Saturday, October 23, 2010

क्या काफी है बस इतमाम-ए-हुज्जत...?
अज़ीज़ बर्नी

यह सच्चाई अत्यंत कड़वी है और इसे स्वीकार करना ज़हर का घूंट पीने के बराबर है, परंतु क्या सच्चाई से नज़रें चुरा लेना हमारी बुद्धिमत्ता होगी? यक़ीनन नहीं। हां, यह संभव है कि हम जैसे एक साधारण पत्रकार से हक़ीक़त को समझने में भूल हो जाए, हमारा अनुभव लफ़़्ज़ ब लफ़्ज़ दुरुस्त न हो, परंतु इस पर विचार तो किया जा सकता है और किया भी जाना चाहिए क्योंकि ऐसा भी नहीं है कि जो कुछ हम पिछले 63 वर्षों में देखते और महसूस करते चले आ रहे हैं, उसकी रौशनी में सच्चाई को समझना असंभव हो। हम समझते रहे या हमें समझाया जाता रहा कि देश के विभाजन के लिए मुसलमान ज़िम्मेदार हैं। यह सच नहीं था, परंतु परिस्थितियां ही ऐसी नहीं थीं कि हम इस आरोप के खंडन में डंके की चोट पर कुछ कह पाते। हम जो यहां अपने देश भारत में रह गए, वह सबके सब अत्यंत शोक की अवस्था में थे। किसी का भाई उससे बिछड़ गया तो कोई लावारिस और यतीम की तरह अपने ही घर में एक अजनबी और एक ठुकराए हुए व्यक्ति की तरह रह गया। जिन्होंने अपने प्रियजनों को हत्या तथा लूटमार की भेंट चढ़ते हुए देखा था, वह भूखे प्यासे रो-रो कर बेहाल अपनी आंसू भरी आंखों को लेकर कहां जाते, किससे फ़रियाद करते और कौन उनकी सुनता कि इस बटवारे में उनकी कोई भूमिका नहीं है। नेतृत्व के नाम पर मुसलमानों के पास कुछ भी नहीं रहने दिया जाएगा सिवाए कुछ नुमाइशी चेहरों के, यह तो उसी समय तय कर लिया गया था जब भारत अंग्रेज़ों के विरुद्ध स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा था, वह जो अंग्रेज़ों के निकट थे, जिन्होंने अंग्रेज़ों की ग़्ाुलामी के परवाने पर हस्ताक्षर किए थे, जिन्होंने अंग्रेज़ों के गुणगान किए थे, देश से जाते-जाते अपने ऐसे अनुयायियों को अंग्रेज़ शासक शासन का यह रहस्य समझा कर गए कि अगर हमें यह देश छोड़ना ही पड़ा तो तुम इस देश पर शासन किस तरह कर सकते हो। जिस क़ौम ने उनके पैर उखाड़ दिए, निश्चय ही उनके निशाने पर वही क़ौम थी और वह यह भी अच्छी तरह जानते थे कि अगर भविष्य में फिर कभी इस देश पर शासन करने की इच्छा पैदा हुई तो रुकावट भी इसी क़ौम की ओर से खड़ी की जाएगी, इसीलिए कोई दिग्गज मुस्लिम नेता भारत में न रहने पाए, इसी रणनीति के मद्दे नज़र क्पअपकम - त्नसम ‘फूट डालो और राज करो’ के फ़ारमूले के तहत मुसलमानों को दो टुकड़ों में बांट दिया गया और हम केवल इसे भूमि का बटवारा समझते रहे इसलिए कि यही तो हमें समझाया गया था। फिर इसके बाद हम लगातार षड़यंत्रों का शिकार होते रहे, आज भी षड़यंत्रों का शिकार हैं और कल कोई षड़यंत्र जारी नहीं रहेगा, इसकी कोई संभावना भी नहीं है। जिस क़ौम ने इस देश पर लगभग 400 वर्ष शासन किया 190 वर्ष तक देश की आज़ादी की कामयाब जंगें लड़ीं, आज वह मानसिक रूप से और एक हद तक शारीरिक रूप से भी, अपने ही देश में ग़्ाुलामों जैसी स्थिति में है, परंतु वह यह समझ ही नहीं रही है, शायद उसे उन दलितों के जीवन से सीख हासिल करने की इच्छा शक्ति भी नहीं है, जो हज़ारों वर्षों तक मनुवादी व्यवस्था के तहत ग़्ाुलामी से बदतर जीवन बिता रहे थे, परंतु एक बुद्धिमान और भविष्य पर नज़र रखने वाला व्यक्ति बाबा भीमराव अम्बेडकर के रूप में सामने आया, जिसने उस क़ौम के भाग्य बदलने का निश्चय किया। परिणाम आज हमारी आंखों के सामने है।
जिस समय एक क़ौम भूमि के बटवारे की रूपरेखा तय करने में व्यस्त थी, एक विशेष मानसिकता देश को हिंदू राष्ट्र बनाने के फ़ारमूले पर काम कर रही थी, वहीं वह व्यक्ति उन सबकी अनदेखी करते हुए देश का संविधान बनाने में लगा था। इसलिए कि वह जानता था कि वह एक दबी कुचली, पिछड़ी, क़दम क़दम पर अपमानित की जाने वाली क़ौम को पिछड़ेपन के दायरे से बाहर निकालना है, उसके मन तथा मस्तिष्क में बस गई हीनभावना को समाप्त करना है और क़दम क़दम पर उसके साथ किए जाने वाले अन्यायों के सिलसिले को रोकना है तो, उसके लिए न्याय का ऐसा रास्ता निकालना होगा कि अगर कोई उसे हीन दृष्टि से देखने का साहस भी कर रहा हो, उससे अपने से छोटा और नीच जाति का सिद्ध करने का प्रयास कर रहा हो तो वह जेल की सलाख़ों के पीछे नज़र आए। आज कोई साहस तो करे दलितों के लिए वह शब्द प्रयोग करने का, जो स्वतंत्रता पूर्व किए जाते रहे, परिणाम सामने आ जाएगा। दलितों को तो शायद यह कभी एहसास ही नहीं था कि उनके वोट का कोई महत्व हो सकता है। वह भी राजनीतिक व्यवस्था के भागीदार हो सकते हैं, सत्ता प्राप्त करने की बात तो दूर, किसी को सत्ता में लाने या सत्ता से बेदख़ल करने की क्षमता भी रखते हैं, परंतु उस एक व्यक्ति की रणनीति ने यह सिद्ध कर दिया कि आने वाले कल में न केवल यह कि इस क़ौम की सत्ता में भागीदारी होगी बल्कि निकट भविष्य में वह सत्ता में भी होगी। आज देश के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री उसी समुदाय से हैं और उसके लिए बाबा भीम राव अम्बेडकर की दी हुई रौशनी के अलावा किसी की आभारी भी नहीं हैं। भारत के इतिहास में पहली बार एक दलित महिला को लोकसभा अध्यक्ष बनने का अवसर मिला, अर्थात पार्लियमिंट की सबसे ऊंची कुर्सी भी एक दलित महिला के पास है। यह था कमाल उस राजनीतिक रणनीति का जिसने ऐसा चमत्कार दिखाया जो शायद अनुमान से भी बहुत दूर था और अब दूसरा चमत्कार भी हमारी आंखों के सामने है, जिस पर शायद हमने इस तरह ध्यान दिया ही नहीं है जिस तरह की दिया जाना चाहिए था और हमें शायद यह एहसास भी नहीं है कि वह जो कभी इस देश पर शासक हुआ करते थे, आज जस्टिस राजेंद्र सच्चर के अध्ययन की रौशनी में दलितों से भी बदतर स्थिति में पहुंच गए हैं। आपने कभी विचार किया है कि इस हक़ीक़त पर कि हमारी व्यवहारिक स्थिति क्या है। हमारे लिए अपने देश में कौन-कौन से पेशों को अपनाना हमारी मजबूरी बन गई है, इसलिए कि सरकारी पदों से दूर कर दिए गए हैं, राजनीति से बेदख़ल करने के योजनाबद्ध प्रयास पहले दिन से ही आरंभ कर दिए गए थे और शिक्षा के मार्ग भी इतने कठिन बना दिए गए हैं कि पढ़ना है तो सौ जोखम उठाने के लिए तैयार रहना होगा। इसलिए हमारे पास केवल वही व्यवसाय रह गए हैं, जिनके द्वारा हम अपने बच्चों का पेट तो भर सकते हैं, परंतु वास्तव में यह व्यवसाय दूसरों की सेवा के सिवा और कुछ भी नहीं है। राज-मज़दूर, लुहार, बढ़ई, सब्ज़ी फ़रोश, गोश्त फ़रोश, थोड़ा और सम्मानजनक शब्दों में ढाल कर कहें तो हस्तकला, शिल्पीकला अर्थात हम दूसरों के जीवन के ऐशो-आराम और ज़रूरत का सामान बन कर रह गए हैं। क्या हम शासन व्यवस्था का भाग हैं, क्या हमारे पास वह राजनीतिक सामाजिक, आर्थिक शक्ति है, जो न्यायालयों से हमें न्याय दिला सके, वह बेगुनाह जो जेल की सलाख़ों के पीछे मृत्यु से बदतर जीवन बिता रहे हैं, उन्हें न्याय दिला सकें। हर दिन अपने दामन पर लगने वाले दाग़ों से बचा सकें, हम राजनीतिक शक्ति भी हों और अधिकार तथा न्याय किस तरह प्राप्त किया जाता है, यह हुनर भी जानते हों। क्या इस सबके लिए कोई रणनीति है हमारे पास। हम कल की तो सोचते नहीं 100 वर्ष बाद की क्या सोचेंगे। हम तो बस अपनी इस दयनीय स्थिति के लिए किसी को आरोपित ठहरा सकते हैं या ख़ुदा से दुआ कर सकते हैं कि हमारे हाल पर रहम करे। हमें स्वयं भी कुछ करना ह,ै कुछ ऐसा कि जिसे हम आरोप दे रहे हैं, उस पर आरोप सिद्ध हो जाए और हमें न्याय मिल जाए या हमारी दुआओं में वह असर पैदा हो जाए कि ख़ुदा मांगने से पहले ही हमारी मुराद पूरी कर दे। क्या इस दिशा में सोचते हैं हम? क्या अपने कार्यकलापों की समीक्षा करते हैं हम? हज़ारों लाखों वर्ष पूर्व श्री राम का जन्म हुआ था। बाबरी मस्जिद के मध्य गुंबद के नीचे, न्यायालय में यह सिद्ध हो गया और केवल 18 वर्ष पूर्व मस्जिद के रूप में शहीद कर दी गई मस्जिद, मस्जिद सिद्ध नहीं हो सकी। 7 दिसम्बर 1992 के समाचार पत्र उठाकर देख लें, प्रथम पृष्ठ की संर्ख़ियों में दर्ज यही है कि बाबरी मस्जिद को बचाया नहीं जा सका। परंतु हम न्यायालय में यह सिद्ध नहीं कर सके। 1949 में 23, 24 दिसम्बर की मध्य रात्रि में चोरी छुपे मूर्तियां रखी गई थीं। अर्थात इससे पूर्व मूर्तियांें का अस्तित्व नहीं था और वहां इबादत होती थी, पूजा नहीं, हम यह सिद्ध नहीं कर सके। अगर वह स्थान विवादित था, मस्जिद नहीं थी और दोनों समुदाय इसे विवादित मानते थे, दोनों ही इस पर अपनी दावेदारी जता रहे थे तो फिर 6 दिसम्बर 1992 को मस्जिद शहीद करने वाले लाखों लोगों में केवल एक ही समुदाय के लोग क्यों थे? और अगर वह मस्जिद नहीं थी तो ध्वस्त क्यों की गई? हम न्यायालय में यह सिद्ध नहीं कर सके।
अगर वह स्थान विवादित था, अर्थात न तो हो यह सिद्ध हो पा रहा था कि वह मस्जिद है और उस पर मुसलमानों का अधिकार होना चाहिए और न ही यह सिद्ध हो पा रहा था कि वहां श्री राम का जन्म हुआ था और वह एक मंदिर था तथा न्यायालय को यह तय करने के लिए तथ्यों तथा परमाणों की आवश्यकता थी, जिसके लिए एक लम्बा समय दरकार था और उस समय तक के लिए जब तक कि यह निश्चित न कर लिया जाए कि इस विवादित स्थल की असलियत क्या है उस समय तक के लिए उसे विवादित घोषित करके उसे उसी रूप में रहने देने का फ़ैसला किया गया, इसलिए अब इन्साफ़ का तक़ाज़ा क्या है, आख़िरी फ़ैसला आने तक उसकी स्थिति क्या होनी चाहिए, क्या रहनी चाहिए, वह जो 5 दिसम्बर 1992 से पूर्व थी या वह जो 7 दिसम्बर 1992 के बाद थी। अगर विवादित भी मान लिया जाए तो फिर उस समय तक जब तक अंतिम फैसला न हो उस स्थान को 5 दिसम्बर 1992 की स्थिति में होना चाहिए था। इससे पूर्व भी जब बाबरी मस्जिद की इमारत को क्षति पहुंची तो अंग्रेज़ शासक द्वारा उसकी मरम्मत कराई गई। होना तो यह चाहिए था कि इस बार भी कम से कम अंग्रेज़ी सरकार जैसे न्याय से तो काम लिया जाता और फिर उसे 5 दिसम्बर 1992 का रूप देकर न्यायालय में मुक़दमा चलाया जाता, फिर जो सिद्ध हो जाता उसे कार्यनवयन किया जाता। अगर वह मस्जिद नहीं थी तो फिर लिब्राहन कमीशन गठिन करने का कारण? आज भी लगातार मस्जिद शहीद करने वालों को अपराधी ठहराने का कारण? अगर कारण उचित है तो मानना होगा कि 6 दिसम्बर 1992 को जो कुछ हुआ, वह एक अपराध था, जिसकी सज़ा अपराधियों को मिलनी चाहिए और वह अपराध यानी बाबरी मस्जिद की इमारत को शहीद करना था और इस हक़ीक़त के बावजूद जो उसे विवादित ठहराना चाहें वह उसे विवादित भी कह सकते हैं, परंतु मस्जिद को शहीद करना एक अपराध था और यह आज भी स्वीकार किया जाता है, इस पर कोई विवाद नहीं तो फिर न्यायालय में यह क्यों नहीं सिद्ध किया गया कि विवादित ही सही उसे पहले 5 दिसम्बर 1992 का रूप तो दिया जाए, फिर मुक़दमा जारी रहे, और अगर यह नहीं हो सकता तो फिर जब तक विवादित है, दोनों समुदायों के अधिकार समान हों। राम जन्माष्टमी पर पूरी भवयता के साथ पूजा भी हो और ईद-बक़रईद की नमाज़ भी उसी शान से हो। स्थान विवादित और इबादत का अधिकार केवल एक को, क्या हमारे वकीलों ने अपनी जिरह के दौरान न्यायालय के सामने यह बात रखी? हम सर्वोच्च न्यायालय में जाने का इरादा रखते हैं। जाना भी चाहिए, निराशा कुफ्ऱ है। हमें अल्लाह की ज़ात पर भरोसा रखना चाहिए। परंतु इस सबके लिए हमें स्वयं भी कुछ करना चाहिए, क्या यह सोचने की भी आवश्यकता है, अपने देश के एक अत्यंत योग्य वकील से गुफ़्तगू के दौरान मुझे यह सुनने को मिला कि हर पेशी पर उनकी ओर से वकीलों की एक बड़ी तादाद होती थी और वह सबके सब बड़े दिग्गज होते थे, जबकि उनके मुक़ाबले हमारे पास वही एक दो नाम जिनकी चर्चा हम बराबर करते रहे हैं। नहीं उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता। उनकी योग्यता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता, यह तो हमें सोचना होगा कि एक ओर अखाड़े में 15-20 या उससे भी अधिक बलवान पहलवान सामने हों और दूसरी ओर हमारी ओर से केवल एक व्यक्ति, फिर भी हम यह आशा करें कि हर हालत में जीत हमारी ही होगी। क्या हमारी यह अपेक्षाएं बहुत अधिक नहीं हैं। अब हम सर्वोच्च न्यायालय में जा रहे है,ं किस तैयारी के साथ? क्या इस बार हमने उच्च न्यायालय से बेहतर तैयारी कर ली है? हम हर तरह से टुकड़ों में बंटे हैं, वैचारिक दृष्टि से भी, व्यवहारिक दृष्टि से भी। हमारी लड़ाई कौन लड़ रहा है, हमें नहीं मालूम, वह लड़ाई किसके भरोसे और कितनी ताक़त के साथ लड़ रहा है हमें नहीं मालूम, हम केवल इतना जानते हैं कि सुन्नी सैंट्रल वक़्फ़ बोर्ड हमारा पैरोकार है और हाशिम अंसारी भी मुक़दमा लड़ रहे हैं। हाशिम अंसारी कहां रहते हैं, किन लोगों के बीच, कितने संसाधन हैं उनके पास, क्या आयु है उनकी, कितने लोग हर क़दम पर उनके साथ खड़े नज़र आते हैं, कभी सोचा है हमने? सुन्नीे सैंट्रल वक़्फ़ बोर्ड, यह संस्था किसके अधीन है, उसका कार्यक्षेत्र क्या है, उसके पास संसाधन कितने हैं, क्या यह उन तमाम ताक़तों के ख़िलाफ़ अकेला खड़ा होने की स्थिति में है, जो हर हालत में वहां राम मंदिर बनाने का संकल्प किए हुए हैं और उसके लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सभी प्रकार की तैयारियों से लेस हैं। एक संगठन मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड जिसे सरकार या शायद मुसलमानों का प्रतिनिधि संगठन समझता है, शायद जिसको फ़ैसला लेने का अधिकार है उसके सदस्यों की कुल संख्या कितनी है, यह सदस्य कौन कौन हैं, उनकी धार्मिक, राजनीतिक या सामाजिक पहचान क्या है, क्या देश का 20 करोड़ मुसलमान अपने भविष्य का फ़ैसला करने वाले उन महापुरूषों को जानता है? बल्कि सच तो यह है कि आज यह प्रतिनिधि संगठन इस मामले में देश के वर्तमान 20 करोड़ मुसलमानों के भविष्य का ही फ़ैसला नहीं कर रही है बल्कि उनकी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य का फ़ैसला भी उसके हाथ में नज़र आता है और यह महान व्यक्ति कौन कौन हैं, पिछले एक सप्ताह की लम्बी भाग दौड़ के बावजूद सबके विवरण तो क्या नाम तक उपलब्ध नहीं हो सके, जबकि होना तो यह चाहिए था कि इस नाज़्ाुक मौक़े पर इस संगठन के सभी सदस्य ही नहीं, बल्कि क़ौम के व अन्य प्रमुख व्यक्ति भी इस फ़ैसले में शामिल होते। उनके साथ योग्य वकीलों की एक पूरी टीम होती, सब मिल कर फ़ैसला करते कि अब अगला क़दम क्या हो। अगर हमारे मन में केवल इतना है कि हमें तो बस हुज्जत तमाम करनी है, फिर फ़ैसला चाहे जो भी हो तो शायद हमें इस सोच पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है। हमें तो लगता है कि जितनी अधूरी तैयारी हमारे पास थी, उसके लिहाज़ से जो फ़ैसला आया वह न्याय पर आधारित न होते हुए भी बेहतर था। हमने इसीलिए बार-बार यह लिखा कि निःसंदेह हमारी राय रद्द कर दी जाए, परंतु दर्ज कर ली जाए, इसलिए कि ऐसी ही तैयारी सर्वोच्च न्यायालय में हमें कितनी सफलताऐं दिलाएंगी इसका अंदाज़ा किया जा सकता है।
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