26 नवम्बर 2008 को मुम्बई के रास्ते भारत पर हुए आतंकवादी हमले की गंभीरता आज इस स्थान पर पहुंच चुकी है कि बाक़ी सभी सम्स्याएं छोटी नज़र आती हैं। आज मेरे लिए यह विषय इस हद तक रिसर्च का विषय है कि इसके सिवा कुछ और सूझता ही नहीं। मैं चाहता हूं कि आज इस संबंध में एक लेख आपकी सेवा में प्रस्तुत करूं, मगर नहीं, अभी कुछ और......... जो इस सिलसिले की महत्वपूर्ण कड़ी सिद्ध हो सकता है। इसलिए आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं प्रधानमंत्री डां मनमोहन सिंह के भाषण के दो वाक्यें जो उन्होंने आतंकवादी हमले के कुछ दिन बाद 11.12.2008 को अपने भाषण में कहे और फिर वीर सांघवी का लेख, जो पिछले रविवार को अंग्रेज़ी दैनिक ‘‘हिन्दुस्तान टाइम्स’’ में प्रकाशित हुआ। कृपया कर के इस सिलसिले के सभी लेखों का न सिर्फ अध्यन करें, बल्कि उन्हें संभाल कर भी रखें, इसलिए कि यह इस दौर का इतिहास है।
‘‘जहां तक मुम्बई का प्रश्न है, यह अत्यंत सुनियोजित और दुष्टतापूर्ण हमला था, जिसका मक़सद व्यापक आतंक पैदा करना और भारत की छवि को आघात पहुंचाना था। इस हमले के पीछे जो ताक़तें काम कर रही थीं, उनका इरादा हमारी धर्मनिरपेक्ष राजनीति को अस्थिर करना, साम्प्रदायिक फूट डालना और हमारे देश की आर्थिक तथा सामाजिक प्रगति में रूकावट डालना था।
हमारी तात्कालिक प्राथमिकता यह है कि भारत के लोगों में सुरक्षा की भावना बहाल की जाये। हम ऐसी स्थिति बर्दाशत नहीं कर सकते जिसमें आतंकवादियों या अन्य उग्रवादी ताकतों के हमलों से हमारे नागरिकों की सुरक्षा को क्षति पहुंचे।’’
अमेरिका क्या छुपाना चाहता है?
यह एक काल्पनिक स्थिति है! कल्पना कीजिए कि भारतीय पुलिस एक ऐसे व्यक्ति को गिरफ़्तार करती जिसे है 9/11 के प्लान की पूर्व जानकारी हो और वह व्यक्ति केवल षड़यंत्रकारी तत्वों के साथ कार्य ही नहीं कर चुका हो, बल्कि उसे कई बार न्यूयार्क भी भेजा गया हो, ताकि हमले को सफल बनाने के लिए आतंकवादियों को सूचनाएं उपलब्ध करा सके।
स्वभाविक रूप से अमेरिका यह चाहेगा कि उस व्यक्ति को उसके हवाले किया जाए, ताकि वर्तमान में होने वाले भयानक आतंकवादी हमलों में उसके लिप्त होने के संबंध में अमेरिकी अदालत में उसके विरुद्ध मुक़दमा चलाया जाए। अब ज़रा यह कल्पना कीजिए कि भारत प्रत्यार्पण के मामले में न केवल बातचीत से, बल्कि फेड्रल ब्यूरो आॅफ इन्वेस्टिगेशन (एफ॰बी॰आई॰, अमेरिकी गुप्तचर एजंेसी) को उस व्यक्ति से पूछताछ की भी अनुमति देने से इनकार कर दे और सेंट्रल ब्यूरो आॅफ इन्वेस्टिगेशन (सी॰बी॰आई॰, भारतीय गुप्तचर एजंसी) इस बात पर अड़ी रहे कि उस व्यक्ति से परोक्षरूप से पूछताछ करने की अनुमति देने की कोई संभावना नहीं है, हां यह हो सकता है क वह पूछताछ के जवाब में जो बताएगा, उससे एफ॰बी॰आई॰ को अवगत करा दिया जाएगा।
हमारे इस दृश्य को थोड़ा और बड़ा कीजिए। 9/11 के हमले में इस महत्वपूर्ण सुराग़ को अमेरिका की पहुंच में देने से इनकार के बाद भारत यह घोषणा करे कि उस व्यक्ति से उसकी एक डील हो गई है और वह अपने ऊपर लगाए गए सभी आरोपों को स्वीकार करेगा, इसलिए हमारे क़ानून के अनुसार उसको मृत्यु दंड देने का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता है और न ही इस बात की कोई संभावना है कि उसके विरुद्ध अमेरिकी क़ानून के तहत मुक़दमा चलाया जाए। इस डील का एक भाग यह भी है कि हमने उसे यह विश्वास भी दिला दिया है कि उसे हवाले नहीं किया जाएगा और जहां तक सज़ा का संबंध है इसे भी अभी तय किया जाना बाक़ी है, फिर भी हमने उस आतंकवादी से जो डील की है, उसी के आधार पर उसका फैसला किया जाएगा।
आप क्या समझते हैं कि इस पर अमेरिका की किस प्रकार की प्रतिक्रिया होगी?
उत्तर स्पष्ट है, यह एक राजनयिक दुर्घटना बन जाएगी। अमेरिका का सेक्रेट्री आॅफ स्टेट हमारे गृहमंत्री (अतिसंभव है कि प्रधामंत्री) को बुलाएगा और इस बात पर बल देगा कि उस आतंकवादी को एफ॰बी॰आई॰ के हवाले किया जाए और भारत पर आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में धोखा देने का आरोप भी लगाया जाएगा।
हम यह प्रश्न करेंगे की हम उस पर किस तरह भारत में मुक़दमा चला सकते हैं, जबकि वह अमेरिका में होने वाले अपराध में लिप्त था? उसके बाद धमकियों का सिलसिला शुरू हो जाएगा, यह भी हो कि हमें दी जाने वाली सहायता भी बंद कर दी जाए, बैठकें रद्द कर दी जाएं इत्यादि इत्यादि।
मैंने इस परिदृश्य की रूपरेखा तैयार करने में कुछ समय लगाया है, क्योंकि यह उस वास्तविक घटना के बहुत क़रीब या सामानांतर है। सिवाए इसके कि इस केस में वह आतंकवादी 9/11 के बजाए 26/11 की घटना में लिप्त है और यह भारत नहीं, बल्कि अमेरिका है जो उसके प्रत्यार्पण से इनकार कर रहा है और हम से कह रहा है कि जाएं छलांग लगा दें।
यह देखना मुश्किल नहीं है कि डेविड हेडली का केस भारतीयों में इतनी अधिक उत्तेजना क्यों पैदा कर रहा है। हमारे लिए 26/11 उतना ही महत्वपूर्ण है जितना अमेरिकियों के लिए 9/11। अंतर केवल इतना है कि अमेरिका वह सब कुछ जानता है जो 9/11 के बाद उसे जानना चाहिए था, विशेषरूप से जब अलक़ायदा ने बाज़ाबता इस हमले की ज़िम्मेदारी स्वीकार कर ली है।
जबकि भारत उस हमले के बाद से अब तक इस षड़यंत्र के विवरणों का सुराग़ लगाने में लगा है। यह अमेरिका ही था जिसने हमसे कहा था कि डेविड हेडली 26/11 के हमले से पहले कई बार भारत आया और जासूसी करके वापस गया था। इसलिए हम यह समझने में ग़लत नहीं है कि ऐसा व्यक्ति न केवल भारतीय अदालत से सज़ा का पात्र है, बल्कि उससे मिलने वाली सूचनाएं 26/11 के हमले के सिलसिले में कई रहस्यों से भी पर्दा हटाएंगी। ऊपर से यह भी कि हेडली ने पुणे को भी संभावित आतंकवादी हमले का निशाना बनाया हो और इस प्रकार के और कितने आतंकवादी टार्गेट उसने निर्धारित किए हों, इसके बारे में हमें उस समय तक ज्ञान नहीं हो सकता, जब तक हम उससे पूछताछ नहीं करते।
इसलिए अमेरिका इस तरह क्यों पेश आ रहा है? अमेरिकियों के बारे में आप जो चाहें कहें, फिर भी यह सच है कि उन्होंने आतंकवाद के विरुद्ध जंग मंे दुनिया की तमाम गुप्तचर एजंसियों को सम्मिलित किया है और उनसे लगातार सहायता ली।
अब वह यह सहयोग स्वयं क्यों नहीं दे रहा है? अब केवल एक आतंकवादी के लिए वह भारत को पराया क्यों कर रहा है? मैं भारतीय जांच कर्ताओं को डेविड हेडली से पूछताछ करने की अनुमति न देकर पुणे जैसे हमलों में और लोगों के मारे जाने की अनुमति क्यांे दे रहा है?
मैं यह समझता हूं कि इन तथ्यों पर केवल एक ही बात फिट बैठती है और इस प्रश्न का केवल एक ही उत्तर है कि
‘‘डेविड हेडली एक अमेरिकी एजेंट है’’
जब मैंने पहली बार यह काल्पनिक दृश्य इन पृष्ठों पर परस्तुत किया था तो वह पहले तो वस्तु स्थिति से थोड़ा सा अलग महसूस हो रहा था, फिर भी अब मुझे यह दुख हो रहा है कि इस कल्पना में पूरा दम है और हर बीतने वाला दिन इस थेसिस के समर्थन में एक सबूत बनता जा रहा है।
हम जानते हैं कि हेडली (जो स्वयं को इस समय दाऊद गीलानी कहता था) मादक पदार्थों के आरोप में सज़ायाफ़्ता था और अमेरिकी जेल में भी रह चुका है। हम यह भी जानते है कि वह उसके बाद जेल से रिहा किया गया और ड्रग इन्फोर्समेंट एडमिनिस्ट्रेशन (डी॰ई॰ए॰) के हवाले किया गया, जिसके बारे में कहा गया है कि वह (डी॰ई॰ए॰) उसे अन्डरकवर एजेंट के रूप में पाकिस्तान भेजना चाहता था। यह सभी बातें पब्लिक रिकाॅर्ड में हैं।
अमेरिका की ओर से हेडली को पाकिस्तान भेजे जाने और कुछ महीनों पूर्व उसे शिकागो एयरपोर्ट पर गिरफ़्तार किए जाने के बीच में क्या हुआ? एक अमेरिकी एजेंट एक आतंकवादी कैसे बन गया? इसके बारे में अमेरिका ने कुछ नहीं कहा।
सपष्ट रूप से तीन संभावनाएं हो सकती हैं। प्रथम- यह समभव है कि वह अब भी डी॰ई॰ए॰ का एजेंट हो और उसी ड्रग एजेंसी के पेरोल पर जिहादी गिरोहों के साथ संलिप्त हो।
द्वितीय- यह भी संभव है कि वह कभी भी डी॰ई॰ए॰ का एजेंट न रहा हो। 9/11 के बाद जब यह पता चहला कि जिहादी नेटवर्क में अमेरिका के भी कुछ एजेंट हैं तो तमाम अमेरिकी एजेंसियां आतंकवादी गिराहों के विरुद्ध एकजुट हो गईं। यह भी संभव है कि 9/11 के बाद वह जेल से भागा और अदालत से यह कहा गया हो कि वह सी॰आई॰ए॰ की बजाए डी॰ई॰ए॰ को वान्टेड है। क्योंकि उस पर ड्रग से संबंधित आरोप थे।
अगर आप अन्य सभावनाओं पर विचार करेंगे तो इससे यह ज़ाहिर होता है कि हेडली दोहरा एजेंट था जिसे जिहादी गिरोहों में घुसपैठ के लिए भेजा गया, जिसके बाद वह स्वयं ही आतंकवादी बन गया और अपने अमेरिकी आक़ाओं को धोखा दिया।
दोनों संभावनाओं को स्पष्ट करना आवश्यक है। अमेरिकी हमें हेडली से पूछताछ क्यों नहीं करने देना चाहते। वह नहीं चाहते हैं कि अमेरिकी एजेंट (सी॰आई॰ए॰ या डी॰ई॰ए॰ जो भी हो) के रूप में हेडली की भूमिका सामने आए।
फिर भी तीसरी संभावना भी है। एक थ्योरी जो अमेरिकी मीडिया और ‘द डेली बैस्ट’ की वैबसाइट पर भी है, वह यह कि हेडली अब भी आख़िर तक अमेरिकी एजेंट ही हो। हेडली एक माध्यम था, जिसने अमेरिकियों को 26/11 के बारे में बताया, जिसके बाद अमेरिका ने घटना से पूर्व एक वार्निंग जारी की (यह वारर्निंग स्पष्ट न होने के कारण हमारी एजंसियों ने उसकी अनदेखी कर दी।)
अगर आप इस थ्योरी पर विचार करें और इसी पर भारतीय एजेंसियों के कुछ अधिकारी भी विचार कर रहे हैं कि अमेरीकियो ने हेडली को वापस बुला लिया क्योंकि उन्हें यह संदेह था कि भारतीय एजेंटों को उसके बारे में सच्चाई पता चल जाएगी। उन्होंने यह उचित समझा कि उसे विदेशी एजेंटों तथा एजेंसियों की पहुंच से दूर रखने के लिए अमेरिकी हिरासत में ही ले लिया जाए।
हमारे पास ऐसा कोई पक्का प्रमाण नहीं है कि जिससे हम किसी निश्चित निष्कर्श पर पहुंचें। यह तीनों सम्भावनाएं वास्तविक घटना से काफी निकट हैं, लेकिन एक बात यह भी है कि अब कोई संदेह नहीं रह गया है कि डेविड हेडली के केस में अमेरिका भारत के साथ अत्यंत पराएपन का व्यवहार कर रहा है, वह कुछ छुपाना चाहता है और उसे भय है कि हेडली उसे ज़ाहिर न कर दे।
वीर संाघवी (हिन्दुस्तान टाइम्स, 21 मार्च, 2010)
Wednesday, March 24, 2010
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3 comments:
बाप रे बाप .....इतनी लंबी पोस्ट.....
...........................
विलुप्त होती... .....नानी-दादी की पहेलियाँ.........परिणाम..... ( लड्डू बोलता है....इंजीनियर के दिल से....)
http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_24.html
GOOD POST
burney sahab it's a nice post
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