‘‘वन्दे मातरम्’’ के संबंध से हमारी रिसर्च में अभी इतना कुछ बाक़ी है कि इस चर्चा को किसी परिणाम तक पहुंचाया जासके और फिर भारत सरकार और देशभक्त हमारे भारतवासियों से निवेदन किया जासके कि इन सभी तथ्यों की रोशनी में ज़रा ध्यान दें ‘‘वन्दे मातरम्’’ और ‘‘वन्दे मातरम्’’ पर उठने वाले सवालों पर कि यह सही हैं या ग़लत।
हिन्दुस्तान से बाहर रह कर भी यह सिलसिला इसी प्रकार जारी रह सकता है, परन्तु इस बीच ‘‘ईद-ए-क़ुरबां’’ भी है, जो आपके लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है और हमारे लिए भी, इसलिए आज वाशिंगटन से पोर्ट ऑफ़ स्पेन के लिए रवाना होने से पहले मैं प्रो. मुशीरुल हसन का लेख जो मुल्क की पचासवीं वर्षगांठ पर लिखा गया ‘‘हिन्दू आस्थाऐं और मुसलमानों की शंकाएं’’ प्रकाशित करके पाठकों से निवेदन करना चाहूंगा कि मेरे इस लगातार लेख की आगामी कड़ी अब आप मेरी हिन्दुस्तान वापसी अर्थात् ‘‘ईद-उल-अज़हा’’ के बाद पढ़ सकेंगे, तब तक के लिए इजाज़त।
इस बात को छोड़ दें कि 15 अगस्त 1947 की आधी रात को हज़ारों स्वाधीनता सेनानियों का मिशन पूरा हुआ या नहीं, सबसे महत्वपूर्ण चीज़ यूनियन जैक का उतरना था और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह था कि अब यह ध्वज दोबारा कभी उस लाल क़िले पर या भारत में अन्य स्थानों पर नहीं लहराएगा जहां यह 1857 से लहरा रहा था। अब तिरंगे को यह अवसर मिला था कि वह आसमानों की ऊँचाइयों पर लहराए। यह ध्वज अब केवल भारत के लिए ही नहीं बल्कि सारे विश्व के लिए लोकतंत्र और स्वतंत्रता का प्रतीक बन गया था।
इसीलिए लाल क़िले की ओर एक जनसमूह इसलिए उमड़ रहा था ताकि अपनी खोई हुई धरोहर को पुनः प्राप्त कर सके और एक नए सवेरे के आगमन का हमेशा-हमेशा जश्न मनाता रहे। यह जनसमूह उस समय ख़ुशियों में डूब गया जब उसने भारत के पहले प्रधानमंत्री की भावनाओं में डूबी हुई आवाज़ सुनी।
नौजवान लड़के लड़कियां अपनी स्कूली यूनिफ़ार्म पहने हुए एक ही आवाज़ में चाचा नेहरू ज़िंदा बाद, चाचा नेहरू ज़िंदा बाद के नारे लगा रहे थे। कुछ लोग मध्दिम सुरों में टैगोर का लिखा राष्ट्रगान गा रहे थे। ध्वज, राष्ट्रगान और राष्ट्रीय चिन्ह तीन ऐसे प्रतीक हैं जिनके द्वारा कोई भी स्वतंत्र देश अपनी पहचान और सार्वभौमिकता प्रकट करता है और इन्हीं तीनों से जुड़ कर वफ़ादारी और सम्मान भी प्रकट किया जाता है।
इन तीनों प्रतीकों में राष्ट्र की पृष्ठ भूमि, सोच और संस्कृति छुपे होते हैं। आज जबकि देश अपने लोकतंत्र के 50 वर्ष पूरे होने का जश्न मना रहा है ऐसे में एक विवाद सामने है जो राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रीय प्रतीकों के कारण नहीं बल्कि ‘वंदे मातरम्’ को गाए जाने से पैदा हुआ है। हाल ही में जो कुछ लखनऊ में हुआ वह ज़ाहिर में एक साधारण घटना है, लेकिन यह हमारे समाज में मौजूद विवाद की द्योतक है।
लेकिन जो बात एक चिन्तनीय के क्षण की सी हैसियत रखती है वह यह है कि बहुत आसानी के साथ वामपंथी आवाज़ों को दबा कर इतिहास को दोबारा लिखने का काम बड़े पैमाने पर आरंभ कर दिया गया है। इसी तरह यह बात भी चिंतित करती है कि गुजरात की सरकार यह क़ानून पास करने में सफल हो जाती है कि आर॰एस॰एस॰ के लोगों को सरकारी नौकरियों में लिया जा सकता है, और हमारे विशाल हृदय और मध्यम मार्गी प्रधानमंत्री इस पर स्वीकारोक्ति की मुहर लगा देते हैं।
एक ऐसी पार्टी जिसको संसद में स्पष्ट बहुमत भी प्राप्त नहीं है क़ानून में संशोधन करके ताबूत में अंतिम कील जड़ देती है। एनडीए और बीजेपी में शामिल पूर्व समाजवादी नेतागण इससे अंजान नज़र आते हैं कि उनके चेम्बरों और बंगलों के बाहर क्या हो रहा है और देश में पुराने धार्मिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक विवादों पर कुश्ती होती रहती है।
कोटि धन्यवाद कि हमारे देश में एक ऐसा व्यक्ति राष्ट्रपति है जिसने हमारे संविधान की रक्षा के लिए असीम साहस और ज़बरदस्त हिम्मत का प्रदर्शन करते हुए स्वयं को इसका रक्षक साबित किया है। आशा की एक यही किरण शेष है कि हम उसकी ओर बेहतरीन राय और नेतृत्व के लिए रुख़ कर सकते हैं।
मैं बंकिम चंद्र चटर्जी के द्वारा लिखे गए गीत वंदे मातरम् की तरफ़ फिर वापस आता हूं। इस गीत के कारण 1930 के दशक में कई बार बहुत लम्बे धार्मिक वाद-विवाद हो चुके हैं। जब 1937 में कांगे्रस ने सत्ता की ओर बढ़ना शुरू किया तो उत्तर प्रदेश और बिहार के बहुत से स्कूलों में वंदे मातरम् गाया जाना अनिवार्य क़रार दे दिया गया, मुस्लिम लीग ने इस मामले में बग़ैर सोचे-समझे विरोध करना शुरू कर दिया ताकि मंत्रालयों के द्वारा किए जा रहे अनुचित कामों को चिन्हित करके उनकी साख को हानि पहुंचाई जा सके।
उदाहरणतः हिन्दी के सम्मान में वृद्धि करते हुए उर्दू का विरोध करने, मुसलमानों को सरकारी नौकरियां न दिए जाने, वर्धा व विद्या मंदिर कार्यक्रमों के लागू करने और परम्परागत इस्लामी मदरसों में दी जाने वाली परम्परागत शिक्षा के बारे में वह पहले से आवाज़ उठा रही थी।
इन बातों के कारण हिन्दू-मुस्लिम विवाद में लगातार उबाल आ रहा था और दोनों के बीच मोर्चा बंदी के लिए ज़मीन तैयार हो रही थी। वैसे साधारणतः देखा जाए तो कांगे्रस इस बात के पक्ष में थी कि विवादित मुद्दों को ब्रिटिश सामराज के विरुद्ध चल रहे संघर्ष से अलग रखा जाए। लेकिन जब वंदे मातरम् का प्रश्न उठा तो कुछ लोगों ने कहा कि यह स्वाधीनता संघर्ष का सबसे महत्वपूर्ण भाग है। इस बात में कोई सच्चाई हो या ना हो कि इस गीत पर बहस की जा सकती है लेकिन इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं कि इस गीत ने ऐसे हज़ारों लोगों को राष्ट्र प्रेम की प्रेरणा दी जिनमें से अधिकतर वह बंगाली हिंदू थे जिन्होंने 1905 में बंगाल के विभाजन के समय विरोध प्रकट किया था।
टैगोर ने इस तराने के पहले भाग की धुन बनाई थी और कांगे्रस के कलकत्ता अधिवेषण में इसे गाया भी था। जिससे इस बात का अंदाज़ा होता है कि वंदे मातरम् की अपनी एक अलग पहचान बन गई थी और उसका अपना एक महत्व भी था, हालांकि टैगोर ने इस बात को स्वीकार किया था कि अगर इस गीत को उसके मूल अर्थों के साथ गाया जाए तो इससे मुसलमानों की भावनाएं आहत होंगी। वह एक ऐसे हिन्दू गीत की बात कर रहे थे जिसमें उन हिन्दू आस्थाओं का चित्रण था जिसके अनुसार देश को एक देवी कहा गया था।
अगर आज अल्प संख्यक वर्ग के लोग इस गान के अर्थ व भावार्थ पर सवाल उठा रहे हैं तो मुझे नहीं लगता कि इन व्यक्तियों के संदेहों और शंकाओं को पूरी तरह दरकिनार कर दिया जाना चाहिए। मेरे विचार में किसी धर्मनिर्पेक्ष देश को किसी भी कीमत पर इस बात का अधिकार प्राप्त नहीं हो सकता कि वह हिंदू, मुसलमान, सिख या ईसाई छात्रों को उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई गाना गाने पर विवश करे। यही एक धर्मनिर्पेक्ष लोकतंत्र की मूल आत्मा है और अगर कोई गीत मुसलमानों के विरुद्ध हो तो?
हमको इस विषय पर लाठी-डंडे लेकर सामने आने की बजाए एक गंभीर बात-चीत शुरू करनी चाहिए। हमको चाहिए कि राजनीतिक पंडितों को लाल क़िले के साए में जमा करें जहां वह आरोप और प्रत्यारोप लगाने के बजाए अपने-अपने दृष्टिकोण को सामने रखें।
हमको इस मामले पर राष्ट्रीय स्तर पर जनमत बनाना है। जब हम इसमें सफल हो जाएंगे तब हम इन मामलों को हल करने की राह में भी आगे बढ़ सकते हैं जो समय-समय पर उठते रहते हैं। इस वाद-विवाद के बीच या तो हमको यह मालूम होगा कि हमारे सामने मुसलमानों की शंकाओं को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया था या फिर वंदे मातरम् को जबरन थोपने वाले समझा लेंगे कि किसी के गले में कोई गीत ज़बरदस्ती थोपना संविधान के पूरी तरह विरुद्ध है। इससे पहले कि हम एक खुली बात-चीत पर सहमत हों हम को चाहिए कि हम इस राष्ट्रीय कविता का वह अनुवाद पढ़ लें जो अरबिंदो घोष ने किया है क्यूंकि अज्ञान में हमेशा भलाई नहीं होती है।................................
वतन एक ही है
हिन्दू मुस्लिम हों चाहे दो पै1 वतन एक ही है
दोनों के वास्ते डायर की भी गन एक ही है
एक ही मां के हैं आग़ोश2 में बैठे दोनों
सर पै दोनों के मियां चर्ख़े कुहन3 एक ही है
एक ही ख़ाक से पैदा हुए हिन्दू मुस्लिम
एक ही सब की ख़ुशी रंजो महन4 एक ही है
लुत्फ़ दिखलाया है आपस की मुहब्बत ने यह क्या
शेर दो रहते हैं मिल-जुल के गो5 बन एक ही है
गांधी वादी, अली भाई, लाल, मालविया,
लाल सदहा6 है मगर मुल्के अमन एक ही है
कोई क़ुमरी7,कोई बुलबुल, कोई कोयल हो भले
मरने जीने को वले8 सबके चमन एक ही है
दम घुटा जाता है फरयाद भी कर सकते नहीं
लाख शिकवे हैं मगर आहे दहन9 एक ही है
मुख़्तलिफ रंगे मज़ामीं हों मुसाफ़िर चाहे।
तेरा हर हाल में पर तर्ज़े सुख़न10 एक ही है
‘‘स्वराज्य गीतांजली’’ किताब से माख़ूज़
1. पै-पर/लेकिन 2.आगोश-गोद 3.चर्खे कुहन-प्राचीन आकाश4. रंजो महन-दुख 5.गो-यद्यपि 6.सदहा-सैकड़ो 7. कुमारी-एक पक्षी कानाम 8.वले-लेकिन 9. ओह दहन-मुंह से निकलने वाली आह 10.लेकिनतर्ज़े सुखन-शैली
Tuesday, December 1, 2009
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