Monday, December 7, 2009

गिरधर राठी ने जो लिखा 6 दिसम्बर पर

जिस समय आप यह लेख पढ़ रहे होंगे, मैं विदेश यात्रा के लिए रवाना हो चुका हूंगा। आज 6 दिसम्बर है अर्थात् वह तिथि जिस दिन बाबरी मस्जिद शहीद की गई थी। मुझे उस दिन के लिए एक महत्वपूर्ण लेख लिखना था, परन्तु जब मैंने ‘‘आलमी सहारा’’ के ताज़ा प्रकाशन में प्रकाशित ‘‘गिरधर राठी साहब’’ का प्रस्तुत लेख ‘‘इस पाप की सज़ा क्या है?’’ पढ़ा, जोकि पहली बार 20 दिसम्बर 1992 को अर्थात् बाबरी मस्जिद घटना के केवल दो सप्ताह बाद प्रकाशित किया गया तो मुझे एहसास हुआ कि आजके दिन के लिए इससे बेहतर कोई दूसरा लेख हो ही नहीं सकता, इसलिए आपकी सेवा में प्रस्तुत है राठी साहब का यह एतिहासिक लेखः

हे राम!

क्या मैं गिरधर राठी अर्थात् एक भारतीय नागरिक किकर्तत्वय विमूढ़ हूं? चूंकि 6 दिसम्बर 1992 को भाजपा और उसके गिरोहों ने बाबरी मस्जिद और उसी में स्थित राम चबूतरा और सीता रसोई को नेस्तो नाबूद कर दिया है, इसलिए क्या एक बहुधर्मी, बहुभाषी, बहुजातीय समाज का, एक लोकतांत्रिक, धर्मनिर्पेक्ष, समाजवादी गणराज्य का नागरिक, मैं कुछ नहीं कर सकता? क्या मैं इसलिए स्तब्ध हूं कि संविधान की रक्षा की शपथ लेने वाले राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और उसकी सरकार, राज्य का मुख्यमंत्री, और उसकी सरकार, पुलिस प्रशासन, फौज और सर्वोच्चय न्यायालय के साथ-साथ तमाम न्यायालय इस असभ्य, असंस्कृत और असंवैधानिक हादसे को और रोज़ सैकड़ों की दर से निर्दोष नागरिकों की हत्या को आग ज़नी और लूट-पाट को, मूक, अबोध और अशक्त दर्शक बने देखते रहे और अब भी देख रहे हैं और कुछ नहीं कर पा रहे?


एक भारतीय नागरिक के रूप में क्या मुझे सिर्फ अपनी निजी जान व माल की अपनी नौकरी और ऐशो आराम की चिंता है, और यह चिंता नहीं है कि 85 करोड़ मनुष्यों को यह देश धू-धू कर जल रहा है और आज नहीं तो कल इसके न केवल पचास टुकड़े हो जाएंगे बल्कि उन टुकड़ों में भी आत्मसम्मान के साथ सांस लेना असंभव होगा? क्या अपनी मौत मैं सिर्फ कल तक के लिए टाल रहा हूं?


स्वतंत्र भारत में पले पुसे एक नागरिक के रूप में मुझे कोई असंमंजस, कोई किंकर्तव्य विमूढ़ता नज़र नहीं आती। मेरा कर्तव्य, मेरा दायित्व, मेरा धर्म बिल्कुल स्पष्ट है।

चूंकि यह पूरी प्रेत-लीला धर्म के नाम पर हो रही है इसलिए उसी से शुरू करूं।

हिन्दु समाज में पैदाइश और परवरिश के कारण मेरे दिमाग़ में राम और रावण की, दुर्गा और रक्तबीज की, धर्म और अधर्म की, पुण्य और पाप की छवियां, परिकल्पनाएं और दीक्षाएं साफ़-साफ़ उभर रही हैं। आज के हिन्दू धर्म की एक मात्र जीवित धारा वह है जो कबीर, रहीम, नानक, तुलसी, सूर और मीरा ने चलाई थी। वही धारा जो तमाम तरह के वैषणव, शाक्त, श्वैत और निर्गुण पंथों के अनुयायी आज मान रहे हैं। इस धारा की सबसे बड़ी सीख है- ‘वैष्णव जन तो तैणे कहिए जै पीर पराई जाणै रें’। नरसी मेहता की यही टेक तुलसी में है। ‘परिहत सरिस धर्म नहीं, भाई। भर पीड़ा सम नहीं अधमाई’।

इस धर्म धारा में सबके सब एक ही प्रभु की सन्तान हैं। दुश्मन कोई नहीं है अगर कोई त्याज्य है तो वह जो ‘पर पीड़ा’ में लगा हुआ हैः जैसे आडवाणी और उसके 10 मुंह, 20 हाथ, वे रक्तबीज जो सिर्फ अपने जैसे दानवों को, राक्षसों को जन्म दे रहे हैं। वह अधम और अधार्मिक गिरोह जो ख़ुद किसी ईशवर या देवता के भक्त नहीं हैं, अगर हैं तो एक दानवी राजनैतिक सत्ता के, जिनका कोई ईमान नहीं है सिवाए छल, फरेब, कपट और पाखंड के हिंसा और प्रति हिंसा के।


हिंदू धर्म की इस विराट जनधारा का ‘सेक्यूलरइज़्म’ से कभी कोई मत भेद नहीं रहा, न ही हो सकता है। यदि कोई नेता या दल सेक्यूलरवाद के नाम पर धोखा धड़ी करते रहे हैं, तब भी ‘सर्व धर्म संभाव’ का आदर्श अपनी जगह क़ायम है। इस लोकतांत्रिक सर्व धर्म संभावी, समाजवादी कहलाने वाले गणराज्य के संविधान में प्रतिष्ठित आदर्श को मानने वाले एक नागरिक के रूप में मुझ पर आडवाणी जैसों के इस कुतर्क का कोई असर नहीं होता कि सेक्यूलरवाद ग़लत है या कि छदम है। अगर वे ‘छदम’ है जो उसे छदम के स्तर से उठाकर एक सत्य बनाने का फर्ज़ मेरा भी है।


(मैं उस हंसी को सहने को तैयार हूं जो संविधान के ‘समाजवाद’ को लेकर की जाएगी। मख़ौल तो दरअसल गणराज्य का, लोकतंत्र का और सैक्युलरवाद का उड़या ही है इन गिरोहों ने।)


हिंदू धर्म की व्यापक धारा धर्म के उन 10 लक्षणों पर परिचालित है जो सत्य, असत्य, क्षमा, वरुणा जैसे शब्दों से व्यक्त होती है। मैं इन शब्दों में इनकी व्यावारिक्ता में उनकी अप्रहार्यरता में उसी तरह निष्ठा रखता हूं जिस तरह अपने शरीर की चमड़ी के होने और उस पर होने वाले प्रहारों से पैदा होने वाले दर्द में।

इस नाते मैं मानता हूं कि बाबरी मस्जिद का और उसी के साथ साथ राम चबूतरा और सीता रसोई का विध्वंश करके भाजपा और उसके गिरोहों ने धर्मद्ररोह किया है। न केवल इस्लाम धर्म का बल्कि ख़ुद हिंदू धर्म का जघन्य अपमान है यह ‘कार सेवा’।


अभी कुछ ही दिन पहले इन्हीं ‘कारसेवकों’ ने अयोध्या के वे परम पावन मंदिर तोड़े थे जिनके दर्शनों के लिए देश भर की साक्षर-निरक्षर जनता उमड़ी पड़ती थी।


ग़नीमत है- और यही हमारी ताक़त है?, मेरे धर्म की शक्ति है- कि कोई भी शंकर आचार्य, कोई भी महंत, कोई भी बाबा, कोई भी धार्मिक अदालत इस देश में इस हैसियत में नहीं है जो इन धर्मधवंसकों को इनके पाप का सर्वोच्य दण्ड देने का फतवा दे। मूर्तियूजक और मूर्तिपूजक, आस्तिक और नास्तिक-सब धर्म धुरींण हिंदू समाज में और लोकतांत्रिक घर्म निर्पेक्ष समाजवादी गणराज्य में रह सकते हैं। प्रायश्चित करें तो पापियों को भी सुधरने का अवसर है।


लेकिन क्या पाप का कोई दण्ड नहीं है? मेरी धार्मिक चेतना, मेरे संस्कार, मेरे इतिहास-पुराण मुझे सिखाते हैं कि पाप का दण्ड अवश्य मिलता है। इस लोक में नहीं तो प्रलोक में, इस जन्म में नहीं तो दूसरे जन्मों में। 10 मुंह से 10 तरह के झूठ कपट में लिप्त पापियों को दण्ड अवश्य मिलेगा।लेकिन मैं आज 20वीं सदी के अंतिम दशक में हूं और विज्ञान और दूसरी चिंताधाराओं के ज़रिए यह भी जानता हूं कि इस हिंदू धर्म में भाग्यवाद, नियतीवाद ही सब कुछ नहीं है। 4 पुरुषार्थ भी हैं और उन्हीं में धर्म एक है और उसी की रक्षा या प्राप्ति के लिए मुझे करम करना है। लेकिन अपनी नवीन शिक्षा-दीक्षा मुझे यह भी बताती है कि भाजपा यह सब क्यूं कर रही है।


मेरा धर्म जहां यह कहता है कि यह ‘कारसेवक’ और उनसे भी ज़्यादा उनके सूत्रधार पापी हैं वहीं मेरी नई शिक्षा कहती है कि राजनीतिक सत्ता के लोलुप यह कारिंदे दरअसल मनोरोगी हैं।


इनका मनोरोग यह है कि महात्मा गांधी की हत्या में इन्हीं के जैसे लोग शामिल थे। उस हत्या का रक्त इनके हाथों से धुला नहीं है- धुल नहीं सकता। दूसरे इनके पास अपना कोई गौरवमय इतिहास नहीं है। स्वतंत्रता के आंदोलन के समय यह अंग्रेज़ों के भक्त थे, स्वतंत्रय-आंदोलन के विरोधी, हिंदू समाज को कट्टर बनाने में तल्लीन। यह अपराधबोध उन्हें अपनी शूरवीरता, त्याग, बलिदान वगैरह के झूठे इतिहास की रचना के लिए बाध्य करता है। लेकिन भगत सिंह, शिवाजी और राणा प्रताप को, विवेकानंद, राम कृष्ण और अरविंद को पटेल और जयप्रकाश को यह अपने पूर्वज के रूप में लाख कोशिशों के बावजूद पचा नहीं पाए। यह सभी व्यक्तित्व या तो धार्मिक हिंदू थे या सेक्यूलर, इनकी रीति-नीति, राजनीति, कूटनीति, शिक्षा-दीक्षा और आदर्श एक ऐसे व्यापक समाज की परिकल्पना से संयुक्त थे जिसमें हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी और तमाम दूसरे पंथ एक ही व्यापक धर्म-समाज के अंग हैं। उनकी लड़ाइयां सम्प्रदायिक, कट्टर हिंदू वादी नहीं थी, अगर उनमें से कोई मुसलमान से लड़ा भी तो राज कारणों से, न कि साम्प्रदायिक कारणों से।

अपने नाम को रोशन करने के लिए एक आदर्श-पूर्व परम्परा गढ़ने की इस कोशिश में वह विफल रहे हैं। मुसलमान को हिंदू समाज का आद्य शत्रु बताने और बनाने, या उनके ख़िलाफ़ ख़ुद को सूरमा के रूप में स्थापित करने के लिए उनके मिथ मिथ्या साबित हुए हैं। इतिहास में कुछ आक्रमणों को छोड़ कर बाक़ी तमाम लड़ाइयां राज गद्दी की रही हैं, जिनमें अगर हिंदू-मुसलमान लड़े तो अपने अपने समुदायों से भी लड़े।

संघ परिवार जो अपनी पूर्वज परमपरा बनाना चाहता था, उसमें सभी ने वास्तव में दूसरे धर्मों का सम्मान किया है, किसी ने मस्जिदें बनवाकर दीं तो किसी ने मुसलमान कार्यकर्ता को सर्वोच्य पद दिया, किसी ने उन्हें सबसे बड़ा विशवासपात्र मान कर अपनाया। ताज़ा उदाहरण लें तो सोमनाथ मंदिर के सिलसिले में पटेल के पत्र राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के या भाजपा के तमाम प्रचारों को झूठ ज़ाहिर कर देते हैं। या फिर सुभाष चंद्र बोस के सिपह सालार कौन थे, ज़रा याद करें।

लिहाज़ा गांधी-हत्या का अपराध बोध और एक गौरवशाली पूर्वज परम्परा का अविष्कार करने की असमर्थता से खीज कर भाजपा और उसके गिरोह मुस्लिम-द्वेष, ईसाई-द्वेष, सिख द्वेष, बौद्ध-द्वेष पैदा करने की भ्रसक कोशिश में हैं।
उन्हें एक ‘शत्रु’ चाहिए जिसके ख़िलाफ वह अपने को सूरमा कह सकें।

मुमकिन है यह कुछ हज़ार या कुछ लाख धर्म द्वेषी लोग निहत्थे बच्चों, बूढ़ों, औरतों और गरीबों को तबाह कर ख़ुद को ‘सूरमा’ साबित भी कर दें लेकिन एक भारतीय नागरिक के रूप में और हिंदू समाज के एक घटक के रूप में मैं इस द्वेष रचना को अवैध, अस्वीकार्य और तिरस्कार्य मानता हूं।

अपनी तमाम आस्तिकता या नास्तिकता के बावजूद मैं जिस देश-समाज का हिस्सा हूं उसमें संविधान, क़ानून और मानवीय आचरण के सामान्य नियम लागू हैं। पंजाब, कशमीर, असम या दूसरे राज्यों में, दूसरे क्षेत्रों में उठने वाले आतंकवादी आंदोलनों के पास तो फिर भी काई जायज़ शिकायत, मांगें, मसले और परिप्रेक्ष हो सकते हैं लेकिन इन भाजपाई गिरोहों के पास तो कोई भी तर्क नहीं है। सिवाए इसके कि इनकी धक्काशाही हुकूमत को मैं मान लूं।


मेरी समझ से संविधान की शपथ लेकर उसके ख़िलाफ काम करने की वजह से आडवाणी सहित उनके तमाम गिरोहों के तमाम अग्रणीय लोग सज़ा के पात्र हैं। धर्मनिर्पेक्ष्ता का तिरस्कार, दूसरों की निजी धार्मिक-सामाजिक स्वतंत्रता का हनन, उसके ख़िलाफ़ जन-समूह को भड़काना, तोड़ फोड़ और हिंसा की तैयारी कराना और देश व्यापी दंगे कराना। इन कर्मों के ख़िलाफ भारतीय संविधान, ताज़ीराते हिंद और चुनाव संहिता में तमाम सारे क़ानून हैं जिनके तहत इन पर मुक़दमा चलना चाहिए।

दरअसल मुक़दमा चलना चाहिए राष्ट्रद्रोह का, क्योंकि राष्ट्र के ऐतिहासिक और संवैधानिक स्वरूप को तोड़ कर यह लोग एक बर्बर और हिंसक और जंगली समाज की रचना करना चाहते हैं। यह चाहते हैं कि दिल्ली समेत प्रदेश और देश की हर राजधानी में इनका राज हो। अपने आपमें यह कोई ग़लत महत्वकांक्षा नहीं है लेकिन इसे पाने के उनके तरीक़े और पाने के बाद देश की परिकल्पना जघन्य, अधार्मिक और असंवैधानिक है। विश्व बंधुत्व और विश्व कल्याण जिस देश का आदर्श हो उसके शासक संप्रदायक गिरोह के सरग़ना हों, लोकतंत्र के दुश्मन हों यह एक भारतीय नागरिक के रूप में मुझे मंजू़र नहीं। मैं समझता हूं कि मेरी तरह करोड़ों भारतीय नागरिक हैं।

गांव और शहरों में, देश और विदेश में जो भाजपाई ‘राष्ट्र’ को आत्मघात का कटघरा मानते हैं।सरकार और क़ानून क्या करेगा, इसका कोई इल्म मुझे नहीं है। एक नागरिक के रूप में मेरी चिंता यह है कि मैं क्या कर सकता हूं। और एक पत्रकार, लेखक या कवि के रूप में मैं क्या कर सकता हूं।

मैं समझता हूं कि सबसे पहले मैं उन तमाम लोगों का सामाजिक, सांस्कृतिक और व्यावहारिक बहिष्कार करना चाहूंगा जो अधर्म और पाप की इस प्रेत-लीला के करणधार हैं। पत्रकार के रूप में मैं चाहूं कि इनके कारोबार का पता मुझे रहे, लेकिन इन्हें मैं अपने समाज के नायक, शूरवीर, नेता या सम्मान्य नागरिक के रूप में पेश नहीं करना चाहूंगा। मसलन मैं भूतपूर्व मुख्यमंत्री को, कल्याण सिंह जी को ‘जी’ लगा कर सम्मानित करूंगा। मेरी नज़र में वह व्यक्ति प्रथम श्रेणी का अपराधी है।


6 दिसंबर से पहले, अक्टूबर में, मुझे याद है कि गांधी-हत्या का अपराध बोध उस व्यक्ति के मुंह से साफ़ ज़ाहिर हुआ था। मेरी नज़र में आडवाणी, सिंघल, जोशी, विजय राजय सिंधिया, रितंभरा, ऊमा भारती, डालमिया और कटियार जैसे तमाम लोग प्रथम श्रेणी के अपराधी हैं। उन पर क़ानून सम्मत मुक़दमे चलें यह ज़रूरी है। उनका राजनीतिक और सामाजिक बहिष्कार हो यह इससे भी ज़्यादा ज़रूरी है।

समता, न्याय, स्वतंत्रता, विवेक, सहिष्णुता, परस्पर सम्मान जैसे मूल्य हर हालत में बचाने होंगे। अन्ततः पूरी राजनीति एक विनम्र मानववादी राजनीति बनानी होगी। मैं सिर्फ अपने लिए कह सकता हूं इसके लिए हर तरह की तैयारी मुझे करनी है।

2 comments:

Mohammed Umar Kairanvi said...

बर्नी साहब आपका ब्‍्लाग, ब्लागवाणी पर आने से हम यानि जो उर्दू में भी आपको पढते रहते हैं बहुत खुश हैं, अल्‍लाह करे इधर भी आपका लेखनी का जादू चले, आपकी पोस्‍ट पर कुछ कहूं इस योग्‍य अपने को नहीं समझता, हाँ इधर के हम खिलाडी हैं आपको सहयोग करेंगे

अफ़लातून said...

राठीजी के भावोद्गार पढ़कर सुकून मिला-कि समझदारी की आवाज पर यकीन कर चला जा सकता है ।