Tuesday, January 5, 2010
आज कोई लेख नहीं! बस एक बात.......
आज कोई लेख नहीं...., कोई खोजबीन पर आधारित रिपोर्ट नहीं...., कुछ आंकड़े नहीं...., आज बस आपसे कुछ बातें करने को जी चाहता है और इच्छा यह भी है कि यह बातचीत एकतरफ़ा न रहे, कुछ हम कहें, कुछ आप कहें, मक़सद तो बस इतना है कि हमारे इस संयुक्त प्रयास से देश की तस्वीर भी बदले और क़ौम की तक़दीर भी। नए साल के आरंभ के बाद हमने भारत और पाकिस्तान में हुए बम धमाकों की तफ़सील पेश की। प्राप्त सूचनाओं के अनुसार जिन तारीख़ों में हेडली ने भारत और पाकिस्तान की यात्रा की, उन पर हमने विशेष नज़र रखी। यह विषय ऐसा नहीं है, जिस पर बात कुछ दिनों में पूरी हो जाए और ऐसा भी न हो कि हम लिखते रहें और आप पढ़ते रहें। इससे आगे कुछ भी न हो, न हम कुछ करें और न आप कुछ करें, सरकार सोती रहे और आपराधिक मानसिकता रखने वाले लोग निश्चिंत रहें, इसलिए कुछ तो करना ही होगा। जिस समय मैं भारत में एक के बाद एक होने वाले बम धमाकों के बारे में जानकारियां एकत्र कर रहा था और लगातार अपने लेखों के सिलसिले में कुछ ऐसे संभावित ख़तरे की ओर इशारा करता चला जा रहा था, जिन पर न तो हमारी सरकार ध्यान दे रही थी, न हमारा मीडिया और न ही जनता का ध्यान उस संभावित ख़तरे की ओर जा रहा था। परन्तु इस सबके बावजूद भी एक ख़ास बात जो मैंने नोट की और जिसे आज खुलकर कहा जा सकता है, लिखा जा सकता है, वह यह कि हमारी दिल्ली पुलिस और सीबीआई जो नोएडा के एक छोटे से फ़्लैट में जो कि अधिक से अधिक 4 कमरों तक सीमित था, उसके अंदर होने वाली हत्या का पता नहीं लगा सकी, मगर दिल्ली में हुए बम धमाकों के मात्र 6 दिन के अंदर उसने सारी गुत्थी को सुलझा लिया, पूरा प्लान उनके सामने आ गया, मास्टर माइंड तक पहुंचने में उन्हें कोई देर नहीं लगी, 2 युवकों की हत्या करके वह ढिंढोरा पीटने लगे कि हमने बहुत बड़ा मोर्चा सर कर लिया। हमने उन बम धमाकों में शामिल आतंकवादियों को एन्काउन्टर में मार डाला है। उसके बाद मुम्बई पुलिस, गुजरात पुलिस वगैरा वगैरा द्वारा नए-नए मास्टरमाइंड सामने आने लगे। बटला हाउस में 2 मुस्लिम युवकों का एन्काउन्टर प्रश्नों के घेरे में आ गया। प्रश्न सबसे अधिक हमने ही उठाए, घटना स्थल पर जाकर घटना को समझने की कोशिश की, मुम्बई के विशेषज्ञ सर्जन डा॰ ए.आर. उंदे्र की सेवाएं प्राप्त कीं। कारण केवल यह नहीं था कि हम दिल्ली पुलिस या 2 मुस्लिम युवकों तक अपने ध्यान को सीमित किए हुए थे, क्योंकि जो परिस्थितियां उस समय सामने आ रही थीं, उनसे यह अनुमान हो चला था कि बात केवल 2 मुस्लिम युवकों की नहीं है, बल्कि पूरी क़ौम निशाने पर है। इसलिए कि लगातार बम धमाकों की तरह एन्काउन्टरों की भी बाढ़ सी आ गई थी। इश्रत जहां एन्काउन्टर, सोहराबुद्दीन शेख़ एन्काउन्टर, समीर ख़ान पठान एन्काउन्टर वग़्ौरा वग़ैरा। शायद यह सिलसिला जारी रहता, अगर ‘‘रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा’’ लगातार महीनों तक इस घटना से जुड़ी बारीक से बारीक बातों को सामने ना लाता रहता।
‘इंडियन मुजाहिदीन’ के नाम से एक नया आतंकवादी संगठन सामने आया, जो हर बम धमाके के साथ गर्व के अंदाज़ में मीडिया को ई-मेल भेज कर अपराध स्वीकार करता कि हां, यह बम धमाके हमने किए हैं। पुलिस के हाथ आतिफ और साजिद जैसे मास्टर माइंड लग जाते, जिनका एन्काउन्टर हो जाता।, लोग चीख़ते रहते कि यह निर्दोष हैं, मगर कोई सुनता ही नहीं। एक-एक कर इंडियन मुजाहिदीन द्वारा मीडिया को पांच ई-मेल भेजे गए। हमने अपने सिलसिलेवार कॉलम ‘‘मुसलमानाने हिंद... माज़ी, हाल और मुस्तक़बिल???’’ की क़िस्त नं॰ 23 (इंडियन मुजाहिदीन का ई-मेल और दिल्ली बम धमाके- 15/09/2008), क़िस्त नं॰ 24 (इंडियन मुजाहिदीन-नहीं, यह मुसलमानों की तंज़ीम नहीं हो सकती- 16/09/2008), क़िस्त नं॰-25 (इंडियन मुजाहिदीन क्या वाक़ई मुसलामन है?- /18/09/2008), क़िस्त नं॰- 26 (इंडियन मुजाहिदीन! देखो अपना चेहरा, क़ुरआन की रौशनी में- 19/09/2008), में उन्हें प्रकाशित किया और यह सिलसिला उस समय तक जारी रहा, जब तक यह सिद्ध नहीं हो गया कि आतंकवादियों ने बम धमाकों के बाद यह ई-मेल भेजने के लिए अमेरिकी नागरिक केन हेवुड के माध्यम का प्रयोग किया था, और फिर वह अत्यंत रहस्यमय तरीक़े से भारत छोड़कर अमेरिका भागने में कामयाब नहीं हो गया? तब तक ‘‘इंडियन मुजाहिदीन’’ का नाम फ़िज़ाओं में घूमता रहा, मीडिया की ख़बरों की हेडिंग बनता रहा, मगर जैसे ही हमने ‘‘इंडियन मुजाहिदीन’’ और उसकी गतिविधियों को केन हेवुड से जोड़ते हुए लगातार लिखना आरंभ किया, उस आतंकवादी संगठन का नाम सिरे से ग़ायब हो गया। अगर वाक़ई इस आतंकवादी संगठन का कोई अस्तित्व था तो फिर यह अचानक कहां ग़ायब हो गया? बम धमाके तो बाद में भी हुए, मगर फिर कोई ई-मेल नहीं आया।
‘‘वंदे मात्रम’’ पर उठे तूफ़ान और कुछ लेखों के बाद पैदा हुई ख़ामोशी पर इस समय कुछ भी नहीं लिखना चाहता, इसलिए कि फिलहाल विषय आतंकवाद है। जो हिंदू या मुसलमान के लिए नहीं पूरे भारत के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है। हमने पहली बार सी.आइ.ए की ओर शक की उंगली उस समय उठाई थी, जब हैदराबाद मक्का मस्जिद बम धमाकों में आइएसआइ और ‘हूजी’ का नाम लिया जा रहा था। इन बम धमाकों में जो मारे गए वह भी मुसलमान थे, जो गिरफ़्तार हुए वह भी मुसलमान थे और उनके ख़िलाफ ठोस प्रमाण भी नहीं थे, मामला बहुत हद तक आतिफ़ और साजिद जैसा ही नज़र आता था, हम इस मामले को लेकर उस समय के आंध्राप्रदेश के मुख्यमंत्री वाइएसआर रेड्डी से मिले, हिरासत में लिए गए कुछ मुस्लिम क़ैदियों को रिहाई भी मिली, उसके बाद यह तो हुआ कि जगह-जगह होने वाले बम धमाकों के बाद मुस्लिम क्षेत्रों में न तो आतंक का वह माहौल रहा, न उसी तरह मुस्लिम युवकों की गिरफ़्तारियों का सिलसिला जारी रहा और न वह एन्काउन्टर का निशाना बने। हां, मगर एक दो और घटनाओं का उल्लेख अनुचित न होगा। उत्तर प्रदेश पुलिस ने आमिर नाम के एक युवक को राह चलते उठाया, बिना नं॰ प्लेट की गाड़ी में डाला और शाहीन बाग़ की तरफ़ पहुंचे, यानी जहां बटला हाउस एन्काउन्टर हुआ था, समय रहते हमें सूचना मिली हम तुरंत घटना स्थल पर पहुंचे, पुलिस की पकड़ से उस युवक को छुड़ाकर उसके घर भेजा और उसके बाद ही वहां से वापस लौटे। इसी तरह की एक घटना नोएडा के एक मुस्लिम युवक के साथ भी हुई जहां ‘‘रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा’’ के हस्तक्षेप के बाद उसकी घर वापसी संभव हुई। इसी प्रकार विभिन्न जेलों में बंद अनेकों क़ैदियों को रिहाई मिली जो अपने नाकरदा गुनाहों की सज़ा भुगतने पर मजबूर थे। हम उन घटनोओं को केवल इसलिए सामने रखने की कोशिश नहीं कर रहे हैं कि यह ‘‘रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा’’ की बड़ी उपलब्धियां हैं, हालांकि हैं, मगर इस समय हम इन घटनाओं को सामने रखकर कुछ कहना चाहते हैं, इसलिए इस सूचि को यहीं समाप्त करते हुए सीधे 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले की चर्चा करते हैं। यह आतंकवादी हमला भारत पर था, हम सभी इसके लिए चिंतित थे। हमले का केंद्र नरीमन हाउस यानी यहूदियों का एक शरण स्थल था, मगर पहला शक पाकिस्तान पर गया और जिस तरह के प्रमाण मिल रहे थे, उससे यह अंदाज़ा होता था कि इस आतंकवादी हमले का ज़िम्मेदार पाकिस्तान है, पाकिस्तान की सरकार है, आइएसआइ है और पाक पोषित लश्कर-ए-तय्यबा जैसे आतंकवादी संगठन हैं। यह संदेह विश्वास में बदलता चला गया, मगर उस समय भी हमारा मन कह रहा था, निःसंदेह आतंकवादी पाकिस्तानी हैं और यह भी संभव है कि पाकिस्तान की इसमें कोई प्रमुख भूमिका हो, मगर एक आतंकवादी की ज़ुबानी जो कहानी बयान की जा रही है, उसे आंख बंद करके अक्षरशः विश्वास कर लिया जाना भी उचित नहीं था। यह वह माहौल था जब ऐसा लग रहा था कि किसी समय भी भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ सकतीं है। इस आतंकवादी हमले का मुंह तोड़ जवाब देने के लिए हम पाकिस्तान पर किसी समय भी हमला कर सकते हैं और इस हमले को रोकने का सुझाव देना भी ऐसा लगता था जैसे हमारी ओर से एक आतंकवादी देश के साथ सहानुभूति का रवैया अपनाया जा रहा है। फिर भी हमने जोखिम लिया, हमने एक दो नहीं दर्जनों लेख लिखे और लगातार लिखे, भारत सरकार से निवेदन किया कि तमाम मामले की गहराई से छानबीन के बाद ही कोई बड़ा क़दम उठाया जाए। जंग किसी मसले का हल नहीं है। हम पर पाक समर्थक होने के आरोप लगे। धमकियां तो ख़ैर साधारण बात है, मुक़दमे तक दर्ज किए गए। ‘एनएसए’ और ‘मकोका’ लगाने की बात कही गई। ग़ैर-ज़मानती वारंट जारी करने की मांग की जाने लगी। हमने 26/11 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले के बाद हर उस स्थान पर जहां भी हमला हुआ या हमलावर गए, स्वयं जाकर सूक्षमता से निरीक्षण किया और लगातार अपने पक्ष पर क़ायम रहे। नतीजा यह हुआ कि धीरे-धीरे आसमान साफ़ होने लगा, युद्ध के बादल छटने लगे और उस आतंकवादी हमले के 13 महीने बाद हम आज स्पष्ट रूप से यह कहने और लिखने की स्थिति में हैं कि घटना के तुरंत बाद हमने जिस ओर इशारा किया था आज सबूत उसी ओर इशारा कर रहे हैं, अगर उस समय पाकिस्तान पर हमला हो गया होता तो पता नहीं आज भी यह युद्ध जारी रहता या समाप्त हो गया होता। इस बात का तो हमें पूर्ण विशवास है कि 1965 और 1971 की तरह इस युद्ध में भी हम कामयाब होते, मगर फिर क्या हम 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई के रास्ते भारत पर हुए आतंकवादी हमले की तह तक पहुंच पाते? क्या असल अपराधियों की ओर हमारी नज़र जाती? पाकिस्तान को आज भी हर आरोप से मुक्त क़रार नहीं दिया जा सकता, बात चाहे हेडली की हो या तहव्वुर हुसैन राना की, दोनों ही पाकिस्तानी हैं, मगर मुझे कहने की अनुमति दीजिए कि निःसंदेह दोनों का शरीर पाकिस्तानी है, पर क्या आत्मा भी पाकिस्तानी है? क्या दिमाग़ भी पाकिस्तानी है? कोई शक नहीं कि लश्कर-ए-तय्यबा इन आतंकवादी हमलों में लिप्त है, भारत में होने वाले घातक बम धमाकों में उसका लिप्त होना अनेकों बार नज़र आता रहा है, मगर उस लश्कर-ए-तय्यबा का मास्टर माइंड कौन है? चीफ़ कंट्रोलर कौन है? किसके एक इशारे पर वहां आतंकवादी बनाए जाते हैं? हमने माना कि पाकिस्तान की धरती पर लश्कर-ए-तय्यबा के बैनर तले एक आतंकवाद की फैक्ट्री चल रही है, मगर उसका मैनेजिंग डायरेक्टर कौन है? उसका चैयरमैन कौन है? उसका सीईओ कौन है? जब तक हम इस ओर ध्यान नहीं देंगे, यह फैक्ट्री चलती रहेगी, आतंकवादी तैयार होते रहेंगे, भारत में बम धमाके होते रहेंगे और पाकिस्तान भी तबाह होता रहेगा।
हमने दोहराया पिछली तमाम घटनाओं को, हमने चर्चा की 26/11 की, केवल इसलिए कि हम अपने पाठकों तक यह बात पहुंचा सकें कि बहुत प्रभाव होता है लिखे जाने का भी और पढ़े जाने का भी। आपने देखा एक अभियान चला, संदिग्ध एन्काउन्टर्स पर रोक लगी, आपने अभियान को कामयाब बनाया, घरों से युवकों के उठाए जाने का सिलसिला बंद हुआ, आप इस अभियान को बंद कमरों से बाहर तक ले गए। मुसलमानों के दामन पर आतंकवाद का लगाया जाने वाला दाग़ मिटने लगा। यह सब इसलिए हुआ कि आपने आतंकवाद के विरुद्ध देशव्यापी स्तर पर सैकड़ों जलसे किए, बात भारत सरकार तक भी पहुंची और देशवासियों तक भी। अल्लाह का करम है, आज मुसलमानों को उस निगाह से नहीं देखा जाता जिस तरह कि अभी कुछ बरस पहले तक देखा जा रहा था। एक आख़िरी बात कहकर आजकी बातचीत समाप्त करूंगा, जिसके लिए मुझे इतनी लम्बी भूमिका बांधने की आवश्यकता पड़ी। हमें भारत सरकार सहित हर भारतीय तक इस आवाज़ को उसी तरह पहुंचाना होगा, जिस तरह हमने आतंकवाद के विरोध में अपनी आवाज़ पहुंचाई थी। अगर देश को आतंकवादी हमलों से बचाना है, देश को हिंदू मुस्लिम घृणा से बचाना है, देश में शांति व एकता का माहौल बनाना है, देश को प्रगति की राह पर लाना है तो हमें इस आतंकवाद की जड़ तक पहुंचना होगा और उन आतंकवादियों को तलाश करना होगा, जो वास्तव में इस आतंकवाद के प्रेरक हैं, वरना मोहरों पर नज़र रखने से क्या होगा। कुछ दिन की ख़ामोशी होगी और फिर वही भयानक तूफान।.................
Subscribe to:
Post Comments (Atom)

Indian Rupee Converter
No comments:
Post a Comment