Friday, June 25, 2010

इतिहास के पन्नों में दर्ज शेख़ अब्दुल्ला की यादगार तक़रीर
अज़ीज़ बर्नी

इतिहास के पन्नों में सुरक्षित एक बेहद महत्वपूर्ण दस्तावेज़ इस समय आपकी निगाहों के सामने है, इसके बाद अधिक जगह ही बची नहीं, अतः आज मेरे पास अधिक लिखने का अवसर नहीं है और संभवतः इसकी बहुत अधिक आवश्यकता भी नहीं है, इसलिए कि देश विभाजन की वास्तविकता को सामने रखने के लिए मैं जो तथ्य प्रस्तुत करना चाहता हूं, वह 5 फरवरी 1948 को आयोजित संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद की एक बेहद महत्वपूर्ण मीटिंग में जम्मू व कश्मीर राज्य के प्रधानमंत्री शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला का निम्नलिखित भाषण स्पष्ट कर देता है। मैं अपने पाठकों का ध्यान जिन दो विशेष बिंदूओं की ओर आक्रषित करना चाहता हूं और जिनका हवाला अपने इस मुसलसल लेख की आगामी क़िस्तों में विभाजन की एतिहासिक वास्तविकता को सामने रखने के लिए मुझे बार-बार प्रस्तुत करने की आवश्यकता होगी, आपकी सेवा में पेश कर देना चाहता हूं ताकि सभी देशवासियों और हमारी सरकार के भी संज्ञान में रहे कि उस समय भारत की सबसे बड़ी मुस्लिम बहुसंख्यक (80 प्रतिशत) आबादी वाले राज्य की जनता और उसके प्रधानमंत्री की विचार धारा क्या थी, दृष्टिकोण क्या था।

शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला ने अपने इस यादगार भाषण में यह साफ साफ कहा था कि द्विराष्ट्र सिद्धांत और इस सिद्धांत के तहत विभाजन को वह और उनके राज्य की जनता स्वीकार नहीं करती और यह भी कि राजनीति में धर्म के लिए कोई स्थान नहीं है। यह बात कही थी उसी समय जम्मू व कश्मीर राज्य के उस शासक ने जिसे राज्य में सबसे अधिक लोकप्रियता प्राप्त थी। जिसके कहे गए शब्दों और निर्णय के महत्व को अनदेखा नहीं किया जा सकता था। यह भाषण यह भी स्पष्ट कर देता है कि उस समय किन स्थितियों को सामने रखते जम्मू व कश्मीर राज्य को भारत में शामिल करने का निर्णय किया गया था और धर्म के नाम पर अस्तित्व में आए पाकिस्तान के साथ शामिल होने से साफ इंकार करते हुए शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला ने मोहम्मद अली जिन्ना की कार्यप्रणाली की आलोचना की थी और कहा था कि हमारे आन्दोलन का विरोध करने वाला पाकिस्तान आज हमारी आज़ादी का स्वयंभू चैम्पियन बन गया है।

अब प्रस्तुत है वह यादगार भाषणः

‘‘मैंने धैर्य और सम्मान के साथ ध्यानपूर्वक पाकिस्तानी प्रतिनिधियों और सुरक्षा परिषद के साथ कई अवसरों पर अपने प्रतिनिधि मण्डल के सदस्यों के बयानों को सुना है। मैंने सुरक्षा परिषद में धैर्यपूर्वक बहस को सुना है, लेकिन मुझे लगता है कि मैं उलझन ;बवदनिेमकद्ध में हूं। आख़िर यह विवाद क्या है? विवाद में बिंदू यह नहीं है कि महाराजा की स्वायत्ता पर प्रश्न खड़े किए गए, जैसे कि कल पाकिस्तानी प्रतिनिधि ने कहा था.......

सुरक्षा परिषद के सामने विवाद का मुद्दा कश्मीर राज्य का कुशासन ;उंसंकउपदपेजतंजपवदद्ध भी नहीं है। विवाद इस वास्तविकता के चारों ओर धूम रहा है कि कश्मीर क़ानूनी और संवैधानिक तरीकें से भारतीय डोमिनियन ;क्वउपदपवदद्ध का हिस्सा बन गया है। सीमा के दोनों ओर क़बाइली जनता हमारे देश में बड़ी संख्या में आ गए हैं। पाकिस्तान सरकार इनकी सहायता करती रही है और कर रही है, इसका उद्देश्य भारत और पाकिस्तान के बीच एक बड़ा युद्ध ;बवदसिंहतंजपवदद्ध छेड़ना है, लेकिन (पाकिस्तानी प्रतिनिधि ने) पाकिस्तानी सरकार के द्वारा क़बाइली जनता या राज्य की सरकार के विरूद्ध बग़ावत करने वालों की किसी भी तरह की सहायता से पूरी तरह इंकार किया है......... और इस तरह इस आसान सी समस्या को उलझाया गया है....... आज पाकिस्तान हमारी स्वाधीनता का चैम्पियन बन गया है। मुझे याद है जब मैंने 1946 में ‘कश्मीर छोड़ो’ का नारा दिया था, उस समय पाकिस्तान सरकार के नेता मोहम्मद अली जिन्ना जो अब गवर्नर जनरल हैं ने मेरी सरकार का विरोध किया था और घोषणा की थी कि यह आन्दोलन कुछ लड़ाकुओं ;त्मदमहंकमेद्ध का आन्दोलन है और मुलमानों का इस आन्दोलन से कोई लेना देना नहीं है।

मुस्लिम कांफ्रेस जिसके विषय में काफी कुछ कहा गया है, उसने मेरे आन्दोलन का विरोध किया था और महाराजा कश्मीर के साथ अपनी वफादारी ;स्वलंसजलद्ध की घोषणा की थी। पाकिस्तान के प्रतिनिधि अब कहते हैं कि कभी ‘कश्मीर छोड़ो’ का समर्थन करने वाले शेख़ अब्दुल्ला ने कश्मीर के महाराजा के साथ हाथ मिला लिया है....... लेकिन जम्मू कश्मीर राज्य और उसके निवासी ख़ामोश क्यों हैं? ऐसा इसलिए था क्योंकि मैं और मेरे संगठन ने इस फार्मूले में कभी विश्वास नहीं रहा कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग अलग क़ौमें हैं। हम द्विराष्ट्र सिद्धांत में विश्वास नहीं रखते हैं और न ही साम्प्रदायिक घृणा या साम्प्रदायिकता में। हमारा विश्वास है कि धर्म की राजनीति में कोई जगह नहीं है, इसलिए जब हमने ‘कश्मीर छोड़ो’ आन्दोलन शुरू किया तो केवल मुसलमानों को ही कष्टों का सामना नहीं करना पड़ा था, बल्कि हमारे हिन्दू और सिख कामरेड भी इसका शिकार हुए थे।

राज्य में हालात दिन प्रतिदिन ख़राब हो रहे थे और अल्पसंख्यक बहुत घबराए हुए थे। इसके परिणाम स्वरूप राज्य प्रशासन पर मुझे और मेरे साथियों को रिहा करने का ज़बरदस्त दबाव था। बाहर स्थितियों का तक़ाज़ा था कि नेशनल कांफ्रेंस के सदस्यों को उनके लीडर के साथ रिहा किया जाए और उसी के अनुसार हम रिहा हुए थे। जेल से रिहाई के तुरंत बाद हमारे सामने सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह था कि कश्मीर को पाकिस्तान या हिन्दुस्तान में शामिल होना चाहिए या फिर आज़ाद रहना चाहिए। हम अपनी आज़ादी को प्राप्त किए बिना इस महत्वपूर्ण समस्या को सुलझा नहीं सकते थे और हमारा नारा ‘शामिल होने से पूर्व आज़ादी’ हो गया। श्रीनगर में मेरे कुछ पाकिस्तानी मित्र मिले, उनसे दिल खोल कर बातचीत हुई और हमने अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट किया।

जब मैं पाकिस्तान के हमारे मित्रों के साथ बातचीत में लगा था, मैंने अपने एक साथी को लाहौर रवाना किया, जहां उसने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ां और पंजाब सरकार के उच्च अधिकारियों से भेंट की। उनके सामने भी वही दृष्टिकोण मेरे साथी ने पेश किया और उनसे इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर विचार करने के लिए और समय देने का निवेदन किया कि हमारे किसी भी ओर होने की घोषणा से पूर्व हमारी आज़ादी के लिए सहायता करें। तब एक दिन जब यह बातचीत जारी थी तो मुझे यह सूचना मिली कि कश्मीर के सीमार्वती क़स्बे मुज़फ्फराबाद पर बाक़ायदा तरीके़ से हमला हुआ है।

आक्रमणकारी हमारी ज़मीन पर आए और हज़ारोें की संख्या में हमारे लोगों का क़त्ल कर डाला। उनमें अधिकतर हिन्दू और सिख थे, लेकिन मुसलमान भी शामिल थे। हज़ारों की संख्या में हिन्दू, सिख और मुसलमान लड़कियों का अपहरण कर लिया, हमारी जायदादों को लूटा और वे ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर के दरवाज़े तक पहुच गए। परिणाम यह हुआ कि शहरी, पुलिस और फौजी व्यवस्था असफल हो गई। महाराजा उसी रात को अपने दरबारियों और अपनी धन दौलत के साथ निकल गए और परिणाम स्वरूप हर तरफ आंतक था। वहां ऐसा कोई नहीं था, जो स्थितियों को नियंत्रण में कर सके। इस आपातकालीन स्थिति में नेशनल कांफ्रेंस अपने दस हज़ार स्वयंसेवकों के साथ सामने आई और देश की व्यवस्था की ज़िम्मेदारी संभाली। हमने राजधानी के बैंकों, कार्यलायों और सभी लोगों के घरों की सुरक्षा की। इस तरह प्रशासन बदला। अब हम प्रशासन को कार्यकारी रूप से चलाने वाले थे। बाद में महाराजा ने इसे क़ानूनी जामा पहना दिया..... मैं स्पष्ट कर रहा था कि किस तरह विवाद पैदा हुआ। किस तरह पाकिस्तान ग़ुलामी की यह परिस्थितियां हम पर थोपना चाहता था। पाकिस्तान को हमारी स्वाधीनता से कोई मतलब नहीं है, अन्यथा उसने हमारे स्वाधीनता आन्दोलन का विरोध नहीं किया होता। पाकिस्तान ने हमारी सहायता की होती, जब हमारे देश के हज़ारों लोग जेलों में बंद थे और कई हज़ार मौत के दहाने पर थे। पाकिस्तानी नेता और पाकिस्तानी समाचारपत्र कश्मीरी जनता को बुरा भला कह रहे थे, जो इन अत्याचारों से गुज़र रहे थे।

तब पाकिस्तान अचानक पूरी दुनिया के सामने जम्मू व कश्मीर की जनता की आज़ादी के चैम्पियन के रूप में आया। मेरा विचार था कि पूरी दुनिया को हिटलर और गोयबल्स मुक्ति मिल चुकी है, लेकिन हमारे ग़रीब देश में जो घटनाएं घटित हुई हैं और जिनका सिलसिला अब भी जारी, मुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि उनकी आत्माएं अब पाकिस्तानियों के शरीरों में प्रवेश कर गयी हैं।

अगर पाकिस्तान आगे आता और कहता ‘हम शामिल होने के औचित्य पर प्रश्न करते हैं, मैं इस बात पर बहस के लिए तैयार हूं कि जम्मू व कश्मीर का भारत में शामिल होना क़ानूनी था कि नहीं, हालांकि अब वह कहते हैं कि हम राय शुमारी चाहते हैं, हम कश्मीरी जनता की स्वतंत्रता पूर्वक राय प्राप्त करना चाहते हैं, जनता पर कोई दबाव नहीं होना चाहिए उनको आज़ादी के साथ अधिकार होना चाहिए कि वह किस देश में शामिल होना चाहते हैं’।

बहुत पहले पाकिस्तान को कश्मीरी जनता ने न केवल यह पेशकश की थी बल्कि यह पेशकश भारत के प्रधानमंत्री ने भी उस समय की थी, जबकि मुझे लगता है कि उनको ऐसा करने की थोड़ी भी आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि कश्मीर समस्याओं से घिरा था।

हमने मन में यह बैठा लिया है कि हमें पाकिस्तान कभी भी इसकी अनुमति नहीं देगा कि या तो हम मुज़फ्फराबाद, बारामूला, श्रीनगर और अन्य शहरों और गांवों के अपने भाईयों और रिश्तेदारों की तरह कठिनाईयों से घिरे रहें या फिर किसी बाहरी शक्ति से सहायता मांगें।

इन स्थितियों में महाराजा और कश्मीरी जनता दोनों ने भारत सरकार से अपने सम्मिलित होने को स्वीकार करने का निवेदन किया। भारत सरकार इस मांग को आसानी से स्वीकार कर सकती थी और यह कह सकती थी ‘बिल्कुल ठीक, हम तुम्हारे सम्मिलित होने को स्वीकार करते हैं और तुम्हारी सहायता भी करेंगे’। भारतीय प्रधानमंत्री को किसी प्रस्ताव में वृद्धि करने की कोई आवश्यकता नहीं थी, जब वह सम्मिलित होना स्वीकार कर रहे थे और यह कि ‘‘भारत कश्मीर में बुरी स्थितियों का लाभ नहीं उठाना चाहता है। हम यह सम्मिलित होना स्वीकार करेंगे क्योंकि कश्मीर के भारतीय डोमिनियन में शामिल हुए बिना हम कोई फौजी सहायता देने में असमर्थ हैं, लेकिन जब देश आक्रमणकारियों, क़ातिलों और लुटेरों से आज़ाद हो जाए तब जनता इस सम्मिलित होने में संशोधन कर सकती है। यह वह प्रस्ताव था जो भारतीय प्रधानमंत्री नेे पेश किया था। यही वह पेशकश थी जो कश्मीरी जनता ने पाकिस्तानी सरकार से की थी, लेकिन पाकिस्तान ने इंकार कर दिया था, क्योंकि उसे लगा था कि वह एक सप्ताह में पूरे जम्मू व कश्मीर राज्य पर विजय प्राप्त कर लेगा और फिर वह दुनिया के सामने दावा पेश करेगा, जैसा कि युरोप में कुछ समय पहले हो चुका है।

बहरहाल आज हम कश्मीर की स्थितियों के बारे में चर्चा कर रहे हैं। मैं कहना चाहूंगा कि हम बिना डेनमार्क के प्रिंस हेमलेट ड्रामा खेल रहे हैं।

सुरक्षा परिषद को समस्या को उलझाना नहीं चाहिए। प्रश्न यह नहीं कि हम आन्तिरक आज़ादी चाहते हैं। प्रश्न यह नहीं है कि महाराजा ने किस तरह अपना राज्य प्राप्त किया और वह स्वायत्त हैं या नहीं। यह बिंदू सुरक्षा परिषद के सामने नहीं हैं। क्या कश्मीर क़ानूनी रूप से भारत में सम्मिलित हो गया है, इस मुद्दे पर पाकिस्तान की ओर से शिकायत सुरक्षा परिषद के सामने लाई गई है, यह विवाद के बिंदू नहीं हैं। अगर यह विवाद के बिंदू रहे होते तो हमें इस विषय पर बहस करनी चाहिए। हम सुरक्षा परिषद के सामने यह प्रमाणित कर देंगे कि कश्मीर और कश्मीरी जनता क़ानूनी और संवेधानिक आधारों पर भारतीय यूनियन में सम्मिलित हुई है और पाकिस्तान को इस सम्बद्धता पर कोई प्रश्न खड़ा करने का अधिकार नहीं है। फिर भी सुरक्षा परिषद के सामने यह बहस नहीं है। सुरक्षा परिषद को एक कमीशन रवाना करना चाहिए जो जांच करें कि पाकिस्तान के द्वारा जो शिकायत सामने लाई गई है वह ठीक है या नहीं....... इसलिए किसी को उस जगह जाना चाहिए। उसके बाद यह हमारे लिए उचित होगा कि हम प्रमाणित करें कि सुरक्षा परिषद के सामने लाई गई शिकायत अंतिम शब्द तक सही है या नहीं। हम केवल यही सहायता चाहते हैं, इसके अलावा कोई और सहायता नहीं।’’

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