कश्मीर इससे पहले भी सेना के हवाले किया जा चुका है। क्या कोई सकारात्मक परिणाम सामने आया? 1953 और 1990 में हम कश्मीर को सेना के हवाले करके देख चुके हैं। क्या सेना ही कश्मीर समस्या का एक मात्र समाधान नज़र आता है। अगर हां है तो वह सभी क्षेत्र जो माओवादियों के प्रभाव में हैं क्या वहां भी सेना की तैनाती नहीं की जानी चाहिए। हमारी सरकार को और हमें ऐसे तमाम प्रश्नों पर बहुत गंभीरता से विचार करना होगा।
कश्मीर के इतिहास को जो लोग जानते हैं वह अच्छी तरह कश्मीरियों के मिज़ाज को समझते हैं। क्या कभी भी बल प्रयोग कारगर साबित हो सका है। 1931 में महाराजा हरि सिंह ने कश्मीरी मुसलमानों के विरुद्ध बल प्रयोग किया था। असंख्य जानें गईं, मगर परिणाम क्या हासिल हुआ, उन्हें स्वयं कश्मीर छोड़ कर भागना पड़ा और जम्मू में आश्रय लेने के लिए मजबूर हुए। मुल्क का बटवारा तो धर्म की बुनियाद पर हुआ था, फिर क्यों मुस्लिम बहुल रियासत होने के बावजूद कश्मीर के ज़िम्मेदारों ने पाकिस्तान के बजाए भारत के साथ विलय का फैसला किया। केवल इसीलिए कि क़बाइलियों का आक्रमण उन्हें सहन नहीं था और इस आक्रमण के पीछे उन्हें पाकिस्तान की शह नज़र आती थी। परिणाम स्वरूप पाकिस्तान के प्रति आक्रोष और पाकिस्तान की अपेक्षा भारत को वरीयता दिया जाना। क्या यह घटनाएं हमें नहीं बताती हैं कि ज़ोर-ज़बर्दस्ती और बर्बता का रास्ता कश्मीरियों का ज़हन नहीं बदल सकता। कश्मीर ने इसलिए हमारा दामन थामा, क्योंकि उसे हम पर विश्वास था, हमारी मेहनत पर भरोसा था हमारे धर्मनिर्पेक्ष मूल्यों पर विश्वास था, वह हमारी मदद चाहता था, अपनी रक्षा के लिए, क्योंकि वह अकेले इन विपरीत परिस्थितियों का मुक़ाबला करने का स्वयं को योग्य नहीं पा रहा था। वह क़बाइलियों के आक्रमण से परेशान था और पाकिस्तान को इसके लिए ज़िम्मेदार मानता था। अगर ऐसा न होता तो 1947 में ही उन्होंने अपनी एक अलग रियासत होने की घोषणा कर दी होती। उन्हें अच्छी तरह एहसास था अपनी भौगोलिक/स्ट्रेटिजिक स्थिति का और वह समझ सकते थे कि बड़े और शक्तिशाली देश उनकी अलग हैसियत को स्वीकार न करने की हालत में उनके लिए परेशानियां खड़ी कर सकते हैं। ऐसी तमाम संभावित परेशानियों से बचने के लिए उन्होंने भारत के साथ अपने विलय में ही कश्मीर की भलाई महसूस की थी। कश्मीर अगर इसी तरह, जिस तरह बाक़ी रियासतें भारत या पाकिस्तान में शामिल हुई थीं, शामिल होने का निर्णय लेता तो यह उसी समय हो गया होता। भारत के उस समय के गवर्नर जनरल लार्ड माउंट बेटन और उनके बाद भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भी कश्मीर के मामले केा बाक़ी सभी रियासतों के संदर्भ से कुछ अलग हट कर न देखा होता तो, शेख़ मुहम्मद अब्दुल्ला भी जम्मू एवं कश्मीर के मुख्यमंत्री कहलाए जाते, प्रधानमंत्री नहीं, और धारा 370 लागू न हुई होती।
क्या आज हमने यह मान लिया है कि तमाम कश्मीरी पृथक्तावादी हैं? क्या कमीरियों की ज़ुबान पर स्वतंत्रता की मांग का एक ही अर्थ है कि वह सब अलग होना चाहते हैं? जिस तरह की स्थिति से वह गुज़र रहे हैं, जिस तरह उन्हें अपना घर और रियासत एक जेल की तरह नज़र आने लगे हैं क्या इन स्थितियों से छुटकारा पाना उनके लिए स्वतंत्रता नहीं है। क्या अमन व शांति का जीवन और इन परिस्थितियों से छुटकारा पाना उनका अधिकार नहीं है। हम एक शहरी की हैसियत से स्वतंत्रता के अर्थों को क्यों नहीं समझते और यदि हम यही मानते हैं कि कश्मीर में सभी पृथक्तावादी हैं तो फिर लोकतांत्रिक प्रणाली में हिस्सा लेने वाली उमर अब्दुल्ला की पार्टी के समर्थन में या विरोध में मत देने वाले कश्मीरी कौन थे। क्या वह कश्मीर की लोकतांत्रिक प्रणाली का एक हिस्सा नहीं था? क्या इसमें उनकी शिरकत इस बात का द्योतक नहीं कि वह पृथक्तावादी नहीं, लोकतांत्रिक विचारों के हैं। और यदि कुछ देर के लिए हम मान भी लें कि वह सब पृथक्तावादी हैं तो फिर क्या बलपूर्वक हमेशा उन्हें अपने साथ रखा जा सकता है? हमें किसी और दिशा में सोचने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है इन सभी प्रश्नों पर आज विचार करने की आवश्यकता है।
क्या हमें नहीं लगता कि हम कश्मीरियों के साथ वही बर्ताव नहीं कर रहे हैं जो शेष भारतियों के साथ करते हैं। 5 जुलाई को भारत बंद की घोषणा की गई, यह घोषणा पूरे भारतवर्ष के लिए थी। देश व्यापी आन्दोलन हुए, सामान्य जीवन अस्तव्यस्त हो कर रह गया। सड़कें जाम कर दी गईं और रेल गाड़ियां रोक दी गईं, यहां तक कि वायु यात्रा भी प्रभावित हुए बिना न रह सकी। केवल मुम्बई हवाई अड्डे पर उतरने और उड़ान भरने वाली 79 उड़ानें उस दिन रद्द कर दी गई। अधिकतर जगहों पर आन्दोलनकारी और पुलिस के बीच झड़पें हुईं। कोई मौत नहीं, केवल कुछ लोग घायल और कहीं भी पुलिस को गोली चलाने की आवश्यकता नहीं पड़ी। अब नज़र उठा कर देखें कश्मीर में आन्दोलन करने वालों से किए जाने वाले बर्ताव पर।
13 अप्रैल को सीआरपीएफ के जवान जब सोपोर में प्रदर्शनकारियों को तित्तर बित्तर कर रहे थे तो उन्होंने 17 वर्षीय ज़्ाुबैर अहमद भट्ट को नदी में कूदने के लिए मजबूर किया और तब तक उस पर पत्थर बरसाते रहे जब तक वह डूब नहीं गया। पुलिस ने डूबने का मामला बताकर केस को बंद कर दिया। इस बीच केवल 17 दिनों में 11 लोगों की मृत्यु हुई थी, इसके बाद 11 जून को राजोरी कडाल क्षेत्र में पुलिस का आंसू गैस गोला 17 वर्षीय तुफ़ैल अहमद मट्टू के सिर पर लगा और उसकी मृत्यु हो गई। पुलिस ने पहले कहा कि इस दिन उन्होंने इस क्षेत्र में न तो गोली चलाई और न ही आंसू गैस का गोला छोड़ा था। परंतु तुफ़ैल की पोस्टमार्टम रिपोर्ट ने साबित कर दिया कि उसकी मृत्यु आंसू गैस के गोले से ही हुई थी, जिसने उसके दिमाग़ और खोपड़ी को हानि पहुंचाई थी। पुलिस ने मामले की जांच का आदेश दिया था परंतु रिपोर्ट सामने नहीं आई है। तुफ़ैल के पिता मुहम्मद अशरफ़ का आरोप है कि सरकार आरोपी की पहचान के बावजूद उसे गिरफ़्तार नहीं कर रही है।
तुफ़ैल की मृत्यु के विरोध में प्रदर्शन करने के लिए सैकड़ों की संख्या में लोग पुराने शहर की सड़कों पर आए। प्रदर्शन को तित्तर बित्तर करते समय सीआरपीएफ ने एक राहगीर 24 वर्षीय मुहम्मद रफ़ीक़ बंगरू को पकड़ लिया और बुरी तरह पिटाई की। एक सप्ताह तक ज़िंदगी के लिए संघर्ष करने के बाद बंगरू ने एस॰के॰आई॰एम॰एस॰ में अंतिम सांस ली। बंगरू की अन्तिम संस्कार अदा करने के दिन 20 जून को सीआरपीएफ ने प्रदर्शनकारियांे पर अंधाधुंध गोलियां चलाईं और प्रदर्शनकारियों के बारे में कहा गया कि उन्होंने नूर बाग़ पर एक बंकर पर हमला किया है। इस घटना में बंगरू के रिश्तेदार जावेद अहमद माला की गोली लगने से मौक़े पर ही मृत्यु हो गई। जावेद माला की मौत के बाद पूरे शहर में हिंसक प्रदर्शन हुए जिसके बाद अच्च अधिकारियों ने चार दिन के लिए कफ़र््यू लगा दिया।
25 जून को सोपोर में मारे गए दो प्रदर्शनकारियों की लाश की मांग कर रहे प्रदर्शनकारियों पर सीआरपीएफ़ ने गोली चलाई और उसमंे 24 वर्षीय शकील ग़नी और 20 वर्षीय के॰के॰फिरदौस अहमद ककरू (ज्ञंातवव) मारे गए।
इसके बाद सोपोर और उसके निकट के क्षेत्र में कफ़र््यू लगा दिया गया, यद्यपि 27 जून को प्रदर्शनकारियों के एक छोटे ग्रूप ने कफ़र््यू का विरोध किया और फौज के जवानों को सज़ा देने की मांग की। सीआरपीएफ़ ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाई जिसमें सोपोर के करालटैंग ;ज्ञंतंसजमपदहद्ध क्षेत्र के 30 वर्षीय जवान बिलाल अहमद वानी की मृत्यु हो गई। बिलाल की मृत्यु पर अपने विरोध को दर्ज करते हुए न्याय मंत्री और नेशनल कान्फ्ऱेंस के सीनियर लीडर अली मुहम्मद सागर ने एक पे्रस कान्फ्ऱेंस के दौरान आरोप लगाया कि सीआरपीएफ़ मुख्यमंत्री का आदेश मानने से इनकार कर रही है और शहरियों को क़त्ल कर रही है। सागर ने गोली बारी को अकारण क़रार दिया था।
29 जून को एक 9 वर्ष के बच्चे का क़त्ल हुआ। 29 जून की दोपहर में डेलीना वरमल ;क्मसपदं टंतउनसद्ध क्षेत्र में प्रदर्शनकारियों पर गोली बारी में 9 वर्ष के तुफ़ैल अहमद राथर की मौत हो गई। इसी तरह सोपोर में 21 वर्षीय तजम्मुल बशीर भट्ट की मौत हो गइ।
इसके बाद दक्षिणी कश्मीर में तीन युवक इंची डोरा अनंतनाग ;।दबीपकवतंद्ध के 17 वर्षीय शुजाअतुल इस्लाम, वाटरगाम डायलगाम के 17 वर्षीय इम्तियाज़ अहमद ईटो और 15 वर्ष के इश्तियाक़ अइमद खांडे 30 जून को पुलिस की गोलियों का शिकार हुए। मालूम हो कि शुजाअतुल इस्लाम के पिता मुहम्मद अशरफ़ बाबा एक विद्वान थे और लोगों को शिक्षा दिलाने और विशेषतः यतीमों की शिक्षा के लिए जाने जाते थे। 1996 में सरकार के बंदूक़ बरदारों ने बाबा का क़त्ल कर दिया था। मक़तूल के कुन्बे की तमाम ज़िम्मेदारियां शुजाअतुल इस्लाम के कंधों पर आ गई थीं जो उस समय चप्पल की एक दुकान पर सेल्समैन की नौकरी करता था।
चश्मदीद गवाहों का कहना है कि तेज़ी से आती पुलिस की गाड़ी को देख कर तीनों भयभीत हो गए थे और तेज़ी से भागने लगे। युवकों ने मुख्य दरवाज़े को बंद करना चाहा तो पुलिसकर्मी एक सीनियर अफ़सर की निगरानी में अंदर दाख़िल हो गए और नज़दीक से युवकों को गोली मारी। इस गोलीबारी में दो नौजवान मौक़ पर ही मारे गए जबकि चार बुरी तरह घायल हो गए।
क़त्ल के इस सिलसिले ने एक बार फिर श्रीनगर का रुख़ किया एक लड़की सहित 4 युवक 24 घंटे के अंदर ही सीआपीएफ़ की गोलियों का शिकार हुए। 5 जुलाई की देर शाम जब जनता का अनुमान था कि स्थिति सामान्य हो जायेगी। उसी बीच राज्य मंत्री नसीर असलम वानी के का़फले पर बट्टा मालू क्षेत्र में पथराव हुआ। पब्लिक के आक्रोश को जानते हुए भी मंत्री ने अपने सुरक्षा कर्मियांे को पथराव करने वालों का पीछा करने की अनुमति दी। क्षेत्रीय लोगों का आरोप है कि सुरक्षा कर्मियों ने किंग बाग़, बट्टा मालू श्रीनगर के 16 वर्षीय मुज़फ़्फ़र अहमद भट को पकड़ लिया और उसकी तब तक पिटाई की जब तक उसकी मृत्यु नहीं हो गई। नौजवान की लाश को नाले में डुबो दिया जिसे देर रात निकाला गया। क्षेत्रीय लोग पूरी रात इस घटना पर प्रदर्शन करते रहे और सुबह जब यह सूचना उन लोगों तक पहुंची जो कई दिनों के बाद अपनी दुकानें खोल रहे थे तो उन्होंने अपनी दुकानें फिर से बंद कीं और बट्टा मालू और आस पास के क्षेत्र में प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। 6 जुलाई को जब मुज़फ़्फ़र अहमद की अंतिम यात्रा में लोग जा रहे थे इस पर भी फ़ोर्स ने गोली चलाई जिसके नतीजे में इसी क्षेत्र में फ़य्याज़ अहमद सुपुत्र नज़ीर अहमद की मौत हो गई। इसके बाद बट्टा मालू में ही अपने घर की खिड़की से बाहर देख रही 25 वर्षीय फ़ैंसी पुत्री अब्दुर रहीम गुरू भी फोर्स की गोली का निशाना बन गई। वह दूसरी मंज़िल पर खड़े होकर अपने घर से बाहर देख रही थी। इस घटना के कुछ मिनट बाद 16 वर्ष के एक नौजवान अबरार अहमद ख़ान पुत्र ग़्ाुलाम नबी को शहर के क्षेत्र माएसमा में फोर्स की गोलियों का शिकार होना पड़ा। अबरार पहले बयान की गई मृत्यु के विरोध में प्रदर्शन कर रहे लोगों में शामिल था। अन्य कई प्रदर्शनकारी इन घटनाओं में घायल हुए, जिनमें से दर्जनों युवकों की स्थिति गंभीर बनी हुई है।
यह विस्तृत जानकारी मुझे अपने संवाददाता सरीर ख़ालिद से प्राप्त हुई। जून के दूसरे सप्ताह में वह स्वयं वहां माजूद थे और मैं ने स्वयं तमाम स्थितियों का जायज़ा लिया। भारत भर में अपने हक़ की आवाज़ उठाने के लिए आन्दोलन कहां नहीं होते? क्या हम उन्हें दबाने के लिए वही रास्ता अपनाते हैं, जो कश्मीर में किया जा रहा है या फिर हम कहीं न कहीं इस दबाव का शिकार हैं, जिसे एक विशेष मानसिकता ने पैदा किया है और फौज की तैनाती भी कश्मीर की स्थिति का तक़ाज़ा होने से अधिक इस विशेष मानसिकता के लागों की दिलजोई के लिए है।
Friday, July 9, 2010
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