Wednesday, June 30, 2010

फ़ौज समस्या है कश्मीर की समाधान नहीं.......
अज़ीज़ बर्नी

कोलकाता प्रेज़िडेंसी जेल में बंद अब्दुल्ला की दास्तान का एक बड़ा भाग पाठकों की सेवा में प्रस्तुत किया जा चुका है। समय और परिस्तिथियां इस बात की इजाज़त नहीं देते कि हम इस दास्तान को और आगे बढ़ाएं, इसलिए कि कश्मीर की स्थितियां ख़राब से ख़राब तर होती जा रही हैं, अतः इस सिलसिले को हम यहीं रोकते हैं। इतना विवरण जनता के सामने लाने का उद्देश्य भी यही था कि अगर वह सब कुछ जो अब्दुल्ला ने लिखा सही है तो जिस तरह तिहाड़ जेल से मआरिफ़ और अरशद ने अपनी दास्तान लिख कर हमें भेजी हमने उसे प्रकाशित किया फिर उन्हें रिहाई नसीब हुई। ऐसा ही कुछ कानपुर से संबंध रखने वाले वासिफ़ हैदर आदि के मामले में हुआ। हमें ख़ुश होगी कि यदि यही सच है तो उसे भी न्याय मिले।
परन्तु अब कश्मीर की स्थिति की तरफ़ वापस लौटना बेहद आवश्यक लगता है। हाल ही में कश्मीर के दोरे से वापस लौटे संघ परिवार के सदस्य तरुण विजय ने जिस तरह सीआरपीएफ के जवानों के हालात का उल्लेख किया है और कश्मीरियों के हवाले से अपने दृष्टिकोण को प्रकट किया है उसे पढ़कर बार बार यह एहसास होता है कि शायद यही वह सोच है जिसके कारण कश्मीर की स्थितियां सामान्य नहीं हो पातीं। निःसंदेह हमारी तमाम हमदर्दियां और मोहब्बतें अपनी फौज और पुलिस के साथ होनी चाहिएं, मगर हम अपने देश की जनता को भी अनदेखा नहीं कर सकते। उनके अफ़सोसनाक हालात को अनदेखा नहीं कर सकते। हमें अपनी सोच के इस दोहरे स्तर को बदलना होगा। जब नक्सलाइट हमारी पुलिस और फौज पर आक्रमण करते हैं, उनकी जान तक ले लेते हैं तो हमारी प्रतिक्रिया यह होती है कि उनसे बात की जाए, उनकी मुहिम का उद्देश्य क्या उसको समझा जाए, और जब कश्मीर का मामला होता है तो हमारे सोचने का ढंग अलग होता है। हम दोनों का की समर्थन नहीं करते। कश्मीर में अगर पुलिस और सीआरपीएफ के जवानों को निशाना बनाकर हमला किया जाता है तो यह दुख की बात है और आलोचना का विषय है। इसी तरह नक्सलाइट जो हमारी पुलिस और फौज पर हमला करते हैं उनकी भी आलोचना की जानी चाहिए। मगर इस अंतर को यूं भी समझना होगा कि कश्मीर में जो प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है उसमें पुलिस और फौज का अपना प्रदर्शन क्या प्रशंसनीय है। हमने जिस तरह हर दरवाज़े पर पुलिस तैनात कर दी है क्या यह प्रशंसनीय है? हम जिस तरह प्रदर्शन करने वालों की आवज़ को दबा देना चाहते हैं, पुलिस की गोली सेे मासूम बच्चे शिकार होते हैं क्या यह प्रशंसनीय है? और जब जिनकी गोलियों से यह बच्चे मरते हैं, उनके विरुद्ध प्रदर्शन करके अपनी बात कहने का प्रयास किया जाता है तो उनसे यह अधिकार भी छीन लिया जाता है, क्या यह प्रशंसनीय है? आज कश्मीर की स्थितियों के लिए कौन ज़िम्मेदार है, क्या यह सोचने की आवश्यकता नहीं है? हमें इस बात का भी बेहद दुख है कि जम्मू व कश्मीर के मुख्यमंत्री स्थिति को नियंत्रण में रखने के लिए केंद्र से और फौज की मांग कर रहे हैं। क्या उन्होंने एक बार भी सोचा कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि कहीं कश्मीर में फौज की तैनाती ही सबसे बड़ी समस्या हो। उन्हें क्यों यह याद नहीं रहा कि उनके दादा शेख़ मुहम्मद अब्दुल्ला घाटी के सबसे लोकप्रिय और पसंदीदा नेता थे। आज उनके इस नौजवान चेहरे में कश्मीर का अवाम उनसे यही आशा कर रहा था कि केंद्रिय सरकार से उनके अच्छे संबंध हैं, जिसका लाभ कश्मीर समस्या के शांतिपूर्ण हल के रूप में मिल सकता है। संभवतः उन्हें अपनी बेहद व्यस्तता के कारण इतिहास के दामन में झांकने का इतना अवसर न मिला हो कि उन्होंने अगस्त 1947 के बाद से आजकी स्थितियों को समझा लिया हो और केंद्रीय सरकार से कश्मीर के भूत, वर्तमान और भविष्य को सामने रख कर बातचीत करने का निर्णय कर लिया हो। जैसा कि हम पहले भी निवेदन कर चुके हैं कि कश्मीर समस्या अब हमारे लिए प्राथमिकता पर है। हम मौजूदा परिस्थियों को सामने रख कर भी तमाम तथ्य पेश करते रहेंगे और हम हाल ही की हिंसात्मक घटनाओं में मरने वाले अशफ़ाक़ अहमद खांडे (15), इम्तियाज़ अहमद (17) और शुजाअतुल इस्लाम (19) पर भी मुख्यमंत्री का ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे कि उन कम उम्र बच्चों के साथ जो सुलूक हुआ क्या वह ठीक था या फिर उनकी मौत को दुर्घटना न मानते हुए उसे क़त्ल की वारदात स्वीकार कर लिया जाए? और जो भी इसके लिए उत्तरदायी हैं उनसे पूछताछ की जाए। अगर हम इसी तरह हर दुर्घटना के बाद उनका उत्साहवर्धन करते रहेंगे जो इन परिस्थितियों के लिए उत्तारदायी हैं, और अधिक फौज की तैनाती करते रहेंगे, कश्मीर घाटी को एक ऐसी जेल का रूप दे देंगे जिसमें रहने वालों को इतनी सहूलतें भी मुहैया न हों जितनी कि आम क़ैदियों को क़ैद में रहने पर होती हैं, तो क्या हम आशा कर सकते हैं कि यह वह रास्ता है जिस पर चल कर हम कश्मीर के शांतिपूर्ण हल की आशा कर सकते हैं। बावजूद इस तमाम ख़ूनख़राबे के हम नक्सलाइट्स की भावनाओं को समझना चाहते हैं, उनसे बातचीत करना चाहते हैं, समस्या का शांतिपूर्ण हल तलाश करना चाहते हैं, यह एक सकारात्मक सोच है, मगर यह सोच केवल नक्सलाइट तक सीमित न रहे, बल्कि हमें इस सोच का प्रदर्शन कश्मीर और कश्मीरियों के संदर्भ में भी करना चाहिए। मैं निकट भविष्य में 11 जून को तुफ़ैल की मौत के बाद से 29 जून को मारे जाने वाले अशफ़ाक़ अहमद खांडे (15), इम्तियाज़ अहमद (17) और शुजाअतुल इस्लाम (19) और घाटी में इन सब की हत्या को लेकर पैदा हुई स्थितियों पर एक विस्तृत रिपोर्ट मुख्यमंत्री जम्मू व कश्मीर और भारत सरकार की सेवा में पेश करने का इरादा रखता हूं, मगर साथ ही मैं यह भी आवश्यक समझता हूं कि इतिहास के दामन में झांकने का जो सिलसिला हमने शुरू किया है उसको भी ध्यान में रखा जाए। अगर हम अपने भूत को अनदेखा करेंगे तो न वर्तमान की घटनाओं को समझ पाएंगे और न भविष्य की बेहतरी के लिए कुछ निर्णय ले पाएंगे। अतः इसी प्रयास को सामने रखते हुए मैं पाठकों और भारत सरकार की सेवा में पेश कर रहा हूं शेख़ मुहम्मद अब्दुल्ला का वह ऐतिहासिक भाषण जो उन्होंने 11 अगस्त 1952 को संविधान सभा में दिया।
मुलाहेज़ा फरमाएं शेख मोहम्मद अब्दुल्ला का एतिहासिक ख़िताबः
हमें याद रखना चाहिए कि सत्ता के लिए हमारा संघर्ष विधान सभा के आयोजन के द्वारा सफलता के साथ अपने बसपउंग पर पहुंच गया है। यह आपके लिए है कि नए कश्मीर को हक़ीक़त में बदल दें और मैं इसके प्रारंभिम शब्दों को याद दिलाना चाहूंगा जो हमारी भावनाओं में हलचल पैदा करेंगे।
‘हम जम्मू व कश्मीर, लद्दाख़ और सीमावर्ती इलाक़ों के लोगों के साथ-साथ पुँछ और चीनानी क्षेत्र जो आमतौर से जम्मू व कश्मीर राज्य के तौर पर जाना जाता है, अपनी यूनियन को पूरे तौर पर समानता और स्वयं निर्णय करने के कार्य से सुशोभित करने और स्वयं अपने बच्चों को सदा के लिए अत्याचार की गुफा, ग़रीबी, ज़िल्लत और अंधविश्वास, मध्यकाल के अंधेरे और अनभिज्ञता से सूर्य की रोशनी से भरीपुरी घाटी की ओर, जहां आज़ादी, विज्ञान और ईमानदारी का राज्य हो, जहां पूरब की जनता का ऐतिहासिक नव-जीवन और पूरी दुनिया का काम करने वाली जनता की सम्मानजनक हिस्सेदारी हो और एशिया की इस ज़मीन को बरफ़ के सीने पर एक मोती की तरह चमकाने का दृढ़ विश्वास हो हम अपने राज्य के निम्नलिखित संविधान को विचार विमर्श के लिए पेश करते हैं।
यह श्रीनगर नेशनल कान्फ्ऱेंस के 1947 में होने वाले अधिवेशन में स्वीकार किया गया था। आज 1951 में इस विधानसभा में राज्य के चारों ओर से शामिल मर्द औरतें और उनकी सम्मिलित अभिलाषाओं ने इसे स्वायत्ता अथाॅरिटी बना दिया है। इस विधान सभा को अथाॅरिटी के माध्यम से तैयार किया गया और यह राज्य के तमाम नागरिकों के जनतांत्रिक अधिकार, इन्साफ़ पसंद समाजी अधिकार और सुरक्षा के बुनियादी संविधान के लिए आवश्यक बुनियाद का आधार है।
आप जम्मू व कश्मीर राज्य में स्वायत्ता अथाॅरिटी हैं आप जो तय करेंगे उसे अपरिवर्तनी क़ानून की ताक़त प्राप्त होगी। किसी मुल्क के बुनियादी लोकतांत्रिक सिंद्धांत अमेरिकी और फ्ऱांसीसी संविधान में अच्छी तरह सम्मिलित किए गए हैं और एक बार फिर हमारे बीच उसको नई रूपरेखा दी गई है। मैं 1791 के फ्ऱांसीसी संविधान के आर्टिकल-3 के सुविख्यात शब्दों को दोहराना चाहूंगा।
‘बुनियादीतौर पर सभी तरह की स्वायत्ता का आधार देश होता है ह्न स्वायतता ग़्ौर अविभाजित, अहस्तांतरर्णीय और समय के साथ समाप्त नहीं होती है।’ हमें यह ताक़त किस तरह की ज़िम्मेदारी देगी यह स्पष्ट होना चाहिए। हमारे सामने सर्वोच्च राष्ट्र के हित के फैसले हैं जिनको हमें स्वीकार करना होगा। हमारे माध्यम से लिए गए फैसलों के सही होने का आधार न केवल हमारी भूमि और उसके लोगों की ख़ुशियों से होगा बल्कि आने वाली नसलों के भाग्य से भी होगा।
तो फिर इस सभा का अस्तित्व किन महत्वपूर्ण कार्यों को करने के लिए किया गया होगा। एक महान कार्य जो इस सभा के सामने है वह यह है भविष्य में देश को चलाने के लिए संविधान निर्माण को अंजाम देना होगा। संविधान बनाना एक कठिन और लम्बा कार्य है मैं संविधान के कुछ विशिष्ट पहलुओं के बारे में बताना चाहूंगा जो इस सभा की मेहनत का परिणाम होगा।
देश के लिए एक महत्वपूर्ण विषय यह भी होगा कि महाराजा के परिवार का भविष्य क्या होगा। हमें शीघ्रता और बुद्धिमत्ता दोनों के साथ फैसला करना होगा और इसी फैसले पर हमारे राज्य की कार्य प्रणाली क्या होगी और चरित्र का आधार होगा।
तीसरी महत्वपूर्ण समस्या जो आपके ध्यान की प्रतीक्षा कर रही है वह है भूमि सुधारों से जुड़ी परिस्थिति जिसे सरकार ने बड़े जोश और भरोसे के साथ शुरू किया था।
हमारी ‘भूमि जोतने वाले’ की करने वाले की, पाॅलीसी ने किसानों के अंधेरे मकानों में रोशनी फैला रही है लेकिन साथ ही साथ उसने भूमि मालिकों के मुआवज़े की मांग की समस्या भी पैदा की। देश, समस्त धन और संसाधनों का मालिक होता है और देश के प्रतिनिधि अपने दावों पर सही और अंतिम फैसला देने वाले बेहतरीन जज होते हैं। इसलिए आपके हाथों में इस फैसले की ताक़त है।
अंत में यह सभा उन तीन विकल्पों, जिसे मैं बाद में बताऊंगा पर विचार करने के बाद विलय होने पर अपना आख़िरी फैसला देगी। यह हमारी ताक़त और जोश को एक रास्ता देगा और जिस दशा में हम पहले ही अपने देश को सामाजिक और आर्थिक प्रगति के लिए निकल पड़े हैं।
संविधान बनाने से पूर्व विशेष काम के लिए हमें प्राकृतिक तौर पर दुनिया भर के लोकतांत्रिक संविधान के बेहतरीन सिद्धांतों से अगुवाई प्राप्त करनी होगी। हमें अपने काम को बराबरी, आज़ादी और सामाजिक इन्साफ़ के सिद्धांतों की बुनियाद पर तय करना होगा जोकि आज तमाम विकसित संविधानों का महत्वपूर्ण भाग बन गया है। सभी लोकतांत्रिक देशों मंे आवश्यक समझा जाने वाला क़ानून का राज हमारे राजनैतिक ढांचे की बुनियादी चीज़ होनी चाहिए। क़ानूनी मामलों में सबकी बराबरी और न्यायपालिका का कार्यपालिका के स्वतन्त्र से अलग होना हमारे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। बोलने, आन्दोलन करने और संगठनों के मामले में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी होनी चाहिए। प्रेस की स्वतंत्रता और विचार की स्वतंत्रता हमारे संविधान की भी विशेषता होनी चाहिए। मैं बहुत विस्तार से इन अधिकारों और कर्तव्यों पर प्रकाश नहीं डालना चाहता जो नए कश्मीर में पहले से ही मौजूदा है जो किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का अटूट हिस्सा है और जिसकी परिभाषा में कहा गया है कि यह सामाजिक संगठनों का ऐसा सिस्टम है जिसमें जनता अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से सरकार चलाती है और इसमंे राजनैतिक और नागरिक स्वतंत्रता की गारंटी होती है।
.........................................................................(जारी)

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