अमरनाथ यात्रा श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र है, यह हक़ीक़त अपनी जगह, लेकिन उसके पीछे छुपी जिस राजनीति की ओर मैंने अपने कल के लेख में इशारा किया था, वह पहलु भी नज़रअंदाज़ किए जाने योग्य नहीं है। इस सिलसिल में कहने के लिए अभी बहुत कुछ बाक़ी है। मगर जिस महत्वपूर्ण विषय से मैं आज अपनी बातचीत आरंभ करने का इरादा रखता हूं वह भी कम विचारणीय नहीं है, बल्कि सच तो यह है कि आज की गुफ़्तुगू में आपको देश के विभाजन की हक़ीक़त भी नज़र आने लगेगी और हमारा देश जिन साम्प्रदायिक दंगे का शिकार रहा है या आज हम जिस आतंकवाद के दौर से गुज़र रहे हैं, इस सबकी पृष्ठभूमि में भी आपको वह गंदी राजनीति नज़र आने लगेगी जिसकी लपेट में आज़ादी के बाद से कश्मीर ही नहीं बल्कि पूरा भारत रहा है।
आइये फिर चर्चा करते हैं कश्मीर की। लेकिन आज केवल वर्तमान हालात की नहीं बल्कि देश के विभाजन के बुनियादी कारणों को समझने की द्वी राष्ट्रीय विचारधाराओं के दर्शन की हक़ीक़त को बेनक़ाब करने की क्या मुसलमानों की अकसरियत अपने लिए एक अलग देश चाहती थी। इस आरोप का सच सामने रखने के लिए आज मैं कश्मीर को एक उदाहरण के रूप में सामने रख कर बात कर रहा हूं। कश्मीरी जनता भारत के साथ मजबूरी में है या अपनी इच्छा के अनुसार। यह जानने के लिए हमें दो बातों में से किसी एक को स्वीकार करना ही होगा।
1. कश्मीरी अपनी पसंद से, अपनी इच्छा के अनुसार भारत के साथ जुड़े हैं। अगर सच यह है तो पिछले 61 वर्षों में, विशेषरूप से 1989 के बाद कश्मीरी संगीनों के साए में रहने को मजबूर क्यों हैं’ह्न? अगर उन्होंने अपनी इच्छा से भारत के साथ रहने का फैसला किया था तो फिर आज ज़ोर- ज़बरदस्ती का कारण क्या है’ह्न? कश्मीर में फौज की आवश्यकता क्यों है’ह्न? यह पृथकतावाद का प्रश्न क्यों है’ह्न? कश्मीर में आतंकवाद क्यों है’ह्न? वहां आए दिन मासूम बच्चों से लेकर बुज़्ाुर्ग पुरुष व महिलाएं तक पुलिस की गोली और ज़्यादतियों के शिकार क्यों हैं? इन प्रश्नों का जवाब देना होगा।
2. अगर कश्मीरियांे का फैसला अपनी इच्छा के अनुसार भारत के साथ विलय नहीं था, बल्कि हम चाहते थे कि कश्मीर हमारे देश का अंग बना रहे इसलिए हमने नहीं चाहा कि कश्मीर पाकिस्तान के साथ शामिल हो या अपने अलग अस्तित्व की बात करे।
अगर सच यह है तो हमें फिर कुछ प्रश्नों का जवाब देना होगा। लेकिन कुछ भी लिखने से पूर्व मैं एक भारतीय होने के नाते अपनी सरकारों को कम से़ कम इस बात के लिए बधाई देना चाहूंगा कि उसने अगर यह चाहा कि कश्मीर भारत के साथ रहे और आज 63 वर्षों के संघर्ष के बाद भी कश्मीर भारत के साथ है तो यह उसकी सफलता है, यह हमारी सरकारों की रणनीति की सफलता है, और फिर जो कुछ भी कश्मीर में हो रहा है उसके बारे में यही समझा जाएगा कि यह जंग के हालात हैं और मुहब्बत तथा जंग में सब कुछ जाइज़ है।
लेकिन अब एक सवाल यह पैदा होता है कि अगर हम ताक़त के बल पर 80 प्रतिशत मुसमलानों की अकसरियत वाले राज्य कश्मीर को अपने साथ बनाए रखने में सफल हो सकते हैं तो फिर पाकिस्तान का अस्तित्व ही अमल में क्यों आया। हम बाक़ी मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को अपने साथ रखने में कामयाब क्यों नहीं हुए। अगर भारत का मुसलामन या भारत के अधिकांश मुस्लिम बहुल क्षेत्रों से पृथकता की आवाज़ उठ भी रही थी तो हमने उन्हंे इसी तरह क्यों नहीं दबा दिया जिस तरह कि हमने कश्मीरियों के पृथकता वाद की आवाज़ को दबाने में सफलता प्राप्त की। यानी अगर हम दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ यह फैसला कर लेते कि धर्म के नाम पर देश का विभाजन न हो तो यह संभव था और हम ऐसा कर सकते थे। कश्मीर का उदाहरण आज हमारे सामने है। यानी हमारी ताक़त इतनी थी कि हमारे राजनीतिज्ञों की मज़बूत इच्छा शक्ति, धर्म के नाम पर बटवारे की मांग को रद्द कर सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हमारी जो साम्प्रदायिक सोच जिसने पहले हिंदु महासभा और बाद में संघ परिवार को जन्म दिया देश के विभाजन से आज तक कश्मीर के संदर्भ में भी नज़र आई और आज़ादी के समय भी देश के विभाजन के लिए ज़िम्मेदार थी और पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के लिए भी।
अब अत्यंत गंभीर और महत्वपूर्ण प्रश्न: तो क्या मान लिया जाए कि दोनों ही बातें हमारे राजनीतिज्ञों की इच्छा के अनुसार थीं और हैं। यानी हमारी राजनीति चाहती थी कि पाकिस्तान अस्तित्व में आए, इसलिए देश का विभाजन हुआ और पाकिस्तान बना। हमारे राजनीतिक नेता नहीं चाहते थे कि कश्मीर का विलय पाकिस्तान के साथ हो या वह अपनी एक अलग पहचान के साथ आज़ाद राज्य के रूप में जाना जाए इसलिए ऐसा ही हुआ। यानी हमने जब जब जो जो चाहा वैसा ही हुआ।
अब हमारे बुद्धिमान राजनीतिज्ञ एक प्रश्न हमसे कर सकते हैं कि आख़िर मैं कहना क्या चाहता हूं। क्या मैं यह साबित करने का प्रयास कर रहा हूं कि पाकिस्तान का अस्तित्व में आना केवल मुहम्मद अली जिन्नाह की या मुसलमानों की इच्छा नहीं थी बल्कि उस समय भारत के लगभग सभी प्रभावशाली फैसला लेने की हैसियत रखने वाले राजनीतिज्ञ चाहते थे की देश का बटवारा हो। जी हां, ठीक समझा आपने यही कहना और साबित करना चाहता हूं मैं। कश्मीर की मिसाल हमारे सामने है। 80 प्रतिशत मुस्लिम अकसरियत वाला यह राज्य पाकिस्तान के साथ शामिल न हो या अपना अलग अस्तित्व स्थापित न कर सके हमने यह चाहा और हम ऐसा कर गुज़रे। मैं फिर कहूंगा कि अगर आप यह कहेंगे कि यह फैसला कश्मीरियों का अपना फैसला था तो फिर आपको इस प्रश्न का जवाब देना होगा कि कश्मीर में पृथकतावाद की आवाज़ें क्यों हैं? और उन्हें दबाने के लिए ताक़त का प्रयोग क्यों? मैं वापस अपनी बात की तरफ़ आता हूं। दरअसल उस समय के राजनीतिज्ञ कम से कम साम्प्रदायिक राजनीतिज्ञ जो धर्मनिर्पेक्ष कांग्रेस में रहते हुए भी इतने शक्तिशाली थे कि उनके फैसले को रद्द करने की हैसियत में हमारे देश के अन्य धर्मनिर्पेक्ष माने जाने वाले राजनीतिज्ञ नहीं थे। वह चाहते थे कि भारत का बटवारा हो। मुस्लिम बहुल्य सीमावर्ती क्षेत्र भारत से अलग हो जाएं। इसलिए कि देश को चलना था लोकतांत्रिक मूल्यों पर। जहां यह फैसला वोट द्वारा होना था कि देश पर शासन कौन करेगा। इसलिए अगर देश न विभाजित होता, सारे मुसलमान भारत में रहते उनकी अकसरियत वाले चुनाव क्षेत्रों से उनके अपने उम्मीदवार चुनाव लड़ सकते और जीत सकते तो उनकी अपनी एक राजनीतिक शक्ति होती फिर अपनी समस्याओं का रोना रोने की बात तो दूर यह भी हो सकता था कि उन्हें भी सत्ता में आने का अवसर मिलता या सरकार में बराबर की हिस्सेदारी मिलती।
1901 में हिंदू महासभा अस्तित्व में लाने वाली मानसिकता जो देश की आज़ादी का समय आते आते काफी प्रभावशाली हो गई थी और कांग्रेस पार्टी में उनके प्रतिनिधि इस हैसियत में आ गए थे कि उनके फैसले पंडित जवाहर लाल नेहरू भी मानने को मजबूर हों। आज़ादी के मसीहा मोहनदास करमचंद गांधी भी उनके सामने बेबस नज़र आएं और भारत में रह जाने वाले मुसलमानों के एकमात्र नेता मौलाना अबुल कलाम आज़ाद चाहते हुए भी कुछ न कर पाएं। यहां अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए भारत के पहले शिक्षामंत्री मौलाना अबुलकलाम आज़ाद की पुस्तक इंडिया विंस फ्ऱीडम का उल्लेख करना ज़रूरी समझता हूं, जिसमें देश के विभाजन की परिस्थितियां भी दर्ज हैं और भारत के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल के कारनामे भी। उनके सोचने का अंदाज भी, उनकी रणनीति भी। हो सकता है आइंदा अपने इस लेख की आगामी क़िस्तों में इस पुस्तक के अंश् शब्दशः अपने पाठकों की सेवा में पेश करूं। लेकिन आज तो बस इतना लिख देना आवश्यक लगता है कि मौलाना आज़ाद ने अपनी इस ऐतिहासिक पुस्तक में स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि भारत के विभाजन के बाद देश के हालात यह थे कि पाकिस्तान के पंजाब की ओर से आने वाली रेल गाड़ियों में हिंदुओं की लाशें होती थीं और दिल्ली की गलियों में मुसलमानों को कुत्ते और बिल्लियों की तरह काट कर फैंक दिया गया। जब मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने इस वस्तु स्थिति की शिकायत प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से की तो वह इतने बेबस दिखाई दिए कि सरदार पटैल को न तो उनके पद से हटा सकते थे और न उन्हंे हालात पर क़ाबू पाने के लिए विवश कर सकते थे। इसलिए कि सरदार पटैल ताक़तवर थे और उनका मानना था कि सब कुछ सामान्य है, कहीं भी कुछ ऐसा नहीं हो रहा है जिसके लिए चिंतित होने की आवश्यकता है और जहां तक कुछ मुसलमानों के साथ ज़्यादती का प्रश्न है तो वह देश विरोधी हैं, जंग पर उतारू हैं, उनके घरों से ख़तरनाक हथियार बरामद हो रहे हैं और अपने इस दावे के सबूत में सरदार पटैल ने जिन ख़तरनाक हथियारों को सामने रखा उनमें किचन में काम आने वाले चाकू़, छुरी इत्यादि थे। जिन्हें देख कर व्यंगात्मक अंदाज़ में लाॅर्ड माउंट बेटन ने कहा था कि अगर यही ख़तरनाक हथियार हैं तो क्यों न उन्हें फौज को दे दिया जाए। महात्मा गांधी के सामने जब सारी स्थितियां रखी गई और उन्होंने सरदार पटेल से जवाब तलब किया तो महात्मा गांधी की बातों को गंभीरता से लेने के बजाए सरदार पटेल नाराज़गी प्रकट करते हुए बाहर चले गए।
जैसा कि मैंने अर्ज़ किया था इस समय देश के विभाजन का विवरण पेश करना संभव नहीं है। उस समय के हालात की एक झलक इसलिए पेश की गई ताकि साम्प्रदायिक, संकीर्ण सोच का प्रतिनिधित्व करने वाले एक व्यक्ति के कार्य कलापों को सामने रखा जा सके। यहां यह समझना भी ज़रूरी है कि उस समय की कैबिनेट में सरदार पटैल को अकेले संघ परिवार का प्रतनिधि समझना भारी भूल होगी। हां उस चेहरे को सबसे स्पष्ट चेहरा ज़रूर क़रार दिया जा सकता है। वरना 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की जान लेने वाली यह साम्प्रदायिक शक्ति उस समय भी कितनी सुनियोजित और सशक्त थी इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि नाथुराम गोडसे महात्मा गांधी की जान लेने में सफल हुआ। पंडित जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री रहते हुए भी महात्मा गांधी की सुरक्षा न कर सके। जबकि इससे पहले भी उन पर कई बार जानलेवा हमले हो चुके थे।
मैंने कल कांगे्रस की जिस स्थिति का उल्लेख किया था उसकी लाचारी और मजबूरी को समझने के लिए इस मिसाल को फिर मन में रखना होगा ताकि आप कश्मीर की वर्तमान स्थिति, फौज की तयनाती और अमरनाथ यात्रा के दौरान उसके अमल की बेबसी या कमज़ोर इच्छा शक्ति को समझ सकें। दरअसल हमारे देश में इन साम्प्रदायिक शक्तियों की जड़ें इतनी मज़बूत और गहरी हैं कि जब तक उनको पूरी तरह समझा न गया, भारतीय जनता को उनसे परिचित न कराया गया, उनके ख़तरनाक परिणामों को सामने नहीं रखा गया तो उनपर क़ाबू पाना बहुत कठिन होगा।
मुझे अंदाज़ा है कि आजके इस संक्षिप्त लेख में और कितनी लाइनें लिखने की गंुजाइश है। इसलिए इस विषय पर बातचीत को संक्षिप्त करके बाक़ी रखते हुए चंद वाक्यों में देश के विभाजन और कश्मीर के संदर्भ में जो बातचीत शुरू की थी उसे समाप्त करना चाहूंगा।
जैसा कि मैंने आरंभ में ही अर्ज़ किया था कि देश को चलना था लोकतांत्रिक मूल्यों पर, जहां यह फैसला वोट के माध्यम से किया जाना था कि देश पर शासन कौन करेगा? इसलिए साम्प्रदायिक संकीर्ण सोच रखने वाले राजनीतिज्ञों ने अपने स्वार्थों के तहत दूरअंदेशी प्रकट करते हुए उसी समय यह तय कर लिया था कि कम से कम वोट की दृष्टि से तो मुसलमानों को पूरी तरह बेहैसियत बना ही देना है। परिणामस्वरूप देश का विभाजन हुआ, वह सीमावर्ती राज्य जो पूर्वी तथा पश्चिमी पाकिस्तान का रूप ले सकते थे, जिनमें मुसलमानों की बहुलता थी अलग कर दिए गए। मोहरे के रूप में मिला उन्हें एक ऐसा व्यक्ति जिसके दिल में सत्ता की इच्छा पूरी तरह मौजूद थी। इसलिए उसे क़ाइदे आज़म के तमग़े के साथ पाकिस्तान का स्थापक क़रार दे दिया गया और वह कौन कौन थे जो देश के विभाजन के लिए वातावरण निर्मित करते रहे यह बात पूरी तरह सामने आ ही नहीं सकी। बहरहाल मुस्लिम बहुल्य क्षेत्र भारत से अलग हो गए। भारत में रहने वाला मुसलमान वोट की दृष्टि से कमज़ोर हो गया और देश के विभाजन के आरोप की वजह से शर्मिंदा भी। इसके बाद बाक़ी बचे बिखरे हुए मुस्लिम क्षेत्रों को रिज़र्व कांस्टिटुएंसी का रूप देकर दलितों के लिए आरक्षित कर दिया गया। यह दूसरा हथियार था मुसलमानों के वोट को बेहैसियत बनाने का जिसका सिलसिला आज तक जारी है।
बहरहाल यह एक अलग विषय है जिस पर विस्तार से बातचीत फिर कभी। आज कश्मीर की मिसाल इसलिए सामने रखी गई ताकि समझा जा सके वहां के हालात आख़िर बदलते क्यों नहीं। चाहता कौन है कि हालात बदलें। यह तो साम्प्रदायिक शक्तियों की रणनीति है और आज की सरकार भी उसी तरह मजबूर है जिस तरह सरदार पटेल के सामने पंडित नेहरू मजबूर थे। इस रणनीति पर अधिक रोशनी डज्ञलते हुए अमरनाथ यात्रा की राजनीतिक चाल को सामने रखने के लिए फौज की तयनाती का कारण सामने रखने के लिए कल फिर इसी विषय पर बातचीत जारी रहेगी।
Sunday, July 11, 2010
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