Thursday, May 20, 2010

अगर मौलाना नूरूल हुदा की जगह बाल ठाकरे होते तो....
अज़ीज़ बर्नी

यह क्या हो गया हैं हमें? क्यों इतने बेहिस हो गए हैं हम? क्या नैतिकता और क़ानून के दायरे में रहकर भी हम हक़ और इन्साफ़ के लिए आवाज़ नहीं उठा सकते? क्यों हमें यह इंतिज़ार रहता है कि जब तक यह आग हमारी ड्योढ़ी तक नहीं पहुंचेगी तब तक हम मौन ही रहेंगे? क्या हमारी ख़ामोशी हमारा अपराध नहीं है? क्या हम अपने इस व्यवहार से अत्याचार और अन्याय का समर्थन नहीं कर रहे हैं। मुम्बई हज हाउस के इमाम मोहतरम जनाब मुहम्मद यहया साहब को आतंकवादी बताकर उठा लिया गया, सभी प्रकार की पीड़ाएं दी गईं, 4 वर्ष तक जेल की सलाख़ों के पीछे रहने के लिए मजबूर कर दिया गया। फिर अदालत ने उनके ख़िलाफ़ कोई सबूत न मिल पाने की स्थिति में उन्हें बाइज़्ज़त बरी कर दिया। क्या इज़्ज़त बाज़ार में मिलने वाली कोई वस्तु है कि हमने जब चाहा छीन ली और जब चाहा लौटा दी? क्या यह एक वाक्य कि ‘‘अमुक व्यक्ति को अदालत ने बाइज़्ज़त बरी कर दिया है’’ उसके सभी घावों पर मरहम लगा देता है........................ वह भूल जाता है हिरासत के दौरान हुए पुलिस अत्याचार को................. क़ैद के दौरान जेल में किए गए उत्पीड़नों को................ आरोपों के दौरान समाज की घृणा और अपमान को................ बरसों लगते हैं समाज में सम्मान का स्थान प्राप्त करने में। पल भर में अपमानता का तौक़ गले में डाल देने वाले क्या यह नहीं जानते? वह सब जानते हैं, दरअसल अपमान का जीवन जीने की आदत डाल लेने के लिए विवश कर देने की चाल है यह, एक सुनियोजित षड़यंत्र है एक विशेष समुदाय को हतोत्साहित कर देने के लिए, जिस तरह देश को आज़ादी दिलाने वाले समुदाय के दामन पर विभाजन का दाग़ लगा कर उसे अपराध बोध के साथ जीने को विवश कर दिया गया था, साम्प्रदायिकता का आरोप लगा कर उन्हीं की नज़रों से गिरा दिया जो आज़ादी दिलाने में क़दम-क़दम पर साथ थे। नफ़रत की दीवारें खड़ी कर दीं। उनके दिलों में जो इस शांतिपूर्ण धरती को मुहब्बत का चमन बनाने चले थे, घृणा की लपटों के हवाले कर दिया उनके अरमानों को, यह भी एक षड़यंत्र था ताकि यह क़ौम राजनीतिक शक्ति न बन सके वह साम्प्रदायिकता के आरोप से डरे रहें और वोट डालने के समय उत्साह के साथ घरों से न निकलें किसी का खुल कर समर्थन करने से बचें, ऐसा चाहने वाले अपने उद्देश्य में कामयाब हुए मुसलमानों की राजनीतिक रुचियां कम होती गईं परिणम स्वरूप विधानसभा तथा संसंद में प्रतिनिधित्व कम होता गया। आसान नहीं है इस राजनीतिक गुत्थी को समझना। हमारा प्रयास है इन्हीं गुत्थियों को सुलझाने का और इन कठिन परिस्थतियों को आप तक पहुंचाने का। आईए! अब ज़रा मोहतरम मौलाना नूरुलहुदा साहब के साथ हुए अत्याचार और ज़्यादती पर बात करें। क्या आपको लगता है कि जहाज़ों में यात्रा करने वाले भारतीय यात्रियों की ज़ुबान से यह वाक्य पहले कभी नहीं निकला होगा कि अब जहाज़ उड़ने वाला है-- कितनी देर में जहाज़ उड़ जाएगा-- बस अब जहाज़ के उड़ने का इंतिज़ार है-- अब देखो यह जहाज़ कितनी देर में उड़ता है-- क्या आम बोल-चाल में यात्री जहाज़ की उड़ान के समय अपने प्रियजनों से बातचीत करते समय इस तरह के वाक्यों का प्रयोग नहीं करते, बल्कि यह कहते हैं कि कुछ ही देर में ‘वायुयान वायुमंडल में प्रवेश करने वाला है’, नहीं, कभी नहीं। महीने में पंद्रह दिन जहाज़ में यात्रा करने का संयोग रहता है। मैंने कभी नहीं सुना, हां अंग्रेज़ी शब्द ृजंाम वििश् का प्रयोग होता है, परंतु ऐसा तो नहीं हो सकता कि एक भारीतय आम बोलचाल की हिंदी भाषा में बोले तो उसे आतंकवादी समझ लिया जाए। चलो हो गई ग़लती शब्द को उसके शुद्ध अर्थों में न समझ पाने की और आप ने ख़तरा महसूस करते हुए संबंधित यात्री के हैंड-बैग की तलाशी ले ली, मोबाइल फ़ोन ज़्ाब्त कर लिया, यात्री की हर प्रकार से जांच परख कर ली, लगेज उतरवा कर चैक कर लिया, पास्पोर्ट की जांच कर ली, काॅल रिसीव करने वाले को बुलाकर पृष्टि कर ली, यात्री का बेकग्राउंड जान लिया, अब यात्री को जाने की अनुमति क्यों नहीं? अब पुलिस के हवाले करने का कारण? अब हिरासत में रखने, अपमानित करने, मानसिक पीड़ा पहुंचाने का कारण? अब धारा 341 के तहत जेल भेज देने का कारण और रिहाई भी ज़मानत के आधार पर। यानी सिर पर मुक़दमे की नंगी तलवार अभी भी, ऐसा क्यों? अगर संदेह का कारण उचित था तो पूर्ण जांच होने तक जहाज़ को उड़ान भरने की अनुमति क्यों दी गई? अगर जनाब मौलान नूरुलहुदा के इस वाक्य का अर्थ यही था कि जहाज़ दुर्घटना का शिकार होने वाला है तो क्या सभी यात्रियों को उतार कर जहाज़ की तलाशी ली गई। क्या ज़रूरी है कि अगर कोई आतंकवादी ऐसा करने का इरादा रखे तो वह ख़तरनाक हथियार या ऐसे डिवाइस अपने पास ही रखे, जिसके माध्यम से वह अपनी ख़तरनाक योजना को व्यवहार में ला सकता हो। उसे वह जहाज़ के किसी भी हिस्से में छुपा भी तो सकता है। संदेह मज़बूत था तो जहाज़ की पूरी तलाशी तथा तकनीकी जांच क्यों नहीं की गई? अगर यह कहा कि जहाज़ 15 मिनट में उड़ जाएगा और उसका यह अर्थ निकाला गया कि किसी आतंकवादी ने जहाज़ को (बम से या तकनीकी ख़राबी पैदा करके) उड़ाने की तैयारी की है तो जहाज़ में उसके किसी अन्य साथी की तलाश क्यों नहीं की गई। फोन पर यह तो नहीं कहा गया था कि मैं 15 मिनट में जहाज़ को उड़ा दूंगा। यह वाक्य सव्यं अपराध करने की ओर संकेत नहीं करता, अगर हम उसे अपराध के अर्थों ही में देखें तो या किसी अपराध की जानकारी होने या उपलब्ध कराने की ओर भी संकेत करता है। ऐसी स्थिति में यह सोचा जाना भी स्वभाविक था कि आतंकवादी का कोई साथी है, जिसने ऐसा कुछ किया है, क्या साथी की तलाश की गई? क्या ऐसे तमाम प्रश्नों का उत्तर संबंधित अधिकारियों से नहीं मांगा जाना चाहिए। ज़रूर मांगा जाना चाहिए। परन्तु किसे चिंता है जनाब! एक मदरसे के मौलाना की इज़्ज़त आबरू और मानसिक तथा शारीरिक (48 घंटे की क़ैद) उत्पीड़न का......... किसे एहसास है कि यह अपराध नज़रअंदाज़ किए जा सकने वाला अपराध नहीं है बल्कि हम सबको आवश्यकता है हक़ और न्याय के लिए संघर्ष करने की। अगर आपको यह जानकारी नहीं है तो आइऐ अब मैं ज़रा आप से उन मौलाना का परिचय करा दूं, हो सकता है कि कुछ लोगों ने समझ लिया हो कि बस दाढ़ी, टोपी और कुर्ते के कारण शब्द मौलाना का प्रयोग कर लिया गया है, तो जान लीजिए कि मौलाना नूरुलहुआ साहब विश्व प्रसिद्ध दारुलउलूम देवबंद के तफ़्सीर व हदीस के शिक्षक मौलाना अब्दुर्रहीम बस्तवी के बेटे हैं, जिनकी गणना भारत-पाक उपमहाद्वीप के बड़े उलमा में होती है। दुनिया के अधिकांश देशों में उनके अनेकों शिष्य फैले हुए हैं। यह एक शैक्षणिक घराने के अभिभावक हैं। जनाब मौलाना नूरुलहुदा क़ास्मी साहब (50) भी तबलीग़ी और इस्लाही मिशन से जुडे़ हैं और वह स्वयं भी दारुलउलूम देवबंद के उत्तीर्ण और क़ास्मी उप नाम रखते हैं। 1980 से 1985 तक मौलाना नूरुलहुदा क़ास्मी साहब ने दारुलउलूम देवबंद में शिक्षा प्राप्त की और उत्तीर्ण होने के बाद स्वयं को पठन-पाठन के लिए समर्पित कर दिया, इसी बीच उन्होंने तीन इस्लामी मदरसे भी स्थापित किए। मौलाना ने 2001 में ज़िला बस्ती स्थित अमलहा में ‘जामिआ रहीमिया’ के नाम से एक मदरसा क़ायम किया। इसमें क़ुरआन की शिक्षा का उचित बंदोबस्त है, उसके बाद 2009 में मौलाना ने मुहल्ला ख़ानक़ाह देवबंद में दारुलउलूम देवबंद फ़ारूक़िया क़ायम किया इसमें अरबी द्वितीय तक की शिक्षा दी जाती है। तीसरा मदरसा उन्होंने ज़िला संत कबीर नगर के शहर दरियाबाद में ‘जामिआ अरबिया उमर फ़ारूक़’ के नाम से क़ायम किया। इन मदारिस का ख़र्च चंदे पर आधारित है। सरकार से यह मदरसे कोई सहायता नहीं लेते। मौलाना नूरुलहुदा क़ास्मी साहब लगभग 9-10 बार ब्रिटेन इत्यादि की यात्रा कर चुके हैं। वहां मौलाना इस्लाह व तब्लीग़ के मिशन में जाते हैं और ब्रिटेन के मुसलमानों में काफी लोकप्रिय हैं। इस समय भी मौलाना नूरुलहुदा क़ास्मी साहब दुबई के रास्ते ब्रिटेन की यात्रा पर रवाना हुए थे। दिनांक: 12/05/2010 को इमारात की फ़्लाइट से रवानगी के समय दिल्ली के इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर जहाज़ में सवार होने के बाद उनके साथ यह अप्रिय घटना घटित हुई, जिसका विवरण हम अपने पिछले प्रकाशनों में पेश कर चुके हैं। इसलिए अफ़सोसनाक घटना को फिर से दोहराने की आवश्यकता नहीं है। इससे पूर्व कि मैं आज का लेख समाप्त करूं, आश्यक लगता है कि अब एक प्रश्न हम सब अपने आप से भी करें कि वह व्यक्ति जो समाज को शिक्षित कर रहा है वह व्यक्ति जो हमारी आने वाली पीढ़ियों को दीन की शिक्षा से मालामाल कर रहा है, वह व्यक्ति जो हमारी आख़िरत ठीक करने की जद्दोजहद में लगा है, अगर हमें उसके मान-सम्मान की परवाह नहीं है, अगर हमें एक बेगुनाह से गुनहगारों जैसा व्यवहार किए जाने की परवाह नहीं है तो फिर मुझे माफ़ फ़रमाएं कि मैं लालकृष्ण आडवाणी की मिसाल सामने रखूँ जो शहीद हेमंत करकरे की जांच में सामने आ जाने पर भी साध्वी प्रज्ञा सिंह के समर्थन में प्रधानमंत्री डा॰ मनमोहन सिंह के समक्ष पहुंचे। क्या हम अपने प्रतिनिधियों को चुन कर इसीलिए भेजते हैं कि वह इतनी बेहिसी धारण कर लें, खुला अत्याचार और ना इन्साफी होते हुए देखते रहें और चुप रहे। शायद अब समय आ गया है, उन सबसे जवाब मांगने का, वरना यह बेहिसी जो आज हमें आत्महीण बना रही है, कल हम से हमारी पहचान भी छीन लेगी। ......................................

3 comments:

expiredream(aslansary) said...

Ab ye javed Mujra karney wala ke ish ke barey mai kiya vichar he

Mohammed Umar Kairanvi said...

जनाब एक आर्टिकल visfot.com पर पढने को मिला हैरत हुई, मुझे लगता है उसका जवाब आपको देना चाहिये

visfot.com
पिछले कई महीने से सहारा परिवार के समाचार-पत्र भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी के चुनाव प्रचार में जुटे हैं। सहारा के उर्दू संस्करण के ग्रुप एडिटर अजीज बर्नी यूं तो संघ परिवार से जुड़े संगठनों के विरोध में अभियान चलाए हुए हैं, लेकिन अंदरूनी तौर पर वे भी आडवाणी के चुनाव प्रचार से जुड़े हैं। उर्दू सहारा के उप संपादक अतीक अहमद मुजफ्फरपुरी बाकायदा भाजपा नेता अनंत कुमार की 26, तुगलक क्रिसेंट, तुगलक रोड, नई दिल्ली में बनाए गए आडवाणी के चुनाव कार्यालय में प्रतिदिन सुबह नौ बजे से दोपहर एक बजे तक डयूटी दे रहे हैं। इसके अलावा सहारा का ही एक कंपोजीटर इस्लाम भी प्रतिदिन आडवाणी के चुनाव कार्यालय में बैठता है। इतना ही नहीं अकसर ये लोग रविवार को भी इस कार्यालय में दिखाई देते हैं। इसके लिए दोनों को आडवाणी के सलाहकार और नोट के लिए वोट कांड के मास्टर माइंड सुधींद्र कुलकर्णी द्वारा मोटी रकम दी जा रही है। अतीक अहमद के अनुसार अजीज बर्नी का उनको भरपूर सहयोग मिल रहा है।

more:
उर्दू के अखबार, आडवाणी का प्रचार
http://visfot.com/index.php/corporate_media/576.html

Bilal Bijrolvi said...

umar kairanvi ne jo kaha he us ka jawab miljae-yahi hamari tamanna he