Thursday, February 24, 2011

मिस्र, लीबिया, बहरीन, जम्हूरी अमल या अमेरिकी दख़ल
अज़ीज़ बर्नी

जानता हूं कि आज का लेख लिख कर मैं फिर एक बड़ी मुसीबत को निमंत्रण दे रहा हूं, परंतु क्या करूं जब एक बहुत बड़ी मुसीबत में पूरी क़ौम को गिरफ़्तार होते हुए देख रहा हूं तो चुप कैसे रहूं। ‘मिस्र’ मेरा देश नहीं है, ‘लीबिया’ और ‘बहरीन’ का नागरिक भी नहीं हूं मैं, मेरा देश तो भारत है और मेरी पहली चिंता भी भारत ही है, परंतु हम भारतीय किसी को परेशानी में देखते हैं तो उससे नज़रें नहीं फेर लेते बल्कि उसकी हर संभव सहायता करना अपना पहला दायित्व समझते हैं। बस समझ लीजिए कि इस समय एक ऐसे ही दायित्व का निर्वाह कर रहा हूं मैं और एक डर यह भी है कि कल यह आग हमारे दामन तक न पहुंच जाए।
सद्दाम हुसैन-हुसनी मुबारक - कर्नल क़ज़्ज़ाफ़ी अपने-अपने देश की पहचान माने जाते रहे हैं और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि यह सभी अत्यंत शक्तिशाली शासक रहे हैं। सद्दाम हुसैन ने 24 वर्ष इराक़ पर शासन किया, हुसनी मुबारक ने 30 वर्ष और कर्नल क़ज़्ज़ाफ़ी ने 41 वर्ष। सद्दाम हुसैन की हत्या, हुसनी मुबारक की सत्ता से बेदख़ली और कर्नल क़ज़्ज़्ााफ़ी के विरूद्ध बग़ावत। शाह अब्दुल्ला बिन अब्दुल अज़ीज़ पर अमेरिकी नियंत्रण, कुवैत की अर्थ व्यवस्था पर अमेरिकी क़ब्ज़ा, इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी कठपुतली शासक, ईरान में महमूद अहमदी नज़ाद सरकार को निरंतर धमकियां और जाॅर्डन जैसे देश अमेरिकी काॅलोनी का रूप धारण कर चुके हैं। बहरीन के हालात अब किसी से छुपे नहीं हैं। फ़लस्तीन की तबाही हमारी निगाहों के सामने है। रक्त रंजित पाकिस्तान अब इतना निर्बल तथा विवश हो चुका है कि अपने नागरिकों के हत्यारे रेमंड डेविस को किसी भी तरह की सज़ा देना तो दूर इस अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए के एजेंट के विरुद्ध ज़ुबान खोलने के जुर्म में अपने विदेश मंत्री शाह मुहमूद क़ुरैशी को उनके पद से हटाने के लिए मजबूर हो चुका है।
बंग्लादेश जो कभी भारत का हिस्सा था, आज एक बेहैसियत देश बन कर रह गया है और इन सबके पीछे है केवल और केवल एक ताक़त अमेरिका। हम सब जानते हैं, परंतु ख़ामोश हैं, लाचार तथा बेबस हैं। अगर किसी का ध्यान इस ओर आकर्षित किया जाए तो एक ही उत्तर मिलता है आख़िर हम कर ही क्या सकते हैं? ह्न
वही निराशा भरा अंदाज़ एक जूलियन एसेंज विकीलिक्स के माध्यम से पूरी दुनिया में हलचल पैदा कर सकता है। एक डंर्ता नबामतइमतह फ़ेसबुक की ईजाद कर कम्युनिकेशन के ज़रिए नया इन्क़लाब ला सकता है जिसका सहारा लेकर एक युवती फ़ेसबुक के एक संदेश से हुसनी मुबारक की 31 वर्षीय सरकार का तख़्ता पलट सकती है और 150 करोड़ की आबादी वाली इस ़क़ौम में ऐसा एक भी नहीं जो इनका जवाब बन सके।
अरब देशों की सबसे बड़ी ताक़त है पैट्रोल जो परवरदिगारे आलम का एक वरदान है। बहुत तेज़ी से अब इस दौलत पर अमेरिका का क़ब्ज़ा होता जा रहा है परंतु सब चुप हैं कोई अमेरिका के विरुद्ध बोलने का साहस करता ही नहीं। कुवैत के इतिहास पर नज़र डालें तो यह हज़ारों वर्ष से ईराक़ का एक हिस्सा था। सातवीं शताब्दी में इराक़ के साथ-साथ कुवैत भी मुसलमानों की हुकूमत में शुमार किया गया। 20वीं शताब्दी तक तुर्की की ख़िलाफ़त-ए-उस्मानिया का एक हिस्सा रहा लेकिन प्रथम विश्वयुद्ध के बाद फ्ऱांस तथा ब्रिटैन ने ख़िलाफ़त-ए-उस्मानिया को समाप्त कर दिया और अरब देशों में अपनी कठपुतली सरकारें स्थापित कर दीं। इस तरह यह ज़मीन उनके क़ब्ज़े में आना शुरू हो गई। इराक़ भी ब्रिटैन शासन में शामिल हुआ, लेकिन शीघ्र ही ब्रिटैन को यह एहसास हो गया कि एक न एक दिन इस क्षेत्र को ख़ाली करना पड़ सकता है। इसलिए पेशबंदी के रूप में ब्रिटेन ने 1921 में कुवैत को स्वतंत्र राष्ट्र की हैसियत दी और जब 1932 में ब्रिटेन ने इराक़ से अपनी फ़ौजें हटाईं और अपनी कठपुतली सरकार क़ायम की तो तेल की सप्लाई जारी रखने के उद्देश्य से कुवैत को अपने अधीन रखा। 1945 में इराक़ को तो ब्रिटेन के क़ब्ज़े से आज़ादी प्राप्त हो गई, लेकिन कुवैत निरंतर उनके कंट्रोल में रहा। 1958 में इराक़ के शाही शासन का तख़्तापलट हुआ और फिर तख़्त पर क़ब्ज़ा करने वाले फ़ौजी जनरल अब्दुल करीम क़ासिम ने कुवैत को भी इराक़ में शामिल करने का प्रयास किया, लेकिन ब्रिटिश शासन के प्रतिरोध के कारण यह संभव नहीं हो सका। 1990 में सद्दाम हुसैन ने भी कुवैत को प्राप्त करने का प्रयास किया लेकिन यह संभव नहीं हो सका।
अगर इराक़ के इतिहास पर नज़र डालें तो उसकी महानता का क़ायल हर मुसलमान होगा। इराक़ वह देश है, जिसे नबियों तथा वलियों की धरती भी क़रार दिया जा सकता है। हमारे आख़री रसूल हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के अलावा क़ुरआन-ए-करीम में जिन नबियों का उल्लेख है, उनमें से अधिकतर का संबंध इस धरती से रहा है। हज़रत नूह अलै॰, हज़रत इदरीस अलै॰, हज़रत ऊद अलै॰, हज़रत साॅलेह अलै॰, हज़रत इब्राहीम अलै॰, हज़रत इस्हाक़ अलै॰, हज़रत इस्माईल अलै॰, हज़रत शुऐब अलै॰, हज़रत याकूब अलै॰, हज़रत यूसुफ़ अलै॰, हज़रत मूसा अलै॰, हज़रत दाऊद अलै॰, हज़रत सुलैमान अलै॰, हज़रत ज़करिया अलै॰, हज़रत यहया अलै॰, हज़रत यूनुस अलै॰, हज़रत अय्यूब अलै॰, हज़रत इलियास अलै॰ का संबंध इसी धरती से रहा है।
ख़िलाफ़त के बादशाहत में परिवर्तित हो जाने के बाद इस्लामी दुनिया में जब उमवी सरकार कमज़ोर हो गई तो उस समय बनू अब्बास उठे और ‘उंदलुस’ को छोड़ कर सारे इस्लामी राज्यों पर क़ब़्ज़ा हो गया। तब उस समय के दूसरे शासक ‘अबू जाफ़ार मन्सूर’ ने आठवीं शताब्दी ईसवी में इराक़ की धरती पर एक भव्य नगर बग़दाद के नाम से निर्माण कराया और उसको अब्बासी सरकार की राजधानी बनाया।
जब दौलत-ए-अब्बासिया कमज़ोर हो गई और मुसलमानों का शीराज़ा बिखर गया उस समय सहराए गोबी (चीन के पास का बड़ा रेगिस्तानी क्षेत्र) से तातारी तूफ़ान उठा और बुख़ारा, समरकं़द, काशगर की इस्लामी शान को तबाह करता हुआ 1851 में इराक़ की ओर फिर गया और इस शहर की सभ्यता को नुक़्सान पहुंचाया। इसके बाद इस क्षेत्र पर उस्मानी तुर्क का क़ब्ज़ा हो गया और 1918 तक यह क्षेत्र उनके अधीन रहा। प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति पर 1920 में इराक़ को ब्रिटेन के संरक्षण में दे दिया गया और अंग्रेज़ों ने शाह फ़ैसल प्रथम को इराक़ का बादशाह बना दिया, लेकिन 10 वर्ष बाद ही 1930 में इराक़ बरतानवी क़ब्ज़े से आज़ाद हो गया। 14 जुलाई 1968 को एक बार फिर क्रांति आई, बादशाहत समाप्त कर दी गई और अहमद हसन अल-बक्र नए राष्ट्रपति बने। उसके बाद 1979 में सद्दाम हुसैन इराक़ के राष्ट्रपति बने और 2003 तक सद्दाम की सरकार क़ायम रही। 2003 को अमेरिका ने अपने सहयोगी सैनिकों के साथ इराक़ पर हमला किया। 11 अप्रैल 2003 को बग़दाद पर अमेरिकी फ़ौजों का क़ब्ज़ा हो गया और 13 दिसम्बर 2003 को सद्दाम हुसैन गिरफ़्तार कर लिए गए और उनको अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जाॅर्जबुश के इशारे के अनुसार फांसी पर चढ़ा दिया गया।
इसी तरह अगर प्राचीन भारत के इतिहास और इसकी सीमाओं की चर्चा करें तो पाकिस्तान तथा बंग्लादेश ही नहीं, अफ़ग़ानिस्तान भी भारत के नक़्शे में शामिल रहा है। जिस प्रकार ब्रिटेन ने इराक़ पर क़ब़्जा समाप्त होने की स्थिति को मन में रख कर कुवैत पर अपना नियंत्रण जारी रखा, उसी प्रकार जब ब्रिटेन ने अच्छी तरह समझ लिया कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हालात कुछ इस तरह पैदा हो गए हैं कि अब भारत पर और क़ब्ज़ा क़ायम रखना संभव नहीं रह पाएगा तो जाते-जाते दो-राष्ट्र की विचारधारा का शोशा छोड़ कर भारत के बटवारे को अमलीजामा पहना दिया। पाकिस्तान के मौजूदा हालात इस बात की दलील हैं कि जिस तरह प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जब इराक़ से क़ब्ज़ा छोड़ना पड़ा तो कुवैत पर अपना क़ब्ज़ा बनाए रखा और इसी तरह द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब भारत को आज़ाद करना मजबूरी बनी तो विभाजन के रूप में पाकिस्तान एक ऐसे देश के रूप में अस्तित्व में आया, जहां आज अमेरिकी नियंत्रण है। यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मानसिकता की दृष्टि से ब्रिटैन और अमेरिका में कोई अंतर नहीं है और अपने हितों को ध्यान में रखते हुए यह दोनों आज भी इस अर्थ में एक हैं, इसलिए बीते हुए कल में जहां ब्रिटैन का कंट्रोल था और आज अमेरिका का नियंत्रण है तो उससे इन देशों के हालात पर कोई असर नहीं पड़ता। अगर इस्राईल की स्थापना पर नज़र डालें तो 1947 में भारत आज़ाद हुआ और 1948 में इस्राईल का अस्तित्व सामने आया। अर्थात यह सब एक रणनीति का हिस्सा है जो साफ़ नज़र आता है परंतु फिर भी हम इस ओर अपना ध्यान आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं। हम जिसे लोकतंत्र की ओर बढ़ते क़दम जैसे शब्दों की संज्ञा दे रहे हैं दरअसल यह अमेरिकी शासकों का बढ़ता हुआ दायरा है। पहले सद्दाम हुसैन को रास्ते से हटाकर अपनी कठपुतली सरकार क़ायम की, बिन लादेन का बहाना बनाकर अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा क़ायम किया, हामिद करज़ई और नूरी अल-मालिकी के रूप में दोनों देशों में अपनी कठपुतली सरकारें बनाईं उसके बाद हुसनी मुबारक, कर्नल क़ज़्ज़ाफ़ी जैसे शासकों के तख़्तापलट की बिसात बिछाई। वहां भी अब अमेरिका की कठपुतली सरकारें क़ायम होने में कोई देर नहीं। अमेरिका अपने राजनयिकों की आड़ में सीआईए का एक सशक्त जाल बिछा रहा है। इस ओर अगर समय रहते ध्यान न दिया गया तो अतिशीघ्र अमेरिकी शासन का दायरा इतना बढ़ जाएगा कि जिन्हें आज आप मुस्लिम देशों के रूप में देख रहे हैं, वह सब आने वाले कल में अमेरिका और ब्रिटेन की छोटी-छोटी कालोनियां होंगी। कल अरब के पैट्रोल पर इन बड़ी ताक़तों का क़ब्ज़ा होगा। पाकिस्तान जैसे देश अपना अस्तित्व खो देंगे और भारत जिसे आतंकवाद द्वारा गृहयुद्ध का शिकार बनाया जा रहा है, कमज़ोर से कमज़ोर होता चला जाएगा। अगर हम रेमंड डेविस (पाकिस्तान), डेविड कोलमैन हैडली (हिन्दुस्तान) जैसे सीआईए/एफ़बीआई के एजेंटों को सरसरीतौर पर लेना बंद कर दें, तालिबान और लशकर-ए-तैय्यबा से उनके संबंधों की तह तक जाने का प्रयास करें, सीआईए का तालिबान और एफ़बीआई का लशकर-ए-तैय्यबा से कितना घनिष्ट संबंध है, या कितने अलग-अलग संगठन हैं और आंतरिकरूप से इनमें कितना घन्ष्टि संबंध है, अगर इस सच को जान लें तो शायद हम अरब देशों पर बढ़ते अमेरिकी क़ब्ज़े को भी रोक सकेंगे पाकिस्तान को और अधिक तबाही से बचा सकेंगे और इस सबके बाद भारत को दरपेश ख़तरे से भी छुटकारा पा सकेंगे। इस सिलसिले में अभी बहुत कुछ लिखे जाने की आवश्यकता है, लेकिन आजका लेख समाप्त करने से पूर्व मैं चाहता हूं कि लंदन से जारी और विभिन्न समाचारपत्रों में प्रकाशित एक समाचार अपने पाठकों की सेवा में पेश कर दूं ताकि वह समझ सकें कि उपरोक्त पंक्तियां किस हद तक तथ्यों की रोशनी में हैं या फिर मात्र एक काल्पनिक चित्रण।
‘‘गिलानी सरकार गिराने के मिशन पर था पाकिस्तानियों का ‘हत्यारा’ अमेरिकी डेविस!’’
ब्रिटेन के एक अख़बार के अनुसार रेमंड अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सी.आई.ए का एजेंट है। ईरान के प्रेस टीवी के अनुसार वह न केवल सी.आई.ए का एजेंट था बल्कि उसके तालिबान से भी संबंध हैं और वह पाकिस्तान में तोड़-फोड़ मिशन याने सरकार को अस्थिर करने के इरादे से भेजा गया है।
इस ख़ुलासे के बाद पाकिस्तान और अमेरिका के बिगड़ते संबंध और ख़राब हो सकते हैं। रेमंड डेविस ने 27 जनवरी को लाहौर में दो व्यक्तियों की गोली मार कर हत्या कर दी थी। इसके बाद से वह पुलिस हिरासत में है।
गार्जियन के अनुसार डेविस घटना के समय भी एक मुहिम पर ही निकला था। अख़बार ने पाकिस्तान के सीनियर इंटेलिजैंस अधिकारी के हवाले से कहा कि डेविस सी.आई.ए का एजेंट है और इसमें उन्हें बिलकुल संदेह नहीं है।
माना जा रहा है कि अमेरिकी मीडिया को भी इस बात की जानकारी है लेकिन वे इसलिए चुप हैं कि इस ख़ुलासे से डेविस पर नया संकट आ सकता है।
अमेरिका में कोलोरेडो के एक टीवी चैनल 9न्यूज़ ने भी डेविस की पत्नी से बात कर दावा किया कि डेविस सी.आई.ए का एजेंट है, लेकिन बाद में यह जानकारी वेबसाइट से हटा ली गई। टीवी के एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर निकोल वैप के अनुसार ऐसा डेविस की सुरक्षा के कारण किया गया है, लेकिन जानकारी पूरी तरह सही है। पाकिस्तान के एक अख़बार ने वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के हवाले से कहा कि डेविस ने पूछताछ में माना है कि वह सी.आई.ए का एजेंट है। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान के पंजाब और दूसरे प्रांतो में अमेरिकन जासूसों का समूह सक्रिय है।
ईरान के प्रेस टीवी से चर्चा में पाकिस्तान के एक वरिष्ठ रक्षा सलाहकार जैद हामिद ने दावा किया कि डेविस के पास से मिले दस्तावेज़, फोटो और दूसरे सबूतों से साफ है कि उसके तालिबान से संबंध हैं। हामिद के अनुसार अब यह लाहौर की सड़कों पर दो युवकों को गाली मारने का मामला नहीं रह गया है। यह पाकिस्तान में तोड़-फोड़ करने की योजना और सी.आई.ए द्वारा पाकिस्तान में कराई जा रही जासूसी का मामला है।
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