मुझे क्षमा करें मेरे बन्दुओं, मैंने आपके हसीन सपनों को चकनाचूर कर दिया और वास्तविकता की पथरीली धरती का सामना करने के लिए विवश कर दिया, जिससे आप नज़रंे चुराने लगे थे। आपको ऐसा लगने लगा था कि न्याय की तमाम आवश्यकताओं को पूरा करते हुए एक ऐसा निर्णय आपकी निगाहों के सामने होगा, जिसके बाद आप शहीद की गई बाबरी मस्जिद की ज़मीन को वापस प्राप्त करके एक शानदार मस्जिद के निर्माण में आई सभी अड़चनों को पार करते हुए अयोध्या की तरफ क़दम बढ़ा चुके होंगे। न जाने क्यों आप अतीत के कटु अनुभवों पर नज़र डालना ही नहीं चाहते और उनकी रोशनी में अपने भविष्य का अंदाज़ा करना ही नहीं चाहते? क्या आप को नहीं लगता कि अब हमें संुदर सपनों के दायरे से बाहर निकल कर वास्तविकता का रूख़ अपना लेना चाहिए। आप कहते रहिए कि यह देश हमारा है, हमने इसे अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से आज़ाद कराया। 1857 से लेकर आज़ादी की लड़ाई 1947 तक। हम ही सबसे आगे रहे। अंग्रेज़ों से लोहा लिया टीपू सुलतान ने। जेल की पीड़ा झेली अंतिम मुग़ल बादहशाह बहादुर शाह ज़फ़र ने। अंग्रेज़ों के द्वारा हज़ारों की संख्या में सूली पर लटकाए गए, हमारे उलेमा-ए-दीन और आज़ादी की जंग के लिए चंदा दिया जमीअत उलेमा-ए-हिंद ने।
कौन सुनता है आपकी। क्या मिला आपको वह स्थान जो आज़ादी के संघर्ष में सबसे आगे रहने पर आपको मिलना चािहए था। मेरी निगाहों के सामने अतीत की यह कटु सच्चाई है। इसलिए मैं हर क्षण भविष्य पर भी नज़र रखता हूं। मैंने 30 सितम्बर के फैसले को न्याय पर नहीं अतीत के अनुभवों की रोशनी में देखा था। इसीलिए मैंने जो कुछ लिखा था फैसला आने के तुरंत बाद, अर्थात 2 अक्तूबर 2010 को आज भी उस पर क़ायम हूं। मगर जो स्पष्टीकरण आज करने जा रहा हूं, वह अभी करना नहीं चाहता था। काश आपने अपने विश्वास को उसी तरह क़ायम रखा होता, कुछ समय और गुज़र जाने दिया होता, उन चेहरों को पूरी तरह बेनक़ाब हो जाने दिया होता, जो अब धीरे-धीरे आपके सामने आते चले जा रहे हैं, अगर मेरे सामने यह स्थिति पैदा न होती तो जो कुछ मैं आरंभिक वाक्यों के बाद इस समय लिखने जा रहा हूं, वह सब कुछ समय बाद लिखना चाहता था। अब होगा यह कि आपके दिल को तो शांति मिल जाएगी, मगर वह सब बहुत सचेत हो जाएंगे, उन्हें नए सिरे से अपनी रणनीति बनाने का अवसर मिल जाएगा, जो विरोधी मानसिकता रखते हैं। बहरहाल अब भूमिका समाप्त। प्रस्तुत है 30 सितम्बर के निर्णय पर मेरे लेख श्रंखला की अगली पंक्तियांः
हम झूठ कब और क्यों बोलते हैं? जब हमें लगता है कि हम सच का सामना नहीं कर पाएंगे। सच हमारी शर्मिंदगी का कारण बन सकता है। झूठ बोलकर हम जो पाना चाहते हैं, वह पा सकते हैं, जबकि सच बोल कर हम वह सब खो देंगे, इसिलए हम झूठ का सहारा लेते हैं और यही वह परीक्षा की घड़ी होती है जब हमारी अंर्तआत्मा का पता चलता है। हमारी सच्चाई और ईमानदारी की परख होती है।
क़ानून अपने हाथ में हम कब लेते हैं? जब क़ानून से हमारा भरोसा उठ जाए। जब क़ानून के रास्ते पर चल कर न्याय पाने की सभी आशाएं समाप्त हो जाएं। जब सबूत और गवाह हमारे पक्ष में न हों और परिस्थितियां हमारा साथ न देती दिखाई देती हों, तब हमारा क़ानून पर से विश्वास टूट जाता है, भरोसा समाप्त हो जाता है और हम क़ानून को अपने हाथ में लेकर कोई भी ग़लत फैसला कर डालते हैं। ऐसा जब आम आदमी के साथ होता है तो हम उसे विद्रोही कहते हैं, अब तक हमारे मन में क़ानून हाथ में लेने की एक ऐसी ही छवि थी जो या तो रास्ते से भटक गए थे या न्याय पाने की आशा छोड़ चुके थे। आज हमारे सामने चिंता का विषय यह है कि अगर क़ानून के रखवाले ही क़ानून के रास्ते पर चल कर न्याय करने से मजबूर हो जाएं और क़ानून अपने हाथ में ले लें तो आप उसे क्या कहेंगे? फिर मेरी बात का अर्थ कुछ और मत निकालिए। मैं जजों को आरोपित नहीं ठहरा रहा हूं, यद्यपि उनका यह निर्णय क़ानून के अनुसार नहीं है, यह तो वह भी जानते हैं, परंतु मैं अंदाज़ा कर सकता हूं कि किन परिस्थितियों में, किन कारणों से किन आशंकाओं के मद्देनज़र उन्हें क़ानून अपने हाथ में लेकर उन्हें एक ऐसा फैसला सुनाने के लिए विवश होना पड़ा जो क़ानून के अनुसार नहीं था।
मैंने मुबारकबाद पेश की जज साहिबान को, उनके इस फैसले पर केवल इस वजह से कि 30 सितम्बर 2010 का वह दिन जो भारत के इतिहास में एक और भयावह, दिल दहला देने वाली यादें छोड़ सकता था, उनकेे इस फैसले से क़ानून का ख़ून भले ही दिखता हो लेकिन मानवता का ख़ून होने से उन्होंने बचा लिया। अब अंदाज़ा करें, हमारी न्याय पालिका के लिए कितना कठिन मुक़दमा है यह। जिस कैफ़ियत से गुज़रना पड़ा हाईकोर्ट के जज साहिबान को, क्या नहीं गुज़रना पड़ेगा उच्चतम न्यायालय के जज साहिबान को? ऐसा विश्वास है आपको? हां, मैंने यह भी लिखा था कि यह निर्णय स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। ‘हिंदू भाइयों से निवेदन करते हुए कि वह एक भव्य राम मंदिर का निर्माण करें, उस ज़मीन पर जो न्यायालय द्वारा उन्हें दी गई है, हम उनके सहयोगी सिद्ध होंगे और हम मस्जिद निर्माण करते हैं उस स्थान पर जो न्यायालय ने मस्जिद के लिए तय की है। एक ही स्थान पर खड़े यह दो धार्मिक स्थल मंदिर और मस्जिद के रूप में आने वाली पीढ़ियों को यह संदेश देंगे कि यह हमारे देश की उस गंगा-जमनी संस्कृति की निशानियां हैं, जिनके लिए हमारा देश पूरी दुनिया में अनोखी पहचान रखता है और यही भावना है, जिसने हज़रत इमाम हुसैन को करबला के मैदान से भारत की ओर चले आने की इच्छा प्रकट कराई थी।’
आज भी मैं अपनी बात पर क़ायम हूं, काश इस बात पर उसी समय समझ लिया होता और ‘लब्बैक(स्वीकार) कह दिया होता, इसलिए कि मैं जानता हूं यह निर्णय आपकी स्वीकृति के बाद भी आपकी ख़ुशदिली से स्वीकृति के बावजूद भी लागू किए जाने योग्य नहीं हो सकता था। आपमें से अगर कोई भी उच्चतम न्यायालय नहीं जाता तब भी यह मामला तो उच्चतम न्यायालय पहुंचता ही और उच्चतम न्यायालय क़ानून को दरकिनार कर आस्था के अनुसार कोई निर्णय करेगा, इसकी आशा नहीं की जानी चाहिए, इसलिए कि उच्च न्यायालय का फैसला तो उच्चतम न्यायालय में बदला जा सकता है, लेकिन अगर हम ऐसा सोचते हैं कि उच्चतम न्यायालय का निर्णय भावनाआंें और आस्था के आधार पर आसकता है तो फिर वह एक ऐसा उदाहरण बन सकता है, जिससे क़ानून के वर्चस्व पर प्रश्न चिन्ह लग जाए। शायद यह फैसला इस अंदाज़ में अर्थात आस्था के आधार पर बहुत सोच समझ कर इसलिए दिया गया है कि उच्चतम न्यायलय में प्रथम दृष्टि में ही यह फैसला निरर्थक घोषित कर दिया जाए और फिर नए सिरे से ‘बाबरी मस्जिद-राम जन्म भूमि स्वामित्व’ पर एक नई बैंच के द्वारा विचार-विमर्श हो। ज़ाहिर है कि इसके लिए एक लंबी अवधि दरकार होगी। यानी 60 वर्षों से जो समस्या एक नंगी तलवार के रूप में आपके सर पर लटकती रही है वह फिर उसी ढंग से लटकती रहे। मैं नहीं चाहता था कि यह आरोप आपके ऊपर लगे कि यह सब आपके कारण हुआ, वरना फैसला तो आ चुका था। आप उस फैसले को अस्वीकार करने वाले और उच्चतम न्यायालय में अपील करने वाले एक मात्र पेटिशनर के रूप में न जाने जाएं और इस मामले को तूल देने के लिए कोई कभी आपको आरोपित न ठहरा सके। अब तो यह समाचार सामने आ चुका है कि निर्मोही अखाड़े ने उच्चतम न्यायालय जाने का निर्णय किया है। राम जन्म भूमि ट्रस्ट भी ऐसा ही करेगा। इसलिए कि यह निर्णय उनको भी पचने वाला नहीं है। ऐसी स्थिति में इतिहास यह नहीं कहेगा कि आपने साम्प्रदायिक सदभावना बनाए रखने के लिए बलिदान की भावना नहीं पेश की। आज आप देख रहे हैं कि मुसलमान ही नहीं, न्याय प्रिय ग़ैर मुस्लिम भी इस फैसले को न्याय पर आधारित इस फैसले को स्वीकार नहीं करते और इस पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं। क्या आपको लगता है कि भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी तथा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जो इस फैसले पर प्रसन्नता तथा संतोष प्रकट कर चुके हैं, इसके अमलीजामा पहनाए जाने पर भी राज़ी होंगे। एक तिहाई भूमि पर ही सही मस्जिद का निर्माण उन्हें स्वीकार होगा, यदि हां तो आप अभी भी शब्दों की राजनीति में फंसने की आदत से बाहर नहीं आ सके हैं।
आप अगर यह कह देते कि हमें यह निर्णय देश तथा राष्ट्र की एकता व सुरक्षा के मद्देनज़र अपनी भावनाओं का बलिदान देकर न्याय का ख़ून होते हुए देख कर भी स्वीकार है, हटाइए तीन महीने का इस्टे आर्डर भी, बिस्मिल्लाह कीजिए, हमें जो स्थान दिया गया हम उस पर मस्जिद के निर्माण का कार्य शुरू करते हैं और आप मंदिर का निर्माण आरंभ करें। कुछ मिंटों में ही सच्चाई सामने आ जाती और 10 नई रुकावटें डालकर, बहाने बनाकर इसको अमली जामा पहनाए जाने से रोक दिया जाता। आप सुर्ख़रू होते और वह सब अपने बुने जाल में फंस जाते, जिन्होंने ऐसे फैसले पर प्रसन्नता प्रकट इसलिए की थी कि मुसलमान अच्छी तरह समझ लें कि ख़ुश वही होता है जो जीत जाता है और यदि वह जीत गए हैं तो तुम्हारी हार है। या जो भी, जैसा भी फैसला है, उसकी जितनी भी कमियां हैं, सब अपनी जगह हैं। परंतु इतिहास यह भी सिद्ध कर देगा कि यह फैसला भी इसलिए अमली जामा नहीं पहनाया जा सकता क्योंकि उसमें मस्जिद के निर्माण की गुंजाइश बाक़ी है कि वह आसानी से ऐसा होने दें। और हमें नहीं लगता कि साम्प्रदाय वादियों के दिलों में इतनी गंुजाइश बाक़ी है कि वे प्रसन्नतापूर्वक ऐसा हो जाने दें। हालांकि हम चाहेंगे कि हमारा यह अंदाज़ा ग़लत सिद्ध हो।
और अब अंत में एक प्रश्न आप स्वयं से करके देखें कि उच्चतम न्यायालय का निर्णय तथ्यों तथा प्रमाणों के आधार पर आता है और यह निर्णय पूरी तरह आपके पक्ष में होता है तो क्या कहता है आपका दिल व दिमाग़, क्या इस फैसले को अमली जामा पहनाया जा सकता है? अगर नहीं तो फिर ऐसे किसी भी फैसले का महत्व क्या जिसका पालन संभव न हो, जिसे वास्तविकता का रूप न दिया जा सकता हो। मैंने क्यों इसे सही फैसला ठहराया? मैं क्यों निराश हूं इससे बेहतर फैसले के लिए? मेरे सामने है 1931 के दंगे से लेकर 2002 के गुजरात दंगों तक की एक लंबी सूचि। अगर 1931 के कानपुर दंगे की चर्चा न करें और 1946 के कलकत्ता दंगे को भी इस समय चर्चा का विषय न बनाएं, क्यांेकि यह स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व के दंगे थे तो भी 1947 में देश के विभाजन के तुरंत बाद दिल्ली में हुआ साम्प्रदायिक दंगा, उसे भी आप गुजरात की तरह एक विशेष समुदाय का नरसंहार मान सकते हैं। उसके बाद 1967 में रांची दंगा। उस दंगे का आधार उर्दू विरोध था। 22 अगस्त से 26 अगस्त 1967 के बीच हुए इस दंगे में कुल 184 लोग मारे गए जिसमें 164 मुसलमान थे। 1979 में जमशेदपुर में दंगा हुआ। रामनवमी के जुलूस के दौरान दंगा भड़का, उसके कारण जान-बूझ कर जुलूस का रास्ता बदल कर उसे मस्जिद के पास उसे मुस्लिम बहुल क्षेत्र से निकाला गया। 1980 का मुरादाबाद दंगा, ठीक ईद के दिन, ईदगाह में फायरिंग। 1987 में मेरठ, मलियाना, हाशिमपुरा दंगा, 1992-93, अर्थात बाबरी मस्जिद की शहादत में मुम्बई में हुए दंगे, जिनमें श्री कृष्णा आयोगी की रिपोर्ट के अनुसार मतदाता सूचि के सहारे चुन-चुन कर एक विशेष समुदाय के लोगों को निशाना बनाया गया और फिर 2002 में हुआ गुजरात दंगा। जिसे भारत के माथे पर कलंक उस समय के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपई ने भी घोषित किया। ऐसे हज़ारों मामले हैं मेरे सामने, सरकारें बदलती रहीं, सबको अवसर मिला पर इनमें से किन-किन मामलों में किस-किस अदालत से न्याय मिल चुका है या न्याय मिलने की आशा है आपको? फिर किन खोखली उम्मीदों पर आप इससे बहुत अच्छे निर्णय की अपेक्षा रखते हैं? क्यों आपको यह नहीं लगता कि यह निर्णय आपके लिए एक लिटमस टेस्ट भी हो सकता है? आप इस दिशा में क्यों नहीं सोचते कि यह एक तिहाई भूमि जिसको आपके सुपुर्द मस्जिद के निर्माण के लिए किए जाने का निर्णय सामने आया है, कल उससे कहीं अधिक बेहतर फैसला आपके पक्ष में आएगा और वह लागू भी किया जाएगा। आख़िर वह कौन कौन से कारण हैं जिनके आधार पर आपकी उम्मीदें इतनी बंधी हैं कि आप उससे बेहतर और पूर्ण न्याय की आशा कर रहे हैं।
Sunday, October 3, 2010
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