अमित शाह को देखा मैंने टेलीवीज़न चैनल पर, विजयी अंदाज़ में मुस्कुराकर जेल जाते हुए। एक क़ाफ़ला था अमित शाह के साथ। उनके चेहरे पर भी ऐसी ही ख़ुशी थी, मानो देश के लिए कोई बड़ा सम्मान पुरस्कार प्राप्त किया हो या किसी युद्ध में जीत कर आ रहे हों और यह जीत अमित शाह की बदौलत ही प्राप्त हुई हो। देखा मैंने कुछ लोगों को रास्ते में उनके माथे पर तिलक लगाते हुए, ऐसा भारतीय संस्कृति में हमारे हिंदू भाई किसी को सम्मान देने के लिए, आदर का स्थान देने के लिए करते हैं, टीका लगाते हैं, तिलक करते हैं। यह सम्मान, यह तिलक इसलिए था कि सीबीआई ने सोहराबुद्दीन फ़र्ज़ी एन्काउन्टर केस में अमित शाह के विरुद्ध कुछ सुबूत इकट्ठे किए हैं। अदालत द्वारा इस मामले में सीबीआई को जांच करने का आदेश जारी हुआ था। अमित शाह गुजरात राज्य में गृह राज्य मंत्री के पद पर थे, जिस समय उन्होंने सोहराबुद्दीन शेख़ के फ़र्ज़ी एन्काउन्टर केस में गहरी रुचि ली, जैसा कि अभी तक सामने आने वाली शहादतों से पता चलता है कि इस मामले में वह लिप्त हैं। टेलीवीज़न चैनल पर एक्सक्लूसिव समाचार के रूप में जब अमित शाह की यह विजय यात्रा दिखाई जा रही थी तो दर्जनों टेलीविज़न चैनलों के प्रतिनिधि अपने कैमरों के साथ हर तरफ से अमित शाह और उनके चाहने वालों को कैमरे में बंद कर लेना चाहते थे। यही हाल प्रिंट मीडिया के फोटोग्राफ़रों का भी था। मैं इस घटना की चर्चा इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि मैं एक विशेष मानसिकता की ओर तमाम भारतीयों का ध्यान दिलाना चाहता हूं। किस बात का जश्न था यह? आरोप सच्चा है या झूठा, अमित शाह सोहराबुद्दीन हत्या केस में लिप्त हैं कि नहीं, यह फैसला अदालत को करना है, परंतु यह आरोप उनके लिए कौनसी ख़ुशी का संदेश लेकर आया है जो रास्ते में तिलक की रस्म अदा की जा रही थी। साथ में नारे लगाता हुआ जुलूस था और कैमरे भी जो दृश्य क़ैद कर रहे थे, उससे यही अनुमान होता था कि इस घटना को कितना महत्व दिया जा रहा है। क्यों यह हमारे समाज के लिए लज्जित करने वाला नहीं था कि एक व्यक्ति को हत्या में शामिल होने के आरोप में जेल की सलाख़ों के पीछे भेजा जा रहा है? क्यों उसे अपराधबोध नहीं था? क्यों उसके साथ चलने वाले लज्जित नहीं थे? अगर सोहराबुद्दीन शेख़ अपराधी भी था, जैसा कहा अमित शाह ने, और प्रकाश जावडेकर ने एक टेलीविज़न चैनल पर चर्चा में भाग लेते हुए या फिर नरेंद्र मोदी ने या उस पार्टी के ज़िम्मेदारों ने, अगर इसको सही भी मान लिया जाए तो भी क्या किसी अपराधी को बिना किसी अदालती फैसले के खुले आम हत्या करने का फैसला प्रशंसनीय है? तब तो किसी अदालत की ज़रूरत ही नहीं? किसी मुक़दमे की आवश्यकता ही नहीं? एक राज्य का गृह मंत्री अपने मातहत पुलिस अधिकारियों को आदेश दे और हत्या कर दी जाए, क्या यह उचित है? अगर हां तो फिर अदालतों का क्या महत्व है। अगर नहीं तो सोहराबुद्दीन के मामले में फैसला अदालत को करना था, आज भी अदालत के बाहर उसे आतंकवादी या अपराधी सिद्ध करने वाले क्या अदालत को प्रभावित करने का प्रयास नहीं कर रहे हैं? क्या अपने प्रभाव तथा पहुंच और राजनीतिक शक्ति से अदालतों की स्वतंत्रता छीन लेने का हथियार नहीं है यह?
प्रधानमंत्री के खाने की दावत में भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने शामिल होने से इन्कार कर दिया, इसलिए कि वह नाराज़ थे अमित शाह के सीबीआई के शिकंजे में फंस जाने से। वह सीबीआई पर आरोप लगा रहे थे, क्या भारतीय जनता पार्टी के नेताओं का यह व्यवहार उचित क़रार दिया जा सकता है? यह पहला अवसर नहीं है, जब भारतीय जनता पार्टी ऐसे सभी लोगों को किसी भी क़ानून से ऊपर समझती है, जो उसकी सोच से मेल खाते हैं, फिर चाहे वह कितने ही बड़े अपराध में लिप्त क्यों न हों। यही किया था लाल कृष्ण आडवानी ने साध्वी प्रज्ञा सिंह की गिरफ़्तारी और उसके शपथ पत्र के बाद। इलैक्शन का समय था, लाल कृष्ण आडवानी माले गांव बम ब्लास्ट की आरोपी साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर का शपथ पत्र लिए घूम रहे थे। वह गृह मंत्री से मिले, प्रधानमंत्री डा॰ मनमोहन सिंह से मिले। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने उनके घर पर हाज़री दी, उद्देश्य साध्वी प्रज्ञा सिंह निःसंदेह आरोपी हों, उनके साथ सम्मान तथा आदर का व्यवहार किया जाए और जेल को उनके लिए शाही मेहमान ख़ाना बना दिया जाए। हमने देखे हैं साध्वी प्रज्ञा सिंह के वे चित्र, जब शहीद हेमंत करकरे ने मालेगांव बम ब्लास्ट के बाद उसे जेल की सलाख़ों के पीछे भेजा था। कितना परेशान तथा भयभीत चेहरा था वह जब पुलिस कांस्टेबल साध्वी प्रज्ञा सिंह को जेल की ओर ले जा रही थीं, लेकिन शहीद हेमंत करकरे की हत्या के बाद फिर एक और चित्र हमारे सामने था, दृश्य अब भी जेल के लिए ले जाए जाने का था, परंतु इस बार एक खिलखिलाता, मुस्कुराता चेहरा हमारे सामने था। हम यह दोनों चित्र पाठकों के सामने अपने इस लेख के साथ प्रस्तुत करने जा रहे हैं, ताकि वह दोनों की तुलना कर सकें इसलिए कि यह चित्र बहुत कुछ बोलते हैं, साध्वी प्रज्ञा सिंह के हों या अमित शाह के।
अमित शाह के केस को सामने रख कर एक टेलीविज़न चैनल ने सीबीआई की भूमिका पर चर्चा का एक कार्यक्रम प्रस्तुत किया। भाग लेने वालों में भारतीय जनता पार्टी के प्रकाश जावडेकर और कांगे्रस के मोहन प्रकाश थे। जब जब मोहन प्रकाश ने अमित शाह के अपराध और सीबीआई की भूमिका को सामने रखने का प्रयास किया, बात को पूरा करने का अवसर नहीं मिला। साथ ही प्रश्न को सीमित रखा गया केवल इस बात तक कि सीबीआई का राजनीतिक प्रयोग हो रहा है या नहीं। दर्शकों के विचार भी इसी प्रश्न की रौशनी में मंगाए गए। हम किसी एक चैनल की बात नहीं करंे तो भी अनेक अवसरों पर देखा है हमने कि ऐसे मौक़ों पर एंकर पूरी तरह निष्पक्ष नहीं रह पाते। सीबीआई का राजनीतिक प्रयोग हो रहा है या नहीं, यह चर्चा का विषय है, जिस पर चर्चा ज़रूर होनी चाहिए और इस दायरे को इतना विस्तृत कर देना चाहिए कि कब कब, किस किस सरकार ने, किन किन मामलों में सीबीआई का अवैध प्रयोग किया और फिर उन सबको सबके सामने रखा जाना चाहिए, परंतु आज अगर सवाल यह होता कि अमित शाह की गिरफ़्तारी को एक जश्न का रूप दिया जाना चाहिए या नहीं और उसे जश्न का रूप देने वाले एक आरोपी का विजयी अंदाज़ में जेल जाना आख़िर किस मानसिकता को दर्शाता है। तो बात कुछ और होती परंतु नहीं, शायद ऐसे विषय चर्चा के योग्य नहीं समझे जाते। अगर हम यह मानते हैं कि अमित शाह उस समय तक अपराधी नहीं ठहराए जा सकते जब तक उनका अपराध सिद्ध न हो जाए तो फिर यह केवल अमित शाह के साथ ही क्यों, अन्य सैकड़ों, हज़ारों अपराधी भी तो उस समय तक अपराधी ठहराए नहीं जा सकते, जब तक कि उनका अपराध सिद्ध न हो जाए। हमने कितनी बार, कितने लोगों का ऐसा ख़ुशी भरा जुलूस देखा है, जिन पर हत्या या आतंकवाद का आरोप हो। मैंने यहां हत्या तथा आतंकवाद को एक साथ इसलिए लिखा कि जब इस अंदाज़ में हत्या की घटनाएं घटित होती हैं, उन्हें आतंकवाद से किस हद तक अलग रखा जा सकता है, यह कोई ज़मीन जायदाद का मामला नहीं था, यह कोई रुपए पैसे के लेनदेन या पारिवारिक दुश्मनी नहीं थी परंतु इस जश्न का विजयी अंदाज़ यही दर्शाता है, फिर बात अमित शाह की हो या नरेंद्र मोदी की या कुछ और पीछे जा कर देखें तो नाथु राम गौडसे की, इस विशेष मानसिकता रखने वाले लोग क़ानून को अपने हाथ में लेकर धर्मनिर्पेक्षता, साम्प्रदायिक सदभावना तथा क़ानून की हत्या करना अपने लिए गौरव की बात समझते रहे हैं। उस समय भी नाथु राम गौडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की थी तो कुछ क्षेत्रों में मिठाइयां बांटी गईं, नाथु राम गौडसे को छुड़ाने के यथासंभव प्रयास किए जाते रहे, यहां तक कि बड़े घरों की महिलाओं ने उसके लिए स्वेटर बुन कर भेजे। यह सब उदाहरण हैं, उस मानसिकता को समझने का और इसे समझने की अत्यंत आवश्यकता है, इसलिए कि हमारा देश सारी दुनिया में शांति तथा एकता और गंगा जमनी संस्कृति के लिए ही जाना जाता है। आज ऐसे लोग अपने राजनीतिक उद्देश्यों के मद्देनज़र न केवल उन परम्पराओं का ख़ून कर रहे हैं बल्कि देश को साम्प्रदायिकता तथा आतंकवाद की आग में भी झोंक रहे हैं।
शहीद हेमंत करकरे के हत्या 26/11 को हुए आतंकवादी हमले की एक घटना थी या कुछ और’ह्न? जैसे-जैसे समय बीतेगा यह हक़ीक़त भी सामने आ ही जाएगी, परंतु आज जिन दृश्यों की चर्चा करते हुए मैंने अपने लेख की शुरूआत की, उससे बहुत अलग शहीद हेमंत करकरे की हत्या का माहौल भी नहीं था। ऐसी तमाम रिपोर्टें आज भी सुरक्षित हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है कि जांबांज़ पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे की हत्या की ख़बर के बाद नरेमन हाऊस में ख़ुशियां मनाई गईं। हमने अपने पिछले क्रमवार लेख ‘‘मुसलमानाने हिंद’ह्न माज़ी, हाल और मुस्तक़बिल???’’ की 100वीं क़िस्त में इस घटना के विवरण को प्रकाशित किया है। हमारे पाठक इन घटनाओं से भी अनभिज्ञ नहीं होंगे, जिनमें 26/11 को हुए आतंवादी हमले से पूर्व उन्हें जान से मारने की धमकियां दी जा रही थीं।
मालेगांव बम ब्लास्ट की वास्तविकता बेनक़ाब हो गई तो देश व्यापी स्तर पर क्या हंगामा खड़ा हुआ, प्रतिरक्षा में कौन कौन से चेहरे सामने आए, कितने जलसे-जुलूस आयोजित किए गए, साध्वी प्रज्ञा सिंह को एक नायक के रूप में प्रस्तुत करने के कितने प्रयास किए गए। बाल ठाकरे ने प्रज्ञा सिंह की शान में कितने गुणगान किए, मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकीं उमा भारती ने अपने टिकट पर चुनाव लड़ाने का निमंत्रण दिया, उसके बाद जब जब भी ऐसे लोग जो एक विशेष समुदाय से संबंध रखते हैं, आतंकवाद के आरोप में गिरफ़्तार हुए या उनके नाम आतंकवादी मामलों में लिप्त नज़र आए, इस विशेष मानसिकता के लोगों ने हंगामा खड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अगर हम क़ानून को, पुलिस को और ख़ुफ़िया एजेंसियों को, सरकारों को इसी तरह प्रभावित करने की कोशिशें करते रहेंगे तो फिर आतंकवाद की घटनाओं में कमी कैसे आएगी, निष्पक्ष जांच या न्याया कैसे होगा? क्या हमने यह मन बना लिया है कि किसी भी बम धमाके के बाद, किसी भी आतंकवादी हमले के बाद अगर एक विशेष समुदाय के लोग गिरफ़्तार किए जाएंगे, जेल की सलाख़ों के पीछे भेजे जाएंगे तो चाहे वह अपराधी हों या न हो, हम स्वीकार कर लेंगे कि हां यही आतंकवादी हैं, इन्हें ही आतंकवादी सिद्ध होना चाहिए। देश भर में उनके नामों और धर्म का प्रचार होगा, इनके हवाले से एक पूरे समुदाय को बदनाम करने का सिलसिला शुरू होगा। पुलिस तथा ख़ुफ़िया एजेंसियों की जांच उसी दिशा में आगे बढ़े कि वह आरोपी क़रार पाएं, इस तरह का माहौल पैदा किया जाएगा, इतने धरने प्रदर्शन होंगे, इतनी आवाज़ें उठेंगी, मीडिया के लिए लगातार ऐसे ही समाचार सामने रखना मजबूरी बन जाएगा। परिणाम अदालत का मन बनाना कि वह अपराधी हों या न हों, वही अपराधी ठहराए जाएं और सज़ा के पात्र समझे जाएं। यह माहौल इस हद तक इस देश पर हावी हो गया है कि जो ऐसे अपराधियों की हक़ीक़त जानते हैं। भले ही वह बटला हाऊस एन्काउन्टर में मारे गए आतिफ़ और साजिद ही हों कि उनके पक्ष में आवाज़ उठाने वालों को आतंकवादियों का हितैषी ठहराकर उनको हतोत्साहित किया जाएगा, उन्हें अपमानित किया जाएगा, भले ही उनमें यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर जैसे व्यक्ति का नाम ही शामिल क्यों न हो। कारण जिन्हें अपराधी सिद्ध करना है, वह अपराधी हों न हों, उनके विरुद्ध ऐसा माहौल तैयार किया जा सके कि कोई वकील उनका केस लड़ने का साहस कर सके। अगर कर भी ले तो अपनी जान से हाथ धोने के लिए तैयार रहे। ऐसी घटनाएं घट चुकी हैं मुम्बई के एडवोकेट शाहिद आज़मी का उदाहरण हमारे सामने है और अपनी तरह का यह अकेला उदाहरण नहीं है, हम अच्छी तरह जानते हैं लखनऊ, हुबली और धारवाड़ की जनसभाओं में हमने ऐसे वकीलों की कठिनाइयों की कहानी स्वयं अपने कानों से सुनी है। उनकी परेशानियों को अपनी आंखों से देखा है। यानी माहौल ऐसा तैयार किया जाता है कि न तो कोई उनका केस लड़ने और न कोई उनकी पैरवी के लिए आगे आए और जिन्हें बेगुनाह ठहराना है, चाहे वह कितने बड़े अपराधी हों आख़री फैसला आने से पूर्व उनके विजय जुलूसों द्वारा ऐसा माहौल तैयार किया जाए कि वह कभी सज़ा न पा सकें और अगर सज़ा के योग्य ठहराए भी जाएं तो समाज का एक बड़ा वर्ग उनके समर्थन में इस तरह खड़ा हो जैसे उन्होंने कोई महान कार्य अंजाम दिया है।
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1 comment:
एकदम सटीक विवरण.......
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