‘‘मैं हज यात्रा से वापस लौट रहा हूं, अभी एयरपोर्ट से बाहर निकलने पर मेरे साथियों ने मुझे आपका लेख दिखाया, जिसका संबंध लिब्राहन कमीशन की रिपोर्ट से है। इस लेख में आपने जो सुझाव दिया है, मुझे लगता है कि वह ध्यान देने योग्य है, और इस सिलसिले में एक विस्तृत बातचीत की जानी चाहिए।’’
यह वाक्य देश के जिस प्रसिद्ध व्यक्ति के हैं वह एक मुस्लिम नेता ही नहीं सांसद भी हैं। इस समय उनका नाम इसलिए नहीं लिख रहा हूं क्योंकि मैंने उनसे अनुमति नहीं ली है और इस बीच जब मैंने आज के लेख की यह चंद पंक्तियां ही लिखी थीं कि, प्रसिद्ध पत्रकार श्री महफूज़ुर्रहमान का टेलीफोन प्राप्त हुआ जिसमें उन्होंने भी इसी लेख पर टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘‘देख लीजिए, रास्ता बहुत ख़तरनाक है जिस पर आपने क़दम रखा है, मगर इसके सिवा अब कोई रास्ता भी नज़र नहीं आता।’’ प्रतिक्रियाएं और भी मिलीं हैं, मगर इन दोनों उल्लेखनीय व्यक्तियों की प्रतिक्रियाओं का गहरा प्रभाव मैं आज के इस लेख पर महसूस करता हूं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसा कोई भी प्रस्ताव जो मस्जिद या मंदिर से हट कर हो आसानी से स्वीकार्य तो होगा नहीं, और जहां तक मस्जिद और मंदिर का सम्बंध है, तो जो मस्जिद देखना चाहते हैं वह मंदिर की बात सुनना नहीं चाहेंगे और जिनका इरादा है मंदिर बनाना, उन्हें मस्जिद का नाम बर्दाश्त नहीं होगा, उनमें से अगर आम हिन्दुओं और मुसलमानों का उल्लेख न करें, जिनका राजनीति या धर्म से ऐसा गहरा सम्बंध नहीं है कि उनकी धार्मिक या राजनीतिक पहचान ही उनके व्यक्तित्व पर हावी हो, तो शेष सबसे यह आशा की जा सकती है कि वह इस राय पर ध्यान दें। हालांकि अप्रिय होने पर इसे पूरी तरह रद्द किया जा सकता है, मगर फिर इसके सिवा होगा क्या, वही जो पिछले 50 वर्षों से होता रहा है अर्थात् मंदिर और मस्जिद के नाम पर राजनीति चलती रहेगी।
कभी किसी का पलड़ा भारी होगा तो कभी किसी का। इस राजनीति के हम्माम में सब एक जैसे हैं। कोई कम तो कोई अधिक, दूध का धुला तो कोई भी नहीं। और रहा प्रश्न धार्मिक व्यक्तियों का तो विश्वास कीजिए कि आज का यह लेख लिखने में मुझे जो हौसला मिला वह इसी धार्मिक व्यक्ति का वाक्य था जो हज से वापिस तशरीफ ला रहे थे और उन्होंने अविलम्ब इस संदर्भ में मेरे कल के लिखे गये लेख पर अपनी प्रतिक्रिया मुझ तक पहुंचाई और मैं भी इतना संतोष न कर सका कि विस्तृत बातचीत तक अपने लेख के क्रम को रोके रखता। यूँ भी इस श्रृंखला बद्ध लेख को क्योंकि हर रोज़ लिखना होता है और आज का विषय भी यही था, इसलिए अधिक प्रतीक्षा की गुंजाइश भी नहीं थी।
मेरे अध्ययन में बाबरी मस्जिद घटना के संबंध में बहुत कुछ है और अब थोड़ा-थोड़ा लिब्राहन कमीशन की रिपोर्ट पर निगाह डालना शुरू कर दिया है। जिन गंभीर और ज़िम्मेदार लोगों ने लिब्राहन कमीशन की इस रिपोर्ट को पढ़ा है, उनके विचार भी मेरे अध्ययन में हैं। कुछ ऐसी बातें भी हैं जो जस्टिस लिब्राहन तक भी बहुत संभव है कि न पहुंची हों। उदाहरणतः मेरे हाथ में उन मरने वालों की सूचि भी है जिन्हें 6 या 7 दिसम्बर को 1992 को बहुत निर्ममतापूर्वक क़त्ल कर दिया गया था। जिनमें 75 वर्षीय ताहिर हुसैन का नाम भी शामिल है जो अयोध्या में मोहल्ला शेख़ाना के रहने वाले थे और जिनको 7 दिसम्बर को क़त्ल किया गया मगर जिनकी लाश को दफ़न 11 दिन बाद 18 दिसम्बर को संभव हो पाया।
इस सूचि में 15 वर्षीय मासूम बच्चा मोहम्मद इज़हार भी है जो मोहल्ला रामकोट, प्रहलाद घाट अयोध्या का रहने वाला था, जिसे 6 दिसम्बर 1992 को क़त्ल किया गया और 8 दिसम्बर को दफ़न किया गया। सूचि के शेष नामों को विस्तार के साथ इस लेख में शामिल किया जा सकता है, मगर मैं सोचता हूं कि आज अगर एक सकारात्मक पहलू को विचार के लिए सामने रखा जा रहा है तो फिर कड़वी बातों का उल्लेख ही न करें। ख़ुदा करे कि ज़़ख़्मों को भूल कर हम अब उन मुहब्बत के रास्तों पर चल पड़ें ताकि प्रगति अब इस देश का भाग्य बन जाए, और साम्प्रदायिक सोहार्द इस देश की जनता का। अन्यथा दूसरा रास्ता जिस पर हम 1949 के बाद से ही चल रहे हैं, वह तो हमारे सामने है ही।
रास्ता वह भी ख़तरनाक था और यह भी ख़तरनाक है। हम इस खतरनाक रास्ते पर तो पिछले 60 वर्षों से चल ही रहे हैं जो या तो मस्जिद की तरफ जाता है या मंदिर की तरफ़, और हर बार हमारी ज़ख़्मी और रक्तरंजित क़ौम न मस्जिद की सीढ़ियों तक पहुंचती है और न मंदिर के दरवाज़े पर। हां, इस रास्ते पर चलने वाले राजनीतिक व्यक्ति सत्ता की मंज़िलें अवश्य तय कर लेते हैं, अब चाहे वह भगवा रंग में रंगे हों चाहे वह सब रंगों को साथ लेकर चलने का दावा करते हों, अर्थात् हर बार बाबरी मस्जिद या राम जन्म भूमि राजनीति का केंद्र ही बनी है, परन्तु कोई नतीजा बरामद न हुआ, बहस चलती रही, कभी संसद के अंदर, कभी सड़कों पर और कभी यह वाद विवाद तक सीमित रही और कभी तीर-व-तलवार हमारे जिस्मों को, हमारी रूहों को यहां तक कि हमारी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य तक को ज़ख़्मी करते रहे।
क्या अब इन ज़ख़्मी दिलों को दवा नसीब हो सकती है? क्या हम किसी ऐसे विकल्प पर विचार कर सकते हैं जो हम सबको स्वीकार हो। सहर्ष न हो तो मजबूरी में ही सही।
हमारा वह राष्ट्रीय प्रतीक जो पूरी दुनिया में हमारी पहचान बन चुका है। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सांसद ही नहीं हम भारत की पहचान पूरी दुनिया के सामने जब भी रखना चाहते हैं तो यही एक पहचान हमारी आंखों के सामने होती है, जो हमारे हर सिक्के पर भी होती है, क्या ऐसी ही कोई पहचान, एक ‘‘राष्ट्रीय प्रतीक’’ के रूप में इस समस्या का समाधान बन सकती है। यूं भी मुग़ल काल के बाद हमने कोई ऐसी यादगार इमारत नहीं बनाई है जिसे हम दिल्ली की कुतुब मीनार और पेरिस के एफिल टाॅवर से भी बेहतर कह सकें।
क्या यह विचार जो इस लेख के साथ-साथ आपके सामने है, उन मासूम दिलों के सपनों को साकार कर सकता है जो असीम श्रृद्धा के बावजूद मंदिर के नाम से भी घबरा जाते हैं और मस्जिद के नाम से भी। यह 6 दिसंबर हर बार उनके दिलों पर एक दहशत बन कर आता है। क्या यह सरकार करेगी साहस? और बंद होगा यह नफ़रत का सिलसिला?
Thursday, December 3, 2009
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4 comments:
भाई साहब आपकी बातों से मैं सहमत हूँ , मंदिर , या मस्जिद खुदा नहीं है ये बात अगर इन इंसानों को पता लग जाये तो क्या बात , मैं एक हिन्दू हूँ , पता नहीं आप इस बात से कितने सहमत होंगे पर मैं ये कहना चाहूँगा की की इश्वर , या अल्लाह किसी धरम , या मदिर , मस्जिद का गुरूद्वारे का मोहताज नहीं , जिस तरह बाबरी मस्जिद टूटी वो एक दुखद घटना थी , और मुझे फर्क नहीं पड़ता की मंदिर बने या न बने क्योंकि मेरा इश्वर इन सब चीजों का मोहताज नहीं है , पर एक हिन्दू होते हुए ये कुछ सवाल भी है मेरे मन मैं , आपको ये मालूम ही होगा राम हिन्दुओं में कितने पूज्यनीय हैं , उनका जन्मस्थान हिन्दुओं के लिए वही स्थान रखता है जो एक हाजी के लिए मक्का मदीना रखते हैं . बाबरी मस्जिद किसने बनाई थी क्या वो बाबर ने नहीं बनाई थी ? क्या औरंगजेब ने कितने ही मंदिरों को तुडवाया नहीं था , अच्छा दुनिया में एक भी स्थान बताइए जब हिन्दू राजा या व्यक्ति ने मस्जिद तुडवाई हो , बाबरी मस्जिद को छोड़कर उसकी भी हिन्दू निंदा ही करते हैं , क्या ये मुस्लिमों की तरफ से हिन्दुओं के प्रति उदारता नहीं होगी अगर वो वहां मंदिर बनाने दे , अगर कोई बात अच्छी न लगी हो तो छमा .
सहमत हँ,आपसे १०० परसेन्ट ।
rashtry prateek,
magar ye bhagwa dhariyon ko raas nahi aayega...
आपकी बात सही सही है, मगर फिर भा जा पा और संघ का क्या होगा ? इनको कोन वोट देगा? इनकी राजनीति तो इसी मुद्दे पर आधारित है, क्यों इनके पेट पर लात मारते हो? ये तो भूके मर जाएंगे. अब कोई दूसरा मुद्दा भी नही है
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