ख़ुदा के लिए अब तो देश को सामप्रदायिक मानसिकता की राजनीति से छुटकारा दिला दीजिए, विकास की बात कीजिए, ख़ुशहाली की बात कीजिए, शांति की बात कीजिए, एकता और भाईचारे की बात कीजिए। क्या मिला हमें इस धर्म की राजनीति से? देश का विभाजन-- हज़ारों बेगुनाह इन्सानों का ख़ून-- नफ़रत की दीवारें-- ग़्ारीबी-- अपमान और परेशानी।
कोई तो धर्म है अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा जैसे देशों के शासकों का भी। अन्य धर्मों के लोग भी रहते हैं वहां, क्या उन देशों में या उन जैसे अन्य सभी विकसित देशों में जो लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखते हैं वहां चुनाव धर्म के आधार पर लड़ा जाता है? राजरनीति धर्म के नाम पर की जाती है। हम हिंदू हैं, मुसलमान हैं, सिख हैं, जब तक भारत में रहते हैं यही पहचान रहती है हमारी, मगर जब हम भारत से बाहर किसी भी देश में रहते हैं तो केवल भारतीय होते हैं। कोई घृणा नहीं धर्म के नाम पर। जब हम इन देशों में नौकरी करते हैं या राजनीति में हिस्सा लेते हैं भले ही किसी उम्मीदवार को वोट देने के लिए, हमें अपना धर्म याद नहीं रहता, लेकिन भारत में हम अपने धर्म को भूल नहीं पाते और ऐसा भी नहीं कि सचमुच हमने धर्म को अपने जीवन का अंग बना लिया है। हम उस समय धार्मिक नहीं होते हैं जब हमें धार्मिक होना चाहिए। आज हम ईमानदारी से अपने आचरण की समीक्षा करें। हम हिंदू हैं या मुसलमान हैं, क्या हम इसी प्रकार अपने अपने धर्म के अनुसार इबादतों में व्यस्त रहते हैं जैसा कि हमें बताया गया है। क्या हमारा अमल हमारे धर्मों की शिक्षाओं के अनुसार होता है।
हज़ारों बेगुनाहों का ख़ून बहा दिया गया राम मंदिर के नाम पर। 18 वर्ष हो गए बाबरी मस्जिद की शहादत को। इस बीच कितनी बड़ी तादाद में राम के नाम पर राजनीति करने वाले श्री राम जन्म भूमि के दर्शन के लिए अयोध्या जाते रहे हैं, क्या अमरनाथ यात्रा और माता वैष्णों देवी के मंदिरों की तरह?
क्या यह सच नहीं है कि जब साम्प्रदायिक राजनीति को अयोध्या में लाखों लोगों को धार्मिक जुनून के साथ बुलाने की आवश्यकता थी तो कभी रामशिला पूजन के नाम पर और कभी ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ जैसे नारों के साथ लाखों लोग वहां जमा होते रहेे। आज राजनीति को ऐसी ही भीड़ ऐसा ही धार्मिक उन्माद अमरनाथ यात्रा के लिए चाहिए। इन लोगों ने 20 वर्ष गुज़ार लिए सत्ता के सुख के साथ राम मंदिर के नाम पर राजनीति करके। केंद्र में सरकार का सपना पूरा हुआ, कई कई राज्यों में सरकार बनाने का अवसर मिला। अब जबकि राम के नाम पर राजनीति का बाज़ार ठंडा पड़ गया तो उस रथ यात्रा की दिशा कश्मीर की ओर मुड़ गई जिसके पहिये केवल अयोध्या का रास्ता जानते थे। उन्हें लगता है शायद अगले 20 वर्ष अमरनाथ यात्राओं के नाम पर राजनीति करने का अवसर प्रदान कर देंगे। भले ही फिर हज़ारों बेगुनाहों का खून बहे। कश्मीर को फौज के हवाले कर दिया जाए। कश्मीरियों के लिए उनका घर क़ैदख़ाना बना दिया जाए, मासूम बच्चे कभी भूख व प्यास से तो कभी पुलिस या फौज की गोली से दम तोड़ दें, बीमारों को अस्पताल तक जाने का अवसर मिले न मिले, लेकिन कफ़र््यू तो होना ही चाहिए। केवल यही तो एक तरीक़ा है हमारे पास यह साबित करने के लिए कि कश्मीर हमारा है। हमें क्यों याद नहीं रहता कि कश्मीरियों ने तो यह उस समय कहा था कि भारत हमारा है जब पाकिस्तान हर क़ीमत पर उसे अपने साथ जोड़ना चाहता था और शायद 80 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाला राज्य होने के कारण भारत को भी यह उम्मीद नहीं रही होगी और शायद उन्हें तो यह भी याद नहीं कि इस अमरनाथ गुफा की खोज भी एक मुस्लिम चरवाहे ने 1850 में की थी। उसके बाद ही इन यात्राओं का सिलसिला आरंभ हुआ।
आज राजनीति ने हमारी आस्थाओं को, हमारी भावनाओं को अपने खेल का मोहरा बना लिया है। उन्होंने जब जो चाहा कह दिया कि हमारा ख़ुदा अमुक स्थान में बसता है और हम झुंड के झुंड चल दिए अमरनाथ यात्रा के लिए। अब हमें राम जन्म भूमि की पवित्रता नहीं पुकारती, इसलिए कि राजनीति को अब ज़रूरत है अमरनाथ यात्रा की। ’ अब आप दुआ कीजिए कि ख़ुदा न करे इस पूरी यात्रा के दौरान किसी की ग़लती से, किसी के ग़लत इरादे से, किसी की साज़िश से, किसी रणनीति के तहत, कोई पत्थर किसी अमरनाथ यात्रा के यात्री को, किसी पुलिस के सिपाही को या किसी फौजी जवान को न लग जाए वरना केवल इतना ही नहीं कि कई बेगुनाहों की जान जाने का ख़तरा पैदा हो जाएगा, फिर उनमें 9 वर्ष का बच्चा भी हो सकता है और 90 वर्ष का बूढ़ा भी, इतना ही नहीं धर्म के नाम पर, आस्था के नाम पर कश्मीर के इस पथरीले रास्ते से उठी यह चिंगारी पूरे देश में आग लगने जैसी स्थिति भी पैदा कर सकती है। आपको याद है ना राम मंदिर के नाम पर जो कुछ हुआ, गुजरात में जो कुछ हुआ कैसे एक गुमनाम राजनीतिज्ञ का क़द गुजरात दंगों के बाद अपनी पार्टी के बड़े बड़े नेताओं से भी बड़ा हो गया। केवल इसलिए कि हत्याओं के मामले में उसके शासनकाल में जो कुछ हुआ उसने लाल कृष्ण अडवानी की रथ यात्रा और बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद हुए दंगों के दौरान हताहतों की संख्या व बर्बता के उदाहरणोें को बहुत पीछे छोड़ दिया। बस यह सब मन में सुरक्षित रहे और हर क़दम फूंक फंूक कर रखिए। जान लीजिए कि अमरनाथ यात्रा के दौरान अगर यह तंगनज़र राजनीति धर्म पर हावी हो गई तो कश्मीर की वादियों में भावनाओं को उत्तेजित करने वाले नारों की गूंज उस समय तक जारी रहेगी जब तक सुरक्षा के नाम पर तयनात फौज का हर सिपाही उनके रंग में न रंग जाए। पीएसी का अनुभव आप भूले नहीं होंगे। यह आशंका मुझे इसलिए भी है क्योंकि ऐसी सूचनाएं आने लगी हैं कि अमरनाथ यात्रियों पर आतंकवादी हमला कर सकते हैं। आज जिस समय मैं यह लेख लिख रहा था अर्थात 10 जुलाई की शाम 3ः30 बजे आईएसटी तथा हिंदी न्यूज़ एजेंसी भाषा द्वारा जारी की गई ख़बर के अनुसार सरकार ने अमरनाथ तीर्थ यात्रियों की सुरक्षा के लिए तयनात किए गए सुरक्षा बलों को हाई अलर्ट पर रहने के लिए कहा है उन्हें यह आदेश जारी किए गए हैं कि पाकिस्तान में डेरा जमाए आतंकवादी इन तीर्थ यात्रियों को निशाना बनाने की योजना बना रहे हैं। उच्च अधिकारियों के अनुसार गुप्तचर एजेंसियों ने कश्मीर में सक्रिय आतंकवादियों तथा सीमा के उस पार मौजूद अपने आक़ाओं के बीच की जाने वाली बातचीत को रिकाॅर्ड किया है, जिससे मालूम होता है कि वह अमरनाथ यात्रियों पर हमले का प्रयास कर रहे हैं। एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि सुरक्षा बलों का ध्यान चूंकि इस समय घाटी के हिंसा ग्रस्त क्षेत्रों पर है, इसलिए आतंकवादी अवसर का लाभ उठाने का प्रयास कर सकते हैं, इसलिए हमने इन तमाम हालात के मद्दे नज़र सबको हाई अलर्ट कर दिया है। उन्होंने आगे कहा कि हमने इस तीर्थ यात्रा को शांतिपूर्ण ढंग से सम्पन्न कराने के लिए बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों की तयनाती की है। केंद्रीय सरकार ने अमरनाथ यात्रा के दौरान सुरक्षा व्यवस्था को चुस्त दुरुस्त रखने के लिए लगभग 8 हज़ार सुरक्षा जवानों की तयनाती की है। दक्षिणी कश्मीर में हिमालय की पहाड़ियों पर बनी शिव जी की गुफा तक पूरे रास्ते पर सुरक्षा बल तयनात कर दिए गए हैं। इस यात्रा के लिए देश भर से अब तक लगभग 2 लाख 90 हज़ार श्रद्र्धालुओं का रजिस्ट्रेशन किया गया है। स्पष्ट रहे कि यह यात्रा 25 अगस्त तक चलेगी।
यह ख़बर हमें पूरी तरह चैकस रहने की हिदायत देती है, कब किसकी शरारत मुसीबत बन जाए कहना मुश्किल है और हां इस मामले में सरकारों से कोई उम्मीद न रखें, धार्मिक नारों के सामने वह स्वयं को बेबस पाती हैं और आत्म समर्पण में ही अपनी आफ़ियत समझती हैं।
कांग्रेस की तरफ़ भी बहुत अधिक आशा भरी नज़रों से मत देखिए। इसलिए कि देश के विभाजन से लेकर आज तक यह तय करना बहुत कठिन रहा है वह धर्मनिर्पेक्षता के मार्ग पर चले या जब जब आवश्यकता पड़े साम्प्रदायिकता का चोला पहनने से भी पीछे न हटे। यही कारण है कि जब जब उसे लगता है कि धार्मिक भावनाओं को हवा देकर भाजपा लाभ उठा सकती है तो वह उससे कई क़दम आगे बढ़ जाती है, फिर चाहे बाबरी मस्जिद का ताला खोलने या चबूतरे का शिला न्यास, उसे कोई झिझक नहीं होती है। आज कश्मीर में फौज की तयनाती भी साम्प्रदायिक राजनीतिज्ञों पर कांगे्रस के बाज़ी ले जाने का एक तरीक़ा है, वह स्वयं को अमरनाथ यात्रियों की सुरक्षा के लिए तो भाजपा से अधिक चिंतित सिद्ध करना चाहती है।
शायद कांग्रेस या भाजपा दोनों आज तक भारतीय जनता की अकसरियत का मिज़ाज नहीं समझ पाईं। भारत में 80 प्रतिशत हिंदू आबादी है लेकिन क्या कभी भारतीय जनता पार्टी के हिंदूवाद-हिंदू राष्ट्र के नारे से यह इतनी प्रभावित हुई कि एक बार भी भाजपा को अकेले दम पर सरकार बनाने का अवसर दिया। अगर वी॰पी सिंह ने अपनी कांग्रेस दुश्मनी के कारण मुसलमानों को गुमराह करके बीजेपी को सत्ता तक पहुंचाने की ऐतिहासिक भूल न की होती तो शायद न कभी उसका सत्ता में आने का सपना पूरा होता और न हमारी फौज तथा ब्योरोक्रेसी में साम्प्रदायिकता के कीटाणु दाख़िल हो पाते।
कांगेे्रस हमेशा धर्मनिर्पेक्षता के कारण सत्ता में आई, उसे अगर किसी समय सत्ता से बाहर होना पड़ा या सत्ता में आने के लिए दूसरों के सहयोग की आवश्यकता पड़ी तो उसी समय उसने हिंदू कार्ड खेलने का प्रयास किया। काश इस देश के राजनीतिज्ञ इस सच्चाई को समझ लेते कि 80 प्रतिशत हिंदू आबादी हिंदू राष्ट्र का सपना दिखाने वाले, हिंदुत्व का नारा देने वाले और कश्मीर से कन्या कुमारी तक धार्मिक जुनून पैदा करने वाले लाल कृष्ण आडवानी की देश का प्रधानमंत्री बनने की इच्छा पूरी नहीं करती इसी तरह 80 प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या वाला कश्मीर मुसलमानों के नाम पर बनने वाले देश पाकिस्तान के साथ विलय करने में कोई रुचि नहीं लेता। क्या यह तमाम सच्चाइयां हमारी आंखें खोलने के लिए काफी नहीं हैं, क्या यह ज़मीनी हक़ीक़त का स्पष्ट प्रमाण नहीं है, कुछ तंग नज़र साम्प्रदायिक मानसिकता के लोग हो तो हों हिंदुओं या मुसमानों की अकसरियत धर्मनिर्पेक्ष स्वभाव रखती है वह साम्प्रदायिक नहीं है।
हम ने अंग्रेज़ी बोलना सीख लिया, हमने अंग्रेज़ी लिबास पहनना सीख लिया, हमने अंग्रेज़ी सभ्यता और जीवनशैली को अपना लिया, काश हमने अंग्रेज़ों की राजनीतिक चेतना भी समझ ली होती। वह लोग देश के विकास और जनता की ख़ुशहाली के नाम पर राजनीति करते हैं। यही कारण है कि उनके देश प्रगति करते हैं और जनता ख़ुशहाल है। उनके दिल इतने बड़े हैं कि दुनिया के किसी भी देश से किसी भी धर्म का नागरिक उनके यहां आ कर बस सकता है, अपने धर्म का पालन कर सकता है और उनके देश की राजनीति में भाग भी ले सकता है, मगर अफसोस कि हम अपने देश में रह कर ऐसा नहीं कर सकते। यहां हमें वोट देते या वोट मांगते समय हिंदू या मुसलमान होने की ज़रूरत का एहसास होता है।
कश्मीर की सुरक्षा भारत में धर्मनिर्पेक्षता की सुरक्षा है। कश्मीर की ख़ुशहाली भारत की ख़ुशहाली है। कश्मीर को हम अपने देश के नक़्शे की दृष्टि से अपने सर का ताज कहते रहे हैं, उसे जूते तले रौंद कर हम अपने देश या अपने देश की जनता के साथ वफ़ा नहीं कर रहे हैं। यही समय है उस साम्प्रदायिक मानिसकता को मात देने का, जिसने भारत के टुकड़े टुकडे कर डाले, भारतीय जनता के दिलों के टुकड़े टुकड़े कर डाले, बेशक कश्मीर हमारा है, मगर हर कश्मीरी की इज़्ज़त, सम्मान और मर्यादा की सुरक्षा के साथ। जो केवल ज़मीन को अपना समझते हैं उस ज़मीन पर रहने वालों को नहीं, वह न सच्चे भारतीय है और न मानवता प्रेमी।
Saturday, July 10, 2010
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