मैं कुछ दिन सिर्फ और सिर्फ अध्य्यन या अपने टॉपिक पर रिसर्च, आप जो भी मुनासिब समझें, तक ही ख़ुद को सीमित रखना चाहता था, इसलिए कि इस वक़्त मैं एक अत्यंत गंभीर विषय पर लिख रहा था, जिसके दूरगामी परिणाम अत्यंत भयानक नज़र आते हैं, इसलिए मेरा पूरा ध्यान केंद्रित था भारत और पाकिस्तान में होने वाले बम धमाकों पर और मैं पहुंचना चाहता था, बल्कि पहुंचना चाहता हूं इस आतंकवाद की तह तक। आख़िर इसके पीछे असल कारण क्या हैं? वे कौन लोग हैं जो भारत और पाकिस्तान को तबाह कर देना चाहते हैं, जिन्होंने इस धरती को बम धमाकों से इतना दहलाकर रख दिया है, जैसे कोई युद्ध चल रहा हो। शायद ऐसी स्थितियां तो अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ के युद्ध के दौरान थीं, जिनका अक्सर व बेशतर इन देशों के नागरिकों को सामना करना पड़ता रहा है। बहुत जल्द मैं ऐसे तमाम आंकड़े अपने पाठकों और भारत सरकार तथा पाकिस्तान के शासकों के सामने रखना चाहता हूं, जिससे अंदाज़ा होगा कि अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ युद्ध के दौरान जितने अमेरिकी सैनिक हताहत नहीं हुए उससे भी अधिक जानें हम इन बम धमाकों में खो चुके हैं। मैं बार-बार अपने देश के साथ पाकिस्तान को शामिल करके बात कर रहा हूं इसलिए कि जब आप इसके बुनियादी कारण तक पहुंचेंगे तो आपको यह लगेगा कि यह उल्लेख अत्यंत आवश्यक है। बहरहाल इस विषय पर मैं इसी सप्ताह जुमे के दिन दस्तावेज़ के तहत अपने मुसलसल कॉलम में लिखने जा रहा हूं। फिलहाल चूंकि अमर सिंह और मुलायम सिंह यानी समाजवादी पार्टी की ख़बरें इतनी अधिक आ रही हैं कि उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती, इसलिए आज मुझे आवश्यक लगा कि कुछ मुलायम सिंह और अमर सिंह के बिगड़ते संबंधों पर भी लिखा जाए। क्योंकि मेरा संबंध दोनों से ही पुराना रहा है इसलिए बहुत सी बातें निजी थीं, जिन्हें मैंने अपने अख़बार की बजाए अपनी वैबसाइट, ब्लॉग, ट्वीटर, फेस बुक, लिंकडइन ((Linkedin) पर लिखना आवश्यक समझा।
इस समय हर तरफ यह अुनमान लगाए जा रहे हैं कि अमर सिंह के जाने के बाद समाजवादी का क्या होगा? या समाजवादी छोड़ने के बाद अमर सिंह का क्या होगा? हो सकता है, आप मेरी बात से सहमत न हों मगर मुझे लगता है यह अलगाव दोनों के ही भले के लिए है। इसे कुछ ऐसा समझें, जैसे कोई दो जुड़वां बच्चे इस तरह हों जिनका शरीर एक दूसरे से जुड़ा हो, तो ऐसी स्थिति में दोनों का ही जीवन कठिन हो जाता है। दोनों की मुहब्बत अपनी जगह लेकिन आज मुलायम सिंह और अमर सिंह की स्थिति भी कुछ ऐसी ही हो गई है। निःसंदेह इस ऑपरेशन में दोनों ही ज़ख़्मी होंगे, मगर शायद यह ऑपरेशन दोनों को ही एक नया और सुंदर जीवन भी देगा, इसलिए कि फिर दोनों ही अपने-अपने मन के मुताबिक़ जी सकेंगे। हां, मुलायम सिंह को ज़्यादा दुख होगा कि वह बहुत भावुक हैं, इस बीच अमर सिंह के बग़ैर जीना भूल गए हैं और एहसास अमर सिंह को भी कम नहीं होगा, इसलिए कि वह अत्यंत संवेदनशील हैं लेकिन राजनीतिक नुक़सान स्थायी रूप में किसी का भी नहीं होना चाहिए। अमर सिंह के लिए कई रास्ते खुले हैं, उनकी निजी हैसियत ऐसी है कि वह अपनी एक अलग पार्टी बना सकते हैं और चला भी सकते हैं.... और उनकी यह पार्टी कई क्षेत्रीय पार्टियों से अपने आरंभ में ही बड़ी भी साबित हो सकती है। इसके अलावा अमर सिंह के लिए नेशनलिस्ट कांग्रेस का दरवाज़ा खुल सकता है, इसी तरह अमर सिंह के जाने के बाद मुलायम सिंह के भी कांग्रेस से रिश्ते और नज़दीकी हो सकते हैं। राज बब्बर, बेनी प्रसाद वर्मा जैसे लोग मुलायम सिंह के पैरोकार के रूप में अपने पार्टी हाईकमान के सामने यह बात रख सकते हैं कि कांग्रेस की असल नाराज़गी तो बहुत हद तक अमर सिंह से थी, मुलायम सिंह से नहीं। समाजवादी पार्टी ने तो न्यूक्लियर डील के अवसर पर भी सरकार को गिरने से बचाया था और वर्तमान चुनाव के बाद भी बिना शर्त समर्थन की घोषणा कर दी और अगर आने वाले कल में सरकार को मज़बूती देने के लिए मुलायम सिंह से संबंध और बेहतर कर लिए जाएं तो इस में हर्ज ही क्या है? अगर किसी समय किसी भी तरफ़ से कोई दिक़्क़त पेश आई तो मुलायम सिंह का साथ न्यूक्लियर डील के अवसर की तरह काम आएगा इसके अलावा आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बेशक कांग्रेस अकेले उतरे, फिर भी अगर स्पष्ट बहुमत किसी को भी न मिला तो यूपी में कांग्रेस और सपा की मिलीजुली सरकार बनने में तो कोई संदेह नहीं होगा। इसी तरह इसी वर्ष के अंत में बिहार के चुनाव में भी लालू, पासवान और मुलायम सिंह से दोस्ताना संबंध एक सैक्यूलर सरकार के गठन को निश्चित बना देंगे। यह बाद में देखा जाएगा कि सरकार किसके नेतृत्व में बनती है।
मैंने जब इस दिशा में गहराई से सोचना आरंभ किया तो मुझे लगा कि मुलायम सिंह यादव को अमर सिंह से अलग होने का नुकसान तो क्षणिक होगा, मगर लाभ दूरगामी भी हो सकता है। मुलायम सिंह का साथ छोड़ कर आख़िर कितने एमएलए और सांसद जा सकते हैं? आधे भी नहीं। इस समय तक जो ख़बरें आ रही हैं उनके अनुसार तो अधिक से अधिक 6 सांसद और 25 विधायक अमर सिंह के साथ बताए जाते हैं। यह संख्या दल-बदल क़ानून के अनुसार उन्हें टूटकर अलग पार्टी बनाने या किसी पार्टी में शामिल होने का अवसर उपलब्ध कहां कराती है, ऐसी स्थिति में उनकी सदस्यता जा सकती है। जहांतक संजय दत्त और मनोज तिवारी का संबंध है, तो संजय दत्त ने पार्टी के पदों से त्यागपत्र दे दिया, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। अभी कुछ महीनों पहले ही वह पार्टी में आए थे, फिल्म अभिनेता हैं, कोई ज़मीनी नेता नहीं। किसी सदन के सदस्य भी नहीं हैं। यही मामला मनोज तिवारी का भी है। अमर सिंह का स्वयं का कहना है कि जया बच्चन उनके फैसले से नाराज़ हैं, अगर वह राज़ी हो भी जाती हैं तो भी संसद के ऊपरी सदन में अब उनके दिन ही कितने बचे हैं? कुछ महीने, इसलिए वह त्यागपत्र दे भी सकती हैं उससे बहुत ज़्यादा अंतर नहीं पड़ने वाला। जया प्रदा का मामला अवश्य कुछ अलग है वह तो हाल ही में चुनकर आई हैं। त्याग पत्र देती हैं तो सीट ख़ाली हो जाएगी, फिर से चुनाव लड़ना होगा। अमर सिंह की बदौलत जीत तो वह आज़ाद उम्मीदवार के रूप में भी सकती हैं, हां मगर परदे के पीछे से भाजपा का सहारा लेना होगा। अब रहा शेष बचे सदस्यों का प्रश्न तो खुल कर तो अभी कोई सामने अभी आया नहीं है, फिर भी अमर सिंह की राजनीतिक हैसियत को इतना कम करके भी नहीं देखा जा सकता। 6 की संख्या तो कम है, इससे अधिक भी उनके साथ हो सकते हैं, मगर यह संख्या निश्चित ही दो तिहाई बहुमत तक नहीं जा सकती कि वह यकमुश्त अलग होकर एक पार्टी बना लें या फिर किसी पार्टी में शामिल हो जाएं। ऐसी स्थिति में पार्टी छोड़ कर जाने वाले लोकसभा सदस्यों को त्यागपत्र देकर फिर से चुनाव लड़ना होगा और यह सभी ऐसी हिम्मत कर लें और फिर से जीत कर आ जाएं, ऐसा नहीं लगता। राज बब्बर को अमर सिंह की ताक़त ने एक बार तो फ़तहपुर सीकरी में हरा दिया, मगर 6 महीने बाद दूसरे फिरोज़ाबाद चुनाव में नहीं हराया जा सका। अब यह तो कहा जा सकता है कि वह तो यादव परिवार की सीट थी। इसमें कोई संदेह नहीं कि वह यादव परिवार की सीट थी, मगर स्वाभिमान का टकराव तो अमर सिंह और राज बब्बर के बीच था क्या आपको फ़तहपुर सीकरी का चुनाव याद नहीं इस बार चुनाव लड़ाने वाले सदस्यों के सामने एक बड़ी समस्या यह भी रही होगी कि एक ओर भाई राज बब्बर है, जिससे उन्हें कोई शिकायत नहीं और बहुत हद तक मुलायम सिंह यादव को भी नहीं रही और दूसरी ओर छोटी भावज हैं। अब दोनों में से कोई भी जीते यह पार्टी सदस्यों के लिए इस तरह स्वाभीमान का प्रश्न नहीं बन सकता जितना अमर सिंह के लिए। कहने का अर्थ यह है कि त्याग पत्र देने वाले सदस्य अमर सिंह की नज़दीकी के संबंध से फायदे में तो रह सकते हैं मगर वह फिर अपनी सीट भी जीत लेंगे यह ज़रूरी नहीं।
आइये, अब एक नज़र डालते हैं कि अगर मुलायम सिंह और अमर सिंह अलग हो जाते हैं तो किसे कितना लाभ होगा और कितनी हानि। तो निश्चय ही मेरा अगला वाक्य पढ़कर आप चैंक जाएंगे, वह इसलिए कि मेरे हिसाब से दोनों को ही बड़ा लाभ होगा। मुलायम सिंह को अब अमर सिंह को साथ लेकर चलने में लाभ कम और हानि अधिक है। लम्बे समय से पार्टी सदस्यों में अमर सिंह को लेकर चल रही नाराज़गी एकदम से थम जाएगी और उन पर यह दबाव भी बनेगा कि चलो अब अमर सिंह के बिना पार्टी को खड़ा करके दिखाओ। अब न कल्याण सिंह है, जिससे मुसलमानों को नाराज़गी थी और न अमर सिंह हैं जिनसे पार्टी सदस्यों को नाराज़गी थी, अब गांव-गांव, गली-गली जाकर फिर से पार्टी को मज़बूत करने का अभियान चलाओ। हो सकता है कि सदस्यों पर इस बात का प्रभाव हो और वह मतदाताओं को भी प्रभावित करने में सफल हो जाएं। अभी तो बहुत समय है यूपी विधान सभा चुनावों में इसलिए मुलायम सिंह जैसे ज़मीनी नेता को फिर से पार्टी को खड़ा करने में बहुत कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
आइये, अब बात करते हैं अमर सिंह की। अमर सिंह भी बिल्कुुल घाटे में नहीं रहेंगे, सही मानों में उन्हें भी अब समाजवादी पाटी की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है। उत्तर प्रदेश में वह अपने बल पर दो साल बाद भी सरकार बनाने में सफल हो सकेगी, इसकी कोई उम्मीद नहीं है। मुलायम सिंह न भाजपा के साथ जा सकते हैं और न बीएसपी के। कांग्रेस का रुख़ क्या होगा, इस पर अभी सोचना बेकार है। केंद्रीय सरकार में अगर कांग्रेस समाजवादी पार्टी को हिस्सेदारी दे सकती तो अब तक यह फैसला ले चुकी होती। इसलिए इस भरोसे ख़ाली नहीं बैठा रहा जा सकता कि आज नहीं तो कल कांग्रेस सरकार में शामिल होने का निमंत्रण देगी। नेशनलिस्ट कांग्रेस में शामिल होने के बाद अमर सिंह मंत्री बनें न बनें, रुतबा तो मंत्री वाला होगा ही। उनके मित्रों के काम भी नहीं रुकेंगे, अब वह शरद पवार के माध्यम से हांे या किसी और के माध्यम से। वैसे भी जब वह सरकार में शामिल एक सहयोगी पार्टी के वरिष्ठ नेता होंगे तो कांग्रेस से दूरी भी कब तक नहीं मिटेगी। इसके अलावा महाराष्ट्र में सरकार पर दबदबा क़ायम होने पर तो किसी संदेह की गुंजाइश है ही नहीं। न अबू आसिम को मंत्री बनाना कठिन होगा और न उनके द्वारा राज्य सरकार पर पकड़ मज़बूत करना। अमर सिंह के लिए तो जितनी पोलिटिकल इंडस्ट्री महत्वपूर्ण है उतनी ही फ़िल्म इंडस्ट्री भी। राजनीतिक चमक न सही, फिल्मी चमक तो भरपूर उनके साथ रहेगी ही। इसके अलावा एक अवसर और भी है।
भारतीय जनता पार्टी प्रमोद महाजन के बाद आर्थिक मामलों में स्वयं को कमज़ोर पाती है। अमर सिंह का साथ मिल गया तो यह कमी दूर हो जाएगी, वैसे भी भाजपा में अमर सिंह के चाहने वालों की कोई कमी नहीं है। पार्टी बड़ी है, अमर सिंह का क़द बड़ा है, अमर सिंह के साथ आने से यूपी में भाजपा की आशाएं बढ़ जाएंगी और मुलायम सिंह समाजवादी पार्टी से बड़ी राजनीतिक पार्टी के नेता बन जाएंगे। कौन जाने उनकी राजनीतिक पहुंच बीजेपी के गठबन्धन में कुछ अन्य स्थानीय नेताओं को भी शामिल करा दे। और अधमरी हालत में पहुंच रही पार्टी को एक नया जीवन मिल जाए और वह साढ़े चार वर्ष बाद ही सही तो एक वैकल्पिक सरकार की योजना को अमलीजामा पहनाने का सिलसिला अभी से शुरू किया जा सकता है।यह तमाम बातें केवल कल्पनाओं पर आधारित हैं, लेकिन राजनीति में मंज़िल पर पहुंचने के रास्ते इतने कम होते हैं कि बहुत अधिक इधर-उधर जाने की संभावना होती ही नहीं। अमर सिंह अगर अपना त्याग पत्र वापस नहीं लेते तो इसके अलावा रास्ता बचता ही क्या है कि वह अपनी पार्टी बनाए, शरदपवार का दामन थामें या भारतीय जनता पार्टी का। कांग्रेस के बारे में कुछ अधिक सोचने की गुंजाइश नहीं लगती। एक तो इसका कारण यह है कि बहुत से दिग्गज नेताओं की उपस्थिति में अपनी जगह बनाना बहुत कठिन होगा, फिर अगर वह समाजवादी पार्टी में अपनी नम्बर-2 की पोज़ीशन से भी संतुष्ट नहीं थे तो कांग्रेस में तो एक से 10 नम्बर तक का स्थान ख़ाली ही नहीं है और इसके बाद की वेटिंग लिस्ट भी काफी लम्बी है ऐसी स्थिति में वहां जाकर वह किस तरह संतुष्ट हो सकते हैं? फिर समाजवादी पार्टी से अलग होकर तो कई पार्टियों में जाने की गुंजाइश निकल आती है। क्योंकि साथ जाने वाले मिल जाते हैं, मगर कांग्रेस से तो नारायण दत्त तिवारी और अर्जुन सिंह जैसे नेताओं को भी छोड़ कर जाने के बाद क्या मिला?................................................
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