मौलाना उबैदुल्लाह खां आज़मी साहब का समाजवादी पार्टी में सम्मिलित होना कोई ऐसा विषय नहीं है, जिस पर एक पंक्ति में टिप्पणी करके मामले को समाप्त कर दिया जाये और न ही इसमें प्रशंसा का ऐसा कोई पहलू है कि उन्हें बधाई दी जाये या उनके गुणगान किए जाएं। यह एक ऐसा मामला है जिस पर शांत भाव से विचार विमर्श करने की आवश्यकता है। केवल मुस्लिम राजनीतिज्ञों को ही नही बल्कि पूरे समुदाय को। मौलाना उबैदुल्लाह खां आज़मी राजनीतिज्ञ हैं मगर राजनीति में इस तरह डूबे नहीं हैं कि राजनीति ही उनका ओढ़ना बिछौना हो। यदि ऐसा होता तो 15वीं लोकसभा के चुनाव के अवसर पर वह घर में बैठे नहीं रहते। सही अर्थाें में अगर देखा जाए तो वह एक ‘सीज़नल पोलिटिशयन’ हैं। राजनीतिक दलों को उनकी सबसे अधिक आवश्यकता चुनावों के अवसर पर होती है, इसलिए वह जिस पार्टी में होते हैं उसके पक्ष में भाषण करके माहौल को सकारात्मक बनाने का प्रयास करते हैं। अल्लाह ने उन्हें भाषण के कला में यह विशेषता प्रदान की है कि विषय चाहे धर्म हो या राजनीति, वह घंटों धारा प्रवाह बोल सकते हैं। श्रोताओं से भरपूर वाह-वाही प्राप्त कर सकते हैं।
उनकी इसी विशेषता ने 18 वर्ष तक उन्हें संसद सदस्य बनाये रखा। दो बार जनता दल और एक बार कांग्रेस द्वारा वह राज्यसभा के लिए चुने जा चुके हैं। पिछले संसदीय चुनाव के बहुत पहले उनके और कांग्रेस के बीच तनाव उत्पन्न हो गया था और उन्होंने समाजवादी पार्टी के पक्ष में कार्य करना शुरू कर दिया था। कांग्रेस से क्षुब्ध नटवर सिंह भी समाजवादी पार्टी के ख़ेमे में थे मगर उनका मामला थोड़ा अलग था। अतिसम्भव था, मौलाना उबैदुल्लाह ख़ां आज़मी पिछले संसदीय चुनाव से पहले ही समाजवादी पार्टी का अंग बन गये होते परन्तु शायद कल्याण सिंह के मुद्दे ने उन्हें उस समय यह निर्णय लेने से रोके रखा तथा आज भी जब उन्होंने समाजवादी पार्टी का दामन थामा तो उन्हें यह स्पष्ट करना आवश्यक लगा कि अगर कल्याण सिंह भी समाजवादी पार्टी में शामिल हो जाते हैं तो दोनों नदी के दो किनारों की तरह रहेंगे, जो कभी नहीं मिलते।
पिछले कुछ दिनों से मेरी पत्नि बहुत बीमार थीं और इसके लिए एक हद तक मैं स्वयं को भी जिम्मेदार महसूस करता हूं, इसलिए कि मैं उन्हें इतना समय दे ही नहीं सका कि उनका या घर का ध्यान रख पाता, लिहाज़ा तय किया कि सभी व्यस्थताएं अपनी जगह पर और उनकी बीमारी पर ध्यान अपनी जगह....... .और इसी भावना के मद्देनज़र पहला फैसला यह किया कि काम के अलावा बाकी पूरा समय उनके साथ बिताया जाये.........और पिछले दो-तीन महीनों के दौरान व्यवहारिक रूप से यही किया भी। अल्लाह का शुक्र है कि अब वह बहुत हद तक ठीक हैं। इस बीच एक ख़ास बात यह हुई कि मुझे टेलीवीज़न पर दिखाये जाने वाले सीरियल देखने का बहुत अवसर मिला, इसिलए कि टी.वी. सीरियल मेरी पत्नि की पहली पसन्द हैं और मैं उनके कमरे में उनके साथ ही रहता हूँ। आप सोचेंगे कि मैं मौलाना उबैदुल्लाह खां आज़मी साहब के समाजवादी पार्टी में सम्मिलित होने की चर्चा करते-करते अपनी घरेलू कहानी तथा टी.वी. सीरियल का उल्लेख क्यों ले बैठा? तो श्रीमान इसका एक विशेष कारण है जो मैं अगली कुछ पंक्तियों में लिखने जा रहा हूं।
ज़ी. टेलीवीज़न पर दिखाये जाने वाले एक सीरियल का नाम है ‘‘करोल बाग 24/48’’ इस सीरियल की केन्द्रीय भूमिका एक 28 वर्षीय अविवाहित युवती है, जिसका विवाह नहीं हो पा रहा था। यहां तक कि विवाह कराने वाली महिला भी यह स्वीकार करती है कि उसे इस युवती के लिए रिश्ता तलाश करने में उसे असफलता ही हासिल हुई और यदि वर्तमान रिश्ता भी नहीं मिलता तो वह अविवाहित ही रह जाती। लड़की अगर बहुत सुन्दर नहीं तो बदसूरत तो निश्चय ही नहीं है। गोरा रंग, अच्छा नाक नक्शा, कद भी ठीक ठाक है, शिक्षित है, मध्यम वर्गीय परिवार की है, किसी प्रकार की कोई कमी नहीं, न लूली लंगड़ी है और न गूंगी बहरी.........फिर भी उचित रिश्ता नहीं मिला और अब जिस लड़के से रिश्ता तय हेाता है, उसमें सभी प्रकार की खराबियां हैं। लड़का आवारा,बदचलन, अयाश स्वभाव का है, शराब पीता है, लड़कियां छेड़ने के अपराध में हवालात की हवा खा चुका है। लड़की के भाई को बिगाड़ने के उद्देश्य से उसे भी शराब पिलाता है। दो परिवारों के बीच घृणा का कारण बनता है मगर यह सभी खराबियां भी उस लड़की को स्वीकार हैं, इसलिए कि वह अपने छोटे भाई बहनों के विवाह में बाधा बनना नहीं चाहती और जीवन भर अविवाहित रहने का कलंक भी दामन पर नहीं लेना चाहती इसलिए न केवल वह इस रिश्ते को स्वीकार कर लेती है बल्कि उसके विरोध में उठने वाली हर आवाज़ को दबाती भी है।
क्या राजनीतिक दृष्टि से मौलाना उबैदुल्लाह खां आज़मी साहब भी ऐसे ही किसी मानसिक तनाव का शिकार हो गये थे। अगर नहीं तो मुझे क्षमा करें मौलाना आज़मी साहब, मैं कुछ कहने का प्रयास कर रहा हूं। आपके तथा अपने समुदाय के सामने कुछ कटु तथ्य प्र्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूं। संभव है आपके कारण कुछ विभिन्न हों, मगर राजनीति में मुसलमानों के पास विकल्प हैं ही कहां? राष्ट्रीय स्तर की एक पार्टी है कांग्रेस और कुछ राज्यों में कुछ क्षेत्रीय पार्टियां। भारतीय जनता पार्टी में वह जा नहीं सकते और जो पार्टियां भारतीय जनता पार्टी के साथ कदम से कदम मिलाकर चलती हैं, उनकी ओर देखना भी जोखिम भरा लगता है। यह राजनीतिक सच्चाई सभी पर ज़ाहिर है, इसलिए कांग्रेस या बाकी बची दो-चार धर्मनिर्र्पेक्ष कहलाने वाली पार्टियां मुस्लिम राजनीतिज्ञों को अपने साथ जोड़ती हैं तो उन पर उपकार करती हैं, उनका उपकार नहीं मानतीं।
मुझे याद है, प्रोफेसर सैफुद्दीन सोज़ साहब का वह वाक्य जो उन्होंने 1999 में अपने एक वोट द्वारा भारतीय जनता पार्टी की केन्द्रीय सरकार को गिराने का ऐतिहासिक कारनामा अंजाम देने के बाद कहा था। ‘‘अज़ीज़ भाई, यह सिद्धांतों की बात पुस्तकों में बन्द रहने दीजिए, जब आप पर बीतेगी तो जानेंगे कि कोई आपके बलिदान को पूछता ही नहीं। मैं केन्द्रीय मंत्री था, मेरे एक वोट से साम्प्रदायिक सरकार गिरी, आज कई महीने बीत गये, किसने यह कष्ट किया कि जाने, मैं किस स्थिति में हूं?’’ यह उनका अनुभव बोल रहा था।
मैं मौलाना उबैदुल्लाह खां आज़मी साहब का बचाव करना नहीं चाहता, मैं उनके इस निर्णय को निजी रूप में पसन्द नहीं करता। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। कल्याण सिंह कोई ऐसा मुद्दा नहीं हैं, जिस नदी के दो किनारों की मिसाल देकर टाल दिया जाये, मगर मैं उनसे कुछ नहीं कहना चाहता। मैं कुछ अपने समुदाय से कहना चाहता हूं, उनके समुदाय से कुछ कहना चाहता हूं, इसलिए कि उनके इस फैसले ने कम से कम मुझे तो विचलित कर दिया है। मैंने अपने कल के लेख में ईद के दिन ठाकुर अमर सिंह जी के आने का उल्लेख किया था तथा उनके साथ डेढ़ घंटे लम्बी बातचीत की चर्चा भी की थी।
आज मैं कहना चाहता हूं कि मैंने गंभीर बीमारी के बावजूद ईद के अवसर पर अपने घर उनके आने के महत्व को गंभीरता से समझा है। वह मेरे मित्र होने के साथ-साथ समाजवादी पार्टी के एक जिम्मेदार महासचिव हैं, जिन्हें अपनी पार्टी के, जी हां अपनी पार्टी के भविष्य की चिंता है और वह मुसलमानों को खोना नहीं चाहते, इसलिए चाहे ईद के दिन अज़ीज़ बर्नी के घर पधारने की बात हो या ईद मिलन के समारोह में जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के मुखिया मौलाना अरशद मदनी के समारोह में शामिल होना। बावजूद बीमारी के वह अपनी शिरकत को यकीनी बनाना चाहते हैं। मुलायम सिंह यादव जी की ईद के दिन फोन पर दी गई मुबारकबाद को मैं इसी दृष्टि से देखता हूं, यह चिंता है उन राजनीतिज्ञों की जिनके पास सबकुछ है, मगर वह कुछ भी खोना नहीं चाहते और जिनके पास कुछ रहा ही नहीं है और हर क्षण कुछ न कुछ खोते जा रहे हैं फिर भी निश्चिंत हैं, हमें अपने भविष्य की कोई चिंता नहीं। मेरे निकट कल्याण सिंह का मामला आज भी अपनी जगह है........और अगर यह उबैदुल्लाह ख़ां आज़मी साहब के मन में भी रहे तो अच्छा है, लेकिन समुदाय के मन में तो हर हाल में रहना ही चाहिए।.........
लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि मुलायम सिंह तथा उनकी पार्टी के लिए सदैव के लिए दरवाज़े बन्द कर देने चाहिएं। मुसलमानों से सम्बन्धित उनका अतीत कलंकित नहीं, मगर वर्तमान बेदाग नहीं है। हमें भी दबाव की राजनीति अपनानी चाहिए। क्या हम नहीं देखते कि ठाकुर अमर सिंह प्रतिदिन कांग्रेस को अपनी पार्टी के समर्थन की भरपूर कीमत वसूल करते हैं। कदम-कदम पर दबाव की राजनीति का प्रयोग करते हैं। मुझे उनका यह वाक्य अच्छी तरह याद है कि अगर बच्चे को बाथरूम नहीं दोगे तो वह जगह-जगह ‘‘शू-शू पोट्टी’’ करेगा ही, फिर क्यों कहते हो गन्दगी फैला रहा है। गन्दगी से बचना चाहते हो तो बाथरूम दो यही बात तो मुसलमानों पर भी लागू हो सकती है। ठाकुर अमर सिंह जिस बाथरूम की चर्चा कांग्रेस के सन्दर्भ में करते हैं, मुसलमान उसी बाथरूम की चर्चा अपने लिए समाजवादी पार्टी से कर सकते हैं। अगर उनकी यह शर्त समाजवादी पार्टी के सामने रहे कि मुसलमानों का समर्थन चाहिए तो कल्याण सिंह को दरकिनार करो, नहीं कर सकते तो मुसलमानों की नाराज़गी बर्दाश्त करो।
फिर उनसे समर्थन की आशा क्यों? मौलाना उबैदुल्लाह ख़ां आज़मी आज समाजवादी पार्टी की सबसे बड़ी आश्वयकता हैं, इसलिए कि मुसलमान समाजवादी पार्टी की सबसे बड़ी आश्यकता हैं। इस समय चुनाव हरियाणा और महाराष्ट्र में हैं, जहां कल्याण सिंह समाजवादी पार्टी को वोट दिला नहीं सकते, कम ही करा सकते हैं और उबैदुल्लाह ख़ां आज़मी अगर वोट दिला नहीं सकते तो कम से कम मुसलमानों के गुस्से का प्रभाव तो कम करने का प्रयास कर ही सकते हैं। यह भी नहीं हुआ तो कांग्रेस और मुसलमानों के बीच दूरी पैदा कर समाजवादी पार्टी को राजनीति को लाभ तो पहुंचा ही सकते हैं, इस तरह उनके लिए एक तीर से दो शिकार होंगे, कांग्रेस से अपनी नाराज़गी का बदला लेंगे और समाजवादी पार्टी के दबाव की राजनीति को कारगर बनाने में प्रमुख भुमिका निभाएंगेे।
समाजवादी पार्टी महाराष्ट्र में या हरियाणा में कोई सीट जीतती है या नहीं यह तो बाद की बात है लेकिन दर्जनों सीटों पर कांग्रेस को परेशानी में तो डाल ही सकती है। बाथरूम की प्राप्ति के लिए समाजवादी पार्टी का नुस्खा भी कुछ कम प्रभावकारी सिद्ध नहीं होगा और फिर अभी तो यह आरम्भ है परिणाम तक पहुंचते-पहुंचते तो कई बार कांग्रेस को यह दबाव की राजनीति परेशानी में डालेगी। हरियाणा तथा महाराष्ट्र से निपटेंगे तो झारखण्ड में चुनाव की तैयारियां ज़ोरों पर होंगी, जहां मुसलमानांें की संख्या काफी महत्व रखती है और उबैदुल्लाह ख़ां आज़मी राज्यसभा में उस राज्य का प्रतिनिधित्व भी करते रहे हैं। झारखण्ड के बाद बिहार में चुनाव है और फिर उसके बाद बंगाल में। मुसलमानों कहां नहीं हैं? और जहां मुसलमान हैं, वहां मुस्लिम वक्ता के महत्व को कम करके कैसे देखा जा सकता है? इस बीच उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के चुनावों का मौसम भी आ ही जायेगा। समाजवादी पार्टी के पास इस बार लोकसभा में एक भी मुसलमान नहीं है। इस पार्टी के जन्म के बाद से यह पहला अवसर है, जब लोकसभा में कोई एक मुसलमान भी इस पार्टी का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहा है।
बहरहाल इस ताज़ा फैसले से जहां उबैदुल्लाह ख़ां आज़मी साहब के लिए राज्यसभा तक पहुंचने का रास्ता हमवार होता है, वहीं समाजवादी पार्टी मुसलमानों तक पहुंचने के लिए अपने नये प्रयास का शुभारंभ कर सकती है।
मौलाना उबैदुल्लाह ख़ां आज़मी साहब और समाजवादी पार्टी से सम्बन्धित इस राजनीतिक परिस्थिति का विश्लेषण तो कुछ इस तरह किया जा सकता है, मगर बात यहां खत्म नहीं होती, बल्कि बात तो यहाँ से शुरू होती है कि इस फैसले का मुस्लिम राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ सकता है? या क्या प्रभाव पड़ना चाहिए?...........इस पर बात कल।
Monday, September 28, 2009
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