Tuesday, July 13, 2010

अमरनाथ यात्रा की राजनीति पर चर्चा जारी रहेगी लेकिन....
अज़ीज़ बर्नी

अमरनाथ यात्रा पर अभी बहुत कुछ लिखे जाने की ज़रूरत है। इसलिए कि गहराई में जाने से अंदाज़ा होता है कि यह यात्रा केवल धार्मिक बुनियादों पर नहीं है, बल्कि इसमें साम्प्रदायिक शक्तियों की गहरी साज़िश नज़र आती है, लेकिन जैसा कि पाठकों को मालूम है कि मैं ‘कश्मीर समस्या’ को उसके आरंभ से लेकर चल रहा हूं और ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के हवाले से वह सभी तथ्य सामने लाने के प्रयास कर रहा हूं, जिन्हें समय की धूल ने न जाने कहां गुम कर दिया है। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ जो महाराजा हरि सिंह के द्वारा सरदार पटेल को लिखे गए पत्र के रूप में मेरे सामने है, मैं अपने आज और कल के लेख में इस पत्र को सम्मिलित कर रहा हूं। मैंने इस पत्र के चंद वाक्यों को इसलिए अंडरलाइन कर दिया है कि बाद में उस पर गुफ़्तुगू करूंगा। ठीक इस तरह जैसे कोई वकील अदालत में कार्यवाही के दौरान जज के सामने कोई विशेष बिंदु प्रस्तुत करने के बाद निवेदन करता है कि प्वाइंट टु बी नोटेड मि-लाॅर्ड’ ;च्वपदज जव इम दवजमक उम सवतकद्ध मैं इस पर बाद में चर्चा करने की अनुमति चाहूंगा, इसलिए मुलाहिज़ा फरमाएं यह महत्वपूर्ण दस्तावेज़, इसके बाद इन्शाअल्लाह गुफ़्तुगू का सिलसिला जारी रहेगा।
महाराजा हरि सिंह का ख़त सरदार पटेल के नाम
सरदार पटेल के प्रकाशित पत्र-व्यवहार के वाॅल्यूम नं॰ एक के अनुसार 31 जनवरी 1948 को महाराजा हरि सिंह ने एक लम्बा पत्र लिखा जिसमें उन्होंने अपनी मानसिक पीड़ा का उल्लेख किया है। उन्होंने अपने पत्र में लिखा है कि ‘भारतीय सेना के आने के बाद से ही सैनिक परिस्थितियां विडंबनापूर्ण हो गई हैं। कुछ शुरूआती फायदे के अलावा जहां तक उपलब्धियों का प्रश्न है परिस्थितियां नकारात्मक रही हैं।’
घाटी में भारतीय सेना लगभग 27 अक्तूबर को आई जब हमारे क़ब्ज़े में 3 चैथाई पुंछ और पूरा मीरपुर ज़िला था, तबसे हमने पुंछ का एक छोटा भाग और मुज़फ़्फ़राबाद ज़िला खोया है। बारहमूला और ऊरी पर दोबारा क़ब्ज़ा होने के बाद हालात जस के तस हैं, 2 माह बीत चुके हैं और भारतीय सेना अभी तक ‘उरी’ में ठहरी हुई है। सेना ने पुंछ शहर की ओर बढ़त बनाई और हालांकि वह वहां पहुंची भी, लेकिन बड़ी क़ीमत अदा करने के साथ और अंततः पुंछ जाने वाली सड़क नष्ट हो गई। पुंछ जागीर जिसके चप्पे चप्पे पर राज्य की सेना का क़ब्ज़ा था, हमें यहां से पीछे हटना पड़ा और अंततः शहर के अलावा पूरी जागीर को खोना पड़ा जहां 40 हज़ार जनता और 4 बटालियन (3 रियासती और एक भारतीय) के साथ घेरे में थे। हालात किसी भी तरह से संतोषजनक नहीं हैं। मैं यहां चर्चा करना चाहूंगा कि अगस्त महीने की हलचल में राज्यीय सेना की दो बटालियन के सहयोग से पूरी पुंछ जागीर पर दोबारा नियंत्रण कर लिया गया। शांति स्थापित हुई पूर्ण राजस्व प्राप्त हुआ और प्रशासन अपना काम करने लगा। अक्तूबर के दूसरे सप्ताह में पुंछ में दोबारा परेशानियां बढ़नी शुरू हुईं और हमारी फौजों ने दिसम्बर के अंत तक उसकी प्रतिरक्षा की, लेकिन कोई मदद नहीं प्राप्त हुई और आख़िरकार पुंछ शहर से पीछे हटना पड़ा।
महाराजा हरि सिंह आगे लिखते हैं कि ‘मीरपुर जि़्ाला में जब भारतीय सेना पहुंची हमारे क़ब्ज़े में मंगला, जेहलम नहर के किनारे के क्षेत्र हमारे क़ब्ज़े में थे, लेकिन पिछले दो महीनों के भीतर हमारे क़ब्ज़े से मंगला, अली बेग, गुरुद्वारा और मीरपुर शहर, भीमबर शहर, देवा और बटाला गांव, राजोरी शहर, छाम्ब और नौशैरा से लगे सभी क्षेत्र निकल गए। मीरपुर और कोटली दोनों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान झांगर को एक पराजय के बाद खोना पड़ा। यह असफलताएं हम पर तो बहुत भारी पड़ी ही हैं, साथ ही भारतीय सेना के सम्मान को भी क्षति पहुंची है। जनता सेना का परिणाम के आधार पर निर्णय करती है न कि उसके बारे में जारी प्रोपेगंडे से। कठुआ, सियालकोट सीमा पर हमले तेज़ हो गए हैं। हर दिन एक के बाद एक अचानक हमले हो रहे हैं। कई गांवों को आग में झोंका जा चुका है। जनता को लूटा गया है, महिलाओं को अपहरण किया गया है और हत्या के भी मामले पाए गए हैं। इसके नतीजे में तमाम सीमावर्ती गांव ख़ाली किए जा चुके हैं और जम्मू शहर में 70 से 80 हज़ार मुहाजरीन शरण लिए हुए हैं। फ़सल, घर और क़ीमती चीज़ें नष्ट हो चुकी हैं। अधिकतर लोग जम्मू और उसके आसपास के क्षेत्र छोड़कर पश्चिमी पंजाब जा रहे हैं। ऐसे में हालात दिन ब दिन ख़राब हो रहे हैं।
‘भारतीय सेना के बेहतरीन रिकाॅर्ड के बावजूद उसका नाम मिट्टी में मिल रहा है। मैं युद्ध से संबंधित केबिनेट का सदस्य था। विश्वयुद्ध के दौरान मैंने जंग के मैदान का निरीक्षण किया था। भारतीय सेना का नाम सम्मान के साथ लिया जाता था, लेकिन मुझे यह देख कर पीड़ा होती है कि हर एक ज़्ाुबान पर चर्चा का विषय फौज बन गई है और हर बीतते दिन के साथ उसका सम्मान कम हो रहा है। कुछ लोगों का विचार है कि यह फौज की ग़लती नहीं है बल्कि उसकी नीति का खोट है जिस पर अमल किया जा रहा है। कई लोगों का ख़याल है कि यह कमान्डर की ग़लती है जो इस काम के लिए नए हैं। जिन सैनिक अधिकारियों को 10 से 15 वर्ष जनरल बनने के लिए प्रतीक्षा करनी होती है उसे इस आप्रेशन का इंचार्ज बना दिया गया है।
लोगों के विचार में मदभेद हो सकता है लेकिन हक़ीक़त यह है कि भारतीय सेना का नाम मिट्टी में मिल रहा है। सरदार बलदेव सिंह एक दिन के लिए यहां आए थो। हमारे राजनीतिज्ञों, जनता के प्रतिनिधियों, मुझे स्वयं तथा मेरे प्रधानमंत्री को जो कुछ कहना था जो उन्होंने सुना। इसके बाद उन्होंने मुझे गुप्तरूप से बताया कि उन्होंने कुछ क़दम उठाने के लिए आदेश दिया है। मैंने उनसे कहा कि सिर्फ़ आदेश से कुछ नहीं होने वाला है जब तक उस पर कार्यवाही न हो। जब आपने हम लोगों के साथ यहां दो दिन बिताए थे तब कई फैसले लिए गए थे और कई मामलों में आपने निर्देश भी दिए थे। आपके जाने के बाद कुछ भी नहीं हुआ और जैसा कि मैंने अर्ज़ किया हमारे ऊपर गंभीर क़िस्म के हमले हो रहे हैं। इस कार्यवाही के नतीजे में पाकिस्तान दिन प्रति दिन आगे बढ़ रहा है। सफलता के कारण उनका उत्साह बढ़ रहा है। वह संपत्तियां को लूट रहे हैं और जब वह पाकिस्तान वापस जा रहे हैं तो अपने साथ पशुओं और महिलाओं को भी ले जा रहे हैं। वह जनता को उकसा रहे हैं और लोगों को बता रहे हैं कि कितना लूटा और उनके क्षेत्र में हमले के क्या फायदे हैं। दूसरी ओर हमारा उत्साह पस्त हो रहा है और जहां तक जनता का संबंध है उनका उत्साह पूरी तरह टूट चुका है और किसी भी अफ़वाह से पहले भाग खड़े हो रहे हैं। सुदूर क्षेत्रों में रहने वाली जनता अपने गांव से 5 या 6 मील की दूरी पर अगर दिखाई देती हैं तो गांव छोड़ कर भाग जाती है। जहां तक भारतीय सेना का प्रश्न है वह अपने निर्धारित स्थानों को छोड़ कर हमलाआवरों से मुक़ाबले के लिए नहीं जाते हैं और न ही ऐसी व्यवस्था है कि उनसे लड़कर वापस आए।
इस काम की आशा कुछ होमगार्डों या लगभग थकी हुई एक पलटन व राज्य की सेना से की जा रही है, लेकिन उनके लिए 500 या एक हज़ार हमलावरों को रोक पाना किस तरह संभव हो सकता है? पिछली बार आपने गुरिल्ला फौज को राज्य में भेजने का आदेश दिया था और इस काम की ज़िम्मेदारी लेने को कहा था। जहां तक मैं जानता हूं अभी तक कोई भी गुरिल्ला फौज नहीं आई है।
ह्न ह्न ऐसे हालात में शासक के रूप में मेरी स्थिति अत्यंत बुरी और आश्चर्यजनक हो जाती है। राज्य की जनता लगातार मुझे टेलीग्राम भेज रही है और सहायता मांग रही है। हमारा सिविल प्रशासन नेशनल कान्फ्ऱेंस के हाथों में है और सैनिक कार्यवाही का ज़िम्मा भारत के हाथों में है। सिविल या सैनिक स्तर पर न तो मेरी कोई आवाज़ है और न ही कोई ताक़त। राज्य की सेनाएं भारतीय सेना के कमान्डर के आदेश के अधीन हैं। इस तरह परिणाम यूं है कि मैं भयानक परिस्थितियों को देख रहा हूं। महिलाओं के अपहरण और अपनी जनता की हत्या तथा लूटमार को बेबसी के साथ देखने के अलावा बिना ताक़त के मैं उनकी आवश्यकता के अनुसार मदद भी नहीं कर सकता हूं। हर दिन लोग मेरे पास आ रहे हैं और लोगों को आज भी विश्वास है कि यह मेरे अधिकार में है कि मैं उनकी सहायता करूं और उनकी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करूं। आप समझ रहे होंगे कि दिन प्रति दिन मेरी स्थिति बहुत बुरी होती जा रही है। एक ओर यहां तक सैनिक हालात हमारे पक्ष में नहीं हैं और शहर में शरणार्थियों की भारी संख्या प्रवेश कर रही है और बिना हमारे जवाबी हमले के पाकिस्तान अचानक हमले किए जा रहा है।
उसके बाद वह लिखते हैं ‘फौजी हालात के अलावा संयुक्त राष्ट्र से संबंधित जो कार्यवाही लम्बित है, उससे न केवल मुझे बल्कि तमाम हिंदुओं और सिखों के साथ राज्य के वह लोग जो नेशनल कान्फ्ऱेंस से संबंध रखते हैं, के लिए अनिश्चितता की स्थिति और उलझाव पैदा हो रहा है। यह भावनाएं सुदृढ़ होने का औचित्य प्राप्त कर रहा है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद नकारात्मक फैसला करेगी और आख़िरकार राज्य का पाकिस्तान के साथ विलय हो जाएगा। ऐसे में हिंदु और सिख जनता ने राज्य से बाहर निकलना शुरू कर दिया है। उन लोगों का विचार है कि संयुक्त राष्ट्र के फैसले का परिणाम वैसा ही होगा जैसा पश्चिमी पंजाब में हो चुका है और इसलिए दुर्घटना से पहले राज्य से बाहर निकलना ही बेहतर है। नेशनल कान्फ्ऱेंस के नेता भी ऐसा महसूस करते हैं कि अंततः संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के फैसले को स्वीकार करने में उनको निराशा होगी और यह किसी बड़ी दुघर्टना से कम नहीं होगी।
इस मामले में मेरी स्थिति चिंता जनक है। आप जानते हैं कि मैं निश्चित रूप से भारत के साथ विलय करूंगा, इस विचार के साथ कि भारत मुझे मुसीबत में नहीं छोड़ेगा और मेरी स्थिति और मेरे शाही रुतबे सुरक्षित रहेंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि आंतरिक व्यवस्था के मामले में मैंने भारत सरकार के सुझाव को स्वीकार किया है। अगर हमें पाकिस्तान के साथ जाना होता तो यह पूरी तहर से अनावश्यक होता कि भारत के साथ विलय किया जाए और अपनी आंतरिक व्यवस्था को भारतीय संघ की इच्छा के अनुसार परिवर्तित किया जाए। मुझे लगता है कि आंतरिक व्यवस्था या विलय का प्रश्न पूरी तरह से सुरक्षा परिषद के अधिकार क्षेत्र से बाहर है, लेकिन पूरे मामले को बढ़ाया गया है ‘डोमीनियन’ के द्वारा दूसरे ‘डोमीनियन’ पर हमले पर सुरक्षा परिषद के द्वारा विचार नहीं किया गया। लेकिन एक अंत्रिम सरकार के गठन और विलय से जुड़े आंतरिक प्रश्नों का उनके द्वारा नोटिस लिया गया है। सुरक्षा परिषद में जाना और फिर उस परिषद के सामने एजंडे के विस्तार पर सहमत होना एक ग़लत क़दम था। जितनी जल्दी परिषद ने एजंडे का विस्तार किया, भारतीय संघ को रेफ्ऱेंस से हाथ वापस खींच कर मामले को समाप्त कर देना चाहिए।
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