Thursday, October 14, 2010

ख़ुदा करे कि ये चिंगारी शोला न बने!
अज़ीज़ बर्नी

आज सुबह के अख़बार की इंतिहाई अहम ख़बर रामविलास वैदांति का यह बयान कि ‘‘अयोध्या की सीमाओं में बाबरी मस्जिद स्वीकार नहीं होगी’’ यद्यपि उन्होंने समस्या को बातचीत द्वरा सुलझाने के प्रयासों का स्वागत किया और कहा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फ़ैसला आने के बाद भी नए सिरे से सुलह सफ़ाई का अभियान प्रशंसा के योग्य है। लेकिन अयोध्या की ‘सांस्कृतिक सीमा’ के भीतर किसी भी तरह की नई मस्जिद संत धर्माचार्यों को स्वीकार नहीं होगी। अर्थात बात करो तो ध्यान में रहे कि उच्च न्यायालय का फ़ैसला जो भी हो, आप एक तिहाई भूमि पर भी मस्जिद के निर्माण की आशा न रखें। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि इस वर्ष हरिद्वार कुंभ मेले के दौरान संतों के सम्मेलन में स्वीकृत प्रस्ताव में कहा गया था कि पूरी अधिगृहित भूमि (67) एकड़ में श्री राम का भव्य मंदिर बनाया जाए। उन्होंने कहा कि जो प्रस्ताव संत धर्माचार्यों के सम्मेलन में स्वीकृत किया गया था, संत अब भी उसी पर क़ायम हैं। समझौते के प्रयास भले ही स्वागत योग्य हैं परंतु संतों के प्रस्ताव के आधार पर ही देश में शांति व्यवस्था बनी रहेगी। यदि मैं केवल एक लेख नहीं लिख रहा होता और न्यायालय में एक वकील के रूप में खड़ा होता तो अत्यंत आदर के साथ कहता ृृच्वपदज जव इम छवजमक डल सवतकश्श् महामहिम यह बात नोट की जाए कि इस प्रस्ताव के आधार पर ही शांति व्यवस्था बनी रहेगी वरना ... क्या होगा आप अनुमान कर सकते हैं कि अब तक क्या होता रहा है।
और अब मैं आता हूं आज शाम के सबसे प्रमुख समाचार पर। इस समय मेरे सामने लगभग सभी टीवी चैनलों पर शाही इमाम सैय्यद अहमद बुख़ारी की लखनऊ प्रेस कान्फ्ऱेंस में हुए हंगामे का समाचार चल रहा है। इरादा नहीं था कि आज कोई लेख लिखूं, लेकन इन दोनों घटनाओं ने मजबूर कर दिया कि आज फिर बाबरी मस्जिद भूमि स्वामित्व से संबंधित आए 30 सितम्बर 2010 के फ़ैसले पर लिखना चाहिए। यद्यपि इस विषय पर अब बेहतर तो यही है कि जो बात हो वह क़ानून के जानकारों के द्वारा और क़ानून की भाषा में ही हो। परंतु कोई भी घटना जब एक प्रमुख समाचार के रूप में सामने आती है तो एक पत्रकार का यह दायित्व होता है कि उसे संपूर्ण तथ्यों के साथ सामने रखे और यह प्रकाश डालने का भी प्रयास करे कि आख़िर इस ख़ामोश माहौल में तूफ़ान खड़ा करने का प्रयास कौन और क्यों कर रहा है। 30 सितम्बर 2010 को शाम 4 बजे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जज साहिबान के द्वारा फैसला सुनाए जाने के बाद लगभग सभी ऐसे हिंदू संगठनों ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए फै़सले का स्वागत किया था, जिनकी ओर से यह आशंका थी कि फ़ैसला अगर उनके पक्ष में नहीं हुआ और उन्हें पसंद नहीं आया तो उनकी ओर से कठोर प्रतिक्रिया देखने को मिल सकती है। यह वह फ़ैसला था, जिसकी अपेक्षा मुसलमान बिल्कुल नहीं कर रहे थे और क़ानून की जानकारी रखने वाली धर्मनिर्पेक्ष जनता के मन में भी यही था कि जिस बाबरी मस्जिद को शहीद करने के अपराध में आरोपियों के विरुद्ध न्यायालय में मुक़दमा विचाराधीन है, पिछले 18 वर्षों से लिब्राहन आयोग न केवल जांच करता रहा है, बल्कि संसद को अपनी रिपोर्ट भी पेश कर चुका है। कौन-कौन इस अपराध में शामिल नज़र आते हैं, उनके नामों और कारनामों की ओर इशारा भी मीडिया द्वारा सामने आता रहा है। अगर यह सिद्ध होता है कि यह लोग मस्जिद को शहीद करने के लिए ज़िम्मेदार हैं अर्थात बाबरी मस्जिद की इमारत को ध्वस्त कर देना न्यायिक अपराध है तो यह बात अनुमान से परे कैसे हो सकती थी कि कम से कम 6 दिसम्बर 1992 से पूर्व जिन लोगों पर जिस धर्म स्थल को गिरा देने का मुक़दमा चल रहा है उसकी उस हैसियत को स्थापित करना तो न्याय की पहली सूरत होनी चाहिए थी। उसके बाद अन्य मामलों को सामने रख कर न्यायालय क़ानून की रोशनी में जो भी फ़ैसला देता उस पर कोई टिप्पणी होती, उसे स्वीकार किया जाता या सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया जाता। अगर मस्जिद के अस्तित्व को स्वीकार करने से ही इन्कार कर दिया गया तो फिर मस्जिद को शहीद करने वालों के विरुद्ध चलने वाले मुक़दमे तथा लिब्राहन कमीशन के 18 वर्षों के संघर्ष का क्या अर्थ? यह सभी बातें फ़ैसला सामने आने के बाद मन को परेशान करने लगीं। परंतु इस विचार को रद्द करते हुए अविलंब गृहमंत्री पी॰चिदम्बरम का बयान कई बार सामने आया कि इससे न तो कोई अपराध कम होता है और न इस मुक़दमे पर कोई प्रभाव पड़ता है जो बाबरी मस्जिद की शहादत पर चल रहा है। ऐसा उन्होंने किस आधार पर कहा यह वही बेहतर जानते हैं। हमने इन परिस्थितियों की चर्चा इस समय केवल इसलिए की कि साफ़तौर पर यह देखते हुए भी कि फ़ैसला मुसलमानों के पक्ष में नहीं है और न ही क़ानून के मूल्यों पर आधारित है, यह बात हिंदू और मुसलमान सहित क़ानून के जानकार अत्यंत तर्क संगत अंदाज़ में कह रहे हैं, लेकिन मुसलमानों ने अपनी भावनाओं को क़ाबू में रखा और हमने साहस किया और अपने पहले ही लेख के माध्यम से यह संदेश देने का प्रयास किया कि जो भी जैसा भी फ़ैसला सामने आया है और जिस संयम तथा धैर्य का प्रदर्शन करते हुए आपने उस पर कोई ऐसी प्रतिक्रिया प्रकट नहीं की है कि देश व समाज के बीच कोई नकारात्मक संदेश जाए तो इसदिशा में भी विचार करके देख लीजिए कि अगर उच्च न्यायालय के इस फ़ैसले को जो न तो पूरी तरह आप के पक्ष में है और क़ानूनी बुनियादों पर आधारित, फिर भी देश भर में शांति व एकता की ख़ातिर स्वीकार कर लिया गया और वह स्थान जो मस्जिद के लिए निश्चित किया गया है, उस पर नए सिरे से बाबरी मस्जिद के निर्माण का कार्य शुरू हो जाए और जिस स्थान की घोषणा मंदिर के पक्ष में की गई हैं वहां ख़ुशी से मंदिर का निर्माण किया जाए। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय जाने का दरवाज़ा खुला था। सर्वोच्च न्यायालय से न्याय की आशा भी की जा सकती है, परंतु जब आप सभी परिस्थितियों को सामने रख कर अतीत और वर्तमान को देखते हुए भविष्य के लिए कोई निर्णय करते हैं तो बहुत कुछ सोचना पड़ता है। आज जो बयान सामने आया है राम विलास वैदांति का, यह केवल उनकी निजी सोच और इसे एक संयोग समझने का प्रयास करेंगे तो बहुत बड़ी भूल कर बैठेंगे। इसी प्रकार शाही इमाम सैय्यद अहमद बुख़ारी की प्रेस कान्फ्ऱेंस में लखनऊ में जो घटना पेश आई उसे भी अगर हमने केवल एक संयोग समझा लिया तो यह भी एक बहुत बड़ी भूल होगी। इससे अलग हट कर के 30 सितम्बर के उस फ़ैसले के मामले में शाही इमाम का नज़रिया क्या है? या राजनीतिक दृष्टि से उनका मन क्या है और उनका स्वभाव कितना गर्म है या वह कितने उत्तेजित हो जाते हैं। हमें यह भी देखना होगा कि प्रश्न करने वाला कौन था? प्रश्न करने वाले का अतीत क्या है? प्रश्न करने वाले की नियत क्या हो सकती है? हमारे सामने उक्त पत्रकार से संबंधित थाना बाज़ार सदर लखनऊ एफआईआर नं॰ 396/08 दिनांक 29 नवम्बर 08 की काॅपी मौजूद है। वह उनकी कार्यप्रणाली और स्वभाव को सामने रखती है लेकिन इस सबके बावजूद जो किया शाही इमाम सैय्यद अहमद बुख़ारी ने न तो उसका समर्थन किया जा सकता है और न उसका बचाव किया जा सकता है। यह ग़लत था अनुचित था। उन्हें इतना उत्तेजित नहीं होना चाहिए था। सभी प्रकार के प्रश्नों का उत्तर अत्यंत नम्रता और सभ्य ढंग से देना परिस्थितियों की गंभीरता को देखते हुए अत्यंत आवश्यक था और आगे भी आवश्यक है। इसलिए कि नकारात्मक मानसिकता रखने वालों को केवल एक ऐसे अवसर की तलाश है जिसके द्वारा अपने राजनैतिक उद्देश्यों को पूरा किया जा सके, जैसा कि अतीत में करते रहे हैं। यदि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इन साम्प्रदायिक राजनीतिज्ञों की मानसिकता को समझने में भूल न की होती, उन्हें राजनीतिक शक्ति प्रदान न की होती तो आज उनकी जो राजनीतिक हैसियत है, वह संभव नहीं थी। 1951 में हुए प्रथम संसदीय चुनावों से लेकर 1984 में हुए संसदीय चुनावों के पहले तक जन संघ और फिर भारतीय जनता पार्टी कभी अपनी ऐसी राजनीतिक स्थिति में नहीं आ सकी कि वह किसी की सरकार बनवा सके या गिरा सके, परंतु 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने उनके साथ राजनीतिक गठजोड़ करके मुसलमानों सहित धर्मनिर्पेक्ष वोटों को उनको पक्ष में डलवाने पर न तैयार किया होता तो लाल कृष्ण आडवानी तथा अन्य साम्प्रदायिक मानसिकता रखने वाले राजनीतिज्ञों को केंद्रीय सरकार में वह स्थान नहीं मिलता कि हम आज भी उसका ़ख़मियाज़ा भुगत रहे होते। इतिहास के पन्नों पर दार्ज एक एक पंक्ति को पढ़कर सुनाना इस समय संभव नहीं है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि हम ज़रा यह समझने का प्रयास तो करें कि आख़िर ऐसे सभी आरोप केवल मुसलमानों पर ही क्यांे लगते रहे हैं जिससे देश में अशांति का वातावरण पैदा हो। साम्प्रदायिक तनाव पैदा हो। क्या हर बार उनकी ही ग़लती होती है या उन्हें साज़िश का शिकार इस चतुरता और योजनाबंदी के द्वारा बनाया जाता है कि वह स्वयं भी अपने आपको अपराधी समझ बैठें। निर्दोष होते हुए भी हंसते हुए हर अपराध को स्वीकार कर लें। देश का विभाजन एक राजनीति थी। मुसलमानों को विभाजित करने के लिए एक लोकतांत्रिक देश में उनके राजनीतिक अस्तित्व को निरर्थक बना देने के लिए यह हुआ और अत्यंत बुद्धिमत्ता के साथ एक ऐसा चेहरा, एक ऐसा व्यक्ति तलाश किया गया जिसके मन में आकांक्षा थी सत्ता पाने की और फिर उसकी इस आकांक्षा को इतना प्रचारित किया गया कि सारी दुनिया जाने कि मुहम्मद अली जिन्नाह ने इस्लाम और मुसमानों के नाम पर अलग देश ले लिया है। इस समय इस संक्षिप्त लेख में विभाजन की पूरी दास्तान को लिखना संभव नहीं है।
इसके बाद दामन पर लगा आतंकवाद का दाग़ और इस दाग़ को मिटाते मिटाते वह महान व्यक्ति (शहीद हेमंत करकरे) स्वयं मिट गया, जो यह सिद्ध कर रहा था, बल्कि बहुत हद तक सिद्ध कर चुका था कि भारत में होने वाली विभिन्न आतंकवादी घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार कौन हैं। यह नैटवर्क कितना बड़ा है। इसमें किस स्तर के लोग शामिल हैं। उनकी रणनीति क्या है। उन्हें हथियार कहां से मिलते हैं। उन्हें प्रशिक्षण कैसे-कैसे लोग देते हैं उनकी योजनाएं क्या हैं। लेखक के पास ऐसा बहुत कुछ है जो इस नैटवर्क का ख़ुलासा करने के लिए काफ़ी है। ऐसा किया भी जाता रहा है और आगे भी किया जा सकता है। परंतु इस समय चर्चा का विषय आतंकवादी घटनाओं का उल्लेख करना नहीं है। हमारे सामने हैं केवल दो समाचार। एक समाचार जो राम विलास वैदांति के बयान पर आधारित है और दूसरा समाचार जो शाही इमाम सैय्यद अहमद बुख़ारी की प्रैस कान्फ्ऱेंस में हुए हंगामे पर आधारित है। दो अलग अलग बातें हैं, बज़ाहिर उनमें कोई संबंध नहीं है, यह किसी ख़तरनाक योजना का पूर्वाभ्यास हो सकता था या हो सकता है, यह कहना इस समय आसान नहीं है। परंतु क्या अब भी यह समझना बहुत कठिन होगा कि जिन बातों को हम बहुत छोटा समझते हैं वह बाद में कितने बड़े और भयानक परिणाम के रूप में सामने आती हैं। हमारी ज़बान से यह कहलवाना उद्देश्य था और उद्देश्य है कि यह फ़ैसला हमें स्वकार नहीं है ताकि औचित्य प्रदान किया जा सके, ऐसे सभी बयानों का जो राम विलास वैदांति के बयानों के रूप में सामने आ रहे हैं या हिंदू महा सभा के पदाधिकारियों के द्वारा सामने आ चुके हैं। उन्हें प्रतीक्षा है किसी ऐसे बहाने की जिसे आधार बनाकर फिर हालात को तनाव पूर्ण बना सकें और आरोप मुसलमानों पर लगाया जा सके। इसलिए कि अब जनता हिंदू और मुसलमान सभी साम्प्रदायिकता तथा साम्प्रदायवादियों से ऊब गए हैं। वह किसी स्थिति में भी उनको प्रोत्साहित करते नज़र नहीं आते, इसलिए परिस्थितियां सर्वोच्च न्यायालय में जाने की बन रही हैं और कहीं कोई उत्तेजना नहीं है। इसलिए उन्हें चाहिए कि अब कुछ ऐसे गर्म बयान, ऐसे जोशीले भाषण जिनको बहाना बना कर वह अपने दिल का ग़्ाुबार निकाल सकें, अपनी योजनाओं को अमली जामा पहना सकंे।
न जाने हम इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले के फ़ौरन बाद ही यह क्यों नहीं समझ पाए कि बाबरी मस्जिद के लिए एक तिहाई भूमि का दिया जाना भी उनको स्वीकार नहीं होगा, जिन्होंने पिछले 20 वर्षों में राम के नाम पर राजनीति करके स्वयं को इस हैसियत में लाने में तो सफलता प्राप्त कर ही ली कि कई बार केंद्र में सरकार बनाने का अवसर मिला। विभिन्न राज्यों में सरकार बनाने का अवसर मिला। परंतु हर बार दूसरों के सहयोग के सहारे और उनमें वह शामिल थे, जो पूरी तरह उनसे सहमत नहीं थे और उनके साथ मिल कर सरकार चलाने के बावजूद सभी मुद्दों को पीछे डालना मजबूरी थी, जिनपर उनका सहयोग प्राप्त नहीं हो सकता था, इसलिए इस मानसिकता को दरकार हैं और 20 वर्ष ताकि राम के नाम पर राजनीति को जीवित रख कर, राम मंदिर न बनाकर, राम मंदिर के नाम पर राजनीति कर सकंे, ताकि देश से साम्प्रदायिकता मिटने न पाए, वोटों का बटवारा इसी आधार पर जारी रहे और यह तभी संभव है कि यह समस्या जीवित रहे। अगर वहां मंदिर भी बन गया और मस्जिद भी बन गई तो फिर उस साम्प्रदायिक राजनीति का भविष्य क्या होगा, इसलिए उनकी अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं के मद्दे नज़र सर्वोच्च न्यायालय में इस मुक़दमे का जाना आवश्यक था और आवश्यक है। हम उच्च न्यायालय का फ़ैसला स्वीकार करते या न करते, इसलिए कि वह यह भी भलीभांति जानते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला जो भी आए, योजनाएं उन्हीं की पूरी होंगी, उनके पक्ष में आया तो बाक़ी सब दिल मसोस कर बैठ जाएंगे केवल मुसलमान ही नहीं स्वयं को धर्मनिर्पेक्ष कहने वाले भी और फ़ैसला अगर उनके विरुद्ध आया तो फिर किस में दम है कि वह इस फ़ैसले को लागू करा सके। आख़िर सरकारों की भी कुछ ज़िम्मेदारी होती है अगर ऐसा नहीं होता तो 24 सितम्बर, 28 सितम्बर और फिर 30 सितम्बर क्यों तारीख़ पर तारीख़ बदलती। क्यों सरकार को चप्पे चप्पे पर सुरक्षा व्यवस्था करने की आवश्यकता पड़ती। बार बार हर स्तर पर यह अपील जारी की जाती कि शांति व्यवस्था बनाए रखें। फ़ैसला जो भी आए सर्वोच्च न्यायालय जाने का रास्ता सबके लिए खुला है। ज़रा सोचिए सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला आने के बाद किस प्रकार की परिस्थितियंा पैदा हो सकती हैं और क्या फिर उस समय किसी भी सरकार के ज़िम्मेदारों के पास यह कहने का अवसर हो सकता है कि शांति तथा एकता बनाए रखें। सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला आने के बाद अब आपके लिए अमुक दरवाज़ा खुला है, आप वहां जा कर अपनी बात कह सकते हैं। शायद उस समय तक पूरी तरह भर चुका सब्र का पैमाना छलक जाए। यदि ऐसा हुआ तो कौन क्या पाएगा, कौन क्या खोएगा, उसे समझना बहुत कठिन भी नहीं है। परंतु हम समझें तो...! अब भी समय है कि हम इन दो छोटी छोटी घटनाओं को ध्यान में रखें जिनको सामने रख कर यह लेख लिखा गया और तय कर लें कि अगर हर दिन ऐसी दरजनों घटनाएं भी सामने आएं भले ही वह किसी षड़यंत्र का हिस्सा हांे या न हों, परंतु हम उससे प्रभावित नहीं होंगे। हम शांति तथा एकता का दामन नहीं छोड़ेंगे। उन्हें संबद्ध लोगों का निजी मामला मान कर बस उन तक ही सीमित रहने देंगे। पूरी क़ौम के साथ उन्हें जोड़ कर चाहे वह हिंदू हों या मुसलमान देश के हालात को प्रभावित नहीं होने देंगे।

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