Thursday, October 7, 2010

आओ मस्जिद में करें मस्जिद की बात, अमन की बात
अज़ीज़ बनी

हमारी कठिनाई यह है कि हम किसी भी मसले पर एक मत नहीं हो पाते, विशेषरूप से क़ौमी मसलों पर तो हर बार यही होता है हमारी इस कमज़ोरी का लाभ अकसर दूसरे लोग उठाते रहते हैं। परिणाम हमारे सामने है, हम हर मामले में नुक़सान में हैं। कोई हमारा पुरसानेहाल नहीं है और हमारे नेता किसी एक राय पर सहमत होने के बजाए अपने अभिमान के लिए लड़ रहे होते हैं या अपनी राय को सर्वश्रेष्ठ ठहराने के प्रयास में व्यस्त नज़र आते हैं यही अब तक होता रहा है और आज फिर वही स्थिति हमारे सामने है। इस समय हम (हिन्दू, मुसलमान प्रतिनिधि) एक ऐसे मसले पर विचार विमर्श में लगे हैं जो वर्षों से हमारे सामने है और हमारे लिए चिंता और परेशानी का कारण बना हुआ है। हमारी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को प्रभावित कर रहा है और हम इस सिलसिले में जीवित रखने के रास्ते तलाश करते रहते हैं। इसे पूरी तरह समाप्त कर देने की ऐसी सूरत पर सर जोड़ कर आज भी नहीं बैठ रहे कि सम्मान भी बचा रहे, ख़ुदा का घर भी बन जाए तथा शांति व एकता भी बनी रहे। हम भलीभांति अवगत हैं यह मसला हमें आज़ादी के बाद विरासत में मिला है। गत 60 वर्षों में हम किसी तरह इसका हल तलाश नहीं कर पाए हैं। न न्यायालय के माध्यम से, न न्यायालय के बाहर बातचीत के द्वारा। कोई भी ऐसा निर्णय जो हम सबको संतुष्ट कर दे आज भी संभावना से परे है, न्यायालय के बाहर भी, उच्च न्यायालय के द्वारा भी, उच्चतम न्यायालय के द्वारा भी। हम मान भी लें कि अगर कोई निर्णय ऐसा आ भी जाए जिसे हम देश के बहुसंख्यक, बहुसंख्यक से तातपर्य हिंदू भाई नहीं हैं, बल्कि आबादी के अनुपात में भारतीयों की एक बड़ी संख्या हिंदू और मुसलमान भी, अगर स्वीकार करने के योग्य समझ लें तो भी बाक़ी बचे लोग ख़ामोश हो कर बैठ जाएंगे, इसे लागू करने में रुकावट नहीं बनेंगे, ऐसा सोचना भी कठिन है। यह अनुमान की बात नहीं बल्कि आज के हालात का अनुभव है, जो केवल मेरे ही नहीं सम्पूर्ण भारत के सामने भी है।
हमारी दूसरी कठिनाई यह है कि हममें से योग्य तथा ज़िम्मेदार व्यक्तियों की संख्या बहुत अधिक है, सबका अपना अपना क्षेत्र है, सबके अपने अपने अनुयायियों, चाहने वालों या मानने वालों की एक बड़ी संख्या है, उनमें से कोई ऐसा नज़र नहीं आता, जिसके विचार की एकदम से अनदेखी कर दी जाए या उसे ग़ैर ज़िम्मेदार कह कर उसकी राय को ख़ारिज कर दिया जाए। इसका परिणाम यह होता है कि दूर खड़े होकर तमाशा देखने वाले हमारी इस उलझन का लाभ उठाकर अंदर ही अंदर किसी एक राय पर सर्वसम्मत होने लगते हैं अर्थात अपनी रणनीति में कामयाब हो जाते हैं और फिर मीडिया अथवा सरकार के सामने दो पक्ष होेते हैं। एक पक्ष वह जो किसी एक राय पर सुदृढ़ है और अगर उस समुदाय के कुछ लोग उस राय से सहमति नहीं रखते तो इतने विरोधी भी नहीं होते कि मोर्चा खोलने पर उतर आएं। वह विपरीत विचार के बावजूद भी ख़ामोश रहते हैं, जिसे अर्धसहमति स्वीकार कर लिया जाता है। अब रहा प्रश्न दूसरे पक्ष का तो उनकी राय इतनी विरोधाभासी होती हैं कि सब एक दूसरे से उलझते नज़र आते हैं। किसी की राय होगी कि निर्णय सरासर हमारे विरुद्ध है और पूरी तरह अस्वीकार्य है, हमारे साथ अन्याय हुआ है, धोखा हुआ है, हमें पूरी जगह मस्जिद के लिए चाहिए। दूसरी ओर से आवाज़ आएगी हम इस निर्णय को नापसंद तो करते हैं। हमारे अधिकारों का हनन किया गया है, हमें न्याय नहीं मिला है, परंतु हम देश में शांति तथा एकता की ख़ातिर यह बलिदान देने के लिए तैयार हैं कि मस्जिद के लिए निर्धारित की गई यह एक तिहाई भूमि भी मंदिर के लिए दे दी जाए। हम इसका दावा छोड़ देते हैं। जैसे कि यह उनके अधिकार क्षेत्र में है, उनकी निजी संपत्ति है और उन्हें अधिकार प्राप्त है उसे किसी को भी दान कर देने का। इनके अलावा एक वर्ग निर्णय को अस्वीकार करते हुए उच्चतम न्यायालय जाने की बात करता है। संभवतः उसे शत-प्रतिशत उम्मीद है कि उच्चतम न्यायालय से आने वाला निर्णय पूर्णरूप से क़ानून की रोशनी में होगा, उसके पक्ष में होगा और उसको लागू भी किया जा सकेगा। हालांकि उच्चतम न्यायालय जाने का निर्णय सही ठहराया जा सकता है, परंतु मानसिक रूप से इस बात के लिए भी तैयार रहना होगा कि और पाने की उम्मीद में जो मिल सकता है या जो कुछ दिए जाने की घोषणा की गई है कहीं वह भी हाथ से न जाता रहे। एक वर्ग वह भी है जो नए तरीक़े से बातचीत द्वारा समस्या का समाधान तलाश करने के प्रयासों में सक्रिय हो गया है। हाशिम अंसारी 49 वर्ष से इस समस्या के प्रमुख पैरोकार हैं, वह अखिल भारतीय अख़ाड़ा परिषद् के अध्यक्ष महंत ज्ञान दास से बातचीत करने की पहल कर चुके हैं, परंतु साथ ही उन्होंने अपनी जान को दरपेश ख़तरे की बात भी कही है। उन पर एक असफल हमला भी हो चुका है। इस समय वह सैंट्रल सुन्नी वक़्फ़बोर्ड के स्टैण्ड के विरुद्ध खड़े नज़र आते हैं, अर्थात हमारे दो पैरोकार जो अब तक मुक़दमा लड़ते रहे हैं, उनमें एक हाशिम अंसारी और दूसरा सैंट्रल सुन्नी वक़्फ़बोर्ड अब एक मत नहीं हैं, बल्कि एक दूसरे के विरुद्ध हैं। मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड का अपना एक महत्व है। देश के विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले मुस्लिम बुद्धिजीवी और उलेमा-ए-किराम इसमें शामिल हैं। आगामी 9 अक्तूबर को इस विषय पर एक सम्मेलन करने जा रहे हैं। उनका स्टैंड क्या होगा दो दिनों बाद वह भी सामने आ जाएगा। शाही इमाम सय्यद अहमद बुख़ारी का अपना एह महत्व है, वह आज अर्थात 7 अक्तूबर को बाबरी मस्जिद भूमि स्वामित्व से संबंधित 30 सितम्बर को किए गए निर्णय पर एक मीटिंग बुलाकर कुछ प्रस्ताव पास कर चुके हैं, जिनकी चर्चा अन्य किसी लेख में की जाएगी। उनके अलावा हमारे प्रतिनिधियों में ऐसे लेाग भी शामिल हैं जो इस निर्णय को नापसंद तो करते हैं, उससे उन्हें कोई सहमति नहीं, वह उसे न तो न्याय पर आधारित मानते हैं और न ही क़ानून की रोशनी में किया गया निर्णय। फिर भी देश की स्थिति के मद्देनज़र उसे पूरी तरह से ख़ारिज भी नहीं करते। वह इस निर्णय की रोशनी में शांति तथा एकता बनाए रखते हुए कोई ऐसा बीच का रास्ता निकालने के लिए आशावान हैं जिससे मंदिर तथा मस्जिद का अस्तित्व क़ायम रहे, और किसी प्रकार की अप्रिय परिस्थितियां न पैदा हों। भले ही वह उच्च न्यायालय के इसी निर्णय से हो जाए या फिर उच्चतम न्यायालय का निर्णय ही कुछ इस रूप में सामने आए कि जो दोनों समुदायों को स्वीकार्य हो। मंदिर बनने की गंुजाइश भी रहे और मस्जिद का अस्तित्व भी क़ायम रहे। ऐसी सोच रखने वालों में जमीअत उलेमा-ए-हिंद के मौलाना मेहमूद मदनी और ऐशबाग़ ईदगाह लखनऊ के नायब इमाम मौलाना ख़ालिद रशीद फिरंगी महली का नाम लिया जा सकता है। मामले को अधिक जटिल बनाने के लिए एक वर्ग की ओर से सुन्नी और शियों के बीच विवाद खड़ा करने का प्रयास भी किया गया। वह तो अच्छा हुआ कि शिया आलिम-ए-दीन मौलाना कल्बे जव्वाद ने यह घोषणा कर दी कि इस मामले में सुन्नी और शिया दोनों की राय एक ही मानी जाएगी, अलग-अलग नहीं। अब यह स्थिति है आपके सामने अपनी क़ौम के प्रतिनिधियों की। इन सबको ध्यान में रखिए और अनुमान लगाइए कि किस तरह का निर्णय आपके सामने आ सकता है। जबकि दूसरी ओर अब इस प्रकार की आवाज़ें स्पष्टरूप से उठने लगी हैं कि राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो चुका है, स्वयं लाल कृष्ण अडवाणी का भी यही कहना है, जिसको रद्द करते हुए केंद्रीय मंत्री श्री कपिल सिब्बल ने कहा है कि उनका यह निष्कर्ष निकाल लेना समयपूर्व होगा। विश्व हिंदू परिषद से जुडे़ लोग अब खुलेआम सम्पूर्ण भूमि पर राम मंदिर के निर्माण की बात करने लगे हैं, अर्थात हाईकोर्ट के निर्णय को आए अभी 10 दिन भी नहीं बीते हैं और जो एक तिहाई भूमि मस्जिद के लिए, एक तिहाई भूमि मंदिर के लिए और एक तिहाई भूमि निर्मोही अखाड़े को जाने के निर्णय पर प्रसन्नता तथा संतोष प्रकट कर रहे थे, अब वह एक सप्ताह बीतते बीतते इस पर असंतोष प्रकट करते हुए पूरी भूमि मंदिर को देने की बात करने लगे हैं। अब मुझे मेरे पाठक क्षमा करें, अगर आपको यह निर्णय क़ानून की आवश्यकताओं को दरकिनार करते हुए भावनाओं तथा आस्था को सामने रख कर लिया गया निर्णय लगता है, जो कि वाक़ई है भी तो क्या अब आपको यक़ीन है कि वही मानसिक दबाव, वही परिस्थिति वही लाॅ एण्ड आर्डर का मामला, वही आस्था का प्रश्न क्या उच्चतम न्यायालय में सामने नहीं आएगा? कपिल सिब्बल केंद्रीय मंत्री ही नहीं एक प्रसिद्ध क़ानूनविद भी हैं और देश उनकी इस हैसियत से भलीभांति अवगत है। उनका अपना मानना है कि यह मामला अभी उच्चतम न्यायालय जाएगा। उच्चतम न्यायालय या तो हाईकोर्ट के निर्णय को स्वीकार कर लेगा या उसे दरकिनार कर देगा। अगर उसे स्वीकार कर लेगा तो ह्न यह बयान एक विशेषज्ञ क़ानूनविद तथा केंद्रीय मंत्री का है, जिसे बिल्कुल नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, फिर आप किन उम्मीदों के सहारे बैठे हैं कि उच्चतम न्यायालय में निर्णय केवल और केवल क़ानून की रोशनी में होगा? वहां भावनाओं और आस्था का कोई संबंध नहीं होगा। क़ानून की गहरी समझ रखने वाले केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल अगर यह बात कह रहे हैं कि यही निर्णय उच्चतम न्यायालय का भी हो सकता है तो क्या यह स्पष्ट संकेत नहीं है कि जो आस्था उच्च न्यायालय में दिखाई दी, वही आस्था उच्चतम न्यायालय के निर्णय में भी दिखाई दे सकती है। दूसरी बात जो उन्होंने कही कि इस फैसले को दरकिनार किया जा सकता है। हां इसकी भी संभावना जीवित है, परंतु हम उन्हें केवल और केवल अपने पक्ष में ही मान कर चलें तो क्या यह भारी भूल नहीं होगी? हम जितना उन्हें अपने पक्ष में मान कर चल रहे हैं, उतना अपने विरुद्ध सोच कर भी देखें और यह भी मन में रहे कि अगर निर्णय आपके पक्ष में हुआ तो कौनसी सरकार उसका पालन करा पाएगी? और आपके विरुद्ध हुआ तो आपकी कौनसी ताक़त या क़ानूनी चाराजोई उसे अमल में लाने से रोक पाएगी। बहुत से बहुत यही किया जा सकेगा कि निर्णय के विरुद्ध हर तरफ से आवाज़ें उठेंगी, कुछ बंद कमरों में तो कुछ सड़कों पर उतर कर भी अपनी भावनाएं प्रकट करेंगे। परिणाम क्या हो सकता है, कहने की आवश्यकता नहीं है। अतीत के कटु अनुभवों की एक लम्बी दास्तान हमारे सामने है।
ऐसी ही तमाम बातों को ध्यान में रख कर उच्च न्यायालय का निर्णय आने के तुरंत बाद लेखक द्वारा यह तुच्छ राय प्रस्तुत की थी कि पहले इस पर आश्वासन तो ले लें कि जो कुछ उच्च न्यायालय ने आपको दिया है या देने की घोषणा की है, वह भी सचमुच आपको मिल सकता है, इस पर गंभीर आपत्ति व्यक्त करके यह संदेश तो न दें कि आपने स्वयं ही इस निर्णय को अस्वीकार करके इस पेशकश को ठुकरा दिया, वरना देश की बहुलता ने, भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी और नरेंद्र मोदी सहित हिंदू संगठनों ने भी प्रसन्नता के साथ इस निर्णय को स्वीकार कर लिया था। यह तो आप ही थे, जिन्हें निर्णय स्वीकार नहीं था। लेखक को इस सिलसिले का पहला लेख लिखते समय भी भलीभांति अंदाज़ा था कि इस फैसले पर प्रसन्नता व्यक्त करने वाले केवल एक धोखा देने का प्रयास कर रहे हैं। उन्हें अच्छी तरह अंदाज़ा है कि सैद्धांतिक रूप से टुकड़ों में बंटे मुसलमान स्वयं उसे अस्वीकार कर देंगे और फिर उनके पास राम मंदिर निर्माण की बात बहुत प्रभावशाली ढंग से कहने का औचित्य मौजूद होगा, जो आज देख ही रहे हैं। अब आपके पास क्या रास्ता बचा है, देश तथा क़ौम के हक़ में क्या है इस पर कुछ स्वयं भी विचारविमर्श करें केवल उनके सहारे न बैठे रहें जिन्हें क़ौमी प्रतिनिधि होने की पदवी प्राप्त है। इसलिए कि सभी विरोधी परिस्थितियों का सामना आम लोगों को अधिक करना पड़ता है। ख़ास लोगों को नहीं और आपके विचार विमर्श का केंद्र हो सकती हैं मस्जिदें और मदरसे। आज जुमे का दिन भी है। अल्लाह के घर के लिए अल्लाह के घर में बैठ कर फैसला लेने से अच्छी जगह कौनसी हो सकती है। या वह जगह जहां ख़ुदा को पहचानने की शिक्षा दी जाती है। अब यह फैसला आप पर कि राय का इंतिज़ार या अपनी राय का इज़हार।


1 comment:

आपका अख्तर खान अकेला said...

aziz bhaayi likha to bhut stik he vese to aap hmeshaa hi stik likhte ho hm aapke shukrguzaar hen lekin msjidon men jb bhi hui he amn ki bat hi hui he . akhtar khan akela kota rajsthan meraa hidi blog akhtarkhanakela.blogspot.com he.