Tuesday, February 23, 2010

कम्प्यूटर लाए हो, दे जाओ पहले तुम्हारी वेबसाइट पर अपनी पोज़ीशन देख लेंफिर बात करेंगे!

मुसलमान फिर निगाहों का मरकज़ हैं। जी हां, निकट भविष्य में कोई चुनाव नहीं, कम से कम उत्तर प्रदेश में तो नहीं, परंतु मुसलमानों के वोटों की इच्छुक पार्टियों और नेताओं ने मुसलमानों को आकर्षित करना शुरू कर दिया है। अच्छा है, वोट बैंक के नाते ही सही मुसलमानों का महत्व राजनीतिज्ञों की समझ में आने तो लगा। आज वोट का महत्व समझेंगे तो कल उनकी समस्याओं का महत्व समझना ही होगा। राजनितिज्ञों ने ऐसा इशारा भी देना शुरू कर दिया है कि वह हमारी समस्याओं को समझते हैं, हमारे दर्द से बेख़बर भी नहीं हैं, शायद इसीलिए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह आज़म गढ़ और संजरपुर का दौरा करते हैं तो मुलायम सिंह यादव ज़ाहिरी तौर पर कुछ न सही, परंतु अंदर ही अंदर मुसलामनों के निकट जाने की कोशिशों में लगे नज़र आते हैं। अमर सिंह अपनी राजनीतिक रणनीति के केन्द्र में ठाकुरों और मुसलमानों को ही लेकर चल रहे हैं। भाजपा ने भी अपने स्टैंड में परिवर्तन का इशारा किया है। कम्यूनिस्ट पार्टियों की पश्चिमी बंगाल सरकार ने मुर्शिदाबाद और केरला सरकार ने भी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का कैम्पस स्थापित करने के लिए कई सौ एकड़ भूमि देने की घोषणा की है। साथ ही नितीश कुमार ने भी किशनगंज में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का कैम्पस स्थापित करने के लिए ज़मीन देने का फैसला किया है। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर पीके अब्दुल अज़ीज़ के ऐलान के अनुसार असम सरकार ने भी कैम्पस के लिए ज़मीन देने की पेशकश की है। सर सय्यद द्वारा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना के बाद से यह पहला अवसर है जब सरकारों ने इस ओर ध्यान दिया है। हम इस क़दम को एक अच्छा संकेत समझते हैं। हां, अभी शब्द स्वीकार कर सकते हैं, लिखने में ज़रा संकोच है।

अब प्रश्न यह पैदा होता है कि मुसलमान इन सबमें से किसका चयन करे। किसकी ऑफर को स्वीकार करे, तो इस सिलसिले में अभी कुछ भी लिखना जल्दबाज़ी होगी और वस्तुस्थिति से नज़रें चुरा लेना व ख़ामोशी इख़्तियार करना भी उचित नहीं होगा, इसलिए जहां तक मैं समझता हूं, पूरी तरह अनदेखी तो किसी की भी नहीं की जाए। हां, मगर भारतीय जनता पार्टी के बयानों को उनकी करनी और कथनी की कसौटी पर परखने में ज़रा समय लगेगा। अब शेष बचे राजनीतिक दलों में कांग्रेेस का यह दावा हो सकता है कि वह एक मात्र ऐसी धर्मनिर्पेक्ष पार्टी है, जो राष्ट्रीय स्तर पर हर जगह मुसलमानों को साथ लेकर चल सकती है, वह मुसलमानों का दर्द भी समझती है और वह उनकी समस्याओं से बेख़बर भी नहीं है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को लागू करना उसकी प्राथमिकता में शामिल है। मानव विकास संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने अपने शैक्षणिक इन्क़लाब में अल्प संख्यक समुदायों का विशेष ख़याल रखने का इरादा रखते हैं। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिल्लिया इस्लामिया का माएनॉरेटी स्टेटस स्वीकार कर लिया जाना भी विचाराधीन है। परंतु यह तमाम बातें अभी वादों से आगे कहां बढ़ी हैं। पहले यह ख़ूबसूरत ख़्वाब हक़ीक़त का रंग तो ले लें, मगर हां इस दिशा में सोचने की गंुजाइश तो पैदा हुई है इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता।

अब रहा प्रश्न मुलायम सिंह यादव का तो कल्याण सिंह के मामले में उन्हें अपनी ग़लती का पूरा एहसास हो ही चुका है और इस बात का यक़ीन भी कि अगर मुसलमान उनसे नज़र फेर लेते हैं तो फिर उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं कि वह अपनी राजनीतिक स्थिति को क़ायम रख सकें। अगर वह एक बार फिर मुसलमानों के निकट जाने की कोशिश कर रहे हैं तो स्वागत न सही परं उनके नाम पर दरवाज़ा बंद कर लेने का माहौल भी अब नहीं है। उनके वादे विश्वस्नीय हैं या नहीं, इस पर विचार तो किया जाएगा अतएव पहले सुन तो लें कि आख़िर अब वह कहना क्या चाहते हैं। मुसलमानों के अगर उनसे जुड़ने के हालात पैदा होते हैं तो वह उन्हें किस हद तक महत्व और साझेदारी देने को तैयार हैं यह समझना होगा। जहां तक अमर सिंह का संबंध है, अभी तक तो उनकी कोई राजनीतिक पार्टी है नहीं, परंतु वह भूमि तैयार करने में पूरी गंभीरता के साथ लगे हुए हैं। एक राजनीतिक पार्टी खड़ी करने के लिए जितने संसाधन दरकार होते हैं वह सब उनके पास हैं, उसे कामयाब बनाने के लिए जो वोट बैंग दरकार होता है उस दिशा में उनके प्रयास जारी है। राजनीतिक दृष्टि से अमर सिंह के अतीत को लेकर कोई अंतिम राय नहीं दी जा सकती। इसलिए कि जब तक वह कांग्रेस के साथ थे उनकी विचारधारा कांग्रेसी थी, जब तक वह समाजवादी पार्टी के साथ थे तो उनकी विचारधारा समाजवादी थी, इसलिए कुल मिलाकर उन्हें धर्मनिर्पेक्षता की श्रेणी में तो रखा ही जा सकता है, जब तक साम्प्रदायिक शक्तियों के साथ उनका सियासी लगाव सामने नहीं आता, मुसलामन उनकी सम्भावित पार्टी की मज़बूत कड़ी साबित हो सकते हैं, मगर क्या यह संभव है? क्या इस दिशा में विचार किया जा सकता है? इस मामले में भी ‘हां’ या ‘ना’ याने निर्णायक स्थिति तक पहुंचने से पूर्व उनकी पहल को समझना होगा। उन्हें कांग्रेस या मुलायम सिंह की श्रेणी में अभी नहीं रखा जा सकता, इसलिए कि मुसलमान अगर कांग्रेस के साथ जाता है तो उसे बहुत लाभ पहुंचा सकता है, अगर नहीं जाता है तो थोड़ा नुकसान भी पहुंचा सकता है, लेकिन पार्टी का अस्तित्व बाक़ी रहता है, अगर वह मुलायम सिंह यादव के साथ खड़ा होता है तो मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक स्थिति को बहुत वज़नदार बना देता है, अलग होता है तो काफी कमज़ोर बना देता है और अगर वह अमर सिंह के साथ खड़ा होते हैं तो रातो रात बदल सकते हैं, लेकिन अमर सिंह का जिस वोट बैंग पर दावा है वह ठाकुर बिरादरी है, जो भारत भर में लगभग 9 प्रतिशत है, याने 10 करोड़ के आसपास। जबकि मुसलमान 18 प्रतिशत हैं अर्थात 20 करोड़ के आसपास, इसलिए उन्हें तय करना होगा कि वह मुसलमानों को क्या हैसियत देने का इरादा रखते हैं। जहां तक मुलायम सिंह यादव का संबंध था तो वह मुसलमानों को दूसरे नम्बर पर रख सकते थे इसलिए कि पिछड़े वर्गों की आबादी भारत में लगभग 37 प्रतिशत है, यानी मुसलमानों की आबादी से दुगना। अब यह अलग बात है कि पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले मुलायम सिंह यादव अकेले कभी नहीं रहे, हां, मगर लम्बी अवधि तक उन्हें धर्मनिर्पेक्षता का अलम बरदार ज़रूर समझा जाता रहा, जो मुसलमानों को आकर्षित करने के लिए काफ़ी था।

पश्चिमी बंगाल और केरला में कम्युनिस्ट पार्टियां सत्ता में आती रही हैं तो यह मुसलमानों के समर्थन के बिना संभव नहीं था। पश्चिम बंगाल को बचाने के लिए, नंदी ग्राम को भुलाने के लिए, ममता बनर्जी और कांग्रेस की सामूहिक शक्ति से अपनी गद्दी बचाने के लिए कम्युनिस्ट पार्टियों को इससे बहुत आगे जाना होगा वरना अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को कैम्पस के लिए दिया गया यह ज़मीन का टुकड़ा तो एक उदाहरण के अनुसार ‘ऊंट के मुंह में ज़ीरा’ से भी कम है। नितीश कुमार अपने शासनाकाल के अंति चरण में हैं एक ओर उनके दामन पर भाजपा से गठजोड़ की बदनामी है (मुसलमानों के दृष्टिकोण से) तो दूसरी ओर भाजपा के साथ रहते हुए भी मुसलमानों के साथ अच्छे रिशते बनाए रखने की नेकनामी भी। कांग्रेस जिस तेज़ी से आगे बढ़ रही है, उससे नितीश कुमार का भयभीत होना स्वभाविक है। अब लाख टके का प्रश्न यह भी है कि वह आगामी विधनसभा चुनाव में भाजपा के साथ जाएंगे या फिर कोई और राजनीतिक रणनीति उनके मन में है।

यक़ीनन मेरे पाठक यह सोच रहे होंगे कि अगर मैं सभी का सकारात्मक पक्ष सामने रख रहा हूं, किसी से भी अनदेखी न करने की बात कर रहा हूं, न किसी से गले मिलने का सुझाव दे रहा हूं तो आख़िर मैं सोचता क्या हूँ, और संदेश क्या देना चाहता हूं? तो प्रिय दोस्तो! मेरा छोटा सा सुझाव है कि अब भावनाओं की धारा में बह जाने से कुछ नहीं होगा, वादों के सब्ज़ बाग़ दिखाए जाने का कोई असर नहीं होगा, ख़ूबसूरत ख़्वाब देखने का सिलसिला हमने छोड़ दिया है। अब हम हक़ीक़त की पथरीली धरती पर खड़े हैं, हां, अगर राजनीतिज्ञ चाहें तो हमें अब बेमुरव्वत कह सकते हैं। अब हम से प्रेम की धारा में बह कर समर्थन की उम्मीद न रखें, अब तो पूरी तरह मोलतोल के साथ राजनीतिक भागीदारी की बात की जा सकती है और वह भी जिस तरह सब करते हैं, जो राजनीतिक बाज़ार का एक माना हुआ चलन है, ‘जिसकी जितनी भागीदारी उसकी उतनी हिस्सेदारी’। संसद में सरकार बनवाने में शामिल पार्टियों की मंत्री मंडल में दावेदारी उनके प्रतिनिधियों के अनुपात से तय होती है तो फिर संसद के बाहर इसी रणनीति पर विचार क्यों नहीं किया जा सकता? सबके वादे सुनते हैं, सबके इरादे देखते हैं, सबकी नियतों को परखते हैं, न किसी का बाईकाट और न किसी का झंडा अपने हाथ में लेकर चलने की आवश्यकता, हम किसी के लिए किसी से दुशमनी क्यों मोल लें? आप आए हैं हमारे द्वार पर अपनी बात कहने के लिए, चलिए सुन लेते हैं, क्या कहना चाहते हैं, फैसला उस समय करेंगे, जब फैसले की घड़ी आएगी।

1 comment:

Jyoti Verma said...

किसी भी तरह हम देश में व्याप्त धर्म, जाति और क्षेत्र की राजनीति से परे नही जा सकते. इसके ज़िम्मेदार हम ही है कोई और नही. मुठ्ठी भर नेता पूरे देश को बाँट रहे है तो इनको उखाड़ फेकने के लिए हम असीमित लोग किसका मुंह देख रहे है . तमाम परिस्तिथियों के लिए हम खुद ज़िम्मेदार है. क्या हम अच्छे बुरे में फर्क करना नही जानते? क्यों हम अपने अधिकारों कर्तव्यों का पालन नही करते?
जब तक हम दूसरों को मौका देते रहेंगे तब तक लोग हमारा फायदा उठाते रहेंगे. आखिर कब तक हम आम आदमी बने रहना चाहते है ?