Thursday, May 6, 2010

क्यों डरती है सरकार बटला हाऊस के सच से
अज़ीज़ बर्नी


हक़ और इन्साफ की हत्या के अनुरूप है गृहमंत्री का यह फैसला। क्यों लोकतंत्र का गला घोंट देना चाहते हैं? पी॰ चिदम्बरम का यह कहना कि ‘न्यायिक जांच नहीं होगी।’’ क्या उनका यह फैसला एक विशेष समुदाय के लिए अन्याय सहन करो की घोषणा नहीं है?’ अगर उन्हें लगता है कि न्यायिक जांच पुलिस बल का मनोबल तोड़ देगी तो हमें लगता है कि आतंकवाद का आरोप एक पूरी क़ौम का मनोबल तोड़ देगा। अब देखना यह है कि किसका मनोबल तोड़ना हक़ और इन्साफ की मांग है और किसको उत्साहित करना अन्याय का समर्थन है। उन्हें अगर चिंता है कुछ गुनहगारों को बचाने की इसलिए कि सच सामने आने से उनका अपराध सिद्ध हो सकता है, वह चेहरे बेनक़ाब हो सकते हैं, तो हमें चिंता है उन सब को इस आरोप से बचाने की, जो सच सामने न आने के कारण अपराधियों की श्रेंणी में रखे जा रहे हैं।

कर्नल पुरोहित और मेजर उपाध्याय का आपराधिक चेहरा सामने आया तो कया इससे हमारी सेना का मनोबल गिरा? उसका साहस टूटा? हमारा सेना पर से विश्वास कमज़ोर हुआ? नहीं, बिल्कुल नहीं। इशरत जहां, सोहराबुद्दीन शेख़, राहुल राज और प्रजापति जैसे सैकड़ों एन्काउन्टरों की असलियत सामने आई, दाग़ी पुलिस कर्मियों का चेहरा सामने आ गया तो क्या केवल इस कारण से हमारा पुलिस बल पर से विश्वास समाप्त हो गया? क्या देश के किसी भी कोने से इन फ़र्जी एन्काउन्टरों के आधार पर पुलिस के विरुद्ध कोई अभियान चलाया गया? नहीं, बिल्कुल नहीं। माधुरी गुप्ता के देशद्रोही सिद्ध होने से क्या हमारा अपने राजनयिकों से भरोसा उठ गया? नहीं, बिल्कुल नहीं। अगर इसी तरह बटला हाउस का सच सामने आने से यदि दो चार पुलिस वालों का अपराध सामने आ भी जाता तो क्या केवल इस आधार पर हमारा पुलिस बल पर से भरोसा उठ जाता? नहीं, बिल्कुल नहीं। लेकिन गृहमंत्री ने न्यायिक जांच से साफ इनकार कर सिद्ध कर दिया कि वह सच को सामने आने देना नहीं चाहते, इसलिए गृह मंत्री के रूप में हमारा उन पर भरोसा कैसे क़ायम रह सकता है?

बटला हाऊस के जिस एन्काउन्टर को वह सही सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं, उस पर पहले दिन से ही प्रश्न उठ रहे हैं और अब तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट ने भी बहुत हद तक सच को बेनक़ाब कर दिया है। दूसरे शब्दों में इस संदिग्ध एन्काउन्टर की असलियत को सामने रख दिया है। इसलिए अब ऐसा क्या है जिसे वह छुपाना चाहते हैं? निश्चय ही यह दो-चार पुलिसकर्मियों के पकड़ में आ जाने से अधिक बड़ी बात होगी। स्पष्ट है कि हमारी सरकार या गृह मंत्री केवल कुछ पुलिसकर्मियों का गुनाह सामने आ जाने से तो भयभीत हो नहीं सकते। क्या उन्हें डर है किसी ऐसे रहस्य से पर्दा उठ जाने का, जो पुलिसकर्मियों के साथ बेनक़ाब हो जाने पर सबके सामने आ सकते हैं। यदि केवल फ़र्ज़ी एन्काउन्टरों में लिप्त पुलिसकर्मियों को बचाना ही सरकारों का उद्देश्य रहा होता तो कोई भी एन्काउन्टर फर्जी सिद्ध होता ही नहीं और न निम्नलिखित सात फ़ज़र््ाी मामलों में ब्वउचमदेंजपवद दिया जाता।

श्रीमति आशा अरुण गावली, फाइल नं॰621/13/97-98

श्री छठी सिंह, फाइल नं॰2812/4/97-98

बृजमोहन प्राशर, फाइल नं॰ 14657/24/97-98

अमितेश शर्मा, फाइल नं॰3731/4/2002-2003

श्री योगेश, फाइल नं॰ 1247/12/2002-2003

पपली पिता मंगल, फाइल नं॰ 3519/24/2003-2004

मुहम्मद सैफी, फाइल नं॰ 179/1/2003-2004

इसके अलावा हमने जिन अन्य एन्काउन्टरों का उदाहरण उपरोक्त पंक्तियों में दिया, न तो वह फर्जी सिद्ध होते और न उन फर्जी एन्काउन्टरों में संलग्न पुलिस कर्मी सज़ा के पात्र माने जाते, इसलिए अगर यह बटला हाऊस के एन्काउन्टर का सवाल केवल एक और एन्काउन्टर का सवाल होता तो इतना वबाल न होता। पर्दे के पीछे ज़रूर इससे जुड़ी कोई और बात है तभी तो यह सवाल हमारी केन्द्रीय सरकार की प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है और हमारे गृह मंत्री के स्वाभीमान का सवाल बन गया है, ऐसा क्या है जिसे वह छुपाना चाहते हैं। क्या सच का सामने आना संलिप्त पुलिसकर्मियों का अपराध सामने आने तक ही सीमित नहीं रहेगा, बल्कि पुलिस का प्रयोग करने वाले वह चेहरे भी सामने आएंगे, उनके इरादे भी सामने आएंगे, जिन्हें बचाने का प्रयास पी॰ चिदम्बरम कर रहे हैं तो हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि निःसंदेह वह अपने सत्ता की चादर से ऐसे सभी अपराधियों को छुपा लेने का प्रयास करें, परंतु यह भी याद रखें कि हम में भी यह साहस है कि अपने क़लम की नोक से उनके इस धोखे की चादर को तार-तार कर दें।

बटला हाऊस अब एक केस नहीं, एक मानक है, एक बैरोमीटर है, एक विशेष क़ौम के प्रति सरकार की भावनाओं को समझने का। हमारी आज़ादी को अब 61 वर्ष बीत चुके हैं। अब ऐसा नहीं है कि मुट्ठी भर साम्प्रदायिक या संकीर्ण मानसिकता वाले राजनीतिज्ञ देश के विभाजन का आरोप एक क़ौम पर लगाकर उनका साहस तोड़ दें। उनकी देश से वफादारी को संदिग्ध बना दें, उन पर देशद्रोह का आरोप लगा दें और वह ़क़ौम चुप रहे, निरंतर अपने दामन पर इस दाग़ को लेकर सर झुकाने को विवष रहे, हीन भावना का शिकार रहे, बहुत सुबूत दे चुकी यह क़ौम, देश से वफ़ादरी का और आवश्यकता पड़ने पर आगे भी दे सकती है। बात चाहे 1857 यानी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अभियान की हो या 1857 से लेकर 1947 तक जारी रहे स्वतंत्रता संग्राम की। यह क़ौम कभी पीछे नहीं हटी। एक लम्बी सूची है, एक लम्बा इतिहास है, देश पर जान न्यौछावर करने का, फिर आजादी के बाद भी चाहे 1965 में पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध में वीर अब्दुल हमीद का कारनामा हो या कार्गिल की लड़ाई में कैप्टन हनीफुद्दीन की भूमिका। यह क़ौम न कभी पीछे हटी है और न कभी पीछे हटेगी, तो फिर ऐसा क्यों हो कि जब जिसका दिल चाहे देशद्रोह का आरोप लगा दे, इस क़ौम के माथे पर आतंकवाद का लेबल चिपका दे और यह ख़ामोश रहे। सच को सामने लाने की मांग में ऐसा क्या है, जिसे अस्वीकार्य समझा जाए, या ऐसी मांग करने वालों को संदेह की दृष्टि से देखा जाए, उनके प्रश्न पर आपत्ति जताई जाए। नहीं, इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है, लेकिन सच को सामने लाने की इस मांग ने उस इरादे को उजागर कर दिया, जो इस सच को छुपाने के लिए किसी हद तक भी जाने को तैयार है।

पिछले लगभग एक महीने से लिखने का समय निकालना पूरी तरह संभव नहीं था। इसलिए एक ख़ास विषय पर शोध और सुदूर क्षेत्रों में जनता के बीच जाकर विचार व्यक्त करने की मजबूरी ने इस सिलसिले को रोक दिया था। गृह मंत्री का बटला हाऊस पर ताजा बयान न आया होता तो शायद आज भी लिखा जाना संभव न हो पाता, परंतु अब ख़ामोश रहना मुश्किल है। चार दिन पूर्व ज़िला गोंडा के हलधर मऊमें एक विशेष सम्मेलन आयोजित किया गया जिसका शीर्षक था ‘मुसलमानों की पस्मांदगी के असबाब और उनका हल’। लेखक ने विशेष अतिथि के रूप में इस सम्मेलन में बोलते हुए कहा था कि इस क़ौम के विश्वास का तोड़ दिया जाना ही सबसे बड़ा कारण है इस क़ौम के पिछड़ेपन का और अगर इस क़ौम को पिछड़ेपन से निकालना है तो उसका विश्वास बहाल करना होगा। बटला हाऊस के मामले को भी हम ऐसा ही समझते हैं कि आतंकवाद का लेबल चिपका कर यह एक क़ौम के विश्वास को तोड़ देने का षड़यंत्र है। मुझे इस सिलसिले में लगातार लिखना है और मैं अपने सभी मस्जिदों के इमाम हज़रात से आज यह निवेदन करना चाहता हूं कि सच को सामने लाने की जद्दोजहद अब वह मस्जिदों और मदरसों से भी करें। मैं आज जो कुछ लिख रहा हूं, उसे जुमा की नमाज़ से पूर्व अपने ख़ुतबों में जगह देने का कष्ट करें। इसी सोच के मद्देनज़र मैं हलधर मऊ, गांेडा के विशेष सम्मेलन में की गई अपनी तक़रीर के कुछ अंश अपने इस लेख के साथ प्रकाशित करने का प्रयास कर रहा हूं ताकि उन्हें यह बता सकूं कि दरअसल ऐसी सभी कोशिशें इस क़ौम का विश्वास तोड़ देने के लिए हैं। उन्हें केवल बटला हाऊस के संदिग्ध एन्काउन्टर के रूप में न देखा जाए, उन्हें आतिफ़ और साजिद यानि दो युवकों की हत्या तक सीमित न समझा जाए बल्कि एक पूरी क़ौम के सम्मान और विश्वास को तोड़ देने के रूप में देखा जाए। अगर न्यायिक जांच हो गई होती, उनका अपराध सिद्ध हो गया होता तो हम सरकार की आवाज़ में आवाज़ मिलाकर कहते कि जिसका जो अपराध सामने आया उसे उस अपराध के अनुसार सज़ा दी जाए, लेकिन अगर अपराध सामने आया ही नहीं, न्यायिक जांच द्वारा इस अपराध को सिद्ध करने का प्रयास किया ही नहीं गया तो फिर हम अपराधी कैसे मान लें?

1 comment:

hamza said...

ame visvash ha inshaallah apki kosish eak din jaror kamyab hogi puri kom ke liya hum allah se dua karenge ki sabko app jaisa dil de allah............. aur apka sak ye hai ki kahi parde ke piche matlab ism ki hindu aatangvad ka hath ho sakta hai.... or other majd of jaipur vagarag ki tarah.............