हां, 30 सितम्बर 2010 को बाबरी मस्जिद मामले के संबंध में दिया गया इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय क़ानून के अनुसार लिया गया निर्णय नहीं है। हां, यह आस्था की बुनियाद पर लिया गया निर्णय है। हां, इस निर्णय में राजनीति की गंध आती है। यह सच है कि न्यायालय के सभी निर्णय सबूतों और शहादतों की बुनियाद पर ही होने चाहियें, जो कि इस निर्णय में नहीं हुआ। भारतीय जनता की एक बड़ी संख्या जिसमें केवल मुस्लिम ही नहीं, बल्कि हिन्दुओं का भी मानना है कि यह न्याय पर आधारित नहीं है और अब यह संभावना भी बड़ी हद तक है कि उच्चतम न्यायालय के दरवाज़े पर दस्तक़ दी जाएगी। कोई एक या कुछ लोग यदि अपनी इस राय को प्रकट करते हैं कि इस निर्णय को स्वीकार कर लेना चाहिए और अब उच्चतम न्यायालय से सम्पर्क नहीं करना चाहिए तो इस बात को सभी ज़िम्मेदार स्वीकार कर लेंगे, इस भ्रम का शिकार किसी को नहीं रहना चाहिए। लेखक को भी ऐसा कोई भ्रम नहीं है, फिर भी अगर इस निर्णय का समर्थन किया गया और इस पर अपनी राय प्रकट करते हुए इसे वर्तमान परिस्थितियों में उचित फैसला ठहरा दिया गया तो कोई कारण तो होगा, निसंदेह उसे रद्द कर दिया जाए, परंतु क्या सभी हालात पर विचार किया जाना गलत होगा? आजाद भारत के इतिहास में क्या यह पहला फैसला है, जिससे हमने असहमती व्यक्त की है। इससे पूर्व किये गए सभी फैसलों ने क्या हमें न्याय दिया है? निसंदेह गृह मंत्री पी चिदम्बरम आज यह कह रहे हैं कि बाबरी मस्जिद की शहादत एक अलग मामला है और उसके अपराधियों का अपराध इस निर्णय से प्रभावित नहीं होगा, परंतु सरकार इस प्रश्न का क्या जवाब देगी कि आखिर लिब्राहन कमीशन की रिपोर्ट प्रस्तुत किये जाने के बावजूद आज तक सरकार खामोश क्यों है? श्री कृष्णा आयोग की रिपोर्ट का क्या हुआ? आजतक न्याय के नाम पर हमें अन्याय ही तो मिला है, फिर भी अगर आॅंखों देखी मक्खी निगलने के लिए हम जैसे कुछ लोग भी तैयार हैं तो उसका कारण यह है कि हम पिछले 20 वर्षों में जिन परिस्थितियों से गुजरे हैं, हमने अपने भावनात्मक शोषण के साथ साथ जितना अपने युवकों को खोया है, हमने जितना अपने समुदाय के भविष्य को राजनीति की भेंट चढ़ते हुए देखा है उसको ध्यान में रखते हुए हम आशा भले ही करें परंतु इससे बहुत अच्छे फैसले का भरोसा नहीं होता।
ऐसा नहीं है कि हम नहीं जानते थे कि यह कानून की रोशनी में दिया गया फैसला नहीं है, परंतु वह फैसले भी तो हमारे मन में हंै, जो कानून की रोशनी में दिये गए हैं, उनसे भी हमें कितना न्याय मिला? हो सकता है कि आस्था के आधार पर दिया गया यह अपने प्रकार का पहला निर्णय हो, इसलिए कि सभी अदालतों के छोटे-बड़े कुल मुकदमों की जानकारी का दावा नहीं किया जा सकता कि क्या इससे पूर्व भी कहीं किसी न्यायालय ने जनता की भावनाओं, संवेदनाओं या धार्मिक आस्था को सामने रखते हुए कोई फैसला दिया, परंतु वह चर्चा का विषय न बनने के कारण सब के सामने नहीं आया। बहरहाल हमें इस निर्णय पर आपत्ती जताने का पूरा-पूरा अधिकार है और जो इसे अन्याय या न्यायिक व्यवस्था के अपमान की संज्ञा देते हैं तो इस समय मुझे उनके विचार पर कुछ नहीं कहना, लेकिन एक शेर अवश्य मैं अपने सभी पाठकों को भेंट कर देना चाहता हॅू। यह शेर 30 सितम्बर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट में बाबरी मस्जिद की ज़मीन के स्वामित्व का निर्णय आने से बहुत पहले लिखा गया है। यह शेर बार-बार हमारे राजनीतिज्ञों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा कभी संसद के भीतर तो कभी संसद के बाहर ऐसे फैसलों को ध्यान में रखकर अपनी भावनाओं को प्रकट करने के लिए पढ़ा गया, जिन्हें न्याय पर आधारित स्वीकार नहीं किया गया था परंतु वह फैसले आस्था या भावनाओं के आधार पर नहीं थे, कानून की रोशनी में दिये गए फैसले थे। मैंने स्वयं कई बार इस शेर को अपने भाषणों तथा अपने लेखों में शामिल किया है। गुजरात में ज़हीरा शेख़ की आंखों के सामने उसके परिवार के 14 सदस्यों को जीवीत जला दिया गया। उसकी बेकरी जिसे ‘बेस्ट बेकरी’ के नाम से जाना गया आग लगा दी गई। गुजरात की अदालत ने कानून के अनुसार गवाहों तथा सबूतों को मददेनजर रखते हुए जो फैसला सुनाया उसमें सभी आरोपी जस्टिस महिदा की अदालत से बरी कर दिये गए। ज़हीरा शेख को एक झूठा गवाह मानकर उसकी गवाही को अस्वीकार मान लिया गया। कानून की रोशनी मे किया गया यह निर्णय क्या न्याय था? ऐसे ही निर्णयों को सामने रखकर शायद लिखा होगा प्रोफेसर मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद साहब नेः
वही क़ातिल,वही मुंसिफ अदालत उसकी वह शाहिद
बहुत से फ़ैसलों में तरफदारी भी होती है
आज हमारे सामने एक ऐसा निर्णय है, जो न्यायालय के द्वारा क़ानून की रोशनी में नहीं, आस्था की बुनियाद पर दिया गया है। हम इसे रद्द कर सकते हैं। हम इसे नामंज़ूर कर सकते हैं। हम उच्चतम न्यायालय में जाने का हक़ रखते हैं। उच्चतम न्यायालय से न्याय की उम्मीद कर सकते हैं। उच्चतम नयायालय का निर्णय सबूतों और गवाहों की बुनियाद पर होगा, ऐसी आशा कर सकते हैं। इस सबके बावजूद वह निर्णय हमारे पक्ष में इससे बेहतर होगा, वह पालन किए जाने योग्य होगा और दूसरे वर्ग को स्वीकार भी होगा, क्या इसकी उम्मीद है। हालांकि वह निर्णय जो भी हो, उसे क़ानून का दर्जा प्राप्त होगा, फिर भी उसके बाद भी गुंजाइश बचती है, इसलिए कि संसद में क़ानून बना कर इस निर्णय में भी बदलाव की उम्मीद को जीवित रखा जा सकता है। यह काम दोनों पक्षों में से कोई भी कर सकता है। उस समय संसद में बहुमत किस मानसिकता के लोगों की होगी आज कैसे कहा जा सकता है, परन्तु अनुमान तो किया ही जा सकता है। उन बयानों को तो याद रखा ही जासकता है, जो अक्सर कहते रहे कि संसद में कानून बनाकर राम मन्दिर निर्माण का मार्ग बनाया जाएगा। आज हम उन सभी आशंकाओं की अनदेखी कर सकते हैं। हम जानते हैं कि हमारी सीमाएं क्या हैं। क्या हम यह भी जानते हैं कि दूसरों के इरादे क्या हैं? कितने लोग हैं संसद में जो आपके अधिकारों के लिए आवाज़ उठाते हैं? अपनी राजनीति के लिए ज़ुबानी जमा-खर्च अलग बात है, भावनात्मक बयानबाज़ी करके क़ौम की भावनाओं को भड़काना अलग बात है परंतु उनके लिए हक़ और न्याय की जंग लड़ना अलग बात है। हम जानते हैं यह बात और आगे बढ़ेगी तो बहुत दूर तर जाएगी। हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि वह सभी लोग जो आज इस चर्चा में शामिल हैं, जीवित रहें न रहें, परंतू इस मुकदमे को जीवित रखा जा सकता है। निसंदेह हमे अधिकार है कि हम न्याय प्राप्त करने के संघर्ष में अंतिम पड़ाव तक जाएं और इस आशंका की भी अनदेखी कर दें कि अदालत के द्वारा दिया गया फैसला ठीक होने की स्थिति में भी उसका लागू किया जाना कठिन होगा, बल्कि असंभव होगा, परंतु यह सरकारों की ज़िम्मेदारी है। सरकारें अपना दायित्व निभाने में असफल हो सकती हैं, हम उनके विरूद्व आवाज़ उठा सकते हैं। उन सरकरों को गिराया जा सकता है, हटाया जा सकता है या सरकार का मुखिया स्वयं त्यागपत्र देकर ग़ैर जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए अपने पद से हट सकता है। यह सब कुछ हमने अपनी आंखों से देखा है। इतना अधिक समय भी नहीं बीता है कि हमारी याददाश्त साथ न दे। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद शहीद हुई, जिसके जिम्मेदार केन्द्र सरकार के मुखिया पी वी नरसिम्हा राव और परोक्ष रूप से उत्तर प्रदेश सरकार के उस समय के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह थे। उत्तर प्रदेश सरकार बर्खास्त की गई, कल्याण सिंह पर मुकदमा भी चला, सबूतों और गवाहों के आधार पर चला, कानूनी मांगों को पूरा करते हुए चला, सज़ा भी दी गई। क्या थी वह सज़ा? याद है आपको या भूल गए? एक दिन की सज़ा--! सुबह से शाम तक अदालत में खडे़ रहने की सज़ा-- कानून की रोशनी में न्यायालय द्वारा दिए गए इस न्याय पर कितनी आवाज़ें उठाइ गईं, क्या यह न्याय था? अपराध था बाबरी मस्जिद का विध्वंस और सज़ा कुछ घंटे। गुजरात में नरेन्द्र मोदी के मुख्यमंत्री रहते 2000 से अधिक मुसलमानों का नरसंहार किया गया। उच्चतम न्यायालय ने नरेन्द्र मोदी को ‘नीरो’ तक कहा, फिर क्या हुआ? परिणाम हम सब के सामने है। वह आज भी उसी राज्य के मुख्यमंत्री हैं। गुजरात दंगो के लिए राज्य सरकार से संबंध रखने वाली माया कोडनानी दंगों में लिप्त ठहराई गईं। क्या अपराध के अनुसार सज़ा मिल सकी? यह सभी उदाहरण प्रस्तुत करने का उद्देश्य यह नहीं कि अदालतों से भरोसा जाता रहे, उनके द्वारा किये गए न्याय को न्याय न माना जाए। ग़लती की संभावना तथ्यों तथा प्रमाणों को सामने रख कर किये गए फैसले में भी संभव है और यह फैसला जिसमें कानून से अधिक आस्था को महत्व दिया गया है, जिसमें हमारी जीत होनी चाहिए थी परंतु हार गए, लेकिन ऐसी हार जिसमें जीत के एहसास की संभावना बाक़ी है। मस्जिद के पुर्ननिर्माण की संभावना बाकी है, फिर भी हम इस फैसले पर नाराज़ हैं, स्वीकार नहीं करना चाहते, जबकि आगे का चरण हमारे लिए बहुत अधिक आशाजनक नहीं है। ज़रा सोचें, क्या वह लोग ऐसा कोई भी फैसला स्वीकार कर पाएंगें, जिसमें उनकी पूरी हार हो, जीत का क़तई एहसास न हो। यदि ऐस होता है तो फिर...... इस पर विचार करना होगा। हम कर सकते हैं अस्विकार इस फैसले को, इसलिए कि इस फैसले ने न्याय की मांग को पूरा करने के लिए आगे जाने के रास्ते बंद नहीं किए हैं, लेकिन एक सकारात्मक पहलू यह भी है कि इस फैसले ने साम्प्रदायिक सौहार्द के रास्ते खोल दिए हैं। ऐसी सभी आशंकाओं को दरकिनार कर दिया जिनको सोच-सोच कर 30 सितम्बर से पूर्व भारतीय जनता की एक बड़ी तादाद परेशान थी। रद्द कर दीजिए इस फैसले को, परंतु इस दृष्टि से यह फैसला प्रशंसनीय तो है कि इसने ठंडे दिमाग से सोचने का अवसर प्रदान किया है इस फैसले की रोशनी में। आपसी बातचीत से समस्या का समाधान निकालने का एक रास्ता भी दिया है और यदि इस सबके बावजूद हम सभी खतरों, सभी आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए उच्च्तम न्यायालय जाने का इरादा रखते हैं तो वह रास्ता भी कहां बंद है। संभव है यह निर्णय शुद्ध राजनीतिक निर्णय हो, यदि ऐसा है तो भी अलोचना के साथ-साथ इस बात को भी दिमाग़ में रखना होगा कि कितना साकारात्मक राजनीतिक दिमाग़ था, जिसने देश को 6 दिसम्बर 1992 जैसी परिस्थितियों से बचा लिया और आगे जाने का मार्ग प्रशस्त किया। यदि यह निर्णय कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की मिलीभगत का परिणाम है, तब भी खुले दिमाग़ से यह सोचना होगा कि क्या वास्तव में आज हमारी राजनीति इतनी गंभीर हो गई है कि दो अलग-अलग, बल्कि जो विरोधी दृष्टिकोण के आधार पर वोट प्राप्त करके सरकार बनाने का इरादा रखते हों, वह भी इस नाज़ुक समस्या पर एक राय हो सकते हैं? हां, हम इस निर्णय से घाटे में हैं, मगर जो मस्जिद खो चुके हैं, उसके स्थान पर मस्जिद प्राप्त करने का अवसर तो है, मस्जिद को शहीद करने वालों को सज़ा दिलवाने का अवसर तो है, बाक़ी मस्जिदों की सुरक्षा की बात करने का अवसर तो हैं। क्या हमें उन सभी विषयों पर नहीं सोचना चाहिए? क्या हमें कतई क़ौम और मुल्क की सुरक्षा के बारे में नहीं सोचना चाहिए? अगर ऐसे लोग भी हमारे बीच में हैं जिनके नज़दीक क़ौम और मुल्क के हितों से कहीं अधिक सिद्वांतों तथा नियमों के आधार पर प्राप्त किया जाने वाला निर्णय है, जिसे भले ही अमलीजामा नहीं पहनाया जा सके तो कृप्या कुछ समय के लिए स्वयं अपने आप को जज मान लें। वह सभी सबूत जिन्हें सामने रखकर आप फैसला पाना चाहते हैं, उनकी रोशनी में अपनी पसंद का एक फैसला काग़ज पर लिख लें और मन में रखें कि इस फैसले को लागू किया जाना भी संभव हो और देश की शांति भी बनी रहे। अगर हम फैसला देते समय स्वयं को इस दायित्व से अलग मानते हैं तो हमें विचार करना होगा कि हम किस हद तक देश तथा राष्ट्र के हितों को अपने ध्यान में रखते हैं। इस समय की समझौते की परिस्थितियों को क्या सुलह हुदैबिया की रोशनी में देखा जा सकता है? क्या हमारे रसूलुल्लाह हज़रत मोहम्मद मुस्तफा स.अ.व. ने अपने जीवन में विवादों को समाप्त करने के लिए नरमी का रूख इख्तियार नहीं किया? क्या हमें इसलाम के इतिहास में ऐसे उदाहरण नहीं मिलते? इस मामलें में अधिक बेहतर रोशनी तो हमारे उलेमा-ए-कराम ही डाल सकते हैं, परंतु इतना तो हम जिन्हें इस्लाम की थोड़ी भी जानकारी है, अच्छी तरह जानते हैं कि शांति तथा एकता के मद्देनज़र लिए गए ऐसे हर फैसले का परिणाम सकारात्मक ही सामने आया है।
हां, मगर इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि यदि एक बार क़ानून को नज़रअंदाज़ करके आस्था की बुनियाद पर निर्णय देने का चलन शुरू हो गया तो फिर मथुरा और काशी की मस्जिदों का क्या होगा? और पुरातत्व विभाग की निगरानी में जो मस्जिदें हैं, कल वह विवाद का शिकार बनती हैं तो आज के इस निर्णय का कितना प्रभाव उन सब पर होगा, इसलिए इस बात की गारंटी इस समय अवश्य ले लेनी चाहिए कि यदि देश के अंदर शांति तथा एकता को देखते हुए सभी सबूतों और तथ्यों की अनदेखी करते हुए इस निर्णय को स्वीकार किये जाने पर विचार हो तो यह अपनी तरह का पहला और अंतिम निर्णय हो, इसके बाद इस प्रकार का कोई और निर्णय स्वीकार्य नहीं होगा।
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Saturday, October 2, 2010
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4 comments:
By this judgement,it has
proved indirectly "the
justified babri mosque
demolished ".
So it is now easy for
hindu hardliners
recontinuue the rest
demolishing mosque
because they have
broked some parts of
mosque in 1992.
The judgement not a
decision but a
compromise which is
lived in closed room. It
can be exits same but
more fairly for which
the court fined on
Tirpati's appel for the
delay for solving these
dispute out of court.
These judges weighted
to faith and myth over
the law and truths. They
ignored that the country
not drive thorough the
faith and myth but
constitute and law .
The justic isn't a game
or a tournament which
is won by 2 by 1 as
these judgement came
in light as 2 by 1.
A judge who have
finished his terms of
judge on 1st october
proud on so called fair
judgement claimed that
the mosque built to
break the temple and
other judge said the the
mosque built on the so
called remaints temple
not broked on the
evidence of ASI.
A judge said that the
muslim failed to prove
about the manufeatuer
of mosque whether he
was the king Babur or
his commander Mir
baqi .he demanded
evidences for but not
faith of muslim who
claimed Babur was
builder although he
weighted to the faith of
the hindu faith who
claimed the their so
called god rama was
born the same spot of
the babri mosque .
The judgement proved
that muslim in india are
2nd class citizens.
Two know more about
the judgement of
compromise click at
http://
www.asianage.com/
india/decision-hon ’ble-
special-full-bench-
hearing-ayodhya-
matters-264
We indian claim that our
democracy is greatest
and grade 1 in world .
What ?
g Prof Suraj Bhan, an
eminent archaeologist said
that there is no shred of
evidence to indicate a
temple existed before Babri
Masjid. On the contrary, the
excavation indicates Muslim
inhabitation in before any
temple or anything. Historian
Irfan Habib maintained that
there’s no evidence to
indicate that there was any
temple.
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क्यों सब लोग चिल्लपों kar रहे है की न्याय नही हुआ है. हम तो कह रहे है कि हमे कोई ये बताये कि कब किसको यहाँ न्याय मिला है. हम तो लेखक से सिर्फ ये पूछना चाहते है कि अगर उनको ये फैसला करने को जनता कहती तो वो क्या न्याय देते? कौन सा फैसला लेते जो सबको मंज़ूर होता?
आप लोग इससे ऊपर उठ नही सकते क्या...कभी तो किसी चीज़ से संतुष्ट रहो. एक दिन सबको ये संसार छोड़ कर चले जाना है ये मंदिर-मज्जिद यही रह जायेंगे. बेहतर होगा कि आप देश के विकास और सर्वजन के हित के विषय पर अपना ध्यान दे अगर आप अच्छे इंसान और मीडिया कर्मी है............तो!
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