Monday, October 25, 2010

सुनो! दिल की भी और दिमाग़ की भी, फिर करो फैसला...
अज़ीज़ बर्नी

अंग्रेज़ों की ग़्ाुलामी से पहले देश पर मुसलमानों का शासन था, क्या यह सच नहीं है! 1757 से लेकर 1857 तथा उसके बाद 1947 में मिली आज़ादी से लेकर मुसलमान लगातार देश की आज़ादी के संघर्ष में सबसे आगे रहे, क्या यह सच नहीं है! उस समय भारत की अन्य भाषाओं के मुक़ाबले सबसे प्रमुख भूमिका रही उर्दू पत्रकारिता की, क्या यह सच नहीं है! ‘इन्क़लाब जि़्ांदाबाद’, ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़्ाुए क़तिल में है।’ (पंडित राम प्रसाद बिस्मिल) यह नारे और शेर दिए उर्दू भाषा के शायरों ने, क्या यह सच नहीं है! स्वतंत्रता संग्राम के लिए चंदा दिया जमीअत उलेमा-ए-हिंद ने, क्या यह भी सच नहीं है? उस समय जब भारत अंग्रेज़ों के विरुद्ध आज़ादी की जंग लड़ रहा था, मौलाना हसरत मोहानी, मौलाना मुहम्मद अली जौहर, मौलाना अबुलकलाम आज़ाद अपने लेखों द्वारा मानसिक रूप से भारतीय जनता को आज़ादी के संघर्ष के लिए तैयार कर रहे थे और उनके इन प्रयासों से अंग्रेज़ सरकार भयभीत थी, क्या यह सब ऐतिहासिक हक़ीक़त नहीं है? फिर इतिहास के पन्ने पलट कर देखें तो सच यह भी है कि 1901 में गठित की गई हिंदू महासभा हिंदू राष्ट्र के सपने को लेकर अस्तित्व में आई थी? राष्ट्रगीत, वंदेमातृम बंकिम चंद चटोपाध्याय के जिस उपन्यास ‘आनंदमठ’ में लिखा गया, वह मुसलमानों की दुश्मनी और अंग्रेज़ों की शान में लिखा गया था, क्या यह सच नहीं है? अगर यह सब सच है तो फिर हम इस हक़ीक़त को क्यों नहीं समझते कि जो मानसिकता 1901 से ही इस देश को हिंदू राष्ट्र देखना चाहती थी और मालेगांव बम ब्लास्ट की जांच करने वाले शहीद हेमंत करकरे ने दयानंद पांडे के लैपटाॅप से जो मिशन 2025 सामने रखा था, क्या वह हिंदू राष्ट्र की स्थापना की सुनियोजित योजना नहीं थी, अर्थात 125 वर्ष तक लगातार एक उद्देश्य को सामने रख कर जो मानसिकता काम कर रही है और आज भी पूरी मुस्तैदी से सक्रिय है, मंदिर निर्माण का बहाना तो उसके लिए केवल अपनी इस योजना को सफ़ल बनाने का एक माध्यम है। क्या हमें इस हक़ीक़त को नहीं समझना चाहिए? मैंने जो मिसालें प्रस्तुत कीं मुग़ल शासकों से लेकर उलेमा-ए-किराम के फांसी पर चढ़ाए जाने तक की, इसका उद्देश्य केवल यही था कि इस क़ौम ने शासन भी किया है और बलिदान भी दिए हैं। हर प्रकार की परिस्थितियों का सामना किया है और आगे भी कर सकती है, परंतु आज यदि कोई कमी दिखाई देती है तो ऐसी ही योजनाबंदी की कमी है, जिसका शुभारंभ अपने देश भारत की आज़ादी के लिए हमने 1857 में किया और आज़ादी प्राप्त हुई। 1947 में अर्थात् एक उद्देश्य था हमारे सामने, 90 वर्ष तक लगातार आज़ादी की जंग लड़ने और जीतने का। दूसरी ओर एक नकारात्मक योजना भी हमारे सामने है। 1901 से 2025 तक अर्थात 125 वर्ष लम्बी प्लानिंग हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लिए और यह मार्ग अयोध्या से होकर गुज़रता है, हमें इस रणनीति को समझना होगा। देश का इतिहास उठाकर देख लीजिए, हज़्ाारों साम्प्रदायिक दंगों का उल्लेख मिल जाएगा, जिसका आधार था धार्मिक टकराव। अंगे्रज़ भलीभांति जानते थे, इसलिए जब-जब उन्हें अपने राजनीतिक उद्देश्य पूरा करने की आवश्यकता पेश आई, उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों को लड़ाकर अपना उद्देश्य प्राप्त कर लिया और जब-जब यह दोनों क़ौमें संगठित हुईं, अंग्रेज़ कमज़ोर पड़ गए। मंदिर मस्जिद विवाद आज आज़ादी के बाद से लगातार हमारे सामने है। 61 वर्ष हमने घृणाओं के चलते बिता दिए। इस विवाद ने कभी साम्प्रदायिक दंगों का रूप धारण किया तो कभी गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार का और कभी आतंकवाद का। भारतीय समाज के पास एक अवसर था 30 सितम्बर 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय का, एक ऐसा फ़ैसला जो पूर्णतः अप्रत्याशित था, जो न्यायालय का नहीं बल्कि एक पंचायत का फ़ैसला नज़र आता था और क़ानून की रौशनी में चर्चा करने वालों ने प्रथम दिन से ही इस फ़ैसले की आलोचना करना भी आरंभ कर दिया था। यह फ़ैसला तथ्यों के आधार पर नहीं था, देश की धर्मनिर्पेक्ष व्यवस्था को जीवित रखने के इच्छुक लोगों ने स्पष्ट रूप से कहा कि तथ्यों की अनदेखी की गई है, फिर भी हम आश्चर्यचकित थे कि आख़िर हिंदू राष्ट्र की योजना रखने वालों को यह फै़सला स्वीकार क्यों है? राम मंदिर के नाम पर राजनीति करके इस देश पर शासन करने का सपना देखने वाली साम्प्रदायिक मानसिकता इस विवाद को समाप्त क्यों करना चाहती है? वह मस्जिद बनाए जाने पर रज़ामंद क्यों है। अगर मंदिर बन गया और मस्जिद भी बन गई तो फिर उसे अपनी राजनीति के लिए नया मुद्दा क्या मिलेगा? लेकिन हमारी हैरानी उस समय दूर हो गई, जब धीरे-धीरे उन संगठनों के प्रमुखों ने पुराने रंग में आना शुरू कर दिया, अर्थात उन्हें बस प्रतीक्षा थी मुसलमानों की ओर से किसी ऐसे वाक्य या किसी ऐसे प्रयास की जिसे बहाना बना कर वह फिर से अपनी योजनाओं को अमली जामा पहनाने की दिशा में आगे बढ़ सकें। सर्वोच्च न्यायालय चले जाने का फ़ैसला राजनीतिक दृष्टि से लगभग सभी के पक्ष में है। शासक दल के तो दोनों हाथों में लड्डू थे, फ़ैसला अगर मान लिया गया तो वाह-वाही उसके नाम करके हमने समस्या का हल कर दिया, जो पिछले 61 वर्ष से विवाद का कारण बनी हुई थी। मुसलमानों को मस्जिद भी मिल गई और हिंदुओं को राम मंदिर भी, अर्थात मुसलमान मानसिकरूप से हमें वोट देने के लिए तैयार रहें और पिछली तमाम बातों को भुला दें और हिंदू भाई यह ध्यान में रखें कि जो काम भारतीय जनता पार्टी एक से अधिक बार सत्ता में आने के बाद भी न कर सकी, आख़िर वह काम भी हमने ही अंजाम दिया। राम मंदिर का निर्माण हमारे ही शासनकाल में हुआ और अगर अब यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में चला गया, तब भी शासक दल के पास यह कहने के लिए अवसर है कि समस्या के जीवित रहने का कारण हम नहीं हैं। साथ ही उसे 10-15 वर्ष का समय भी मिल गया। डा॰ मनमोहन सिंह आराम के साथ अपनी अवधि पूरी करें, फिर राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनें, वह भी अपनी सत्ता की अवधि पूरी करें, उसके बाद देखा जाएगा कि सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला क्या होता है? भारतीय जनता पार्टी के लिए भी सर्वोच्च न्यायालय जाने का फ़ैसला हर दृष्टि से लाभदायक है। राम मंदिर के मुद्दे पर उसकी राजनीति जीवित रहेगी। जब-जब देश में साम्प्रदायिकता का दौर आएगा, उसे कुछ देकर ही जाएगा। आपने देखा नहीं गुजरात दंगों के बाद से उस राज्य में भारतीय जनता पार्टी जितनी सशक्त हुई है, उतनी पहले कभी नहीं थी, यह उसका आज़माया हुआ फ़ार्मूला है। आप समझें या न समझें सर्वोच्च न्यायालय जाने का मुंह मांगा वरदान उसे मिल गया है, अब वह फिर से नए जोश के साथ अपनी राजनीतिक शक्ति को एकत्र कर सकती है और जो बाक़ी बचीं वो राजनीतिक पार्टियां भी समय आने पर अपने हिसाब से इसका राजनीतिक लाभ उठाऐंगी ही। अब रहा सवाल मुसलमानों का तो उन्हें तो सर्वोच्च न्यायालय जाना ही था, फ़ैसले में उनके अधिकार का हनन साफ़ दिखाई देता था, सर्वोच्च न्यायालय जाने में उन्हें कुछ तो आशा दिखाई देती ही होगी वरना अन्तिम पड़ाव तक प्रयास करने की शांति तो दिल को मिल ही जाएगी। इस दौरान हमारी क़ौम को कुछ और नेता मिल जाएंगे। अगर पिछले 18-20 वर्ष की परिस्थितियों पर नज़र डालें तो राजनीतिक दृष्टि से सक्रिय कई नेता वही हैं, जिन्हें बाबरी मस्जिद विवाद ने जन्म दिया है। यह सिलसिला आगे बढ़ेगा तो हमें कुछ और मुस्लिम राजनीतिज्ञ मिलने के हालात और संभावना पैदा होंगी। अब रहा प्रश्न कि इससे हिन्दू या मुस्लिम जनता का क्या फ़ायदा होगा और क्या नुक़्सान, तो इस बात को जाने दीजिए, इस दिशा में सोचने का हमारे नेताओं को समय ही कहां है। हां जो एक बात कहने के लिए यह पूरा लेख लिखने की आवश्यकता पेश आई, वह यह है कि इस देश की धमनिर्पेक्षता हमारी आवश्यकता है, उनकी नहीं जिन्होंने 1901 में हिंदू महासभा गठित की थी और जो इसके लिए लगातार सक्रिय हैं। अगर हम अपने देश के लोकतंत्र को जीवित रखने, क़ायम रखने के लिए प्रयत्नशील हैं तो हम किसी पर एहसान नहीं कर रहे हैं, इस सच्चाई को हमें समझना होगा। एहसान तो हम पर वह धर्मनिर्पेक्ष हिंदू कर रहे हैं जो हर क़दम पर हमारे साथ खड़े दिखाई देते हैं और इस देश को धर्मनिर्पेक्ष बनाए रखने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर हमारे साथ हैं। संविधान का हवाला मत दीजिए, हक़ीक़त की ज़मीन पर क़दम रख कर बात कीजिए और समझने की कोशिश कीजिए। अब हमें यह सोचना होगा कि जिस प्रकार हमने देश को ग़्ाुलामी से छुटकारा दिलाने के लिए संघर्ष किया, क्या उसी तरह हम देश की धर्मनिर्पेक्षता को जीवित रखने का संघर्ष करने को तैयार हैं। जिस प्रकार हमने देश को आज़ादी दिलाने के लिए क़ुरबानियां पेश कीं, क्या आज देश की धर्मनिर्पेक्षता को बनाए रखने के लिए बलिदान देने को तैयार हैं? यदि नहीं तो रास्ता क्या है? यह भी सोच लीजिए आज जो हमारे साथ हैं, कल उनकी भी सोच नहीं बदलेगी। इस विश्वास की बुनियाद क्या है? आपने देखा नहीं, जैसे जैसे उर्दू कमज़ोर होती जाती है, लोकतंत्र भी कम़ज़ोर होता जाता है। उर्दू पत्रकार हूं इसलिए नहीं लिख रहा हूँ, किसी भी तजुर्बे की कसौटी पर इस वाक्य को परख कर देखें, देश की धर्मनिर्पेक्षता को बचाए रखने के लिए वही लोग आपको अपने साथ पेश-पेश नज़र आते होंगे, जिन्होंने उर्दू भाषा का दामन अभी छोड़ा नहीं है, क्या कल उनकी आने वाली पीढ़ियंा भी इसी प्रकार धर्मनिर्पेक्षता की अलमबरदार बन पाएंगी, आज हमें यह सोचना होगा। हमें इस समय ध्यान रखना है तो केवल दो बातों का, एक वह जिनकी आग उगलने वाली ज़बान से अक्सर शब्दों के बम निकलते हैं। वह कभी भी हमारी क़ौम के लिए नए ख़तरों को निमंत्रण दे सकते हैं और उनसे भी जो डंके की चोट पर हर हालत में अब फिर राम मंदिर बनाने की घोषणा करते हुए अपनी योजनाओं को अमली जामा पहनाने की दिशा में आगे बढ़ते नज़र आरहे हैं। यक़ीनन यह समाचार आपकी नज़र से गुज़रा होगा कि
‘‘अपनी रणनीति में सफल रही विश्व हिंदू परिषद’’
यह समाचार दिल्ली से प्रकाशित होने वाले हिंदी ‘‘दैनिक जागरण’’ में दिनांक 23 अक्तूबर 2010 के अंक में पृष्ठ नं 5 पर पहले समाचार के रूप में प्रमुखता से प्रकाशित किया गया है, जिसमें स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि अयोध्या विवाद पर हाईकोर्ट का फ़ैसला आने के बाद से चुप्पी साधने वाली विश्व हिंदू परिषद ने संतों का बहाना लेकर ही राम मंदिर आंदोलन पर कमज़ोर होती जा रही पकड़ को फिर से मज़बूत बनाने में सफलता प्राप्त कर ली है। विवादित भूमि के बटवारे के हाईकोर्ट के फ़ैसले को राम लला के सखा के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में चैंलेंज करने का प्रस्ताव संतों के उच्च स्तरीय संगठन से मुहर लगवाकर विश्व ंिहंदू परिषद ने न्यायायिक युद्ध की कमान परदे के पीछे ही सही अपने हाथों में लेने में सफलता प्राप्त कर ली है। अयोध्या के कारसेवकपुरम में 20 अक्तूबर को हुई संतों की समिति ने मीटिंग की और उसके अगले ही दिन हुई स्थानीय संतों की सभा। राम मंदिर आंदोलन विश्व हिंदू परिषद के लिए राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। संतों की इस उच्च स्तरीय समिति द्वारा विश्व हिंदू परिषद ने एक तीर से कई निशाने साधने का प्रयास किया है। न्यायालय के फ़ैसले के बाद विवाद का हल करने के प्रयासों से किनारा करते हुए विश्व हिंदू परिषद ने एक ओर उच्च न्यायालय के फ़ैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने के प्रस्ताव पर संतों की मुहर लगाने में सफलता पाई। राम लला के सखा के रूप में केस दायर करने वाले जस्टिस देवकी नंदन अग्रवाल विश्व हिंदू परिषद के उपाध्यक्ष रहे हैं। अयोध्या विवाद में उनका स्थान लेने वाले त्रिलोकी नाथ पांडे भी विश्व हिंदू परिषद तथा आरएसएस के सदस्य हैं।’’
इसके साथ ही एक दूसरा समाचार भी इसी पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया है जिसका शीर्षक है संघ ने भरी मंदिर निर्माण की हुंकार।’’
यह सब वही होता नज़र आ रहा है जिसका इशारा हमने 30 सितम्बर को इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फ़ैसला आने के बाद अपने पहले ही लेख में कर दिया था। जानते थे कि हमारी इस सोच को आलोचना का सामना करना होगा, परंतु सामने रखना इसलिए आवश्यक लगा कि निःसंदेह यह विचार रद्द कर दिया जाए, परंतु ज़हनों मंें दर्ज तो कर लिया जाए ताकि इतिहास गवाह रहे कि कभी मुसलामानाने हिंद ह्न माज़्ाी, हाल और मुस्तक़बिल, कभी ‘‘दास्तान-ए-हिंद ह्न माज़्ाी हाल और मुस्तक़बिल’’ और कभी आज़ाद भारत का इतिहास शीर्षक से लगातार हक़ और इंसाफ़ की जंग लड़ने वाले क़लम ने इस अत्यंत गंभीर विषय से नज़रें नहीं चुराईं और प्रशंसा के आलोचना में बदल जाने के भय ने भी उसे वह सब लिखने से नहीं रोका, क्योंकि उसे इस वक़्त इन हालात में यह सब लिखना भी उतना ही महत्वपूर्ण लगता था, जितना कि जब आतंकवाद के विरुद्ध जंग लड़ने का संकल्प किया था और मुसलमानों के दामन से देश के विभाजन का दाग़ मिटाने का प्रयास किया या आतंकवादी होने का कलंक अपने माथे पर लिए बेगुनाह नौजवानों की रिहाई का संकल्प लेकर इन्हीं लेखों के माध्यम से तहरीक चलाई थी। बहरहाल वह तहरीक तो आईंदा भी इंशाअल्लाह इसी तरह जारी रहेगी, मगर इस समय आवश्यक है वर्तमान स्थिति को सामने रखना और समझना भी।
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1 comment:

आपका अख्तर खान अकेला said...

aziz bhaayi vaah bhaayi vah is bar to apne kmaal hi kr diya bhut khub or dil ki ghraayi men utr jane vala likhaa he vese aapke aek aek alfaz sch se dur bhaagne vaale shetaanon ke sine men nshtr ki trh chbhenge lekin koi bat nhin is saahsik lekh ke liyen bhayi mere pas to mubark bad dene ke liyen alfaaz nhin he fir bhi mubark ho. akhtar khan akela kota rajsthna thrik chlaye rkhne kaa vaada nibhate rhnaa pliz.