Sunday, March 6, 2011

चलो मान लिया आज-उर्दू हमारी ज़बान है
अज़ीज़ बर्नी

चर्चा जारी थी, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और असम में होने वाले राज्य विधानसभा चुनावों के हवाले से, उर्दू भाषा के परिपेक्ष में, लेकिन इस बीच देवरिया और गोरखपुर के दौरे पर जाना पड़ा। लिखना बहुत प्रभावित होता है इस यात्रा से इसलिए अब इसे थोड़ा कम करना होगा। बहरहाल फिर शुरू करते हैं वहीं से जहां बात छोड़ी थी। हमें पूरी तरह अंदाज़ा है कि इन चारों प्रदेशों में उर्दू भाषा सिवाए कुछ इलाक़ों के क्षेत्रीय जनता की भाषा नहीं है, हालांकि उर्दू भाषा की जानकारी कुछ हद तक चारों राज्यों के निवासियों को है, लेकिन पश्चिम बंगाल में बंग्ला, तमिलनाडु में तमिल, केरल में मलियालम और असम में असमया भाषा क्षेत्रीय लोगों की पहली पसन्द है उसके बाद अंग्रेज़ी, हां कुछ मुख्य स्थानों पर दीनी मदरसों की कृपा से उर्दू का वजूद अभी बाक़ी है। भाषा का सम्बंध राष्ट्र के विकास में क्या होता है इसे बहुत ही गम्भीरता से समझने की आवश्यकता है। मैं आज इस बेहद नाज़ुक विषय पर बातचीत का इरादा रखता हूँ। आज़ादी से पूर्व उर्दू भारत की राष्ट्रीय भाषा समझी जाती थी, हालांकि उस समय अंग्रेज़ शासक थे और अंग्रेज़ी का दबदबा उस समय भी था लेकिन भारत की अधिकांश जनता उर्दू को अपनी भाषा मानती थी इसीलिए हमने उर्दू भाषा को उस समय की राष्ट्रीय भाषा कहा, क्योंकि सरकार की भाषा यही थी, अदालतों की भाषा यही थी, हर ख़ास व आम की भाषा यही थी। अंग्रेज़ों के विरूद्ध ‘इंक़लाब ज़िन्दाबाद’ का नारा देने वाली भाषा यही थी। आज़ादी के लिए संघर्ष की भाषा यही थी। 1857 से लेकर 1947 तक अर्थात पहली आज़ादी की जंग से आज़ादी की प्राप्ति तक उर्दू भाषा ने ही आज़ादी की जंग लड़ी ‘उर्दू-ए-मोअल्ला’ (मौलाना हसरत मोहानी), ‘हमदर्द’ (मौलाना मुहम्मद अली जौहर), ‘अलहिलाल’, ‘अलबलाग़’ (मौलाना अबुलकलाम आज़ाद), ‘ज़मींदार’ (मौलाना ज़फ़र अली खां) वह नुमाइंदा अख़बार थे जिनका सम्बंध उर्दू भाषा से था और आज़ादी की जंग में अग्रणी थे। उर्दू साहित्य अथवा शायरी की चर्चा करें तो यह धरोहर हमारी आज़ादी के इतिहास का हिस्सा है। पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के नाम से प्रसिद्धः
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है
ऐ शहीदे मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार
अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है
वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ असमाँ
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है
जैसे शेर उर्दू भाषा से ताल्लुक रखने वाले स्वतंत्रता सैनानियों ने दिए। यह बिना धर्म व सम्प्रदाय के भेदभाव के उनकी भावनाएं थीं। अगर पंडित राम प्रसाद बिस्मिल उर्दू भाषा के माध्यम से आज़ादी का बिगुल बजा रहे थे तो ज़फ़र अली खां, मौहम्मद हुसैन आज़ाद और अल्लामा इक़बाल भी उर्दू भाषा में कहे जाने वाले अपने नग़मों के द्वारा आज़ादी की जंग लड़ रहे थे। जैसेः
नाक़ूस से ग़रज़ है न मतलब अज़ां से है
मुझको अगर है इश्क़ तो हिंदोस्तां से है
तहज़्ाीब-ए-हिंद का कहें चश्मा अगर अज़ल
यह मौजे रंग-रंग फिर आई कहां से है
ज़र्रे में गर तड़प है तो इस ख़ाकै पाक से
सूरज में रोशनी है तो इस आसमां से है
(ज़फ़रअली ख़ां)
ऐ आफ़ताबे सुब्ह-ए-वतन तू किधर है आज
तू है किधर कि कुछ नहीं आता नज़र है आज
बिन तेरे मुल्के हिन्द के घर बे चिराग़ हैं
जलते एवज़ चिराग़ के सीने में दाग़ हैं
(मुहम्मद हुसैन आज़ाद)
अगर मुमकिन हो तू भी आज रंगीं जाम के बदले
लहू के रंग में डूबा हुआ परचम उठा साक़ी
(अल्लामा इक़बाल)
यह है उर्दू भाषा जिसे भारत का इतिहास कभी भुला नहीं पाएगा, लेकिन 1947 में आज़ादी की प्राप्ति के बाद देश का विभाजन हुआ, ज़मीन का विभाजन हुआ और हमारी हिन्दुस्तानी सभ्यता भी टुकड़ों में बट गई, भाषा का विभाजन हुआ जिसका खमियाज़ा हमें आज तक भुगतना पड़ रहा है। उर्दू भाषा केवल एक वोट से पीछे रह कर राष्ट्र भाषा का दर्जा प्राप्त नहीं कर सकी, हिन्दी भाषा को यह अधिकार प्राप्त हुआ। काश कि अमली तौर पर हिन्दी ही हमारी राष्ट्र भाषा स्वीकार कर ली गई होती। तकनीकी रुप से अवश्य यह कहा जा सकता है कि हिन्दी को हमारे देश की राष्ट्र भाषा होने का दर्जा प्राप्त है लेकिन यह वास्तविकता नहीं है। अगर ऐसा होता तो महाराष्ट्र विधानसभा में हिन्दी में शपथ लेने पर अबु आसिम आज़मी को ज़िल्लत का सामना नहीं करना पड़ता। हमें अपनी गंगा जमनी सभ्यता पर गर्व है। मगर अब यह सभ्यता भूतकाल की दास्तानों में ही अधिक नज़र आती है। वर्तमान का हाल तो बहुत बुरा है और भविष्य का ख़ुदा जाने। उर्दू अब देश की क़ौमी भाषा नहीं है और हिन्दी क़ौमी भाषा हो कर भी पूरे हिन्दुस्तान की भाषा नहीं है। भारत के विभिन्न राज्यों में विभिन्न भाषाएं बोली जाती हैं, निःसंदेह यह हमारी विशाल हृदयता और हमारे समाज की रंगा रंगी की तरफ़ इशारा करती है, लेकिन प्रादेशिक भाषाओं के लाभों के साथ-साथ एक नुक़सान यह भी है कि हमारी राष्ट्रीय भाषा हिन्दी को तमाम राज्यों में वह दर्जा प्राप्त नहीं हो सका है कि उसे राष्ट्रीय स्तर पर सम्पर्क की भाषा माना जा सके। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और राजस्थान के रहने वाले लोग कसरत से हिन्दी भाषा को आम बोलचाल में इस्तेमाल करते हैं मगर जब हम दक्षिण की तरफ़ रुख़ करते हैं तो आन्ध्रप्रदेश की क्षेत्रीय भाषा तेलगु है, कर्नाटक की कन्नड़, तमिनाडु की तमिल और केरल में मलियालम। शेष भारत की बात करें तो पंजाब में पंजाबी, गुजरात में गुजराती, महाराष्ट्र में मराठी ज़्यादा लोकप्रिय हैं और इन भाषाओं के बाद अगर कोई सम्पर्क की भाषा है तो वह इंग्लिश है, अर्थात उर्दू और हिन्दी जो दोनों ही आज़ादी के बाद देश की राष्ट्रीय भाषा बनने की दावेदार थीं, लेकिन अब राष्ट्रीय स्तर पर इस हैसियत में नज़र नहीं आतीं। कुछ क्षेत्रों में हिन्दी समझी जाती है और बोल ली जाती है। इसी तरह उर्दू भाषा भी.....
आज़ादी के बाद से लगातार यह साबित करने का प्रयास किया जाता रहा है कि उर्दू भारत की भाषा है, किसी धर्म या समुदाय की नहीं। हमने स्वंय अपने भाषणों और लेखों में कहा और लिखा कि जब प्रोफेसर गोपीचंद नारंग और चन्द्रभान ख़्याल जैसे नामों वाले लोग उर्दू भाषा में बात करते हैं, उर्दू भाषा की सेवा करते नज़र आते हैं तो यह देश के 100 करोड़ लोगों की भाषा नज़र आती है। मगर जब प्रोफ़ेसर मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद और ख़लीक अंजुम जैसे उर्दूदां उर्दू में बात करते नज़र आते हैं तो यह केवल 20 प्रतिशत लोगों की भाषा नजर आती है। तमाम प्रयासों और संघर्ष के बावजूद इस वास्तविकता को स्वीकार करना मजबूरी भी है और आवश्यक भी, कि आज़ादी के दौर की या उसके फ़ौरन बाद जवान होने वाली पीढ़ी की बात न करें तो आजकी पीढ़ी में उर्दू भाषा से सम्बंध एक विशेष समुदाय का होकर रह गया है। बहुत हद तक अब यह देश के अल्पसंख्यक अर्थात मुसलमानों की भाषा बन कर रह गई है। बड़ी संख्या में वही उर्दू के ज़्यादा क़रीब नज़र आते हैं, इसलिए अगर इस सच्चाई को आज स्वीकार कर लिया जाए और मजबूरी में नहीं बल्कि ख़ुशी के साथ यह ऐलान कर दिया जाए कि हम तो उर्दू को भारत की भाषा के रूप में ही देखते रहे और हमेशा देखना चाहते थे, हम इसे न तो राज्यों की सीमाओं में सीमित रखना चाहते थे, न किसी विशेष समुदाय या वर्ग की सम्पŸिा लेकिन अगर आपने अब इसे हमारी भाषा क़रार दे ही दिया है तोे हमें ख़ुशी के साथ आपका यह तोहफ़ा क़बूल है।
उर्दू हमारी भाषा है, हमें यह उपहार ख़ुशदिली से क़ुबूल है। हम उस वक़्त भी बहुत ख़ुश थे, जब उर्दू पूरे भारत की भाषा थी, हम उस वक़्त और भी प्रसन्न होते जब उर्दू पूरे भारत की भाषा होती। हम इस हक़ीक़त को अच्छी तरह समझ सकते हैं कि उर्दू के हमारी भाषा होने के क्या-क्या अर्थ हैं। भाषा का समाज पर बड़ा गहरा प्रभाव होता और भाषा का रिश्ता कई मायनों में धर्म के रिश्ते से भी अधिक मज़बूत साबित होता है। अतिसंभव है कि मेरी यह बात सब लोगों के लिए स्वीकार्य न हो, परंतु मेरे लेख के अगले वाक्य यह स्पष्ट कर देंगे कि मैं ऐसा क्यों लिख रहा हूं। मैंने इतिहास के दामन में झांक कर देखा है, मैंने देश के विभाजन की घटनाओं का अध्ययन किया है, मैंने पश्चिमी तथा पूर्वी पाकिस्तान के भौगोलिक रूप से धार्मिक दृष्टिकोण से और भाषा के आलोक में समझने का प्रयास किया है और मैं इस निष्कर्श पर पहंुचा हूं कि पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान के रहने वालों का धर्म तो एक ही था, भारत के विभाजन के समय भारत से अलग होने का कारण भी एक ही था, अगर यह कारण धर्म था तो फिर पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान एक साथ क्यों नहीं रह सके। आख़िर किस बात ने दोनों को अलग कर दिया। मैं इस समय राजनीतिक कारणों पर बात नहीं कर रहा हूं। मेरा यह लेख भाषा के महत्व को समझने और समझाने के लिए है इसलिए और जो भी कारण रहे हों भाषा एक बहुत बड़ा कारण था पूर्वी तथा पश्चिमी पाकिस्तान के बीच मतभेद पैदा होने और संबंध समाप्त हो जाने का। इसलिए कि पूर्वी पाकिस्तान की भाषा बंगला थी, वह बंगाल के निकट था, उसकी संस्कृति, उसकी भाषा पश्चिमी पाकिस्तान से अलग थी, इसलिए दोनों क़ौमें एक धर्म होते हुए भी भाषा तथा क्षेत्र के ऐतबार से अलग थीं, इसलिए एक पाकिस्तान रह गया और दूसरे का अस्तित्व बंग्लादेश के रूप में सामने आया।
आज मैं इस उदाहरण को सामने रखते हुए भाषा के इस संबंध के महत्व पर बात करना चाहता हूं। भारत का विभाजन 65 वर्ष पुरानी कहानी है। पश्चिमी तथा पूर्वी पाकिस्तान की कहानी भी उतनी ही पुरानी है। मैं बंग्लादेश के अस्तित्व में आने की तिथि का हवाला देने की यहां ज़रूरत महसूस नहीं करता। मैं केवल आज से 50 वर्ष बाद की स्थिति को ध्यान में रख कर गुफ़्तगू कर रहा हूं। तमिलनाडु में रहने वालों की भाषा तमिल है, वह हिंदू हों या मुसलमान। केरल में रहने वालों की भाषा मलियालम है चाहे उनका संबंध किसी भी धर्म से हो, हालांकि अरब से आने वाले क़ाफ़ले ने सबसे पहले इसी धरती पर क़दम रखा और आज भी केरल के मुसलमानों के जीवन में अरबी तर्ज़-ए-ज़िन्दगी की झलक मिलती है। बहुत लोग अरबी वस्त्र में आपको उस राज्य में नज़र आएंगे, फिर भी उनकी भाषा मलियालम है। असम और पश्चिम बंगाल की स्थिति भी लगभग यही है, उनकी अपनी क्षेत्रीय भाषाएं हैं। निःसंदेह उर्दू भाषा का पश्चिम बंगाल से गहरा संबंध रहा है। उर्दू का पहला अख़बार ‘जामे जहांनुमा’ उसी धरती से प्रकाशित हुआ। मौलाना अबुलकलाम आज़ाद ने ‘अल-हिलाल’ और ‘अल-बलाग़’ जैसे परचे इसी प्रदेश (कोलकाता) से निकाले। उर्दू आज भी यहां ज़िंदा है। परंतु बंग्ला भाषा बंगाल के हर रहने वाले की भाषा है। हमें इन सभी भाषाओं से प्रेम है उनके अपनाए जाने में कोई ख़राबी नहीं, परंतु उर्दू वह भाषा है जो राष्ट्रीय स्तर पर संपर्क का माध्यम बन सकती है और वर्तमान प्रादेशिक चुनाव वह अवसर हैं, जब उर्दू को संपर्क की भाषा बनाया जा सकता है। हमारे धार्मिक मदरसे और शेरो-अदब की महफ़िलें अच्छी तरह यह कारनामा अंजाम दे सकती हैं। काम ज़रा कठिन है, परंतु असंभव नहीं। जिन्हें वोट के महत्व को समझना और समझाना है, वह राजनीतिक दृष्टि से इन राज्यों को चुनाव को ख़ुशआमदीद कहें और जिन्हें भाषा के महत्व को समझना और समझाना है वह चुनावों को उर्दू भाषा के लिहाज़ से ख़ुशआमदीद कहें, ज़ाहिर है अगर आपने इस योजना को अमलीजामा पहनाने का संकल्प कर लिया तो इन चार राज्यों के चुनाव केवल संबंधित राज्यों में रहने वालों के लिए ही नहीं होंगे, बल्कि उर्दू भाषा से प्रेम करने वाले हर भारतीय के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होंगे। यही कारण है कि मैंने अपने पिछले लेख में यह निवेदन किया था कि मेरे इस लेख का अनुवाद स्थानीय भाषा में प्रकाशित करके या फिर संपर्क के लिए जो तरीक़ा भी आपको उचित लगे अपनाएं, परंतु इस संदेश को हर घर तक अवश्य पहुंचाएं। आज फिर मैं यही निवेदन कर रहा हूं कि जिस तरह भी संभव हो इस संदेश को उन तक पहुंचाने का यह अवसर हाथ से न जाने दें। शायद भाषा के विकास और सांस्किृतिक समरसता के साथ-साथ अन्य सभी मामलों में भी यह प्रयास लाभप्रद सिद्ध हों।
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