Thursday, June 24, 2010

लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी
अज़ीज़ बर्नी

इस्लाम वह धर्म है जो एकता व भाईचारा, न्याय, इंसान दोस्ती और देश पे्रम का संदेश देता है। क़ुरआन वह पवित्र किताब है जो हमें न केवल धार्मिक शिक्षा से परिचित कराती है, बल्कि एक पूर्ण जीवन दर्शन भी उपलब्ध कराती है, अर्थात Quran is a completeconstitution of life for all mankind यदि हम क़ुरआन करीम में लिखी एक एक आयत का अनुवाद, व्याख्या और शान-ए-नज़ूल का ध्यानपूवर्क अध्यन करें तो जीवन का कोई पहलू ऐसा नहीं है, जिसके लिए हमें कुरआन करीम से मार्गदर्शन प्राप्त न हो। यदि हम अपनी प्रतिदिन की नमाज़ों को धार्मिक दृष्टिकोण से अर्थात इबादत-ए-इलाही के साथ साथ सामाजिक दृष्टिकोण से देखें, तब भी इसके उद्देश्य को समझा जा सकता है। हम अपनी पांच समय की नमाज़ें अपने घर पर या अपने घर और काम की जगह के निकट की मस्जिदों में अदा करते हैं, यदि यात्रा पर हैं तो दूसरी बात है, वह इसलिए कि हमारे घरों में धार्मिक वातावरण बना रहे और जब हम अपने घर या आॅफ़िस के निकट की मस्जिद में नमाज़ अदा कर रहे होते हैं तो हमें अपने आस पास रहने वालों या साथ काम करने वालों से मेल-मिलाप का अवसर प्राप्त होता है। हम उनके दुख, दर्द और हालात को समझें, वह हमारी परेशानियों को जानें और जब नमाज़ के बाद हम एक दूसरे से हाथ मिलाते हैं तो हमारी एक निगाह एक दूसरे के चहरे पर लिखी इबारत, दिल का हाल पढ़ लेने का अवसर उपलब्ध कराती है। फिर सप्ताह में एक बार हम जुमे की नमाज़ अपने मुहल्ले या क्षेत्र की जामा मस्जिद में अदा करते हैं यानी पांच वक़्त की प्रतिदिन की नमाज़ों के मुकाबले जुमा की नमाज़ का लाभ इसलिए भी अधिक है कि सप्ताह में एक बार यह दायरा कुछ बड़ा हो जाता है। इस बार हम न केवल अपने उन भाइयों से मिलने का अवसर पा लेते हैं, जो हमसे अधिक दूरी पर रहते हैं, जो दूसरे क्षेत्र या मुहल्ले में रहते हैं, जुमे के रोज़ हमें उनके साथ भी मिलने का अवसर मिलता है। फिर जुमा की नमाज़ से पहले हमारे इमाम आली मुक़ाम का ख़ुत्बा हमें देश और शहर के हालात से वाक़िफ़ (जानकारी) कराता है। इस विशेष दिन दिया जाने वाले ख़ुत्बा में पैग़ाम-ए-इलाही (ईश्वर का संदेश) भी होता है और मौजूदा हालात पर बातचीत भी। हमारे देश को, हमारे शहर को या हमारी क़ौम को किन हालात का सामना है, वह किन किन परेशानियों से जूझ रहा है, उस पर विस्तृत बातचीत होती है। फिर साल में दो मर्तबा ईदैन की नमाज़ों के लिए यानी ईदुल फ़ित्र और ईदुल अज़हा की नमाज़ों के लिए हम शहर की ईदगाहों में जमा होते हैं, यानी इस बार यह दायरा और भी विशाल हो जाता है। अब हम अपने मुहल्ले या आसपास के मुहल्लों से अधिक बड़े दायरे में जाकर पूरे शहर के लोगों के साथ मिलने का अवसर प्राप्त कर लेते हैं। यह ख़ुशी का त्यौहार है जिसे हम ईद मिलन के शब्द से भी याद करते हैं। सही अर्थों में वर्ष में दो बार यह ईद मिलन का अवसर होता है और फिर कम से कम जीवन में एक बार जब परवरदिगारे आलम हमें हज का अवसर प्रदान करता है तो हमारे पास अवसर होता है। पूरी दुनिया के मुसलमानों से एक साथ मिलने का। हज के दिनों में हम दुनिया के कोने कोने से पहुंचने वाले ईमान वालों से मिलने का अवसर प्राप्त करते हैं। किस देश के रहने वालों को किन परेशानियों का सामना है, हम किस अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र का शिकार हैं, हमारी एकता की ताक़त हमें किस तरह इन मसाइल से छुटकारा दिला सकती है, इस पर विचार विमर्श का अवसर मिलता है। हमें हज बैतुल्लाह की ज़ियारत के साथ जब हज के मुख़तलिफ़ अरकान में हम क़दम से क़दम मिलाकर अपने धर्म के लोगों के साथ होते हैं।
आज इस अवसर पर बातचीत की आवश्यकता इसलिए पेश आई कि जिस मसले को हमने उठाया है, उसे सारी दुनिया तक पहुंचाने का एक ही तरीक़ा है, हमारी मस्जिदें। हमारे अइम्मा किराम यदि जुमे की नमाज़ के बाद उनकी दुआओं में कश्मीर की समस्या भी शामिल हो जाए तो निश्चित ही यह आवाज़ बारगाह-ए-रब्बुल इज़्ज़त तक भी पहुंचेगी व सत्ता के गलियारों तक भी और इन्शाअल्लाह शर्फ़े क़ुबूलियत (स्वीकृति) भी हासिल करेगी। यदि हमारे अइम्मा किराम (मस्जिदों के इमाम) जुमा के दिन नमाज़े जुमा से पहले अपने ख़ुतबा में दूसरी तमाम समस्याओं के साथ जो हमारी क़ौम के सामने हैं, कश्मीर की समस्या को भी शामिल कर लें और इस एकता के संदेश को हर नमाज़ी के दिल व दिमाग़ तक पहुंचा दें जिसका आदेश परवरदिगारे आलम (ईश्वर) ने क़ुरआन करीम की निम्नलिखित आयत में दिया है तो इस समस्या के हल की तलाश आवश्य किसी मंज़िल तक पहुंच सकती है।
‘वातसिमू बिहब्लिल्लाअि जमीऔं-वला तफर्रक़ू’
अनुवादः अल्लाह की रस्सी मज़बूती से थामे रहो और टुकड़ों में न बटो। (सूरा आले इमरान, आयत-102)
निःसंदेह हम इस आयत-ए-करीमा की तिलावत (पढ़ते) करते हैं और उसके अर्थों को भी समझते हैं, लेकिन काश इस आयत के अर्थों को हमने इस तरह समझा लिया होता कि यह संदेश हमारे दिलों में उतर जाता, हमारे जीवन का एक अंग बन जाता। हमारे व्यवहार में नज़र आता तो यह देशों की सरहदें हमारे दिलों में दूरी पैदा नहीं कर सकती थीं। यह साम्प्रदायिकता, यह भाषा का भेदभाव हमें एक दूसरे से अलग नहीं कर पाता। आज हम देख रहे हैं कि आबादी की लिहाज़ से दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी ताक़त होने के बावजूद हम परेशानहाल हैं, हम न केवल टुकड़ों में बटे हैं बल्कि हमारे जो देश स्वतंत्र नज़र आते हैं, जिन्हें परवरदिगार-ए-आलम ने धन दोलत से नवाज़ा है और जो हमारे अपनों के शासन में हैं, निःसंदेह उन्हें भी पूरी स्वतंत्रता प्राप्त नहीं है। कोई ताक़त है तो पर्दे के पीछे से उन्हें अपनी ग़्ाुलामी में रखती है। निःसंदेह परवरदिगार-ए-आलम (ख़ुदा) ने उन्हें अपनी मेहरबानियों की दौलत से मालामाल किया मगर अल्लाह की दी हुई दौलत पर उनसे अधिक ग़्ौरों का क़ब्ज़ा है। 1990 में बग़दाद में खाड़ी युद्ध के अवसर पर इस्लामी देशों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति में भाषण के दौरान सद्दाम हुसैन ने इसी पहलू पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि यदि हम अरब एकत्रित हो जाएं और परवरदिगारे आलम की इस दी हुई इस दौलत को जो पैट्रोल के रूप में हमें प्राप्त है अपनी अय्याशी पर ख़र्च न करें, औरतों की मंडियां लगानी बंद करें, इसका प्रयोग अपनी जनता के कल्याण के लिए करें और जिस तरह किसान को अपने अनाज की क़ीमत तय करने का अधिकार होता है उसी तरह हम अरब देशों को शासकों को भी अपनी ज़मीन से मिलने वाले पैट्रोल की क़ीमत तय करने का हक़ प्राप्त हो। हम अपने पैट्रोल को पोंड में बेचेंगे, डाॅलर में, रियाल में या दीनार में यह फैसला करने का अधिकार हमें प्राप्त हो। हम इस मामले में अमेरिकी फैसलों के अधीन क्यों हों? वह क्यों हमारे पैट्रोल की क़ीमतें तय करे? सद्दाम हुसैन की ज़ुबान से निकलने वाला यह एकता का संदेश जब दुनिया की इस सबसे बड़ी ताक़त समझे जाने वाले देश अमेरिका के शासक तक पहुंचा तो उसने समझ लिया कि मुसलमानों की सफ़ों में बिखराव की रणनीति ही हमारी सबसे बड़ी ताक़त है और हमें इन पर शासन करने का अवसर प्रदान करती है। यदि यह एकजुट हो गए और अपने फैसले स्वयं करने लगे तो हमारे एक वर्चस्व श्रेष्ठता क़ायम नहीं रह सकेगी। परिणाम सारी दुनिया के सामने है। इराक़ तबाह हुआ, अफ़ग़ानिस्तान तबाह हुआ, सद्दाम हुसैन से उनका जीवन छीन लिया गया, इस तरल दौलत (पैट्रोल) पर अमेरिका का क़ब्ज़ा हो गया।
15 अगस्त 1947 से पहले 190 वर्ष तक हमारा मुल्क अंग्रेज़ों की ग़्ाुलामी में रहा। 100 वर्ष तक हम भारतीय चाहे वह हिंदू हों या मुसलमान न केवल इनकी ग़्ाुलामी की जं़जीरों में जकड़े रहे, बल्कि हम इतनी हिम्मत भी नहीं कर सके कि अपनी स्वतंत्रता के लिए आवाज़ उठा सकें। 100 वर्ष लगे हमें अपनी खोई हुई ताक़त को को एकत्र करने में, अपने अंदर इतना साहस पैदा करने में कि जिनको हम पर थोप दिया गया है उनके ख़िलाफ़ बग़ावत का झंडा उठाने की, धर्म के नाम पर पैदा की गई नफ़रतों ने हमारे दिलों में जो दूरियां पैदा कर दी थीं उनको भूल कर अपनी स्वतंत्रता की ख़ातिर एकत्र हो जाएं। लिहाज़ा 1857 में हिंदू और मुसलमानों की मिली जुली ताक़त पहली बार इस ग़्ाुलामी की जं़जीरों को तोड़ डालने के इरादे के साथ अंगे्रज़ों के विरूद्ध जंग की शुरूआत की। फिर 90 वर्षों तक हम कंधे से कंधा मिलाकर यह यह जंग लड़ते रहे। परिणामस्वरूप 1947 में हमें स्वतंत्रता प्राप्त हुई। मगर वह अंग्रेज़ जिसने राज्यों में बटे भारत का बड़ी गहराई से अध्यन किया था और जो हमारे मनोविज्ञान को अच्छी तरह समझता था, जाते जाते हमारे बीच बिखराव के बीज बो गया। भारत व पाकिस्तान दो अलग अलग देशों की शक्ल में सामने आए और हमें मिला कश्मीर एक मिलीजुली समस्या की शक्ल में।
चंद वाक्यों में ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि को बयान करने का उद्देश्य यही था कि हमें एकता के संदेश को भी समझना है और बिखराव के कारणों पर भी सोचना है। कश्मीर समस्या एक महत्वपूर्ण समस्या है, बल्कि सच तो यह है कि आज भारत की भूमि पर हम जितनी समस्याओं से जूझ रहे हैं, वह कहीं न कहीं, किसी न किसी शक्ल में इस कश्मीर की समस्या से जुड़ी हुई है। धार्मिक मतभेद, पाकिस्तान के साथ ख़राब रिश्ते कश्मीर में लगातार क़तले आम और भारत में आतंकवादी घटनाएं। यदि हम इन सब पर नज़र डालें तो सरलता से समझ ससकते हैं कि महाराजा हरि सिंह की मानसिकता अकेले एक आदमी की मानसिकता नहीं थी जिसने आज़ादी से पहले कश्मीरी जनता को हज़ारों घाव दिए और आज़ादी के बाद एक ऐसा नासूर जो अब हर तरह से जानलेवा साबित हो रहा है। 1931 में जम्मू व कश्मीर राज्य में महाराजा हरि सिंह ने वही किया जिस उद्देश्य से 1901 में हिंदू महा सभा का जन्म हुआ था। उसके बाद 1948 में कश्मीर की समस्या को लेकर हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच जंग से जो दो पड़ोसी देशों में नफ़रत का वातावरण पैदा हुआ, वह आज तक जारी है। काश शेख़ मोहम्मद अब्दुल्लाह ने हरि सिंह की मानसिकता को उस समय समझ लिया होता, कश्मीरी जनता के दिल की आवाज़ को सुन लिया होता तो दुनिया की जन्नत कश्मीर आज जहन्नम के शोलों में न जल रही होती। उस समय बहुत सरल था यह ह्न,
मगर आज बारगाहे इलाही में यह दुआ ही की जा सकती है कि सुन ले उनकी सदा जो बरसों से तेरी रहमत के तलबगार हैं।
एक संक्षिप्त से बयान में कश्मीर के तमाम हालात को इकट्ठा करना आसान नहीं है, मगर मस्जिदों के मीनारों से यह संदेश पूरी दुनिया तक पहुंचना शुरू हो जाए की अब समय आ गया है कि अब हम उन पीड़ितों के हालात की ओर ध्यान दें जो आज आतंकवाद का शिकार हैं, जिन्हें न्याय नहीं मिल रहा है तो वह दिन दूर नहीं जब हालात बदलते नज़र आएंगे। यह तारीख़ इतनी पुरानी नहीं है कि काग़ज़ पर ही नहीं दिलों पर लिखी इबारत को पढ़ा न जा सके। वह लोग आज भी मौजूद हैं तो इन सच्चाईयों को सामने रख सकते हैं। हम अपनी सरकार और देश की जनता से सादर निवेदन करते हैं कि ख़ुदा के लिए इन्सानियत के नाते अब इस समस्या के समाधान की ओर एक गंभीर पहल करें।
कश्मीर के संदर्भ में शोधपूर्ण लेखों का सिलसिला इन्शाअल्लाह जारी रहेगा, आज का यह संक्षिप्त लेख अपने तमाम अइम्मा-ए-किराम की सेवा में एक सादर निवेदन की तरह है कि यदि वह अपनी सफ़ों (पंक्तियों) से एकता के संदेश के साथ कश्मीर समस्या की ओर क़ौम का ध्यान दिलाएं, अपनी दुआओं में इन पीड़ितों को भी शामिल कर लें जो पिछले 61 वर्षों से दुख, तक्लीफ़ व परेशानियों से जूझ रहे हैं इन पर ज़्ाुल्म ढाने वाले कोई भी हों मगर हमारी दुआ तो पीड़ितों के हक़ में है। तो आशा की जा सकती है कि वह समस्या जो पिछले 61 वर्षों से अपनी जगह क़ायम है और हमने कभी इसकी ओर गंभीरता से ध्यान दिया ही नहीं। ख़ुदा जाने किन कारणों से या किस भय और दहशत के कारण हम उनको अनदेखा करते रहे। शायद अब हमारा ध्यान उनके लिए कुछ बेहतरी का सामान प्रदान कर दे। कल से फिर मैं अपने लेख को मौजूदा हालात के साथ साथ ऐतिहासिक संदभों के प्रकाश में कश्मीर के मुकम्मल सच को सामने रखने के प्रयास की शक्ल में जारी रखूंगा। साथ ही जम्मू व कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह साहब से अनुरोध भी करूंगा कि वह इन तमाम सच्चाइयों के प्रकाश में केंद्र सरकार से बात करें। ताकि जम्मु व कश्मीर की जनता को शांतिपूर्ण, संतोषजनक और ख़ुशहाल जीवन बिताने का अवसर मिल सके।

1 comment:

आपका अख्तर खान अकेला said...

jnaab aziz saahb aapki yeh lekhni maashaa allaah apni tehzib ki khubsurt akkasi he mubaark baad qubul krten. meraa hindi blog akhtarkhanakela.blogspot.com he akhtar khan akela kota rajsthan