कल का लेख लिखना मेरे लिए बहुत कठिन था, कारण जमीअत उलमा-ए-हिन्द जैसी सम्मानित संस्था के प्रति आस्था, परन्तु उसके एक प्रमुख प्रस्ताव का विरोध। एक तरफ जमीअत उलमा-ए-हिन्द और उससे जुड़े लोगों से निजी सम्बंध और दूसरी तरफ क़ौम के भविष्य का प्रश्न। परिणाम वही हुआ, जो कि होना चाहिए था, अर्थात उस प्रस्ताव के रद्द में लिखना अपना दायित्व।
यह अलग बात है कि कुछ भी लिखने से पूर्व कई शिक्षाविदों से विचार विमर्श किया गया और जब उन्हें भी लगा कि हम जिन आशंकाओं को महसूस कर रहे हैं वह अकारण नहीं है, तब कलम उठाना ही पड़ा। जैसा कि हमने अपने कल के लेख में ही लिखा था कि आदरणीय प्रो0 अख्तरूलवासे से भी इस संबंध में बात की गई लिहाज़ा आज की क़िस्त में हम प्रकाशित कर रहे हैं उनके दृष्टिकोण पर आधारित उनका लेख, इसके बाद हमारे लेखों का क्रम जारी रहेगा।
आधुनिक शिक्षण संस्थानों को धर्म विरोधी घोषित करना मानसिक संकीर्णता और कट्टरपन का परिणामप्रो0 अख्तरूलवासे
जमीअत उलमा-ए-हिन्द ने अपने 30वें वार्षिक अधिवेशन में आधुनिक शिक्षा की आवश्यकताओं के समर्थन में जो प्रस्ताव पारित किये हैं वह अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं, इसलिए कि भारतीय मुसलमानों के इतिहास और शिक्षा की पृष्ठभूमि में देवबन्द को धार्मिक शिक्षा का प्रतीक समझा जाता है और आमतौर पर एक समुदाय जाने अनजाने तौर पर उसे अलीगढ़ के प्रतिद्वंदी के रूप में पेश करता रहा है। अब अगर देवबन्द से ही आधुनिक शिक्षा के समर्थन में आवाज उठे तो उससे बढ़कर शुभ संकेत क्या हो सकते है, इसलिए उचित रूप से जमीअत उलमा-ए-हिन्द के नेताओं को मुबारकबाद पेश की जानी चाहिए।
इस पर इसलिए और भी ज्यादा खुशी है कि राष्ट्रीय सहारा के पृष्ठों पर हम बार बार यह लिखते रहे हैं कि पुराने तथा आधुनिक का झगड़ा, संकीर्णता का सबूत है और मुसलमानों को इससे परहेज़ करना चाहिए।
खुदा का शुक्र है कि जमीअत का आधुनिक शिक्षा के समर्थन का यह प्रस्ताव इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।इस प्रस्ताव का असाधारण महत्व ही है जिसके आधार पर राष्ट्रीय सहारा के सम्पादक महोदय ने इसको अपने विशेष कालम ‘‘आज़ाद भारत का इतिहास’’ का विषय बनाया है। लेखक ने इस संदर्भ में जो महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं इस पर भी जमीअत के नेतृत्व को विशेष रूप से और भारतीय मुसलमानों को आमतोर पर ध्यान देना चाहिए।
पहली बात तो यह कि आधुनिक पाठशालाओं को ‘‘दीन दुश्मन’’ करार देने को न तो ऐतिहासिक तौर पर सिद्ध किया जा सकता है और न ही इसका वास्तविकता से दूर दूर तक कोई सम्बंध है। आधुनिक शिक्षण संस्थानों में ‘ धर्म विरोधी’ वातावरण की कल्पना केवल मानसिक संकीर्णता और अगर इजाज़त दी जाये तो कट्टरपन का परिणाम है। भारत के इतिहास में ही अगर देखें तो धार्मिक ज्ञान और चिंतन के ऐसे ऐसे प्रसिद्ध प्रतिनिधि आधुनिक पाठशालाओं से निकले हैं जिन पर मदरसे वाले भी गर्व करते हैं।
डॉक्टर आदरणीय सैयद अमीर अली, अब्दुल्लाह यूसुफ अली, अल्लामा इक़बाल, मौलाना अब्दुल माजिद दरियाबादी, डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन, डॉक्टर अब्दुल जलील फरीदी, डॉक्टर आबिद हुसैन , प्रो ज्याउल हसन फारूक़ी, प्रो मुशीरूलहसन, ज़फरयाब जीलानी, डॉक्टर मन्जूर आलम, प्रो. ताहिर महमूद और पत्रकारिता से सम्बंध रखनेवाले इशरत अली सिद्दीकी, मीम अफज़ल, शाहिद सिद्दीकी, ज़ाहिद अली खां इत्यादि के अलावा एक लम्बा सिलसिला है जिनके नामों को इस सूचि में शामिल किया जा सकता है। इसके अलावा हमें जमीअत के प्रस्ताव में की गई बीमारी की पहचान से सहमत होते हुए भी, उन्होंने बीमारी को दूर करने के लिए जो प्रस्ताव पेश किया है उससे पूरी तरह इत्तेफाक़ नहीं है।
पहली बात तो यह कि देवबन्द के जमीअत के 30वें अधिवेशन के पहले से ही मुसलमान इस मैदान में बहुत हद तक सक्रिय हैं। आल इंडिया मुस्लिम एजुकेशनल सोसाईटी केराला ने डॉक्टर पी के अब्दुल गफूर के नेतृत्व में, अलअमीन मूवमेंट के संस्थापक डॉक्टर मुमताज अहमद खां के नेतृत्व में कर्नाटक में, सुल्तान सलाहउद्दीन ओवैसी के नेतृत्व में आंध्र प्रदेश में, डॉक्टर रफीक़ ज़करिया की कोशिशों से औरंगाबाद में, पी.ए इनामदार और उनके सहयोगियों की कोशिशों से पुणे में, अन्जुमन खैरूलइस्लाम की कोशिशों से मुम्बई और उसके आस पास में, जस्टिस बशीर अहमद सईद, काका मोहम्मद उमर और काका सईद उमरी की कोशिशों से तमिलनाडू में, अमारत शरिया और काज़ी मुजाहिदुलइस्लाम क़ासमी द्वारा बिहार, झारखंड व उड़ीसा में, मौलाना बदरूद्दीन अजमल और मौलाना इसरारूलहक़ क़ासमी वगैरह जैसे लोगों ने शिक्षा के मैदान में जो सच्ची और बहुमूल्य सेवाऐं दी हैं उनसे कौन इनकार कर सकता है।
स्वंय दिल्ली में हकीम अब्दुल हमीद जैसे अकेले व्यक्ति ने जो इतिहास रचा जामिया हमदर्द जैसी यूनिवर्सिटी उसका ज़िन्दा सबूत है, फिर सैयद हामिद और उनके साथियों ने जिस तरह शिक्षा के लिए जागरूकता का वातावरण पैदा किया वह भी सबके सामने है।
इन कुछ नामों और कामों का उल्लेख इसलिए किया गया है कि यह बात स्पष्ट हो सके कि इतने जबर्दस्त प्रयासों के बावजूद जो कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अनजुमन इस्लाम के अनगिनत संस्थानों के होते हुए मुसलमान कमी महसूस कर रहे हैं, उसके बावजूद मुसलमानों में शिक्षा की जो दर होनी चाहिए और जो स्तर और संख्या आवश्यक है, वह मुसलमानों की जनसंख्या और शिक्षा आवश्यकताओं के परिदृश्य में आटे में नमक के बराबर है।
यह ख्याल करना और मुसलमानों में यह भ्रमक भाव पैदा करना कि वह आधुनिक शिक्षा के सरकारी तथा अन्य संस्थानों से इसलिए दूर रहें कि वह धर्म विरोधी हैं और मुसलमानों की नई पीढ़ियां अगर वहां र्गइं तो फिर वह गुमराह और अधर्म हो जायेंगी, कहां की बुद्धिमत्ता है? अगर जमीअत के प्रस्ताव के अनुसार अब मुसलमान एक बार फिर इस नेक काम में लग जायें (जिसमें उन्हें जरूर लगना चाहिए) कि वह अपने बच्चों के लिए नये सिरे से अपने संस्थान स्थापित करें तो मुझे विश्वास है कि मुसलमान सौ साल और पीछे हो जायेंगे क्यांेकि संस्थानों का यह निर्माण जब तक होगा उस समय तक उनकी न जाने कितनी पीढ़ियां शिक्षा से वंचित रह जायेंगी। यह सोच इसलिए और भी चिंताजनक है कि यह एक स्वतंत्र धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश और समाज में सामने आ रही है।
भारत में मुसलमान निश्चित रूप से शासक नहीं है लेकिन यह भी उसी तरह सच है कि वह शासित भी नहीं है बल्कि सत्ता में भागीदार और शामिल हैं। इस देश के निर्माण, प्रगति और सुरक्षा में उनके संसाधन,ऊर्जा और योग्यताऐं बराबर से प्रयोग हो रही हैं। इसलिए इस देश के सरकारी संसाधनों तथा नीतियों से मुसलमान क्यों न लाभान्वित हों? आज जरूरत इस बात की है कि हम मुसलमानों से अधिक सरकारों से कहें कि वह मुसलमानों के लिए आधुनिक शिक्षा तथा समय की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले दूसरे तकनीकी व व्यावसायिक संस्थान स्थापित करें ताकि मुसलमान शैक्षणिक पिछड़ेपन के गढ़े से बाहर आ सकें न कि मुसलमानों को सरकारी संस्थानों से दूर रहने का पाठ पढ़ायें।
जमीयत उलमा-ए-हिन्द निसंदेह एक सम्मानजनक धार्मिक संस्था है और उसके कुशल नेतृत्व में धार्मिक चिंतन पर हमें कोई संदेह नहीं है इसलिए हमें इस प्रस्ताव से अधिक तकलीफ पहुंची है, इसलिए कि निसंदेह जहां अल्लाह के आखरी नबी मोहम्मद स अ को इस्लामी तारीख में यह प्राथमिकता प्राप्त है कि आपने ‘सुफ्फा’ पर पहले धार्मिक मदरसे का आरंभ किया और एक पाक सिफत शिक्षक के रूप में अपने सहाबा को शिक्षा दी। वहीं हम यह भूल जाते हैं कि नबी उम्मी को इस्लामिक इतिहास में ही नहीं बल्कि इनसानी तारीख़ में यह प्राथमिकता प्राप्त है कि आपने एक ऐसी व्यवस्था की आधारशिला रखी जिसमें सभी विद्यार्थी मुसलमान थे और सभी शिक्षक गैर मुस्लिम।
यह उस समय हुआ जब आप स अ ने जंगे-बदर के कैदियों की रिहाई के लिए एक शर्त यह भी रखी के अगर वह ‘‘फिदिया’’नहीं दे सकते हैं तो वह मदीने के अनपढ़ मुसलमानों को पढ़ायें और रिहाई पा जायें। इस घटना से हमें दो सबक़ मिलते हैं और दोनों ‘‘मसनून’’ हैं कि शिक्षा प्राप्ति के समय हमें अपने बच्चों का धर्म देखना चाहिए, शिक्षक का धर्म नहीं बल्कि शिक्षक में देखने की जो चीज है वह है योग्यता और अनुभव। यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि बदर के वह युद्धबंदी न केवल गैर-मुस्लिम थे बल्कि कुफ्र और शिर्क का झंडा बुलंद करने वाले और इस्लाम, पैगम्बरे इस्लाम और उनके साथियों के दुशमन भी थे और उन्हें समाप्त करने आये थे।
ज़ाहिर है कि उन्होंने तफसीर और हदीस की शिक्षा नहीं दी क्योंकि वह न तो कुरआन व हदीस को जानते थे न उन्हें मानते थे, बल्कि उन्होंने वही शिक्षा दी होगी जिसे आज की भाषा में आधुनिक या धर्मनिरपेक्ष शिक्षा कहा जाता है। अर्थात भाषा और गणित के प्राथमिक पाठ। यहां हम यह बात स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि जिसे अल्लाह के रसूल ने जायज़ समझा उसे हम किसी के कहने से नाजायज़ नहीं कह सकते। दूसरी बात यह कि उससे अल्लाह के रसूल ने अपने इस कथन की व्यवहारिक रूप से पुष्टि भी फरमा दी कि‘‘ हिकमत मोमिन की गुमशुदा पूंजी है वह उसे जहां मिले प्राप्त करना चाहिए।’’यहां एक बात और स्पष्ट रहनी चाहिए कि इस्लाम शिक्षा के किसी ऐसे विभाजन को उचित नहीं ठहराता है कि जो उसे दीन और दुनिया में विभाजित करती हो।
इस्लाम में ज्ञान का केवल एक विभाजन जायज़ है और वह है ज्ञान लाभदायक और ज्ञान लाभ न देने वाला। हम थोड़ा सा साहस करते हुए यह भी कहना चाहेंगे कि किसी लाभ न देने वाली शिक्षा का ज्ञान भी उसी समय संभव है जब आप उसका भरपूर अध्ययन करें।
अलीगढ़ आंदोलन के संस्थापक सर सैयद अहमद खां ने इस सिलसिले में बड़े पते की बात कही थी। उन्होंने कहा था कि ‘‘कु़रआन खुदा की कथनी है और प्रकृति खुदा की करनी और खुदा की कथनी और करनी के बीच कोई त्रुटि और टकराव नहीं होता। ज़ाहिर है कि यह संसार स्वंय प्रकृति के इज़हार का मजमूआ है इसलिए हमें खुदा की कथनी और करनी दोनों की भरपूर समझ होनी चाहिए। वैसे अगर जमीयत उलमा-ए-हिन्द के उपरोक्त प्रस्ताव पर नज़र डाली जाये तो इस में स्वंय विरोधाभास छुपे हैं। एक ओर तो सरकारी तथा गैरसरकारी संस्थानों को रद्द किया जा रहा है और दूसरी ओर प्रचलित पाठ्यक्रम पर बल दिया जा रहा है।
प्रश्न यह है कि शिक्षण संस्थान दीवार और दरवाजों का नाम नहीं होता बल्कि पाठ्यक्रम उनकी पहचान होते है। अगर आधुनिक शिक्षा के सभी विषय वही रहेंगे जो कि सुकरात, अरस्तू और अफलातून से आरंभ होकर गैलेलियो, न्यूटन, आईस्टाइन, माक्र्स और मेकावले तक पहुंचते हैं तो फिर कैसे बात बनेगी। इसी को कहते हैं ‘‘गुड़ खायेंगे गुलगुलों से परहेज़’’।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मुसलमानों की हर पीढ़ी की शिक्षा कहीं भी होती हो उसका प्रशिक्षण उसकी मां की गोद और उसके घर के वातावरण की देन होता है। इसलिए यह भी कोई कम महत्वपूर्ण बात नहीं कि सरापा रहमत आक़ाए दो जहां स अ ने मुसलमानों को हुक्म दिया कि ‘शिक्षा प्राप्त करो मां की गोद से क़ब्र तक’ और इस प्रकार जनाबे रिसालत ने मुसलमानों के लिए इसको अनिवार्य बना दिया कि वह अपनी बच्चियों को शिक्षा के जे़वर से हर कीमत पर सुशोभित करें क्यूंकि आज की बेटियां ही कल की मां बनने वाली हैं और जब तक वह स्वंय शिक्षित नहीं होंगी उनकी गोद हमारे भविष्य के निर्माण के लिए बुनियादी पाठशाला नहीं बन पायेंगी।
हमें नही भूलना चाहिए कि जिनमें आत्मविश्वास और खुदा पर विश्वास होता है वह न पश्चिम से घबराते हैं न पूरब से डरते हैं बल्कि प्रकृति के इशारे पर अंधकार और अनभिज्ञता की हर अंधेरी रात को सुबह के प्रकाश की खुशखबरी देते हैं। एक बार फिर इक़बाल के शब्दों में:
अफ़कारे ताज़ा से है जहाने ताज़ा की
नमूदकि संगो खिश्त से होते नहीं जहां पैदा
.......................................................(जारी)
Sunday, November 8, 2009
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1 comment:
जनाब आपके इतने अच्छे लेख हम नेट में हिन्दी वालों के सामने नहीं आपरहे हैं, आज सहारा उर्दू में नजर पडी तो हैरत हुई, ब्लाग देखा तो सोचा फिर इसका हम हिन्दी ब्लागर्स को क्यूं नहीं पता, यहां आके देखा तो पता चला कि यह
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पर रजिस्टर नहीं हैं, बराये मेहरबानी फोरन इस ब्लाग को इन पर रजिस्टर करवाये ताकि यह लाखों नेट के पाठकों को दिखायी दे दिया करें जो इन सेंटर पर निगाहें जमाये बैठे रहते हैं
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