कि उन्हें बधाई दी जाये या उनके गुणगान किए जाएं। यह एक ऐसा मामला है जिस पर शांत भाव से विचार विमर्श करने की आवश्यकता है। केवल मुस्लिम राजनीतिज्ञों को ही नही बल्कि पूरे समुदाय को। मौलाना उबैदुल्लाह खां आज़मी राजनीतिज्ञ हैं मगर राजनीति में इस तरह डूबे नहीं हैं कि राजनीति ही उनका ओढ़ना बिछौना हो। यदि ऐसा होता तो 15वीं लोकसभा के चुनाव के अवसर पर वह घर में बैठे नहीं रहते। सही अर्थाें में अगर देखा जाए तो वह एक ‘सीज़नल पोलिटिशयन’ हैं। राजनीतिक दलों को उनकी सबसे अधिक आवश्यकता चुनावों के अवसर पर होती है, इसलिए वह जिस पार्टी में होते हैं उसके पक्ष में भाषण करके माहौल को सकारात्मक बनाने का प्रयास करते हैं। अल्लाह ने उन्हें भाषण के कला में यह विशेषता प्रदान की है कि विषय चाहे धर्म हो या राजनीति, वह घंटों धारा प्रवाह बोल सकते हैं। श्रोताओं से भरपूर वाह-वाही प्राप्त कर सकते हैं।

उनकी इसी विशेषता ने 18 वर्ष तक उन्हें संसद सदस्य बनाये रखा। दो बार जनता दल और एक बार कांग्रेस द्वारा वह राज्यसभा के लिए चुने जा चुके हैं। पिछले संसदीय चुनाव के बहुत पहले उनके और कांग्रेस के बीच तनाव उत्पन्न हो गया था और उन्होंने समाजवादी पार्टी के पक्ष में कार्य करना शुरू कर दिया था। कांग्रेस से क्षुब्ध नटवर सिंह भी समाजवादी पार्टी के ख़ेमे में थे मगर उनका मामला थोड़ा अलग था। अतिसम्भव था, मौलाना उबैदुल्लाह ख़ां आज़मी पिछले संसदीय चुनाव से पहले ही समाजवादी पार्टी का अंग बन गये होते परन्तु शायद कल्याण सिंह के मुद्दे ने उन्हें उस समय यह निर्णय लेने से रोके रखा तथा आज भी जब उन्होंने समाजवादी पार्टी का दामन थामा तो उन्हें यह स्पष्ट करना आवश्यक लगा कि अगर कल्याण सिंह भी समाजवादी पार्टी में शामिल हो जाते हैं तो दोनों नदी के दो किनारों की तरह रहेंगे, जो कभी नहीं मिलते।

पिछले कुछ दिनों से मेरी पत्नि बहुत बीमार थीं और इसके लिए एक हद तक मैं स्वयं को भी जिम्मेदार महसूस करता हूं, इसलिए कि मैं उन्हें इतना समय दे ही नहीं सका कि उनका या घर का ध्यान रख पाता, लिहाज़ा तय किया कि सभी व्यस्थताएं अपनी जगह पर और उनकी बीमारी पर ध्यान अपनी जगह....... .और इसी भावना के मद्देनज़र पहला फैसला यह किया कि काम के अलावा बाकी पूरा समय उनके साथ बिताया जाये.........और पिछले दो-तीन महीनों के दौरान व्यवहारिक रूप से यही किया भी। अल्लाह का शुक्र है कि अब वह बहुत हद तक ठीक हैं। इस बीच एक ख़ास बात यह हुई कि मुझे टेलीवीज़न पर दिखाये जाने वाले सीरियल देखने का बहुत अवसर मिला, इसिलए कि टी.वी. सीरियल मेरी पत्नि की पहली पसन्द हैं और मैं उनके कमरे में उनके साथ ही रहता हूँ। आप सोचेंगे कि मैं मौलाना उबैदुल्लाह खां आज़मी साहब के समाजवादी पार्टी में सम्मिलित होने की चर्चा करते-करते अपनी घरेलू कहानी तथा टी.वी. सीरियल का उल्लेख क्यों ले बैठा? तो श्रीमान इसका एक विशेष कारण है जो मैं अगली कुछ पंक्तियों में लिखने जा रहा हूं।

ज़ी. टेलीवीज़न पर दिखाये जाने वाले एक सीरियल का नाम है ‘‘करोल बाग 24/48’’ इस सीरियल की केन्द्रीय भूमिका एक 28 वर्षीय अविवाहित युवती है, जिसका विवाह नहीं हो पा रहा था। यहां तक कि विवाह कराने वाली महिला भी यह स्वीकार करती है कि उसे इस युवती के लिए रिश्ता तलाश करने में उसे असफलता ही हासिल हुई और यदि वर्तमान रिश्ता भी नहीं मिलता तो वह अविवाहित ही रह जाती। लड़की अगर बहुत सुन्दर नहीं तो बदसूरत तो निश्चय ही नहीं है। गोरा रंग, अच्छा नाक नक्शा, कद भी ठीक ठाक है, शिक्षित है, मध्यम वर्गीय परिवार की है, किसी प्रकार की कोई कमी नहीं, न लूली लंगड़ी है और न गूंगी बहरी.........फिर भी उचित रिश्ता नहीं मिला और अब जिस लड़के से रिश्ता तय हेाता है, उसमें सभी प्रकार की खराबियां हैं। लड़का आवारा,बदचलन, अयाश स्वभाव का है, शराब पीता है, लड़कियां छेड़ने के अपराध में हवालात की हवा खा चुका है। लड़की के भाई को बिगाड़ने के उद्देश्य से उसे भी शराब पिलाता है। दो परिवारों के बीच घृणा का कारण बनता है मगर यह सभी खराबियां भी उस लड़की को स्वीकार हैं, इसलिए कि वह अपने छोटे भाई बहनों के विवाह में बाधा बनना नहीं चाहती और जीवन भर अविवाहित रहने का कलंक भी दामन पर नहीं लेना चाहती इसलिए न केवल वह इस रिश्ते को स्वीकार कर लेती है बल्कि उसके विरोध में उठने वाली हर आवाज़ को दबाती भी है।

क्या राजनीतिक दृष्टि से मौलाना उबैदुल्लाह खां आज़मी साहब भी ऐसे ही किसी मानसिक तनाव का शिकार हो गये थे। अगर नहीं तो मुझे क्षमा करें मौलाना आज़मी साहब, मैं कुछ कहने का प्रयास कर रहा हूं। आपके तथा अपने समुदाय के सामने कुछ कटु तथ्य प्र्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूं। संभव है आपके कारण कुछ विभिन्न हों, मगर राजनीति में मुसलमानों के पास विकल्प हैं ही कहां? राष्ट्रीय स्तर की एक पार्टी है कांग्रेस और कुछ राज्यों में कुछ क्षेत्रीय पार्टियां। भारतीय जनता पार्टी में वह जा नहीं सकते और जो पार्टियां भारतीय जनता पार्टी के साथ कदम से कदम मिलाकर चलती हैं, उनकी ओर देखना भी जोखिम भरा लगता है। यह राजनीतिक सच्चाई सभी पर ज़ाहिर है, इसलिए कांग्रेस या बाकी बची दो-चार धर्मनिर्र्पेक्ष कहलाने वाली पार्टियां मुस्लिम राजनीतिज्ञों को अपने साथ जोड़ती हैं तो उन पर उपकार करती हैं, उनका उपकार नहीं मानतीं।

मुझे याद है, प्रोफेसर सैफुद्दीन सोज़ साहब का वह वाक्य जो उन्होंने 1999 में अपने एक वोट द्वारा भारतीय जनता पार्टी की केन्द्रीय सरकार को गिराने का ऐतिहासिक कारनामा अंजाम देने के बाद कहा था। ‘‘अज़ीज़ भाई, यह सिद्धांतों की बात पुस्तकों में बन्द रहने दीजिए, जब आप पर बीतेगी तो जानेंगे कि कोई आपके बलिदान को पूछता ही नहीं। मैं केन्द्रीय मंत्री था, मेरे एक वोट से साम्प्रदायिक सरकार गिरी, आज कई महीने बीत गये, किसने यह कष्ट किया कि जाने, मैं किस स्थिति में हूं?’’ यह उनका अनुभव बोल रहा था।

मैं मौलाना उबैदुल्लाह खां आज़मी साहब का बचाव करना नहीं चाहता, मैं उनके इस निर्णय को निजी रूप में पसन्द नहीं करता। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। कल्याण सिंह कोई ऐसा मुद्दा नहीं हैं, जिस नदी के दो किनारों की मिसाल देकर टाल दिया जाये, मगर मैं उनसे कुछ नहीं कहना चाहता। मैं कुछ अपने समुदाय से कहना चाहता हूं, उनके समुदाय से कुछ कहना चाहता हूं, इसलिए कि उनके इस फैसले ने कम से कम मुझे तो विचलित कर दिया है। मैंने अपने कल के लेख में ईद के दिन ठाकुर अमर सिंह जी के आने का उल्लेख किया था तथा उनके साथ डेढ़ घंटे लम्बी बातचीत की चर्चा भी की थी।

आज मैं कहना चाहता हूं कि मैंने गंभीर बीमारी के बावजूद ईद के अवसर पर अपने घर उनके आने के महत्व को गंभीरता से समझा है। वह मेरे मित्र होने के साथ-साथ समाजवादी पार्टी के एक जिम्मेदार महासचिव हैं, जिन्हें अपनी पार्टी के, जी हां अपनी पार्टी के भविष्य की चिंता है और वह मुसलमानों को खोना नहीं चाहते, इसलिए चाहे ईद के दिन अज़ीज़ बर्नी के घर पधारने की बात हो या ईद मिलन के समारोह में जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के मुखिया मौलाना अरशद मदनी के समारोह में शामिल होना। बावजूद बीमारी के वह अपनी शिरकत को यकीनी बनाना चाहते हैं। मुलायम सिंह यादव जी की ईद के दिन फोन पर दी गई मुबारकबाद को मैं इसी दृष्टि से देखता हूं, यह चिंता है उन राजनीतिज्ञों की जिनके पास सबकुछ है, मगर वह कुछ भी खोना नहीं चाहते और जिनके पास कुछ रहा ही नहीं है और हर क्षण कुछ न कुछ खोते जा रहे हैं फिर भी निश्चिंत हैं, हमें अपने भविष्य की कोई चिंता नहीं। मेरे निकट कल्याण सिंह का मामला आज भी अपनी जगह है........और अगर यह उबैदुल्लाह ख़ां आज़मी साहब के मन में भी रहे तो अच्छा है, लेकिन समुदाय के मन में तो हर हाल में रहना ही चाहिए।.........

लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि मुलायम सिंह तथा उनकी पार्टी के लिए सदैव के लिए दरवाज़े बन्द कर देने चाहिएं। मुसलमानों से सम्बन्धित उनका अतीत कलंकित नहीं, मगर वर्तमान बेदाग नहीं है। हमें भी दबाव की राजनीति अपनानी चाहिए। क्या हम नहीं देखते कि ठाकुर अमर सिंह प्रतिदिन कांग्रेस को अपनी पार्टी के समर्थन की भरपूर कीमत वसूल करते हैं। कदम-कदम पर दबाव की राजनीति का प्रयोग करते हैं। मुझे उनका यह वाक्य अच्छी तरह याद है कि अगर बच्चे को बाथरूम नहीं दोगे तो वह जगह-जगह ‘‘शू-शू पोट्टी’’ करेगा ही, फिर क्यों कहते हो गन्दगी फैला रहा है। गन्दगी से बचना चाहते हो तो बाथरूम दो यही बात तो मुसलमानों पर भी लागू हो सकती है। ठाकुर अमर सिंह जिस बाथरूम की चर्चा कांग्रेस के सन्दर्भ में करते हैं, मुसलमान उसी बाथरूम की चर्चा अपने लिए समाजवादी पार्टी से कर सकते हैं। अगर उनकी यह शर्त समाजवादी पार्टी के सामने रहे कि मुसलमानों का समर्थन चाहिए तो कल्याण सिंह को दरकिनार करो, नहीं कर सकते तो मुसलमानों की नाराज़गी बर्दाश्त करो।

फिर उनसे समर्थन की आशा क्यों? मौलाना उबैदुल्लाह ख़ां आज़मी आज समाजवादी पार्टी की सबसे बड़ी आश्वयकता हैं, इसलिए कि मुसलमान समाजवादी पार्टी की सबसे बड़ी आश्यकता हैं। इस समय चुनाव हरियाणा और महाराष्ट्र में हैं, जहां कल्याण सिंह समाजवादी पार्टी को वोट दिला नहीं सकते, कम ही करा सकते हैं और उबैदुल्लाह ख़ां आज़मी अगर वोट दिला नहीं सकते तो कम से कम मुसलमानों के गुस्से का प्रभाव तो कम करने का प्रयास कर ही सकते हैं। यह भी नहीं हुआ तो कांग्रेस और मुसलमानों के बीच दूरी पैदा कर समाजवादी पार्टी को राजनीति को लाभ तो पहुंचा ही सकते हैं, इस तरह उनके लिए एक तीर से दो शिकार होंगे, कांग्रेस से अपनी नाराज़गी का बदला लेंगे और समाजवादी पार्टी के दबाव की राजनीति को कारगर बनाने में प्रमुख भुमिका निभाएंगेे।

समाजवादी पार्टी महाराष्ट्र में या हरियाणा में कोई सीट जीतती है या नहीं यह तो बाद की बात है लेकिन दर्जनों सीटों पर कांग्रेस को परेशानी में तो डाल ही सकती है। बाथरूम की प्राप्ति के लिए समाजवादी पार्टी का नुस्खा भी कुछ कम प्रभावकारी सिद्ध नहीं होगा और फिर अभी तो यह आरम्भ है परिणाम तक पहुंचते-पहुंचते तो कई बार कांग्रेस को यह दबाव की राजनीति परेशानी में डालेगी। हरियाणा तथा महाराष्ट्र से निपटेंगे तो झारखण्ड में चुनाव की तैयारियां ज़ोरों पर होंगी, जहां मुसलमानांें की संख्या काफी महत्व रखती है और उबैदुल्लाह ख़ां आज़मी राज्यसभा में उस राज्य का प्रतिनिधित्व भी करते रहे हैं। झारखण्ड के बाद बिहार में चुनाव है और फिर उसके बाद बंगाल में। मुसलमानों कहां नहीं हैं? और जहां मुसलमान हैं, वहां मुस्लिम वक्ता के महत्व को कम करके कैसे देखा जा सकता है? इस बीच उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के चुनावों का मौसम भी आ ही जायेगा। समाजवादी पार्टी के पास इस बार लोकसभा में एक भी मुसलमान नहीं है। इस पार्टी के जन्म के बाद से यह पहला अवसर है, जब लोकसभा में कोई एक मुसलमान भी इस पार्टी का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहा है।

बहरहाल इस ताज़ा फैसले से जहां उबैदुल्लाह ख़ां आज़मी साहब के लिए राज्यसभा तक पहुंचने का रास्ता हमवार होता है, वहीं समाजवादी पार्टी मुसलमानों तक पहुंचने के लिए अपने नये प्रयास का शुभारंभ कर सकती है।
मौलाना उबैदुल्लाह ख़ां आज़मी साहब और समाजवादी पार्टी से सम्बन्धित इस राजनीतिक परिस्थिति का विश्लेषण तो कुछ इस तरह किया जा सकता है, मगर बात यहां खत्म नहीं होती, बल्कि बात तो यहाँ से शुरू होती है कि इस फैसले का मुस्लिम राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ सकता है? या क्या प्रभाव पड़ना चाहिए?...........इस पर बात कल।
नीचे पी डी ऍफ़ की लिंक दी जारही है

Sunday, September 27, 2009

.............तो इस गरीब की भी ईद हो जाए!

इस जहां की रस्मों को यूं निभाना पड़ता है
ग़म हज़ार हों फिर भी मुस्कुराना पड़ता है
रमज़ानुल मुबारक
के महीने में जब मैं अपना अंतिम लेख लिख रहा था तो अगला दिन ईद का दिन था अर्थात हम मुसलमानों के लिए सबसे बड़ी खुशी का दिन। मगर क्या यह हम सबकेे भाग्य में था? शायद नहीं बल्कि निश्चित रूप से नहीं... हां हम में से बहुत से लोग भाग्यशाली हैं, जिनमें अल्लाह के करम से मैं स्वंय भी हूं कि तमाम दुख दर्द से दूर रहकर यह खुशी मना सकते थे, मगर ऐसे नाम और चेहरे उस समय भी मेरे मन में थे, जिन के दर्द ने पुरी तरह मुझे खुशियों में डूबने न दिया। शायद यही कारण रहा कि पूर्व के भांति मैं इस बार ईद की नमाज़ अदा करने अपने पैतृक नगर बुलन्दशहर न जा सका और नोएडा के ही एक मस्जिद में नमाज़ अदा की।

रमज़ानुल मुबारक का अंतिम लेख लिखते समय मैं ने यह गुंजाईश बाक़ी रखी थी कि इस सिलसिलेवार लेख की अगली क़िस्त ईद के बाद लिखी जायेगी अर्थात यह लेख ईद के ठीक एक दिन बाद भी लिखा जा सकता था और दो तीन दिन के विराम के बाद भी। दरअसल रमज़ानुल मुबारक का अंतिम सप्ताह सारी व्यस्तताओं के बावजूद कई प्रकार के मानसिक तनाव से भरा रहा। कोटा, राजस्थान के मुमसाद असदक़ साहब लगातार फोन करके मुझे अपने बेटे की गुमशुदगी के सम्बन्ध में बताते रहे थे। लगभग रोज़ाना उनका फोन आता, उनकी बेचैनी मेरे लिए भी निराशा और पीड़ा का कारण थी। निराशा इसलिए कि अपेक्षानुसार सफलता नहीं मिल रही थी तथा पीड़ा इसलिए कि एक ओर इस समुदाय को यह ताना सुनना पड़ता है कि यह समुदाय शिक्षा से दूर है, अनपढ़ है गंवार है और दुसरी ओर शिक्षित युवकों के सर पर मंडराता हुआ यह खतरा जो रह रहकर यह सोचने पर मजबूर करता था कि कहीं यह मुस्लिम युवकों को शिक्षा से विमुख करने के एक सोचे समझे षड्यंत्र का भाग तो नहीं है।

एक दूसरी परेशानी थी मेरे संवाद्दाता को प्राप्त होने वाली धमकियां। चांद रात को श्रीनगर से मेरे संवादद्ाता ‘सरीर खालिद’ ने अत्यन्त परेशानी की अवस्था में रोते हुए मुझे फोन पर बताया कि उसका जीवन खतरे में है, उसे लगातार धमकियां मिल रही हैं। उसकी पत्नी भी लगातार भयभीत है तथा रोये जा रही है। मैंने उनको सान्तवना दी, फिर उसके बार बार कहने पर उसकी पत्नी से भी बात की। उसकी गलती केवल यह थी कि उसने एक पत्रकार के रूप में अपना दायित्व निभाते हुए एक लेख लिखा जो राज्य के एक चर्चित व्यक्ति के समर्थकों को असहनीय लगा। इस लेख की चंद लाईनें पाठकों की सेवा में प्रस्तुत की जा रही हैंः

‘‘विवाह तो एक सुन्नत है और किसी भी व्यक्ति का निजी मामला है। लेकिन कश्मीर में ऐसी कई विधवाएंे हैं जिनके पति यासीन मलिक के नेतृत्व में लड़ते हुए मारे गये। यासीन मलिक उनमें से किसी के साथ या फिर किसी ऐसी युवती के साथ विवाह कर सकते थे, जिसके माता-पिता वर्तमान आन्दोलन के बीच मारे गये हों। हमारे यहां तो ऐसी अनगिनत युवतियां साधनों की अनापूर्ति के कारण विवाह करने से रह गई हैं’’। उनका कहना हैः ‘‘ऐसे में यासीन मलिक एक उदाहरण प्रस्तुत कर सकते थे, मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया।’’ कश्मीर विश्वविद्यालय के एक छात्र कहते हैंः ‘‘ फिर सबसे बड़ी बात यह कि यासीन मलिक को कोई हंगामा किये बिना दुल्हन को ले आना चाहिए था। मगर जिस प्रकार से लिबरेशन फ्रंट ने इसे एक संस्थापक बल्कि राष्ट्रीय समारोह के रंग में प्रस्तुत करने का प्रयास किया। वह परेशान हाल कश्मीरी जनता के एक बड़े लीडर के लिए शोभनीय नहीं था’’। कुछ लोगों को ‘‘मुशाल’’ के काम पर आपत्ति है कि वह महिलाओं के नग्न चित्र बनाती हैं, जो कि सभ्य समाज तथा इस्लाम के विरूद्ध है। कश्मीर में एक अनुमान के अनुसार ऐसी हजारों महिलाऐं हैं जिनके पति शस्त्र झड़पों में या हिरासत के दौरान मारे गये और वह 25 वर्ष से कम आयु में विधवा हो गईं और अब असहाय का जीवन व्यतीत कर रही हैं। महिला संस्था ‘‘दुख़्तराने मिल्लत’’ की अध्यक्षा सैयदा आसिया इंद्रावी ने कुछ वर्ष पूर्व यह कहा था कि कश्मीरी पुरूषों को दूसरे विवाह के लिए तैयार होकर अल्प आयु में विधवा हो चुकी उन युवतियों को अपनाना चाहिए ताकि उन (विधवाओं) का सही तरीके से पुनर्वास संभव हो सके’’।

इस लेख में ऐसा क्या था,जो इतना बुरा लगा कि मार डालने की धमकियां दी जाने लगी। यह कुछ लोगों के विचार थे जो सरीर ख़ालिद के लेख का एक भाग थे। किसी भी बड़े व्यक्ति को ऐसी बातों के लिए मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए। जब किसी का व्यक्तित्व उसके अपने तक सीमित नहीं रहता, बल्कि जनता के बीच लोकप्रिय होता है तो बहुत लोगों की भावनांए उससे जुड़ी होती हैं। लोग अपने अपने तरीके से उस पर टिप्पणी करने लगते हैं। इतनी सी बात पर इतना बड़ा हंगामा क्यों? बहरहाल चांद रात के बाद ईद का दिन भी मेरे संवाद्दाता तथा उसकी पत्नी के लिए डरावना दिन था। उन्होंने ईद की नमाज़ ईदगाह के बजाये परिपुरा की एक छोटी सी मस्जिद में उसने नमाज़ अदा की। मैं दिन भर चिंतित रहा, कभी सरीर ख़ालिद के लिए तो कभी शादाब असदक़ के लिए, लोग आते रहे जाते रहे, में मुस्कुराकर उनका स्वागत करता रहा मगर शायद ईद जैसी खुशी का माहौल नहीं था। उस समय भी नहीं जब समाजवादी पार्टी के महासचिव एवं प्रवक्ता ठाकुर अमर सिंह ईद मिलने के लिए घर तशरीफ़ लाए।

डेढ़ घंटे उनके साथ रहने के दौरान मैं केवल उनकी जिन्दा दिली और खुशमिज़ाजी को देखता रहा, हां मेहमान खाने में उपस्थित अन्य अतिथि अवश्य ईद का आनन्द लेते रहे। इसी बीच मैंने सरीर खालिद से फोन पर बात करके उसकी खैरियत जानना चाहा और जब संतोषजनक जवाब मिला तो मैं मेहमान नवाज़ी के दायित्व की ओर मुड़ा। यहां अमर सिंह जी का पधारना और लम्बी बातचीत का उल्लेख करना इसलिए भी अनिवार्य लगा कि ठाकुर अमर सिंह जी के निमंत्रण पर उबैदुल्लाह खां आज़मी साहब समाजवादी पार्टी में शामिल हो गये हैं तथा वह पार्टी के महासचिव भी नियुक्त किये गये हैं। यह ताज़ा समाचार ईद के तुरंत बाद आया। दोनों बातों पर टिप्पणी बाद में, अभी बात उसी विषय पर जहां से बात आरंभ की थी। मेरी मेज पर इस समय भी दो प्रमुख पत्र रखे हैं, एक मुमसाद असदक़ साहब का, जो उन्होंने गृहमंत्री पी.चिदम्बरम के नाम लिखा है। यह पत्र मेरे ही कार्यालय से गृहमंत्री तथा प्रधानमंत्री के निवास तथा कार्यालय को फैक्स किया गया। इसलिए कि मुमसाद असदक़ साहब न तो मानसिक रूप से गृहमंत्री के नाम पत्र लिख पाने के स्थिति में थे न ही उन्हें गृहमंत्री तथा प्रधानमंत्री के नम्बर प्राप्त थे।

इसलिए मेरे कार्यालय से ही यह पत्र ड्राफ्ट करके उन्हें प्रेषित किया गया तथा जब इसे पढ़कर उन्होंने हस्ताक्षर कर दिये तब गृहमंत्री की सेवा में प्रेषित किया गया और उसकी एक प्रति प्रधानमंत्री के कार्यालय मंे भी फैक्स की गई ताकि शादाब असदक़ की तलाश में उचित क़दम उठाया जा सके।
सेवा में,
मान्नीय पी. चिदम्बरम
गृहमंत्री, भारत सरकार
नार्थ ब्लाक, नई दिल्ली
विषयः- गुमशुदा बेटे के मामले में गति लाने हेतु आवेदन
श्रीमान,
मेरा पुत्र शादाब असदक़, आयु 26 वर्ष, व्यवसायिक रूप से आईटी इंजीनियर तथा मेसर्स आईएल (इंटरोमेशन लिमिटेड, भारत सरकार का उपक्रम) में कांट्रेक्ट इंजीनियर के रूप में कार्यरत था।
वह 23 अगस्त 2009 को डिप्टी जीएम (कार्मिश्यल) रवि प्रभाकर के साथ आईएल की ओर से निविदा दाखिल करने हैदराबाद गया था। वह 07.09.09 को सिकंदिराबाद से सिकंदिराबाद- जयपुर स्पेशल ट्रेन(ंनम्बर 0995) द्वारा कोच नम्बर एचए1 बर्थ नम्बर 12 में कोटा वापस आ रहा था।
8.09.09 को लगभग 7.00बजे कोच अटेंडेन्ट गोपीचंद ने मोबाईल (09461163518)द्वारा मेरे लैंड लाईन फोन पर मुझे सूचना दी कि शादाब असदक़ 4-5 घंटे से अपनी सीट पर नहीं हैं और उसका सामान बर्थ पर पड़ा हुआ है। इस सूचना के बाद मैं कोटा रेलवे स्टेशन पहुंचा तथा जीआरपी एवं रेलवे कर्मचारियों की सहायता से उसका समान उठाया।
काफी प्रतीक्षा के बाद मैंने कोटा जीआरपी में एफआईआर लिखवाई (एफआइआर नम्बर 4973,दिनांक 09.09.09)अभी तक मेरे बेटे की कोई सूचना नहीं मिली है। मेरा सम्बंध अत्यन्त निचले मध्यम वर्ग से है। मेरा बेटा परिवार का अकेला कमाने वाला है।
मैं विवश हूं और अपने बेटे के सम्बंध में जानकारी प्राप्त करने के लिए अकेला इधर से उधर भटक रहा हूं लेकिन कोई परिणाम नहीं निकल पा रहा है। रेलवे कर्मचारी , पुलिस तथा उसकी फर्म मेसर्स आईएल इस मामले में गंभीरता नहीं दिखा रहे हैं वह केवल औपचारिकता निभा रहे हैं।
मेरा आप से निवेदन है कि मेरे बेटे का पता लगाने के सिलसिले में संबंधित अधिकारियों को आवश्यक निर्देश देने का कष्ट करें। मैं और मेरा परिवार आपका अभारी होगा और अल्लाह ताला इसका नेक बदला देगा।
धन्यवाद सहित
आपका विश्वसनीय-मुमसाद असदक
मकान नम्बर-73-डी, आईएल टाउनशिप
कोटा (5) राजस्थानः324005
मोबाइल नम्बरः09982330307, निवास नम्बरः0744-2428306
संलग्नः एफआईआर की कापी
प्रतिलिपीः मान्नीय प्रधानमंत्री, भारत सरकार नई दिल्ली।
दूसरा पत्र जो मेरे सामने है वह जस्टिस सुहैल एजाज सिद्दीकी साहब का है। भारत सरकार के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के शिक्षण इंस्टीटयूशन के अध्यक्ष हैं। आपने अपने पत्र के साथ ‘‘अल्पसंख्यकों के शिक्षा अधिकार की सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग शिक्षण संस्थान की पहल ’’ के शीर्षक से जो पुस्तक भेजी थी उसके ‘‘पैशलफ़्ज’’ को पढ़ रहा था, जिसमें लिखा हैः
‘‘अल्पसंख्यकों की समस्याओं, विशेष रूप से मुस्लिम अल्पसंख्यक जो भारत के सबसे बड़ी अल्पसंख्यक है कि निदान तथा उन्हें उनके संवैधानिक अधिकार दिलवाने, उनपर किसी भी अत्याचार तथा अन्याय के विरूद्ध निदान की कार्रवाई करने के लिए कंेद्रीय सरकार का राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग मौजूद है। इसके अलावा भी कई राज्यों ने अपने राज्य अल्पसंख्यक आयोग गठन किये हुए हैं।
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के गठन के काफी समय बाद भी जब मुस्लिम अल्पसंख्यक की शिक्षा, स्कूल, मदरसे तथा संस्थाओं की स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन या सुधार नहीं हुआ तो भारत सरकार इस निर्णय पर पहुंची के शिक्षा तथा शिक्षण संस्थानों पर जबतक विशेष ध्यान नहीं दिया जायेगा तब तक कोई भी अल्पसंख्यक विशेष रूप से मुस्लिम अल्पसंख्यक की शिक्षा या शिक्षा के स्तर में सुधार संभव नहीं। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों की स्थापना की आवश्यकता इसलिए भी महसूस की गई कि अल्पसंख्यकों के संवैधानिक अधिकार की सुरक्षा किसी एक्ट द्वारा की जा सकती है’’।

श्रीमान सुहैल सिद्दीकी साहब तथा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष जनाब मोहम्मद शफी कुरैशी साहब की सेवा में सादर निवेदन है कि आयोग जिस उद्देश्य के लिए गठित किया गया था, क्या वह उद्देश्य प्राप्त हो पा रहा है? यदि हां तो फिर इस प्रकार की समस्याऐं क्यों सामने आती कि एक विवश और असहाय बाप को ऐसी समस्याओं का हल नहीं मिलता और अगर राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ऐसी समस्याओं का हल तलाश नहीं कर पा रहा है तो क्या यह संभव है कि आप लोग अपने विशेष प्रयास के साथ कुछ ऐसे कदम उठायें कि यह आयोग इन समस्यओं के लिए सहायक सिद्ध हो सके। अब तो अल्पसंख्यकों के लिए अलग से एक मंत्रालय भी गठित कर दिया गया है, अगर एक मंत्रालय और आयोग मिलकर भी ऐसी समस्याओं का समाधान खोज नहीं पायेंगे तो इस समुदाय की पीड़ा कौन दूर करेगा?

और अब अन्त में उल्लेख ईद के बाद ईद के उल्लास का। 24 सितम्बर को दिल्ली में जमीयत उलेमा की ओर से ईदमिलन के भव्य समारोह का आयोजन किया गया। एक मौलाना महमूद मदनी की ओर से होटल ली मैरिडयन में तथा दुसरा कांस्टीटयूशन क्लब में मौलाना अरशद मदनी साहब की ओर से। दोनों ही समारोह अत्यन्त भव्य तथा शानदार कहे जा सकते हैं, जिनका उल्लेख किसी दूसरे लेख में किया जायेगा। इस समय यह कुछ वाक्य केवल इसलिए कि अनेक प्रमुख व्यक्ति इन समारोहों में शामिल होने के लिए पधारे, जिनमें उपराष्ट्रपति, केंद्रीय मंत्री, दिल्ली की मुख्यमंत्री से लेकर अनेक सांसद शामिल थे, अगर उन दोनों समारोंहों के आयोजक अपने इन अतिथियों की सेवा में अपने एक पत्र के साथ कोटा राजस्थान के उस ग़रीब असहाय बाप की पीड़ा लिखकर उन से सहायता का निवेदन कर सकें तथा गृहमंत्री से उस गुमशुदा युवक का पता लगाने के मामले में रूचि लेने पर ज़ोर दें तो शायद अपने एकलौते बेटे के शोक में आंसू बहा रहे उस व्यक्ति के चेहरे पर भी मुस्कान आ जाए और विलम्ब से ही सही वह भी ईद मना सके।

नोटः मौलाना उबैदुल्लाह आज़मी साहब के समाजवादी पार्टी में शामिल होने पर लेख कल।
नीचे पी डी ऍफ़ की लिंक दी जारही है
http://groups.google.com/group/aziz-burney/web/to%20is%20gareeb%20ki%20bhi%20idd%20ho%20jaaye.pdf?hl=en

Sunday, September 20, 2009

और अब कोटा का इंजीनियर लापता!


और अब कोटा का इन्जीनियर लापता!19 सितम्बर 2008 को पुलिस की गोली से हताहत हुए आतिफ़ और साजिद, पुलिस के कथनानुसार वह दोनों 13 सितम्बर को दिल्ली में हुए बम धमाकों के लिए ज़िम्मेदार थे वे तथा पुलिस एन्काउन्टर में उनकी मृत्यु हुई। अभी तक हमारा मन यह स्वीकार नहीं कर पा रहा है कि क्या पुलिस का बयान ठीक है? एक बरस की अवधि बीत चुकी है। एक अनुमान के अनुसार 50 से अधिक बार हमने इस विषय पर लिखा है और शायद 100 से अधिक बार लिखने की आवश्यकता पड़े। इसलिए कि हमारे नज़दीक यह केवल एक मुडभेड़ नहीं थी, केवल आतिफ़ तथा साजिद की मृत्यु नहीं थी, बल्कि उस समय जो परिस्थतियां थीं, जो माहौल था, आज भी जब हम उन पर विचार करते हैं तो ऐसा लगता है कि उस समय केवल आतिफ़ तथा साजिद ही नहीं पूरा समुदाय निशाने पर था और अगर एक के बाद एक, पिछले एक वर्ष में ऐसी अनेक घटनाएं घटित नहीं हुई होतीं तो आज भी इस समुदाय के दामन से आतंकवाद का दाग़ मिटाना कठिन होता। भला हो शहीद हेमन्त करकरे का जिन्होंने मालेगांव जांच के द्वारा आतंकवाद का वह चेहरा भी उजागर किया जो अभी तक लोगों के सामने नहीं था। उसके बाद अनेकों एन्काउन्टर फ़र्जी सिद्ध हुए, जिन्हें सही साबित करने के लिए पुलिस ने ऐड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया था। हाल ही में इशरत जहां एन्काउन्टर का फ़र्जी सिद्ध होना इस बात का ताजा उदाहरण है कि पुलिस किस प्रकार निर्दोषों को आतंकवादी सिद्ध करके मार डालती है। आज जिस समय मैं यह लेख लिख रहा हूं, मेरे मोबाइल फ़ोन पर मुझे अपने मित्र असद हयात का एस।एम।एस प्राप्त हुआ, जिसमें लिखा है कि उच्चतम न्यायालय के एडोकेट प्रशांत भूषण ने बटला हाऊस मुडभेड़ से संबंधित उच्चतम न्यायालय में एस पी एल ;ैचमबपंस स्मंअम च्मजपजपवदद्ध दाखिल की है, जिसे उच्चतम न्यायालय द्वारा स्वीकार कर लिया गया है। अतः हम यह आशा कर सकते हैं कि इस केस को फिर से खोले जाने की संभावना अभी बाक़ी है और एक दिन इन्शाअल्ला सच्चाई सामने आएगी ही। लेकिन यह अकेला ऐसा मामला नहीं है। अक्सर इस प्रकार की दर्दनाक घटनाएं सामने आती रहती हैं। पिछले सप्ताह 12 सितम्बर को जब मैं उपराष्ट्रपति महोदय से मिलकर वापस लौट रहा था, मेरे मोबाइल फोन पर मुझे एक और दर्दनाक सूचना मिली। फोन करने वाले थे कोटा, राजस्थान से मुमशाद असदक़। उन्होंने मुझे बताया कि उनका पुत्र शादाब असदक़ जो कि इंजीनियर है, जिसकी आयु 26 वर्ष है, 7 सितम्बर को सिकंद्राबाद (आंध्रा प्रदेश) से अपने घर वापस कोटा के लिए जयपुर स्पेशल पर सवार हुआ। वह वहां अपनी कंपनी आई एल की एक बैठक के सिलसिले में गया था मगर अभी तक वापस नहीं लौटा है। हां उसकी बर्थ 12 से उसका सामान जरूर बरामद हुआ। तब से आज तक यानी 19 सितम्बर तक लगातार शादाब के पिता से बात होती रही। एक सप्ताह और बीत चुका है। अभी तक किसी भी प्रकार की सूचना नहीं मिली है। रेलवे मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी से सम्पर्क करने पर भी कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं हुई। शादाब के पिता का कहना है कि इसी प्रकार की एक घटना पहले भी घटित हुई थी जब बिहार का एक लड़का जो अलीगढ़ में पढ़ता था, ट्रेन द्वारा दिल्ली जा रहा था, उठा लिया गया तथा इस बीच उसके बारे में कोई सूचना नहीं मिली। ना ही पुलिस को कोई जानकारी थी कि उस लड़के का क्या हुआ? लेकिन हाल ही में गुप्तचर विभाग द्वारा टेलीफोन पर सूचना दी गई कि अपने पुत्र को ले जाइये। लगभग 8 माह की अवधि बीत जाने के बाद यह सूचना दी गई। हमें भय है कि हमारे बेटे के साथ भी कहीं कुछ ऐसा ही तो नहीं हुआ। वह एक शिक्षित युवक है, कहीं से भी अपनी ख़ैरियत का समाचार दे सकता था और अगर ख़ुदा न करे उसके साथ कोई अप्रिय घटना घटित हुई होती तो भी पुलिस या अस्पताल द्वारा हमें उसकी सूचना मिल गई होती। हम हर जगह की ख़ाक छान चुके हैं लेकिन अभी तक किसी से भी कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला है। प्रश्न यह पैदा होता है कि एक ओर तो इस समुदाय को लगातार यह ताना सुनना पड़ता है कि यह शिक्षा से दूर है तथा दूसरी ओर लगातार इस प्रकार की घटनाएं सामने आ रही हैं जब शिक्षित युवकों को मुडभेड़ में मार दिया जा रहा है या उन्हें इस प्रकार उठा लिया जाता है। अगर यह मुस्लिम युवकों को शिक्षा से भयभीत करने का षड़यंत्र नहीं है तो क्या है? जिस प्रकार एक के बाद एक मुडभेड़ फ़र्जी साबित हो रहे हैं, उससे तो यह चिंता होती है कि इस सच्चाई की तह तक जाना अत्यंत आवश्यक है। आतिफ़, साजिद उसके बाद शादाब की समस्या का अध्यन किया जारहा था मगर इस बीच नासिक जेल से एक और पत्र प्राप्त हुआ जिसने सोचने के लिए विवश किया कि क्या यह भी मुआरिफ़ और आमिर जैसा ही मामला तो नहीं है, जिन्होंने तिहाड़ जेल से हमें पत्र लिखा था या फिर कानपुर के सैयद वासिफ़ हैदर जिनको रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा द्वारा मामले को उठाए जाने पर न्यायालय से रिहाई मिली, हो सकता है कि ऐसा ही कुछ हो इसलिए इसी आशा के सहारे आज हम मुहम्मद शरीफ़ का मामला उठा रहे हैं ताकि गृह मंत्रालय का ध्यान इस ओर आकर्षित हो और उसे भी न्याय मिले। नासिक जेल से हमें मुहम्मद शरीफ़ ने जो पत्र लिखा वह इस प्रकार हैः मेरा नाम मुहम्मद शरीफ़ बादशाह शमीम खान है। मैं इस समय नासिक सेंट्रल जेल में हूं। मैंने 31/5/09 का सहारा टाइम्स पढ़ा था पढ़ने के बाद उसमें देखा कि कानपुर के सैयद आसिफ़ हैदर, हाजी मुहम्मद अतीक़, मुहम्मद मुमताज, शफ़ाअत रसूल की रिहाई का समाचार सुन कर इतना प्रसन्न हुआ कि इसका कोई अंदाज़ा नहीं। यह पढ़ कर हमें एक आशा जगी और अल्लाह का शुक्र अदा किया और हमें विश्वास हो गया कि अभी न्याय बाकी है। हम भी इसी प्रकार एक केस में फंसे हैं। आशा है कि आप हमारी भी सहयता करेंगे। इसलिए मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूं कि आप हमारी सहायता करें। अल्लाह तअ़ाला आपके द्वारा हमें भी न्याय दिलाएगा। इसलिए मैं यह पत्र आपको लिख रहा हूं और जो मैं आगे लिखने जा रहा हूं वह मेरे केस का विवरण है। मेरा नाम मुहम्मद शरीफ बादशाह शमीम खान, रुम-6, लाइन नं॰ टी-फ्लेट नं॰ 37, रोड नं॰6, शिवाजी नगर, गोविंडी, मुम्बई 400043 इस पते पर हम लोग 18 वर्ष से रहते हैं। मेरे पिता का देहांत हो चुका है। देहांत को 6 साल की अवधि बीत चुकी है। अभी मेरे घर में मेरी मां मेरा एक भाई और एक बहन है। मेरी मां सदैव बीमार रहती है। मैं एक गरीब आदमी हूं।मुझे 19।04।06 को शिवाजी नगर पुलिस थाने वालों ने जांच के लिए बुलाया, उसके बाद हमको एक दिन रखा। दूसरे दिन 20।04।06 को कोर्ट में खड़ा कर दिया और कहा गया कि तुमने 3 साल की बच्ची की हत्या की है। मैंने बार-बार पुलिस वालों को बताया कि मैं इस केस में नहीं हूं परन्तु उसने हमारी एक भी नहीं सुनी, फिर मैंने एक पत्र मुम्बई कमिश्नर को लिखा जिसकी तिथि है 22।11.06 और उनसे कहा कि मुझे इस केस में डाल दिया जिसका नाम है एम.पी.डी.ए। इस सब का जवाब रहा कमिश्नर साहब के पास से कि मैं कुछ नहीं कर सकता। फिर इसके बाद मैंने 20.06.07 को एक और पत्र लिखा मानवाधिकार को जिसमें मैंने लिखा था कि मुझे मेरे केस की सी.बी.आई जांच चाहिए। फिर वहां से जवाब आया कि मैंने मुम्बई कमिश्नर डी.सी.पी को आदेश दिया है कि इस केस की पूरी जानकारी हमको 15 दिन में चाहिए, इसके बाद फिर मैंने एक और पत्र मानवाधिकार को लिखा जिसकी तिथि है 06.11.07। फिर इसका जवाब आया कि मैंने तुम्हारे पुलिस थाने से पूरी जांच मांगी, उसका जवाब आया कि तुम्हारे ऊपर दो केस हैं और वह भी बलात्कार के, इसलिए सी.बी.आई जांच नहीं हो सकती है। जनाब बर्नी साहब हमारे ऊपर केवल एक केस था वह भी मारा-मारी का और पुलिस ने मानवाधिकार को ग़लत बताया। फिर मैंने अपने पुलिस थाने से आई.टी.आर मांगी और उसमें लिखा कि मेरे ऊपर कितने केस हैं? इसका जवाब दिया कि तुम्हारे ऊपर केवल एक केस है, वह भी बलात्कार का नहीं है। यह सब पेपर हमारे पास हैं और मैंने सारी कापी मानवाधिकार को भेज दी हैं जिसका अभी तक जवाब नहीं आया है।(1) इसके बाद मैंने उच्च न्यायालय को एक प्रार्थनापत्र लिखा और वह मेरा प्रार्थनापत्र हाई कोर्ट में अपील हो गया, कुछ महीने के बाद हाई कोर्ट से पेपर आया, रिजेक्ट हो कर आया।(2) फिर मैंने सभी पेपर लेकर सुप्रीम कोर्ट में प्रार्थना पत्र दिया, वहां भी मेरी अपील हो गई और वहां से आर्डर आया कि तुम अपने सेशन कोर्ट में कार्यवाही करो, अगर वहां से नहीं कुछ हुआ तो फिर मैं यहां से करूंगा। मैंने सब कार्यवाही जेल से ही की थी, अब हम से नहीं होगी। इसलिए मैं आपसे निवेदन करता हूं कि मेरे लिए आप कुछ करें, मैं बहुत ग़रीब आदमी हूं और मेरी मां अकेली क्या करेगी। मैं सभी पेपर और यह प्रार्थना पत्र आपके नाम से भेज रहा हूं, आपकी अति कृपा होगी।जनाब एक और मुख्य बात यह है कि इस केस को जिस पुलिस वालों ने बनाया, उसके ऊपर भी केस हो चुका है। मेरी तरह बहुत सारे लोग इसी तरह झूठे फंसाए गए हैं। जनाब मैं इसका फोटो के साथ पेपर भी भेज रहा हूं, अगर और कुछ जानकारी चाहिए तो मैं बाद में आपको भेज दूंगा जब आप कहेंगे और मैं आप से क्या कहूं। अस्सलामुअलैकुम, अल्लाह हाफिज़

Friday, September 18, 2009

किताब जसवंत सिंह की, दृष्टिकोण अरुण शोरी का-६

किताब जसवन्त सिंह की, दृष्टिकोण अरूण शोरी का-६

श्रृंदांजलि पेश करने का क्या अर्थ है? क्या उन्होंने नहीं कहा कि इस महान व्यक्ति को मेरी सादर श्रृंद्धांजलि प्रस्तुत है।मी लार्ड यह लोग पढ़ते बहुत हैं लेकिन सतही तौर पर और यही कठिनाई है। श्रृंद्धांजलि पेश करते समय मेरे मुवक्किल का सम्बन्ध कायद-ए-आज़म की बरतरी से नहीं बल्कि स्वयं की बरतरी से है। मी लार्ड यह शब्द केवल अवसर के अनुसार लिखे गये थे ताकि पाकिस्तानियों का रूख बदल सकें और उनको आसानी से नीचा दिखा सकें। लेकिन शब्दों को इस तरह तोड़ मरोड़कर कैसे प्रस्तुत किया जा सकता है?

हिन्दुस्तान का अर्थ कैसे पाकिस्तान हो सकता है? किस तरह दूसरों की बुजुर्गी को स्वीकार करना अपने बड़े होने का ऐलान हो सकता है?क्या वर्ष में एक ही दिन जन्मदिन होता है और शेष 364 दिन पैदाईश के दिन नहीं होते हैं? हम्पटी-डम्पटी ने ज़ोर दिया और कहा कि इसलिए आपके पास एक वर्ष में 364 दिन जन्मदिन न होने के होते हैं।और केवल एक दिन जन्मदिन के लिए होता है और उस दिन आप अपनी शान दिखा सकते हैं। ऐलिस ने कहा कि मैं समझी नहीं।हम्पटी-डम्पटी ने अभिमानी मुस्कुराहट से कहा कि बिल्कुल तुम नहीं समझ सकतीं जब तक मैं न बताऊं मेरा आश्य तुम्हें हराने के तर्क से है।ऐलिस ने कहा इसका तो यह मतलब नहीं होता है।

हम्पटी-डम्पटी ने हीन समझने वाले भाव से कहा कि मैं जब कोई शब्द इस्तेमाल करता हूं तो उसका अर्थ केवल वही होता है जो मैं चाहता हूं न उससे अधिक और न उससे कम।ऐलिस ने कहा कि प्रश्न यह है कि तुम शब्दों के इतने अलग अर्थ कैसे बना सकते हो।हम्पटी-डम्पटी ने उत्तर दिया कि मालिक होना पड़ता है।क्या वकील अपने मुवक्किल के लिए इतने आगे तक जा सकते हैं? क्या उनको चिन्ता नहीं है कि इस तरह का कृत्य उनकी आस्था पर भी प्रभाव डाल सकता है?केतन पारिख के मामले में जब वकील ने इस तरह लगातार काफी दिनों तक बिना अपनी आस्था का विचार किये काम किया तब लोगों ने कहना शुरू कर दिया था कि देश में कानून की सबसे अच्छी समझ रखने वाले लोगों में से एक यह व्यक्ति अपनी योग्यता का इस्तेमाल और बड़े उद्देश्य (ब्ंनेम) के लिए क्यों नही करता है?

म्दवितबम च्तपदबपचसमएनचीवसक पकमवसवहल निचले दर्जे के नेताओं को अपने राज्यों में हार के नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए त्यागपत्र दे देना चाहिए।लेकिन इस उसूल पर बड़े नेताओं को त्यागपत्र क्यों नहीं देना चाहिए?हम त्यागपत्र क्यों दें जब हमने नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार कर ली है। और याद रहे हम जीतें या हारें हम हमारे हिन्दुत्व के दृष्टिकोण से नहीं हटेंगे।लेकिन हिन्दुत्व क्या है?‘‘जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं कहा है कि यह जीवन जीने का एक ढंग है’’ लेकिन क्या इस्लाम जीवन जीने का एक ढंग नहीं है? इसी तरह क्या ईसाई धर्म नहीं है? और वास्तव में हिप्पियों का नशे का आदी होना जीवन जीने का ढंग नहीं है।

ठपदकपदह ैजतंजमहलआपके सरगना एक दूसरे के विरूद्ध हैं? उनको एक साथ अपराध करने के लिए कहिये। उनको एक-दूसरे की उपस्थिति में छुरा घोंप दीजिए, हर एक जान जायेगा कि सभी ने उसको छुरा चलाते हुए देखा है और यही उनके हाथ-पांव बांध देगा और कोई भी लाभ प्राप्त करने के लिए दूसरे पर आरोप इसलिए नहीं लगायेगा कि स्वयं उसकी कारगुज़ारी सामने आ जायेगी।इन सबके बावजूद परिस्थितियां तेज़ी से बदल रही हैं कुछ भी करने के लिए समय बहुत थोड़ा रह गया है और यह सम्मिलित रूप से एक-दूसरे को बढ़ाने वाली सोसायटी को एक-दूसरे को बचाने वाले समाज में परिवर्तित कर रहे हैं।

ज्ीम क्मंक ीवतेम ैजतंजमहलजार्ज फर्नांडीज़ के सामाजिक विचार और अमल वाले रिसाले ‘दी अदर साइड’ (ज्ीम व्जीमत ैपकम) का ताज़ा अंक आखिरी चाल को बताता है और यह हमारे सन्दर्भाें के तकाज़ों के लगभग अनूकूल है।रिसाला लिखता है कि जब आपको मालूम हो चले कि आप एक मुर्दा घोड़े की सवारी कर रहे हैं तो बेहतर तरीका यह होगा कि उस घोड़े को छोड़कर दूसरे घोड़े पर सवार हो जाया जाये जबकि हमारे राजनीतिक दलों में इससे भी ज्यादा आगे की चाल पर अमल होता है।1-गीता की कसम खाकर घोड़े को मरा हुआ मत बताओ।

क्या हमारी इल्हामी पुस्तकें ऐसी शिक्षा नहीं देती हैं कि जो कुछ सच है वह है आत्मा न कि शरीर और आत्मा न तो पैदा होती है और न मरती है।2-एक मजबूत चाबुक (ॅीपच) खरीदो।3-जो भी घोड़े को मरा हुआ कहे उस पर इसका प्रयोग करो और सच भी है कि जो गीता पर सन्देह करे वह हमारे दृष्टिकोण से इंकार करता है।4-यह घोषणा कर दो कि घोड़ा मरा नहीं है इसलिए कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है।5-प्रेस में यह समाचार और घोषणा कर दो कि घोड़े से सम्बन्धित एक कमेटी बनाई जायेगी और आवश्यकता पड़ने पर उसे फिर से जीवित करने के लिए परामर्श भी देगी लेकिन कमेटी के सदस्यों के नाम गुप्त रहेंगे।6-इल्हामी पुस्तकों के जायज़े की एक मुहिम आरम्भ करो जो बताए कि किस तरह हमारे बुजुर्गाें ने मरे हुए घोड़ों की सवारी की है और जो कोई भी हमारे बुजुर्गाें पर शक करेें वह हमारे मौलिक दृष्टिकोण से इंकार करता है और उसकी सज़ा उपरोक्त बिन्दु-3 में दर्ज है।7-थोड़ी देर प्रतीक्षा करें घोड़े की अयाल हिलती है और नाकरात्मक सोच रखने वाले भी पाते हैं कि घोड़ा जिन्दा है और ठीक भी है।8-रफ्तार बढ़ाने के लिए कई मुर्दा घोड़ों की लगाम ठीक करो।9-नौजवान घुड़सवारों की तलाश करो।

10-उनको प्रशिक्षण दो कि वह केवल घोड़ों की सवारी करेंगे न कि जोकी(श्रवबामल) बनेंगे।11-जो भी नौजवान घुड़सवारों को बोझ बताए उसका स्पष्ट अर्थ यह है कि वह घोड़ों को हतोत्साहित कर रहा है और जोकी(श्रवबामल) का ध्यान हटाना चाहता है तो उसके लिए व्हिप का उल्लेख बिन्दु-3 में किया गया है।12- इसका हिसाब लगाओ कि मरे हुए घोड़ों को खिलाने की आवश्यकता न पड़े और बहुत कम में ही वह ऊर्जा प्राप्त कर लें और उनका प्रदर्शन न केवल सकारात्मक हो बल्कि बेहिसाब हो और उसे शून्य से विभाजित कर दो जो कि असीमित (प्दपिदपजम) होता है जिसे आर्यभट्ट ने स्वयं साबित किया है।13-दौड़ने और जीतने के फिर से अर्थ बयान करो क्योंकि जो घोड़ा दुनिया की बेचैनी और अफरातफरी वाले माहौल में बगैर हिले एक जगह खड़ा रहे वह ही असल ैजपीजी च्तंहलंद है और हमारी इल्हामी पुस्तकों ने स्पष्ट रूप से ैजपीजी च्तंहलंद को ही असली विजेता होने की घोषणा की है।

14-और अन्त में मुर्दा घोड़ों को सरंक्षक के पद पर बैठा दो।15-जो उन पर सन्देह करे वह हमारे बुनियादी दृष्टिकोण से ही इंकार नहीं करता है बल्कि वह हमारे नेताओं के संगठन से भी इंकार करता है तो ऐसे व्यक्ति के लिए बिन्दु-3 में दर्ज व्हिप ;ॅीपचद्ध नहीं है बल्कि निष्कासन है, और यह साबित करेगा कि घोड़े मुर्दा नहीं हैं वह लात मार सकते हैं।

Thursday, September 17, 2009

किताब जसवंत सिंह की, दृष्टिकोण अरुण शोरी का-५

किताब जसवन्त सिंह की, दृष्टिकोण अरूण शोरी का-५

यहां हम विभाजन पर एक दूसरे का सर फोड़ रहे हैं जबकि जिस व्यक्ति के नेतृत्व में यह काम हुआ, उसने जो कुछ भी हुआ उसकी जिम्मेदारी स्वीकार करली है। स्टेनले विलपर्ट की ैींउमनिसस मगपज ने इसे स्पष्ट रूप से बयान किया है। (आॅक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रैस, न्यूयार्क, 2006, पृष्ठ-2)जब लार्ड माउन्ट बेटन से विभाजन के 18 वर्ष बाद पूछा गया कि भारतीय वाय सराॅय के रूप में अपने दौर के बारे में उनकी क्या राय है। 1965 में भारत-पाक युद्ध के तुरंत बाद रात के खाने पर बी।बी।सी के जान उस्मान ;श्रवीद व्ेउंदद्ध के साथ बातचीत में माउंट बेटन ने स्वीकार किया कि उनसे ग़लती हुई है।

उस्मान को 65 वर्षीय पूर्व वाय सराॅय से हमदर्दी महसूस हुई और उनको प्रसन्न करने का प्रयास किया लेकिन असफल रहे। 39 वर्ष बाद अपनी मीटिंग को याद करते हुए उस्मान कहते हैं कि मुझे माउंट बेटन को दिलासा नहीं देना था। उनके निर्णय और भारत में उनकी कार्यशैली आज भी मेरे मस्तिष्क में ताज़ा है। हालांकि मैं घटिया शब्दों के प्रयोग को अपने लेख में पसन्द नहीं करता हूं लेकिन रिपोर्टिंग कि साथ न्याय करने के लिए मुझे ऐसे शब्दों का प्रयोग करना होगा। जो कुछ भी अंतिम वाय सराॅय ने अपने दौर के बारे में कहा वह यही बताता है कि उन्होंने भारत को तबाह किया।

क्या यह बिल्कुल हमारी तरह नहीं है कि हम एक दूसरे को बाहर का रास्ता दिखा रहे हैं और जो कुछ दूसरों ने कहा कि उसके लिए एक दूसरे का सर फोड़ रहे हैं लेकिन यह ग़जब की चाल है।ज्ीम त्मक फनममद ैजतंजमहलरानी गुस्से से लाल हो गई और जंगली जानवर की तरह देखने के बाद चीख़ना आरंभ कर दिया कि सर काट दो, सर काट दो।रानी ने क्रोध में कहा कि उनके सर काट दो। रानी ने देखा कि माली गुलाब के फूलों को तेज़ी से रंग रहा है। रानी सर काटने की बात बार-बार दोहरा रही थी। ऐलिस को बुरा लगने लगा।

इससे पूर्व उसका रानी से कोई झगड़ा नहीं था लेकिन उसे मालूम था कि उसकी लड़ाई किसी भी पल हो सकती है और वह सोचने लगी कि आख़िर उसका क्या होगा? लोगों के सर काटने की इनको ख़तरनाक रूचि है।जैसाकि हमें ज्ीतवनही जीम सववापदह हसंेे से मालूम होता है कि रानी बड़ी या छोटी किसी भी कठिनाई को हल करने के लिए केवल एक ही ढंग अपनाती थी वह यह कि सर काट दो।और इस तरह न्याय होता था। लेकिन इस तरह से न्याय करने के लिए आवश्यक है कि आप रानी ;त्मक फनममदद्ध की कार्यशैली को भी अमल में लायें। ध्सज़ा की घोषणा से पूर्व ही उस पर अमल हो जाना चाहिए। ध्मामला निपटने से पूर्व ही सज़ा की घोषणा हो जानी चाहिए।

ध्तर्क शुरू होने से पूर्व ही मामले को निपटा देना चाहिए। ध्साक्ष्यों की जांच से पूर्व ही तर्क समाप्त हो जाने चाहिएं। ध्साक्ष्य जमा करने से पूर्व ही उनकी जांच हो जानी चाहिए।और इसलिए सर काट दो।ज्ीम ब्ीमेीपतम ब्ंज ैजतंजमहललेकिन आपको यह मांग करनी चाहिए कि हम कैसे हार गये? हमारे पास ग् था और हम आशा कर रहे थे कि हमें ल् और प्राप्त हो जायेगा तब हमारे पास ग़्ल् होगा लेकिन हुआ यह कि ल् मिलने की जगह हमें ल् का घाटा हो गया और अब हम केवल ग्।ल् हैं। परिणाम के बारे में हमारा अनुमान बिल्कुल सही निकला केवल (-) निशान ने मुसीबत पैदा कर दी। हारने का प्रश्न ही कहां उठता है।.

वास्तव में यह नतीजे हमको 2004 की तुलना में बेहतर स्थिित पर रखते हैं तब हम विपक्ष के दलों कम्युनिस्ट, समाजवादी पार्टी में से एक पार्टी थे लेकिन अब विपक्ष के लिए निर्धारित तमाम स्थान हमारे हैं और यह हमारे दृष्टिकोण की पूर्णता है। 30 वर्ष पूर्व हमने कांग्रेस का एकाधिकार समाप्त करने का निश्चय किया था। कांग्रेस की जीत और दूसरों की सफलता के बावजूद हम देश में दो धुर्वीय ( ठपचवसंत ) राजनीति आरम्भ करने में सफल हुए हैं। हार का प्रश्न ही नहीं उठता है इसलिए जब कोई हार हुई ही नहीं है तो इसके कारणों की जांच पड़ताल की भी कोई आवश्यकता नहीं है।

इसके बाद-हार के कारण जानने के लिए हमने एक कमेटी बनाई लेकिन उनके नाम गुप्त रखे जा रहे हैं।इसके बाद-हार के कारण जानने के लिए हमने अपने कुछ चुने हुए लोगों को हमारी राज्य ईकाईयों के पास रवाना किया है जो हार के कारणों पर रिपोर्ट बनाकर देगी।इसके बाद-नहीं वह लोग सूचनाएं जमा नहीं करेंगे बल्कि अपने सर्वेक्षण के अनुसार ही रिपोर्ट तैयार करेंगे।इसके बाद-अपने पर्यवेक्षकों के अनुसार वह लोग रिपोर्ट तैयार नहीं करेंगे क्योंकि वह पूर्व की बात हो गई बल्कि अब वह लोग भविष्य के चैलेंज पर रिपोर्ट तैयार करेंगे।

इसके बाद-अब वह आगे के चैलेंज पर कोई रिपोर्ट तैयार नहीं करेंगे अब वह एक पेपर तैयार करेंगे जो आगे के चैलेंज पर प्राप्त हुए सुझावों पर आधारित होगा।इसके बाद-नहीं अब वह परामर्श नहीं देंगे बल्कि बहस शुरू करने के लिए वह संक्षेप में भविष्य के चैलेंज के लिए कुछ बिन्दु बताएंगे। इस तरह कोई रिपोर्ट सामने नहीं आई जो कुछ भी मीडिया ने बताया वह अनुमान पर आधारित दस्तावेज़ ही था।धीमी आवाज़ में बिल्ली ने पूछा कि आप किस तरह रानी ( फनममद ) को पसन्द करेंगे?ऐलिस ने कहा बिल्कुल नहीं लेकिन तभी ऐलिस ने देखा कि रानी ( फनममद ) निकट ही है और उसे सुन रही है फिर ऐलिस कहने लगी कि खेल इतनी जल्दी समाप्त करना निरर्थक है वह जीत सकती है।

रानी मुस्कुराई और आगे बढ़ गई। ऐलिस के निकट आते ही राजा ने पूछा कि तुम किससे बात कर रही हो। ऐलिस ने उत्तर दिया कि मेरी एक दोस्त बिल्ली (ब्ीमेीपतम ब्ंज) से। मुझे परिचय कराने की अनुमति दीजिए (जैसा कि आपको याद होगा कि य ह बिल्ली इस रिपोर्ट की तरह है जिसके ज़ाहिरी रूप में सर तो है लेकिन शेष भाग गायब है) राजा ने कहा कि मुझे इसका अन्दाज़ बिल्कुल पसन्द नहीं है फिर भी अगर यह चाहे तो मेरा हाथ चूम सकती है।बिल्ली ने कहा नहीं मैं नहीं चूमना चाहूंगी।राजा ने कहा कि धैर्य मत खो और तुम मुझे इस तरह मत देखो, जैसे ही राजा ने यह कहा बिल्ली ऐलिस के पीछे छुप गई।

ऐलिस ने कहा एक बिल्ली इस तरह राजा को देख सकती है यह मैंने पढ़ा लेकिन कहां याद नहीं। राजा ने ज़ोर देकर कहा तो फिर इसे मिटा देना होगा इसके बाद राजा ने रानी को आवाज़ दी और कहा कि मुझे लगता है आप इस बिल्ली को समाप्त कर देंगे। राजा ने सरगर्मी से कहा कि वह जल्लाद को स्वयं ले आएंगे और वह तेज़ी से चला गया। इस बीच ऐलिस ने सोचा कि वह मैच का जायज़ा ले ले चूंकि उसे रानी के चीखने की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं।

ऐलिस जब बिल्ली (ब्ीमेीपतम ब्ंज) के पास वापस आई तो देखा कि उसके चारों और भीड़ जमा है और वहां पर जल्लाद ‘‘राजा और रानी के बीच लड़ाई जारी थी और सभी एक साथ बोल रहे थे और बाकी तमाशबीन चुप थे और बहुत बेचैन दिखाई दे रहे थे’’।ऐलिस जैसे ही वहां पहुंची और सभी से उसने अपनी समस्याएं हल करने की प्रार्थना की सभी ने ऐलिस को अपने तर्क दिये और सभी एक साथ बोल रहे थे ऐसे में ऐलिस के लिए कुछ भी समझना सरल नहीं था।जल्लाद का तर्क था कि आप तब तक एक सर को काट नहीं सकते जब तक कि सर शरीर के साथ न हो उसने ऐसा पहले कभी नहीं किया और वह ऐसा अपने जीवन में शुरू करने नहीं जा रहा है।

राजा का तर्क था कि जिस किसी के भी सर है उसे काटा जा सकता है और कोई बकवास करने की आवश्यकता नहीं है।रानी का तर्क था कि अगर शीघ्र ही कुछ नहीं किया गया तो वह शीघ्र ही सभी को सज़ा देगी।(इस वाक्य के बाद उपस्थित तमाम व्यक्ति बहुत बेचैन थे )लेकिन तब आप क्या करेंगे जब रानी आपसे सम्बोधित हो?ज्ीम स्महंस म्ंहसम ैजतंजमहलजिन्ना को असाधारण बताकर हम धर्मनिर्पेक्ष बनने जा रहे हैं। क्या यह तुमने नहीं कहा कि मेरा विश्वास है कि भारत पाकिस्तान और बंग्लादेश को उस मिसाली विचार को अवश्य अपनाना चाहिए।

कम्बख्त ने मांग की कि क्या तुमने स्वयं नहीं लिखा कि कई लोग इतिहास पर अमिट छाप छोड़ते हैं लेकिन बहुत से ऐसे लोग हैं जो स्वयं इतिहास बनाते हैं और मोहम्मद अली जिन्ना ऐसे ही नायाब व्यक्तियों में शामिल हैं। इस महान व्यक्ति को मेरी सादर श्रृंद्धांजलि है। तब आप कैसे कम उत्तरदायी हो सकते हैं जबकि आपने ऐसे ही मामले में दूसरे को सज़ा दी है। जब इस तरह की बदबख्ती से सामना हुआ तब अपने वकील को सामने कर दिया।मी लार्ड जब मेरा मुवक्किल इंडिया कहता है तब उसका अर्थ यह नहीं है जो हम जानते हैं बल्कि अखण्ड भारत से है जैसा कि आप जानते हैं कि अखण्ड भारत में पाकिस्तान शामिल है। और मी लार्ड बयान में पाकिस्तान शामिल शब्द अनावश्यक है।

इसलिए जब मेरा मुवक्किल इंडिया कहता है तब उसका मतलब पाकिस्तान सहित है और जब वह कहे पाकिस्तान सहित तब अर्थ पाकिस्तान से है। तो जो कुछ भी मेरे मुवक्किल ने कहा है उसे इस तरह पढ़ा जाए। मोहम्मद अली जिन्ना ने जो मुहावरा दिया है वह पाकिस्तान, पाकिस्तान और बंग्लादेश के लिए ठीक है।...................................(जारी)

Wednesday, September 16, 2009

किताब जसवंत सिंह की, दृष्टिकोण अरुण शोरी का-४

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Tuesday, September 15, 2009

किताब जसवंत सिंह की, दृष्टिकोण अरुण शोरी का-३

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Monday, September 14, 2009

किताब जसवंत सिंह की, दृष्टिकोण अरुण शोरी का-२

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Sunday, September 13, 2009

किताब जसवंत सिंह की, दृष्टिकोण अरुण शोरी का

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Saturday, September 12, 2009

इस्लाम भी भारतीय संस्कृति का अटूट हिस्सा

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Friday, September 11, 2009

एकता का प्रतिक विभाजन का कारण क्यूँ बना?

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Thursday, September 10, 2009

यह किताब संघ परिवार के इरादों पर चोट है

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Thursday, September 3, 2009

जिन्नाह हिंदू मुस्लिम एकता के दूत थे

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