राज नाथ और अडवानी संदिग्ध आतंकवादियों के बचाओ में क्यों
क्या इस आग के अपने दामन तक पहुँचने से डर गए हैं
नहीं! हमें कोई आश्चर्य नहीं है, भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष ठाकुर राज नाथ सिंह और प्राइम मिनिस्टर वेटिंग लाल कृष्ण अडवानी के साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर व दुसरे संदिग्ध आतंकवादियों के समर्थन में उतर आने से, इस लिए की वो जानते हैं की 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद की शहादत के साथ देश की शान्ति में जो चिंगारी उन्होंने लगायी थी, उसे एक न एक दिन शोलों में बदलना ही था और अब जब पूरा देश आग की लपटों में घिरा हो तो वह स्वयं इस की आंच से कब तक और कैसे बचेंगे, जिस प्रकार आज आर एस एस के इन्द्रेश और मोहन राव भागवत का षडयंत्र बेनकाब हो रहा है और आरोपी के रूप में संघ परिवार के उन्हीं चहीतों का नाम सामने आरहा है, जिनके बचाओ में पहले राज नाथ सिंह और अब एल के अडवानी ज़मीन आसमान एक किए हुए हैं।
आख़िर क्यों!!!
कहीं उन्हें यह भय तो नहीं है की जांच और आगे बढ़ी, साजिश से परदा उठा, आरोपियों की ज़बान इसी प्रकार खुलती रही तो यह आग आने वाले कल में उन के दामन तक भी पहुँच जायेगी? इस लिए पहले शोर मचाना प्रारम्भ किया और आरोपियों के बचाओ में उतर आए ताकि वह अब और ज़बान न खोलें, साथ ही उन्हें यह भरोसा भी हो जाए की हम ने इस आग को और न फैलाया तो हमारे स्वामी हमारे बचाओ का कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेंगे। या फिर उस तेज़ ज़हन वाले आरोपियों ने इसी प्रकार अपने स्वामियों तक यह संदेश पहुँचा दिया होगा की इस हमाम में सभी नंगे हैं, हम तो डूबे हैं सनम>तुम को भी ले डूबेंगे, यानी अगर नकाब पूर्ण रूप से उन के चेहरे से उतरा तो परदे में कोई नहीं रह पायेगा। जेल की सलाखों के पीछे अगर यह होंगे तो हाथों में हथकडी उन के भी होगी जो पूरी साजिश का सोत्र हैं और जो उन प्यादों द्वारा अपनी राजनितिक चालें चलते रहे हैं। इस लिए सम्भव है की ऐ टी एस द्वारा कड़ियाँ जोड़े जाने का यह सिलसिला इस अन्तिम कड़ी तक पहुँच जाए जिस से संघ परिवार की लग भाग 100 वर्षीय रणनीति और साजिश बे नकाब हो जाए, उन के सत्ता में आने से ले कर हिंदुस्तान को हिंदू राष्ट्र में बदल देने की योजना पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाए, इस लिए पूरी स्तिथि को महसूस करते हुए ऐसे व्यक्तियों ने पहले से ही यह शोर मचाना शरू कर दिया की ऐ टी एस की टीम को बदला जाए। यह साध्वी, फौजी अधिकारी और महंत गुनेहगार हो नहीं सकते और यह कांग्रेस की राजनितिक साजिश है।
मिस्टर अडवानी!
आतिफ और साजिद की दर्दनाक हत्या (हाँ अब हम इसे हत्या ही कहेंगे और क्यों यह इस लेख की आगे आने वाली पंक्तियों में स्पष्ट भी कर देंगे) मुफ्ती अबुल बशर की गिरफ्तारी और उन्हें उत्पीडन देने के बाद तो आपका यह दर्द से भरा दिल पिघला नहीं और पुलिस अत्याचार के विरुद्ध आपकी ज़बान से कुछ निकला नहीं, हालाँकि रमजान के महीने में जुमा के दिन दिल्ली पुलिस ने जिस प्रकार २ युवकों की इन्कोउन्टर के नाम पर हत्या की, वे सारी परिस्थितियाँ इस बात का स्पष्ट इशारा कर रही थीं की कम से कम इस को एनकाउंटर नहीं कहा जा सकता और पुलिस कार्यवाही सवालों के घेरे से बाहर नहीं है। इस के बावजूद आपकी ज़बान यह कहते हुए थकती नहीं थी की पुलिस की कार्यवाही पर प्रशन उठाने से उस का मनोबल कम होगा और आतंकवाद को बढावा मिलेगा। फिर आज आप क्यों पुलिस का मनोबल कम कर रहे हैं? क्यों संदिग्ध आतंकवादियों का बचाओ करके आतंकवादियों का मनोबल बढ़ा रहे हैं? जहाँ तक प्रशन साध्वी प्रज्ञा के हलफ नामा पढ़ कर उस के साथ ऐ टी एस द्वारा की गई जियादती का है तो अडवानी जी यह तो कुछ भी नहीं है, अगर आप टाडा और मकोका जैसे कानून के अंतर्गत गिरफ्तार किए गए मुस्लिम व्यक्तियों की दर्द से भरी दास्ताँ और उन के हलफनामे पढेंगे तो आपको महसूस होगा की साध्वी प्रज्ञा के साथ तो कुछ भी जियादती नहीं हुई है। मैं इस लेख की आने वाली कड़ियों में ऐसी अनेक घटनाएँ आपकी और हिन्दुस्तानी सरकार की सेवा में प्रस्तुत करूँगा जिस का प्रारम्भ आज नामी इतिहासकार अमरेश मिश्रा के 2005 में लिखे गए एक लेख के हवाले से कर रहा हूँ। इस खोजी लेख में उन के साथ पत्रकार एतमाद खान और मानव संसधान के लिए काम कर रही एक संस्था ऐ आई पी ऍफ़ (आल इंडिया पेट्रिओटिक फॉरम) की जांच भी सम्मिलित है। पढिये और अपने ह्रदय से पूँछें की उनके साथ जो ज़ुल्म हुआ है वह साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर से किस कद्र जियादा है?
12 मार्च 1993 को मुंबई 13 सीरियल बम धमाकों से दहल उठी। इस के तुंरत बाद कई लोगों को गिरफ्तार किया गया। 1993 के आख़िर तक 198 आरोपियों के विरुद्ध चार्जशीट दाखिल की गई। उस समय तक सी बी आई ने यह मामला अपने हाथ में ले लिया था और सभी आरोपियों के विरुद्ध जो आरोप लगाया गया था, वह देश द्रोही गतिविधियों में लिप्त होना था। इस लिए सभी आरोपियों पर टाडा के अंतर्गत मुक़दमे दर्ज किए गए थे। टाडा एक अमानवीय काला कानून था, जो 1987 में बनाया गया था। अदालत में पुलिस के सामने आरोपियों की स्वीकारोक्ति (इकबालिया बयान) को विश्वसनीय नहीं माना जाता परन्तु टाडा में पुलिस को अधिकार दे दिया गया की वह स्वीकारोक्ति दर्ज करे। इक्का दुक्का मामलों को छोड़ कर टाडा के अंतर्गत आरोपी ठहराए जाने वाले सभी लोग मुसलमान थे। मुंबई बम धमाकों को ऐसा रंग दिया गया की मानो मुसलामानों ने हिन्दुस्तान पर हमला करने की साजिश की हो। मुंबई पुलिस की मानसिकता पर मुस्लिम विरोध की साधारण लहर बलवती हो गई थी। मुंबई बम धमाकों को अमेरिका में 11 सेप्टेम्बर को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की इमारतों पर हुए हमलों से उपमा देकर उसे हिंदुस्तान 9/11 कहा जाने लगा। परन्तु सी बी आई ने टाडा अदालत में जो चार्जशीट प्रस्तुत की उस में आरोपियों की संख्या घट कर 135 रह गई। जिन पर देश द्रोह का आरोप लगाया गया और चार्जशीट में कहा गया है की यह धमाके बाबरी मस्जिद की शहादत और मुंबई दंगे सांप्रदायिक घटनाएँ थीं जिन में भारत सरकार ने मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए फासीवादी हिंदू तत्वों की हर प्रकार से सहायता की थी। मुंबई बम धमाकों का मुकदमा 1993 में प्रारम्भ हुआ और अप्रैल 2005 तक जारी रहा। प्रारम्भ में जे एन पटेल टाडा जज थे। 1990 के दशक के आख़िर में प्रमोद मोद्कोडे ने उन का स्थान ले लिया। उन 12 वर्षों की अवधि में इस मुक़दमे ने कई उतार चढाओ देखे हैं। 135 आरोपियों में से दावूद इब्राहीम, टाइगर मेमन सहित 35 आरोपी फरार हैं। लगभग 35 आरोपियों को 1990 के दशक में ज़मानत मिली और शेष जेल में बंद रहे। छोटा राजन गैंग ने ज़मानत पाने वाले 7 व्यक्तियों की तथाकथित रूप से हत्या कर दी। कई दूसरे आरोपियों पर हमले किए गए। 1990 के पूरे दशक में आरोपी अपनी सुरक्षा को प्रस्तुत खतरों के सम्बन्ध में टाडा जज को प्रार्थना पत्र प्रस्तुत करते रहे। यह आरोप आम था की बम धमाकों के आरोपियों की हत्या करने के लिए ग्रह मंत्रालय ने छोटा राजन से साँठ गाँठ की थी।
टाडा जज ने इन प्रार्थना पत्रों की उपेक्षा करदी। किसी भी आरोपी को सुरक्षा प्रदान नहीं की गई। इस के अतिरिक्त आरोपियों ने पुलिस पर आरोप लगाया की उनके उत्पीडन के लिए कठोरतम तरीके अपनाए गए। आरोपियों ने कहा की पुलिस बल पूर्वक इकबालिया बयान ले रही थी, हलाँकि पुलिस को यह अधिकार टाडा कानून में नहीं दिया गया था। टाडा कानून की धरा 16 (A) में दर्ज है की इकबालिया बयान (स्वीकारोक्ति) वाले पृष्ट पर डी सी पी के सामने लिया जाए और इकबालिया बयान वाले पृष्ट पर आरोपी का हस्ताक्षर भी मौजूद हो। आरोपी का कहना है की पुलिस ने बल पूर्वक इकबालिया बयान दर्ज करने के लिए पाशविक तरीके अपनाए, जिस के कुछ उदहारण प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
* मुस्लिम नौजवान मंज़ूर अहमद से कहा गया की वह अपनी माँ की आयु की एक महिला जैबुन्निसा काजी के साथ अप्राकृतिक कार्य करे जैसा की सेक्स पर आधारित अंग्रेज़ी फिल्मों में दिखाया जाता है।
* नजमा (एक आरोपी शाहनवाज़ कुरैशी की बहन) को मजबूर किया गया की वह अपने पिता के सामने अशलील कार्य करे (हु बहु लिखना उचित नहीं क्योंकि यह बहुत ही घटिया हरकत थी)
* नजमा के पिता वली को ग़लत बताया गया की उन के बच्चों का असल बाप कोई और है।
* उस समय के पुलिस कमिशनर एम् एन सिंह ने टोंक, राजस्थान के शाही घराने से सम्बन्ध रखने वाले सलीम दुर्रानी से कहा की उन्हें बम धमाकों के केस में टाडा के तहत इस लिए आरोपी ठहराया जा रहा है क्योंकि वह एक पूर्व मुस्लिम नवाब है।
* सलीम दुर्रानी का मुहँ शोचालय में घसीटा गया और मैला खाने के लिए कहा गया और जब उन का सर नीचे तक नहीं जा सका तो कहा गया के वह अपने हाथ से मैला उठा कर खाएं।
* नफीसा (आरोपी मजीद खान की पत्नी) को सिर्फ़ एक ही नाईट गाउन में दो महीने तक जेल में रखा गया। जिस में गंध आरही थी, और वह गंदे खून से लत पत हो गया था। जिस प्रकार महिला कैदियों के साथ बरताव किया जाता है। पुलिस ने नफीसा को खून सोखने वाला पेड तक नहीं दिया था।
* आरोपी शाहिद की माँ ने हाई कोर्ट में बयान दिया की शाहिद को जेल में हिरासत के दौरान 4 बार मिर्गी का दौरा पड़ा। रुखसाना (गुलाम हाफिज़ की भाभी) को सिर्फ़ उस समय रिहा किया गया जब प्रसूति का समय बहुत करीब था।
* परवीन (शाहनवाज़ की बहन) को 15 दिन हिरासत में रखा गया। रिहा होने पर उस ने एक बहोत कमज़ोर बच्चे को जनम दिया, जो तीन महीने बाद मर गया।
* फरजाना (गुलाम हाफिज़ की पत्नी) नूर जहाँ (शाहनवाज़ अब्दुल कादिर कुरैशी की पत्नी), सफिया (अब्दुल्लाह खान की पत्नी) को दूसरी महिलाओं के साथ कई दिनों तक हिरासत में रखा गया, जिस के कारण उन के बच्चे भूके रहे और उन्हें सिर्फ़ चाय और पानी पर गुज़ारा करना पड़ा।
* पुलिस वाले 50 रु से १०० रु तक फीस लेकर बाहर से दूध और खाना लाते थे। उन सभी महिलाओं के लिए लग भाग १२.३० बजे जो खाना लाया जाता था, वह रोटी के दो छोटे टुकड़े और बहोत ही कम मात्रा में चाय और रात ८.३० बजे उन्हें रोटी के चार टुकड़े और पानी जैसी पतली दाल दी जाती थी।
* पीने के लिए पानी तक भी नहीं दिया जाता था।
* उन में से कई महिलाओं को अपना पेशाब पीने के लिए विवश किया गया।
* उपचार भी उपलब्ध नहीं था। केवल उन बदकिस्मत लोगों को ही अस्पताल ले जाया जाता जो पुलिस के उत्पीडन के कारण आखरी साँस ले रहे होते।
*सईदा (आरोपी जाकिर हुसैन की बहन) को अपने 41 दिन के छोटे बच्चे के सामने बुरी तरह पीटा गया और उस बच्चे को भी थप्पड़ मारे गए। सईदा को कई घंटों तक अपने बच्चे को दूध भी पिलाने नहीं दिया गया।
* शबाना (आरोपी अब्दुल रहमान की बेटी) को जो गर्भवती थी नंगा करके पीटा गया।
* नूर जहाँ (आरोपि शाहनवाज़ की पत्नी) को जब गिरफ्तार कर के पुलिस जीप में बिठाया गया तो उन्हें अपने दूध पीते बच्चे को कपड़े भी पहनाने नहीं दिया गया।
* आरोपी इकबाल हासपाटल को बार बार ताना दिया गया की उन के बच्चों का असली बाप कोई और है।
* जाहिदा को अपने बच्चे से अलग कर दिया गया और श्री वर्धन पुलिस स्टेशन में 15 दिनों तक हिरासत में रखा गया और अपने बच्चे को दूध तक पिलाने नहीं दिया गया।
* एक नई नवेली दुल्हन और अंग्रेज़ी स्कूल में शिक्षित महिला अनवर तय्यबा को नंगा कर के बर्फ की सिल पर लिटाया गया और पुलिस वाले शराब पी कर आते और उस महिला के शरीर से खेलते और जलते सिगरेट के दाग लगाते।
*मृतक रहीम कर्बिलकर कई महीनों से बीमार थे और जेल अधिकारी और अदालत से उपचार के लिए प्रार्थना करते रहते थे, लेकिन उनको केवल अन्तिम समय में जे जे अस्पताल में दाखिल कराया गया और कुछ घंटों के अन्दर ही उन्होंने दम तोड़ दिया।
* जो आरोपी खड़े होने की स्तिथि में होते उन्हें पैदल ही अस्पताल ले जाया जाता। हथकडी पहना कर उन्हें धुप में चलाया जाता और पुलिस वाले ज़ोर ज़ोर से उन्हें डांटते रहते और जान बूझ कर सायेदार रास्तों से दूर रखते। इस प्रकार के हथकंडे उन आरोपियों के विरुद्ध जान बूझ करने अपनाए जाते जो उपचार की अपील करते।
* आरोपियों के मुहँ में गंदे चप्पल ठूंसना एक आम बात हो गई थी।
* गर्भवती शबाना को नंगा करके विवश किया गया की वह अपने पिता को चप्पल से मारें।
* आरोपियों के जननांगों में मिर्च पाउडर डाल कर उत्पीडन करना एक आम बात हो गई थी। जिस के कारण कई आरोपियों को बवासीर की बीमारी हो गई है...........जारी
1 comment:
Burney Sahab,
It's good that you are posting this in Hindi on separate blog.
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