आज के दिन की ख़ास पहचान यह भी है कि अगर आप कोई मूर्खतापूर्ण हरकत करें या आपका कोई कार्य जानबूझ कर मूर्खतापूर्ण हो तब भी वह क्षमा के योग्य है, क्योंकि आज पहली अप्रैल है। नहीं, मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है कि मैं कोई मूर्खता की बात करूं। अपनी समझ से तो मैं अक़्लमंदी की बातें करने की ही कोशिश कर रहा हूं, फिर भी अगर यह किसी को मूर्खतापूर्ण लगें तो वह उन्हें पहली अप्रैल के परिपेक्ष में क्षमा योग्य मान ले। निःसंदेह मेरा आज का लेख कल के लेख की ही कड़ी के रूप में है, जहां मैंने आतंकवाद की घटनाओं को हथियारों की बिक्री से जोड़ते हुए अपनी बात कहने का प्रयास किया था और फिर रूस में हुए वर्तमान आतंकवादी हमले की चर्चा करने जा रहा था। परन्तु बात पूरी होती इससे पूर्व ही समय समाप्त हो गया या यूं कहिए कि जितनी जगह में मुझे अपनी बात कहनी थी वह जगह समाप्त हो गई, मेरा पेज पूरा हो गया।
बहरहाल आज का लेख मैं कुछ बहुत पुरानी यादों से शुरू करने का इरादा रखता हूं। 1978-79 का ज़माना रहा होगा, अकसर अहले बैत की मुहब्बत रखने वालों से ज़िक्रे हुसैन सुनने का मौक़ा मिलता। फ़ज़ाइल बयान करने के बाद जब वह मसाइब (विपत्तियों के बयान) की तरफ़ आते तो हज़रत इमाम हुसैन की शहादत का दृश्य बयान करते। उन्हें शिम्र का ख़ंजर याद रहता। हज़रते हुसैन (रज़ि॰) के गले पर चलाए जाने का ज़िक्र करते और हर बार मैंने यही कहते सुना कि शिम्र एक ऐसा कुंद छुरा लेकर आया, जिससे हज़रते इमाम हुसैन (रज़ि॰) का गला कटता ही न था। मैं देर तक सोचता रहता मौलाना की तक़रीर के दौरान भी और उनके ख़िताब के बाद भी क्या यह संभव है कि यज़ीद की सेना को जो एक सर चाहिए था, वह हज़रते इमाम हुसैन (रज़ि॰) का सर था फिर यह कैसे संभव है कि कोई भी व्यक्ति जो जंग के मैदान में लड़ने के इरादे से जाए वह ऐसा घटिया हथियार साथ लेकर जाए जो किसी काम का न हो। मैं देर तक सोचता रहता मन यह स्वीकार करने के लिए तैयार न होता कि ज़ालिम शिम्र के हाथ में छुरा कुंद भी हो सकता है। फिर याद आता मुझे अपने छात्र अवस्था का वह ज़माना जब मैं अपने वालिदे मुहतरम की क्लिनिक के सामने बैठने वाले एक मोची (राम स्वरूप) को अपना काम करते हुए देखता था। मैंने कई बार यह पाया कि किसी भी जूते या चप्पल में पैवंद लगाने से पहले वह सूखे चमड़े को कुछ देर के लिए पानी से भरे कटोरे में पड़ा रहने देता और जब चमड़ा देर तक पानी में भीग कर नर्म हो जाता तब वह उसे आसानी के साथ काट लेता। उसी ज़माने में मैंने यह भी महसूस किया था कि वृद्ध और कमज़ोर रोगियों को जिनकी त्वचा सूख गई हो, स्वस्थ आदमी के मुक़ाबले उसे इंजेक्शन लगाना कठिन होता है फिर वह दौर भी आया, जब मुझे ख़ुद ज़िक्रे हुसैन का शर्फ़ हासिल हुआ (ख़ुदा के वासते किसी फ़िर्क़ा से जोड़ कर न देखें, मैं मुसलमान हूं और भारतीय हूं मेरे लिए बस इतना ही काफ़ी है) और मैं कर्बला के मैदान में हज़रते इमाम हुसैन (रज़ि॰) की शहादत का दृश्य बयान करते समय जो कुछ सुनता चला आया था, उसके उलट कहा कि हज़रते इमाम हुसैन (रज़ि॰) का गला तीन रोज़ की भूख और प्यास, कर्बला की तपती हुई रेत, सख़्त गर्मी और सगे संबंधियों की शहादतों के एहसास ने इतना ख़ुश्क कर दिया था कि शिम्र का बेहतरीन और तेज़ से तेज़ छुरा भी उनकी गर्दन को आसानी के साथ काट नहीं पा रहा था। श्रोताओं ने जब मेरे इस तर्क को सुना तो इस अल्पआयु में भी मेरा उत्साह बढ़ाते हुए कहा कि एक ज़माने से ज़िक्रे हुसैन सुनते चले आए हैं लेकिन आपने जो बात आज कही वह दिल को छू गई।
शायद किसी भी बात को बहुत देर तक सोचते रहने और गहराई से अध्ययन के बाद किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की आदत जो मुझे उस ज़माने में पड़ी, वह अभी तक क़ायम है, अंतर केवल यह पैदा हो गया है कि तब मैं कर्बला के मैदान पर जो कुछ हुआ उसे बहुत गहराई से सोचता था। यज़ीद ने जो किया उसे बहुत गहराई से सोचता था और आज जब पूरी दुनिया में ख़ून की नदियां बहाने वालों की तरफ़ नज़र डालता हूं तो उतनी ही गंभीरता से सोचता हूं कि आख़िर कौन हैं यह ख़ून के प्यासे लोग? उनका उद्देश्य क्या है? वह चाहते क्या हैं? अगर यह युद्ध है तो कौन किसके विरुद्ध युद्ध लड़ रहा है? अगर यह जिहाद है तो वह कारण क्या हैं कि जब जिहाद उन पर फ़र्ज़ हो गया है और यह जो उनका निशाना बने तो क्या उन्हें इस्लाम पर अमल से रोक रहे थे अगर यह मुजाहिद हैं तो फिर उनका इस्लाम से रिश्ता क्या है? बहुत उलझे हुए से प्रश्न हैं, हत्यारे मुझे मुजाहिद नहीं लगते, उसका नाम कुछ भी हो, उसका धर्म कुछ भी हो, उनके ऐसे कार्यों से धर्म का कोई रिश्ता नहीं लगता, इन्हीं सोचों की गहराई मुझे डेविड कोलमैन हेडली जैसे व्यक्ति की मानसिकता को पढ़ने के लिए मजबूर कर देती है, उसके आक़ाओं के उद्देश्य को समझने के लिए मजबूर कर देती है, इसीलिए मैं लिख देता हूं कि आतंकवादी सिद्ध हो जाने पर भी भारत का मित्र अमेरिका उस अपराधी को बचाना क्यों चाहता है? अमेरिका का जो दृष्टिकोण 26/11 के आतंकवादी अजमल आमिर क़साब के प्रति होता है, वही दृष्टिकोण डेविड कोलमैन हेडली के लिए क्यांे नहीं होता। वह 2 आतंकवादियों को अलग-अलग दृष्टि से क्यों देखता है। अगर यह मुसलमान हैं, उसकी सोच के अनुसार मुजाहिद हैं, उसकी पुष्टि के अनुसार पाकिस्तानी हैं, उसकी सूचनाओं के अनुसार पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन लशकर-ए-तैयबा के प्रशिक्षित हैं तो फिर अजमल आमिर क़साब और डेविड कोलमैन हेडली को एक ही श्रेणी में रख कर देखने में क्या पेरशानी है? और जब उसकी परेशानी पर गंभीरता से विचार किया जाता है तो सीआईए के पुराने कारनामे याद आ जाते हैं। ऐसा तो है नहीं कि इस कुख्यात अमेरिकी गुप्तचर संगठन ने अब भजन कीर्तन, रोज़ा नमाज़ या गिरिजा घरों में प्रार्थना की ज़िम्मेदारी संभाल ली हो और अपने पिछले पापों का प्रायश्चित करने के लिए शांति के मार्ग पर चल पडी़ हो। पूर्ण संभावना तो यही नज़र आती है कि जैसे कोई फ्ऱाॅड कंपनी भारी ग़बन करने और ब्लैक लिस्टिड हो जाने के बाद नाए नाम से अपना पुराना धंधा फिर आरंभ कर देती है। सीआईए ने भी कुछ ऐसा ही किया हो और हमारे सामने संयोगवश जो एक चेहरा डेविड कोलमैन हेडली का आ गया है वह केवल एक चेहरा न हो, बल्कि ऐसे अनगिनत चेहरे दुनिया के चप्पे चप्पे पर मौजूद हों और कुछ ऐसी ही गतिविधियों में लगे हों, तभी तो अमेरिका इतने दावे के साथ कह सकता है कि एक और 26/11 होने पर पाकिस्तान को बख़्शा नहीं जाएगा। यानी पाकिस्तान को अगर नहीं बख़्शा जाना है तो उसके लिए भारत में एक और 26/11 हो जाना ही पर्याप्त है। अब यह 26/11 किसके द्वारा अमल में आए, हो सकता है यह कोई पहेली बन जाए। हम जानकर भी अनजान बन जाएं। क्या फिर जिसे भी अपराधी साबित करना हो वही अपराधी सिद्ध हो जाए और उन आतंकवादी हमलों का उद्देश्य जिन नापाक उद्देश्यों को पूरा करना हो, उनका रास्ता आसान हो जाए। अधूरी छोड़ता हूं मैं अपनी इस बात को यहीं, आप भी सोचिए मेरे पास काफ़ी तथ्य हैं उपरोक्त तमाम बातों की कड़ियां जोड़ने के लिए और तथ्यों की रोशनी में इस बात को आगे बढ़ाने के लिए। लेकिन अब मैं चर्चा करना चाहूंगा रूस में हुए वर्तमान आतंकवादी हमले की, जहां कल मैंने अपना लेख समाप्त किया था। इसलिए अब मुलाहिज़ा फ़रमाएं यह ख़बर फिर उसके बाद मेरी बात जारी रहेगी मगर हां यह अभी मैं आप सबके मन में बिठा देना चाहता हूं कि कोई रिश्ता अवश्य है भारत और पाकिस्तान में आतंकवाद के तूफ़ान के बाद इन चिंगारियों के रूस तक पहुंचने का।
अफ़ग़ान õपाक आतंकी नेटवर्क से हमलावरों का संबंध
मास्को, 30 मार्च 2010 (इंडो-एशियन न्यूज़ सर्विस)
रूस के विदेश मंत्री सेर्गई लावरोव ने कहा कि मास्को में दो मेट्रो स्टेशनों पर हुए विस्फोटों की साज़िश रचने वालों का संबंध अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा पर स्थित आतंकवादी संगठनों से हो सकता हैै।
समाचार एजेंसी आरआईए नोवोस्नी के अनुसार लावरोव ने कहा कि इस बात की संभावना है कि मास्को मंे हुए विस्फोटों को विदेशों के सहयोग से अंजाम दिया गया। उन्होंने कहा, फिलहाल किसी भी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।
लावरोव ने कहा कि मास्को इस बात से अवगत है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा पर स्थित इलाकों मंे आतंकवादी सक्रिय हैं। उन्होंने कहा, ‘‘हम यह जानते हैं कि कईं आतंकवादी संगठन न केवल अफगानिस्तान मंेे ही हमले करते हैं बल्कि अन्य देशों को भी अपना निशाना बनाते है‘‘।
रूसी विदेश मंत्री ने अंतर्राष्ट्रिय समुदाय से आतंकवाद के खिलाफ जंग मंे सहयोग करने की अपील की।
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माॅस्को धमाकेः पाक-अफ़ग़ान आतंकियों का हाथ!
टोरंटो/माॅस्को, 30 मार्च, 2010 (एजेंसियां)
रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव का कहना है कि माॅस्को में दो मेट्रो स्टेशनों पर सोमवार के विस्फोटों में अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान सीमा पर गतिविधियां चलाने वाले आतंकवादी संगठनों का हाथ हो सकता है।
लावरोव ने कहा कि इस बात का अंदेशा है कि अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान सीमा के अशांत क्षेत्र के इस्लामी आतंकवादियों ने माॅस्को में हुए विस्फोटों के लिए सहायता की होगी। कनाडा में जी-8 के देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में उन्होंने यह बात कही।
लावरोव ने कहा कि ऐसा अंदेशा है कि मास्को में हुए विस्फोटों को बाहरी सहयोग से अंजाम दिया गया हो। उन्होंने कहा कि फिलहाल किसी भी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।
लावरोव ने कहा कि माॅस्को इस बात से अवगत है कि पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के सीमावर्ती इलाकों में आतंकवादी सक्रिय हैं। उन्होंने कहा कि हम जानते हैं कि कई आतंकवादी संगठन न केवल अफ़ग़ानिस्तान में हमले करते हैं बल्कि अन्य देशों को भी निशाना बनाते हैं।
इस बैठक में कनाडा के विदेश मंत्री लाॅरेंस केनन ने कहा कि मास्को में दो मेट्रो स्टेशनों पर हुए आतंकवादी हमले की हम निंदा करते हैं, जिनमें कई निर्दोष लोग मारे गए और घायल हुए। जी-8 देशों के विदेश मंत्रियों ने हमले में मारे गए लोगों के परिजनों के प्रति गहरी संवेदना व्यक्त की।
बैठक में रूस, नार्वे, अमेरिका और डेनमार्क के विदेश मंत्रियों ने हिस्सा लिया। लावरोव ने कहा कि भविष्य में ऐसे हमलों से बचने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता है।
मास्कों में सोमवार को पहला विस्फोट मध्य मास्को के लुब्यांका स्टेशन पर सुबह 7 बजकर 56 मिनट पर हुआ। दूसरा विस्फोट नज़दीकी पार्क कुलतुरी स्टेशन पर 8 बज कर 40 मिनट पर हुआ। इन विस्फोटों में कम से कम 38 लोग मारे गए और 70 से अधिक घायल हुए।
Wednesday, March 31, 2010
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