पहले महाराजा हरि सिंह द्वारा सरदार पटेल को लिखे गए पत्र का शेष भाग, उसके बाद उन बिंदुओं पर टिप्पणी जिन्हें अंडरलाइन किया गया है।
उपरोक्त परिस्थितियों में मेरे मन में एक ख़याल आता है कि मैं कौनसी पहल कर सकता हूं, जिससे हालात ठीक हो जाएं।
कई बार मुझे लगता है कि भारत के साथ विलय की प्रक्रिया को वापस ले लेना चाहिए। भारतीय संघ ने अंतरिम रूप से विलय को स्वीकार किया है और अगर संघ हमारे क्षेत्र को हमें वापस नहीं कर सकता है और सुरक्षा परिषद के फैसले को स्वीकार करने जा रहा है, जिसके परिणाम स्वरूप हमें पाकिस्तान को हस्तांतरित किया जा सकता है तो ऐसे में भारत के साथ विलय पर क़ायम रहने का कोई अर्थ नहीं है। कुछ समय के लिए यह हो सकता है कि पाकिस्तान के साथ संबंध बेहतर हों लेकिन यह निरर्थक है क्योंकि अंततः उससे शाही सिलसिले का समापन होगा और राज्य में हिंदू और सिख का भी समापन होगा। मेरे पास एक सम्भावित विकल्प है और वह यह कि विलय के फैसले को वापस ले लिया जाए ताकि संयुक्त राष्ट्र रेफ्ऱेंस का मामला समाप्त हो जाए क्योंकि भारतीय संघ को इस कार्यवाही को जारी रखने का कोई अधिकार नहीं है, अगर विलय के फैसले को वापस ले लिया जाए, उसका परिणाम यह होगा कि राज्य विलय से पहले के हालात में पहंुच जाएगा। फिर भी इन हालात में भारतीय सेना को लेकर कठिनाई होगी’ह्न उसे अपनी इच्छा से राज्य की सहायता करनी होगी। मैं निजी रूप से राज्य की सहायता के लिए अपनी और भारतीय सेना की कमांड अपने हाथों में लेने के लिए तैयार हूं। मैं स्वयं सेना का नेतृत्व करने के लिए तैयार हूं और भारत अगर सहमत हो तो उसकी सेना को भी नेतृत्व देने के लिए तैयार हूं। मैं अपने देश को आपके किसी भी जनरल से अधिक बेहतर जानता हूं और आपके जनरल को कई महीने या साल लगेंगे जानने में और साहसिक अंदाज़ में ज़िम्मेदारी लेने के लिए तैयार हूं न कि केवल यहां बैठने और कुछ न करने के लिए। यह आप पर है कि दोनों परिस्थितियों में भारतीय संघ इसे स्वीकार करेगा या नहीं, चाहे विलय वापस हो जाए या जारी रहे। मैं अपने वर्तमान जीवन से दुखी हो गया हूं और यह मेरे लिए बेहतर होगा कि लड़ते हुए अपनी जान न्यौछावर कर दूं, इसके मुक़ाबले कि अपने लोगों की कठिनाइयों को असहाय देखता रहूं।
एक और विकल्प जो मेरे मन में आता है, यह है कि अगर मैं कुछ न करूं, मैं राज्य छोड़ कर (संक्षिप्त त्याग) और कहीं बाहर चला जाऊं ताकि जनता यह न सोचे कि मैं उनके लिए कुछ कर सकता हूं। अपनी शिकायतों के लिए वह सिविल प्रशासन को ज़िम्मेदार ठहरा सकते हैं या फिर भारतीय सेना को जो राज्य की रक्षा की ज़िम्मेदार है। ऐसे में स्पष्ट रूप से ज़िम्मेदारी या तो भारतीय संघ की होगी या फिर शेख़ अब्दुल्ला प्रशासन की। अगर कोई आलोचना होगी तो जो ज़िम्मेदार हैं उनकी और जनता की परेशानियों की ज़िम्मेदारी मेरी नहीं होगी। निश्चिय ही मुझे अंदाज़ा था जब मैंने मिस्टर मैनन के सुझाव पर कश्मीर को छोड़ा था, लोगों ने कहना शुरू कर दिया था कि मैं श्रीनगर से भाग गया हूं और वह कहेंगे कि मैंने उनके बुरे दिनों में उनको छोड़ दिया है, लेकिन इसका कोई मतलब नहीं रह जाता कि आलोचना से बचने के लिए ऐसे पद पर बने रहना जो कुछ न कर सके। निश्चय ही अगर मैं राज्य के बाहर जाता हूं तो मैं जनता को विश्वास में लेकर जाऊंगा और उनको वह कारण भी बताऊंगा कि मैं बाहर क्यों जा रहा हूं।’
तीसरा विकल्प जो वर्तमान स्थिति में सामने आया है, वह यह कि भारतीय डोमीनियन रक्षा संबंधि अपनी ज़िम्मेदारी को प्रभावशाली ढंग से पूरा करे और पाकिस्तान की ओर से हो रहे हमलों को रोकने के लिए पक्की व्यवस्था करे और न केवल हमलावरों बल्कि सभी विद्रोहियों को भी राज्य के बाहर कर दे। यह तभी संभव है जब डोमीनियन वास्तव में युद्ध करे। उसने अभी तक लड़ाई को टाला है। दो या तीन साहसिक युद्ध इन परिस्थितियों को समाप्त कर देंगे और अगर उसमें विलम्ब होती है तो कोई बड़ी आफ़त आ सकती है। कश्मीर के मामले में पाकिस्तान भारतीय डोमीनियन के मुक़ाबले अधिक संगठित है और जैसे ही बर्फ़ पिघलेगी वह चारों ओर से हमला करना शुरू कर देगा और लद्दाख़ परान्त भी दुश्मन के हाथ में चला जाएगा। घाटी तथा पूरी सीमा पर मौजूद सैनिकों की संख्या से दुगनी सेना से हमला होगा और जम्मू कश्मीर उसकी सुरक्षा नहीं कर पाएगा।
जो कुछ भी एक माह पूर्व होना चाहिए और प्राप्त किया जाना चाहिए था वह अगले महीने में प्राप्त किया जा सकता है लेकिन अगर मामले में देर की गई और संयुक्त राष्ट्र के रेफ्ऱेंस से संबंधित अगर समझौते का रवैया और हालात जूं के तूं रहे तो एक माह की समाप्ति पर हालात और भी ख़राब हो जाएंगे।
इसलिए अगर भारतीय संघ पूरी तरह और प्रभावशाली ढंग से लड़ने का अपना मन बनाता है तो मुझे उपरोक्त दो विकल्पों में से फैसला करना होगा।’’
मैंने इस पत्र के जिन बिंदुओं को विशेष ध्यान के लिए अंडर लाइन किया है, उनमें पहला बिंदु था कि यह पत्र महाराजा हरि सिंह ने 31 जनवरी 1948 को लिखा। हमारे देश की आज़ादी में महात्मा गाधी की क्या भूमिका है, यह किसी से छुपी नहीं थी। 30 जनवरी 1948 को नाथुराम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई। निश्चित रूप से यह सूचना महाराजा हरि सिंह तक भी पहुंची होगी, बावजूद इसके उन्हें यह पत्र लिखने की चिंता रही, उन्हें बिल्कुल इस बात का एहसास नहीं रहा कि पूरा देश सोग में डूबा है। सरदार पटेल स्वयं गृहमंत्री हैं और महात्मा गांधी की हत्या को लेकर जो माहौल पैदा हुआ, उसमें सरदार पटेल की मानसिक स्थिति ऐसी नहीं होगी कि उन्हें इस समय कोई पत्र लिखा जाए और उस समय के हालात में उनसे यह आशा की जाए कि त्वरित रूप से वह कोई कार्यवाही कर पाने की स्थिति में होंगे।
या फिर महाराजा हरि सिंह सरदार पटेल के साथ ऐसा मानसिक तालमेल रखते होंगे कि उन्हें यह अंदाज़ा होगा कि महात्मा गांधी की हत्या के बावजूद वह इस पत्र पर ध्यान ज़रूर देंगे। साथ ही 31 जनवरी 1948 को महाराजा हरि सिंह द्वारा लिखा गया यह पत्र इस बात का भी अंदाज़ा कराता है कि सरदार पटेल की मानसिकता का उन्हें जो भी अंदाज़ा रहा हो बहरहाल स्वयं उनके लिए आज़ादी के मसीहा मोहनदास करम चंद गांधी की हत्या इतनी बड़ी बात नहीं थी कि उनके अंतिम संस्कार तक प्रतीक्षा की जाती। बल्कि सिद्धांतरूप से होना तो यह चाहिए था कि वह 13वीं तक कोई पत्र व्यवहार न करते, मगर आश्चर्य की बात यह भी है कि 13 दिनों से पूर्व ही यानी 9 फरवरी 1948 को महाराजा हरि सिंह को अपने पत्र का उत्तर भी प्राप्त हो गया। अब मैं कुछ वाक्य मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की पुस्तक ‘इण्डिया विंस फ्ऱीडम’ से नक़ल करना चाहूंगा, जिसमें उन्होंने उन हालात का उल्लेख किया है, जो अचानक महात्मा गांधी की हत्या के बाद पैदा हो गए थे।
‘‘गांधी जी की हत्या से एक युग समाप्त हो गया। में इस दिन को कभी नहीं भूल सकता कि हम लोग आधुनिक हिन्दुस्तान के महान पुत्र के जीवन की रक्षा करने में कैसे नाकाम हो गए। बम की घटना के बाद, यह समझना स्वभाविक था कि पुलिस और दिल्ली की सी॰आइ॰डी॰ उनकी सुरक्षा के लिए एहतियाती क़दम उठाऐंगे। यदि एक आम आदमी के जीवन पर हमला होता तो भी पुलिस ख़ास ध्यान देती है। यह उस समय होता है जब धमकी भरे पत्र या पम्फ़्लेट मिलते हैं। गांधी जी के मामले में केवल पत्र, पम्फ़्लेट या लेागों की धमकी ही नहीं थी बल्कि एक बम भी फेंका जा चुका था। यह हिन्दुस्तान के एक महान व्यक्तित्व के जीवन का प्रश्न था और उसके बाद भी कोई कारगर क़दम नहीं उठाया गया।
इस पूरे मामले में जो बात सब से अधिक ध्यान देने योग्य है वह यह कि सरदार पटेल गांधी जी के विरुद्ध हो गए थे। जब गांधी जी ने मुसलमानों की सुरक्षा के मसले पर उपवास रखा तो वह उदासीन थे। पटेल यह समझते थे कि यह उपवास उनके विरुद्ध था। यही कारण है कि मेरे उन्हें बम्बई जाने से मना करने पर भी उन्होंने रुकने से इंकार कर दिया।
उनके व्यवहार का स्थानीय पुलिस पर दुर्भाग्यपूर्ण प्रभाव पड़ा। स्थानीय अधिकारी सरदार पटेल की ओर देखते थे और जब उन्होंने पाया कि उन्होंने गांधी जी की सुरक्षा के लिए कोई विशेष आदेश नहीं दिया हे तो उन्होंने कोई कारगर क़दम उठाना आवश्यक नहीं समझा।
गांधी जी के स्वर्गवास पर पटेल की उदासीनता इतनी साफ़ थी कि लोगों ने इसे महसूस किया। इस घटना के बाद स्वभाविक रूप से क्रोध की लहर फैल गई। कुछ लोगां ने खुलेआम सरदार पटेल पर निष्क्रियता का आरोेप लगाया। जय प्रकाश नारायण ने इस मसले को उठाने में महत्वपूर्ण साहस दिखाया। गांधी जी वे स्वर्गवास पर दुख और पीड़ा व्यक्त करने के लिए दिल्ली में बुलाई गई एक मीटिंग में जय प्रकाश नारायण ने साफ़ शब्दों में कहा कि भारत सरकार के गृहमंत्री इस हत्या की जिम्मेदारी से नहीं बच सकते। उन्होंने सरदार पटेल से सफ़ाई मांगी कि आख़िर क्यों गांधी जी की सुरक्षा के लिए कारगर क़दम नहीं उठाए गए जबकि गांधी जी की हत्या के लिए लोगों को भड़काने के लिए खुले आम प्रचार किया जा रहा था और उन पर बम भी फैंका गया था।
कलकत्ता के श्री प्रफुल चन्द्र घोष ने भी यही आवाज़ उठाई। उन्होंने गांधी जी के मूल्यवान जीवन को बचाने में नाकाम रहने पर भारत सरकार की आलोचना भी की। उन्होंने बताया कि सरदार पटेल का राजनीतिक जीवन गांधी जी का त्रृणी है आख़िर आज वह एक सशक्त नेता और गृहमंत्री हैं आख़िर वह कैसे स्पष्ट कर सकते हैं कि गांधी जीका जीवन बचाने के लिए कोई क़दम क्यों नहीं उठाया गया?
सरदार पटेल ने इन आरोपों को विशेष रूप से अपने विरोध में लिया। इस में कोई शक नहीं कि उन्हें बहुत दुख था परन्तु उन्होंने इस पर रोष प्रकट किया कि लोग इस प्रकार उन पर खुले आम आरोप लगरा रहे हैं।
देश के विभिन्न भागों में होने वाली घटनाओं में देखा गया कि इस समय साम्प्रदायिकता का जहर कितना अन्दर तक उतर चुका है। पूरा देश इस हत्या से शोक में डूबा हुआ था परन्तु कुछ शहरों में लोगों ने मिठाइयाँ बाँटीं और प्रसन्नता व्यक्त करने के लिए समारोह किए। ऐसा विशेष रूप से ग्वालियर और जयपुर शहरों में हुआ। मुझे इस से दुख पहुँचा जब मैंने सुना कि इन दोनों शहरों में खुले आम मिठाईयाँ बाँटी जा रही थीं और कुछ लोग निर्लज्जता से खुले आम प्रसन्नता प्रकट कर रहे थे। पूरा देश शोक में डूबा हुआ था और लोगों का क्रोध उन सभी लोगों के विरुद्ध था जो गांधी जी के शत्रु समझे जाते थे। इस दुखद घटना के दो या तीन हफ़्ते बाद ही हिन्दू महासभा और आर॰एस॰एस॰ के लीडर बाहर आकर लोगों का सामना नहीं कर सकते थे। डा॰ श्यामा प्रसाद मुखर्जी उस समय हिन्दू महासभा के अध्यक्ष और केन्द्रीय मंत्री थे। वह अपने घर से बाहर आने की हिम्मत नहीं करते थे और कुछ समय के बाद उन्होंने महासभा से त्यागपत्र दे दिया।
Wednesday, July 14, 2010
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